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साहित्या मानीधी की कीर्ति स्मृतियाँ
जी साहित्याचार्य
डॉ. पं. दयाच
स्वाति ग्रंथ - 2003
Jain Educational
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
डॉ. पं. दयाचंद साहित्याचार्य स्मृति ग्रन्थ सन् - 2008
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्मृति ग्रंथ- साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
प्रेरणा -
पूज्य उपाध्याय श्री 108 निर्भय सागर जी महाराज एवं पूज्य मुनि श्री 108 अजित सागर जी महाराज
प्रकाशन वर्ष -
वीर. नि. सं. 2534 आश्विन शुक्ला चतुर्दशी सन् 2008
प्रकाशक
* *
श्री गणेश दिग. जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर श्री दिग. जैन पंचायत सभा, सागर (म.प्र.)
सहयोग राशि -
स्वाध्याय
प्राप्ति स्थान.
* श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, लक्ष्मीपुरा, सागर, 2 : 07582-268393 * रत्नेश जैन, रॉयल कम्प्यू टर्स, वन वे रोड, सागर, 2 : 07582-244289, मो. 94254-52106 * श्री दिग. जैन गुरूकुल, पिसनहारी की मढिया, जबलपुर * सुनील कुमार संजय कुमार जैन, महासैल वाले, भोपाल, मो. 94253-76997
अक्षर संयोजन
रॉयल कम्प्यूटर्स वन वे रोड, सागर 470 002 (म.प्र.) R: 07582-244289, मो. 9425452106
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पं.जी 90 वर्ष में स्वाध्याय करते हुए
डॉ. पं. श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य प्राचार्य - गणेश दिग. जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर
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कुण्डलपुर के बड़े बाबा
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अहिंसा परमोधर्मीः यतो धमकी
जनजयत शासनम
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श्री 1008 बाहुबली भगवान जिनालय
श्री वर्णी भवन मोराजी, सागर
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वर्ती आचार्य
चारित्र
१०८ श्री शांतिसागरमा
Jam sonication international
महाराज
प. पू. महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज
www.jainenbrary.org
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संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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www.jainnellbrary.org
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क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी
Jed
i ternational
Use Only
tiry.org
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आचार्य प्रवर प.पू.108 विद्यासागर जी महाराज (ससंघ)
jnabrar-org
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स्मृति ग्रंथ के प्रेरणास्रोत
उपाध्याय 108 श्री निर्भयसागर जी महाराज
मुनि 108 श्री अजितसागर जी महाराज
Je
Edu
temational
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nary.org
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डॉ. पं. दयाचंद साहित्याचार्य स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति
अध्यक्ष
श्री महेश कुमार बिलहरा
कार्याध्यक्ष श्री देवेन्द्र कुमार जैना स्टील
उपमंत्री श्री संजय जैन, भोपाल
स्वागताध्यक्ष
श्री राजेश कुमार पटना
nternational
उपाध्यक्ष श्री प्रकाशचंद बहेरिया
महामंत्री श्री क्रांत कुमार सराफ
उपमंत्री
श्री लख्मीचंद मधुर मिलन
कोषाध्यक्ष
श्री आनंद कुमार, आनंद स्टील
उपाध्यक्ष
श्री ऋषभ कुमार गोयल
मंत्री श्री गुलाबचंद पटना
स्वागताध्यक्ष
श्री दिनेश कुमार बिलहरा
सह कोषाध्यक्ष श्री अनिल नैनधरा
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उपाध्यक्ष
श्री जिनेन्द्र कुमार आकर्षण
मंत्री
श्री प्रेमचंद उपकार एजेन्सी
स्वागताध्यक्ष
श्री सुनील कुमार पटना
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सह कोषाध्यक्ष श्री राजेन्द्र कुमार, केसली
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डॉ. पं. दयाचंद साहित्याचार्य स्मृलि नांथ
परम संरक्षक सदस्य
श्रीमंत सेठ डालचंद जैन
पूर्व सांसद
श्रीमती सुधा जैन विधायक, सागर
सेठ श्री मोतीलाल जैन दाऊ जी, सागर
पं. श्री अमरचंद जैन
शाहपुर
श्री रमेश चंद जैन बिलहरा वाले, सागर
श्री प्रकाशचंद जैन मानक चौक वाले, सागर
श्री प्रेमचंद जैन कर्रापुर वाले, सागर
श्री संतोष कुमार जैन बिलहरा वाले, सागर
श्री संजय कुमार दिवाकर
सागर
श्री अरविन्द जैन ढोलक बीड़ी, सागर
श्रीमती सुमन मोदी
सागर
श्री रत्नेश जैन रॉयल
सागर
Location Hernational
rav.O
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डॉ. पं. दयाचंद साहिल्याचार्य स्मृलि ग्रंथ
प्रबंध संपादक ब्र. किरण दीदी
प्रधान संपादक पं. शिखरचंद साहित्याचार्य
निर्देशक पं. निहालचंद, बीना
संपादक मंडल
डॉ. अनुपम जैन
इन्दौर
पं. विमल कुमार सौंरया
टीकमगढ
डॉ. सुरेन्द्र भारती
बुरहानपुर
डॉ. फूलचंद जैन वाराणसी
डॉ. कमलेश कुमार जैन
वाराणसी
डॉ. कपूरचंद जैन
खतौली
पं.खेमचंद जैन
जबलपुर
पं. शीतलचंद जैन
सागर
पं. राजेन्द्र सुमन
सागर
पं.राकेश जैन रत्नेश
सागर
पं. ऋषभ कुमार जैन बाहुबली कालोनी
श्री नेमीचंद जैन विनम्र
सागर
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डॉ. पं. दयाचंड साहित्याचार्य स्मृलि नांथ सम्मानीय परामर्शदाता विद्वत्जन
पं. शिवचरण लाल जैन
शिवपुरी
पं. शेखरचंद जैन
अहमदाबाद
डॉ. श्रेयांस कुमार जैन
डॉ. जयकुमार जैन मुजफ्फरनगर
बड़ौत
श्री जीवनलाल सिंघई
पं. विनोद कुमार जैन
रजवास
पं. नरेन्द्र कुमार जैन
सागर
डॉ. जीवनलाल जैन
सागर
सागर
पं. ज्ञानचंद जैन
सागर
श्री राजकुमार जैन सीनियर आडिटर, सागर
पं. ताराचंद जैन स्वतंत्रा संग्राम सेनानी, सागर
श्री शिखरचंद जैन
लम्बरदार
Private Personallisen
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
जीवन झाँकी स्मरणीय - ___"सरस्वती पुत्र डॉ. पं. दयाचंद्र साहित्याचार्य से. नि. प्राचार्य श्री दिग. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर का जीवन दर्पण"
सरस्वती पुत्रों के सम्मान एवं अभिनंदन की शाश्वत् परम्परा रही है। जैन समाज के पुरानी पीढ़ी के आर्ष मार्गी विद्वानों में अधिकांश विद्वान दिवगंत हो चुके हैं। अधिकांश दिवंगत विद्वानों के स्मृति ग्रन्थ प्राय: समय के अनुसार प्रकाशित हो चुके हैं। पुरातन विद्वानों की परम्परा में जिन पर समाज को गौरव है तथा जो आध्यात्मिक बुन्देलखण्ड के संत पू. गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज के शुभाषी प्राप्त आज्ञाकारी रहे हैं, उनमें स्वनाम धन्य सरस्वती पुत्र डॉ. पं. दयाचंद्र साहित्याचार्य पूर्व प्राचार्य श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय वर्णी भवन सागर प्रमुख रहे हैं। आपका सम्पूर्ण जीवन महाविद्यालय की सेवा में व्यतीत हुआ है। इनका देहावसान 91 वर्ष की आयु में 12/02/2006 को हो गया है, ऐसे मनीषी आदर्श प्रतिभा के धनी विद्वत-रत्न का स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित कर जैन समाज गौरव का अनुभव करती है। जन्म
आपका जन्म श्रावण शुक्ला नवमीं बुधवार संवत् 1972 तदनुसार 11 अगस्त 1915 (11/08/1915) को सागर जिलान्तर्गत शाहपुर (मगरोन) में शुभवेला में हुआ था । आपके पिता श्री का नाम पण्डित भगवानदास जी भाईजी था, आपकी माताजी का नाम श्रीमती मथुरा बाई था । माता-पिता के धार्मिक संस्कारों का प्रभाव पूरे परिवार पर अक्षुण्ण रूप से रहा । हीरा की खान से हीरा ही निकलता है। यह सुखद संयोग रहा कि स्व. भगवानदास जी भाईजी के पँचों पुत्र देश स्तर के प्रतिष्ठित विद्वत प्रवर हुये, जिन पर समाज आज भी गौरव का अनुभव करती है। सबसे ज्येष्ठ पुत्र स्व. पं. माणिकचंद्र जी स्वर्ण पदक प्राप्त न्याय काव्य तीर्थ, स्व. पं. श्रुतसागर जी प्राचीन नव्य न्याय काव्यतीर्थ, तृतीय पुत्र स्व. डॉ. पं. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य (वर्तमान में स्मरणीय) स्व. पं.धर्मचंद्र जी शास्त्री तथा आज के देश स्तर के सफल प्रतिष्ठाचार्य "पं. अमरचंद्र जी प्रतिष्ठा रत्न/प्रतिष्ठाचार्य" प्रारंभिक शिक्षा एवं गृहस्थ जीवन -
आपकी प्राथमिक शाला स्तर की शिक्षा शास. प्राथमिक शाला शाहपुर में सम्पन्न हुई। आप विशेष धार्मिक एवं संस्कृत साहित्य की शिक्षा प्राप्त करने श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में पू. वर्णी जी के शुभाशीष एवं अपने पिताश्री की प्रेरणा से प्रविष्ट हुये तथा साहित्याचार्य एवं सिद्धांत शास्त्री आदि परीक्षायें मेघावी छात्र के रूप में उत्तीर्ण की। पं. जी का पाणिग्रहण संस्कार सन् 1940 में तहसील खुरई जिला सागर में हुआ था। इनकी पाँच पुत्रियाँ हैं । चार पुत्रियाँ सुखी गृहस्थ जीवनयापन कर रही हैं, सबसे छोटी पुत्री ब्र. किरण जैन अपने पूज्य पिताजी की सेवा कर अपना संयमी एवं व्रती जीवनयापन कर रही हैं, आप भी एम.ए. तथा सिद्धांत शास्त्री हैं ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ महनीय शैक्षणिक सेवायें -
पं. दयाचंद्र साहित्याचार्य ने गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में एक सफल कर्मठ अध्यापक से लेकर प्राचार्य पद तक की महनीय सेवायें 1951 से 2005 तक सम्पन्न की। वर्ष 2001 में पण्डित जी को 51000/- (इक्यावन हजार) की नगद राशि से संस्थागत सम्मानित कर "विद्वतरत्न" की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। इसी वर्ष से पण्डित जी ने अपने वेतन का त्याग कर आजीवन नि:शुल्क सेवा करने का संकल्प लिया तथा जनवरी 2006 तक नि:स्वार्थ सेवा करते रहे । आप आज भी इस उम्र में खड़े होकर नित्यमह पूजन अभिषेक करते थे जो आदर्श एवं अनुकरणीय है। शैक्षणिक एवं समाजगत पुरस्कार -
वीर निर्वाण संवत् 2507 में श्री दि. जैन बड़ा मंदिर कूचा सेठ दिल्ली द्वारा चाँदी पत्र पर "धर्म दिवाकर की उपाधि प्राप्त हुई।" सन् 1990 में "जैन पूजा काव्य" विषय पर डॉ. सर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर द्वारा पीएच.डी की उपाधि, सन् 1981 में भारतीय दि. जैन श्राविकाश्रम सोलापुर (महाराष्ट्र) परिषद् से प्राप्त “साहित्य भूषण" उपाधि प्राप्त हुई । वर्ष 2001 में ऋषभ देव तीर्थंकर विद्वत महासंघ राष्ट्रीय पुरस्कार पू. गणिनी शिरोमणि आर्यिका ज्ञानमती माता जी के शुभाशीष से सम्मानित । वर्ष 2004 में श्रुत संवर्धन पुरस्कार 31000/- की नगद राशि स्मृति चिह्न, शाल, श्रीफल आदि से पूज्य उपाध्याय 108 ज्ञानसागर जी के सानिध्य में श्री अतिशय क्षेत्र तिजारा जी में सम्मानित । अन्य प्रासंगिक तथा समाजगत पुरस्कार एवं उपाधियों से साहित्याचार्य जी का जीवन सुवासित तथा अलंकृत था, वर्ष 1993 में अ.भा. विद्वत शिक्षण प्रशिक्षण शिविर के सफल कुलपति पद पर विभूषित कर रहे । समाजगत सम्मान एवं धर्म प्रभावना -
पं. जी 1952 से 2001 तक भारत वर्ष के विभिन्न शहरों में आमंत्रित होकर “पर्युषण पर्व' में प्रवचन हेतु गये तथा धर्म प्रभावना कर स्वयं सम्मानित होकर महाविद्यालय को भी काफी आर्थिक सहयोग दान स्वरूपव प्रदान किया। अनेक धार्मिक अनुष्ठानों में भी आपने काफी धर्म प्रभावना की। अनेक राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठियों तथा धर्म सभाओं का कुशल संचालन किया । आपने सर्व धर्म सम्मलेन में भी भाग लिया। आपकी प्रभावना पूर्ण सेवाओं का सदैव स्मरण किया जायेगा । आपका धार्मिक जीवन अनुशासन से परिपूर्ण तथा प्रभावना पूर्ण रहा है। लेखनकार्य एवं सम्पादन -
वर्ष 1970 से 1998 तक आपकी प्रकाशित एवं सम्पादित रचनाओं में प्रमुख हैं - जैन पूजा काव्य एक चिंतन, चतुर्विशति संधान महाकाव्य (सम्पादित) पं. मुन्नालाल जी वर्णी रांधेलीय स्मृति ग्रन्थ (सम्पादन) भगवान महावीर मुक्तक स्तवन, पू. वर्णी जी का संक्षिप्त परिचय, "धर्म राजनीति में समन्वय' “विश्व तत्व प्रकाशक स्याद्वादः" अनेक धार्मिक शोधपूर्ण आलेख, अमर भारती 1-2-3 भाग व्याकरण सम्मत कृतियाँ (अप्रकाशित) अन्य प्रकाशित आलेखों की संख्या अभिनंदनीय है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ समापन कथ्य -
सम्यक्दृष्टि भद्र परिणामी होता है । स्व. डॉ. पं. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य भी भद्र परिणामी थे। जब सारे देश में दि. 12 फरवरी 2006 दिन रविवार को श्री 108 भगवान बाहुबली स्वामी का महामस्तकाभिषेक हो रहा था | श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय वर्णी भवन मोराजी सागर में महामस्तकाभिषेक चल रहा था। दिन के लगभग 11:30 बजे तक अभिषेक चला | लगभग पाँच हजार श्रद्धालू इस धार्मिक प्रभावना को देख रहे थे। पू. पं. श्री सजग स्मरण द्वारा विस्तर पर पड़े गोमटेश बाहुबली भगवान के अभिषेक कार्यक्रम की ध्वनि सुन रहे थे। नाड़ी धीमी तथा निराशपूर्ण स्थिति थी। ठीक दिन में 12:50 बजे पू. पं. जी ने णमोकार मंत्र के चिंतन के साथ अपनी जीवनलीला समाप्त की । पण्डितजी का मरण पण्डित मरण सदृश हुआ अंतिम संस्कार में स्थानीय विद्वतजन, उद्योगपति, श्रेष्ठीवर्ग तथा वर्तमान एवं पूर्व शिष्य शामिल हुये । पू. पण्डितजी का सम्पूर्ण जीवन व्यक्तिगत सातिशय विशेषताओं से परिपूर्ण था ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ज्ञान दीप प्रज्वलित रहेगा
डॉ. पण्डित दयाचंद्र साहित्याचार्य जी के स्मृति ग्रन्थ को प्रकाशित करने का कारण यही रहा है कि एक गृहस्थ श्रावक अपने जीवन को कितनी ऊँचाईयों तक पहुँचा सकता है, कितनी ऊँचाईयों का स्पर्श कर सकता है ?
सर्विस के साथ भी एक श्रावक अपने उपयोग को शुभोपयोग में कितना बदल सकता है उसकी सीमा पण्डितजी के व्यक्तित्व से जानी जा सकती है। संघर्षमय जीवन होते हुये भी जिनवाणी माँ की शरण नहीं छोड़ी, फलस्वरूप जिनवाणी माँ का ऐसा आशीर्वाद मिला कि अंत समय तक भी जिनवाणी माँ को स्मरण करते रहे और हृदय में विराजमान कर परलोकवासी हुये। अपने जीवन में स्वाध्याय और लेखनी का साथ नहीं छोड़ा। उनकी लेखनी से निसृत जितना भी जिन भाषित रहस्य है वह सभी भव्य जीवों के हृदय को भी प्रकाशित करेगा । सामाजिक स्तर पर परोपकार करना, नैतिक स्तर पर अपने जीवन को निर्दोष बनाना और धार्मिक स्तर पर जिनवाणी की सेवा कर हृदयंगम करना यह उनके जीवन का परम लक्ष्य था। उनका सम्पूर्ण जीवन दीपक की तरह स्व-पर- प्रकाशी रहा । पण्डितजी ने अपने ज्ञानदीप से समय-समय पर धर्मसभाओं को, शिविरों के माध्यम से भी समाज को तथा नियमित छात्रों को भी जिन भारती से प्रकाशित किया । साहित्याचार्य जी द्वारा लिखित स्मृति ग्रन्थ में जितने भी निबंध या कृतियाँ प्रकाशित हुई उनको पढ़कर सभी श्रावकगण अपने जीवन को भी धर्ममय बनायें और उनके समान जिनवाणी की सेवा करने का संकल्प करें, जिससे अपना जीवन भी प्रशस्त मार्ग पर चलता रहे । यही कारण है कि उनके द्वारा लिखित साहित्य स्मृति ग्रन्थ के माध्यम से प्रकाशित किया गया है।
शुभकामनाओं के साथ.
ब्र. किरण श्री वर्णी भवन मोराजी, सागर
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संस्था के प्राचार्य की स्मृति
श्री गणेश दिग. जैन संस्कृत महाविद्यालय के संस्थापक प्रातः स्मरणीय पूज्य श्री क्षुल्लक 105 श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज की प्रेरणा से आदरणीय श्री भगवानदास जी भायजी शाहपुर वालों ने अपने तीन पुत्रों पं. माणिकचंद जी न्यायकाव्य तीर्थ, पं. श्रुत सागर जी शास्त्री एवं डॉ, दयाचंद जी साहित्याचार्य
इस संस्था संस्कृत एवं धर्म के अध्ययन हेतु प्रेरित किया, एवं यहाँ का संस्थागत छात्र जीवन अपनाने हेतु आर्शीवाद दिया, आदरणीय पंडित माणिकचंद जी इस संस्था में जीवन पर्यन्त शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे । श्री डॉ.पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य जी सन् 1950 से इस संस्था में विद्वान शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे । आपने इस संस्था के प्राचार्य पद को भी सुशोभित किया । सागर नगर के ख्याति प्राप्त मूर्धन्य मनीषी डॉ. दयाचंद जी ने अखिल भारत वर्षीय स्तर पर भी विद्वत सभाओं में विद्वत परिषद में एवं अन्यत्र भी अपनी विद्वत्ता से समाज के लोगों को प्रभावित किया ।
उसका सारा जीवन ही इस संस्कृत महाविद्यालय की सेवामें एवं पूज्य वर्णी जी महाराज की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से पूर्ण समर्पण भाव से व्यतीत हुआ है ।
ऐसे मनीषी विद्वान के निधन से समाज को एक अपूर्णीय क्षति हुई है। ऐसे विरल व्यक्तित्व सम्मान व्यक्त करने हेतु संस्था एवं समाज ने कृतज्ञतापूर्वक एक स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित किये जाने का निर्णय किया है। इस स्मृति ग्रन्थ में उनकी जीवन यात्रा, समर्पित सेवाओं का दिग्दर्शन होगा। ऐसे सेवा भावी विद्वान डॉ. दयाचंद जी के साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियां स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित किये जाने में हम सब का गौरव है ।
हम सभी उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये स्मृति ग्रन्थ में सहयोग करके बीर प्रभु से शांति एवं सदगति की कामना करते हैं।
शुभकामनाओं सहित
vii
(क्रांतकुमार सराफ) मंत्री
श्री गणेश दिग. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर (म.प्र.)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
रजि.म. 1488
श्री भगवान बाहुबलि जिनेन्द्राय नमः श्री दिगम्बर जैन पंचायत सभा,सागर
प्रधान कार्यालय-श्री महेश बिलहरा जी, 280 गांधी चौक, बड़ा बाजार, सागर 470002 (म.प्र.) अध्यक्ष
कार्याध्यक्ष महामंत्री कोषाध्यक्ष श्री महेश विलाराजी श्री राकेश रत्नेशजी डॉ.प्रकाश जैन सिं.प्रदीप कुमार जीरापलिया 3:07582-231237 3:07682-408402 3 :07582-244876 8:07582-223830
मो.9428171239 मो.9425888824 मो.9425835887 मो.9425482000 पंचायतसमामूल उदेश्यः क्रमांक
दिनांक.......................... 1. समाज के कमजोर एवं
असहाय व्यक्तियों की सहायता के लिये प्रयास
2. जैन तीर्थों की सुरक्षा में सहयोग
के प्रयास
3. सच्चे देवशास्त्र गुसकी उपासना हेतुसमाजको प्रेरित करमा
4. सामाजिक कुरीतियों को दूर करने
के प्रयास
सामान पत्र के यातिप्रस पथ मनाली में पं. हाच जी मारियानाम् कचन महाविद्यालय केशल शिक्षा एवं डामा रहें है/जनवा कामा जीवन सी संह महाविद्यालय का समापन वता है)
सश की गणेशाग्रहाद Ghan के आमीनदि को या 8 मेगा टी सारा जीवन किया।
ससे प्रवाशामी विक्षा त्याच जी सालिमात्र सीरिये
5. औषधालयों एवं धर्मशालाओं
के निर्माण एवं संचालन के प्रयास |
6. धर्मप्रचार हेतुपाठशालाओं के
संचालन हेतु प्रयास
7. समाज के सभी अंगों में
सामजस्य स्थापित करते हुए सुसंगठित समाज की संरचना के प्रयास
8. आवश्यकतानुसार समाज हित
के कार्य करने के प्रयास
हामियां " अघालोरला ते पत्रकार समिति निधिना टी. दरमा की या है।
9. अल्पसंख्यकों को मिले अधिकारों
के प्रचार-प्रसार एवं अधिकारों को दिलाने के प्रयास
जनस्वावर
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
सम्पादकीय
राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त स्वनामधन्य सरस्वती के वरदपुत्र स्व. डॉ. पं. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य प्राचार्य श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर (म.प्र.) के व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व पर आधारित "स्मृति ग्रन्थ" साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "लोकार्पित करते हुये सातिशय प्रसन्नता एवं आदरभाव की अनुभूति हो रही है। सरस्वती पुत्रों के अभिनंदन ग्रन्थों एवं स्मृति ग्रन्थों के प्रकाशन एवं समर्पण की परम्परा जिनवाणी की सातिशय प्रभावना की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रही है । आर्षमार्गी परम्परा के प्राचीन वर्णीभक्त विद्वज्जनों में स्मृतिशेष पं. दयाचंद्र जी एक जाने-पहचाने हस्ताक्षर थे। उनका सम्पूर्ण जीवन देवशास्त्र गुरु की भक्ति एवं ज्ञानदान प्रभावना में व्यतीत हुआ।"
स्मृति शेष पं. दयाचंद्र जी यथानाम तथा गुणवाले थे। इनका जन्म श्रावण शुक्ला नवमीं बुधवार संवत् 1972 तदनुसार 11 अगस्त 1915 को सागर जिले के शाहपुर (मगरोन) में हुआ था। पिता स्व. भगवानदासजी भाईजी तथा माता श्रीमती मथुराबाई के धार्मिक संस्कारों का प्रभाव आजीवन संस्कारित रहा । पाँचों सरस्वती पुत्र भाईयों में पं. दयाचंद्र जी तीसरे पुत्र थे। पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज के शुभाशीष का जीवन पर्यन्त पालन कर अखण्ड ज्ञानज्योति को आलोकित करते रहे । इस स्मृति ग्रन्थ को प्रकाशित कराने में प्रेरणा शुभाशीष पूज्य 108 अजितसागरजी महाराज, ऐलक श्री निर्भयसागर जी महाराज (वर्तमान उपाध्याय निर्भय सागर जी) का रहा है।
पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज एवं उपाध्याय रत्न श्री ज्ञानसागर जी महाराज आदि अनेक संतों, भगवंतो, राजनेताओं, विद्वज्जनों, समाजसेवियों, लेखकों, दानदाताओं आदि के शुभाशीष एवं यथाक्रम शुभकामनाओं से यह स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित एवं लोकार्पित हो सका। सभी को नमोस्तुमय क्रम से आभार व्यक्त करते हैं। श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर की ट्रस्ट तथा प्रबंधकारिणी समिति, श्री दि. जैन पंचायत सभा के अध्यक्ष श्री महेश कुमार जी बिलहरा वालों का विशेष आर्थिक सहयोग रहा है एवं श्री दिगम्बर जैन पंचायत सभा शाहपुर के उदार आर्थिक सहयोग हेतु सम्पादक मण्डल उनके प्रति हार्दिक आभार प्रगट करता है। अन्य सभी दानदाताओं के भी हम अत्यंत आभारी हैं । सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रकाशन समिति के संरक्षक, परमसंरक्षक आदि सभी के आभारी हैं। प्रबंध सम्पादिका सुश्री ब्र. किरण दीदी जो स्मृति शेष पण्डितजी की सेवाभावी सुपुत्री हैं, उनके प्रति सादर आदरभाव व्यक्त करते हैं। जीवन पर्यन्त पण्डितजी (पिताजी) की छाया के समान सेवा करती रहीं तथा ग्रन्थ प्रकाशन में अविस्मरणीय कार्य किया, उन्हें नमन।
सभी सहयोगी सम्पादक मण्डल ब्र. रवीन्द्र भैयाजी, ब्र. डॉ. दरवारी भैया, ब्र. राकेश भैया, ब्र. जिनेश
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साहित्य मनीषी की वोर्ति स्मृतियाँ
भैया, विनय भैया (बण्डा) ब्र. प्रदीप भैया सुयश, ब्र. अरूण भैया आदि के ज्ञानवृद्धि की भावना सहित विनय भाव प्रकट करते हैं। पण्डित निहालचंद जी (बीना), पण्डित खेमचंद जी, पंण्डित शीतलचंद जी, पण्डित ज्ञानचंद जी, पण्डित राजेन्द्र कुमार जी, पण्डित फूलचंद जी प्रेमी, पण्डित सुरेन्द्र भारती जी आदि के प्रति सादर आभार व्यक्त करते हैं। हमारे संरक्षक सदस्यों में एवं समिति के सदस्यों, श्रीमंत सेठ डालचंद जी (सागर), सेठ मोतीलाल जी (सागर), श्री महेश जी ( बिलहरा, सागर), श्री ऋषभ जी (मडावरा, सागर), डॉ. क्रांतकुमारजी सराफ (सागर), डॉ. जीवनलाल जी (सागर) एवं प्रकाशचंद जी (मानकचौक) आदि के साथ-साथ हमारे परामर्श प्रमुख राष्ट्रीय स्तर के विद्वज्जनों में पण्डित शिवचरण लाल जी मैनपुरी, पण्डित मूलचंद जी लुहाड़िया, पण्डित अमरचंद जी शाहपुर, डॉ. जयकुमार जी मुजफ्फरनगर, डॉ. कमलेश जी (बनारस), डॉ. शेखरचंद जी ( अहमदाबाद), डॉ. अनुपमजी (इंदौर), डॉ. श्रेयांस कुमार जी (बडौत) आदि विद्वानों के प्रति हम विनयावत हैं। आप सभी विद्वज्जनों ने इस स्मृति ग्रन्थ में सहयोग प्रदान किया है अत: आपका आभार मानते हैं।
स्मृति ग्रन्थ पाँच भागों में प्रकाशित है। जो प्रथम खण्ड में आचार्यों-मुनिराजों के आशीर्वाद, विनयांजलि शुभकामनाओं से सुशोभित है। द्वितीय खण्ड में स्मृति शेष के व्यक्तित्व से एवं तृतीय खण्ड कृत्तित्व से शोभित है । इसके अलावा जैनागम सम्मत, दार्शनिक अभिलेखों सहित चतुर्थ खण्ड शोभित है तथा पंचम खण्ड 20 वीं सदी के दिवंगत विद्वज्जनों के जीवन परिचय से सुशोभित है। हम प्रकाशन संबंधी किसी भी ज्ञात-अज्ञात त्रुटि एवं भूल के लिये सादर क्षमा प्रार्थी हैं। सभी के प्रति सादर भाव है तथा रहेगा। स्मृति ग्रन्थ विद्वज्जनों की स्मृति शेष परम्परा का संवाहक बने, इसी मंगल भाव के साथ पुनः आभारी एवं क्षमाप्रार्थी हूँ। हमारा अनुरोध है -
गच्छतः स्खलनक्वापि, भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः ॥
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विदुषां वशंवदः समस्त सम्पादक मण्डल की ओर से पं. शिखरचंद्र जैन साहित्याचार्य प्राचार्य प्रधान सम्पादक
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
प्रबंध सम्पादक ब्र. किरण दीदी
प्रधान सम्पादक पं. शिखरचंद जी साहित्याचार्य
निर्देशक पं. निहालचंदजी, प्राचार्य
सम्पादक मण्डल
ब्र.जिनेश भैया
2.
ब्र. रवीन्द्र भैया
ब्र. दरबारी भैया
ब्र. विनय भैया
ब्र. राकेश भैया
12. डॉ. सुरेन्द्र “भारती" बुरहानपुर 13. डॉ. फूलचंद जी, वाराणसी 14. डॉ. कमलेश कुमार जी,वाराणसी 15. डॉ. कपूरचंद जी खतौली 16. पं. खेमचंद जी, जबलपुर 17. पं. शीतलचंद जी, सागर 18. पं. राजेन्द्र “सुमन" जी, सागर 19. पं. राकेश “रत्नेश" जी सागर 20. पं.ऋषभकुमार जी (बाहुबली कॉलोनी,सागर) 21. श्री नेमिचंद जी "विनम्र" सागर
6. ब्र. प्रदीप भैया “सुयश" 7. ब्र. जय निशांत भैया 8. ब्र. अरूण भैया 9. पं. रतनलाल जी बैनाड़ा, आगरा 10. डॉ. अनुपम जैन इन्दौर 11. पं. विमल कुमार जी सोरया, टीकमगढ़
सह सम्पादक मण्डल
1. डॉ. संजीव जी "वाराणसी" 2. पं. अभय कुमार जी, बीना 3. पं. नन्हें भाईजी शास्त्री,सागर 4. पं. लालचंद जी,भोपाल
5. पं. राजेन्द्र कुमार जी शाहपुर 6. पं. सुरेशचंद जी “वारौलिया" 7. पं. स्वरूप चंद जी, शाहपुर
___पं. रमेशचंद्र जी, विजनौर
- : सहयोगी बहिनें :ब्र. सुशीला दीदी, ब्र.सुषमा दीदी, ब्र. सुनीता दीदी, ब्र. सुसीमा दीदी ब्र. ऊषा दीदी ब्र. साधना दीदी, ब्र. वंदना दीदी।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
सम्मानीय परामर्शदाता विद्वज्जन 1. पं. शिवचरण लाल जी, मैनपुरी . 10. पं. रतनचंद जी, भोपाल 2. प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी, फिरोजाबाद 11. पं. नरेन्द्र कुमार जी, सागर (भू.पू.कमिश्नर) 3. पं. शेखरचंद जी, अहमदाबाद
12. पं. नेमिचंद जी खुरई 4. पं. भागचंद्र जी भागेन्दु ,दमोह
13. श्री जीवन लाल जी सिंघई,सागर 5. डॉ. जय कुमार जी, मुजफ्फरनगर 14. डॉ. जीवनलाल जी ,सागर
पं.मोतीलाल जी साहित्याचार्य.मोराजी 15. पं. ज्ञानचंद जी, मोराजी 7. डॉ. श्रेयांस कुमार जी, बड़ौत
16. श्री राजकुमार जी (सीनियर ऑडीटर), सागर 8. पं. अमृत लाल जी, दमोह
17. पं. नरेन्द्र कुमार जी गाजियाबाद 9. पं. विनोद कुमार जी, रजवांस
18. वीरेन्द्र कुमार शास्त्री, वर्णी भवन मोराजी
स्मृति ग्रन्थ प्रकाशन समिति अध्यक्ष - श्री महेश कुमार जी बिलहरा, सागर उपाध्यक्ष - श्री प्रकाशचंद जी बहेरिया, सागर (बाहुबली कॉलोनी)
श्री ऋषभ कुमार जी गोयल (बांदरी वाले) सागर श्री जिनेन्द्र कुमार जी "आकर्षण फर्नीचर" (बाहुबली कॉलोनी)
श्री पदम चंद जी, कोल्हार रोड, भोपाल कार्याध्यक्ष - श्री देवेन्द्र कुमार जी "जैना स्टील" सागर महामंत्री - श्री क्रांतकुमार जी सराफ (वर्णी भवन मोराजी) मंत्री- श्री गुलाबचंद जी "पटना"
श्री प्रेमचंद जी "उपकार एजेन्सी" (वर्णी कॉलोनी) उपमंत्री - श्री संजय कुमार जी "महाशैल" भोपाल
श्री लखमीचंद जी "मधुर मिलन" स्वागताध्यक्ष - श्री दिनेश कुमार जी बिलहरा (वर्णी कॉलोनी)
श्री सुनील कुमार राजेश कुमार जी पटना । कोषाध्यक्ष - श्री आनंद कुमार जी "आनंद स्टील" (वर्णी कॉलोनी)
श्री अनिल कुमार जी नैनधरा
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
परम सरंक्षक मण्डल 1. श्री सेठ डालचंद जी (भू.पू. सांसद) सागर 8. श्री रमेश चंद जी, बिलहरा 2. श्रीमती सुधा विधायिका जी,सागर
9. श्री संतोष कुमार जी, बिलहरा 3. श्री सेठ मोतीलाल जी,सागर
10. श्री प्रेमचंद जी कर्रापुर वाले 4. श्री पं. मूलचंद जी लुहाड़िया किशनगढ़ (राज.) 11. श्री अरविन्द कुमार जी (ढोलक) 5. श्री अशोक कुमार जी पाटनी (आर.के. मार्बल्स) 12. श्री सतीश कुमार जी मोदी 6. श्री नरेश कुमार जी सेठी, तीर्थ रक्षा समिति बम्बई 13. श्री राजेन्द्र कुमार जी केसली 7. श्री अमरचंद जी,शाहपुर
14. श्री संजय कुमार जी दिवाकर
संरक्षक सदस्य श्री सकल दि. जैन समाज, शाहपुर 20. श्री राजकुमार जी (सीनियर ऑडीटर) 2. श्री गणेश दि. जैन सं. महाविद्यालय,सागर
21. श्री जे.के. जी जैन मास्टर साब 3. श्री महेश कुमार जी बिलहरा वाले
22. श्री गुलाबचंद विनोद कुमार जी पटना श्री रमेश कुमार जी बिलहरा वाले
23. श्री हर्षवर्धन दिवाकर जी श्री संतोष कुमार जी बिलहरा
24. श्री संजय कुमार जी दिवाकर 6. श्री लखमीचंद जी मधुर मिलन
25. श्री दिनेश कुमार जी पायल वाले 7. श्री देवेन्द्र कुमार जी "जैना स्टील"
26. श्री चौ. प्रकाशचंद संजीव कुमार जी मानकचौक 8. श्री सुनील कुमार राजेश कुमार जी पटना
27. श्री राजकुमार जी टड़ा वाले 9. श्री संजय कुमार जी भोपाल "महाशैल"
28. डॉ. रतनचंद जी जैन शाहपुर 10. श्रीऋषभ कुमार जी प्रदीपकुमार जी “गोयल"
29. पं.एस.डी. जैन नेहानगर,सागर 11. श्री पदमकुमार जी भोपाल कोल्हार रोड
30. श्री कोमलचंद जी बजाज, शाहपुर 12. श्री हेमचंद्र जिनेन्द्र कुमार जी "आकर्षक फर्नीचर"
31. श्री ईश्वरचंद जैन भोपाल 13. श्री प्रकाशचंद जी बहेरिया .
32. श्री महेन्द्र कुमार जी केसली वाले 14. श्रीआनंदकुमार अजित कुमारजीजैन “आनंदस्टील"
34. श्री अजय कुमार जी सतना 15. श्री दिनेश कुमार जी बिलहरा
35. श्रीमती मनोरमा राजकुमार जैन सिरोंज . 16. श्री अनिल कुमार जी नैनधरा
36. श्रीमती राजेश्वरी कुन्दनलाल जैन रायसेन 17. श्री प्रेमचंद जी उपकार एजेन्सी
37. श्रीमती शकुन्तला ऋषभ कुमार जैन भोपाल 18. श्री पूरनचंद जी जैसीनगर
38. श्रीमती सोमाश्री अमृत कुमार जैन कोरवा 19. श्री राजकुमार जी करैया
xiii.
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्मृति ग्रन्थका अनुक्रम दर्पण
खण्ड - प्रथम
आशीर्वाद एवं शुभकामनायें
क्र.
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
मुनिश्री सुधासागर जी महाराज 8. मुनिश्री समता सागर जी महाराज
संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागरजी महाराज
आचार्य योगीन्द्र सागरजी महाराज
आचार्य सुनील सागरजी महाराज उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज उपाध्याय गुप्ति सागरजी महाराज उपाध्याय निर्भय सागर जी महाराज
9. मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
10. मुनिश्री विशुद्ध सागर जी महाराज
11. मुनिश्री अजित सागर जी महाराज
12. मुनिश्री मार्दव सागर जी महाराज 13. मुनिश्री विभव सागर जी महाराज 14. मुनिश्री विमर्श सागर जी महाराज 15. मुनिश्री अनंतानंत सागर जी महाराज 16. गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माता जी
17. आर्यिका दृढमती माता जी
18. आर्यिका सुभूषण मती माता जी
19. आर्यिका विजय श्री माता जी
20. ऐलक निश्चय सागर जी महाराज
21. कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी (हस्तिनापुर)
22. ब्र. जयनिशांत जी प्रतिष्ठाचार्य
23. ब्र. जिनेश भैया जी प्रतिष्ठाचार्य
24. ब्र. सुशीला दीदी, ब्राह्मी विद्या आश्रम
25. ब्र. पुष्पा दीदी (संघस्था मृदु मती माता जी) ब्र. सुषमा दीदी, वर्णी भवन मोराजी
26.
27. ब्र. किरण दीदी, वर्णी भवन मोराजी
28.
ब्र. वंदना दीदी, वर्णी कॉलोनी
-
xiv
पिता तुल्य पण्डित जी सम्मानीय पण्डित जी
महान विभूति साहित्याचार्य जी मेरे पिताजी की सहज स्मृति
मेरे आदर्श पण्डित जी
पृष्ठ सं.
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
शुभकामनायें-विनयांजलि 1. सेठ डालचंद जी जैन (पूर्व सांसद), सागर . मोराजी की निधि 2. श्रीमती सुधा विधायिका जी,सागर - निस्पृह जीवन 3 श्री धीरेन्द्रपाल सिंह (कुलपति) वि.वि. सागर - अद्वितीय प्रतिभा के धनी 4. विट्ठल भाई जी पटेल (पूर्व मंत्री),सागर ज्ञान की निधि 5. आर.एन. शुक्ला(जिला शिक्षा अधिकारी) सम्मानीय व्यक्तित्व 6. सेठ मोती लाल जी जैन,सागर
- दयापुंज 7. सेठ प्रेमचंद जी जैन,सागर
- अविस्मरणीय सेवा भावी 8. महेश कुमार जी, बिलहरा
सागर की धरोहर 9. डॉ. जीवन लाल जी जैन, सागर
जिन पर समाज को गौरव है 10. डॉ. अनुपम जी जैन, इन्दौर
आधुनिक शोध तकनीक में पारंगत
पारम्परिक विद्वान. 11. डॉ. जय कुमार जी जैन, मुजफ्फरनगर
अद्वितीय समर्पण 12. पं. शिवचरणलाल जी जैन, मैनपुरी
मार्दव मूर्ति मनीषी 13. डॉ. रमेश चंद जी जैन, बिजनौर
दयानिधि धाम 14. डॉ. शेखरचंद जी जैन, अहमदाबाद
विद्वता,सरलता एवं समर्पण का
व्यक्तित्व 15. पं. रतनलाल जी जैन, वैनाड़ा
सरल हृदय पण्डित जी 16. डॉ. श्रेयांस कुमार जी जैन, बड़ौत
जैन सिद्धांत पारगामी महा मनीषी 17. प्रो. विमल कुमार जी जैन,वि.वि. सागर - बहुमुखी सरस्वती पुत्र 18. प्रो. हीरालाल जी पाण्डे, भोपाल
- बधाई, शुभकामनायें और नमन 19. डॉ. सुशील जी जैन,मैनपुरी
- पण्डित जी के प्रति श्रद्धा सुमन 20. डॉ. कपूरचंद जी, खतौली
- विनम्रता की साक्षात् प्रतिमूर्ति
पं. दयाचंद जी 21. डॉ. ज्योति जी जैन, खतौली
कसौटी पर खरे : पण्डित दयाचंद
साहित्याचार्य 22. अनूप चंद जी जैन (एडव्होकेट),फिरोजाबाद - आगम निष्ठ आदर्श मनीषी 23. डॉ. नरेन्द्र कुमार जी जैन,गाजियाबाद
- उदार हृदय पण्डित जी 24. डॉ. संजीव जी सराफ, हिन्दू वि.वि. वाराणसी - श्रद्धापूर्ण श्रद्धांजलि 25. डॉ. नेमिचंद जी जैन, खुरई
- मेरी स्मृतियाँ 26. पं. सुरेश चंद जी, "मारौरा" शिवपुरी - जैन समाज के सुमेरु थेपं. श्री दयाचंद जी 27. डॉ. पी.सी. जैन, महा.वि. सागर
- विनम्रता की मूर्ति 28. कपूरचंद जी, पाटनी (गुवाहाटी,आसाम) - सम्मानीय शुभांजलि
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 29. डॉ. आनंद प्रकाश जी शास्त्री, कलकत्ता मेरे सम्मानीय गुरु 30. सिंघई बालक चंद जी जैन, सागर - मेरी स्मृति में पण्डित जी 31. शांति लाल जी, बैनाड़ा
- दयाचंद दया के धनी 32. पं. रमेश चंद जी जैन, जबलपुर
सुरभित सुमनांजलि 33. पं. शीतल चंद जी शास्त्री, सागर
कर्मठ विद्वान पं. दयाचंद जी 34. पं. जयकुमार शास्त्री जी, नारायणपुर । शुभकामना संदेश 35. पं. अमृतलाल जी शास्त्री, दमोह
- समर्पित जीवन 36. सुरेन्द्र सिंह जी "नेगी", सागर
सागर का अनमोल रत्न 37. पं. पूर्ण चंद जी “पूर्णेन्दु" शास्त्री, सागर अनुशासन प्रिय पण्डित जी 38. पं. खेमचंद जी जैन, जबलपुर
मेरे श्रद्धा पूर्ण गुरु जी 39. प्रोफेसर कांति कुमार जी जैन, सागर - एक कृतकार्य मनीषी जो प्रकाश स्तंभ - 41
की भाँति थे 40. ईश्वर चंद जी जैन(इंजी.), भोपाल
वात्सल्य के धनी 41. अशोक सेठ जी पिडरूवा, सागर
___ डॉ. दयाचंद जी का व्यक्त्वि एवं कृतित्व- 42
मेरी नजर में 42. आनंदी लाल जी जैन,बांसवाड़ा
यथा नाम तथा गुण के धनी ममगुरु 42 43. पं.भागचंद जी शास्त्री घरियावत जिला उदयपुर - हिमालय सा हृदय 44. पं.विनोद कुमार सनत कुमार जी रजवांस - सरलता की प्रतिमूर्ति 45. ऋषभ कुमार जी जैन, जिला आडीटर “ईशुरवारा" - अनूठे विद्वान 46. नीरज जैन पार्षद, सागर
मेरे श्रद्धेय पंडित जी 47. आर. के. जैन सीनियर आडीटर, सागर . स्मृति ग्रंथ प्रकाशन में मेरी विनम्र
विनयांजलि 48. श्रीमती हीरा जैन, ईशुरवारा
सहज स्वभावी 49. नंदनलाल जी जैन सराफ, सिरोंज
श्रद्धांजलि 50. शिखरचंद जी कोठिया,सागर
शुभकामना संदेश 51. राजकुमार जी जैन, वर्णी भवन मोराजी
हमारी संस्था के महापुरुष पंडित जी । 52. शिखरचंद जी जैन लम्बरदार, सागर
माँ भारती के उपासक 53. कोमलचंद जी जैन लेखनी-देखनी
- अपार श्रद्धा के प्रतीक मेरे गुरुजी 47 54. महेन्द्र कुमार जी जैन आयुर्वेदाचार्य, सागर - नि:स्वार्थ सेवा भावी 55. पंडित कैलाशचंद जी जैन,जबलपुर
शुभकामना संदेश 56. पं. विजय कुमार जी जैन, वर्णी भवन मोराजी - सरल स्वभावी सहयोगी विद्वान 57. संदीप कुमार जी शास्त्री , जबलपुर
समय के सदुपयोग की शिक्षा हमें पूज्य- 49 पंडित जी के जीवन से मिली
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 58. पं.स्वरूप जी जैन, शाहपुर
अद्वितीय विद्वान 59. महाकवि योगेन्द्र दिवाकर, सतना . पंडित जी निश्चय व्यवहार मैत्री का -
पाठ पढ़ाते 60. पं. शिखरचंद जी जैन,पुरव्याऊ टौरी, सागर
समाज के कल्याणकारी 61. पं. ज्ञानचंद जी जैन, गरोठ (मंदसौर)
विनयांजलि 62. हेमचंद जी जैन (समाज सेवी) सागर (म.प्र.) आत्मीय उदगार 63. श्रीमती शकुन्तला जैन, सागर (इन्दौर बैक) - सरल स्वभावी पंडित जी 64. मनोज कुमार जैन सड़करी
यथा नाम तथा गुण 65. श्रीमती विमला देवी जैन, सुभाषनगर, सागर आदरांजलि 66. डॉ. सुरेशचंद सिंघई, विजय टॉकीज रोड, सागर - पं. दयाचंद जी : एक स्मृति 67. मोनिका सारिका जैन, इन्दौर
- मेरे अनोखे नानाजी 68. गुलझारी लाल जी जैन, ताजपुर
- दिवंगत सरस्वती पुत्र को श्रद्धांजलि 69. योगेन्द्र दिवाकर जी, सतना
किंवदंती पुरुष का पीयूष दर्पण 70. मनोज कुमार जी जैन शास्त्री, सागर
मेरे आदर्श गुरु पूज्य पंडित जी 71. दिनेश जैन (एडव्होकेट), सागर
प्रेरणादायी व्यक्तित्व 72. नीरज नितिन जी जैन, कोरवा
- मेरे नाना जी की सुखद स्मृति 73. प्रदीप कुमार पंकज कुमार जी जैन, सिरोंज - मेरे नाना जी की मधुर स्मृति
काव्यांजलि - कवियों की द्रष्टि में 1. राजेन्द्र कुमार जी जैन “रतन"
- पं.दयाचंद जी साहित्याचार्य के प्रति- 58
भावांजलि 2. योगेन्द्र दिवाकर जी, सतना
- प्राचार्यरत्न,आदर्शकीर्ति, शाश्वत स्वर, 58-59
मोराजी के महामनस्वी 3. पं. फूलचंद जी जैन "योगीराज" छतरपुर - सविनय विनयांजलि
59. 4. बाबूलाल जी फणीश पावागिरि (ऊन) - विद्वत् पीढ़ी की श्रेणी में अजर अमर अब 60-61
नाम है 5. पं. आनंद कुमार जी जैन, सागर
- श्रद्धेय डॉ. पं. स्व. श्री दयाचंद साहित्याचार्य 61-62
के दिवंगत चरणों में सादर समर्पित श्रद्धा
सुमन 6. ज्ञानचंद जी जैन, पिड़रूआ
- पं. दयाचंद साहित्याचार्य जी की स्मृतियाँ 63-64 7. पं. पवन कुमार जी शास्त्री, मुरैना
- डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य वंदनाष्टक 64-65 8. पं. लालचंद जी जैन “राकेश" भोपाल
गरुवर के पावन चरणों में प्रणाम 66-67
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 9. डॉ. (श्रीमती) विमला जैन, फिरोजाबाद - वृष के कर्मवीर
67-68 10. सुखदेव जी जैन, (इंजी.) सागर - पं. दयाचंद साहित्याचार्य के प्रति शुभांजलि 68 11. सुरेश चंद जी, दमोह
- श्रद्धेय पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का 69
शुभांजलि 12. पं. ताराचंद शास्त्री डोंगर गाँव
डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य जी के पावन
चरणों में विनयांजलि 13. श्रीमती बसंती बाई (वीरपुर वाले) - श्रद्धा सुमन 14. श्रीमती चंदा, केवल चंद कोठारी, जबलपुर - हमारे चाचा जी 15. डॉ. (श्रीमती) जयंती जैन, मकरोनिया, सागर - मेरा अति नम्र प्रणाम 16. पं. अखलेश कुमार जी जैन, “भारती" (रमगढ़ा) - सूरज चाँद रहेगा जब तक
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.
खण्ड-द्वितीय
जीवन आइना (व्यक्तित्व) 1. आचार्य सुनील सागर जी
- करूणा व कठोरता के अपूर्व संगम थे पंडित जी 75-76 2. मुनि विभव सागर जी
- मेरे उपकारी - बड़े पंडित जी 76-78 3. डॉ. क्रांत कुमार जी सराफ
- जीवन की महत्वपूर्णता 4. पं. अमरचंद जी शास्त्री, शाहपुर
- मेरे आदर्श मार्गदर्शक अग्रज सरस्वती - 80
पुत्र पंडित जी 5. पं. सुरेन्द्र जी "भारती", बुरहानपुर • सहज,सरल सादगी पसंद पंडित जी 81 6. डॉ. फूलचंद जी “प्रेमी" वाराणसी - अनुकरणीय ज्ञान साधना के प्रतीक 82-83 7. पं. निहालचंद जी, बीना
- डॉ. दयाचंद जी के व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य 83-84 8. पं. सुरेश चंद जी जैन वारौलिया, आगरा - डॉ. दयाचंद जी समाज के आदर्श कीर्ति स्तंभ 85 9. पं. भागचंद्र जी जैन “इन्दु" छतरपुर . - डॉ. दयाचंद जी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व 86 10. पं. सुरेन्द्र कुमार जी सिंघई, बड़ागाँव, टीकमगढ़ - जैन दर्शन के उद्भट विद्वान
87-88 11. पं. नरेन्द्र कुमार जी जैन पूर्व कमिश्नर,सागर - पं. दयाचंद जी के प्रति श्रद्धा सुमन 88-89 12. सिंघई जीवन कुमार जी जैन,सागर - सागर विद्यालय का जागरूक प्रहरी 89-90 13. गुलाबचंद जी जैन ,पटना
- वर्णी विद्यालय रूपी उद्यान के पुष्प 14. नेमिचंद जी रांधेलिया
- शालीनता गरिमा की मूर्ति पंडित जी 92-93 15. नेमिचंद जी जैन भू.पू. बैंक मैनेजर, सागर - पंडित जी भ्रातृत्व गुण की एक मिशाल थे 93-95 16. पं. सुनील कुमार जी जैन 'संचय', सागर - महनीय व्यक्तित्व व कृतित्व के धनी पंडित जी 95-97 17. पं. नन्हें भाई जी शास्त्री, सागर _ - ऐसे गुरु भाग्य से ही मिलते है
97-98 xviii
.
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 18. पं. ज्ञानचंद जी शास्त्री, मोराजी, सागर
गीय व्यक्तित्व के धनी
98-99 19. पं. वीरेन्द्र कुमार जी शास्त्री, विलासपुर सरस्वती के निष्पृह उपासक
99-101 20. पं. जयकुमार जी शास्त्री, नारायणपुर . यशः शरीरेण जीवत्येव, तस्मै श्री गुरुवे नमः 101 21. पं. ऋषभ कुमार जी शास्त्री, सागर - जैन समाज का चमकता ध्रुव तारा 102 22. डॉ. हरिश चंद जीशास्त्री, मुरैना - डॉ. दयाचंद साहित्याचार्य एक स्मृति 103 23. पं. राजकुमार जी शास्त्री, ग्रामीण बैंक, सागर - विद्यार्थियों के मशीहा
104-07 24. पं. उदय चंद जी शास्त्री, मकरोनिया,सागर - श्रद्धा भरी दृष्टि
107 25. पं. राजेन्द्र जी सुमन, सागर
- श्रद्धा के मंदिर
108 26. पं. राजेन्द्र कुमार जी, शाहपुर
- व्यक्तित्व की विशालता
108-09 27. पं. ताराचंद जी, डोंगरगाँव
- मेरे जीवन के प्रकाशक दीपक गुरुजी 110-11 28. अरविन्द कुमार जी जैन, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ इन्दौर - अटल निश्चयी गुरुवर 29. डॉ. संजय जी शास्त्री, तिगोड़ा - गुरुओं के भी गुरु थे पंडित जी 112-13 30. पं कमल कुमार जी शास्त्री, कलकत्ता - एक आदरणीय सत्पुरुष का व्यक्तित्व 114 31. पं. अजित कुमार जी शास्त्री, दिल्ली - एक मनीषी विद्वान का व्यक्तित्व 115 32. पं. श्रवण कुमार जी जैन,बण्डा, सागर - मेरे आदर्श जीवन निर्माता पंडित जी 116 33. डॉ. सधीर जी जैन. गोपालगंज. सागर - अलौकिक गुणों के प्रकाश पुंज थे पंडित जी 117-19 34. कुन्दनलाल जी जैन,रायसेन
- दीप्तिमान नक्षत्र
119 35. पं. वीरेन्द्र कुमार जी जैन, नागपुर - मेरे मार्गदर्शक पंडित जी 36. प्रकाशचंद जी शास्त्री, सागर
- गुरु के प्रति कृतज्ञता 37. राकेश कुमार जी जैन, "रत्नेश"सागर - स्वाति नक्षत्र की बूंद के अद्वितीय मोती 122-23 38. संतोष कुमार जी जैन, भाग्योदय ट्रस्टी, सागर - पंडित जी हमारे ज्ञान प्रदाता
123-24 39. अरविन्द कुमार जी शास्त्री संगीतकार,सागर - उद्भट विद्वान का व्यक्तित्व
125-26 40. ब्र. सुषमा दीदी
- अगाध ज्ञान के भण्डार 41. ब्र. किरण दीदी
- मेरे जीवन के आदर्श पूज्य पिताजी 127-30 42. डॉ. (श्रीमती) आशा जैन, वि.वि.सागर - अनुकरणीय व्यक्तित्व
131-32 43. श्रीमती मणिकेसली,सागर ।
- यथा नाम तथा गुण पंडित जी
132-33 44. श्रीमती मनोरमा राजकुमार जैन,सिरोंज - सागर के मोती
133-34 45. श्रीमती राजेश्वरी कुन्दनलाल जैन,रायसेन - मेरी आँखों के तारे पिताजी 46. श्रीमती शकुन्तला ऋषभ कुमार जी जैन, भोपाल - चंद्र चाँदनी सम मेरे पिताजी
135 49. श्रीमती सोमाश्री अमृत कुमार जी जैन, कोरवा - पिता रूपी सूर्य की स्मृति
135-36 50. श्रीमती ज्योति प्रदीप कुमार जी जैन, नरसिंहपुर • सागर से गम्भीर मेरे नानाजी 51. श्रीमती प्रीति संजय कुमार जी जैन,भोपाल . रत्नसम अमूल्य मेरे नाना जी
137 52. वीरेन्द्र कुमार जी शास्त्री मोराजी, सागर - सरल एवं सहज व्यक्तित्व
137-38 (xix
120
121
126
134
136
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 53. अखलेश कुमार जैन झलोन
- जीवन भर आपका कर्जदार रहूँगा 54. राजकुमार शास्त्री “प्रिंस"जबलपुर - ज्ञान और वात्सल्य के समुन्दर थे पूज्य पंडित जी 55. योगेन्द्र दिवाकर जी, सतना
- सागर के सूर्य की सुखद स्मृति 56. पं. राजेन्द्र कुमार जी ,शाहपुर
- संस्मरण में पंडित जी 57. सुदीप कुमार जैन, सगरा
- मेरे जीवन के प्रकाशक पंडित जी
138-39 140 141 142 142-43
खण्ड-तृतीय
कर्तृत्व डॉ. दयाचंद साहित्याचार्य की लेखनी से निसृत जिन भाषित रहस्य 1. कर्मयुग के प्रवर्तक आदि ब्रह्मा ऋषभ देव
144-51 2. भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा दर्शन
152-71 3. तीर्थंकर भगवान महावीर का जीवन दर्शन
172-83 4. तीर्थंकर महावीर के दर्शन में अपरिग्रहवाद
184-88 5. इतिहास एवं पुरातत्त्व के आलोक में तीर्थंकर महावीर और वैशाली प्रदेश
189-94 6. तीर्थंकर महावीर का समाजवाद
195-96 7. तीर्थंकरत्रय के जीवन का आदर्श
197-200 8. तीर्थंकर परम्परा से प्रवाहित प्राचीन जैन दर्शन में वैज्ञानिक तत्व
201-11 9. महामंत्र णमोकार : एक तात्विक एवं वैज्ञानिक विवेचन
212-22 10. सार्वभौम श्री पर्युषण पर्व का महत्व एवं मूल्यांकन
223-29 11. लोक में श्रमण परम्परा का महत्व एवं उपयोगिता
230-36 12. विश्व तत्त्व प्रकाशक अनेकांतवाद
237-49 13. जैन दर्शन में नय चक्र का वैज्ञानिक अनुसंधान
250-69 14. संयम धर्म का बाह्य उपकरण पिच्छिका एवं पिच्छिका के अनेक विशेष कार्य
270-73 15. शाकाहार और उससे विश्व की सुरक्षा संभव
274-76 16. सम्यक् चारित्र और उसकी उपयोगिता
277-78 17. निमित्त और उपादान कारणद्वय की आवश्यकता
279-85 18. श्रुतपंचमी महापर्व - एक सात्विक चिंतन
286-89 19. धार्मिकता और राष्ट्रीयता में समन्वय
290-302 भारतीय साहि
वं इतिहास के आलोक में कर्नाटक प्रदेश एवं श्रवण वेल्गोल तीर्थ 303-09 21. मार्गणा'
310-24 22. षट्खण्डागम के बंध प्रकरण का सामंजस्य
325-26
(xx
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
23. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
24. भारत के जैन तीर्थ क्षेत्रों का मूल्यांकन
25. पंच स्तोत्र संग्रह: एक समीक्षात्मक परिशीलन
26. सर्वतोभद्र विधान का समीक्षात्मक अनुशीलन
27 तीन लोक विधान का समीक्षात्मक अनुशीलन
28. त्रैलोक्य तिलक विधान का समीक्षात्मक अनुशीलन (ज्ञान मती माता जी का अभिनंदन ग्रंथ देखिये) 29. मूक माटी समीक्षा - पं. मुन्नालाल रांधेलिय- स्मृति ग्रन्थ देखिये
30. आचार्य कुन्दकुन्द की विशेषतायें
31
सेवा का महत्व
32. नैतिक शिक्षा अत्यावश्यक
33. जयोदय महाकाव्य एक पर्यवेक्षण 34. जीवतत्व
35. जैन धर्म के सार्वभौम सिद्धांत
36. रईस और सईस
37. आस्रव तत्व
38. मुनियों की अलौकिक वृत्ति
39. प्रजातंत्र के युग में समाज व्यवस्था
40. पाप के बाप का प्रभाव और उसकी चिकित्सा
41. विभिन्न धर्मो में मुक्ति की मान्यता
42. वैदिक धर्म और जैन धर्म का समन्वय
43. जैन धर्म के अंतर्गत विश्व कल्याण एवं अखण्ड राष्ट्र सेवा
44. जैन धर्म में भक्ति मार्ग
45. जैन धर्म में वैज्ञानिकता
46. भारतीय दर्शनों में आत्म द्रव्य की मान्यता
खोज
47. पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी का शिक्षा जगत में योगदान
48. वर्णी जी के शिक्षाप्रद कुछ संस्मरण
49. व्यक्तित्व के सागर (वर्णी जी)
50. विश्व जैन मिशन का अधिवेशन एक दृष्टि
51. संस्कृत साहित्य सागर के मंथन द्वारा आध्यात्मिक रत्न विशेषों के अन्वेषक पंडित जी की निबंध सूची के अनुसार 13 निबंध अनुपलब्ध 52. अक्षय तृतीया और त्याग का आदर्श
53. मंगलमय श्रुतज्ञान का अवतरण
xxi
327-31
332-34
335-42
343-45
345-46
347
347
347-49
350-52
352-55
355-63
364-65
365-66
366-67
367-68
369
370-71
372-76
377-79
380-83
384-85
386-90
391-95
396-98
399-402
403-05
406-09
410-12
413-18
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 54. भाव भावना और प्रभावना 55. मानव जीवन का महत्व 56. सार्वभौमिक स्याद्वाद 57. सिद्धि और साधक का महत्वपूर्ण विज्ञान 58. अहिंसा और विश्व शांति 59. शांतिनाथ का शांति संदेश 60. जैन बाड्.मय में पूजा स्त्रोत साहित्य 61. जैन दर्शन में सदाचार 62. संस्कृत साहित्य का इतिहास 63. जैन दर्शन में आध्यात्मिक रत्नत्रय का महत्वपूर्ण कथन 64. जैन दर्शन में आत्मा की मान्यता
419-30
430-31
पंडित जी की संस्कृत अभिरूचि - संस्कृत निबंध 1. विश्वतत्त्वप्रकाशकः स्याद्वादः 2. संस्कृत भाषायाः महत्त्वम् व्याकत्वं च 3. संस्कृतभाषायाः महत्वम् 4. गुरू पूर्णिमा वीर शासन जयंती च 5. श्री रक्षाबंधन पर्व विषये निबंध: 6. आत्मशान्ति: विश्वशान्तिश्च 7. उद्योगिनं पुरूषसिंह मुपैति लक्ष्मी: 8. अविचार्य न कर्तव्यम् 9. उदारचरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम् 10. सत्संगति: 11. काव्यस्य आत्मा ध्वनि: 12. ब्रह्मचर्यस्य महत्वम् 13. आचार्य ज्ञानसागरस्य व्यक्तित्वं कृतित्वं च 14. भारतीयदर्शनेषु जैन दर्शनस्य विश्वकल्याण कारकत्वं साधनीयम् 15. जैन दर्शने सर्वज्ञ सिद्धिः 16. आदिकवि: बाल्मीकि: 17. महाकविः श्री कालिदासः 18. महात्मा तिलक महोदय: 19. गीताग्रन्थस्य गौरवगाथा
432-37 438-41 442-47 448-49 450-51 452-53 454-55 456-57
458-60
461 462-65 466-67
468 469-70 471-72 473-77 477-79
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20. पंचदश: अगस्त दिवस (स्वतंत्रता दिवस:) 21 वर्तमान मूल्य वृद्धि:
22. संस्कृत साहित्ये स्तोत्रसाहित्यस्य महत्वम्
23.
भारतस्य आपातस्थिति: भारतराष्ट्रस्य विंशति सूत्र दर्शित: कार्यक्रम :
संस्कृत काव्य कृतित्व
24. वन्दे जिनवरम्
25. वर्णी गणेशो जयताज्जगत्याम्
26. सरस्वती - वंदनाष्टकम्
27. संस्कृत वाणी महत्वम्
28. मंगलकामना (उभयभाषायां)
29. संस्कृतवाण्याः व्यापकता 30. मंगलकामना
31. गंङ्गा वर्णनम्
32. विपत्तिरेवाभ्युदयस्य मूलम्
33. नक्तन्दिनं दहति चित्तमिदं जनानाम्
34. भाऽतुला भारतस्य
35. देश भूषणाष्टकम्
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
36.
जैन मित्रस्य स्वर्णजयंती महोत्सवे
पंडित जी की संस्कृत विषय निबंध सूची के अनुसार पांच निबंध अनुपलब्ध 1. गोपालाष्टकम्
2.
गणतंत्र दिवस:
3.
ज्ञानसागरस्य खण्ड चम्पूकाव्यं
4.
विद्यार्थीनां दिनचर्या
5.
अमर भारत्याः महत्वं
1.
2.
3.
4.
5.
अमर भारती भाग एक
अमर भारती भाग दो
जैन पूजा काव्य एक चिन्तन
महावीर के मुक्तक स्तवन
वर्णी जी का संक्षिप्त जीवन परिचय
पंडित जी द्वारा लिखित कृतियां
xxiii
480
481
482-86
487-88
489
490
490
491
491
492
492
492
492-93
493
493
494
494
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 6. अमर भारती भाग तीन 7. चतुर्विंशति संधान (संपादक एवं संशोधक) 8. पंडित मुन्नालाल रांधेलीय स्मृति ग्रन्थ (प्रधान संपादक) * पंडित जी के सेमीनार दशलक्षण पर्व एवं सम्मान संबंधी विवरण
495-500
चतुर्थ खण्ड पूज्य मुनिश्री एवं विद्वत मण्डल के आगम सम्मत लेख पूज्य उपाध्याय श्री निर्भय सागर जी महाराज - आगम में स्वरूपाचरण चारित्र का स्वरूप 501-106 2. मुनिश्री समता सागर जी महाराज - तीर्थंकर महावीर : जीवन और दर्शन
507-09 3. मुनि निर्णय सागर जी महाराज
तीर्थंकर महावीर
510-12 4. मुनि विशुद्ध सागर जी महाराज - राग द्वेष से संसार भ्रमण
513-17 5. मुनि विशुद्ध सागर जी महाराज - भेद विज्ञान से आत्म ज्ञान
518-21 6. पं. विमल कुमार जैन सोरया, टीकमगढ़ - सूरिमंत्र और उसकी महत्ता
522-28 7. पं. अभय कुमार जैन, बीना - "समीक्षा" जैन पूजा काव्य एक चिंतन
529 ४. डॉ. आर.डी. मिश्र, सागर - वर्णी जी एक युग पुरुष
530-32 9. डॉ. कमलेश कुमार जैन, वाराणसी - स्तोत्र साहित्य में गिरिनार
533-36 10. पं. शिवचरण लाल जैन, मैनपुरी - जैन धर्म में मूर्ति पूजा
537-545 11. डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन "भारती", बुरहानपुर . राष्ट्र कल्याण में श्रावक की भूमिका
546-54 12. डॉ. फूलचंद जैन "प्रेमी" वाराणसी
जैन धर्म-दर्शन में सम्यग्ज्ञान : स्वरूप और महत्व 555-62 13. डॉ. कपूरचंद जैन , खतौली
- भगवान महावीर की अहिंसा और पर्यावरण संरक्षण 563-66 14. पं. अमरचंद जैन "शास्त्री" शाहपुर - मनुष्य में सर्व सामर्थ
567-68 15. डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत
- श्रमणचर्या का अभिन्न अंग अनियत विहार 569-76 16. डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन, गाजियाबाद
सल्लेखना के परिप्रेक्ष्य में भगवती आराधना में - 577-85
वर्णित ज्ञानी और अज्ञानी के तप का स्वरूप 17. पं. सुरेशचंद जैन, बारौलिया, आगरा केरल में जैन स्थापत्य और कला
586-90 18. सुखदेव जैन (इंजी.) मकरोनिया, सागर - एक सुख शान्ति का रास्ता
591-92 19. श्री आनंदकुमार जैन, वाराणसी - सागारधर्मामृत में सल्लेखना
593-603 20. डॉ. आनंद प्रकाश शास्त्री, कलकत्ता - आगम के आलोक में अनुयोग का कथन 604-07 21. डॉ. नेमिचंद जैन, खुरई,जिला-सागर - आगम की दृष्टि में सम्मेद शिखर
608-11 22. पं. गुलाबचंद दर्शनाचार्य , जबलपुर - जैनागम के मूर्धन्य मनीषी आचार्य समंतभद्र का- 612-16
व्यक्तित्व एवं कृतित्व 23. पं. खेमचंद जी "शास्त्री", जबलपुर संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज 617-19
के दर्शन से लोक कल्याणकारी भावना की अनुभूति . 24. पं. शिखरचंद साहित्याचार्य, सागर - अनंत धर्मात्मक वस्तु का अनेकांतवाद 620-28
-xxiy
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
जन्य विशुद्ध स्वरूप 25. पं. अमृतलाल जैन "शास्त्री", दमोह - विरागता से मुक्ति 26. पं. शीतलचंद जैन "शास्त्री", सागर • मनुष्य भव में संयम का महत्व 27. ऋषभ कुमार जी जैन 'ईशुरवारा' सागर - जैन गृहस्थ के संस्कार 28. महेन्द्र कुमार जैन आयुर्वेदाचार्य , सागर . पर से भिन्न आत्मदृष्टि
629-32 632-36 637-41
642-44
645-48
648-50
650-51
652-53
खण्ड - पांच बीसवीं सदी के दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय 1. देवेन्द्र कुमार जी जैन, शाहपुर - पं. भगवानदास जी भाईजी शाहपुर 2. नेमिचंद जी जैन, बैंक मैनेजर, सागर - पं. माणिकचंद जी जैन का व्यक्तित्व एवं कृतित्व 3. ईश्वरचंद जी जैन (इंजी.), भोपाल - पं. श्रुत सागर जी का जीवन परिचय 4. पं. ताराचंद जी जैन (सेनानी), सागर - स्व. पं. दयाचंद जी "सिद्धांत शास्त्री" व्यक्तित्व
एवं कृतित्व 5. पं. नरेन्द्र कुमार जी (पूर्व कमिश्नर), सागर - पं. ताराचंद जी सराफ के धार्मिक जीवन की एक
झलक 6. ब्र. राकेश भैया
- सल्लेखना के पथिक, पंडित जी 7. पं. अमरचंद्र शास्त्री, शाहपुर - स्व. पं. धरमचंद्र शास्त्री जीवन परिचय ४. सेठ मोतीलाल जैन, सागर - आशुकवि स्व. पं. फूलचंद जी जैन पुष्पेन्दु का
जीवन परिचय
654-56
657-60
661-62
663-65
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खण्ड-प्रथम
h
परस्परोपग्रहोजीवानाम्
आशीर्वाद एवं शुभकामनाएँ
Jain Education Intemational
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का
आशीर्वाद
पं. दयाचंद्र साहित्याचार्य स्मृति ग्रन्थ के संदर्भ में आशीर्वाद देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि पंडित जी आदर्श श्रावक थे, वे स्वयं तो आदर्श थे ही, वे क्या उनका पूरा परिवार ही आदर्शमय रहा है। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन जिनवाणी की सेवा में ही समर्पित किया है। वर्णी भवन मोराजी संस्कृत महाविद्यालय के प्रति उनका पूर्ण समर्पण रहा है। अंतिम कुछ वर्षों तक उनकी विद्यालय के प्रति नि:स्वार्थ सेवा भी रही है। पंडित जी के आशीर्वाद के साथ-साथ आचार्य श्री ने पंडित श्रुतसागर जी को भी स्मरण किया है। ऐसा भरपूर आशीर्वाद स्मृति ग्रन्थ में आचार्य श्री ने दिया है ।
- आचार्य विद्यासागर
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
मेरी - मंगल कामना
-
दया चंद्र पंडित महा शुभ साहित्याचार्य ज्ञान ध्यानी निस्पृह, इसमें नहीं आश्चर्य पिता बने भगवान हैं, जैसे मथुरा जन्म शाहपुरा के शाह ने धन्य किया है जन्म सात्विक तब जीवन रहा, मन में उच्च विचार ऐसे वे नर रत्न थे, हृदय भारती सार
थाना गुण महा, कोमल हृदय महान ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा, धर्म बढ़ावे शान मेरा शुभआशीष है, ग्रंथ श्रेष्ठ बन जाय "योगी" का यह भाव है, सब जन लाभ उठाये
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
आशीर्वचन
श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर (म.प्र.) जैसे गौरवशाली महाविद्यालय के लगभग दो दशक तक प्राचार्य रहे और डॉक्टर (पंडित) दयाचंद्र जी साहित्याचार्य क्षुल्लक श्री गणेश वर्णी
के प्रत्यक्ष परोक्षशिष्य जैसे थे । वे वर्णी जी के संस्मरण बड़ा रस लेकर सुनाया करते थे वे स्वयं वर्णी जी के अनेक गुणों का अनुशरण करते थे । उनके सानिध्य में मेरे विद्यार्थी जीवन के सात-आठ वर्ष बीते हैं ।
2
मेरे जीवन को जीवन्त शिक्षालय बनाने का श्रेय पंडित जी को है । उनके सहयोगी प्राध्यापक विद्वान पंडित मोतीलाल जी साहित्याचार्य, पंडित ज्ञानचंद्र जी व्याकरणाचार्य, पंडित वीरेन्द्र जी साहित्याचार्य, (स्व.) पंडित सरेश चंद्र जी शास्त्री,
पंडित विजय कुमार जी शास्त्री, पंडित भागचंद्र जी शास्त्री तथा प्रफुल्ल जी (वर्तमान पद्मसागर जी) ने भी पंडित जी का अनुशरण किया । ब्रह्मचारिणी किरण जी की प्रेरणा से पंडित जी मृत स्मृति ग्रंथ निकाला जा रहा है। यह श्रेष्ठ मनीषी का पावन स्मरण है, श्रेष्ठ कार्य है। इस हेतु मेरा सभी को शुभाशीष । पंडित जी को क्रमशः उत्तमगति की प्राप्ति हो, ऐसी मंगल भावना है।
बालाचार्य योगीन्द्र सागर
आचार्य सुनील सागर औरंगाबाद
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
आशीर्वाद पंडित श्री दयाचंद्र जी साहित्याचार्य का नाम विद्वानों की अग्रिम पंक्ति में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। पंडित जी साब की सहृदयता, निरभिमानता, सहजता, सरलता सभी के लिए अनुकरणीय है। आदरणीय पंडित जी
साब ने साहित्य के क्षेत्र में निस्वार्थ भाव से आजीवन वर्णी संस्कृत महाविद्यालय में प्राचार्य पद को सुशोभित किया। ___पंडित जी साब की विद्वता एवं साहित्य के प्रति रूझान को देखते हुए 'श्रुत संवर्द्धन संस्थान मेरठ द्वारा सम्मानित किया गया।' आदरणीय पंडित जी साब के बचपन से ही परिवारिक, धार्मिक संस्कार होने से सभी भाईयों को मां जिनवाणी की सेवा करने का गौरव प्राप्त हुआ है। क्षुल्लक अवस्था में आपके ही बड़े भाई पंडित श्रुतसागर न्यायतीर्थ के द्वारा श्लोकवार्तिक अष्टसहस्री जैसे न्यायग्रंथों के पठन-पाठन का सहयोग मिला। इसी तरह सामान्य जनों को भी जिनवाणी मां की सेवा करते हुए अध्यात्म ग्रंथों के गूढ रहस्यों को समझना चाहिए।
उपाध्याय ज्ञानसागर
शिक्षक श्रेष्ठ प्राचार्य श्री दयाचंद जी शास्त्री के स्मृति ग्रन्थ पर बहुत बहुत आशीर्वाद
___एक अध्यापक का संतोष संपदा से मिलने वाला संतोष कभी नहीं होता । उसकी खुशियाँ सद्विचारों को अनंतता की यात्रा में सक्रिय कर देने में सन्निहित होती हैं। वह जानता है कि दो वस्तुएँ कभी नहीं मरती - चिन्तन और चरित्र | शिक्षक श्रेष्ठ पंडित श्री दयाचंद जी इन्हीं दो के लिए जीते रहे।
पंडित जी साब का जीवन सदैव सादा साफ-सुथरा कंचन नीर रहा है । सहिष्णुता और क्षमा आपके चरित्र के दो महत्व के गुण है। गमकश आप ऐसे रहे है कि गम को कभी गम माना ही नहीं। प्रतिकूलताओं का स्वागत करते हुए विकास यात्रा पर रहे । आपकी हावी सीमित साधनों मे आनंद पूर्वक जीने की रही। ___ जहाँ तक क्षुल्लक पंडित गणेश प्रसादवी संस्कृत महाविद्यालय में पढ़ाना, प्राचार्य पद पर आसीन रहे निर्देशन देना व समाज सेवा का प्रश्न है पंडित जी का मानदण्ड पैसा पर कभी नहीं रहा। आपकी मान्यता थी कि समाज से पैसा ऐंठ कर सेवा करने से सेवा की महत्ता घट जाती है और उसके वे परिणाम नहीं निकलते जो निकलने चाहिए । इसीलिए
आजीविका के अतिरिक्त अन्य किसी सामाजिक कार्य को पैसे की निसेनी बनाने से आप • बराबर इंकार करते रहे। आप पर कबीर की पेट समाता लेय तथा तुलसी की जथालाभ संतोष जैसी उक्तियाँ सटीक चरितार्थ होती है। हाथ हाथ से परे आपका जीवन सब्र और सकून का असीम-अनंत दरिया रहा है। आपने एक आदर्श और समर्पित शिक्षक के रूप में सारी उम्र जिया है। अस्तु आप पर जफर का एक शेर खरा उतरता है।
इस जमाने में न आते हों जिसे मक्रो-फरेफ। सच तो यह है कि जफर कहिये वली ऐसे को। इन्ही भावनाओं के साथ आपको बहुत बहुत आशीर्वाद ।
उपाध्याय-गुप्तिसागर
(3.
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
शुभाशीष यथानाम तथा गुण को चरितार्थ करने वाले अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सरस्वती पुत्र भद्र परिणामी डा.
पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य जी को मैने नजदीकी से देखा है । उन्होंने जैन जगत के धर्म, दर्शन, इतिहास, शिक्षा समाज एवं संस्कृति को लेकर अपनी मधुर वाणी और लेखनी से महान कार्य किया है। पंडित जी ने श्री गणेश प्रसाद दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय वर्णी भवन मोराजी सागर (म. प्र.) में प्राचार्य पद पर रहकर पूरा जीवन लगाया है। ऐसे महामनीषी को लेकर मेरी पहले भावना थी कि पंडित जी | का अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित हो परंतु ऐसा संभव नहीं हो सका । अब ब्रह्मचारणी
बहिन किरण जी (पंडित जी की पुत्री) की भावनानुसार स्मृति ग्रंथ प्रकाशित होने जा रहा है । अत: इस महान ग्रंथ के संपादन के गुरूतर भार का निर्वहन करने वाले संपादक मंडल, प्रकाशन समिति, परामर्शदाता एवं विद्वतजनों को मंगलमयी शुभाशीष ।
आशा है कि इस स्मृति ग्रंथ से देश विदेश में रहने वाले ज्ञानी भव्यात्माओं को शुभ संदेश, ज्ञान और मार्गदर्शन मिलेगा।
- उपाध्याय निर्भय सागर
आशीर्वाद ___पूज्य मुनि श्री सुधा सागर जी महाराज ने विद्वत वर्ग के सामने चर्चा करते हुए कहा कि पंडित दयाचंद जी बड़े सरल स्वभावी थे, युवा पीढ़ी को संस्कारित करने में बहुत दक्ष थे, यहाँ तक कि बच्चों को घर घर से पाठशाला में पढ़ाने के लिए लाते थे । गणेश प्रसाद जी वर्णी की आज्ञा का ऐसा पालन किया कि संस्था के प्रति जीवन भर समर्पित रहे अंत समय तक सेवा भाव से
| विद्यार्थियों को पढ़ाते रहे, ऐसे कर्तव्य परायण विद्वान के स्मृति ग्रन्थ निकालने के लिए मेरा बहुत बहुत आशीर्वाद है ।
मुनि सुधासागर
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
आशीर्वाद
पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य का जीवन सरल और श्रमजीवी रहा है । गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत
महाविद्यालय (सागर) के प्राचार्य पद से सेवा निवृत्त होने के बाबजूद भी आपने विद्यालय और विद्यार्थियों के हित में हमेशा ध्यान दिया। देव, शास्त्र, गुरू के प्रति अनन्य श्रद्धा आपका विशिष्ट गुण था। जिनवाणी की सेवा और श्रावक योग्य दिनचर्या बनाकर आपने अपना जीवन बड़ा ही सहज और सात्विक बनाया। विद्वता के रूप में तो मैं बाद में परिचित हुआ, बचपन में उनका स्नेह भाव बहुत ही अच्छा लगता था । चूंकि गृहस्थावस्था में मेरी मामी के वह पिता श्री थे अत: जब तक
उनके पास जाने का अवसर मिलता था। जब वह कभी धार्मिक अध्ययन करने की प्रेरणा भी देते थे। उनकी सब से छोटी पुत्री किरण जी ने अपनी मां के निधन पर पुत्र जैसा भाव मन में जगाकर पिता श्री को सहारा देने का संकल्प किया । एतदर्थ जिनवाणी का अध्ययन अध्यापन करती हुई एम.ए. की डिग्री लेकर धर्म के क्षेत्र में सिद्धांत शास्त्री की परीक्षा भी पास की। जीवन के अखिरी क्षणों में भी ब्र. किरण जी ने नमोकार मंत्र से सम्बोधन देकर अपने जीवन के श्रेष्ठ पुत्री-कर्त्तव्य का निर्वहन किया। जैन समाज सागर ने सन् 2001 में हम तीन महाराजों की उपस्थिति में प्रवचन- सभा में जब पण्डित जी का जो सम्मान किया था, तब विनम्रता भरे उद्गार पण्डित जी ने जो समाज और संस्था के प्रति व्यक्त किये थे वह आज भी मेरी स्मृति में है। पण्डित जी निकट भवों में शीघ्रातिशीघ्र रत्नत्रय की परिपूर्णता प्राप्त कर मुक्ति सुख प्राप्त करें ऐसी शुभकामना है। ___'साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ग्रन्थ प्रकाशित करने वाले सभी सुधी विद्वान एवं श्रावक बंधुओं को शुभाशीष ।
मुनि समता सागर
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
शुभाशीष सहज, सरल स्वभावी पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य जैन जगत् के एक श्रेष्ठतम विद्वान रहे है । देव
| शास्त्र और गुरू के अनन्य भक्त पंडित जी ने जैन संस्कृति की अनुपम सेवा की हैं। अपने प्रभावक प्रवचनों/शोधालेखों से उन्होंने जैन संस्कृति को पल्लवित किया है। वर्णी भवन मोराजी के प्राचार्य पद पर रहते हुए उन्होने अनेक विद्वानों को | तैयार किया है । वयोवृद्ध हो जाने के बाद भी वे बड़े दृढ़ अध्यवसायी रहे हैं । उनके | इस अवदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
पंडित जी के स्मरण में समाज स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन करा रही है, यह एक
श्लाघनीय प्रयास है । इस प्रयास से समाज को पंडित जी के योगदानों का सही मूल्यांकन करने का अवसर प्राप्त होगा।
- मुनि प्रमाण सागर
शुभाशीष अध्यात्म जगत में विश्वगुरूता को प्राप्त श्रमण संस्कृति में अनेक तत्व मनीषी आचार्य, उपाध्याय, साधु भगवन्त हुए हैं। जिन्होंने वाग्वादिनी के कोश को वृद्धिंगत किया। आत्मान्वेषी, सम्यक्त्व प्रतिपादक
व परम समरसी भाव में लवलीन वीतराग मार्ग के पथिक श्रमणों के द्वारा जिनशासन अनादि से जयवन्त चला आ रहा है।
समयसार भूत आत्माओं के उपासकों द्वारा भी समय समय पर जिनशासन की प्रभावना की गई है। जिनभारती के भक्त विद्वानों ने अथक परिश्रम कर नमोस्तु | शासन को अपनी ज्ञान गरिमा से पुष्पित व फलवित किया है उनमें से साहित्याचार्य | पंडित दयाचंद्र शास्त्री भी एक है। भद्र परिणामी, साधुभक्त, जिन प्रवचन प्रेमी थे।
पंडित जी सन् 2000 के सागर चातुर्मास में आप नियमित श्रोता के रूप में प्रवचन सभा में बैठते थे। तत्व चर्चा एवं गोष्ठियों में अच्छी रूचि रखते थे। ऐसे सरल स्वभावी विद्वान की स्मृति में "साहित्य मनीषी की कीर्ति-स्मृतियाँ" अभिनंदन ग्रंथ के रूप में श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर (म.प्र.) प्रकाशित कर रहा है । श्रेयोकार्य हेतु शुभाशीष । इति शुभम् भूयात्
मुनि विशुद्ध सागर
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
जीर्णशीर्णकाय में व्यक्तित्व का खजाना
एक जीर्णशीर्णकाय में व्यक्तित्व का खजाना जो आज समाज और जिन शासन के लिए अद्भुत उदाहरण देकर अस्ताचल की ओर चला गया। वे व्यक्तित्व पंडित श्री दयाचंद जी शास्त्री थे । जिनके जीवन का मुख्य ध्येय ज्ञान धन रहा, जड़ धन रूपया, पैसों का मोह नहीं रहा । श्री गणेश प्रसाद वर्णी जी की बगिया में बहुत सारे ज्ञान पुष्प खिले, उन पुष्पों में से एक पुष्प पंडित जी भी थे। मैंने जब उन्हें देखा और क्षुल्लक श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी जी के बारे में पढ़ा था कि वे बहुत भोले सहज, माया प्रवंचना से परे थे । वैसा ही व्यक्तित्व हमने पंडित जी में देखा। हमने जब भी देखा स्वाध्याय ध्यान आदि को करते और कराने में ही लगा देखा । इसलिए उन्हें इसी शांत परिणामी स्वभाव के कारण जीवन के अंत समय तक उसका प्रभाव एवं संस्कार उनमें देखा गया।
जन्म की उत्कृष्टता यदि है तो मरण के समय सजग और सावधान रहने में है । आधुनिक भौतिक साधनों अपने आपकी श्रेष्ठता को देखने वाला नियम से अज्ञानी की कोटि में आता है, लेकिन सही ज्ञानी जीव बाहरी भौतिक साधनों से नहीं, आत्मिक सुख साधन ज्ञान की आराधना उपासना है। ज्ञान को चरित्र की कसोटी पर कसकर उसकी ओर निखारता है। पंडित जी ने अपने जीवन काल में ज्ञान की आराधना उपासना की साधना श्रावक के व्रत रूपी चारित्र की कसौटी पर कसकर अपने आपको सुन्दर बनाने का कार्य किया जो विद्वत समाज के लिए अनुपम उदाहरण बनकर गये है। विद्वान यदि व्रती बनता है उसके चारित्र की महिमा को अच्छे से बखान कर सकता है इसलिए आज विद्वत वर्ग को प्रेरणा लेनी चाहिए और ज्ञान के साथ चारित्र भी लेकर जिन धर्म की प्रभावना करनी चाहिए ।
पंडित जी को मैंने इतना वृद्धावस्था में देखा वे सदा सम्यग्ज्ञान को अपने उपयोग का विषय बनायें रखते थे । प्रात: काल यदि घूमने जाते तो रास्ते में स्त्रोत पाठ करते थे । मेरा मोराजी में उनके मरण के 6 माह पूर्व जब वर्णी भवन मोराजी विद्यालय का शताब्दी समारोह का कार्यक्रम हुआ था उस समय प्रवास था। एक दिन पंडित
वर्णी भवन की परिक्रमा प्रातः काल घूमने की दृष्टि से लगा रहे थे और साथ में पाठ करते जा रहे थे। हमने सहज पूछा क्या हो रहा है पंडित जी ? उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर नमोस्तु कर कहा - महाराज शरीर जाम न हो जाये इसलिए थोड़ा चलाता रहता हूँ, नहीं तो यह अंत समय में परेशान करेगा। हमने फिर पूँछा कुछ पढ़ भी तो रहे हो पंडित जी, पंडित जी बोले - महाराज शुभोपयोग बना रहे इसलिए संस्कृत स्त्रोतों का पाठ भी करता रहता हूँ,
हम आश्चर्य भरी दृष्टि में कहा- इतनी उम्र में भी आपको स्तोत्र पाठ आदि सब याद है पंडित जी ? पंडित जी बोले- महाराज ज्ञान ही एक ऐसा जो एक बार अच्छे से ग्रहण किया जाये तो अंत समय तक साथ देता है। गुरूजनों का आशीर्वाद और कृपा है हमें आज भी सब याद है ।
इस प्रसंग से हमने पंडित जी के जीवन से यही शिक्षा ली कि ज्ञान आराधना में हमें सदा तत्पर रहना चाहिए। उसे मात्र शब्दों तक नहीं अंत रंग जीवन में उतारना चाहिये । इतनी उम्र में भी इतनी स्मरण शक्ति यह सब पूर्व के संस्कार का परिणाम है।
ऐसे व्यक्तित्व और सरस्वती के आराधक ज्ञान चिन्तन के धनी पंडित जी का जीवन सदा शुभोपयोगमय
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रहता था। और आपने वर्णी जी के सपनों को साकार करने के लिए सारा जीवन लगा दिया ऐसे व्यक्तित्व के धनी के व्यक्तित्व मयी जीवन से हमें प्रेरणा लेना चाहिए। इसी भावना को लेकर हमने सागर समाज के प्रमुख लोगों को प्रेरणा दी, की ऐसे व्यक्तित्व को तो जन जन तक पहुंचाना चाहिये । समाज ने स्वीकार किया और उनके व्यक्तित्व को स्मृति ग्रंथ के रूप में प्रकाशित करने का निश्चय किया। मैं उन सभी श्रावकों एवं साधको को बहुत बहुत शुभआशीष के साथ यही भावना करता हूँ कि पंडित जी के व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को ज्ञान आराधना के साथ अपने आपको चारित्र की उपासना में लगाये और अपने आपको धन्य बनायें। अन्त में सभी को बहुत बहुत शुभआशीष जिन्होंने इस स्मृति ग्रंथ के कार्य में अपना सहयोग दिया।
ॐ शांति
मुनि अजितसागर
शुभाशीष
"पंडित श्री दयाचंद्र साहित्याचार्य' परिश्रमी अनुशासन प्रिय, निरीह, स्वाभिमानी, दृढ़प्रतिज्ञ विद्वान पण्डित थे। "विद्वानेव जानाति विद्धज्जन-परिश्रमं" मै जब श्री. दिगम्बर जैन संस्कृत विद्यालय में पढ़ता था तब
आपका परिश्रम देखकर परिश्रम का पाठ सीखता था । समय पर क्लास में उपस्थित होना, विद्यार्थियों को उचित दंड देकर सुधारना आपका सहज स्वभाव था। आपके सभी भाई, पंडित और जैन धर्म के प्रभावक थें। आपने और आपके भाई पण्डित श्री माणिक चंद्र जी न्यायाचार्य ने मुझे विद्यार्थी अवस्था में मध्यमा से लेकर जैन दर्शनाचार्य तक अध्ययन कराया। जो चिरस्मरणीय है। मेरे लिए अध्ययन की प्रेरणा देने में आपका अद्वितीय सहयोग रहा जिससे मैं अब किसी के सहयोग बिना भी साहित्यिक कार्य | संपादित करता रहता हूँ।
मेरे क्षुल्लक ऐलक से मुनि हो जाने के बाद आचार्य विद्यासागर जी (मेरे सर्वगुरू) जब मोराजी विद्यालय पधारे । तथा आपसे भेंट हुई, बड़ा हर्ष हुआ चर्चाये हुई दुबारा फिर आचार्य गुरूदेव का सागर में आगमन हुआ तथा मैं आहार के बहाने आपसे मिलने गया उस समय आप पूजा विषयक पी.एच.डी. कर रहे थे।
उसको देखकर मैं हर्षित हुआ इतनी उम्र में भी इतना श्रम यह सीख मिली । एक बार जब मै श्री दिगम्बर जैन कलातिशय क्षेत्र आदिश्वर गिरी से दमोह नसिया जी के इंद्रध्वज विधान में आया तो आपको मंच पर भाषण का अवसर देकर सम्मान करवाया। ___ जब में रिछावर के इंद्रध्वज विधान के पश्चात् नेहानगर, मकरोनिया, वर्धमान कॉलोनी, शान्ति नगर
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (भाग्योदय) आया । चातुर्मास की अष्टानिका में वर्द्धमान कॉलोनी में इंद्रध्वज विधान हुआ । उसमें पंडित जी को दो तीन दिन बुलवाया गया । मार्मिक वक्तव्य दिये। उसी समय तत्व विचार का पुनः संपादन चल रहा था।
आप देखकर प्रसन्न हुए बृद्धावस्था में भी आप बिना सहारे के उठ बैठ जाते थे ।
विदुषी पुत्री / किरण जी को शिक्षित करने का कठिन श्रम आपने पूर्ण किया, श्रावकीय गुणों से परिपूर्ण आपने जब चौका लगाया, तब मेरे आहार हुये, पूरे आहार के समय आप खड़े होकर आहार चर्या को सम्पादित कराते रहे।
स्वाधीनता देखकर आत्मा के अनंत बल का प्रत्यक्ष भान हुआ यह अंतिम मिलन था ।
योग के बाद पठा में होने वाले सिद्धचक्र विधान में चला गया। गोम्मटेश्वर श्रवण बेल गोला में महामस्तकाभिषेक का मांगलिक कार्यक्रम चल रहा था, अन्यत्र सर्वत्र भी धर्ममय वातावरण था। मोराजी के सर्व सुन्दर भगवान बाहुबलि का भी महाभिषेक हो रहा था। उसी समय 12.35 बजे नश्वर शरीर छूट गया। यादें शेष रह गई। उनको मेरा शुभाशीष रहे ।
पंडित शिखर चंद्र जी से यह ज्ञात हुआ कि पंडित जी का स्मृति ग्रंथ सम्पादित हो रहा है। यह जानकर ह हुआ, सम्पादक मंडल से यह चाहता हूँ कि इसको ज्ञान से भरपूर करें ।
"भद्रं भूयादिति कल्याणं कलयतु शुभं संतनोतु । "
शुभाशीष
विगत वर्ष शिक्षागुरू पंडित जी के अमरत्व होने का समाचार जैन गजट पत्र के माध्यम से प्राप्त हुआ। आत्मा की ध्रुवता और शरीर की नश्वरता को तीर्थंकर भी नहीं बदल सकते। पुद्गल का परिणमन और . आयु कर्म की प्रकृति नियम से, पर्याय परिवर्तित कराता रहता। जीवन मरण पुद्गल का कार्य है । अनादि अनंत, सनातन- शाश्वत निज आत्मा निश्चय दृष्टि से सदैव अमर है, ऐसा जानकर महापुरूषों को शोक नहीं करना चाहिए ।
- मुनि मार्दव सागर
किन्तु अनुपम निधि जो खो चुके उन महापुरूषों के प्रति श्रद्धांजलि अभिव्यक्त कर उनके जैसा आदर्श पथ अवश्यमेव अपनाना चाहिए। व्यवहार दृष्टि से वह आप से जुदा हुए निश्चय से तो सदैव भिन्न ही थे, ऐसा आगमानुसार सम्यक् चिन्तन करते हुए धर्मध्यानमय जीवन बिताते रहे। तनबल मन बल साथ दे तो महाव्रत अंगीकार कर लेना चाहिए ।
जिन्होंने मुझे ज्ञान प्रदान किया, उनकी आत्मा उन्हें केवल ज्ञान प्रदान करे। ऐसी सद्भावनाओं के •साथ आशीर्वाद / समाधिरस्तु
- मुनि विभव सागर
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
मंगल आशीर्वाद
जिनशासन की प्रभावना में किया गया जब छोटा सा कार्य भी स्तुत्य होता है। फिर पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य के द्वारा किया गया जिन धर्म की सेवा का कार्य प्रशंसनीय क्यों नहीं होगा ?
साधु सेवा में अग्रणी ऐसे व्यक्ति के स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है। स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति के लिए मेरा मंगल आशीर्वाद है।
- मुनि विमर्श सागर
शिक्षा गुरू कृतज्ञांजलि अष्टक
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BIPARISHMA
m ruNAMROIRT
2.
श्री 108 मुनिवर गणेशकीर्ति महाराज के... चरण कमल शिरनाय। हो समाधि बल यह मिले.. जन्म मरण नशजाय ॥ मोराजी (सागर) के अध्ययन काल में... श्री वर्णी जी का था प्रवास। 1951 से 53 के समय में सदपदेश मिला - लक्ष्य हीन अध्ययन का क्या प्रयास ? कक्षा अध्यापक थे, पं. दयाचंद्र जी दया मूर्ति , जिनके रिक्त स्थान की सहज न होगी पूर्ति ... "पिता श्री पं. भायजी के दया" माता श्री मथुरा जी के चंद्र ... तृतीय पुत्र थे आप सर्वाधिक शिक्षित गुणबंद... जो श्री वर्णी जी के शुभाशीष के महापात्र... अध्यापन कार्य मोराजी में 55 वर्षों तक रहे सुपात्र ...
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दयानाम तथा गुणधारी सद् गृहस्थ युत थे बह्मचारी। शिष्यों के जो श्रेष्ठ उत्साह प्रेरक, मुझ अल्पज्ञ के सदा मार्गदर्शक सादा जीवन उच्च विचारक... जैनागम के सतत प्रचारक अनेक उपाधि सम्मान मिले है। फिर भी उन से विलग रहे है। गोमम्टेश्वर का महामस्तकाभिषेक श्री पंडित जी का शेष आयु कर्म निषेक । महामंत्र का ध्यान लगाया
जीवन अपना सफल बनाया दोहा :- अनंत आनंद के लिए समाधिमरण अनिवार्य । भव समुद्र का भ्रमण मिटे पावें सद्गति आर्य ॥
-- मुनि अनंतानंत सागर
आशीर्वाद भगवान शांतिनाथ , कुथुनाथ, अरहनााथ की जन्मभूमि हस्तिनापुर में विराजमान परम पूज्य
गणिनीप्रमुख श्री ज्ञान मति माताजी एवं संघस्थ सभी साधुओं का रत्नत्रय सकुशल है आशा है कि आप भी स्वथ्य एवं सानंद होंगी।
स्व. डॉ. पं. श्री दयाचंद्र जी साहित्याचार्य जी के स्मृति ग्रंथ प्रकाशन में | शुभकामना हेतु आपका पत्र प्राप्त हुआ । ग्रंथ हेतु पूज्य माताजी द्वय ने आपके एवं समस्त सम्पादक मण्डल के लिए बहुत - बहुत आशीर्वाद कहलाया है।
शेष शुभ है। पूज्य माताजी एवं संघस्थ सभी साधुओं का मंगल आशीर्वाद ।
गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
''विनयं मोक्खस्य द्वारम्"
पं. दयाचंद्र साहित्याचार्य के भीतर विनय नामक अंतरंग विशेष गुण था। जिस महान् गुण के कारण आप अपने जीवन में गरिमामय पांडित्य को वृद्धिंगत करते रहे, इसी के प्रभाव से आप प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति के पथ पर अग्रसर रहे ।
उपचार विनय की उपरिंम सीमा को आर्यिका दृढमती माता जी ने देखा और इसे संस्मरण में भी सुनाया कि 'आप जब पं. डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य को आते देखते तो, प्रमुदित होकर अपने | स्थान से खड़े होकर करबद्ध नम्रीभूत हो उठते थे। ऐसा देखकर सभी लोग आश्चर्य चकित हो उठते थे ये उनकी बाह्य क्रिया ही नहीं अंतरंग परिणति की अभिव्यक्ति थी ।
आप हमेशा अपने जीवन में क्षमादि धर्मो को धारण करते हुए अंतरंग तप स्वाध्याय को भी स्थान देते रहे। आपका कथन था कि यदि किसी को अपना ज्ञान स्थायित्व की ओर ले जाना है तो मात्र वाचना स्वाध्याय, से कुछ नहीं होगा, उसे पृच्छना स्वाध्याय | अर्थात् तत्त्व चर्चा की भी आवश्यकता है। शुद्ध उच्चारण के साथ साथ वे आम्नाय स्वाध्याय के रूप में अर्थ सहित पाठ करने की प्रेरणा देते थे। आप अध्यापन कार्य में अपने शिष्यों को विषयों में निपुण कराने के लिए वाचना पृच्छना की अनिवार्यता समझते थे। ऐसे परम आदरणीय पंडित श्री दयाचंद्र साहित्याचार्य जी थे जिन्हें जैन जैनेतर जन साधुत्व की कड़ी के रूप में स्मरण करते हैं और सम्मान देते है। ऐसी प्रतिभा के धनी पंडित जी को सतत् आर्शीवाद ।
- आर्यिका दृदमति
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
आगम पोषक पंडित दयाचंद्रजी
आगम भक्त पंडित श्री दयाचंद्र जी किसी पंथ, परंपरा या स्थानीय मतों से प्रभावित होकर अपनी आस्था को चलायमान करने वालों में से नहीं थे, परंतु आगम के गहन अभ्यासी, तत्त्व जिज्ञासु हठागृह से दूर रहने वाले व्यक्ति नहीं, एक व्यक्तित्व थे । सन् 2001 चातुर्मास में अनादिनिधन सिद्धक्षेत्र सम्मेद शिखरजी में हमारे पास दर्शनार्थ पधारे । उस समय उनके साथ तत्त्व चर्चा करते समय मैंने उनको पूछा - |" जिसका आदिनाथ पुराण में जिनसेन स्वामी ने उल्लेख किया है - ऐसे उपनयन जनेऊ के बारे में आपके क्या विचार है?" उस समय उन्होंने प्रांतीय परंपरा पंथवाद को
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छोड़कर आगम को ही प्रमाण मानने वालों ने बताया- पू-माताजी जो आगम के विचार है वो ही मेरे विचार है मेरे विचार आगम से भिन्न नहीं है ।" इन्हीं शब्दों से उनकी आगम निष्ठा का ज्ञान होता है। वर्तमान जैन समाज के लिए ऐसे आगमनिष्ठ विद्वानों की अति आवश्यकता है। जो मात्र पैसे के चंद टुकड़ों के पीछे आगम को अपने अनुसार बदलें उनकी आवश्यकता नहीं, परंतु आगम के अनुसार अपने दर्शन ज्ञान चरित्र को बनायें एवं समाज को सही दिशाबोध करायें। ऐसे ही पं. दयाचंद जी थे।
आर्यिका सुभूषण मति
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "श्रमण संस्कृति के पुरोधा" । विद्वत प्रसवनी विन्ध्यभूमि में सागर जिले के शाहपुर (मगरोन) में पुष्पित और समस्त दिगम्बर जैन समाज के मनोभावों में पल्लवित साहित्य मनीषी श्री डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का व्यक्तित्व एवं कृतित्व
वास्तव में अभिनंदनीय था। पण्डित जी साहब का स्मृति ग्रंथ प्रकाशित होना गौरव | शाली एवं स्तुत्य प्रयास है।
आपका व्यक्तित्व सरलता और सादगी का अनुपम भण्डार था। संसार की सरकती सरिता में सब कुछ बह रहा है। स्थिरता के नाम पर केवल जन्म का मरण ही है, इस मरण एवं जन्म को रोकने हेतु जिनागम का स्वाध्याय और उसका आचरण ही एक मात्र उपाय है। पंडित जी ने जीवन विकास के साथ ही मानव मूल्य के पुरोधा बनकर आचार्य प्रणीत शास्त्रों का आलोड़न किया एवं अपनी सरल शैली द्वारा स्वयं को सचेत करते हुए
स्वाध्याय प्रेमियों को समझाया, छात्रों को उज्ज्वल भविष्य के लिए ज्ञान के नित नये आयाम दिये, अर्धशतक से भी अधिक श्री गणेश दिग. जैन संस्कृत महाविद्यालय में समर्पित रहकर ज्ञान दान दिया । डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ने आपकी कृति "जैन पूजाकाव्य" विषय पर आपको पी.एच.डी. की उपाधि प्रदान की । ज्ञान दान के द्वारा छात्रों को संस्कारित किया। वे छात्र आज विद्वानों के रूप में समाज में अलंकृत हैं। पंडित जी का स्मृति ग्रंथ प्रकाशन सरस्वती की प्रभावना है आप जैसे भद्र परिणामी विद्वान विरले ही होते हैं। दिवंगत मनीषी को आर्शीवाद तथा सम्पादक मंडल को मेरा आर्शीवाद :
- आर्यिका विजय श्री
शुभाशीष डॉ. पं. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य विद्वत जगत के मनीषी विद्वान थे। आपने अग्रिम पंक्ति में कदम से कदम मिलाकर विद्वत परम्परा को गौरवान्वित किया है। जिन्हें गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय ने विद्वत रत्न से एवं डा.सर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ने पी.एच.डी. में डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की है।
डॉ. पं. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य सागर प्रभु भक्ति में लीन रहकर गुरूओं के आदर सत्कार में सदा अग्रणी रहते थे। आप संस्कृत महाविद्यालय में 20 वर्षो तक प्राचार्य पद | पर रहे। अपने जीवन के वर्ष 1951-2005 का स्वर्णिम समय जैन आगम, धर्म, दर्शन, | सिद्धांत आगम के साथ साहित्य के पठन पाठन में व्यतीत किया। ____ आप गोम्मटसार कर्मकाण्ड के रसिक थे। जिन्हें कि अष्टकर्म की प्रकृतियाँ यूं ही मुंह
जवानी याद थी। जो कि उनकी व्याख्या करने में कुशल थे , सिद्धहस्त थे। | पं. जी द्वारा भारत वर्ष के विभिन्न नगरों में पर्युषण पर्व की सभाओं में, धर्म पिपासु
बंधुओं को धर्मोपदेश प्रदान किया गया । आपने जीवन के अंतिम क्षणों में साधना रूपी मंदिर पर मोराजी प्रांगण में भगवान बाहुबली स्वामी के चरणों की छत्रछाया में 12 फरवरी 2006 को णमोकार मंत्र की मांगलिक ध्वनि सुनते हुये शुभ मरण रूपी कलशारोहण किया, पंडित जी साहब के स्मृति ग्रन्थ की स्मृति समाज के लिए एक धरोहर रहेगी। सभी विद्वान बंधुओं एवं कार्यकर्ताओं के परिश्रम के लिए साधुवाद।
ऐलक निश्चय सागर
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
शुभकामना
किसी लेखक का कथन है कि विद्या जीवन में उल्लास का, प्रकाश का, अलंकार का और योग्यता का कार्य करती है। इसलिए विद्यावान पुरूष अपने जीवन को स्वर्ग में परिवर्तित कर देता है। इस विद्या से विनय और विनय से पात्रता बढ़ती है ।
वस्तुत: यह कथन सत्य ही प्रतीत होता हैं। विद्या से भूषित मनुष्य सरस्वती पुत्र कहलाता है और सरस्वती पुत्रों के सम्मान एवं अभिनंदन की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। यह भारतवर्ष का गौरव है कि यहाँ प्राचीन काल से वर्तमान तक अनेकों मनीषी, आर्षमार्गी विद्वान होते आये हैं, जिन्होंने जिनवाणी की सच्ची सेवा कर जिनशासन का मस्तक सदैव गर्व से ऊँचा किया है ओर अपनी आत्मा को भी समुन्नत किया है। विद्वानों की उसी श्रृंखला में सरस्वती पुत्र डॉ. पं. दयाचंद्र साहित्याचार्य जी भी एक थे जिनकी प्रतिभा की स्मृति मृत ग्रंथ प्रकाशन एक प्रशंसनीय कार्य है। साहित्याचार्य, सिद्धांत शास्त्री, विद्वत्रत्न एवं साहित्यभूषण आदि पदवियों से समन्वित पं. श्री दयाचंद जी से मेरा भी विगत अनेक वर्षो से संपर्क रहा है, वे समय समय पर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा आयोजित संगोष्ठी - सेमिनार में आते रहते थे । सम्यग्दृष्टि, भद्रपरिणामी पं. जी ने अनेकों कृतियों का लेखन व सम्पादन किया तथा लगभग 50 वर्षो तक धर्मप्रभावना हेतु पर्युषण पर्व में प्रवचन आदि अनेकों प्रभावक कार्य किए। जिनका संपूर्ण जीवन अनुशासन और प्रभावना से परिपूर्ण रहा है । ऐसे गौरवमयी व्यक्तित्व को उनके सम्पूर्ण कार्यकलापों को देखते हुए वर्ष 2001 में "तीर्थंकर ऋषभदेव विद्वत् महासंघ" द्वारा प्रयाग इलाहाबाद (उ.प्र.) में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के ससंघ सानिध्य में सम्मानित भी किया गया था। मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ऐसे बहुश्रुत मनीषी विद्वान का स्मृति ग्रंथ "साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ" नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। इस ग्रंथ के प्रकाशन में संलग्न सभी संपादकों, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी बहनों एवं श्रेष्ठीवर्ग के लिए मेरी बहुत - बहुत शुभकामना है कि वे इसी प्रकार सरस्वती पुत्रों का सम्मान कर वर्तमान पीढ़ी को जिनवाणी सेवा की प्रेरणा प्रदान करते रहें ।
कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
जैनं जयतु शासनम् - विनयाञ्जलि
पूज्य पिताजी प्रतिष्ठाचार्य पंडित गुलाबचंद्र जी "पुष्प एवं मुझे (ब्र. जय निशान्त) को यह ज्ञात कर प्रसन्नता है कि पुरानी पीढ़ी के समर्पित सरस्वती पुत्र पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य पूर्व प्राचार्य श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर के व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व पर आधारित स्मृति ग्रंथ " साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ " नाम से प्रकाशित
रहा है। जब जब मैं सागर विद्यालय गया थोड़ी बहुत चर्चा पं. श्री से हो जाती थी। वे पूज्य वर्णीजी महाराज के परम आज्ञानुवर्ती शिष्य थे स्व. पंडित पन्नालाल के उत्तराधिकारी के रूप में वे संस्कृत विद्यालय के कुशल, अनुशासनशील प्राचार्य बने । "जैन पूजा काव्य" पर उन्होंने अपना शोध आलेख लिखा जिस पर उन्हें पी. एच. डी. की उपाधि सर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय से प्राप्त हुई। मेरा पूरा परिवार दिवंगत व्यक्तित्व का पावन स्मरण कर विनयाञ्जली अर्पित करता है। स्मृति ग्रंथ के सभी संपादक मंडल को इस श्रेय कार्य के प्रकाशन सहयोग हेतु मंगलकामनायें ।
- ब्र. जय निशान्त
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
मेरे विद्या गुरु पंडित जी
परम श्रद्धेय डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य से मुझे सन् 1981 से 86 तक व्याकरण एवं साहित्य ग्रन्थों का अध्ययन करने का अवसर मिला पं. जी में अनेक विशेषतायें थी जो अन्य विद्वानों में कम ही देखने को मिलती है। वर्णी भवन मोराजी संस्था को आपने अपने से अधिक महत्व दिया । आप संस्थामय होकर रहे। पं. जी | निस्पृहता की मिशाल थे | आपको वर्णी गुरुकुल जबलपुर ने स्वर्ण जयंती समारोह में | सम्मान करके अपना गौरव बढ़ाया परम पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज का आपको विशेष आशीर्वाद था जिसके प्रतिफल अंतिम समय तक वर्णी भवन मोराजी के प्राचार्य पद पर रहकर सेवारत रहे ।
- ब्र. जिनेश
शुभकामना पितातुल्य पंडित जी
पंडित जी मेरे लिए पिता के समान अत्यंत आत्मीय थे । वे अत्यंत सरल स्वभावी, मिलनसार, व्यवहार कुशल, स्पष्ट वक्ता थे। आप कर्मठ कार्यकर्ता एवं संस्था के प्रति समर्पित थे । उनके उदार चिंतन में ऐसी विशेषता रहती थी जो मेरे मन पर हमेशा के लिए अमिट छाप छोड़ गई। धर्म के वे पुजारी थे और दृढतापूर्वक उनका पालन करते थे। वे आग्रह से हमेशा दूर रहते थे ।
मूल सिद्धांतों के
पंडित जी स्वभावत: परोपकारी थे। वे दूसरे की पीड़ा में स्वयं दुखी हो उठते थे। कितने ही निराश छात्रों के जीवन में उन्होंने आशा का संचार कर उन्हें प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ाया है। पंडित जी "सादा जीवन उच्च विचार" के मूर्त रूप थे । उनका निरभिमान पांडित्य और सहज उपलब्ध व्यस्त जीवन हमेशा प्रेरणा और स्फूर्ति की भावना भरता था। उन्होंने जीवन भर जैन समाज, धर्म एवं साहित्य की उल्लेखनीय सेवाएँ की है।
उनके व्यक्तित्व की मुझे हमेशा याद बनी रहेगी । और हमेशा गर्व रहेगा कि पंडित जी का स्नेह मेरे प्रति अगाध था । जब भी मैं मोराजी जाती तो पंडित जी के पास अवश्य जाती । और पंडित जी बड़ी आत्मीयता के साथ मुस्कराते हुए मुझसे मिलते और उनका हमेशा शब्द रहता आइये - आइये और ऐसे सब कुछ सुनाने लगते जैसे अपना कोई आत्मीय मित्र मिलने पर सुनाने का मन होता । मुझे हमेशा उनका वही चेहरा सामने आ जाता है। मुझे उनकी सरलता बहुत भाती थी ।
मैं उनके प्रति विनयांजलि अर्पित करते हुए यही भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि उनकी सदगति तो हुई ही होगी लेकिन अगली गति में जल्दी से जल्दी शिव पथ के भाजन बने । ओम शांति
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ब्र. सुशीला जैन ब्राह्मी विद्या आश्रम सागर
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
शुभकामना जैन धर्म के स्वरूप को समझने और समझाने वाले इस पृथ्वी पर विरले ही होते है। तथा उस स्वरूप को अपनी योग्यता के अनुसार धारण करने वाले तो और भी विरले होते है ।इन्हीं विरले विद्वानों में स्व. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य गिने जाते है। जिन्होंने जीवन भर ज्ञानदान का अपूर्व कार्य किया और जलती हुई धर्म की रोशनी को आगे तक प्रकाशित करने में अपना योगदान दिया।
ब्र. पुष्पा जैन महान विभूति साहित्याचार्य
तर्ज - हूँ स्वतंत्र निश्चल निष्काम ...........(चौपाई) सागर जिला शाहपुर ग्राम जन्मे पंडित दयाचंद्र नाम । पंडित पांचों भाई महान, संस्कार माता के जान ॥
भाषा हित मित शांत स्वभाव, सादा जीवन उच्च थे भाव ।
नित प्रति भक्ति पूजा पाठ, महामनीषी का ये ठाठ॥ वर्णी गणेश की आज्ञामान, पूरा जीवन बाँटा ज्ञान ।. संस्कृत के प्राचार्य महान, ज्ञान पिलाना जिनका काम ॥
पर निन्दा जो कभी न करते, गुणग्रहण में तत्पर रहते ।
साधु नगर में जब भी आते, उनको लेने हरदम जाते ।। सरस्वती के वरद पुत्र तुम, विद्वानों के बने मित्र तुम । रही भावना आत्म उत्थान, बन जाएँ हम सिद्ध समान ॥
सृजन किया था पूजा काव्य, तभी बने थे डॉक्टर साब ।
इससे हुए. जगत विख्यात् अनुपम रहा आपका त्याग । बाहुबली का हुआ अभिषेक, मोरा जी में कार्य विशेष । करते हैं हम तुम पर नाज, कृत कृत्य थी जैन समाज ॥
द्वारे पर हाथी भी आया, मृत्यु महोत्सव पाठ रचाया।
बारह फरवरी तन को त्यागा, जीवन अपना सफल बनाया। चतुर्गति भ्रमण को तजने, सम्यक् साधा निज में रमने । विद्या गुरू की महिमा बढ़ाई, आगम की सुषमा फैलाई ॥
दोहा - वीर प्रभु से कामना, पाएं मुक्ति ललाम । श्रृद्धा सुमन समर्पित, सदा रहे निष्काम ॥
- ब्र. सुषमा जैन
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरी दृष्टि में महापुरूष पुरातन विद्वानों की श्रृंखला में डॉ. पं. दयाचन्द जी साहित्याचार्य का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। उनके पर लोक गमन के पश्चात् भी समाज बड़े आदर से उनका नाम लेती है। यथानाम तथा गुण वाली उक्ति प्रत्येक व्यक्ति के मुख से निकलती है। विद्वानों के या समाज के जितने भी व्यक्तित्व लिखित आये हैं उनमें अधिकतर व्यक्तित्वों में यही बात लिखी है कि पंडित जी तो 'यथानाम तथा गुण के धारी थे। मैंने उनके निकट में रहकर उनके जीवन में जो गुण देखे है वे गुण अन्य लोगों में कम ही दिखाई देते हैं, ऐसे सरल स्वभावी विद्वान के गुण लिखने के लिए मेरी लेखनी सहज ही चल जाती है। इस स्मृति ग्रन्थ में उनके गुणों को प्रस्तुत करना एवं उन्होंने अपने जीवन में जिनवाणी की कितनी सेवा की, उसे प्रस्तुत करना हमारा कर्त्तव्य है अतः स्मृति ग्रन्थ के बनने में मैं अपनी पूर्ण सेवा समर्पित करुंगी इसी भावना के साथ स्मृति ग्रन्थ के बनने में अपनी शुभकामना प्रेषित करती हूँ।
- ब्र. किरण जैन
शुभकामना मोराजी सागर के लिए जिन्होंने, दिया अमोलक दान ।
हम सब मिलकर आज उन्हीं का, करें सुमंगल गान ॥ जिस तरह साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है ठीक उसी तरह व्यक्ति का शरीर । चेहरा उसके व्यक्तित्व का दर्पण कहा जा सकता है। इसलिए किसी व्यक्ति का स्मरण आते ही हमारे मस्तिष्क में अंकित उनके व्यक्तित्व की छवि सामने आ जाती है । आज पंडित जी का स्मरण आते ही मेरी स्मृतियों में बसी उनकी गरिमामयी छवि साकार हो उठती है। और याद आ रहे है वो क्षण जो मैंने उनके सानिध्य में बिताये थे। उनके प्राचार्यत्व काल में उन्हीं के निर्देशन में मैंने मोराजी से “शास्त्री व सिद्धांत रत्न" ये दो महत्वपूर्ण परीक्षाएँ दी और उनका उस संदर्भ में अमूल्य मार्गदर्शन प्राप्त किया।
शांत स्वभावी पंडितजी अक्सर कम बोला करते थे। परन्तु हमें अपने विषय में कठिनाई उपस्थित होने पर सार्थक समाधान समय-समय पर मिल जाया करता था। उनके व्यक्तित्व में एक गरिमामयी सादगी दृष्टिगोचर होती थी। तथा उनमें एक तरह का मुखर मौन लोग महसूस करते थे।
__ "सादा जीवन उच्च विचार" की वे साक्षात प्रतिमूर्ति ही थे। जो अपने ज्ञान विज्ञान से साहित्य को समृद्ध कर गये। अध्ययन और खोज के प्रति ऐसी लगन कुछ विरले विद्वानों में ही होती है। जो जीवन के अंतिम पड़ाव में 1990 में इन्होंने पी.एच.डी. (जैन पूजा काव्य) जैसे दुरूह कार्य को अपने ही शिष्य भागेन्दू जी के निर्देशन में सफलता पूर्वक पूरा किया । ऐसे साहित्य मनीषी के बारे में कुछ कहना यद्यपि सूर्य को दीपक दिखाने के समान है परन्तु इस माध्यम से ही हम उनको आदरांजलि प्रस्तुत कर सकते है अन्यथा और क्या माध्यम हो सकता है। अंत में यही कहूँगी कि - जिनके स्मरण से मेरा रोम-रोम हो जाता पुलकित है। उन साहित्य मनीषी को यह श्रद्धा सुमन समर्पित है।
- ब्र. डॉ. वंदना जैन
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
शुभकामनायें
मोराजी की निधि
डालचंद जैन पूर्व सांसद
सागर पं.(डॉ.) दयाचंद जी साहित्याचार्य श्री दिगम्बर जैन समाज के एक उद्भट् विद्वान थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की टीका सरल सुबोध भाषा में स्वाध्यायी बंधुओं | के लिए उपलब्ध कराई।
वह सरलता एवं सादगी के प्रतीक थे। पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य प्राचार्य पंडित डॉ. पन्नालाल के समान ही उच्च कोटि के विद्वान थे एवं प्राचार्य के पद पर अपने जीवन के अंत समय तक कार्यरत रहे । हम सब उनके प्रति सदैव कृतज्ञ रहेंगे।
__ आदरणीय पंडित जी से जो एक बार मिलता था वह उनकी सरलता एवं सादगी से प्रभावित होकर उनका हो जाता था । पंडित जी हमारे आदर्श थे।
निस्पृह जीवन
सुधा जैन विधायक
सागर अत्यंत हर्ष का विषय है कि बुंदेलखण्ड माटी के सपूत जैन साहित्य सृजक, परम आदरणीय डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान की स्मृति में “साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ" ग्रन्थ के प्रकाशन पर मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ। __ डॉ. पं. दयाचंद साहित्याचार्य स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति श्री गणेश दिग. जैन
संस्कृत महाविद्यालय वर्णी भवन लक्ष्मीपुरा एवं श्री दिगम्बर जैन पंचायत सभा सागर को इस विशिष्ट आयोजन की सफलता हेतु शुभकामनाएँ एवं बधाईयाँ
शुभकामनाओं सहित ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अद्वितीय प्रतिभा के धनी
प्रो. धीरेन्द्र पाल सिंह, कुलपति
डॉ.हरीसिंह गौर वि.वि.सागर मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय वर्णी
भवन,सागर (म.प्र.) अपने सेवानिवृत प्राचार्य स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी जैन की पुण्य स्मृति में "साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियां" नाम से स्मृति ग्रन्थ का प्रकाशन श्री दिगम्बर जैन पंचायत सभा, सागर (म.प्र.) के सहयोग से करने जा रहा है । व्यक्ति के परलोक गमन के पश्चात् स्मृतियां ही शेष रहती हैं। उन स्मृतियों को सहेजकर रखना और उनसे प्रेरणा ग्रहण करना एक पुण्य कर्म है । व्यक्ति का कर्म ही उसे स्मृतियों में जीवित रखता है। मुझे ज्ञात हुआ है कि प्राचार्य पं. दयाचंद जी जैन
संस्कृत के मनीषी पंडित के साथ-साथ सहृदय अध्यापक थे। उनका समस्त जीवन अध्ययन अध्यापन में व्यतीत हुआ। उनके द्वारा लिखा गया सद्साहित्य समाजोपयोगी है। मैं महाविद्यालय परिवार को साधुवाद देता हूं कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती प्राचार्य की स्मृतियों को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए स्मृति ग्रन्थ के प्रकाशन का संकल्प लिया । स्मृति ग्रन्थ स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी जैन के कृतित्व एवं व्यक्तित्व से समाज को परिचित करायेगा, ऐसी मैं कामना करता हूं।
शुभकामनाओं सहित ।
अद्वितीय प्रतिभा के धनी
विट्ठलभाई पटेल
सागर मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि पू. गणेश प्रसाद वर्णी जी के आशीष से स्थापित संस्कृत महाविद्यालय में डॉ. दयाचंद जी प्राचार्य की स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन उनकी विद्वतता और समर्पण का इजहार है, पं. दयाचंद जी राष्ट्रीय स्तर के जैन धर्म के प्रवाचक और देश के वरिष्ठ विद्वान रहे । निस्पृह जीवन जीकर उन्होंने विद्या और विद्यार्थियों की जो सेवा की वह सराहनीय है । मैं दिवंगत आत्मा की शांति और सद्गति की कामना करता हूँ। सम्पादक मंडल एवं दिगंबर जैन
गणेश प्रसाद वर्णी महाविद्यालय के समस्त सदस्यों को इस ग्रंथ के प्रकाशन हेतु बधाई देता हूँ आशा करता हूँ यह स्मृतिग्रंथ सभी वर्ग के लिए प्रेरणादायी होगा । मंगल कामना के साथ
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सम्मानीय व्यक्तित्व
आर.एन.शुक्ला
जिला शिक्षा अधिकारी, सागर साहित्य मनीषी पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य संस्कृत भाषा, जैन दर्शन एवं अध्यात्म के अद्वितीय विद्वान थे। आपकी साहित्यिक एवं शैक्षणिक गति विधियों से देश के अधिकांश लोग लाभान्वित हुए है। आपसे शिक्षा प्राप्त अनेकानेक जैन छात्र विविध प्रशासनिक तथा शैक्षणिक संस्थाओं में पदस्थ रहे हैं तथा कुछ वर्तमान में हैं। ऐसे समाजसेवी, उदारमना, अध्यात्म प्रेमी, ज्ञान ज्योति आलोकित करने वाले विद्वान के चरणों में मैं अपनी विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित कर अपने आपको कृतार्थ अनुभव करता हूँ ।
ज्ञान की निधि
सेठ मोती लाल जैन
__ पंतनगर वार्ड, सागर प्रसन्नता का विषय है कि सरस्वती पुत्र पं. दयाचंद साहित्याचार्य का स्मृतिग्रंथ “साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ" प्रकाशित होने जा रहा है। पंडित जी पू. गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज के आज्ञाकारी शिष्य रहे है । आपने जीवनपर्यन्त गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय की अध्यापक के रूप में सेवा की एवं प्राचार्य पद से सेवा निवृत्त हुए, किन्तु संस्था से जुड़े रहे एवं 2006 तक नि:शुल्क सेवाएँ प्रदान करते रहे । आपने जैन पूजा काव्य पर शोध कर पी.एच.डी.की उपाधि प्राप्त की। आपको समाज द्वारा अनेक पुरस्कार एवं उपाधियों से अलंकृत किया गया । आप धर्मनिष्ठ, सरल, भद्र परिणामी जैन श्रावक एवं विद्वान थे। शुभकामनाओं सहित,
"अविस्मरणीय सेवा भावी"
सेठ प्रेमचंद जैन
श्रीमंत भवन, राजीव नगर, सागर डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति की ओर से आपका परिपत्र प्राप्त हुआ, धन्यवाद । पंडित जी दिगम्बर जैन समाज के प्रमुख विद्वानों में से एक थे। उनका जीवन सरलं, सादगी से पूर्ण था।विद्या अध्ययन, के साथ आपने अपने ज्ञान से दूसरों को आलोकित किया था उनके निधन से दिगम्बर जैन समाज को अपूर्णीय क्षति हुई है।
मेरी उनको सादर विनयांजलि । उन्होंने श्री गणेश संस्कृत महाविद्यालय में अपनी अपूर्व सेवा देकर विशिष्ट स्थान बनाया था। उनके संबंध में जो भी लिखा जाये वह कम है। पंडित जी का स्मृति ग्रंथ समाज की अगली पीढ़ी को एक दिशा प्रदान करेगा। शुभकामना सहित ।
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
सागर की धरोहर
महेश बिलहरा
सागर
अत्यंत हर्ष का विषय है कि परम आदरणीय अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य स्मृति में स्मृति ग्रंथ "साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ " के प्रकाशन होने पर मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ, डॉ. पं. दयाचंद साहित्याचार्य स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति ने मुझे भी इसमें सहयोगी बनने का अवसर दिया इसके लिए मैं अपना सौभाग्य मानता हैं, एवं समिति का आभारी हूँ ।
श्री पंडित जी से मेरा सम्पर्क पिछले 10 साल में कुछ अधिक रहा किन्तु आखिरी के कुछ पल जो मैंने उनके साथ व्यतीत किये एवं जो उनको सम्बोधन देने का सौभाग्य मुझे मिला, वह मेरी यादों में हमेशा रहेगा, और मुझे उनकी राह पर चलने की प्रेरणा देता रहेगा । मैं इस स्मृति ग्रंथ के प्रकाशन में कटिबद्धता के साथ सहयोग दूँगा ।
शुभकामनाओं सहित
܀
जिन पर समाज को गौरव है
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
डॉ. जीवन लाल जैन
सागर (म.प्र.)
यह जानकार हर्ष हुआ कि श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर के दिवंगत प्राचार्य स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का स्मृतिग्रंथ "साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ" प्रकाशित होने रहा है पंडित जी उन पुरातन विद्वानों की परम्परा में जिन पर समाज को गौरव है तथा जो आध्यात्मिक बुंदेलखण्ड के संत पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज के शुभाशीष प्राप्त आज्ञाकारी रहे हैं, उनमें प्रमुख हैं। आपका सम्पूर्ण जीवन एक सफल कर्मठ, अध्यापक से लेकर प्राचार्य पद तक 1951 से 2003 तक रहा। वर्ष 2001 में आपको “विद्वतरत्न" की उपाधि से सम्मानित किया गया एवं रुपये 51000/- की राशि प्रदान की गई। तब से आप विद्यालय की निःशुल्क सेवा करते रहे । सन् 1990 में आपको "डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर द्वारा पी.एच.डी." की उपाधि प्रदान की गई । आपने "पयूषण पर्व" में देश भर के विभिन्न शहरों में जैन धर्म पर प्रवचन कर समाज को धर्म लाभ प्रदान किया एवं संस्था को आर्थिक योगदान प्राप्त करने में महत्वपूर्ण सहयोग किया । अनेक राष्ट्रीय स्तर की गोष्ठियों एवं सभाओं का संचालन किया। पंडित जी धर्मनिष्ठ, सरल, भद्र परिणामी जैन श्रावक एवं मनीषी विद्वान थे । आपके द्वारा जैन धर्म के साहित्यिक योगदान को हमेशा याद किया जायेगा ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आधुनिक शोध तकनीक में पारंगत पारम्परिक विद्वान
डॉ. अनुपम जैन
इन्दौर आज जैन समाज का विद्वत वर्ग दो धाराओं में विभक्त है । पहली धारा पारम्परिक रूप से अध्ययन करने वाले शास्त्री और आचार्य करके जैन समाज को प्राचीन ग्रंथों के अनुवाद के माध्यम से अमूल्य सौगात देने वाले विद्वानों की है । इस धारा में पंडित कैलाशचंदजी सिद्धांताचार्य (वाराणसी), पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री (कटनी), पंडित हीरालालजी शास्त्री (व्यावर), जैसे विद्वान रहे और वर्तमान में संहितासूरि पं. नाथूलाल जैन शास्त्री (इन्दौर) आदि अपनी सेवाएं दे रहे है। दूसरी धारा विश्वविद्यालयीन सेवाओं से जुड़े विद्वानों की है, जिन्होंने शोध प्रबंधों के माध्यम से अनेक अनुसंधान कार्यो को मार्गदर्शन देकर जैन संस्कृति को आगे बढ़ाया है । इस धारा में डॉ. हीरालाल जैन (जबलपुर), डॉ. ए.एन.उपाध्ये (मैसूर), डॉ. दरबारी लाल कोठिया (बीना) के नाम सम्मिलित है । वर्तमान में भी इस श्रृंखला में डॉ. गोकुलचंद जैन (इंदौर), डॉ. कमलचंद सोगानी (जयपुर), डॉ. राजाराम जैन(नोएडा), डॉ. भागचंद भास्कर (नागपुर) डॉ. प्रेमसुमन जैन (श्रवणबेलगोला) आदि महत्वपूर्ण कार्य कर रहे है।
___ डॉ. पं. दयाचंद साहित्याचार्य उन गिने - चुने विरल व्यक्तियों में से एक है । जिन्होंने पारम्परिक शैली से अध्ययन करते हुए साहित्याचार्य की उपाधि प्राप्त की तथा जैन पूजा काव्य पर अपना शोध प्रबंध लिखकर सागर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि भी ली। उनका शोध प्रबंध कितना महत्वपूर्ण है इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय ज्ञानपीठ के सम्पादक मंडल ने इसका ज्ञानपीठ से प्रकाशन हेतु चयन किया |जैन पूजा काव्यों पर यह एक अद्वितीय संदर्भ ग्रंथ है।
आदरणीय पंडित जी एक अच्छे शिक्षक और शोधक के साथ ही श्रेष्ठ प्रशासक भी थे। उन्होंने गणेश दिगम्बर जैन सं. महाविद्यालय सागर में 55 वर्षों तक शिक्षक और प्राचार्य के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान की। किसी एक संस्था में इतनी लम्बी अवधि तक कार्य करना उनकी विषय के प्रति पारंगतता, व्यावहारिक सोच और समर्पण की भावना को इंगित करता है । उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए 2001में 51000 रुपये की समर्पण राशि सहित विद्वतरत्न की उपाधि प्रदान की गई जो कि उनके गरिमामयी व्यक्तित्व के प्रति समाज की एक भावनात्मक अभिव्यक्ति ही थी।
तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत महासंघ ने भी उनको पुरस्कृत कर स्वयं को गौरवान्वित किया है ऐसे आधुनिक शोध में प्रवीण पारम्परिक विद्वान के स्मृति ग्रंथ (साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ) के प्रकाशन अवसर पर मैं विद्वत महासंघ की ओर से श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ एवं आशा करता हूँ कि यह स्मृति ग्रंथ पंडित जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को सम्यक रूप से उद्घाटित कर जैन विद्वत परम्परा की यशवृद्धि में सहायक होगा।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अद्वितीय समर्पण
डॉ. जय कुमार जैन
विभागाध्यक्ष - एस.डी. कालेज मुजफ्फर नगर सरस्वती पुत्रों के अभिनंदन ग्रंथों के प्रकाशन की परम्परा प्रभावना की दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है। बीसवीं सदी के दिवंगत सरस्वती पुत्रों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व कुछ वर्ष पूर्व पुस्तक रूप से प्रकाशित हो चुके है। पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य प्राचार्य श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर का सम्पूर्ण जीवन सादगी, संयम, अनुशासन से परिपूर्ण था। वे मनसा, वाचा, कर्मणा आदर्श अध्यापक तथा प्रभावी प्रवाचक थे । “जैन पूजाकाव्य" पर उनका शोधपूर्ण प्रकाशित पुस्तक उनकी विद्वता की अविस्मरणीय कृति है। समाज का हर वर्ग इससे आत्मबोध की शिक्षा ग्रहण कर सकता है ।सन् 1993 में जो विद्वत प्रशिक्षण शिविर उनके कुलपतित्व में आयोजित था, उनकी गाम्भीर्य शंका समाधान शैली देखकर आज भी श्रद्धा से मस्तिष्क झुक जाता है। वे प्राचीन शैली के सारस्वत पुत्र थे। उनकी कीर्ति पताका को स्थायी बनाने में स्मृतिग्रंथ" का प्रकाशन सराहनीय कदम है। उनके दिवंगत चरणों में विनीत आदरांजलि एवं सम्पादक मंडल को साधुवाद प्रेषित है।
मार्दव मूर्ति मनीषी
पं. शिवचरनलाल जैन
तीर्थंकर ऋषभदेव जैन, विद्वत्महासंद्य वर्तमान के मनीषी एवं हितैषी दोनों रूपों में विख्यात स्व. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का नाम समादृत रूप में ग्रहणीय है। मेरे स्मृतिपटल पर उनकी अनेक सानिध्यगत स्मृतियाँ विद्यमान है। सन् 1993 में संपन्न सागर मोराजी में विद्वत्प्रशिक्षण शिविर में उनके साथ विशेष रूप से मुझे प्रशिक्षण का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उस समय उनकी कार्यशैली एवं व्यवहार में मृदुता का जो दर्शन हुआ वह अतुलनीय है। उन्हें ज्ञान का अहंकार छू तक न गया था। छोटी से छोटी आयु वाले व न्यून ज्ञानाभ्यासियों से भी वे लघुता एवं वात्सल्य ही प्रकट करते थे। उनकी एक लम्बी शिष्य परम्परा उनको सदैव अमर रखेगी।
मैं ऐसे प्रज्ञापुरुष स्वनामधन्य मार्दवशील दयामूर्ति पंडित जी को भाव भीने स्मरणपूर्वक प्रणाम करता हूँ श्रद्धा व्यक्त करता हूँ । वे स्वर्ग में जहां भी हों निरंतर ज्ञानोपयोग बनाये रहें, ऐसी मंगल कामना करता हूँ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दयानिधि धाम
डॉ. रमेशचंद जैन
वर्द्धमान कालेज, बिजनोर उ.प्र. पूज्य पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य प्राचार्य श्री गणेश वर्णी दि. जैन विद्यालय सागर (म.प्र.) देश के प्रख्यात सरस्वती पुत्र एवं जैन समाज के प्रतिष्ठित विद्वान थे। वे बड़े विनीत लगनशील, परिश्रमी एवं पूज्य वर्णी गणेश प्रसाद जी के परम शिष्य थे | आपने विद्यालय की 55 वर्ष तक सुदीर्घकालवर्ती सेवा की, इक्यानवे वर्ष में भी आप प्रतिदिन खड़े होकर देवपूजा करते थे।उनकी स्मृति में प्रकाशित होने वाले स्मृति ग्रंथ हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ
विद्वता, सरलता एवं समर्पण का व्यक्तित्व
डॉ. शेखरचंद जैन, अहमदाबाद
प्रधान संपादक - तीर्थंकर वाणी जब जब भी सागर जाने का अवसर मिला है - मुझे आदरणीय पूज्य स्व. श्री पं. दयाचंदजी से मिलने का सौभाग्य अवश्य प्राप्त हुआ है।
पंडित दयाचंदजी सरलता की प्रतिमूर्ति थे। वे जैनागम के परम ज्ञाता विद्वान थे। पू. गणेश प्रसाद जी वर्णी का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त था। देव - शास्त्र गुरु के परम भक्त, आर्ष परम्परा के पोषक पंडित जी पर प्रायः देश के सभी साधु संतो का आशीर्वाद था। वे विद्वानों में आदरणीय थे। उनके अगाध ज्ञान का लाभ हमें उनके प्रवचन, चर्चा एवं लेखों से प्राप्त होता रहता था। “तीर्थंकर वाणी' में भी उनके लेख पत्रिका का गौरव बढ़ाते थे। इतनी अधिक सिद्धी और प्रसिद्धी के बावजूद उनमें यत्किंचित भी विद्वत का अह्म नहीं था। वे वात्सल्य के अगाध सागर थे जिसका आचमन सभी विद्वानो ने किया था और सभी उनके आगे नतमस्तक थे। ऐसे निरभिमानी विद्वत्वर की सरलता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थी।
उनका मेरे प्रति सदैव वात्सल्य भाव रहा है। यद्यपि मैं तो उनके सामने जैनागम के ज्ञान की दृष्टि से नगण्य ही था। पर वे मेरी इज्जत करते थे। आवश्यकता से अधिक सम्मान देकर मेरा गौरव ही बढ़ाते थे। उनके साथ 1-2 बार सागर में ही प्रवचनादि करने का गौरव भी मुझे प्राप्त हुआ था।
सेवा और समर्पण उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू था । वे मोराजी में एक अध्यापक के रूप में तो कार्यरत थे पर वास्तव में मात्र अध्यापन करना ही उनका कार्य नही था। अपितु वे बच्चों को संस्कारी बनाने का गुरुतर कार्य करते थे। वे निरंतर चाहते थे कि जैन समाज के युवक आगम का ज्ञान प्राप्त करें, संस्कारों से चारित्रवान बनें और पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी के पदचिन्हों पर चलें। उन्होंने संस्था को नौकरी का स्थान न मानकर उसे अपना घर-परिवार माना और उसके विकास हेतु निरंतर कार्यरत रहे । काम करने में उन्होंने घड़ी नहीं देखी । निरंतर कार्यरत रहना ही उनका स्वभाव था। उनके ज्ञान और
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ समर्पण में सागर की समाज भी ज्ञान गंगा में निरंतर अवगाहन करती रही। वे एक दृष्टि से समाज के संस्कार निर्माता ही रहे। उनके बारे में यो कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने समाज से भौतिक भोजन लिया और उसे अनेक गुणा करके ज्ञानामृत के रूप में लौटाया। समाज कभी उनके ऋण से उऋण नही हो सकता।
ऐसे ज्ञानी त्यागी सेवाभावी समर्पित व्यक्तित्व का देह निधन भले ही हो गया हो पर उनके कार्य सदैव उन्हें जीवित रखेंगे। वे देह से हमारे बीच नहीं है पर उनके द्वारा रोपे गये संस्कार शिक्षा के बीज हर हृदय में हरियाते रहेंगे । उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित कर मैं स्वयं को धन्य मानता हूँ।
सरल हृदय पंडित जी
रतनलाल बैनाड़ा
प्रोफेसर कालोनी, आगरा पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य अत्यंत सरल हृदय विद्वान थे । मेरा उनका सर्वप्रथम परिचय तब हुआ जब वे पर्वृषण पर्व के अवसर पर प्रवचन हेतु, दोबार आगरा पधारे थे। उनके प्रवचनों को आगरा समाज ने बहुत पसंद किया था। इसका कारण यह था कि वे सरल भाषा में प्रवचन देते थे। तत्त्वार्थ सूत्र का अर्थ भी इस प्रकार समझाते थे, जो सभी महिला पुरुषों को सहज ही गले उतर जाता था। प्रश्नों के उत्तर देने में वे कभी झुंझलाते नहीं थे एक बार तो प्रथम अध्याय के एक सूत्र पर इतने प्रश्नोत्तर हुए कि पूरा समय उसी में निकल गया । परन्तु उनको तनिक भी गुस्सा या झुंझलाहट नहीं आई थी। वे हमेशा अपने लिए कुछ भी नहीं चाहते थे। पर्व के अंत में जब कुछ देने की बात उठती थी तो हमेशा यही कहते थे मुझे कुछ नहीं चाहिए जो भी देना हो , संस्था के नाम का ड्राफ्ट बनवा दो।
हमारे ट्रस्ट से छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाती थी। सागर से 20-30 छात्रों के प्रतिवर्ष पत्र आते थे कि हमको इतने रुपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति दी जाये । मैं उन पत्रों को पंडित जी के पास भेजता था कि यथार्थ में कितनी छात्रवृत्ति दी जानी चाहिए। पंडित जी साहब, छात्रों द्वारा लिखी गई राशि को बदलकर, सही राशि लिख भेजते थे। जो राशि, वांछित राशि से बहुत कम होती थी। उनका लक्ष्य था कि यदि अधिक छात्रवृत्ति दे दी जायेगी तो छात्र बिगड़ जायेगा, गलत शौक लग जायेंगे। अत: केवल आवश्यक राशि ही दें।यदि कोई छात्र अन्य स्थान से भी छात्रवृत्ति ले रहा होता था तो वे स्पष्ट रूप से इन्कार कर देते थे। ऐसे निर्लोभी, भोले भाले व्यक्तित्व के धनी पंडितों का वर्तमान में तो अभाव सा लगता है। मैं उनको श्रद्धापूर्वक नमन करता हूँ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन सिद्धांत पारगामी महा मनीषी
डॉ. श्रेयांस कुमार जैन
अध्यक्ष अ.भा.दि. जैन शास्त्री परिषद जैनागम और सिद्धांत के ज्ञाता विद्वान अंगुलियों पर गिने जाते है ।इन विरल विद्वानों में पंडितप्रवर डॉ. दयाचंद जैन साहित्याचार्य सागर का नाम सुविश्रुत है। पंडित जी का जीवन सादा था किन्तु पुस्तकें और लेखनी उसे असाधारण बनाये रखीं। विद्यार्थियों को गणेश वर्णी दि. जैन महाविद्यालय सागर में पढ़ाते हुए भी अपने अनेक सिद्धांत सम्मत शोधात्मक लेख लिखे जिनको समस्त विद्वत्समुदाय ने सराहा है । आलेखों के साथ साथ ग्रंथों के अनुवाद /सम्पादन / लेखन में सतत संलग्न रहे।
संस्कृत साहित्य के अध्यापन द्वारा महाविद्यालय के प्राचार्य पद के उत्तरदायित्व का बखूबी से निर्वाह करते हुएआगम और अध्यात्म विषयक अध्ययन और लेखन पंडित जी की विलक्षण प्रतिभा की फलश्रुति है।
पंडितप्रवर के इसी प्रतिभा वैशिष्टय ने हमें प्रभावित किया हुआ था । पंडित जी के सद्प्रयत्न से मोराजी के प्राङ्गण अ.भा.दि. जैन शास्त्री परिषद का विशाल प्रशिक्षण शिविर और अधिवेशन 1993 में आयोजित हुआ था जिसमें विद्वानों को अधीती विद्वान के द्वारा जो मार्गदर्शन मिला था वह मेरी स्मृतियाँ संजोए हुए हैं। हम सभी ने तभी शास्त्री परिषद की ओर से पंडित श्री को सम्मान और पुरस्कार प्रदानकर अपनी विनय प्रगट की थी। उनकी विद्वत्ता और सरलता ने उन्हें विशेष प्रतिष्ठा प्रदान की हुई थी।ठीक ही
वैपश्चित्यं हि जीवाना या जीवित मभिनन्दितम् ।
अपवर्गेऽपि मार्गोऽय, मदः क्षीर मिवौषधम् ॥ विद्वत्ता मनुष्य के लिए जीवन पर्यन्त प्रतिष्ठाजनक होती है और जिस प्रकार दुध पौष्टिक होने के साथ साथ औषधि रूप भी है उसी प्रकार विद्वत्ता भी लौकिक प्रयोजन साधक होती हुई मोक्ष का कारण बनती है।
विद्वानों में उनका विशेष सम्मान उनके गुणों का ही वैशिष्टय है । पंडित जी का शास्त्रीयज्ञान और व्यक्तित्व निश्चित ही अभिनंदनीय था।पंडित जी के जीवनकाल में उनका अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित नहीं हो सका किन्तु उनके शिष्यों के अध्यवसाय से स्मृति ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है यह प्रसन्नता का विषय है गुणीजन के गुणानुवाद पूर्वक कृतज्ञता तो व्यक्त की जा रही है। इस प्रसंग में जैन श्रुताभ्यासी विद्वत्प्रवर डॉ. दयाचंद साहित्याचार्य के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ पंडित जी श्रद्धा और आदर के योग्य थे ही क्योंकि जो विद्वान है और जिन्होंने शास्त्र की शिक्षा प्राप्त की है वह लोकद्वय पूज्य है।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ - बहुमुखी सरस्वती पुत्र
प्रोफेसर बिमल कुमार जैन
सागर पूज्य डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का स्मृतिग्रंथ प्रकाशित हो रहा है यह जानकर परम प्रसन्नता हुई। पंडित जी का प्रारंभिक जीवन अत्यंत कठिन था, किन परिस्थितियों में उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई यह सभी को ज्ञात है । आपने एम.ए. सिद्धांत शास्त्री की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। 1990 में डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से “जैन पूजा काव्य " विषय पर आपको पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई। आपका स्वभाव अत्यंत सरल था । आपके सानिध्य में सैकड़ों छात्रों ने शिक्षा प्राप्त की और आज देश के विभिन्न क्षेत्रों मे जैन धर्म का प्रचार - प्रसार कर रहे हैं। मैंने यद्यपि पंडित जी से शिक्षा प्राप्त नहीं की परन्तु उनका सानिध्य एवं सम्पर्क मुझे समय - समय पर मिलता रहा और अंत समय तक मुझे उनका मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद प्राप्त होता रहा।
पंडित जी समाज के एक प्रमुख विद्वान थे। किसी विद्वान ने लिखा है “विद्वान समाज के मुख होते हैं वे देव शास्त्र एवं गुरु के सच्चे स्वरूप के प्रतिपादन में निपुण होते है।" उनके इन्हीं गुणों के कारण कहा जाता है कि “विद्वान सर्वत्र पूज्यते'। पंडित जी महान धर्म प्रभावक एवं वात्सल्य की प्रतिमूर्ति थे। पंडित जी को अपने जीवन में अनेकों पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए । पंडित जी द्वारा लिखित एवं संपादित ग्रंथों की संख्या यद्यपि कम है फिर भी जो ग्रंथ पंडित जी द्वारा लिखे गए उनमें उनकी कुशल लेखन क्षमता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। पंडित जी इस युग के एक महान विचारक, चिंतक, लेखक एवं धर्म के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनकी पावन स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए "साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ" स्मृति ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। मैं पंडित जी के चरणों में अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ शत् शत् नमन करता हूँ।
बधाई, शुभ कामनाएँ और नमन
__ प्रो. हीरालाल जैन पाण्डे' हीरक' शास्त्री
धन्ना हीराचंद्रा भवन, लखेरापुरा, भोपाल मैं "डॉ.पं. दयाचंद साहित्याचार्य स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति" को बधाई एवं शुभ कामनाएँ प्रेषित कर स्तुत्य कार्य की भूरी भूरी प्रशंसा करता हूँ।
"डॉ. पं. दयाचंद साहित्याचार्य के विषय में स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन" उनकी विद्वत्ता, साहित्य सेवा, समाज सेवा तथा "श्री गणेश दि.जैन संस्कृत महाविद्यालय" की उदात्त अध्यापन और संचालन सेवाओं का कृतज्ञ मूल्यांकन एवं श्रद्धा सुमनांजलि है।
वे मेरे अध्ययन काल में उच्च कक्षा के छात्र थे। वे वर्णी गुरुकुल के मेधावी आदर्श छात्र थे। वे मेरे अग्रजतुल्य थे अत: दिवंगत मनीषी को मेरा सादर नमन ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पंडित जी के प्रति श्रद्धा सुमन
डॉ. सुशील जैन
मैनपुरी उ.प्र. परमादरणीय डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का "स्मृति ग्रंथ" प्रकाशित हो रहा है यह जानकर प्रसन्नता हुई । शाहपुर में सन् 1915 में पं श्री भगवानदास एवं श्रीमती मथुराबाई की कुक्षि से जन्मे बालक पर पू. वर्णी जी का बहुत प्रभाव व संस्कार पड़े जिससे वह धर्म क्षेत्र में प्रविष्ट हुए सागर विद्यालय में स्वयं अध्ययन भी किया तथा बाद में वहाँ अध्ययन भी कराया, अन्त में उन्होंने अपने वेतन का त्याग करके 5-6 वर्ष संस्थान की निशुल्क सेवा की, ऐंसी निर्लोभिता का उदाहरण विरले लोगों में ही मिलता है। आज जब विद्वान भी पैसे के प्रभाव में आगम का अवर्ण वाद तक करने में नहीं हिचकते वहाँ आ. पंडित जी की निर्लोभिता एक आदर्श उदाहरण बनती है । पंडित जी बहुत ही भद्र परिणामी एवं सरलवृत्ति के थे। भौतिक वाद की चकाचौंध, दिखावा, झूठेदंभ, मायाचारी से वह सदैव दूर रहे। आगम का उन्हें अच्छा ज्ञान था । शास्त्रीय परम्परा का निर्वाह करने वाले विद्वानों में उनका प्रभावी योगदान था विभिन्न स्थानों में मिले उनके पुरस्कार इसी बात का परिज्ञान कराते है। गतवर्ष उनके स्वर्गवास से विद्वत जगत की अपूर्णनीय हानि हुई। स्मृतिग्रंथ के प्रकाशन से उनकी सेवाओं की स्मृतियों का इतिहास के लिए उपयोगी संग्रह होगा। परमादरणीय पंडित जी के प्रति अपनी विनयांजलि अर्पित करता हूँ। उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके गुणों के प्रति अनुराग रखे।
विनम्रता की साक्षात् प्रतिमूर्ति पं. दयाचंद जी
डॉ. कपूर चंद जैन
खतोली, उ.प्र. सागर जब जब जाना हुआ, मोराजी और वहाँ स्थापित पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी की मूर्ति के दर्शन करने की भावना प्रबल होती रही, फलत: वर्णी जी के दर्शन की अनिवार्यता सी हो गई। मोराजी में ही पं. दयाचंद जी से पहली मुलाकात हुई उनकी विनम्रता और सहजता ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया, फिर तो जब भी मोराजी जाना होता पंडित जी से चर्चा किये बिना आना नहीं होता। साहित्य, संस्कृति शिक्षा, समाज सभी पर चर्चाएँ होती, उनकी स्पष्ट वादिता अच्छी लगती। बिना लाग लपेट के अपनी बात कहना उनका अद्वितीय गुण था। 'जैन पूजा काव्य' पर उनकी पुस्तक अपना उदाहरण आप हैं। उसका भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित होना प्रामाणिकता का परिचायक है। अपनी 'प्राकृत एवं जैन विद्या' शोधसंदर्भ में हमने इसका उल्लेख किया है। पंडित जी की स्मृति में उनके शिष्य /प्रशिष्य | भक्त एक स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन कर रहे हैं, यह सुखास्पद है। पंडित जी की कीर्ति कौमुदी "यावच्चदं दिवाकरौ" दिग दिगन्त व्यापिनी रहे, ऐसी मंगल भावना के साथ।
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
कसौटी पर खरे : पंडित दयाचंद साहित्याचार्य जी
डॉ. ज्योति जैन
डिग्री कालेज, खतौली (उ.प्र.)
धर्म एवं संस्कृति के विकास में जैन विद्वानों का अभूतपूर्व योगदान रहा है। विद्वानों में एक ओर तो देव शास्त्र गुरु के प्रति श्रद्धा भक्ति और समर्पण की भावना रहती है, दूसरी और कुरीतियों, अंधविश्वासों का विरोध करने की क्षमता भी होती है। विद्वान ही समाज में धार्मिक एवं नैतिक संस्कारों को पुनरूज्जीवित करते रहते है इस कसौटी पर खरे उतरे पंडित दयाचंद शास्त्री ने अपना समस्त जीवन धर्म प्रचार एवं शिक्षा के लिए समर्पित कर दिया था आपके निर्देशन, सूझबूझ, लगन और निष्ठा से जहाँ संस्था प्रभावित हुई वहीं जीवन की कर्मठता भी उजागर हुई। पंडित जी सा. एक विनम्र विद्वान होने के साथ साथ दिखावटी प्रचार प्रसार से दूर रहे तथा अपनी सात्त्विक वृत्ति सरल - मधुरवाणी आदि गुणों को समेटे जैनधर्म के सिद्धांतों को सदैव प्रचारित प्रसारित करते रहे, मोराजी में एक लंबे समय तक कार्यरत रहे और संस्था के उत्थान के प्रति लगनशील रहे। आपकी दीर्घ सेवा गहन साधना और समर्पण के आगे हम सभी नतमस्तक है समाज सदैव आपका ऋणी रहेगा ।
सहज स्वभाव,
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आगम निष्ठ आदर्श मनीषी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
अनूप चंद्रजैन एडव्होकेट फिरोजाबाद (उ.प्र.)
श्रद्धेय डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य आर्षमार्गी, तलस्पर्शी मनीषी विद्वान थे। अपने लेखन चिंतन और प्रवचन से उन्होंने जिनवाणी की सेवा, आराधना और उपासना की तथा जैनधर्म और दर्शन प्रचार प्रसार में आजीवन समर्पित रहे । गलत सिद्धांतों से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। वे एक श्रेष्ठ श्रावक, समाज सेवी भी थे। तीर्थो के संरक्षण, सम्वर्धन और जीर्णोद्धार तथा उनकी उचित व्यवस्था
भी वे बड़ी निष्ठा से जुड़े रहे। उनके निधन से पुरानी पीढ़ी के स्तंभ विद्वानों की एक कड़ी हिली है। टूटी है आज आवश्यकता है कि उनके ज्ञान और आचरण का अनुकरण हो श्रद्धेय पं. जी की मधुर स्मृतियों को संजोकर रखने में यह स्मृति ग्रंथ एक मील का पत्थर साबित होगा जिसे आधार बनाकर आधुनिक विद्वान अपने को भी उन आदर्शो के प्रति समर्पित कर सकेंगे। मेरी विनम्र श्रद्धा और नमन ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उदार हृदय पंडित जी
डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन
गाजियाबाद सरल, सौम्य, सहृदय और सरस्वती के वरदपुत्र साहित्य मनीषी स्व. पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य का मुझे सदैव आशीर्वाद प्राप्त रहा है। उन्होंने श्री गणेश वर्णी दि. जैन सं. महाविद्यालय सागर में रहकर कर्मठ प्राध्यापक और प्राचार्य के रूप में जो अपनी महनीय सेवाएँ प्रदान की हैं, उनका मूल्य समाज कभी नहीं चुका सकता । निश्चितरूप से उनका वह योगदान इतिहास के पृष्ठों में अमर रहेगा, पंडित जी ने पर्युषण पर्व एवं अन्य अवसरों पर अपने व्याख्यानों द्वारा समाज को धर्म की ओर अभिमुख करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। जैन विद्या के क्षेत्र में धर्म दर्शन व्याकरण काव्य और साहित्य जैसे विषयों पर अनेक शोध आलेख तथा जैन पूजा काव्य एक चिंतन, भगवान महावीर मुक्तक स्तवन, पूज्य वर्णी जी का संक्षिप्त परिचय, धर्म राजनीति में समन्वय और विश्वतत्व प्रकाशक स्याद्वाद आदि कृतियाँ एवं अनेक शोधपरक उनके आलेख प्रशंसनीय है। यही कारण है कि जैन समाज ने आपकी इन्हीं सेवाओं, जिनवाणी की उपासना, जिनधर्मानुकूल आचरण तथा अगाध पाण्डित्य आदि से अभिभूत होकर आपको धर्म दिवाकर, साहित्यभूषण आदि अनेक उपाधियों से अलंकृत किया है।
मुझे स्मरण है, सन् 1977 में मैं जब व्यक्तिगत कार्य से सागर गया था, उस समय मैंने उनसे स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी की खराब हो रही स्थिति के संबंध में चर्चा की थी। पंडित जी ने मुझे सुझाव दिया था कि मैं वाराणसी छोड़कर अन्यत्र अध्ययन के लिए चला जाऊँ मैंने कहा पंडित जी कहीं के लिए आप संस्तुति कर दीजिए मैं चला जाता हूँ उन्होंने कहा ऐसी स्थिति में मेरी कौन सुनेगा, जब बड़े पंडित जी तुमसे नाराज हो । हाँ, ऐसा करो सागर आ जाओ और सागर विश्वविद्यालय से पीएच.डी कर लो, हम तुम्हारा पूर्ण सहयोग करेंगे । इस तरह पं. जी उदार, सहयोगी एवं सहृदय होने के साथ स्वाभिमानी भी थे। आज पंडित जी हमारे सामने नहीं है लेकिन उनके कार्य हमारे सामने है जो उन्हें सदैव अमर बनाये रखेंगे |हार्दिक नमन पूर्वक हम उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते है।
श्रद्धापूर्ण श्रृद्धांजलि
डॉ. संजीव सराफ
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उ.प्र.) ___पंडित डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य आज हमारे समक्ष नहीं हैं फिर भी उनकी पवित्र वाणी से ज्ञान की किरणें दीपशिखा की भांति बराबर प्रवाहित हो रही हैं। मैं पंडित जी के श्री चरणों में श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ कोटिशः नमन करता हूँ।
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
मेरी स्मृतियाँ
डॉ. नेमिचंद्र जैन खुरई
स्व. पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य मेरे गुरु थे। मैंने सन् जुलाई 1949 से 1955 तक छात्रावासी नियमित छात्र के रूप में एवं अप्रैल 1958 तक अंशकालीन विद्यालयीन छात्र के रूप में श्रीगणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी भवन सागर में अध्ययन कर प्रथमा, मध्यमा, काव्यतीर्थ परीक्षा उत्तीर्ण की थी। उक्त समय पंडित जी ने मुझे संस्कृत भाषा एवं जैन सिद्धांत के ग्रंथों का अध्ययन कराया था । पंडित जी संस्कृत भाषा एवं जैन दर्शन के श्रेष्ठ विद्वान थे । उनका जीवन पूर्णत: अनुशासित था । वे प्रात: 5 बजे से रात्रि 10 बजे तक की अपनी दिन चर्या घड़ी के कांटों के आधार पर नियमित चलाते थे । प्रात: 5 बजे विद्यालय में उपस्थित होकर हम छात्रों के विभिन्न प्रकार के शारीरिक व्यायाम कराते थे, स्वयं भी व्यायाम करते थे । इस प्रकार "स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क हो सकता है" की उक्ति को चरितार्थ करते थे परिणाम स्वरूप हम सब शरीर एवं मस्तिष्क से पूर्णतः स्वस्थ रहे मुझे याद है कि विद्यालयीन जीवन में मैं कभी भी अस्वस्थ नहीं रहा। 1954 में पंडित जी हम छात्रों को सेवादल के रूप में श्री पपौराा जी क्षेत्र के मेला में ले गये थे । उस समय रात्रि में विभिन्न प्रकार के व्यायाम प्रदर्शन छात्रों ने पंडित जी के निर्देशन में प्रस्तुत किये थे तथा समाज एवं मेला समिति के द्वारा अनेक पुरस्कार प्राप्त किये थे । पंडित 1 जी पहले छात्रों को भोजन कराते बाद में स्वयं आहार ग्रहण करते थे । विद्यालय के छात्रों को पुत्रवत् स्नेह पंडित जी से मिलता था। पंडित जी को कभी भी विद्यालय में देर से उपस्थित होते नहीं देखा । प्रातः 10 बजकर 20 मिनट पर विद्यालय लगता था पंडित जी 5 मिनट पूर्व उपस्थित हो जाते थे ।
प्रशंसनीय कुशल शिक्षक -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
पंडित जी एक व्युत्पन्न कुशल शिक्षक थे । कक्षा में जो विषय पढ़ाते थे वह छात्रों के मस्तिष्क में भर देते थे परिणामस्वरूप मैंने कक्षा में पढ़ने के बाद छात्रावास में पढ़ने या याद करने की आवश्यकता नहीं समझी और न कक्षा में कभी मार खाई । लघु सिद्धांत कौमुदी एवं शिवराज विजय ग्रंथों को तो ऐसा पढ़ाया था जो आज तक याद है। पंडित जी केवल पढ़ाते ही नहीं थे बल्कि दूसरे दिन पढ़ाये गये विषय को सुनते भी थे। उनकी शिक्षण पद्धति सूक्ष्म से स्थूल की ओर चलने वाली थी । कक्षा में जो छात्र कमजोर रहते थे उन्हें योग्य बनाने के लिये किसी भी प्रकार की प्राईवेट ट्यूशन की व्यवस्था नहीं थी अतः कक्षा के होशियार छात्रों के साथ 4-4 छात्रों को पढ़ने की टोली व्यवस्था पंडित जी की शिक्षण पद्धति का एक प्रकार था अत: अनुत्तीर्ण छात्र उत्तीर्ण होते थे द्वितीय श्रेणी वाला प्रथम श्रेणी एवं प्रथम श्रेणी वाला छात्र विशेष योग्यता के अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण होता था । वे छात्रों के बहुमुखी विकास के लिए प्रयत्नशील रहते थे ।
छात्रों को पुत्रवत् स्नेह प्रदाता -
मुझे स्मरण है कि विद्यालय में पुत्रवत स्नेह मिलता ही था पर जब मैं 1971 में आरा से आकर खुरई
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्थित एस.पी. जैन गुरुकुल उच्चतर मा. विद्यालय का प्राचार्य बना तो पंडित जी का स्नेह अत्याधिक मिला । जब भी मिलने जाता बढ़े स्नेह से प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वाद देते थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण साहित्य मुझे सस्नेह भेंट में दिया जो मेरे पास सुरक्षित है। लगभग 1976 में पंडित जी प्रवचन करने अजमेर गये थे। वे श्री सेठ सोनी जी के मंदिर में प्रवचन करते थे। मैं मुनियों के बीच श्री सोनी जी की नशिया में प्रवचन करता था। पूज्य पंडित जी प्रात: 8 बजे से होने वाले प्रवचन में सोनी जी की नशिया में आकर मेरा प्रवचन सुनते थे और प्रवचन के बाद प्रसन्नतापूर्वक मुझे आशीर्वाद देते थे तथा उत्साहवर्धन करते थे।
__पंडित जी अनुशासन प्रिय, कुशल शिक्षक, छात्र हितैषी, छात्रों को पुत्रवत् स्नेह प्रदान करने वाले, उच्च कोटि के विद्वान थे। उनकी स्मृतियों को स्थायी बनाने के लिए स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति एवं सम्पादक मण्डल को साधुवाद देता हुआ पूज्य पंडित जी के श्रीचरणों में आदरांजलि अर्पित करता हूँ
इत्यलम्
जैन समाज के सुमेरु थे पं. श्री दयाचंद जी
सुरेश जैन मारौरा
वरिष्ठ उद्यान विकास अधिकारी उद्यान विभाग, शिवपुरी पंडिज जी जैन दर्शन के वरिष्ठ मूर्धन्य विद्वान, जैन विधा के अप्रतिम मनीषी उच्च कोटि के सहृदय कर्मठ समर्पित और जागरूक शिक्षक, अप्रतिम अद्वितीय, अलौकिक प्रतिभा एवं महान व्यक्तित्व के धनी, विद्वत जगत के जाज्वल्यमान नक्षत्र, क्षमा मार्दव और चर्तुमुखी प्रतिभा संपन्न, प्रगाढ विद्वता, सौम्य व्यक्तित्व के कर्तव्यशील, जैन जगत के गौरव, अमूल्य निधि, जैन समाज के भूषण थे।
पंडित जी निस्पृह साहित्य और समाज सेवक, समाज के मार्गदर्शक, समता - ममता के अनुरंजक जीवन मूल्यों के प्रति आस्थावान, मधुर व्यवहारी, युग प्रेणता, धर्मानुरागी, साहित्य सेवी, तत्वज्ञान के भण्डारी, निर्लोभी, युग पुरुष और जैन धर्म को स्वयं जीवन में उतारने वाले मुनि भक्त रहे है
__पंडित जी ने नास्तिकता के परिहार के ध्येय से एक शोध प्रबंध "जैन पूजा काव्य एक चिंतन" लिखा जिसके अध्ययन अनुशीलन से साहित्य संस्कृति कला पुरातत्व, दर्शन चिंतन से समाज अत्यंत प्रभावित हुई है । ऐसे उत्कृष्ट व्यक्तित्व के धनी डॉ. पंडित श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य की पावन स्मृतियों को चिर स्थाई रखने के लिए मैं अपनी सादर विनयांजलि श्रंद्धाजलि समर्पित कर रहा हूँ इस विश्वास के साथ इस स्मृति ग्रंथ के माध्यम से पाठकों को इस महा मानव के व्यक्तित्व कृतित्व का अध्यापन करने का सुअवसर प्राप्त होगा।
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
विनम्रता की मूर्ति
डॉ. पी. सी. जैन
प्राचार्य, शा. महाविद्यालय, खुरई
सन् 1951 से 2005 तक गणेश प्रसाद वर्णी दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय में अध्यापक से प्राचार्य तक आपकी प्रतिष्ठा एक सुखद अध्याय के समारंभ का आधार बनी । संस्था के प्रथम पुरुष प्राचार्य के रूप में अनेक अवसरों पर व्युत्पन्न विषम परिस्थितियों के समाधान हेतु आपने जिस धैर्य, दृढ़ता और प्रत्युत्पन्नमतित्व का परिचय दिया है । वह समाज के सर्वथा अनुकरणीय एवं प्रेरणा का अजस्र स्रोत रहेगा। साम्प्रतिक परिवेश में अनुदिन प्रवर्धमान युवा आक्रोश के तीखेपन में तली समस्याओं का समाधान प्राप्त करना वस्तुतः लोहे के चने चबाना है इस दृष्टि से अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के द्वारा इस महाविद्यालय में आप शलाका पुरुष की भांति दीप्तिमान रहे।
जीवन की सांध्य वेला में भी घण्टों आसनस्थ रहकर कार्य करते रहना यश और धन की लिप्सा से विरक्त रहकर श्रम की पूजा को ही सर्वोपरि समझना क्षुद्र स्वार्थी और प्रलोभनों से परे आज के व्यवसायिक युग में सर्वथा विरल है। पुरानी पीढ़ी की कर्मनिष्ठा, आचरणगत पवित्रता और उदार समताप भावना जिसे अंग्रेजी में सिक्रिटिज्म कहते हैं आपके चरित्र के प्रस्थान बिन्दु थे ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
विरक्त का निर्विकार होना सहज है किन्तु गृहस्थ का निर्विकार होना उतना ही कठिन और दुःसाध्य है राग और द्वेष से ऊपर उठना मानवता का चरम साध्य है आप अपने सहकर्मियों और सहवर्गियों से प्रशासन व्यवस्था के अभिक्रम में यदाकदा असहमत और असंतुष्ट हुए किन्तु असहमति या असंतोष एक बार भी किसी की हानि का कारण बना हो इसका उदाहरण नहीं मिलता। यह आपके निर्विकार मन और मानवीय सहानुभूति का जीवांत प्रतीक बनकर हमारी स्मृति में बहुमूल्य धरोहर के रूप में सुरक्षित रहेगा। आपका जीवन सामान्य भूमि पर अधिष्ठित था । आपकी जीवन सरिता, सहजता और सरलता उभयकूलों के बीच से प्रभावशील हुई है। आज के इस प्रदर्शन युग में जहाँ चतुर्दिक् दम्भ और आडम्बर का बोलबाला है । वहाँ आप अपनी सहजता और साधारणता से विचलित नहीं हुए। पद और प्रतिष्ठा का दंभ आप पर कभी हावी नहीं हुआ यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है आपाधापी की आंधी में सज्जनता के प्रदीप को प्रज्जवलित रखने में समर्थ रहे यह आपकी इष्टापत्ति थी ।
अंत में सर्वमान्य सहित आप स्वस्थ्य रहकर पूर्ण आयु का उपभोग र रके अंतानंत जीवन में बिहार कर गये जहाँ से सदकर्म करते हुए स्वर्ग पहुँचेंगे। हम सभी आपको साश्रुनयन और अवरूद्ध कंठ से विदा देते हैं। आगे आने वाली पीढ़ी आपको सदा याद रखेगी ऐसी हमारी आकांक्षा है।
हम हैं आपके शुभाकांक्षी
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सम्मानीय शुभांजलि
कपूरचंद जैन, पाटनी
महामंत्री : असम प्रादेशिक दिगम्बर जैन (ध.स.) महासभा साहित्याचार्य डॉ. पं. दयाचंद दिगम्बर जैन समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त गणनीय विद्वान थे। इन्होंने जिनवाणी की महती सेवा की है । सेवारत रहकर जैन दर्शन, जैन साहित्य के क्षेत्र में बहुत कार्य किया है। वर्तमान नई पीढ़ी को शिक्षा - दीक्षा देकर धर्मनिष्ठ एवं सुसंस्कृत बनाया है। अपनी अनवरत साधना
और जैन वाङ्मय के अध्ययन - अनुशीलन ने उनकी सेवा का क्षेत्र काफी व्यापक बनाया | वे कुशल वक्ता, सुयोग्य लेखक, सम्पादक तथा अनुवादर के रूप में समादृत हुए। वे साहित्य जगत क्सी विविध मुखी प्रवृत्तियों एवं योजनाओं मे. योगदान करने में सदैव क्रियाशील रहे । आपने अपने जीवन काल में अनेक ग्रंथों की रचना की जिनमें प्रमुख है “जैन पूजा काव्य एक चिंतन", चतुर्विशति संधान महाकाव्य (सम्पादित), भगवान महावीर मुक्तक स्तवन आदि। पंडित जी को इनकी रचनाओं पर अनेक पुरस्कार भी प्राप्त हुए । आप बुंदेलखण्ड के महान संत पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी के स्नेह भाजन रहे । उनका इनके ऊपर आशीर्वादात्मक वरद हस्त रहा । वे धर्म सेवा के प्रेरणा स्रोत रहे।
विद्वान किसी स्थान या समाज या देश विशेष का नहीं होता। वह स्वच्छ नीर की तरह जन -जन को जीवन एवं प्रेरणा देने वाला, सुपथ दर्शाने वाला, आदरणीय एवं पूज्य होता है। राजा - महाराजाओं की मान्यता उनके शासित प्रदेशों में ही होती है, किन्तु विद्वान सूर्य के प्रकाश की तरह सर्वगामी एवं सर्वग्राह्य, सर्वमान्य, आराधनीय होता है । पंडित जी ने सागर को ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय जैन समाज को उपकृत किया है, जैन वाङ्मय की अपूर्व सेवा की है । ऐसे बहुश्रुत मनीषी विद्वज्जन की पावन स्मृति में प्रकाशित स्मृति ग्रंथ की सफलता की कामना करता हूँ।
विनयांजलि
डॉ. आनंद प्रकाश शास्त्री
___ कोलकाता पं.जी का छात्रावास की सेवाओं में बहुत बड़ा योगदान रहा है। पं. जी का साहित्य सेवा में भी अनुकरणीय योगदान रहा है । पं. जी से कई प्रकार के मार्गदर्शन मिले थे जो आज हमारा पथ प्रशस्त कर रहे हैं उनकी हर अनुभवी बातें आज बहुत ही प्रेरणास्पद है जिसका हमें समय-समय पर बहुत लाभ होता है। ऐसे बहुमुखी एवं साहित्य सेवाभावी पूज्य पं. जी के प्रति हम विनयांजलि प्रगट करते हैं।
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शुभाशीष/ श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विनयांजलि
सिंघई बालकचन्द्र जैन
बड़ा बाजार, सागर (म.प्र.) मुझे यह जानकर आत्मीय प्रसन्नता है कि पुरानी पीढी के राष्ट्रीय स्तर के ख्यातिनाम सरस्वती के वरदपुत्र स्व. डॉ. पं. दयाचन्द्र जी साहित्याचार्य प्राचार्य श्री गणेश दिगम्बर संस्कृत महाविद्यालय (मोराजी) सागर का ‘स्मृतिग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। यह समाज के लिए गौरव की बात है। मैं अपनी हार्दिक विनयांजली सम्प्रेषित करता हूँ।
दयाचंद दया के धनी
शान्तिलाल जैन,बैनाड़ा
हरी पर्वत आगरा (उ.प्र.) बड़े ही हर्ष का विषय है कि आप स्व. आदरणीय श्रीमान् पं. दयाचंद जी जैन साहित्याचार्य का स्मृति ग्रंथ प्रकाशन करने जा रहे है । पंडित जी आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व दशलक्षण पर्व पर प्रवचन हेतु आगरा नाई की मंडी में निमंत्रण पर आये थे और अपने ही निवास पर ठहरने की व्यवस्था की गई थी इसलिए काफी समय धार्मिक वार्तालाप में आनंदपूर्वक समाप्त होता था, आप बहुत ही सरल परिणामी निर्लोभी शांत रहकर कम बोलते हुए बहुत ही मधुर वाणी से हर चर्चा को समझाने में निपुण थे।
आपने अपने जीवन का अधिक समय पठन पाठन में ही गुजारा था और इस शताब्दी की दो महान विभूति पूज्य क्षुल्लक गणेश प्रसाद जी वर्णी एवं महान विद्वान श्रीमान् पन्नालाल जी साहित्याचार्य के साथ कदम से कदम मिलाकर उनके साथ व्यतीत किया था । पंडित जी साहिब की गिनती जैन समाज के अनमोल रत्नों में की जाती है अत: उपरोक्त तीनों महानुभाव आज मौजूद नहीं है लेकिन इतिहास इनके गुणगानों को कभी भी भूल नहीं सकता है।
पंडित जी की धर्म पत्नी के देहावसान के बाद इनकी एक सुपुत्री ने जीवन भर अविवाहित रहकर पूरा जीवन इनकी सेवा सुश्रुषा में बिताया, यह भी एक अनौखी आश्चर्यजनक घटना है। आज इनके गुणों का वर्णन लेखनी द्वारा नहीं किया जा सकता है वह स्वयं एक ज्ञान की मूर्ति थे उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन दूसरों को शिक्षा देने में लगाया । आज वे अमर हो गये, मैं तो एक अल्प ज्ञानी हूँ उनके बारे में जितना भी लिखा जाये थोड़ा है, वह इस शताब्दी के बहुत ही संतोषी, गंभीर, निर्लोभी महानपुरुष थे आज ऐसे व्यक्तियों का समाज में अभाव नजर ही आ रहा है। वह ज्ञान के एक महान शक्तिवान पुंज थे उनको निकट से देखकर साथ में रहकर जो कुछ भी देखने को मिला उनको शब्दों द्वारा व्यक्त करना असंभव है उनके जीवन की गौरवगाथा लिखना कोई आसान नहीं है ।
अंत में भगवान महावीर स्वामी से नत मस्तक होकर इच्छा करता हूँ कि वह आज जिस पर्याय में भी हो सुखी रहे और भविष्य में कर्मो की बेड़ियों को काटकर सदगति को प्राप्त करते रहें।
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
पं. रमेश चंद्र जी लार्डगंज जैन मंदिर, जबलपुर
स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य ने अपनी सेवाएँ गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में समर्पित भाव से 1951 से 2005 तक सम्पन्न की। आप भद्र परिणामी एवं सहयोगी भावना वाले थे | आपको 'विद्वत रत्न' की उपाधि से वर्ष 2001 में सम्मानित किया गया यह विद्वानों एवं पंडितजनों के लिए गौरव की बात है । अपने जीवन में अनेक राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी तथा धर्म सभाओं को संचालित किया। आपका धार्मिक जीवन सेवा भावना एवं अनुशासन से परिपूर्ण रहा है, जो कि अनुकरणीय है। उनकी अविस्मरणीय सेवाओं के उपलक्ष्य में जो स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है वह एक अविस्मरणीय एवं प्रभावनापूर्ण प्रयास है । मैं दिवंगत आत्मा की शांति सद्गति की कामना के साथ सम्पादक मण्डल एवं प्रकाशक मंडल को अपनी आत्मीय मंगलकामनाएँ प्रेषित करता हूँ ।
सुरभित सुमनांजलि
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प्रतिभा सम्पन्न -
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पं. शीतलचंद जैन शास्त्री
सागर
पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का जन्म शाहपुर के सुप्रसिद्ध अध्यात्मवेत्ता भायजी भगवान दास के घर पर हुआ था। आप पाँच भाई थे पाँचों राष्ट्रीय स्तर के विद्वान थे। भायजी साहब वर्णी जी की प्रिय नगरी के निवासी थे । आपने श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय में शिक्षक से सेवा कार्य प्रारंभ कर प्राचार्य पद पर रहकर जीवन पर्यन्त कर्मठ कार्यकर्ता के रूप में सराहनीय कार्य किया है। आपकी यह बात अत्यधिक अविस्मरणीय एवं सराहनीय है कि मरण के पूर्व तक 12/2/2006 से 15 दिन पूर्व तक सेवानिवृत्ति के उपरांत आप विद्यालय के छात्रों को महत्वपूर्ण विषयों का अध्यापन कराते रहे हैं। ऐसे कर्मयोगी कर्मठ विद्वान आज के युग में विरले ही होते है ।
सफल शिक्षक
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
कर्मठ विद्वान पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य
पंडित जी श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय के श्रेष्ठ, सफल एवं कर्मठ अध्यापक के रूप में देश भर से अध्ययन के लिए आने वाले छात्रों को 1951 से लेकर 2005 तक शिक्षा देते हुए तथा इसी बीच पं. पन्नालाल जी के प्राचार्य पद छोड़ने के बाद आप कुशल प्रशासक के रूप में प्राचार्य पद पर पदस्थ रहे। आपके प्राचार्य काल में विद्यालय में शैक्षणिक व्यवस्था के साथ साथ विद्यालय परिवार पूर्णरूपेण अनुशासित रहा ।
आप लेखनी, वाणी और कर्म के धनी, जैन दर्शन एवं साहित्य मनीषी, बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न,
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन समाज के सशक्त जागरूक प्रहरी प्राचार्य पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य हमारे नगर के गौरव एवं सम्मानित व्यक्ति थे। अखिल भारतवर्ष में आपकी कीर्ति व्याप्त थी। विनम्रता के धनी -
"विद्या ददाति विनयं" की उक्ति को चरितार्थ करने वाले डॉ. पं. दयाचंद जी विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे। आप जैन जगत में धार्मिक, सामाजिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहे है । अपनी मृदुलवाणी, सरल सौम्य व्यवहार से आप प्रत्येक मिलने वाले व्यक्ति को अपना स्वजन, आत्मीय बना लेते थे। आपका सदा सर्वत्र सम्मान होता रहा है। सचमुच जैन शिक्षण संस्थाओं / विद्यालयों में अध्यापन कार्य करने वाले जैन विद्वान कितने अल्पारभ्भी एवं आत्मसंतोषी होते है। इसकी जीती जागती प्रतिमूर्ति थे पंडित जी । इनके व्यक्तित्व पर ये पंक्तियाँ पूरी तरह लागू होती है -
कितना मृदु जीवन है इनका और सभी तत्वों का ऐसा सुधर समन्वय, प्रकृति कह रही हो मानो यही थे एक वास्तविक मानव, एक जीवंत इंसान
प्रभावशाली ओजस्वी वक्ता - आप तत्ववेत्ता, धैर्यविद एवं ओजस्वी वक्ता थे । आप गहन से गहन विषय को सरल पद्धति से समझाकर जनमानस को हृदयङ्गम करा देते थे।
वास्तव में पंडित जी सरल, सहज एवं गाम्भीर्य में समुद्र के समान थे। आपने अनेक लेख तथा धार्मिक रचनाएं की है। आपका व्यक्तित्व एवं कृतित्व सदा सर्वदा सराहनीय है। ऐसे गुरुवर आज हमारे बीच नहीं है पर उनकी स्मृतियाँ हमेशा विद्यमान रहेंगी। मैं उनके चरणों में अपनी विनम्र विनयांजलि समर्पित कर अपने आपको धन्य एवं कृतज्ञ मानता हूँ।
शुभकामना संदेश
पं. जयकुमार शास्त्री
प्रतिष्ठाचार्य नारायणपुर (बस्तर) जैन समाज के पुरानी पीढ़ी के आर्ष मार्गी विद्वानों में सरस्वती पुत्र, शिक्षण कला के धनी, अपने शिष्यों से पुत्रवत् स्नेह करने वाले, निःस्पृहि, विद्वान डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य शिक्षा के लिए समर्पित विद्वान थे । उनकी स्मृति में "साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ" स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। वह निश्चित ही स्तुत्य कार्य है। मैं ग्रंथ प्रकाशन हेतु अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ समर्पित जीवन
पं. अमृतलाल जैन शास्त्री
दमोह श्री सम्मानीय स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य सागर अलौकिक मनीषी विद्वान थे जैसा उनका नाम था वैसा दया का काम था । अपने शिष्यों पर करूणा का भाव रखते थे ये छात्र भविष्य में उन्नतिशील बने, उनके अध्ययन के लिए व्यवस्थारूप साधन भी उपलब्ध करा देते थे। अध्ययन कराते समय विषय का बहुत अच्छा प्रतिपादन करते थे शिष्य भी प्रसन्नतापूर्वक अध्ययन करते थे ऐसे अनेक शिष्यगण है जो आज भी ऊँचे - ऊँचे पदों पर कार्यरत हैं। माधुरी भाषा में धीमी धीमी आवाज से प्रवचन करते थे जिनसे समस्त श्रावक मुग्ध हो जाते थे, इससे जनजन के प्रिय थे। स्थानीय सागर समाज एवं पदाधिकारीगण सदस्यगण नवयुवक महिला समाज सभी को प्रिय थे।
प्राचार्य पद पर कार्यरत होने पर भी घमण्ड नहीं था अपनी प्रखर लेखनी से डॉ. पद को सुशोभित किया हमारा संबंध उनसे बहुत रहा कारण मैंने मोराजी में 10 वर्ष तक अध्ययन उनके ज्येष्ठ भ्राता एवं श्रीमान् पूज्य पं. माणिकचंद जी से किया था। मैं 12 वर्ष शाहपुर विद्यालय में कार्यरत रहा, उनकी सेवा करने का भी शुभ अवसर मिलता रहा हमारे प्रति उनका बड़ा स्नेह था अत: उनके प्रति मै अपनी विनयांजली सादर समर्पित करता हूँ।
सागर का अनमोल रत्न
सुरेन्द्र सिंह नेगी
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर मुझे यह जानकर सुखद अनुभव हो रहा है कि डॉ. दयाचंद साहित्याचार्य की स्मृति में एक स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है। डॉ. दयाचंद जी विनम्र, मिष्ठभाषी व तपोनिष्ठ शिक्षक के अतिरिक्त जैन दर्शन के मर्मज्ञ चिंतक रहे हैं । ज्ञानदान का उनका सारस्वत अभियान सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी उनके जीवन के अंतिम काल तक चलता रहा । उन्होंने जो कुछ भी अर्जित किया उसका गत्यात्मक स्वरूप अपने वैशिष्ट्य बोध के कारण सदैव प्रेरणास्पद बना रहेगा।
विभिन्न विद्वानों के गहन वैचारिक मन्थन से उद्भूत यह स्मृति ग्रंथ उनके जीवन के कई अनछुए पहलूओं को उजागर करते हुए युग सापेक्ष मानवोत्कर्षक मूल्यों को उद्घाटित करेगा । इस ग्रन्थ के प्रकाशन से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को मेरा विनत प्रणाम।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनुशासन प्रिय पंडित जी
पूर्णचंद जैन "पूर्णेन्दु" शास्त्री अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानांजन शलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य जिन्होंने मुझ जैसे अनेक शिष्यों को ज्ञानदान द्वारा प्रबुद्ध बनाया ऐसे उन गुरु के चरणों में अपनी विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ। विगत पाँच दशकों से अधिक समय तक श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर में अपनी बहुमूल्य सेवाएँ दी । वे गृहप्रबंधक से लेकर अध्यापक एवं प्राचार्य जैसे गुरुता पूर्ण महनीय पदों पर आसीन रहे। जीवन के अनेक उतार - चढ़ावों को पार करने वाले कर्मठ, सरल, सजग, अनुशासनप्रिय , स्वाभिमानी किन्तु निरभिमानी व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए ज्ञातव्य है कि पूज्य पण्डित जी से मेरा परिचय गुरु शिष्य परम्परा के नाते सन् 1951 - 52 में हुआ | जब मैं प्रवेशिका कक्षा का विद्यार्थी था । प्रवेक्षिका चतुर्थ खण्ड एवं प्रथम परीक्षा के दौरान प्रत्यक्ष परिचय हुआ, जहाँ उन्होंने अध्यापन के द्वारा व्याकरण +अनुवाद आदि को जो रचनात्मक ज्ञान कराया वह आज भी अविस्मरणीय है। मैं पूर्व मध्यमा तक श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में अध्ययनरत रहा जहाँ मैंने पूज्य पंडित जी के सानिध्य में व्यायाम, योगासन, लेझम, डंबल तथा खेल की अनेक विधायें सीखने को मिली। सन् 1956 में अग्रिम अध्ययन हेतु श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी चला गया जहाँ रहकर मैंने साहित्यशास्त्री, सिद्धांतशास्त्री, साहित्य रत्न एवं बी.ए. की उपाधियाँ प्राप्त की लेकिन इस अंतराल में पंडित जी से निरंतर सम्पर्क बना रहा । सन् 1961 में मैंने मध्यप्रदेश शासन में शिक्षा विभाग में शासकीय सेवा प्रारंभ कर सन् 2000 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुआ । इस अवधि में भी मुझे पूज्य पंडित जी के सानिध्य का सतत लाभ मिला।
सन् 1963 में जब श्री वर्णी स्नातक परिषद का गठन किया गया उस समय पंडित जी का आशीर्वाद, सहयोग सराहनीय रहा । सन् 1968 में विद्यालय में पुन: परिषद का अधिवेशन हुआ जिसमें मुझे वर्णी स्नातक परिषद का संयोजक बनाया गया। तब पंडित जी का अभूतपूर्ण सहयोग रहा। जब मुझे परिषद का मंत्री मनोनीत किया गया। उस समय पंडित जी से मैंने स्नातक परिषद के उपाध्यक्ष पद स्वीकार करने का अनुरोध किया तो उन्होंने बड़ी सहजता एवं आत्मीयता से इसे स्वीकार किया, तब से अब तक वे परिषद के उपाध्यक्ष रहे । वे अत्यंत सरल स्वभावी जीव थे। जब भी कोई प्रस्ताव उनके समक्ष रखा गया उन्होंने सहजता से उस प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया । वे स्वाभिमानी व्यक्ति होते हुए भी सदैव निरभिमानी रहे। उनसे "घमण्ड' नाम की बात तो कोसों दूर रहती थी । पंडित जी ने जहाँ प्रारंभिक जीवन में अपनी भूमिका के अनुरूप 'वज्रादपि कठोराणि' को चारितार्थ किया। (सुबह 4 बजे से 8 बजे तक छात्रों को कठोर अनुशासन में रखते थे) वहीं अध्यापक के रूप में मृदुनि कुसुमादपि का व्यवहार करते थे।
पू. पंडित जी सतत स्वाध्याय एवं अध्ययन द्वारा अपनी योग्यता में निरंतर वृद्धि करते रहे उन्होंने
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ साहित्याचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् सागर विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। विशेष योग्यता होने पर भी इस विद्यालय को छोड़ अन्य किसी संस्था में उच्च वेतनमान प्राप्त होने पर भी नहीं गये। भाषण और लेखन पंडित जी के दो ही व्यसन थे। भाषण कला में तो वे इतने निष्णात थे कि उन्हें समय की नहीं अपितु समय को अपनी चिंता होने लगती, और लेखन की तो बात ही क्या ? लेखनी चली तो चलती गई। हाथ कंगन को आरसी क्या ? सन् 1970 से सशक्त लेखनी का श्री गणेश हुआ तो वह अंत तक निर्वाध चलती रही। जिसने "जैन पूजा काव्य एक अनुचिंतन, चतुर्विंशति संधान महाकाव्य, धर्म और राजनीति में समन्वय, विश्वतत्व प्रकाशक स्याद्वाद" आदि अनेक कृतियों को मूर्तरूप प्रदान किया।
अंतिम समय में मैं पंडित जी के समीप ही था। भगवान बाहुबलि जी का महामस्तिकाभिषेक दि. 12/2/2006 को सम्पन्न हो रहा था। पंडित जी अपने ध्यान में लीन थे। ऊपरी शरीर की गति कुछ और थी किन्तु अंतरंग में सम्यग्दर्शन की लहरें हिलोरे ले रही थी। पंडित मरण का यह कैसा अनुपम अद्भुत दृश्य था। इसे देखकर स्वयं अनुभव किया जा सकता था। पंडित जी ने अपनी इहलीला 12.50 मि. पर शुभ मुहूर्त में समाप्त की। पंडित जी सतत जागरूक निश्छल, भद्रपरिणामी व्यक्ति थे उनके श्री चरणों में अपनी विनयांजलि पुन: समर्पित करता हूँ ॐ शांति ।
मेरे श्रद्धा पूर्ण गुरूजी
पं. खेमचंद जैन पूर्व प्राचार्य
रायल हास्पिटल जबलपुर स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य, पूर्व प्राचार्य मेरे प्रारंभिक शिक्षा गुरु रहे हैं। मैं 1950 से 1958 तक श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय में उनका आज्ञाकारी शिष्य रहा हूँ। पू. गुरुवर्य में समुद्र के समान गंभीरता थी। शाहपुर वाले पंडित जी के नाम से सभी जानते थे। इनके बड़े भाई सा. स्व. पं. माणिकचंद जी भी मेरे गुरुवर्य थे। पू. गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज के आशीष प्राप्त शिष्य पंडित जी आजीवन विद्यालय की विभिन्न पदों पर सेवा करते रहे। 91 वर्ष की आयु में भी पंडित जी खड़े होकर पूजा करते थे । युवा विद्वान की आयु में पंडित जी व्यायाम की भी सामूहिक शिक्षा देते थे। समुद्र सम गंभीरता पुण्य शाली का लक्षण होती है। उनका स्मृति ग्रंथ प्रभावना की दृष्टि से धार्मिक मार्गदर्शन कर सके। सम्पादक मंडल के सदस्य के रूप में यही मंगलकामना है । दिवंगत गुरुचरणों में पावनभाव सहित विनयांजलि सेवार्पित है।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ एक कृतकार्य मनीषी जो प्रकाश स्तंभ की भांति थे।
प्रो. कांतिकुमार जैन
विद्यापुरम मकरोनिया, सागर जिन मनीषियों ने समकालीन भारत में प्राचीन आर्ष परम्पराओं के संरक्षण एवं संवर्धन में अपना संपूर्ण जीवन खपा दिया है, उनमें साहित्याचार्य पं. दयाचंद जी अन्यतम थे । जैन दर्शन को भारतीय लोकतंत्र के उदात्त मूल्यों के संदर्भ में विश्लेषित एवं व्याख्यायित करने में दयाचंद जी की प्रतिभा अतुलनीय थी। पंडित जी अनेकांतवाद के साक्षात प्रतिरूप थे उन्होंने जीवन के उदात्त मूल्यों को आत्मसात किया था और समाज को नवीन दिशा प्रदान की थी बुंदेलखण्ड की धरती के प्रति तो उनमें असीम अनुराग था ऐसे कृतकार्य मनीषी जो प्रकाश स्तंभ की भांति चतुर्दिक आलोक फैलाते है, किसी एक युग के नहीं होते। वे हमारी चिंरतन थाती है ऐसे उदात्त विचारक, शिक्षा शास्त्री एवं सुधारक को प्रणत विनयांजलि।
वात्सल्य के धनी
ईश्वर चंद जैन
प्रबंधक /इंजीनियर ,बी.एच.ई.एल. भोपाल मुख्यत: मनुष्य जीवन में ही परम सत्य की अथवा सुख - शांति स्वरूप परम धर्म की खोज की जा सकती है, परन्तु सामान्यजन इसकी खोज में ही स्वयं को खो देते है । विरले मनुष्य ही ऐसी खोज में सफल हो पाते हैं। ऐसे ही एक व्यक्तित्व मेरे आदरणीय चाचा स्व. श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य जो अपने आप में एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि एक संस्था थे। वे जीवन पर्यन्त शिक्षक व शिक्षार्थी की भूमिका साथ - साथ निभाते रहे। जीवन के संध्याकाल में भी जिन्होंने जैन साहित्य के रहस्यों को उद्घाटित करते हुए डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की ताकि आगामी भवों का प्रातःकाल प्रकाशवान रह सकें । आदरणीय चाचा | ने स्व पर कल्याण की भावना से अपना सम्पूर्ण जीवन समाज सेवा में समर्पित किया।
मैं जब जब सागर आया, आदरणीय चाचा जी से मिलकर उनका आशीर्वाद एवं निस्पृह स्नेह पाकर हृदय से आनंदाभिभूत हो जाता था। उनके आशीर्वाद, शुभकामनाएँ एवं संदेश मुझे हमेशा प्रेरणा स्त्रोत के रूप में प्राप्त होते रहे । उनके सामीप्य के मधुर क्षणों को स्मरण कर मैं उनके प्रति आदर की भावना से ओतप्रोत हो जाता हूँ।
इस स्मृति ग्रंथ के माध्यम से, मैं आदरणीय चाचा जी को अपनी विनयांजलि व आदरांजलि समर्पित करता हूँ तथा कामना करता हूँ कि यह स्मृति ग्रंथ, जीवन की कठिन राहों पर सुख शांति की खोज में निकले पथिक जनों के लिए एक मार्ग दर्शक का महान कार्य करता रहेगा।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का व्यक्तित्व एवं कृतित्व मेरी नजर में
अशोक सेठ पिडरूवा
अध्यक्ष श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर तिलकगंज, सागर डॉ. पं. दयाचंद जी सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी और प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी निराभिमानी सरलता और सौम्यता की प्रतिमूर्ति थे उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व अपूर्व था । आप आर्ष ग्रंथों के अनुवादक, लेखक एवं रचियता भी रहे हैं। श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय के अध्यापक एवं प्राचार्य पद को जीवन पर्यन्त सुशोभित किया है । आप धार्मिक शास्त्रों के गंभीर ज्ञाता थे । ज्ञान का गांभीर्य आपके चरित्र में झलकता था। पंडित जी देव शास्त्र गुरु के परम भक्त थे।
आप सुलेखक प्रशिक्षक के साथ ही प्रखर प्रवक्ता भी थे। आपकी वाणी में ओज, मधुरता और सरलता का त्रिवेणी संगम था । अनेकों धार्मिक समारोहों में आपके द्वारा प्रतिपाद्य गंभीर विषय भी श्रोताओं को सहज ही हृदयंगम हो जाता था।
ऐसे बहुश्रुत मनीषी विद्वज्जन का स्मृतिग्रंथ "साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ " समाज को एक नई दिशा एवं आने वाली पीढ़ी को मार्गदर्शन प्रदान करेगा।
मंगलमयी कामनाओं सहित पंडित जी की स्मृति
यथा नाम तथा गुण के धनी ममगुरु
पं. आनंदी लाल जैन साहित्याचार्य
झुपेल बांसवाड़ा (राजस्थान) संसार सागर में परिभ्रमण से छुटकारा दिलाने के लिए जिस प्रकार दिगम्बर गुरुओं की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार संसार रूपी गाड़ी चलाने के लिए यथार्थ मार्ग दर्शक की जरूरत होती है। इस प्रकार के गुणों के धनी थे मम गुरु श्रीमान् श्रद्धेय आदरणीय पंडित प्रवर डॉ. दयाचंद जैन साहित्याचार्य जी । गुरुजी का जैसा नाम वैसा ही उनमें गुण था अर्थात् जैसे नारियल ऊपर कड़ा होता है और अंदर से नरम व मीठा उसी प्रकार ऊपर से पंडित जी अनुशासन की दृष्टि से कठोर तथा वात्सल्य, प्रेम करूणा दया की दृष्टि से अंदर से अत्यंत नरम थे मेरी पढ़ाई में पंडित जी ने प्राचार्य की दृष्टि व परोपकार की भावना से और मेरी पढाई की लगन आदि को ध्यान में रखकर अन्य ट्रस्टों के माध्यम से पढ़ाई में आशा के अनुरूप सहयोग किया और हमेशा गुरुजी का यही आशीर्वाद हमारे लिए रहा कि चिरंजीवी अत: उन्नति भवः ।
ऐसे गुणों के पुरोवाक् के प्रति हम कोटिशः बारम्बार नमन करते है तथा उनके प्रति अपनी भावांजलि प्रकट करते है।
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For Private
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हिमालय सा हृदय
पं. भागचंद शास्त्री
घरियावाद जिला उदयपुर (राज.) आदरणीय पंडित जी विशाल हृदय वाले निर्भीक थे। उनमें सागर सी गंभीरता, हिमालय सा हृदय, लौ पिण्ड सी दृढ़ता थी, किसी भी प्रकार का प्रलोभन उन्हें अपने मार्ग से परिच्यवन का हेतु नहीं बन पाता। आपको समाज से अनेक बार सम्मानित किया गया था। जो जिनवाणी की नि:स्पृह उपासना का फल है । पंडित जी ने अपनी मधुर परन्तु संयमी वाणी के माध्यम से समाज को सुसंस्कारित करने में योगदान दिया है। पंडित जी योग्य विद्वान थे और योग्यता का आदर होना चाहिए। मैं शुद्ध हृदय से उनका अभिनंदन करता हूँ । पंडित जी सा. “सादा जीवन उच्च विचार" ही पंडित जी के जीवन का चरितार्थ है। पंडित जी द्वारा विहित जिन शासन की प्रभावना और श्रुत सेवा चिरस्मरणीय रहेगी।
भद्रभूयात वर्धतां जिनशासनम्।
सरलता की प्रतिमूर्ति
पं. विनोद कुमार सनत कुमार जैन
__ प्रतिष्ठाचार्य, रजवांस परम्परागत विद्वानों की श्रृंखला में पं. प्रवर श्री दयाचंद्र जी साहित्याचार्य जी अग्रणी विद्वान रहे है। आपको क्रोध, मान,माया लोभ ने प्रभावित नहीं किया था सरलता, सहजता, निरलोभिता आपके विशेष गुण थे आपने पूजा साहित्य पर विशेष कार्य कर नये-नये रहस्योद्घाटन किये है आपके प्रवचन सरल, सुबोध एवं आगम के संदर्भो से ओत-प्रोत रहते थे अनेक बार आपको प्रवचनों के लिए आमंत्रित कर हमने आपके ज्ञान सरोवर में अवगाहन करने का सुयोग प्राप्त किया था। आपने जैनागम, साहित्य,समाज एवं राष्ट्र की सेवा अभिवृद्धि एवं प्रचार-प्रसार में जो योगदान दिया है उसे युगो-युगों तक स्मरण किया जायेगा।
आपकी यश: कीर्ति युवाओं में प्रेरणा एवं उत्साह का संचार करेगी ऐसी मंगलकामना ।
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
अनूठे विद्वान
ऋषभ कुमार जैन जिला आडीटर "ईशुरवारा "
"यथा नाम तथा गुण" की कहावत को चरितार्थ करने वाले पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य वास्तव में दया के भण्डार और ज्ञान के धनी थे । सिद्धांत के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ साथ पंडित जी बड़े सरल हृदयी थे, मैं उनको बार- बार प्रणाम करता हूँ अपनी विनयांजलि प्रस्तुत करता हूँ ।
अंतिम समय में मैं पंडित जी के समीप ही था । भगवान बाहुबलि जी का महामस्तिकाभिषेक दि. 12/2/2006 को सम्पन्न हो रहा था। पंडित जी अपने ध्यान में लीन थे। ऊपरी शरीर की गति कुछ और किन्तु अंतरंग में सम्यग्दर्शन की लहरें हिलोरे ले रही थी । पंडित मरण का यह कैसा अनुपम अद्भुत दृश्य था। इसे देखकर स्वयं अनुभव किया जा सकता था । पंडित जी ने अपनी इहलीला दोपहर 12.50 मि. पर शुभ मुहूर्त में समाप्त की । पंडित जी सतत जागरूक निश्छल, भद्रपरिणामी व्यक्ति थे उनके श्री चरणों में अपनी विनयांजलि पुन: समर्पित करता हूँ ॐ शांति ।
܀ ܀
मेरे श्रद्धेय पंडित जी
नीरज जैन, पार्षद लक्ष्मीपुरा, सागर
बुंदेलखण्ड माटी के सपूत आदरणीय डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य काफी सरल व सादगी के प्रतीक थे और देश के वरिष्ठ विद्वान थे। मैं आशा करता हूँ कि इनका ग्रन्थ पढ़कर सभी वर्ग प्रेरणादायी हो लक्ष्मीपुरा वार्ड के निवासी रहे थे, वह हमारे विशेष परिचित रहे है ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
܀
स्मृति ग्रंथ प्रकाशन में मेरी विनम्र विनयांजलि
आर. के. जैन सीनियर आडीटर, सागर
पंडित जी ज्ञान और चरित्र की अद्वितीय मिशाल थे, सरस्वती ने तो उनके मुख में निवास बना लिया था । इस ज्ञान का उन्होंने आचरण से सभी को परिचय कराया, उनकी वाणी संतुलित एवं वात्सल्य से भरी थी ।
पंडित जी मेरे पितातुल्य थे, उन्होंने समय- समय पर सम्यग्दर्शन की गूढ़ न्यूनताओं पर मुझे समझाइश भी दी थी, जिससे आत्म तत्व की रूचि में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। उनके द्वारा रचित एक ग्रंथ "जैन पूजा काव्य एक चिंतन" का मैंने अध्ययन किया, जो कि भक्ति के क्षेत्र में एक उत्कृष्ट कृति के रूप में साबित हुई है। उनके पावन चरणों में प्रणाम करता हुआ, देवाधिदेव भगवान महावीर स्वामी से प्रार्थना करता हूँ कि अगली पर्याय में सीमंधर स्वामी के पादमूल में अर्हन्त होकर, सुख प्राप्त करें ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
सहज स्वभावी
श्रीमती हीरा जैन, ईशुरवारा स्वभाव में सहजता, वाणी में मृदुता, हृदय में सरलता, ज्ञान में विशालता के धनी पंडित जी को मेरी विनम्र श्रृंद्धाजलि है। उनका आदर्श अनूठा एवं अनुकरणीय है।
आप लेखनी, वाणी और कर्म के धनी, जैन दर्शन एवं साहित्य मनीषी, बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न, जैन समाज के सशक्त जागरूक प्रहरी प्राचार्य पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य हमारे नगर के गौरव एवं सम्मानित व्यक्ति थे। अखिल भारतवर्ष में आपकी कीर्ति व्याप्त थी।
श्रद्धांजलि
नंदनलाल जैन सराफ, सिरोंज यह जानकर प्रसन्ता हो रही है, कि स्वर्गीय पंडित दयाचंद जी 'साहित्याचार्य' के स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है। उन्होंने श्री वर्णी भवन विद्यालय मोराजी, सागर में अध्यापक से लेकर प्राचार्य के पद पर लगभग 55 वर्षों तक सेवा की, साथ ही विद्यालय के सहस्र विद्यार्थियों को व्याकरण आदि एवं जैन धर्म का अध्ययन कराया। पंडित जी प्रतिदिन प्रात: उदासीन आश्रम में श्रावकों को धर्मश्रवण कराते थे। अगर कोई श्रावक को शंका होती थी तो बड़े ही सरल सहज ढंग से उसका समाधान कर देते थे। आपने जैन धर्म का काफी प्रचार - प्रसार किया। संपादक मंडल एवं प्रकाशन सहयोगियों को आदर पूर्वक बधाई देता हूँ। मैं पंडित जी को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
शुभकामना संदेश
शिखर चंद कोठिया
अध्यक्ष भारतीय जैन मिलन सागर मुझे यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई कि संस्कृत के महान विद्वान डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य की स्मृति में “साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ" ग्रंथ प्रकाशित होने जा रहा है । पंडित जी मृदुभाषी, सरल स्वभावी, उत्कृष्ट मनीषी, एवं जैन दर्शन के एक आधार स्तंभ थे ।उनका व्यक्तित्व काफी लोकप्रिय था । वे अपने व्यवहार से सभी के आदरणीय थे। वे न केवल श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत संस्थान (महाविद्यालय) के प्राचार्य थे बल्कि सम्पूर्ण जैन समाज के अच्छे मार्गदर्शक मनीषी थे। मैं इस अवसर पर अपनी आदरांजलि प्रेषित करते हुए पंडित जी के दिवंगत चरणों में नत मस्तक हूँ।
विनतभाव सहित
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
हमारी संस्था के महापुरुष पंडित जी
संस्कृत महाविद्यालय के विद्वान पंडित डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य विशाल संस्कृति के महान व्यक्ति थे । आपकी हम पर शीतल छाया थी। आपके बचन थे जो कार्य निर्मल भावों से किया जाता है। उसमें सबका हित होता है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि पंडित जी का पुरुषार्थ चतुष्टय सम्यक दर्शन ज्ञान एवं आचार सिद्ध था। वे महापुरुष थे। ज्ञान और अनुभव से युक्त, तपी हुई वाणी, कुन्दन के सम कांतिमय व्यक्ति थे ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
बड़े पंडित जी की विद्वता, वक्तृत्व, त्याग तप आदि बातें बड़ी विख्यात है, उनका स्मरण करना ही हमारी उनकी याद रह गई है ।
माँ भारती के उपासक
राजकुमार जैन श्री वर्णी भवन मोराजी, सागर
शिखरचंद जैन लम्बरदार वीरपुर वाले, सागर
"श्रेष्ठ विद्या" जीवन का महत्वपूर्ण संस्कार है। राजा तो देश में ही पूजा जाता है परन्तु विद्वान सर्वत्र पूजा जाता है। भौतिकता की चकाचौंध से ग्रसित प्राणी सुख शांति की खोज में चारों गतियों में भटक रहा है । विषयों की अंधी दौड़ में मानव धर्म भी विस्मृत कर चुका है। हमारे सातिशय पुण्य से हमें जिन धर्म जिनवाणी, निर्ग्रन्थ गुरुओं और विद्वानों की सत्संगति का समागम प्राप्त हुआ है। बुंदेलखण्ड की रत्नप्रसवनी वसुधा संतो और विद्वानों की खान रही है ।
भारत के मूर्धन्य विद्वानों की श्रृंखला में पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य एक जगमगाते रत्न है जिन्होंने जीवन भर संस्था की सेवा की और ज्ञान दान दिया । कहा भी है -
परोपकाराय फलन्ति वृक्ष: परोपकारार्य दुहन्ति गाव:
परोपकाराय बहन्ति नद्य: परोपकारार्थ मिदं शरीरम्
पंडित जी यथा नाम तथा गुण सम्पन्न थे सहजता, सरलता सज्जनता उनके रग-रग में समायी हुई थी। वे जीवन भर ज्ञान के प्रचार और प्रसार में लगे रहे। ऐसे मनीषी विद्वान के व्यक्तित्व और कृतित्व के स्मृति ग्रंथ के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ है । आशा ही नहीं अपितु पूरा विश्वास है कि भव्यप्राणी इससे प्रेरणा लेकर अपने जीवन को सुसंस्कारित करेंगे ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अपार श्रद्धा के प्रतीक मेरे गुरु जी
कोमलचंद जैन
लेखनी देखनी भण्डार , सागर पूज्य पंडित डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य प्राचार्य श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय वर्णी भवन सागर मेरे परम आदरणीय थे। आज भी विश्वास नहीं होता है कि वे हमारे बीच नहीं है, क्योंकि उनके महान गुणों का सदैव स्मरण होता रहेगा। उनका आदि, मध्य और अंत सदैव उपकारी तथा गुणानुरागी रहा है। उनके आज्ञाकारी शिष्य होने का मुझे भी गौरव प्राप्त हुआ है । वे समुद्र के समान गंभीर तथा हिमालय के समान ऊँचे तथा विमल विचारों को अपने हृदय में समाहित किये थे। समय पर विद्यालय में आना तथा समय से विद्यालय से घर जाना, उनका दैनिक अनुशासन पूर्ण जीवन समीचीन क्रिया का अंग था। वे "अणोरणीयान महतो महीयान' की कहावत को चरितार्थ किये थे। वे पुरानी पीढ़ी के मूर्धन्य विद्वानों की परम्परा के आदर्श स्तंभ थे।
पूज्य वर्णी जी महाराज के शुभाशीष का जीवन भर पालन किया । पूज्य पिताश्री के संस्कारों की उन पर अमिट छाप थी। मुझे गुरु जी के साथ वर्ष 2005 में तिजारा जी क्षेत्र जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूज्य गुरु जी को श्रुत संवर्धन पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनकी सबसे छोटी सुपुत्री ब्र. किरण दीदी ने छाया की तरह अपने पिताजी की अंतिम समय तक सेवा की । उनके प्रति अपार श्रद्धा व्यक्त करता हुआ उनकी शांति एवं सद्गति की कामना करता हूँ स्मृति ग्रंथ प्रकाशक मंडल को साधुवाद देता हुआ उनके प्रयास का अभिनंदन करता हूँ किं बहुना
नि:स्वार्थ सेवा भावी
महेन्द्र कुमार जैन
आयुर्वेदाचार्य मैं पंडित जी के शासन सानिध्य में 40-50 वर्ष रहा हूँ। एक समय मैं सागर से बाहर जाने की इच्छा से आपके पास पहुँचकर निवेदन किया, पंडित जी बड़े दयालु थे उन्होंने मुझे बहुत समझाया और आर्शीवाद देते रहे। उसी आशीर्वाद के साथ मैं अपनी श्रद्धा व्यक्त कर रहा हूँ।
परम आदरणीय श्रद्धेय गुरु जी के अध्यापन समय के शिष्यों में डाक्टर, प्रोफेसर, इंजीनियर आई.ए.एस. इतिहास विद आदि को शिष्यत्व प्राप्त हुआ, आप नाम के अनुसार दयालु होते हुए अनुशासन प्रिय थे आपका जीवन बहुत ही सादा एवं वात्सल्य पूर्ण था। आप का स्नेह सभी की अपेक्षा
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे ऊपर कुछ अधिक ही रहता था। मेरी गुरु भक्ति से एवं मेरी योग्यता से प्रभावित हो आपने मुझे बनारस की प्रथमा परीक्षा में सीधे बैठने की अनुमति प्रदान कर कृतार्थ किया, मैं परीक्षा में सफल हो गया। अब मेरी जिज्ञासा बाहर जाकर अध्ययन करने की हुई । आर्थिक स्थिति ठीक न होने से मैं इच्छानुसार अध्ययन नहीं कर सका, फिर भी मैंने आयुर्वेद परीक्षा पास कर ली। आपका आशीर्वाद मुझे सदा ही आगे प्रगति करने का मिलता रहा है, आपने मेरे जीवन को कृतार्थ किया, यह स्मरण सदा सदा के लिए मुझे बना ही रहेगा। आपके उपकार को स्मरण करते हुए मैं पंडित जी के प्रति विनयांजलि समर्पित करता हूँ कि वह उपकारी महान आत्मा जहाँ भी हो, आगे मोक्ष मार्ग पर बढ़ती रहे, यही मेरी शुभकामना है।
शुभकामना संदेश
पं.कैलाशचंद जैन
अग्रवाल कालोनी जबलपुर म.प्र. स्व. पं. दयाचंद साहित्याचार्य प्राचार्य श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय वर्णी भवन सागर के स्मृति ग्रंथ के प्रकाशन के अवसर पर पंडित जी द्वारा जिनवाणी की सेवा कर जैन समाज को ज्ञान का प्रकाश दिया गया है। वह अद्वितीय है। ऐसे मनीषी प्रतिभा के धनी विद्वतरत्न का स्मृति ग्रंथ प्रकाशित कर समस्त जैन समाज को गौरव का अनुभव हो रहा है।
मैं पंडित जी की सद्गति के लिए अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ एवं उनके द्वारा जिनवाणी की सेवा के लिए स्मरणीय मानता हूँ।
पुन: उनके दिवंगत व्यक्तित्व को नमन करता हूँ।
सरल स्वभावी सहयोगी विद्वान
पं. विजय कुमार जैन
श्री वर्णी भवन मोराजी, सागर (म.प्र.) परम आदरणीय श्री डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य जी से मेरा सम्पर्क मेरी नियुक्ति के समय ही हुआ था। उन्होंने मेरी नियुक्ति कराने में पूर्ण सहयोग दिया। मैं उनका यह उपकार कभी भी नहीं भूल सकता। उनका स्वभाव बहुत अधिक सरल था। ऐसे स्वभाव वाले व्यक्ति बहुत कम हुआ करते हैं। मेरे
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ द्वारा किसी भी प्रकार की समस्या आने पर उसका समाधान आदरणीय पंडित श्री द्वारा तुरंत सहजता से प्राप्त होता था । पंडित जी द्वारा जैन पूजा काव्य नामक ग्रंथ लिखा गया, जिस ग्रंथ पर ही उन्हें डाक्टर की उपाधि प्राप्त हुई । वह ग्रंथ आगे आने वाले समय में समाज के लिए तथा विद्वानों के लिए मार्ग दर्शक बनेगा ऐसी मेरी भावना है। उन्होंने अपने जीवन भर की पूरी साधना के द्वारा उस ग्रंथ की रचना की है। उनके संबंध में उक्त कहावत सार्थक होती है। सादा जीवन उच्च विचार , ये दोनों उन्नति के द्वार । उन्होंने इस कहावत के आधार पर अपने जीवन को संचालित किया है। वे यदि विद्यार्थी को दण्ड दिया करते थे तो उनका भाव उस दण्ड में यह छिपा रहता था कि यह विद्यार्थी आगे चलकर समाज में समस्त धार्मिक क्रिया कलापों के करने में सक्षम बने, तथा अपनी समाज और धर्म की उन्नति में सहायक भविष्य में सहायक बने । उननें क्षमा की भावना को अपने जीवन में उतारा था।
उन्होंने अपने जीवन भर श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर (म.प्र.) में कार्य किया । अपने जीवन के अंतिम क्षण तक, जब उनका जीवन पूर्ण स्वस्थ नहीं था फिर भी विद्यार्थियों के लिये पढाया है ऐसे व्यक्ति बहुत कम हुआ करते हैं। जो विद्यालय से प्राचार्य पद छोड़ने के बाद पढ़ाते रहे।
इन्हीं की प्रेरणा पाकर मैंने विद्यालय में पढ़ाने का कार्य किया और आज भी सामाजिक कार्य के साथ अभी पढ़ा रहा हूँ। ऐसे व्यक्तित्व के लिए मैं नमन करता हुआ अपनी विनयांजलि समर्पित करता हूँ
समय के सदुपयोग की शिक्षा हमें पूज्य पंडित जी के जीवन से मिली।
संदीप शास्त्री, एम.बी.ए.
जबलपुर
माँ सरस्वती के पुत्र पूज्य पंडित श्री डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य का जीवन एक आदर्श जीवन रहा है। उनके जीवन चरित्र से हमें अनेक शिक्षाएँ मिलती है पूज्य पंडित जी के सैकड़ों शिष्यों में से मैं एक हूँ| उनके जीवन से हमने समय के सदुपयोग की शिक्षा ग्रहण की है तथा उन्हीं की शिक्षा का फल है कि मुझे हर कदम पर सफलता मिली है।
पूज्य पंडित जी के साथ एक बार पर्युषण में रायपुर गया था। तब पूज्य पंडित जी की पूरी दैनिकचर्या को मैंने देखा । पूज्य पंडित जी समय के एक - एक पल का उपयोग करते थे। मैंने 10 दिन तक उनके साथ उनकी दिनचर्या का अवलोकन किया। तथा समय की कीमत को पहचाना यही कारण है कि मैं आज सफलता के चरम पर हूँ। अत: पूज्य पंडित जी की शिक्षा हमारे जीवन के लिए एक सफल मंत्र सिद्धी की तरह सिद्ध हुई। किसी ने कहा ही है कि
गुरुर्ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु र्देवो महेश्वरा । गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै: श्री गुरुवे नमः ॥
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अद्वितीय विद्वान
पं. स्वरूप चंद जैन
शाहपुर (मगरोन), सागर म.प्र. श्रद्धेय पूज्य पंडित जी का व्यक्तित्व, सामर्थ्य और ज्ञान की गूढता एवं त्याग अद्वितीय था। उनकी सरलता कोमलता, ज्ञान गहनता, हमेशा को मन में अंकित हो गई। उनका आचार्यो संतो के प्रति हार्दिक सम्मान भाव था। जिसका आज भी स्मरण आता है । पूज्य पंडित जी निश्चित ही त्याग मूर्ति, ज्ञानी अध्यात्म में गहरे पैठे थे और जीवन के अंत तक यह उत्तम भाव उनमें रहे । पंडित जी हमेशा धार्मिक अध्यापन एवं अध्ययन में लगे रहे एवं वर्णी दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय की जीवन भर सेवा करते रहे एवं समाज के हित में सोचते रहते थे। मेरी पंडित जी को विनम्र श्रद्धांजलि यही है। कि उनके मार्ग पर चलने की प्रेरणा ले । भगवान वीर प्रभु से यही प्रार्थना करते है कि स्वर्गीय आत्मा को शांति लाभ हो । भगवान ऐसे सत्पुरुषों को श्रेष्ठ मानव की संज्ञा देते हैं । उनको हमारा साधुवाद और श्रद्धा सुमन समर्पित है।
पंडित जी निश्चय व्यवहार मैत्री का पाठ पढ़ाते
____महाकवि योगेन्द्र दिवाकर
सतना म.प्र. साहित्य मनीषी स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य की कीर्ति स्मृतियाँ उनके जीवन दर्शन से आरंभ होती है जो निश्चय व्यवहार मैत्री का पाठ पढ़ाते हुए हमारे आदर्श गुरुवर थे। विश्व कल्याण और आत्मकल्याण का यह पाठ हमें सन्मार्ग देता है। सन्मार्गी आदरणीय पंडित दयाचंद जी वर्णी भवन मोराजी के ज्योति स्तंभ थे, जिन्होंने वर्णी जी के और सागर संस्कृत महा विद्यालय मोराजी के नाम को ऊँचा किया है, हम ऐसे महापुरुष पर क्या लिखे ? अल्प शब्दों में - निश्चय व्यवहार मैत्री का पाठ पढ़ाने वाले और कालातीत श्रुतसत्य हमें समझाने वाले, उस रूप में लौटकर न आयेंगे जिस रूप में वे यहाँ से गये हैं
"इसलिए उनकी स्मृति को प्रणाम । हम आत्मिक होंगे उनके समान ॥"
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ समाज के कल्याणकारी
पं.शिखरचंद जैन
लक्ष्मीपुरा, सागर पूज्य आदरणीय गुरुवर श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य जो कि संस्था में बहुत समय से प्राचार्य पद पर थे आप संस्था को सुचारू रूप से चला रहे थे, और आपके द्वारा पढ़ाये हुए बहुत छात्र विद्वान बनकर समाज को धार्मिक उपदेश देकर सभी को सत्मार्ग पर लगा रहे हैं। आप हमेशा कहते थे -
“संस्थागते प्रबुद्ध मानवानां कल्याणं भवति" अर्थात् जिस पवित्र स्थान पर ज्ञानी मानव सुपर कल्याण के लिए परामर्श देते है , उनका ही जीवन सफल होता है। यह आपने कर दिखाया और हमेशा आप से जो भी आशीर्वाद लेता था उससे हमेशा कहते थे कि हमारी मंगलकामना है। हमेशा धर्म का प्रचार करते रहना इन्हीं भावनाओं के साथ गुरुवर के चरणों में हमारा नमन ।
विनयांजलि
पं. ज्ञानचंद जैन
गरोठ (मंदसौर) म.प्र. परमादरणीय डॉ. पं. दयाचंदजी साहित्याचार्य जी के प्रति लेखनी से जितना लिखा जावें उतना ही कम है। परम पूज्य पंडित जी साब से लगभग 14 वर्ष के संपर्क में पंडित जी साब की विद्वत्ता का जो कार्य देखने में आया वो निश्चित ही अद्वितीय है तथा हर कोई व्यक्ति इतनी वृद्धावस्था तक जैन शिक्षा से जुड़े रहकर इतना सफलतम कार्य नहीं कर सकता । साथ ही कार्यशैली अनुशासन बद्ध तथा नि:स्वार्थता की जाना सराहनीय भी है । तथा आगे आने वाली पीढ़ी के लिए उत्तम मार्ग दर्शन को भी प्रदर्शित करता है पयूषण पर्व में लगभग 50 वर्षो तक देश के महानतम विभिन्न शहरों में जाकर जैन धर्म की प्रभावना करना तथा वहाँ से सम्मानित प्राप्त राशि को महाविद्यालय के प्रति खर्च कर देना यह पूर्णतया नि:स्वार्थता का परिचायक है । तथा जीवन में अपनी लेखनी से समाज व राष्ट्र के लिए अच्छे ग्रन्थों का लेखन व प्रकाशन करवाना यह श्रुत सेवा का अनूठा उदाहरण है । ऐसे मनीषी लम्बी आयु पाकर उसका अवसान होना यह भी उनके सात्विक जीवन का परिचायक है। ऐसे विद्वान मनीषी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि विद्वत्तजन श्रुत के आदर्शो को अपने जीवन में उतारें । व अपना जीवन उनके अनुसार चलायें । यही पंडित जी के प्रति हमारी विनयांजलि है।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आत्मीय उद्गार
हेमचंद जैन (समाज सेवी)
सागर (म.प्र.) पूज्य गणेश प्रसाद वर्णी जी द्वारा स्थापित श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय शिक्षा जगत में विशेषकर जैन दर्शन और संस्कृत भाषा के लिए सम्पूर्ण देश में अपना विशिष्ठ स्थान रखता है इस महाविद्यालय के विद्यार्थी आज देश में प्रवचनों और जैन धर्म की प्रभावना के लिए देशभर में जैन दर्शन के जैन धर्म के राजदूत जैसे है।
इस महाविद्यालय में स्वयं दयाचंद जी साहित्याचार्य जैसे प्राचार्य ने अपने जीवन में पठन पाठन और धर्माचरण को अपना कर समाज में विशिष्ठ स्थान प्राप्त किया, तथा देश भर में कुशल प्रवचनकार और जैन दर्शन के प्रतिष्ठित विद्वान के रूप में ख्याति प्राप्त कर महाविद्यालय का मान बढ़ाया । आज महाविद्यालय उनके कृतित्व और जीवन जीने की अद्भुत शैली के सम्मानार्थ एक स्मृति ग्रंथ प्रकाशित करने जा रहा है निश्चित ही यह ग्रंथ नवयुवकों एवं धर्म में आस्था रखने वालों को प्रेरणा देता रहेगा। दिवंगत आत्मा को सद्गति मिले इसी भावना के साथ सम्पादक मंडल को भी बधाई देता हूँ।
शुभकामनाओं सहित
सरल स्वभावी पंडित जी
श्रीमती शकुनलता जैन
बैंक ऑफ इन्दौर गुजराती बाजार, सागर पूज्य स्व. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य पूर्व प्राचार्य श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर आर्षमार्गी प्राचीन विद्वानों की पीढ़ी के एक आदर्श सरस्वती पुत्र थे उनकी सम्पूर्ण भारत में की गई जिनवाणी सेवा को भुलाया नहीं जा सकता है। वे देव शास्त्र गुरु के परम भक्त थे। लगभग 91 वर्ष की आयु में भी मंदिर जी में खड़े होकर भक्तिभाव से पूजा करते थे। विनम्रता उनके व्यक्तित्व का विशेष गुण था वे सफल प्राध्यापक, समन्वयवादी अनुशासन के पक्षधर प्राचार्य रहे। पू. वर्णीजी महाराज तथा पू. संतशिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज के जीवन भर परम भक्त रहे । राष्ट्रीय स्तर के अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत मनीषी थे। वे दिगम्बर आचार्यो तथा पू. सर्वोच्च गणिनि प्रमुख आर्यिका ज्ञानमती माता जी तथा पू. गणिनि सुपार्श्वमति आदि माताओं को आदर्श मानते थे। उनका मरण पंडित मरण तुल्य हुआ। स्मृति ग्रंथ प्रकाशन में अपनी विनम्र विनयांजलि सेवार्पित करती हूँ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ यथा नाम तथा गुण
___ मनोज कुमार सड़करी
__ श्री वर्णी भवन मोराजी, सागर आदरणीय पंडित डॉ. दयाचंद साहित्याचार्य जी हम सब विद्यार्थियों के गुरु, दया से ओत प्रोत, दया के सागर "यथा नाम तथा गुण" को सार्थक करने वाले, परिश्रमशील कर्तव्यनिष्ठ, सादा वेशभूषा, धोती कुर्ता, सिर पर टोपी और चेहरे पर सदा मुस्कान रखने वाले।
विद्यार्थी को विद्या अध्ययन बड़ी लगन से कराते थे लेकिन जब उद्दण्डी छात्रों को दण्ड देते देते दया से भर जाते और मन में पश्चाताप करते हुए पूछ लेते, कि जोर से तो नहीं लग गया बेंत । ऐसी करूणा, ममतामयी भावनाओं को देखकर सभी छात्र शर्म से मस्तष्क हो जाते थे और अपनी गल्तियाँ समझ कर माफी मांग, पुन: अपने कार्य में लग जाते थे।
विद्यार्थी को अध्ययन करते देखकर बड़े प्रसन्न होते थे और जीवन के अंतिम समय तक नि:शुल्क सेवाएँ विद्यालय को देते रहे ।
समय समय पर विद्यार्थियों को पढ़ने के नुको बताते थे - 1. प्रात: / ब्रह्ममुहूर्त में सोकर उठना । उठते ही मिलकर ईश प्रार्थना करना । गुरुओं को प्रणाम करना । 2. समय पर शाला जाना, विद्या अध्ययन करके जग में नाम कमाना । गुरु की महिमा बढ़ाना । 3. भोजन के पश्चात् न खेलो, न पढ़ो, 10 मिनट विश्राम करो। 4. शाम को पुस्तकालय जाओ, पत्रिकाएँ, समाचार पत्र पढ़ो। जिसमें सम सामयिक ज्ञान बढ़े। 5. शाम के समय सभी मिलकर खेलो, जिससे शारीरिक निरोगता प्राप्त कर सको।ऐसी शिक्षाएँ गुरुवर हम
लागा को अपना छात्र समझकर देते थे।
आदरांजलि
श्रीमती विमला जैन
शास्त्री वार्ड, सागर (म.प्र.) स्व. पू. डॉ. दयाचंद जी “साहित्याचार्य' पू. वर्णी जी के शुभाशीष प्राप्त आदर्श सरस्वती पुत्र थे। श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय के वे जीवन पर्यन्त हितैषी अध्यापक, प्राध्यापक तथा सफल प्राचार्य रहे । वे प्राचीन परम्परागत शैली के अविस्मरणीय विद्वान थे। मुझे यह भलीभांति स्मरण है। जब वे मेरे नवीन गृह उद्यापन हेतु एक प्रतिष्ठाचार्य के रूप में आये थे। यह वर्ष 24 जुलाई 1974 का प्रसंग है । उनका उचित सम्मान उनके ही शिष्य पं. शिखर चंद्र जी साहित्याचार्य ने किया था। मैंने सहभागी बनकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। उनकी समुद्र सम गंभीरता मुझे आज भी स्मरण में है। उनकी सबसे छोटी सुपुत्री ब्र. किरण दीदी ने छाया बनकर उनकी जो मरण पर्यन्त सेवा.की वह आज की पुत्रियों के लिए आदर्श सीख है मैं आत्मीय आदर के साथ उनके दिवंगत चरणों में अपनी विनयांजलि सेवार्पित कर गौरवान्वित हूँ।
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
पं. दयाचंद जी : एक स्मृति
विद्वान समाज की एक अमूल्य धरोहर होते है, उनमें से एक हमारे पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य भी थे, जो आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी अभूतपूर्व ज्ञानमयी वाणी आज भी हम सभी के हृदयों में समायी हुई है - वे यथा नाम तथा गुण की एक स्पष्ट मिशाल थे ।
आज दिन प्रतिदिन समाज में विद्वान पंडितों का अभाव होता जा रहा है, ऐसे समय में पूज्य पं. दयाचंद जी का निधन भी एक अपूर्णनीय क्षति है । समाज में ज्ञान की ज्योति जगाने वाले, धर्म का प्रचार एवं प्रभावना बढ़ाने वालों का अभाव समाज में अधोपतन का कारण बन सकता है। पंडित जी का आचरण सदा ही निम्न श्लोक के अनुरूप रहा है कि
मातृवत पर दारेषु, पर द्रव्येषु लोष्टवत
आत्मवत सर्वभूतेषु यः पश्यतिस: पंडित:
ऐसे ही अमूल्य गुणों के धारी हमारे पंडित जी थे । और ये संस्कार उनके पैतृक अर्थात माता 1 पिता से प्राप्त थे । जो जीवन भर सदा ही आचरण शील रहकर जीवन का आदर्श बने । शाहपुर ग्राम जिला सागर के भायजी वंश में जन्में पाँच भाईयों में आप तृतीत सुपुत्र थे आपके ज्येष्ठ भ्राता पंडित माणिकचंद समाज में उच्चकोटि के विद्वान, मोराजी संस्कृत महाविद्यालय के प्रथम शिक्षक के रूप में समर्पित रहे, हम ऐसे गुणवान, ज्ञानवान, विद्वान जो जैन धर्म का संदेश देने वाले महान पंडित जी के गुणों का गान करते हुए उनकी स्मृति को हमेशा हृदय में संजोये हुए सदा ही उनके चरणों में नतमस्तक है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
मेरे अनोखे नाना जी
डॉ. एस.सी. सिंघई., ए. एम. बी. एस. लिंक रोड, सागर
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मुझे अपने नाना जी पर गर्व था कि मेरे नाना जी सुख शांति पूर्ण धर्ममय जीवन बिता रहे थे और दूसरों को भी ऐसी ही शिक्षा दे रहे थे ऐसा धर्ममय जीवन होना कोई सहज बात नहीं है पूर्व पुण्य का ही उदय है जो बड़े शांत परिणामी, सहज स्वाभावी मेरे नाना जी थे, उनकी स्मृति को लेकर हम शुभकामना करते हैं कि यह स्मृति ग्रन्थ हम सबके लिये धर्म का मार्ग प्रशस्त करे ।
मोनिका, सारिका जैन इंदौर
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दिवंगत सरस्वती पुत्र की श्रृद्धांजलि
गुलझारी लाल जैन
ताजपुर वाले, सागर यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता है कि श्री डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य प्राचार्य श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर का स्मृति ग्रंथ "साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ' नाम से प्रकाशित हो रहा है। दिवंगत पं. दयाचंद जी राष्ट्रीय स्तर के प्राचीन शैली के प्रचारक एवं सरस्वती पुत्र थे । सादगी. परिणामों में निर्मलता. देव शास्त्र गरु के प्रति अगाध आस्था के पर्याय थे। जब सारे देश में भगवान बाहुबली स्वामी का महामस्तकाभिषेक हो रहा था तभी पं. जी अपने जीवन प्रयाण की अंतिम साधना में तत्पर थे। सम्यक् दृष्टि भव्य परिणामी होता है पंडित जी भी भव्य परिणामी थे। पू. वर्णी जी महाराज के शुभाशीष से इस विद्यालय की अध्यापक से लेकर प्राचार्य पद की गरिमा का जिस निष्ठापूर्वक वहन किया, वह स्मरणीय है। राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न धार्मिक आयोजनों में पंडित जी की सक्रिय, प्रभावी भूमिका स्तुत्य तथा अभिनंदनीय रही है । ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी विद्वत रत्न के स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन होना समाज के लिए गौरव की बात है सम्पादक मंडल को शुभकामनाएँ प्रेषित है। ग्रंथ प्रकाशन की सफलता की कामना के साथ ।
किंवदन्ती पुरुष का पीयूष दर्पण
महाकवि योगेन्द्र दिवाकर
सतना म.प्र. शब्दों के शिलालेख पर किंवदंती पुरुष स्व. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य का अप्रतिम नाम, सहज ही श्रद्धा भरी लेखनी ने अंकित कर दिया, जो कृतज्ञता का आदर्श लिए पीयूष दर्पण बन गया, अपने व्यक्तित्व के सादगीपूर्ण प्रखर जीवन दर्शन में।
श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय के दिवंगत प्राचार्य पं. श्री दयाचंद साहित्याचार्य की महान स्मृति को प्रणाम करने हेतु “साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ" स्मृति ग्रंथ के मंगल रूप में प्रकाशित इस बात का प्रमाण है कि एक अक्षर पुरुष का निष्काम समर्पण कैसा होता है जिनकी जन श्रुतियाँ भी, जिनको शुभ नमस्कार करती है । वर्णी भवन के विद्यार्थी जानते है कि -
___"प्रखर सूर्य से वक्ता थे जो,सहज सादगी पूर्ण मुखर।।
जिनका क्षण क्षण हुआ समर्पित , ज्ञानंहि अमृतम् के स्वर ॥" पंडित जी गौरवशाली कल्याणकर्ता थे। मोराजी में रहते हुए भी विद्वानों के मन में और श्रीमंतों के भाव दर्पण में एक कालजयी किवंदंती पुरुष थे। आनंद घट के भीतर जो अमृत भरा है उसी को प्रदान करता हुआ मैं इस प्रणाम लेखनी से विराम लेता हूँ इसी काव्यांजलि के साथ -
__“साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ, चमक रही है मोती जैसी स्मृतियाँ । मैं अल्पज्ञ “दिवाकर" जाना आज अभी, किंवदंती पुरुष की अनुपम जन श्रुतियाँ ।"
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे आदर्श गुरु पूज्य पंडित जी
पं.मनोज कुमार शास्त्री
श्री वर्णीभवन, मोराजी, सागर परम आदरणीय “सादा जीवन उच्च विचार" की प्रतिमूर्ति थे आदर्श विद्वान, क्षमा एवं सहिष्णुता के धनी डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य प्राचार्य गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय के गौरव हमारे आदर्श गुरु एवं मार्गदृष्टा रहे हैं।
परम आदरणीय पं. जी के जीवन में सदा ही छात्रों के हित की भावना रही है, वह अपने छात्रों के लिए ऊपर से कठोर एवं अंदर से बहुत ही दयालु थे। अध्यापन कराना एवं छात्रों से पाठ को सुनना उनकी अह्म भूमिका थी अत: वह यह भी जानते थे कि किस छात्र में क्या योग्यता है इसलिए वह अध्यापन के समय छात्रों का आत्मविश्वास बढ़ाते हुए सदा ही कहते थे कि यहाँ पर हम आपको मसाला देते है और यही अध्ययन तुम्हारे व्यक्तित्व में भी झलकेगा । तो आप भी महान बन सकते है।
शिक्षण के समय आदर्श शिक्षक की तरह दिखाई देते थे और बाकी समय में इस प्रकार का स्नेह रखते थे कि प्रत्येक छात्र के परिवार से संबंधित जानकारी लेते थे। तथा छात्रों को उचित मार्गदर्शन देकर उनकी सहायता करवाते एवं करते भी थे।
परम आदरणीय पंडित जी की दिनचर्या भी एक आदर्श थी, अपने जीवन में षट् आवश्यकों का पालन करना उनका कर्तव्य था। देव पूजा गुरुपास्ति, स्वाध्याय संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थाणां, षट् कर्माणिदिने-दिने ।
अर्थात् देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, त्याग (दान) आदि पंडित जी ने अपने जीवन में इनका पालन सदैव ही किया है । देव -पूजन करना आपका प्रथम कर्तव्य था, अत: हम सभी आपको अंत समय तक देवाधिदेव अरहंत देव की पूजन करते हुए देखते रहे है । आप कहते थे कि जो भी बिना चाहना के भगवान की पूजा करेगा, वह सदैव ही अपने जीवन में उन्नति की ओर अग्रसर होगा एवं अपने जीवन का कल्याण भी करेगा।
___ मैंने भी पंडित जी को आदर्श मानकर सदा ही देव पूजन करना स्वीकार किया था, अत: पंडित जी एक आदर्श प्राचार्य रहे, साथ में कुशल विद्वान, आदर्श लेखक, समयनिष्ठ, सरल स्वभावी, स्वाभिमानी एवं उच्च विचारों के धनी थे। विपत्तियों के समय भी पंडित जी को हम सभी ने कभी भी निराश होते नहीं देखा । अंत समय में पंडित जी पूर्ण सचेत थे तथा बाहुबली भगवान के महामस्तकाभिषेक के अवसर पर धार्मिक वातावरण के समय महामंत्र णमोकार मंत्र का ध्यान करते हुए सचेतावस्था में आपका देहावसान हुआ।
_ निश्चित आपको परम गति की प्राप्ति हुई होगी, आज हमारे बीच में आप नहीं है फिर भी आपके आदर्श एवं आपके द्वारा प्रदत्त शिक्षण को हम सभी याद करते हुए आपको ही साक्षात मानकर सदैव ही आपको स्मरण करेंगे।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रेरणादायी व्यक्तित्व
दिनेश कुमार जैन, एडव्होकेट ___ डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य जैन जगत् के अत्यंत सहज मुनिभक्त विद्वान तो थे ही परंतु उनके नियमित तथा ज्ञानदान के अद्भुत योगदान से पूरा बुन्देलखण्ड प्रभावित रहा।
जीवन के संध्याकाल में शरीर की शिथिलता के उपरांत भी उनके मन में अपने कल्याण करने की भावना के साथ समाज की धार्मिक जागरूकता के प्रति सतत् प्रयत्नशीलता थी। मेरे प्रति उनका बड़ा अनुराग था। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित शोध ग्रंथ को उन्होंने मुझे बड़े आत्मीय भाव से अपने हस्ताक्षर सहित सप्रेम भेंट किया। पूज्य वर्णी जी की साधना स्थली "उदासीन आश्रम' में वर्षों उन्होंने प्रात:काल स्वाध्याय जिनवाणी का स्वाध्याय कराकर अमृतपान कराया। सदा गुण ग्रहण करने वाले सहज सरल एवं धार्मिक संस्कारों से ओतप्रोत प्रेरणादायी व्यक्तित्व के गुणों के प्रति मैं सदा श्रद्धावनत् रहूँगा।
मेरे नाना जी की सुखद स्मृति
नीरज जैन, नितिन जैन
कोरबा (म.प्र.) डॉ. पं. दयाचन्द्र जी मेरे नाना जी तो थे ही, पर एक विद्वान होने के नाते और उनके गुणों के प्रति मैं नतमस्तक हूं, कभी कभी उनके स्मरण में आंसू भी आ जाते हैं क्योंकि बचपन में हमें अपने नाना जी का बहुत स्नेह मिला है ऐसे सहज और सरल स्वभावी व्यक्ति संसार में विरले ही होते हैं मुझे पढने लिखने की बहुत प्रेरणा करते थे कि पढकर इंसान बनो। उन्हीं की शुभकामनायें आज हमारे जीवन में फलित हो रही है नाना जी को स्मृति में रखते हुये इस स्मृति ग्रन्थ के रचने में अपनी शुभांजलि प्रेषित करते हैं।
मेरे नाना जी की मधुर स्मृति
प्रदीप कुमार, पंकज कुमार जैन
सिरोंज (म.प्र.) नाना जी हमारे बीच से चले गये लेकिन वे अपनी मधुर स्मृतियों की अमिट छाप हमारे जीवन पर छोड गये, उनके ही दिये हुये संस्कार हमारे जीवन का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। हमें हर पल, हर कदम पर उनकी ही धार्मिक शिक्षा याद आती है हमारा जीवन धर्म मय बनाने में उनका ही संस्कार है, उनके ही बताये हुये मार्ग पर चलते हुये, हम उनके आगामी भव की सुख शांति की कामना करते हैं इसी वाणी के साथ विराम लेते हैं।
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
काव्यांजलि (कवियों की दृष्टि में)
डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य के प्रति भावांजलि
पथ दर्शक अथाह सागर में, था निज ज्ञान अपार गुरु गणेश के आदर्शोका, रहा हृदय में भान ॥ शिक्षा के प्रति सदा समर्पित, साथ दया का भाव सरल लेखनी सहज भाव संग, हृदयांकित है आज || महावीर की पावन गाथा, "अमर भारती" साथ "धर्म दिवाकर" श्रुत संवर्धन, पाया निज सम्मान ॥ णमोकार मय बाहुबली का, लिए हृदय में ध्यान त्यागे प्राण बिदाली जग से, त्यागा न कभी शुभ ध्यान ॥ बिरले ही होते हैं जग में, ऐसे मानव आज
किरणें ही जग में बिखेरती, ज्योति पुंज प्रकाश ॥ कैसे करूं समर्पित अब मैं, "रतन" शब्द का हार न कलश तर्पण को आतुर, अर्चन को हैं प्राण ||
उज्जवल
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साहित्याचार्य प्राचार्य दयाचंद जी थे, विद्वानों में परम यशस्वी जिनके अंतरंग में निवास करती थी, विश्व मातेश्वरी सरस्वती ॥ सादा जीवन उच्च विचारों का,
आदर्श रूप उदगम था । गुणकीर्ति जिनकी,
वाणी में अदभुत संयम था । दया प्रधान मुख्य में थे जो,
मोराजी के महामनस्वी ।
मोराजी के महामनस्वी
जिनवाणी के कुशल प्रवक्ता,
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
पंडित जी साहित्य मनीषी ॥
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राजेन्द्र जैन "रतन” गोलबाजार, जबलपुर
योगेन्द्र दिवाकर, सतना
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्तेि स्मृतियाँ प्राचार्यरत्न विद्वानों का गढ़ सागर है, सागर के थे प्राचार्य रत्न । शांति पथ पर जिनका जीवन, शांति हेतु किये प्रयत्न ।। आदर्श पुरुष थे पंडित जी , धार्मिक कार्यो में सदा व्यस्त । सच्चे अर्थो में दयाचंद थे , अहिंसा मार्ग करते प्रशस्त ।।
__ आदर्शकीर्ति धर्म संस्कृति वान पुरुष थे, दयाचंद साहित्याचार्य । आध्यात्मिक विद्या ही जिनकी, करती रहती थी सत्कार्य । अमर हो गये मोराजी में, बाहुबली के दर्शन कर । वर्णी जी की प्रतिमा सम्मुख, अर्पित होकर जीवन भर । साहित्य मनीषी की स्मृतियाँ, अब समाज की गौरव है। आदर्श कीर्ति ही उन की ले, अंकित सम्यक्त्व सौरभ है।
शाश्वत स्वर सरस्वती की सेवा में ही, लिखते थे जो शाश्वत स्वर । चरण आचरण वान थे, जिनके जीवन भर ॥ निस्पृह थे जो ज्ञानकल्प तरू पंडित जी । जिनका था व्यक्तित्व और कृतित्व अमर ॥
महाकवि योगेन्द्र दिवाकर ,सतना सविनय विनयांजलि दया धर्म में रमते रहे छोड़ी सब परवाह । जीवन को समुन्नत किया, पकड़ धर्म की राह ।। माता “मथुरा'' के लाड़ले, सुपुत्र भगवान के दास । ग्राम शाहपुर मगरोन में, जन्मे "श्री जिन " दास ।। बचपन से मन योग कर, शिक्षा पाई पूर्ण । पढ़कर के पंडित बने, आशा तृष्णा कर चूर्ण ।। पूरा जीवन धर्ममय , अध्यापन में लगा दिया । स्वर्णिम उपयोग किया जीवन का, शिष्यों का भी भला किया। हमको जो ज्ञान दिया गुरुवर , हम उऋण नहीं हो सकते है। "योगीराज" बना दिया हमको, हम शत् शत वंदन करते है ।।
पं. फूलचंद जैन योगीराज, छतरपुर (म.प्र.)
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विद्वत पीढ़ी की श्रेणी में अजर अमर अब नाम है
सागर मण्डल मध्यप्रदेश के शाहपुर ग्राम में महिमा छाई । ग्यारह अगस्त उन्नीस सौ पन्द्रह में नव बसंती नभ में आई तात श्री "भगवानदास' के, गृह मंदिर में स्वाति बनकर आया श्रीमती माँ मथराबाई ने दिव्य परुष को जाया । दया मूर्ति श्री पंडित दयाचंद का शशि सम नाम है । विद्वत् पीढ़ी की श्रेणी में अजर अमर अब नाम है ॥1॥
पाँचों पुत्रों को पाँच पांडवों सम माँ ने जन्म दिया है । "माणिक चंद" "श्रुत सागर" तृतीय दयाचंद उदय किया है । "धर्मचंद" और "अमरचंद"का प्रतिष्ठा में नाम किया है । प्राथमिक शिक्षा पाई दयाचंद ने श्री गणेश काम किया है
श्री गणेश संस्कृत महाविद्यालय में पाया जैन धर्म महान है । सिद्धांत शास्त्री साहित्याचार्य से शिक्षा ले वरदान मिला है||2||
मण्डल सागर खुरई नगर में परिणय होकर आये । दिन दूनी और रात चौगुनी महिमा ज्ञान बढ़ाये ।। पाँच सुताओं को जन्म देकर ज्ञान की पिपास बुझाये । चार सुताओं को पढ़ा लिखा कर गृहस्थाश्रम चमकाये | पंचम बेटी "किरण" दीदी वन ब्रह्मचर्य व्रत ले महान है । पूज्य पिता जी की सेवा में रत सेवा श्रम कर अमर नाम है ।।3।।
ज्ञानाध्ययन किया निरंतर ज्ञान की गंगा बहाई । साहित्याचार्य ने प्राचार्य बनकर सरस्वती की ज्योति जलाई । कर्मठ वीर दया के सागर ने समाज सेवा कर ख्याति पाई। सम्यग्ज्ञान की ज्योति जलाकर शिक्षा दे ख्याति बढ़ाई । त्याग भाव से सेवाएं दें किया गजब का काम है । कर्मठयोगी ज्ञानी ध्यानि विद्वत् का किया गजब सम्मान है ।।4।।
हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय से डाक्ट्र रेड पद पाया । जैन पूजा काव्य चिंतन पर लिख विद्यालय नाम दमकाया ॥
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इन्द्र प्रस्थ दिल्ली में भी धर्म दिवाकर से चमकाया । गणिनी ज्ञान मति माता जी से भूषण बनकर छाया ।। श्रुत संवर्धन पुरस्कार से शोभित पाई ख्याति महान है । महावीर मुक्तक चर्तुविंशति संधान से चमक उठा नाम है ॥5॥
श्री वर्णी परिचय, स्याद्वाद लिख दयाचंद चमकाये । अमर भारती त्रय भाग को लिखकर भू मण्डल महकाये ॥ भद्र परिणामी दया ज्ञान की ज्योति बनकर छाये । नश्वर देह ममत्व त्यागकर वीतराग का ध्याग लगाये ।। रत्नत्रय पावन गंगा में आत्मचिंतन कर काम है । वीतराग वाणी का पथ ले करता "फणीश''प्रणाम है ।।6।।
बाबूलाल फणीश शास्त्री पावागिरि (ऊन) म.प्र.
श्रद्धेय डॉ. पं. स्व. श्री दयाचंद जैन, साहित्याचार्य, के दिवंगत चरणों में सादर समर्पित
श्रद्धा सुमन जगह - जगह जगती पर जिनने, किये अलौकिक काम । दयानिधि उन दयाचंद को, करते कोटि प्रणाम ॥टेक॥ पग-पत्थर को देवत्व दिया, खुद की दी पहचान । निज - शक्ति का बोध कराया, किया पतित उत्थान ॥
सब में शक्ति छिपी पड़ी है, बन सकते भगवान । प्रमाद छोड़ पुरुषार्थ करो, नाही कोई कुहराम ||1|| दयानिधि संघर्षों में जीना सीखो, दिया नित्य उपदेश । कल का अरे भरोसा क्या है कार्य रखो न शेष ।। बिगड़े काम बनाओ सबके, मत देखों अंजाम । पथ - बाधा से मत घबराओ था, गुरवर पैगाम ।।2।। दयानिधि दया धर्म पालो सदा, नहीं करो अभिमान | शास्त्र पढ़ो जिनदेव का, गुरु - निग्रंथ महान ॥ परनिंदा अरू झूठ तज, आत्म प्रशंसा नादान । सप्त व्यसन का त्यागकर करो आत्म, कल्याण ॥3॥ दयानिधि
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ नई व्यवस्था दी गुरुवर ने, पढ़ने की अभिराम । सात छात्र मिलकर पदो, नहीं रटने का काम ॥ पठन - मन - अभ्यास कर, नित्य सुबह अरू शाम । आपस में पूंछो सभी, नहीं शर्म का काम ||4|| दयानिधि पन्ना - माणिक - पारखी, दयानिधि दयाचंद। पद - रज पाकर के हुआ, जग - जन - जीवन धन्य ॥ ग्रन्थ पठन का सार है, बन संयम का धाम | गन्दी नाली का 'सुअर', मत बन आठों याम ॥5॥ दयानिधि अटके, भटके, सटके जन को, बने तुम्हीं दिग्यंत्र । 'राग - आग का त्यागकर' - दिया मोक्ष का मंत्र ॥ सौम्यमूर्ति, समताधनी, हो करूणा के धाम । गर्व न जिनको छू सका, सदा सरल परिणाम ॥6॥ दयानिधि सतत साधना का प्रतिफल, या है संचित पुण्य । छांव मिली गुरुदेव की, रूक रूक हुआ प्रसन्न ॥ धौम्य, कौत्स, आचार्य द्रोण से, आगे गुरु का काम । ध्रुव सम इस धरणी पर चमके, युगों युगों तक नाम ॥7॥ दयानिधि प्रभु पूजा कर पूज्य बनो - खुद, काट कर्म के बंध। जिन पूजा के बने डॉक्टर, लिखकर शोध प्रबंध ॥ जिनवाणी को मथ-मथ, जिनने भगा दिया अज्ञान । अन्त समय तक रहे समर्पित मिले बहुत सम्मान ।।8।। दयानिधि गुरुदेव तुम्ही जीवन मेरे, तुम ही मेरे अर्जित धन। मुरझे हुए सुमन में तुमने, उड़ेल दिया जब अंतर्मन ॥ महक गयी है कली कली, अब बगिया की मैं शान । भूल सकूँगा नहीं कभी मैं , गुरुवर का एहसान ||9।। दयानिधि कहाँ छिपे गुरुदेव तुम ! सफल करोमम काज । आगे - आगे तुम चलों, अरज करूं मैं आज ॥ वरण हस्त मुझ पर रखो, ऐसा मम अरमान । तुम बिन जीवन हो रहा, व्यर्थ और निष्प्राण ॥10॥ दयानिधि
गुरूचरणार विन्द चंचरीक
आनंद कुमार जैन दर्शनाचार्य, शिक्षक जैन बहु उ.मा.वि. सागर (म.प्र.)
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य की स्मृतियाँ
यहाँ जो फूल खिलते हैं झरेंगे वह सभी निश्चय । यहाँ पर जन्म जो लेते मरेंगे वह सभी निश्चय || अमर रहते बस वह ही निजातम ध्यान जो धरते । मिलन सम्मान भी उनको जो पर हित में सफर करते | सागर जिला मध्य भारत का धर्म नगर कहलाया है । वर्णी जी ने यहाँ शिक्षा का अनुपम दुर्ग बनाया है || यह संस्कृत विद्यालय उत्तम सागर का जीवन दर्पण | इसमें पंडित दयाचंद ने सब जीवन कीना अर्पण ||
इनके जीवन दर्शन की यह निर्मल चरित्र कहानी है । पर हित सदा विचारा इन ने यह आदर्श निशानी है ।। सरस्वती के वरद पुत्र यह इनका सत जीवन दर्शन । बारम्बार यहाँ करते हम इनका शत शत अभिनंदन ॥ यह दयामूर्ति श्री दयाचंद इनका कुछ हाल बताते है इन जो त्याग किया अब तक कुछ चित्रण सही दिखाते है | है नियर शाहपुर सागर के इस नगरी की अनुपम रचना । तहाँ बना जिनालय अति सुन्दर बिम्बों की वहाँ नहीं गणना ॥ उस नगरी में भगवानदास एक पंडित विज्ञ परम ज्ञाता । उनके सुत पाँच भये सुन्दर सब ही पंडित उत्तम भ्राता ॥ श्री माणिक चंद्र प्रथम सुत थे वह न्याय काव्य के ज्ञाता थे । दूजेत पंडित श्रुत सागर वह भी उत्तम व्याख्याता थे | तीजे सुत पंडित दयाचंद जिनकी यह कीर्ति यहाँ छाई । श्री धरमचंद्र चौथे सुत थे उनने भी यह महिमा पाई ॥ अरू अमर चंद पंचम सुत है जो नगर शाहपुर में रहते । श्री विम्व प्रतिष्ठा अरूविधान सब विधि पूर्वक ही करते | इनके अग्रज सब नहीं रहे उन सबको बारम्बार नमन ।
अब दयाचंद की स्मृतियों से लिखते है सत जीवन दर्शन || उन्नीस शतक ऊपर पन्द्रह ग्यारह अगस्त ईशा सन् में । है जनम आपका वसुधा पर खुशियाँ छाई थी परिजन में ॥ तुम नब्बे एक बरस तक ही जीवंत रहे इस वसुधा पर ।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ निज अमर कहानी लिखके ही सत मरण किया है हे गुणवर ॥ सिद्धांत शास्त्र, साहित्य रत्न इनके तुम उत्तम थे ज्ञाता ।
संस्कृत विद्यालय सागर में पढ़ बने वही पर व्याख्याता ॥ कर्मठ अध्यापक से लेकर प्राचार्य बने तुम सागर में । सारा जीवन तुम यहीं रहे श्री वर्णी भवन दिवालय में ।। परिवार इन्हों का अति छोटा है पाँच पुत्रियाँ अति सुन्दर । इनमें से चार सुखी जीवन वह रहत सदा अपने ही घर ।। बस एक किरण दीदी इनमें संयम पथ शील धरा उर में । पितु सेवा में ही रत रहकर जीवन ही विता दिया घर में ॥ सिद्धांत शास्त्र अरू एम.ए.कर दीदी ने यतन किया भारी । इस ग्रंथ छपाने में इनका सहयोग रहा है हित कारी ॥ दो सहस एक ईशा सन् में सन्मान गुरूजी को दीना । श्री विद्वत रत्न उपाधि अरू इक्यावन सहस नगद दीना॥ दो सहस चार ईशा सन् में श्री ज्ञान सिंधु उपझाया से । श्रुत संवर्धन पुरस्कार मिला इकतीस सहस की नगदी से ॥ अरू मिले अनेकों पुरस्कार सन्मान उपाधि अलंकार | श्री धर्म दिवाकर पीएच.डी कई सफल शिविर के सूत्रधार ॥ इनके सम्यक् गुण गा करके सूरज को दीप दिखाता हूँ। लेकिन कर याद यहाँ उनको श्रद्धा के सुमन चढ़ाता हूँ ।।
ज्ञान चंद जैन पिड़रूआ वाले
सागर (म.प्र.)
डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य वंदनाष्टक देवागम गुरु वंदनीय जगत में, जैन आयतन जग विख्यात । सरस्वती माँ जग हितकारी, करें समर्पण पुण्य प्रभात ॥ सरस्वती सुत दीर्घ श्रृंखला, किया समर्पण पूर्ण जनम । तिनमें इक श्री दयाचंद जी, सागर वाले पुण्य नमन ॥1॥ ग्यारह अगस्त सन् पन्द्रह जनमे, ग्राम मगरोन शाहपुर जान । पिता सुपंडित भगवान दास जी, माता मथुरा बाई महान ॥ पंच पुत्र थे पाँचों पंडित, जैन जगत का अपूर्व उपकार ।
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शुभांशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ माणिक चंद श्रुत सागर दयाचंद, धर्म अमरचंद जयजयकार ।।2।। कितना सुन्दर सहज योग था, यहीं पढ़े थे यहीं पढ़ाय । गणेश वर्णी द्वारा संस्थापित, जैन संस्कृत महाविद्यालय ।। साहित्याचार्य, सिद्धांत शास्त्री, डाक्टरेड का पुण्य पुरुषार्थ । लघु सुपुत्री किरण जैन ने , पितु सेवा की संयम सार्थ ॥3॥ पचपन वर्ष पर्यन्त रहे हैं, पद प्राचार्य उपलब्धि संग। 'विद्वत् रत्न' उपाधि पाई, तज वेतन लिया सेवा प्रण ।। छ: वर्षों तक मानद सेवा, बड़ा कठिन है समय जो आज । वय इकानवें नित्यमह अर्चन, जिनवर वंदन उनका राज ||4|| कूचा सेठ दिल्ली की गादी, धर्म दिवाकर चांदी पत्र । साहित्य भूषण सोला पुर से, किया सम्मानित विद्वत महासंघ ॥ श्रुत संवर्धन पुरस्कार से, पाया मान जगत में श्रेष्ठ । विद्वत शिविर के सफल कुलपति, पीएच.डी का शोध प्रबंध ।।5।। सन् बाबन से दो हजार तक, भारत भर में किया गमन । दस लक्षण की पुण्य बेला में, जिनवाणी का पुण्य प्रवचन ॥ तन मन धन के योगदान से, किया समर्पण पूर्ण जनम । धन्य धन्य वे दयाचंद जी, कीर्ति पुंज जिन जगत सुवंद्य ||6|| शिष्य श्रृंखला दीर्घ काय है, भद्रभाव थे मंद मुस्कान । धीर वीर गंभीर अध्येता, आकर्षक था वदन प्रमान ।। साहित्य सपर्या चली लेखनी, "जैन जगत में पूजा काव्य" । "महावीर का मुक्तक स्तवन", "चर्तुविंशति संधान महाकाव्य"॥ "धर्म राजनीति में होय समन्वय", "तत्व प्रकाशक है स्याद्वाद"। "अमर भारती भाग तीन है", अन्य अप्रकाशित बहुंतहि वाद ।। किया आपने लोक गमन है, पुण्य बेला भी मस्तकाभिषेक । श्रवण बेल गोल बाहुबली का, बारह फरवरी दो हजार छह ॥
- अंतभावना - पंडित के भी हुए सुपंडित, किया आप पंडित वत् मरण । अंतिम क्षण तक पंचप्रभु का, किया जिन्होंने पुण्य स्मरण ।। गौरव गाथा आज गायकर, धन्य हुआ है जैन समाज । नमन 'पवन' का पुण्य पुरुष को, श्रुत सेवा की धांरू ताज ॥9॥
पं. पवन कुमार जैन शास्त्री दीवान,
मुरैना म.प्र.
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ गुरुवर के पावन चरणों में... प्रणाम भारत माता के उपवन में, पुष्पों की है कमी नहीं। इतने सुन्दर इतने सुरभित, सुमन धरा पर कहीं नहीं। जिनका नाम याद करते ही, मन गौरव से भर जाता। जिनकी गुण गरिमा गाने से, सिर चरणों में झुक जाता ॥1॥ ऐसे ही इक महिमा मंडित, पुत्र शारदा महारतन। दयाचंद जी विद्वत् वर को हम सादर करते सुमरन ॥ उनके अनुपम गुणमणियों की, माला एक बनाते है। उसको उनके श्रीचरणों में, श्रद्धा सहित चढ़ाते है ।।2।। एकादश अगस्त, सन् पन्द्रह हुआ शाहपुर सूर्योदय । भगवान भायजी मथुराबाई, हर्षे जननी जनक उभय ।। खेलेकूदे बड़े हो गये, पढ़े लिखे विद्वान बने । किं बहुना दिनकर से चमके, देश धर्म की शान बने ॥3॥ हुए विवाहित सन् चालीस में, पाँच पुत्रियों दिया जनम् । छोटी पुत्री ब्रह्मचारिणी, विदुषी हैं शुभनाम किरण ॥ पुरातन पीढ़ी, आर्षमार्गी, विद्वन्माला रतन महान । जैनागम के गहन ध्येता, चतुर्मुखी प्रतिभा विद्वान ।।4।। पीएच.डी सिद्धांत शास्त्री, साहित्याचार्य शैक्षिक ज्ञान । धर्म दिवाकर साहित्यभूषण विद्वत्रत्न प्राप्त सम्मान ॥ हुए पुरस्कृत भीतर बाहर, सम्मान राशि सह बारम्बार । रजतपत्र द्वारा अभिनन्दित, एकादश इक्यावन हजार ॥5॥ "गणेश दिगम्बर जैन" संस्कृत विद्यालय सागर विख्यात । पचपन वर्ष किया अध्यापन, तन मन पूर्ण समर्पण साथ ॥ भारत के कोने कोने में, जाकर प्रवचन किये विधान। धन पीयूष पिला संस्था को, किया आप सामर्थ्य प्रदान ॥6॥ लिखे बहुत से ग्रन्थ आपने, सम्पादित भी हुए अनेक । नामोल्लेख असंभव सबका, नामांकन संभव कुछ एक ॥ "जैन पूजा काव्य: एक चिंतन", “संक्षिप्त परिचय वर्णी संत "। "धर्म राजनीति समन्वय", "मुन्नालाल स्मृति ग्रंथ" ||7॥ नियम और अनुशासन पालन, रहे आपके जीवन अंग।
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ देव अर्चना खङ्गासन रह, शुद्ध वस्त्र अभिषेकी संग ॥ की प्रभावना जैन धर्म की, सर्व धर्म सम्मेलन जा। रहा कुशल मंच संचालन, विद्वत् गोष्ठी धर्म सभा ।।४।। सम्यक दृष्टि भद्र परिणामी, विद्वत् वर थे निस्संदेह । माह फरवरी द्वादस, रविदिन, दो हजार छ: त्यागी देह ।। नमस्कार मंत्र का चिंतन, बाहुबली अभिषेक श्रवण । करते करते पंडित जैसा, हुआ शांतिमय समाधिमरण ॥9॥ महामनीषी, विद्वत् वर को, याद करेंगे सदा सभी। आप रहे मेरे विद्या गुरु, नहीं भूल सकता हूँ कभी। बीना में वीणा देवी की, महा अर्चना सीखा काम । गुरुवर के पावन चरणों में, सादर बारम्बार प्रणाम ।।
पं. लालचंद जैन “राकेश" के.एस.पी. सरस्ववती नगर जवाहर चौक, भोपाल
दिवंगत सरस्वती पुत्र को समर्पित विनयांजलि
“वृष के कर्मवीर" अनगिनत नक्षत्र खिले जग में, उद्योत कहाँ दे पाते हैं। जब चंद्र पूर्णता को पाते, सुषमा सुस्मित हो देते हैं ।
मानव अनगिनत पैदा होते, जीवन जीते मर जाते हैं।
मर कर भी अमर नाम जिनके, नरपुंगव वे कम होते हैं। बुंदेलखण्ड की पावन भू, इक वगिया पुलकित फूली थी। मथुराबाई, भगवानदास, दम्पत्ति की इच्छा पूरी थी॥
खिले पाँच पुष्प सुवर्ण गंध, माणिक श्रुत कहलाये थे।
श्री दयाचंद्र मणि मुंदरी से, पाँचों के मध्य सुहाये थे। श्रीधर्म और श्री अमरचंद्र, स्वमात - पिता सुखसाये थे। पाँचों पाण्डव से प्रीतिपगे, वे श्रेष्ठ सहोदर भाये थे।
श्री दयाचंद शिक्षित दीक्षित, मेघावी गुणी मनीषी थे।
साहित्याचार्य, सिद्धांतशास्त्री, शैक्षिक व्यवसाय सुनीति थे। कर्मठ स्वाध्यायी, लोकप्रिय, वे विद्वत् रत्न कहाये थे। धर्मोपदेश में पारंगत, वन समाज रत्न सुहाये थे।
दशलक्षण पर्व प्रवचन देते, चालीस वर्ष जग छाये थे।
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
जहाँ जाते मंत्र मुग्ध करते, जिन दर्शन धर्म दिवाने थे ॥ नित पूजन करते खड़े खड़े, जीवन भर नियम निभाये थे । श्रावक कर्तव्य पूर्ण करके, पुष्पित सानंद सुहाये थे |
वृष की सेवा जीवन अर्पित, लेखन वक्तव्य सुहाये थे । सम्पादन लेखन कर्म किए, आलेख शोध सम्पूरे थे | अनगिनत वार सम्मानित हो, श्रुत संवर्धन गुणनिधि पाये थे । कृतियाँ कितनी ही आज सुलभ, साहित्याचार्य सुहाये थे |
भाईचारा वात्सल्य प्रेम, जन मन के हिये सितारे थे । कर्त्तृत्वमयी कृति श्रेष्ठ सृजन, भव्यात्मा रहे दुलारे थे ॥ शैक्षिक योग्यता प्रखर मति, साहित्य भूषण कहलाये थे । सफल प्राचार्य, विद्वत्रत्नों में, धर्मदिवाकर भूषित थे |
अंतिम दिन तक वृष चित्त रमा, कृत पंडित मरण मनीषी थे दीपक बन ज्ञान प्रकाश दिया, अनगिनत दीप की ज्योति थे । कर्तव्य प्रणम्य विमल मन से, कृतित्व योग स्वर्णाक्षर थे । विनयांजलि वृष के कर्मवीर, प्रेरक सत्साहस अक्षय थे |
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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प्रो. डॉ. विमला जैन विमल सह सम्पादिका महिलादर्ष, फिरोजाबाद (उ.प्र.)
पं. दयाचंद साहित्याचार्य के प्रति शुभांजलि मृदुभाषी, शीतल हृदय, सुन्दर, सरल, उदार । ऐसे थे पं. दयाचंद जी, जो सब जन से पाये प्यार ||
लेखन सम्पादन कर, किया जिनवाणी का प्रचार प्रसार ।
वर्णी जी का आशीष पा, किया आजीवन गुरुकुल का काम ॥
सागर विश्वविद्यालय से सम्मानित हुए, पाई पी. एच. डी. जैन पूजा काव्य पर । " विद्वत् रत्न" साहित्य भूषण से अलंकित हुए, पाये अनेक मान सम्मान ॥ हे जिनवाणी के अनन्य भक्त, आपने किये प्रवचन आगमानुसार । आपके साहित्य सृजन से, भर गया जिनवाणी भण्डार ॥ आपको श्रद्धा सुमन समर्पण है, नमन है बारम्बार ।
नाम आपका अजर अमर रहे, यही मंगल भावना भाते दिनरात ||
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इंजी. सुखदेव जैन
नेहा नगर मकरोनिया, सागर
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों श्रद्धेय पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य को शुभांजलि श्रद्धेय - श्रद्धाज्ञान विवेक भाव के हैं जो सागर ।
ध्येता और प्रणेता बनकर जैन धर्म को किया उजागर पं. - पंडित दयाचंद जी हैं भैया धर्म दिवाकर द- दयाधर्म का किया विवेचन जा के भारत भर में या - याद रखेंगे शिष्य आपके उपकारों को जीवन में चं- चन्द्र की ग्यारहवीं चांदनी में हुआ है एक चमत्कार द्र - दुम द्रुम नगाड़े बजे थे, भायजी के गृह आंगन में जी - जीयरा झूमा खुशी से,श्रावणी के मास में सा- शाहपुर की गलियों में, खुशियों का जशनमना
हित मित प्रिय वचनों की, साधना में पूरा जीवन बीता त्या - त्याग धर्म से युक्त रहे, अरू दुष्कर्मो को जीता चा - चार भाई माणिक श्रुत, धर्म अमर की संगति पायी र्य - यश नाम कर्म के अभ्युदय में हैं उपाधियाँ तुमने पायी को - क्रोध मान माया का उद्भव, कभी नहीं तुममें लख पाया .. शु- शुभ का चिंतन मनन हमेशा, भावों से करते पाया भां - भांति भांति के धर्म ग्रन्थों का आलोडन ही करते पाया ज- जन्म मरण के अंतराल में, विद्या का अवदान दिया है। लि - लिखकर कृति अनेकों, जैन धर्म का उत्थान किया है।
भगवान दास भायजी के पाँचों पुत्र पंडित हैं ज्ञान ध्यान साधना धर्म कर्म से मंडित हैं माणिकचन्द्र ज्येष्ठ हैं महिमा से मंडित हैं श्रुत सागर सागर से ज्ञान में पारंगत हैं दयाचंद दयावंत मृदुभाषी पंडित है धर्मचंद धर्म की मूरत की सूरत है अमर चंद्र चंद्रवत् ज्योत्सना बिखेरत हैं पाँचों भाई पांडववत् धर्म से सुशोभित है।
श्रद्धावनत - सुरेश चंद जैन प्रतिष्ठारत्न, दमोह म.प्र.
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ डॉ. स्व. श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य की पावन स्मृति में
उनके पावन चरणों में विनयांजलि
हम वंदन करते हैं, हम अभिनंदन करते हैं। श्री कृपासिन्धु गुरुवर को, कोटिशः वंदन करते हैं ॥ टेक॥ मात पिता के आप दुलारे, कुल के भी उजियारे थे। श्री श्रुत सागर, माणिक के प्यारे, धरम अमर के आप सहारे ।। हम वंदन करते हैं। आप गुरु श्री दया के सागर, श्रीगुरुवर आप ज्ञान के आगर । दयादान की कृपा दृष्टि से, बर्षाई गुरु ज्ञान की धार ॥ हम वंदन करते हैं ॥2॥ आप सन्मार्ग प्रदर्शक गुरुवर, भटकों को राह दिखाई है। पथिकों ने सुपथ पर चलकर, जीवन बगिया महकाई है। हम वंदन करते हैं ।।३॥ परम मनीषी आप गुरु जी, अध्यात्म के मर्मस्पर्शी थे। आप की मधुर वाणी थी, जन जन को सुखकारक थे। हम वंदन करते हैं ।।4।। परम हितैषी भी आप गुरुवर, भव्य जीवन का कल्याण किया। दयासिन्धु श्री गुरु चरणों को, हम सबने हिय में धार लिया ॥ हम वंदन करते हैं ॥1॥ विद्वत्वर्य थे आप भी गुरुवर, कुशल प्रशासक भी थे श्री गुरु । "चंद्र" अश्रुपूरित विनयांजलि अर्पण करता, चरण कमल में नमन करूं। हम वंदन करते हैं , अभिनंदन करते हैं। श्री दयासिन्धु गुरुवर को, कोटिशः वंदन करते हैं। टेक ॥
विनयावनत चरण चंचरीक शिष्य
पं. तारा चंद्र "शास्त्री" शिक्षक, मु.पो. डोंगरगाँव जिला राजनांदगाँव
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
श्रद्धा सुमन अपने अथक यत्न के बल पर । की उन्नति बाधाएँ सह शत ॥ बने विरोधी भी अनुयायी। आज तुम्हें पहचान। तुम्हें शत् शत् वंदन मतिमान ॥1॥
संस्था सागर के संरक्षक आत्म तत्व के अनुपम दर्शक । है अगाध पांडित्य तुम्हारा तुम गुरुवर्य महान।
तुम्हें शत शत वंदन मतिमान ||2|| तुमने ज्ञान प्रसार किया है। विद्वानों को जन्म दिया है। दूर विवादों कलहों से रह। किया आत्म कल्याण ॥ तुम्हें शत शत वंदन मतिमान ॥3॥
रहा सदा ये ध्येय तुम्हारा बने समाज विवेकी सारा। क्रिया काण्ड और कुरीतियां सब, हो जायें निष्प्राण ॥
तुम्हें शत शत वंदन मतिमान ||4|| जैनागम के वृद्ध पुजारी है सेवाएँ अमूल्य तुम्हारी। कैसे हो सकते हम उऋण, कर किंचित गुणगान ॥ तुम्हें शत शत वंदन मतिमान ॥5॥
फिर भी हम सब होकर प्रमुदित करते श्रद्धांजलि समर्पित । करो इन्हें स्वीकार मनस्वी, हो तुमसे उत्थान ॥ तुम्हें शत शत वंदन मतिमान ।।6।।
श्रीमती बसंती जैन (वीरपुर वाले)
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हमारे चाचा जी
(तर्ज उड़ चला पंछी रे) संझले चाचा चल दिये रे - परिजन को छोड़के। संसार रूपी सागर से - अपनी दृष्टि मोड़के । परिवार सारा देखो - देखता ही रह गया। आया अकेला चेतन - अकेला चला गया। साथी सगा न कोई - जाये चेतन साथ में ॥ संझले चाचा चल दिये भगवानदास भायजी के पंचरतन थे। शाहपुर नगरी के ज्ञान दिवाकर थे ।। ज्ञान को बढ़ाना है कहते आत्म जोर से ॥ संझले चाचा चल दिये। माणिक चंद जी माणिक से चमके श्रुत सागर जी श्रुत में रमके॥ दयाचंद जी ने - दया अपनाई रे ॥ संझले चाचा चल दिये। धरमचंद जी ने - धर्म ध्वज फहराके। अमर चंद जी ने - प्रतिष्ठा कराके ॥ दिखला दिया सब गुणों की है खानरे । संझले चाचा चल दिये ॥ आध्यात्म रस के रसिया - अध्ययन मनन किया। गरुओं से शिक्षा लेके - जीवन सफल किया। वर्णी जी की वाणी के - सच्चे उपासक थे। संझले चाचा चल दिये। साहित्य के आचार्य थे - न्याय की वे मूर्ति थे। छात्रों के अनशासन की अनपम छवि थे। छात्रों को पढ़ाया उनने , अपना बच्चा मानके । संझले चाचा चल दिये। बड़प्पन निभाने से ही बड़े गुरु आप थे। समता से जीवन जीना - सीखे कोई आपसे ॥ गुरु के बचन को सुनकर सभी संतुष्ट रे । संझले चाचा चल दिये । बारह फरवरी का शुभ दिन - बाहुबली अभिषेक था। मोराजी में भक्तजनों का - बड़ा ही समूह था ॥ चाचा जी ने छोड़ा तन को - विशुद्ध परिणाम से ॥संझले चाचा चल दिये | मनो, राजे, शकुन सोमा- जिन धर्म पालना | परिवार वालो सुन लो - धर्म न विसारना॥ बेटी 'किरण' बढ़ना धर्म की मशाल ले । संझले चाचा चल दिये रे - परिजन को छोड़ के। संसार रूपी सागर से - अपनी दृष्टि मोड़ के ॥
श्रीमती चंदा कोठारी केवल चंद कोठारी जबलपुर
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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य के चरणों में समर्पित मेरा अति नम्र प्रणाम
जिनकी प्रज्ञा प्रखर महान
लीन रहे नित ज्ञान और ध्यान अध्यात्म पर लिखते रहे विज्ञान
देव शास्त्र गुरु पर रहा बहुमान पंडित जी को मेरा अति नम्र प्रणाम ।
मुख प्रसन्नता की थी खान
नित करते थे
वत्सल, हर पल झरता था
गुरूपी गुण के थे भण्डार
क्रोध लोभ नहिं माया मान
पंडित जी को मेरा अति नम्र प्रणाम
भक्ति
प्रभु
गाकर जिनेश्वर का गुणगान
भविजन को श्रुत का दिया दान
जैन पूजा कर चिंतन
लिख दिया अनूठा काव्य चिंतन पंडित जी को मेरा अति नम्र प्रणाम ।
भव्यों का करने कल्याण
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
स्वयं उम्र का धरा न ध्यान
लिख डाला एक काव्य महान
जिसको नाम दिया 'जैन पूजा काव्य महान'
पंडित जी को मेरा अति नम्र प्रणाम ।
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डॉ. श्रीमती जयंती जैन पूर्व प्राचार्या
श्री दिगम्बर जैन महिलाश्रम, सागर
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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मोराजी का चांद इक चांद देखा तो नजर दाग आया। मोराजी का चांद तो वेदाग पाया ॥
शीतल चाँद तारे तो रात को चमकते ।
गुरु दया चंद्र जी तो हमेशा दमकते ॥ तेरे चरणों में ये राग गाया मोराजी का चाँद तो वेदाग पाया ...
पारस को छूकर, बनता लोहा कुन्दन ।
हमें छूकर गुरुवर तुमने बनाया है चंदन ।। तेरे चरणों वंदनकर, भाग्य जगाया मोराजी का चांद तो वेदाग पाया ...
करूणा दया क्षमा, रही जिनके अंदर ।
ऐसे मेरे गुरुवर ज्ञान के समुन्दर । करूणा का पाठ गुरु ने हमें भी पढ़ाया। मोराजी का चांद तो वेदाग पाया ...
गुरुवर का आशीष जब से मिला है।
"भारती" के मन में कमल सा खिला है । गुरुवर का शिष्य बनकर सदा मुस्कराया मोराजी का चांद तो वेदाग पाया... चरणरज - पं.अखिलेश कुमार जैन "भारती' शास्त्री
मु. रमगढ़ा पो. कारी टोरन
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खण्ड-द्वितीय
परस्परोपग्रहोजीवानाम्
जीवन आइना (व्यक्तित्व)
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
खण्ड -2
जीवन आइना ( व्यक्तित्व) करूणा व कठोरता के अपूर्व संगम थे, पंडित जी
__ आचार्य सुनील सागर ऐसे लोगों में स्वर्गीय पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य का नाम आता है जो नारियल के समान बाहर से कठोर किंतु अंदर से कोमल होते है। श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय (सागर) में रहते हुए मुझे उनके इस रूप का अनेक बार दर्शन हुआ | स्वयं से संबंधित तीन संस्मरण लिख रहा हूँ।
संभवत: आठवीं कक्षा (सन् 1990) की बात है । मुझे विद्यालय में आए एक वर्ष ही हुआ था तथा यह प्रारंभिक सत्र था। एक दिन छात्रवृत्ति आवेदन पत्र पर हस्ताक्षर कराने में पंडित जी के पास गया । उन्होंने कहा-पहले अभिषेक पाठ (संस्कृत) कंठस्थ करके सुनाओ तब हस्ताक्षर करूंगा।
__ अभिषेक पाठ कौन सा है, यह मुझे ज्ञात नहीं था। सो मैंने श्री मज्जिनेन्द्र इत्यादि अभिषेक पाठ की जगह इसी छंद से शुरू होने वाले स्वस्ति मंगल पाठ को कंठस्थ कर लिया और दूसरे ही दिन साइड वाले दरवाजे से डरते डरते पहुँच गया पंडित जी के पास। वे कुछ लिख रहे थे। मैंने आवेदन पत्र उनकी टेबिल पर धीरे से रख दिया। उन्होंने थोड़ी नजर उठा के देखा और बोले अभिषेक पाठ सुनाओ।
मैंने बिना रूके स्वस्ति मंगल पाठ सुना डाला । हस्ताक्षर के लिए हाथ में कलम उठाकर । वे कुछ गुस्सा दिखाते हुए बोले कैसे विद्यार्थी हैं, अभिषेक पाठ आता नहीं और हस्ताक्षर कराने चले आते है।..........और उन्होंने बिना कुछ कहे हस्ताक्षर कर दिए, मोहर लगा दी।
नौवीं कक्षा की बात है । उस समय मैं संपूर्णानंद संस्कृत महाविद्यालय रीवा से संबंधित पूर्व मध्यमा प्रथम वर्ष तथा लौकिक शिक्षा नौवीं कक्षा में था। दोनों परीक्षा की समय सारिणी देखकर मेरे जैसे आठ दस विद्यार्थी असमंजस्य में पड़ गए कि एक साथ, एक ही दिन, एक ही समय, में दो-दो प्रश्न पत्र कैसे हल किए जा सकेंगे और परीक्षा केन्द्रों में आधे एक कि.मी. का अंतर है।
अंतत: पंडित जी के पास पहुँचे । सारी बात कही, उन्होंने सुनी और कहा इसमें मैं क्या कर सकता हूँ। हिम्मत बनाकर मैंने कहा आप तो केन्द्राध्यक्ष हैं।
वे बोले मैं केन्द्राध्यक्ष हूँ इसका मतलब कुछ भी करता रहूँ। ........और उन्होंने डॉटकर सभी को भगा दिया।
थोड़ी देर बाद उन्होंने शिक्षकों से परामर्श किया। शाम को जब वे प्रार्थना स्थल पर उपस्थित हुए तो भय लगा कि अब और डॉट पड़ने वाली है, किंतु पंडित जी ने यह सूचना दी कि जिन विद्यार्थियों के प्रश्न पत्रों का समकाल है वे एक घंटे पहले (प्रात: 6:30) परीक्षा कक्ष पर पहुँच जाएँ तथा निर्धारित समय वाले
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सभी परीक्षार्थियों के आ जाने के बाद जा सकते हैं। ऐसा करने से 15-20 मिनिट देर से आप दूसरे परीक्षा केन्द्र पर पहुंच जाएगें। यह आप लोगों के धैर्य और कुशाग्रबुद्धि की भी परीक्षा का समय आया है।
संभवत: शास्त्री प्रथम वर्ष (11वीं) की बात हैं । छह बजे के बाद भी एक दो उदंड लड़के सोते रहते थे। एक दिन निरीक्षण के मध्य शैलेश नाम का (आठवीं कक्षा का ) विद्यार्थी सोता मिला | मैंने जगाया। उसने कुछ ध्यान नहीं दिया । मुझे गुस्सा आया तो मैंने उसे कान पकड़कर खड़ा कर दिया और दो तीन तमांचे जड़ दिए । वह रोता हुआ पंडित जी के पास पहुंचा और मेरी शिकायत कर दी।
___पंडित जी ने तुरंत तो कुछ नहीं कहा, दोपहर को लगभग दो बजे बुलाया। मैं समझ गया कि आज अपनी भी डण्डों से पूजा होने वाली है। मैं गया और चरण छूकर खड़ा हो गया। उन्होंने सिर्फ एक नजर देखा
और बोले मुझे तुमसे यह आशा नहीं थी, छोटे विद्यार्थी, छोटे भाई के समान होते हैं। और वे चुप हो गए। उसके बाद मैंने शायद ही किसी पर हाथ उठाया हो ।
यह तो सिर्फ उनकी करूणा के संस्मरण हैं। मुझे तो ऐसे कई संस्मरण स्मरण में है। उनकी इच्छा थी कि मैं संस्कृत शास्त्री तक संपूर्ण पढ़ाई करूँ, फिर चाहे दीक्षा ले लूँ। किंतु वैराग्य की उत्कृष्टता वश मैं उनकी बात नहीं मान पाया फिर भी उनके द्वारा दिए गए ज्ञान व संस्कारों के बल पर मैं मोक्षमार्गस्थ हूँ।
पंडित जी निश्चित ही कुछ भवों में आत्मलाभ करेंगे, ऐसी मंगल भावना के साथ।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे उपकारी - बड़े पण्डित जी
मुनि विभव सागर विद्या वाचस्पति सरस्वती पुत्र जिनवाणी आराधक अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी बहुभाषा विद् विद्वत रत्न पं. डॉ. दयाचंद्र साहित्याचार्य जी अजर अमर है । जिन्होंने अपनी कलम से हिन्दी संस्कृत साहित्य जगत में शोध प्रबंध एवं अनेक शोध पत्र लिखकर जैन साहित्य संस्कृति में अविस्मरणीय योगदान दिया।
___ श्रमण संस्कृति उपासक जैन धर्म संरक्षक, संस्कृत विद्या प्रचारक जैन साहित्य उद्घाटक विद्वत रत्न गर्दा श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी सागर के प्राचार्य पद पर आसीन वर्णी वाटिका को अविराम अभिसिंचित करने वाले, स्वपरोपकारक पण्डित जी को मैंने बाल्यकाल से ही माँ की ममता और पिता के प्यार तथा आत्म हितैषी विद्या प्रदाता के रूप में पाया | उनकी मीठी डॉट और मधुर प्यार पाने का सौभाग्य भी मुझे मिला। डॉट तो झूठी और कुछ पल के लिए होती थी, पर आपका प्यार चिरस्थायी जीवन्त अविस्मरणीय रहा । आपको हम सभी बालक बड़े पंडित जी के नाम से जानते थे, पुकारते थे।
प्राचीन कालीन गुरूकुल पद्धति का दर्शन और धार्मिक शिक्षण हम आपके शुभ सान्निध्य में कर सके । प्रत्येक शनिवार को आयोजित छात्र हितकारिणी सभा में विद्यार्थियों को दिया जाने वाला आत्मीय सम्बोधन मैंने अनेकों बार सुना । आपका मानना था यदि विद्यार्थी में विद्यार्थी के लक्षण प्रकट हो जायें तो विद्या स्वयमेव आ जायेगी। अत: आपका प्रिय हितकारी श्लोक स्मृति पटल पर सदैव अंकित रहता है - यथा
काक चेष्टा वको ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च ।
अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणम् ॥ उपर्युक्त श्लोक का अर्थ भावार्थ प्रयोजन हम बालकों के कोमल मस्तिष्क में इस तरह भर देते थे कि विद्यार्थी माता पिता के मोह को भूलकर मात्र अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाते थे। आपकी अनुशासित चर्या ने सहज ही आत्मानुशासन और स्वाबलम्बन का पाठ सिखाया । मै जानता हूँ कि जीवन भर के लौकिक ज्ञान की अपेक्षा आपके द्वारा प्रदत्त अल्पकालीन धार्मिक प्रायोगिक शिक्षा हमारे जीवन में रूपान्तरण कारी सिद्ध हुई।
__ आप कहा करते थे कि विद्यार्थियो"पन्ना में हीरों का खान है तो हमारा विद्यालय विद्वानों की खान हैं।" बहुत सी मिट्टी पत्थर निकालने के बाद बड़े भाग्य और कठोर परिश्रम से एकाध हीरा निकलता है। ठीक उसी तरह हजारों विद्यार्थियों में से यदि एक भी विद्यार्थी जैन धर्म का उत्कृष्ट विद्वान बन गया तो मैं मानता हूँ हमारे देश के लिए जीवन्त रत्न मिला गया, और समाज का दान भी सफल हो जायेगा तथा हमारा श्रम भी । जब आप विद्यालय से प्रकट विद्वानों की प्रशंसा करते थे तो विद्यार्थी गण आपके सम्बोधन को अपना चिर स्थायी जीवन्त अरमान बना लेते थे। कभी आप "वादे वादे जायते विद्या" की चातुर्य पूर्ण सूक्ति सुनाकर तर्कणा शक्ति जाग्रत कराते तो कभी"या विद्या सा विमुक्तये"की शिक्षा देकर धर्माचरण की प्रेरणा करते रहते थे।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ____ एक बार आपने विद्यालय के भूतपूर्व विद्यार्थी वरिष्ठ विद्वान नेरन्द्र विद्यार्थी का संभाषणोपरान्त परिचय देते हुए कहा - आप संस्कृत भाषा के मूर्धन्य विद्वान म.प्र. विधान सभा के एम.एल.ए. छतरपुर से पधारे नरेन्द्र विद्यार्थी है यह हमेशा विद्या व्यसनी है, इन्हें विद्वान का अहं तो नहीं है पर इनकी विनम्रता पर प्रसन्न होकर सरस्वती इनको खोजकर पास आती है तब से मुझे लगता है - प्रत्येक इंसान को आजन्म विद्यार्थी ही बना रहना चाहिए ऐसा विद्या पिपासु व्यक्तित्त्व ही चलता फिरता विश्व विद्यालय बन सकता है । देवशास्त्रगुरू भक्त साधु सेवा पारायण बड़े पण्डित जी हम सभी विद्यार्थियों को साधु संघों की आगवानी हेतु भेजते, वरिष्ठ विद्यार्थियों को सेवा व्यवस्था एवं कनिष्ठ विद्यार्थियों को वैयावृत्ति का सुयोग्य । अवसर प्रदान कराते, तथा अपने प्राचार्य निवास में ही चौका लगाकर विद्यार्थियों को आहार चर्या सिखलाते प्रवचन सुनने की प्रेरणा हमेशा देते, ऐसा महान गुरू भक्त पण्डित जी नीति और सुभाषित श्लोक सुनाकर भी प्रेरित करते -यथा- हौले शैले न माणिक्य, मौक्तिकंन गजे गजे ।
साधवों न हि सर्वत्र, चन्दनम् न वने वने ॥ विद्यालय संस्थापक पूज्य क्षु. गणेश प्रसाद जी वर्णी के शुभ संस्मरण यथा समय आप अवश्य सुनाकर-विद्या की दुर्लभता और अमूल्यता पर प्रकाश डालते रहते थे । पर्युषण पर्व में प्रवचनार्थ विद्यार्थियों को अन्य स्थानों पर भेजकर प्रोत्साहित करने में आप पूर्ण श्रम करते कराते थे। संस्कृत साहित्य शास्त्री प्रथम वर्ष में मुझे आपको लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा गुरू बनाने का सौभाग्य मिला योग्य शिष्य बनकर आपके अतिनिकट बैठने का शुभ अवसर मिला।
__ वर्ष 1993 में प. पू. मुनि श्री निर्णय सागर जी का चातुर्मास मोराजी विद्यालय में चल रहा था, उनका छहढाला विषय पर हृदय ग्राही मार्मिक प्रवचन सुनकर वैराग्य की लहर उठी ब्रह्मचर्य व्रत की प्रबल भावना भी। मैने पूज्य मुनि श्री से निवेदन किया उनकी कृपा प्रसाद से मुझे बीना नगर में पू. मुनि श्री विराग सागर जी महाराज के पास भेजा गया , मैं व्रत लेकर आया तथावत पू. मुनि श्री के पास रहने लगा, आप मुझे संस्कृत में आचार्य करने की भावना रखते थे। पर मेरा वैराग्य मानस प्रबल हो चुका था । अत: मैंने वहीं शिक्षा को स्थगित कर पूज्य आचार्य गुरूदेव विरागसागर महाराज से शिक्षा लेना आरंभ हुआ।
वर्ष 1994 जनवरी 28 को मेरी क्षुल्लक दीक्षा देख आप आनंद विभोर हुए। दीक्षा के बाद मेरा प्रथम आहार आपके ही चौका में हुआ तब मैंने अनुभव किया कि मैं जितने संकोच में डूबा था आप उतने ही प्रसन्नता के अथाह सागर में आज मेरा विद्यार्थी क्षुल्लक बन गया कल मुनि बनकर आत्म कल्याण करते हुए जैन धर्म प्रभावना तथा विद्यालय का नाम रोशन करेगा। ऐसे स्वपरोपकारी महापुरूषों के प्रति मैं कभी कभी सोचता हूँ प्रकृति ऐंसाअन्याय क्यों करती ? जो सत्पुरूषों को हमसे विलग कर देती पर आयुकर्म की प्रकृति का नियम ही कुछ ऐसा है यह जानकर तटस्थ रह जाता हूँ तटस्थ रह जाना स्वस्थ रह जाने का राज तो है पर कृतज्ञता नहीं। अत: ऐसे उपकारी सत्पुरूषों का शुभ नाम एवं कार्यस्मरण कर लेना करा देना उनके द्वारा प्रदत्त उपकारी विद्या और स्मृति का ही परिचय है । कर्त्तव्य निष्ठ ऐसी अमर आत्मा के लिए शुभाशीष। आपकी आत्मा आपको केवल ज्ञान प्रदान करें।
धन्यास्ते मानवा लोके, ये च प्राप्यापदां पराम्। विकृतिं नैव गच्छन्ति, यतस्तो साधु मानस: ॥
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जीवन की महत्वपूर्णता
डॉ. क्रांत कुमार सराफ (मंत्री) आदरणीय पंडित जी के विषय में कुछ कहने के लिए शब्दों का चयन मुश्किल होता है। क्योंकि उन सरीखे विशाल व्यक्तित्व के संबंध में कुछ कहने, लिखने में शब्द कम पड़ते है ।
श्री ग. दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर के प्राचार्य अखिल भारतवर्षीय विद्वत परिषद एवं शास्त्री परिषद के प्रमुख विद्वान, सरल स्वभावी, मृदु भाषी आदरणीय पं डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य श्री दि. जैन समाज के मूर्धन्य विद्वानों में एक प्रमुख स्थान रखते थे। आदरणीय पं. जी ने करीब 55 वर्षों तक इस संस्था की सेवा विद्वान, शिक्षक के रूप में की । प्रात: स्मरणीय इस संस्था के संस्थापक पू. क्षु. गणेशप्रसाद वर्णी जी महाराज की प्ररेणा से आपने पिता की अनुमति से पं. दयाचंद जी अपने बड़े भाई पं. माणिकचंद्र जी न्यायकाव्य तीर्थ के साथ इस संस्था में (पूर्व नाम श्री सत्तर्क सुधा तरंगिणी पाठशाला सागर) अध्ययन करने आये और यही के हो गये । आदरणीय स्व. पं. माणिकचंद्र जी ने और आपने जीवन पर्यन्त इस संस्था की सेवा विद्वान शिक्षक एवं प्राचार्य के रूप में की । जो भी व्यक्ति विद्यार्थी पंडित दयाचंद्र जी के सम्पर्क में आता इनके गुणों का प्रशंसक हो जाता था ।
आदरणीय पं. डॉ. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य ने सन् 1983 से संस्था के प्राचार्य का दायित्व संभाला था । आपके साथ कार्य करने का मुझे बहुत अधिक अवसर प्राप्त हुआ। आपने प्राचार्य के रूप में काफी कुशलतापूर्वक कार्य किया और महाविद्यालय के संचालन में आवश्यकतानुसार मुझसे सहयोग भी लिया। समय - समय पर पंडित जी मुझे कठिनाईयाँ आने पर मार्गदर्शन भी दिया करते थे।
___ इनके परिवार में इनकी बेटियाँ ही हैं जो अपने पिता के बताए धर्म सम्मत मार्ग पर चलकर श्री जिनेन्द्र भगवान की एवं जिनवाणी माता की धर्म प्रभावनापूर्वक सेवा कर रही है। आदरणीय पंडित जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की सुगंध सभी दिशाओं में फैली थी। और इस नगर से धर्मप्रभावनार्थ बाहर शहरों में जब जाते थे साधर्मी बंधु इनकी सादगी व गुणों के प्रशंसक हो जाते थे।12 फरवरी 2006 को श्री 1008 भगवान बाहुबली स्वामी के महा मस्त का अभिषेक कार्यक्रम आदरणीय पंडित जी की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। दोपहर में आपने 91 वर्ष की आयु में अपना शरीर छोड़ दिया और इस अपार धर्म प्रभावना के अवसर पर पूर्ण धर्म निष्ठा के साथ इस संसार से मुक्ति लेना, उन सरीखे विरल व्यक्तित्व के लिए ही संभव हुआ। आदरणीय पंडित जी के आदर्शो पर हम सब चलें, यही कामना जिनेन्द्र प्रभु से है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे आदर्श मार्गदर्शक अग्रज सरस्वती पुत्र पं. दयाचंद साहित्याचार्य
पं. अमर चंद शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य शाहपुर (लघु भ्राता) आप बहुत धर्मानुरागी सरल स्वभावी मंदकषायी मृदु भाषी साहित्य की आचार्य पदवी से विभूषित थे आपका समय धार्मिक कार्यो में ही व्यतीत होता था। जीवन भर ज्ञान की वृद्धि करते रहे । व्यापार की ओर उनका लक्ष्य ही नहीं था। उनका कहना था कि व्यापार में लग जाने पर पढ़ा हुआ ज्ञान भी विस्मृत हो जाता है। हम अपना धर्म और ज्ञान में पूरा समय खर्च करेंगे। उससे ज्ञान की वृद्धि होती रहेगी। आत्मा का कल्याण भी ज्ञान के माध्यम से ही होता है। ठीक है । रत्नत्रय में ज्ञान मध्य में ही रखा है। यह दोनों तरफ काम करता है सम्यक् दर्शन को भी दृढ़ करता है और चारित्र को भी दृढ़ करता है । अत: सम्यक् दर्शन होने पर रत्नत्रय की साधना करना श्रेयस्कर है। सबसे प्रधान धन संतोष धन होता है। जिसको आपने जीवन भर धारण किया है। अनावश्यक सामग्री का संग्रह नहीं किया। जो प्राप्त हो उसमें ही प्रसन्न रहते थे। किसी से अपने मुख से अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया चाहे कितनी भी प्रति कूलता क्यों न हो । यदि दूसरे ने खोटे शब्दों का प्रयोग किया तो सुन लेते थे। अपनी लघुता दूसरे की प्रसंशा करते थे यह गुण सभी में नहीं होता।
जीवन भर अध्ययन व अध्यापन कार्य किया है। उस ज्ञान से ही आपने “जैन पूजा काव्य" शोध प्रबंध की रचना की है। जिसमें अनेक संस्कृत प्राकृत पूजन का वर्णन अलंकार छन्दों के साथ किया गया है । जिसका विमोचन भी आचार्य श्री विद्यासागर जी के सानिध्य में भाग्योदय तीर्थ सागर में हुआ था।
आपको गुणीजनों के प्रति बहुत स्नेह व वात्सल्य रहता था। आपका आचरण व्रतीजनों जैसा था। आपकी सबसे छोटी पुत्री ब्र. किरण ने जीवन भर सहारा दिया। छाया की तरह रही इसी कारण उनका जीवन धर्ममय सुख शांति युक्त व्यतीत हुआ। आप विद्वत्परिषद तथा शास्त्री परिषद के स्थाई सदस्य थे। राष्ट्रीय स्तर के सरस्वती पुत्र थे। अब मुनष्य पर्याय से ही उनका प्रस्थान हो गया जो विद्वानों को तथा पूरी जैन समाज को अविस्मरणीय क्षति है।
हमें उनसे बहुत मार्ग दर्शन मिलता रहता था। आत्मीय स्नेह मिलता था। इस अंतरंग दुख को सहन कर उनके प्रति हृदय से श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं और भावना करते हैं। कि उनकी आत्मा मोक्ष के प्रति अग्रसर बनी रहे । दिवंगत अग्रज को आत्मीय आदरांजलि प्रस्तुत हैं। उनके दिवंगत जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि -
"आयु कटती रात दिन, ज्यों करोत ते काठ हित अपना जल्दी करो, पड़ा रहेगा ठाठ "
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सहज, सरल सादगी पसंद पंडित जी
पं. सुरेन्द्र भारती बुरहानपुर जब भी मैं सागर की ओर देखता हूँ विशाल तालाब के आगे परम श्रद्धेय पंडित जी डॉ. दयाचंद जैन साहित्याचार्य का स्मरण हो जाता है। लगता है कि वे बड़े तालाब के तट पर निवास करते हुए विशाल सागर की तरह धीर, वीर, गम्भीर थे। निगाह नीची, भाल उन्नत, सादगी पसन्द, सहज, सरल और सदैव कर्त्तव्यों के प्रति जागरूकता उनमें दिखाई देती रही-जीवनपर्यन्त । वे अपनी मिसाल आप थे। उन्होंने जो कुछ अर्जित किया था उसे अनेक गुना करके समाज और शिक्षार्थियों को लौटाया । मानों लेकर रखना उन्होंने सीखा ही न था। वे देव शास्त्र गुरू के प्रति परम आस्थावान्, पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी की छत्रछाया में रहने वाले तथा उन्ही के धर्म कर्म सम्पन्न गुणात्मकता के अनुगामी थे। मैं जब भी सागर जाता था वे सहज भाव से मिलते थे। मेरा उनसे परिचय 20 वर्ष पूर्व हुआ था, जब मैं डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में वर्तमान पद (सहायक प्राध्यापक हिन्दी विभाग सेवासदन महाविद्यालय बुरहानपुर म.प्र.) हेतु साक्षात्कार के लिए गया था तब उनके कहने पर मेरी मोराजी में ही रहने की व्यवस्था की गयी थी लगता है यह आतिथ्य देना उनके स्वभाव में था । उन्होंने अपने शोधप्रबंध के माध्यम से जिनभक्ति साहित्य का खूब आलोड़न किया ओर मोती समाज विद्वानों को प्रदान किए। वे अ.भा. दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् के विद्वान् सदस्यों में अग्रकोटि के थे। उनके निधन से भले ही समाज ने, परिवार ने उन्हें खो दिया हो परन्तु वे विद्वज्जगत में अपनी साहित्यिक शैक्षणिक क्षेत्र में दी गयी सेवाओं के लिए अजर अमर रहेगें । मैं उनके सम्मान में प्रकाशित स्मृति ग्रंथ हेतु समाज के प्रति कृतज्ञ हूँ जिसने विद्वत्ता के गौरव को मान देकर स्वयं को गौरवान्वित किया है। आदरणीय पंडित जी की सुयोग्य सुपुत्री कुमारी किरण संयमित जीवन जी रही है, यह देखकर हर्ष होता है कि पिता के संस्कार पुत्री में जीवन्त हो रहे हैं।
मेरी विनम्र श्रद्धांजली पूज्य पंडित जी की आत्मा के प्रति, यश:काम के प्रति है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनुकरणीय ज्ञान साधना के प्रतीक
प्रोफेसर फूलचंद जैन प्रेमी, वाराणसी बुंदेलखण्ड आर्थिक सामाजिक एवं राजनैतिक आदि क्षेत्रों में भले ही पिछड़ा रहा हो, किन्तु आचार तथा ज्ञान के क्षेत्र में सदा अग्रणी रहा हैं। यहाँ एक से बढ़कर एक शास्त्रीय विद्वान हुए हैं तथा धार्मिक आचार की दृष्टि से विशेषकर यहाँ की जैन समाज तो आज भी सम्पूर्ण देश की जैन समाज के लिए आदर्श है । इन्ही ज्ञान और आचार के क्षेत्र में सागर जिले के शाहपुर ग्राम में अपने जन्म से गौरवान्वित करने वाले स्वनाम धन्य पंडित भगवानदास जी भायजी के पाँचों सुपुत्रों ने एक विशेष कीर्तिमान स्थापित किया है। किसी पिता के पाँचों ही सुपुत्र देश के ख्याति प्राप्त विद्वान बने हों ऐसा उदाहरण शायद ही अन्यत्र कहीं हो । यद्यपि इन पाँचों ही विद्वानों से मुझे सहज आत्मीयता पूर्ण स्नेह प्राप्ति का सौभाग्य मिला है, किन्तु इनमें से श्रद्धेय पंडित श्रुतसागर जी तो मेरे साक्षात् गुरू ही रहे है, जिनसे मुझे कटनी के जैन विद्यालय में सन् 1965-66 में न्यायदीपिका तथा अन्य आरम्भिक जैन न्याय शास्त्र के ग्रन्थ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एन. पी. वर्तमान में स्मरणीय श्रद्धेय डा. दयाचंद जी साहित्याचार्य मेरे साक्षात् गुरू भले ही न रहे हों किन्तु मेरे मन में इनके प्रति सदा गुरू एवं पिता तुल्य सम्मान काभाव रहा है और आपसे भी सदा मुझे स्नेह प्राप्त होता रहा है।
___ श्रद्धेय पंडित जी का सम्पूर्ण जीवन ज्ञान साधना का एक आदर्श उदाहरण हैं । “सादा जीवन उच्च विचार" की कहावत को चरितार्थ करने वाले पं. जी की ज्ञान साधना की पराकाष्ठा उस समय फलीभूत हुई जब आपने अपनी वृद्धावस्था में पी.एच.डी. जैसी शिक्षा जगत् की सर्वाच्च उपाधि सागर विश्वविद्यालय से प्राप्त की। सागर जिले के ही दलपतपुर गाँव मेरी जन्म भूमि होने के कारण मुझे यहाँ वर्ष में 2-3 बार सागर भी आने का मौका मिलता और यहाँ श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय से लगाववश पंडित जी से जरूर मिलने जाता । यहीं वर्तमान प्राचार्य पंडित मोतीलाल जी एवं मेरे सहपाठी विद्वान पंडित ज्ञानचंद जी व्याकरणचार्य से भी मिलकर आत्मीय सुख की अनुभूति करता हूँ।
कुछ वर्ष पूर्व एक बड़े आचार्य के ससंघ सानिध्य में मोराजी भवन ग्रीष्मकालीन सिद्धान्त वाचना चल रही थी। अपने गाँव में जाते समय सागर पहुंचने पर जैसे ही यह समाचार ज्ञात हुआ, मैं मोराजी भवन पहुँचा | वाचना प्रारम्भ होने में कुछ देर थी, अत: मैं यहीं श्रद्धेय पंडित जी के आवास पर उनसे मिलने पहुँचा। मैंने देखा कि पंडित जी तत्त्वार्थवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथो के पारायण में संलग्न है । मैंने पूछा पंडित जी आप इस वृद्धावस्था में और भीषण गर्मी में इन शास्त्रों का एक परिश्रमी विद्यार्थी की तरह पारायण क्यों कर रहे हैं ? पंडिज जी ने कहा - अभी कुछ देर बाद मुझे एवं बड़े श्रमण के संघ के समक्ष इन शास्त्रों की वाचना प्रस्तुत करना है । अत: कितना ही ज्ञान हो, परीक्षा के पूर्व यदि उन शास्त्रों का पारायण न किया जाए तो मन में संतोष नहीं होता | मैं उनकी इस ज्ञान साधना से अत्यधिक प्रभावित हुआ ।
सन् 2001 में अ.भा. दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् का मुझे अध्यक्ष पद पर मनोनीत किया गया तब
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सर्वप्रथम आपका बधाई संदेश शुभाशीष के रूप में प्राप्त कर मुझे सर्वाधिक प्रसन्नता का अनुभव हुआ था। इसी प्रकार सन् 2005 में श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय के शताब्दी वर्ष समारोह के अवसर पर अ.भा. दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद के अधिवेशन के अवसर पर मेरे अध्यक्षीय व्याख्यान से प्रभावित होकर मुझे शुभाशीष देते हुए बोले - प्रेमी जी आपने सागर जिले का गौरव बढ़ाया है। इसी प्रकार आगे बढ़ते रहो ये हमारी मंगल कामना है। उन्होंने अपने विद्यालय को अपनी निष्ठापूर्ण समर्पित भाव से आजीवन सेवायें प्रदान कर एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है । विशेष कर इतने श्रेष्ठ और वरिष्ठ विद्वान अन्यत्र कहीं ऊँचे वेतन में नौकरी प्राप्त कर सकते थे, किन्तु थोडे में ही संतोषकर सम्पूर्ण जीवन विद्यालय को समर्पित कर हजारों छात्रों को ज्ञान दान देकर योग्य विद्वान् बनाने में ही आपने अपने जीवन की सार्थकता मानी।
ऐसे महा मनीषी विद्वान् यद्यपि हमारे बीच नहीं है किन्तु वे अपने बहुमूल्य योगदान से हम सभी के बीच सदा जीवित रहेंगे। उनकी पुण्य स्मृति में श्रद्धांजलि स्वरूप प्रकाशित हो रहे इस स्मृति ग्रंथ के द्वारा दीर्घकाल तक आगे आने वाली पीढ़ियाँ उनसे प्रेरणा ग्रहण करती रहेंगी इसी विश्वास के साथ उन्हें श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ।
डॉ. दयाचन्द जैन साहित्याचार्य के व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य
प्राचार्य पं.निहालचंद जैन, बीना (म.प्र.) सादगी और सरलता से प्रज्ञता का अनुराग होता है । यह भले ही सिद्धान्त न हो, परन्तु जब भी डॉ. दयाचंद जी से मिलता, हम जैसे नाचीज व्यक्ति को ऐसा सम्मान देते जैसे मैं कोई विद्वान हूं। उनकी निश्छल सरलता से अभिभूत में सोचने लगता कि इतनी विनम्रता तो निश्चित ही इन्हें अपने पूज्य पिता पं. भगवानदास जी से मिली होगी। पं. दयाचंद जी ने विद्याभ्यास और अध्यात्म में निपुणता अपने पिता जी के आशीर्वाद से ही प्राप्त की। विद्याभ्यास के लिये समर्पण का सबूत इसी बात से मिलता है कि 75 वर्ष की उम्र में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इस उम्र तक आते-आते व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियाँ थक जाती हैं परन्तु यह सर्वहारा मनुष्य कितना जीवित व्यक्तित्व का धनी था कि ज्ञान का अथ सागर से और इति भी सागर में। जहां शिक्षा प्राप्त की, वहीं अध्यापन कराने लगे और संस्था श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी सागर के प्रति इतना समर्पण था कि पद एवं पैसे को महत्व न देकर अपने ज्ञान यज्ञ को सातत्य रखा सिद्धान्तशास्त्री और साहित्याचार्य जैसी गौरवपूर्ण उच्च उपाधि, वही अध्यापन कार्य करते हुए प्राप्त की। और अन्त तक इसी संस्था में प्राचार्य पद पर आसीन होकर 'अ' से 'ज्ञ' तक गणेश प्रसाद वर्णी जी के प्रति अपनी अनन्य श्रृद्धा का अर्घ्य देकर जीवन का यौवन और बार्धक्य का अनुभव व गंभीरता, मोरा जी के प्रागंण में व्यतीत कर दी । अपने ज्ञान का जरा भी अंहकार नहीं । लघु में वृहत्तर और
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वामन में विशालता देखना आपके अहंकार शून्य जीवन का एक जीवन्त पाठ था।
ऐसे सरस्वती पुत्र थे डॉ. दयाचंद जी कि संघर्ष में हर्ष का अनुभव करते रहे । न जैन समाज सागर से मान सम्मान की बांछा की और न ही किसी बड़े पुरस्कार के लिये प्रार्थना पत्र । एक बार जब मैं उनसे मिलने गया तो कहने लगे - निहालचन्द ! मैंने चतुर्विंशतिसन्धान महाकाव्य का सम्पादन पूरा कर लिया है।
और भी कुछ लिखा है। (अब तक साहित्याचार्य जी का भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित शोध ग्रन्थ "जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन प्रकाशित नहीं हो पाया था।) बाद में प्रकाशित हुआ मुझे आत्मीयता से सारी बातें बता रहे थे। पता नहीं मुझ पर उनका इतना आत्मीय भाव क्यों था! न मैं उनका शिष्य रहा और न ही कभी किसी सन्दर्भ में उनके सामीप्य का लाभ लिया परन्तु इतना अवश्य रहा कि मैं उनकी विनम्रता और सहजता का कायल बन गया था।
बा. ब्रह्मचारिणी किरण दीदी उनकी बेटी उनके लिए बेटे से भी ज्यादा सेवा सुश्रुषा में निरत रहीं और उन्हें कभी यह कमी नहीं खटकने दी कि प्रारब्ध ने उन्हें एक बेटा नहीं दिया । सन्तोष रूपी अकूतधन के वे कुबेर थे। स्वाध्याय और व्रताराधना रूप संयम उनके दो सहजीवी मित्र रहे जिनके बल पर वे अपने व्यक्त्वि में सभी सद्गुणों की महक पैदा करते रहे। श्रद्धेय डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य जी के एक सम्मान समारोह में अन्य विद्वानों के साथ मुझे भी उनके चरणों में गुणानुवाद करने का अहोभाग्य प्राप्त हुआ था। उस समय डॉ. दयाचंद जी ने अपने वरिष्ठ विद्वान के प्रति कितना सम्मान का भाव देखा । आज परस्पर विद्वानों में वह आत्मीय भाव कहां देखने को मिल पाता है क्योंकि आज सभी अपने स्वार्थों की गणित में उलझे हुए हैं। डॉ. दयाचंद जी का नि:स्वार्थ और समर्पित व्यक्तित्व का हम “अभिनंदन ग्रन्थ" नहीं निकाल सके परन्तु उनकी अभिवन्दना में जो "स्मृति ग्रन्थ" का प्रकाशन कर उनके प्रति अपनी श्रृद्धांजलि समर्पित कर रहे हैं। कम से कम किरण दीदी के लिए एक विश्वास का उपहार तो अवश्य दे रहे हैं कि उनके पूज्य पिता श्री सागर में रहकर सागर जैसे विशाल हृदय और कर्तृत्त्व के अनुक्षण पुरूष थे। सागर के सुधी विद्वानों ने उनकी भावनाओं का संवेदनस्वर अपने में महसूस किया और देर आये दुरस्त आये" की कहावत चरितार्थ करते हुए स्मृति ग्रन्थ के रूप में एक सही प्रणति उस अक्षर पुरूष को भेंट की।
जब मैं उनके शोध प्रबन्ध जैन पूजा काव्य “एक चिन्तन को पढ़ रहा था तो उन्होंने जिन लोगों को याद किया उनमें दमोह के डॉ. भागचन्द जी भागेन्दु प्रथम पुरूष रहे । वैसे उस शोध प्रबन्ध में जितने सहायक रहे सभी को बडी विनम्रता से याद किया था उन्हें बाद में श्रुत सम्बर्द्धन पुरस्कार (सन 2004) भी प्राप्त हुआ जो उनके श्रम का सही मूल्यांकन था । यदि डॉ. दयाचंद जी के व्यक्तित्व को सूत्र रूप में कहूं, तो वे एक निष्कामी ज्ञान सागर और पाण्डित्य के साथ श्रावकोचित संयम एवं चारित्र के धनी व्यक्ति थे। विद्वानों के प्रति वात्सल्य और सम्मान का भाव रखते थे। ऐसे सरस्वती पुत्र को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर प्रणति करता हूँ।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ डॉ. पं. दयाचंद साहित्याचार्य जी समाज के आदर्श कीर्ति स्तंभ
सुरेश चंद जैन वारौलिया
वी 677, कमलानगर आगरा बुंदेलखण्ड की भूमि आरंभ से ही वीर प्रसूता की जननी रही है। छत्रसाल जैसे प्रजापालक राजनीतिक धर्मवत्सल विद्वान राजाओं ने इस भूमि को पवित्र किया है। उसी प्रकार यह भूमि विद्वत्ता प्रसूता भी रही है। पूज्य गणेशप्रसाद वर्णी जी ने बुंदेलखण्ड में जन्म लेकर यहाँ जन समुदाय का भारी कल्याण किया है जिनकी सत्कृपा से आज जैन जगत में जैन धर्म के विषय में अनेकों मनीषी साक्षर बने है । इसीलिए बुंदेलखण्ड के कौने कौन में पंडित समुदाय दिखता है । यहाँ सामान्य विद्वान से लेकर अच्छे अच्छे आचार्य न्याय शास्त्र, व्याकरण शास्त्र साहित्याचार्य जैसी उपाधियाँ प्राप्त विद्वान मौजूद है।
उसी कड़ी में पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य जी उस गुलाब के प्रसून सदृश्य है जो कष्ट रूपी कंटकों में पलकर भी देश और समाज के हित में गौरव की सुंगध देता है। वे तपे तपाये गुलाब थे, उनकी कार्यकृतियों की महक से आज भी श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय वर्णी भवन मोराजी का प्रांगण सुशोभित सुरक्षित और सुवासित है । विद्वता की विभूति शिक्षा के क्षेत्र में आपने संस्कृत महाविद्यालय को वट वृक्ष के रूप में सिंचित किया है, संजोया है । अनेकों विद्वानों को सम्यज्ञान की ज्योति से धर्मामृत पान कराया है जो आज भी नक्षत्रों की भांति चमकते हुए समाज व राष्ट्र की सेवा कर रहे है। तथा विभिन्न क्षेत्रों में अपने साथ आपकी यशो गाथा भी प्रसारित कर रहे है।
आप शिक्षा जगत के क्षेत्र में कुशल शिक्षक ही नहीं बल्कि संस्कृत महाविद्यालय वर्णी भवन मोराजी सागर के प्रमुख कुशल प्राचार्य भी रहे है। जैन समाज आज अपने मूर्धन्य विद्वान साहित्याचार्य पं. दयाचंद जी की उच्च कोटि की विद्वता और निश्छल सेवाओं से गौरवान्वित है । पंडित जी साधनामय ज्ञाननिष्ठ भोगों से विरक्त संयमी जीवन सम्पूर्ण जैन समाज के लिए आदर्श कीर्ति स्तंभ है।
पंडित जी ज्ञान के धनी थे। विद्वत्ता की विभूति थे उन्होंने अनेकों कृतियों को जन्म और जीवन दिया आपकी अनेकों रचनाएँ “जैन पूजा काव्य एक चिंतन", "धर्म राजनीति में समंवय' आदि अनेकों धार्मिक शोध पूर्ण आलेख जैन दर्शन में सम्यक ज्ञान धर्मानुरागी बंधुओं के लिए पथ प्रदर्शन का कार्य कर रही है । आपने जीवन भर विद्या की आराधना की थी, आपकी वाचन प्रतिपादन एवं लेखन शैली में मोहकता प्रकट होती है।
आपकी स्मृतियों को संयोज रखने के लिए स्मृति ग्रंथ के प्रकाशन से विद्वानों त्यागियों का सम्मान गौरव तो बढ़ेगा ही, साथ ही धर्म की प्रभावना को सब ओर फैलाएँगा। ज्ञान गंगा का यह भागीरथ जिस लोक में हो उनके चरणों में शत शत वंदन है ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
डॉ. पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य - व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रतिष्ठाचार्य पंडित भागचंद्र जैन 'इन्दु'
श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय श्री वर्णी भवन मोराजी सागर के बीसवीं सदी के जाने माने राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त-मनीषी विद्वान स्व. डॉ. पंडित दयाचंद जी 'साहित्याचार्य' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में जितना भी लिखा जाय कम होगा ।
छात्रों के प्रति :- पंडित जी ने अपनी कड़ी मेहनत से मोराजी विद्यालय को चमकाया एवं छात्रों के प्रति अत्यधिक स्नेह देकर उनको पढ़ाया। इसी कारण जब से आपने कार्य भार सम्हाला - छात्रों की संख्या में वृद्धि हुई एवं अनेकों छात्र अच्छे विद्वाने बनें । आप न केवल पढ़ाते थे किन्तु छात्रावास की भी बहुत अच्छी तरह से देखरेख करते थे साथ साथ छात्रों को कैसा भोजन मिल रहा है इसको भी जाकर देखते छात्रों की हर तरह से व्यवस्थाओं की जरूरतों की उनके स्वास्थ्य की जानकारी लेते अस्वस्थ्य होने पर उनकी समुचित इलाज की व्यवस्था कराते थे। छात्रों की पढ़ाई की जानकारी उनके अभिभावकों को समय समय पर देते रहना अभिभावकों के आने पर उनसे मधुर व्यवहार करना पंडित जी के जीवन की विशेषता थी ।
परममुनि भक्त:- पंडित श्री दयाचंद्र जी विद्वान के साथ साथ परम मुनि भक्त थे आपके कार्य काल में आचार्य श्री विद्यासागर जी विराजमान हुए, आर्यिका ऋजुमति का ससंघ वर्षायोग सन् 1993 में हुआ। 1994 में मुनि श्री तरूण यसागर जी मुनि श्री प्रज्ञासागर जी मोराजी विराजे । 3-6-2001 से 14-62001 तक मुनि श्री समतासागर जी के आर्शीवाद से सर्वोदय ज्ञान संस्कार शिविर सम्पन्न हुआ । 9 मई 2002 में आदरणीय श्री विरागसागर जी के द्वारा राजवार्तिक सिद्धांत शास्त्र की वाचना प्रारम्भ हुई। मुनि श्री 108 अजित सागर जी ऐलक 105 श्री निर्भय सागर जी के सानिध्य में 2005 में मोराजी विद्यालय का शताब्दी समारोह सम्पन्न हुआ जिसमें लगभग 300 विद्वानों श्रेष्ठी वर्ग राजनेताओं एवं समाज के गणमान्य नागरिक उपस्थित रहे । इसी से उनकी साधु सन्तों के प्रति आस्था एवं लगन प्रभावित होती है। ऐसे अद्वितीय प्रतिभा के धनी पंडित श्री दयाचंद्र जी हम सभी को प्रेरणा के श्रोत रहे ।
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प्रवचन कला के धनी ओजस्वी वक्ता :- पंडित दयाचंद्र जी एक ओजस्वी वक्ता थे। आपके प्रवचनों को सुनने के लिए समाज दौड़ी दौड़ी आती थी । देश के विभिन्न प्रान्तों मे प्रवचनार्थ आमंत्रित किये जाते थे। अनेकों स्थानों पर उन्हें विशिष्ट सम्मान से सम्मानित किया गया ।
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श्रद्धा सुमन :- पंडित जी आज हमारे बीच में नहीं है किन्तु हमें उनके जीवन से बहुत प्रेरणा मिलती उनके प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन दर्शन के उद्भट विद्वान
पं. सुरेन्द्र कुमार सिंघई
बड़ागाँव टीकमगढ़ (म.प्र.) संयोग में वियोग की, हर्ष में विषाद की पीड़ा छिपी रहती है। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। जीवन से लेकर मरण तक जीवन एक नदी की तरह होता है, पर वही नदी सार्थक होती है जो सागर में मिलती है। मनुष्य जीवन उसी महामानव का धन्य होता है जो नदी की तरह परोपकार करता हुआ अमरता के सागर में मिलता है। जीवन अमर उन्हीं का बनता है जो जीवन के भव्य प्रसाद पर साधना समाधि का कलशा रोहण करते हैं। श्रद्धेय पं. दयाचंद जी का जीवन ज्ञान की आंच में पका जीवन था, शायद इसीलिए पूर्ण था , और पूर्ण वही होते है, जो पूज्य होते है। संसार सृजन को देखता है और सृजन के अनुसार ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करता है। मैं कहूँगा आदरणीय पं. दयाचंद साहित्याचार्य जी सृजन के कारण नहीं असजृन के कारण महान थे। एक व्यक्ति अपने कार्यक्षेत्र में जो कुछ सर्वश्रेष्ठता को पा सकता है। वह सब पंडित जी ने पाया था। पंडित जी किसी भी मुकाम पर अहंकार के रथ पर सवार नहीं हुए । अंहकार का सृजन नहीं किया, विनम्रता उनकी महत्ता की आधारशिला थी। इसी महत्ता के कारण पंडित जी महान थे।
विद्वान किसी वर्ग विशेष के नहीं बल्कि समस्त भारतीय संस्कृति और साहित्य के सर्जक होते हैं। सागर विद्वानों की कर्मभूमि एवं जन्म भूमि रहा है। इसी कड़ी में महाकवि पद्माकर, कामता प्रसाद गुरु, डॉ. हरीसिंह गौर , पूज्य क्षुल्लक 105 श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी, डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य पं. मुन्नालाल जी रांधेलिया जैसे विद्वानों ने जन्म लेकर सागर को राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाई है। इसी श्रृंखला में श्रीमान् डॉ. पं. दयाचंद जी एक कड़ी के रूप में रहे । आपने उत्कृष्ट लेखन, विवेचन, टीका एवं संपादन के आधार पर आपने भारतीय साहित्य में जैन दर्शन को विकसित किया। पूज्य श्री वर्णी जी के कृपा पात्र, मानस पुत्र, जैन वाङ्गमय के महान अध्येता तथा जैन विद्याओं के आपदानी, बनकर स्वनाम धन्य किया। साहित्याचार्य जी के व्यक्तित्व का निर्माण वर्णीजी ने किया था । वही अध्यात्म संत उनके मार्गदर्शक रहे और वही उनके जीवनादर्श। पंडित जी का व्यक्तित्व पक्ष जितना वंदनीय प्रेरक और श्लाघनीय रहा है कृतित्व पक्ष भी उतना ही लोकोन्मुखी, कल्याणकारी, प्रगतिशील एवं अनेकांतवादी था। पंडित जी मानवीय पहलू के क्रियाशील, ईमानदार, शिक्षक, प्राचार्य रहे।
डॉ. पं. दयाचंद जी नि:संदेह बीसवीं सदी के बहुश्रुत विद्वान थे। उनके जैनधर्म एवं दर्शन संबंधी अवदान के फलस्वरूप वर्ष 2004 में श्री अतिशय क्षेत्र तिजारा में प. पू. 108 उपाध्याय ज्ञान सागर जी महाराज के सानिध्य में श्रुत संवर्धन पुरस्कार 31000/- की नगद राशि स्मृति चिह्न, शाल, श्रीफल आदि से सम्मानित किया गया। सन 1981 में सागर के सरस्वती पुत्र का भारतीय दिगम्बर जैन श्राविकाश्रम सोलापुर महाराष्ट्र परिषद द्वारा “साहित्य भूषण' की उपाधि से अलंकृत किया था । सन् 2001 में
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ऋषभदेव तीर्थंकर विद्वत् महासंघ राष्ट्रीय पुरस्कार द्वारा पू. गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माता जी के शुभाशीष से सम्मानित किया गया था, दिनांक 12 फरवरी 2006 श्री 1008 भगवान बाहुबली स्वामी के मस्तकाभिषेक श्रवणबेलगोला में एवं सागर के वर्णी भवन मोराजी में भी महामस्तकाभिषेक चल रहा था । पू. पंडित जी ने सजग स्मरण द्वारा बिस्तर पर पड़े भगवान बाहुबली की अभिषेक कार्यक्रम की ध्वनि सुनते - सुनते णमोकार मंत्र का स्मरण करते करते महाप्रयाण किया । ज्ञान ज्योति परमादरणीय साहित्याचार्य जी सदा जयवंत रहे।
स्व. पं. दयाचंद जी के प्रति श्रद्धा सुमन
नरेन्द्र कुमार चमेलीबाई,
राजा भैया निशी, सागर पंडित जी ने सागर स्थित श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय को प्राध्यापक एवं प्राचार्य के रूप में अमूल्य सेवाओं का लाभ लम्बे समय तक दिया । इतने अधिक समय का लाभ शायद ही किसी शिक्षा विद ने दिया हो । उल्लेखनीय है कि उन्होंने सेवा - निवृत्ति होने के पश्चात् भी विद्यार्थियों को लौकिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा प्रदान करते रहे। वह भी 90 वर्ष की आयु के बाद, जबकि उनकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो गई थी, परन्तु उनकी बौद्धिक शक्ति उम्र बढ़ने के साथ - साथ और भी मुखरित होती रही । उनका अध्ययन अनुभव परख था। उनकी पढ़ाने की शैली सरल थी, सुबोध थी। ऐसी ही उनकी प्रवचन की शैली भी थी। हमें उनके प्रवचन सुनने के अवसर लगातार कई वर्षों तक उदासीन आश्रम सागर में प्रात:कालीन स्वाध्याय के समय सौभाग्य से मिले । कठिन से कठिन विषयों को सरल रूप से समझाने की अद्भुत योग्यता उनके पास थी वह अविस्मरणीय है। जब कभी भी सुबह स्वाध्याय करता हूँ . उदासीन आश्रम में तो उनकी याद आती रहती है।
इसके अलावा विद्यार्थियों के मानस पटल को पहचान ने की उनके पास अपूर्व क्षमता थी । वे इस कारण से विद्यालय के अनुशासन और मर्यादाओं के प्रति सचेत रहते थे। इसके फलस्वरूप छात्रगण, आपके प्रति हमेशा श्रद्धावनत् रहे । आपका सानिध्य जिन छात्रों को मिला, वे बड़े ही सौभाग्यशाली रहे और उनका भविष्य उज्ज्वल बना।
पंडित जी ने भगवान की पूजा संबंधी एक अभूतपूर्व शोध किया । फलस्वरूप उन्हें डाक्ट्रेड की उपाधि से सम्मानित किया गया। उनकी पुस्तक में देव पूजा के विधान के बारे में अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने तथा आत्मज्ञान को किस विधि से प्राप्त किया जाता है उसका उल्लेख बड़ी ही सरल भाषा में
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ किया है। वह अध्ययन मनन करने योग्य है । पंडित जी भी देव दर्शन, देव पूजा, स्वाध्याय बड़ी ही कुशलता से अंतिम समय तक करते रहे । उसका अनुभव भी उनकी इस कृति में सम्मानित है ।
पंडित जी का जैसा नाम, वैसा ही उनका कोमल हृदय था।आपकी धार्मिक, साहित्यिक, सामाजिक गतिविधियाँ समय - समय पर चलती रहती थी। जिसकी छाप अभी भी समाज के पटल पर प्रतिलक्षित देखी जाती है । यही कारण है कि समाज की प्रेरणा के फलस्वरूप, उनका स्मृति ग्रन्थ तैयार हुआ है ।
पंडित जी के स्वर्गवास होने के पूर्व हमें भी उनका सानिध्य मिला ।उनका जिस दिन स्वर्गवास हुआ, उस समय मैं भी उनके समीप था । उनको णमोकार मंत्र का उच्चारण कराया तो उन्होंने मंत्र को स्मरण करने में साथ दिया । अन्त समय तक उनकी चेतना शक्ति जागृत थी तथा उन्होंने इस नश्वर देह को शांति से विदा किया, जो कि उनकी सुगति का द्योतक है।
इस प्रकार पंडित जी ने अपना जीवन धार्मिक शिक्षा के साथ समर्पित किया। इस भरपूर सेवा के लिए सागर समाज यह विद्यालय सदैव ऋणी रहेगा । आप अपने समय के उत्कृष्ट एवं सबसे वयोवृद्ध विद्वान थे। उनका धार्मिक वात्सल्य जीवन हम लोगों के मानस पटल पर साक्षात्कार कराता रहता है । यद्यपि आप हमारे बीच में नहीं है फिर भी आपका आदर्श जीवन, सरल स्वभाव, धार्मिक प्रेरणा अभी भी हम लोगों के मानस पटल पर अंकित है । इन अल्प शब्दों के साथ, पंडित जी के प्रति , हमारा एवं हमारे परिवार का श्रद्धा सुमन समर्पित ।
सागर विद्यालय का जागरूक प्रहरी मनीषी विद्वान पंडित दया चंद्र जी साहित्याचार्य
सिं. जीवन कुमार जैन
बड़ा बाजार, सागर प्रात: स्मरणीय परम पूज्य श्री 105 क्षुल्लक गणेश प्रसाद जी वर्णी की टकसाल में ढले अनेक सिक्कों में से एक सिक्के थे, पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य शाहपुर मगरौन जिला सागर निवासी, पिता श्री भगवानदास जी भाई जी जो पंचपरमेष्ठी णमोकार मंत्र को अनेकों धुनों में गाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करते थे । पाँच पुत्रों में से एक सुयोग्य पुत्र थे, "पंडित जी" अपनी पाँच पुत्रियों के कुशल पिता और पंच परमेष्ठी के परम आराधक थे "पंडित जी"।
अपनी लगभग 55 वर्षीय शैक्षणिक सेवाएं देकर पंडित जी ने शिक्षा क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किया। उपरान्त नि:शुल्क सेवाएं दी विद्यालय को।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विद्यालय के प्रमुख प्रवेश द्वार पर पंडित जी का निवास था, सामने पूज्य गणेश प्रसाद वर्णी के स्टेच्यू के निरंतर दर्शन होते थे । दूसरे मंजिल में विराजित भगवान बाहुबली के और तीसरी मंजिल में विराजित भगवान आदिनाथ के पंडित जी परम आराधक जीवन पर्यन्त रहे ।
__वे कुशल अध्यापक प्रवचनकर्ता लेखक और मौलिक ग्रंथ रचनाकार थे । पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर अनेक आलेख प्रकाशित होते रहते थे। सागर विश्वविद्यालिय से डाक्टरेट प्राप्त की थी । गणिनी आर्यिका ज्ञानमती जी के तथा 108 मुनि श्री ज्ञान सागर जी के सानिध्य में पुरस्कार प्राप्त हुए । दिल्ली आदि में समाज द्वारा सम्मानित हुए।
वर्ष 1968 में श्वेताम्बर ग्रंथ में उनका एक लेख "मरूधर केशरी' में प्रकाशित हुआ था । वे सरल थे। एक दिन प्रात: काल अपनी डाक स्वयं लेकर (लेटर बॉक्स) पत्र पेटी में डालने जा रहे थे, मार्ग में भेंट हो गई "मैंने कहा पंडित जी प्रात: काल यदि आप शांति निकुंज उदासीन आश्रम पहुंचकर श्रोताओं को किसी ग्रंथ का स्वाध्याय करायें तो हम जैसे कुछ श्रोताओं को जिनवाणी श्रवण का लाभ मिलें।" दूसरे दिन से पंडित जी उतनी दूर पैदल आने जाने लगे और निस्पृह भाव से जिनवाणी का श्रवण कराया। सागर विद्यालय का जागरूक प्रहरी :
विद्यालय के प्रवेश द्वार पर निवास होने से सभी उनसे मिलते जुलते रहते एवं किसी असामाजिक तत्व का प्रवेश न हो पाता था।
समाज द्वारा सौंपे गए दायित्व का जीवन पर्यन्त निर्वाह किया। अन्तिम दिन जब जैन जगत श्रवण बेलगोला विराजित सातिशय उतुंग भगवान बाहुबली का अभिषेक कर रहे थे, उसी पीयूष बेला में पंडित जी ने कुछ अस्वस्थता महसूस की और सागर समाज 11 बजे भगवान बाहुवली का मस्तकाभिषेक कर रही थी तभी वह जागरूक प्रहरी समाज के द्वारा सौंपे गए दायित्व को समाज को सौंप कर दोपहर 12 : 40 पर प्रयाण कर गये । धन्य है वह आत्मा ।
__ उनकी सबसे छोटी पुत्री ब्र. किरण दीदी ने पिता की अंतिम समय तक सेवा की। बह्मचर्य व्रत लेकर पिता के प्रति अपने दायित्व को निभाया । वे यहां हम सबकी श्रद्धा की पात्र हैं उन्हें प्रणाम ।
पंडित जी स्वयं 5 भाई थे, सबसे बड़े भाई पंडित माणिकचंद्र जी दर्शनाचार्य सागर महाविद्यालय में धर्माध्यापक पद पर जीवन पर्यन्त रहे । लोग कहा करते थे कि पंडित माणिकचंद्र जी वर्णी जी की अंगूठी के माणिक हैं, और पंडित पन्ना लाल जी साहित्याचार्य जी वर्णी जी की अंगूठी के पन्ना है। शेष 4 भाईयों में दूसरे नंबर पंडित श्रुतसागर जी, तीसरे नम्बर पर पंडित दयाचंद्र जी और चौथे नंबर पर पंडित धर्मचंद्र जी, पाँचवे नंबर पर लब्ध प्रतिष्ठाचार्य पंडित अमर चंद्र जी प्रतिष्ठारत्न हैं। सभी भाई श्रुताराधक हों, यह दुर्लभ हैं। सभी प्रणम्य हैं।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वर्णी विद्यालय रूपी उद्यान के पुष्प
गुलाब चंद्र जैन पटनावाले
चकराघाट सागर विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ तथा शाहपुर (मगरोन) में जन्में पंडित डाक्टर दयाचंद्र जी साहित्याचार्य जैन समाज के आदर्श सरस्वती पुत्र थे। यथा नाम तथा गुण की कहावत उनके जीवन में अक्षरशः साबित होती थी। वे समता, क्षमता तथा आदर्श अनुशासन के पर्यायवाची थे। पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज के शुभाशीष प्राप्त शिष्यों में से प्रमुख थे। उन्होंने अपना अध्यापकीय जीवन श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय वर्णी भवन मोराजी सागर से प्रारंभ किया था। धीरे धीरे अपनी विशेष प्रतिभा एवं योग्यता के आधार पर उन्हें प्राचार्य के पद पर ससम्मान नियुक्त किया गया। लगभग 55 वर्षों की उनकी सेवाओं के उपलक्ष में वर्ष 2003 में उन्हें श्री दिगम्बर जैन पंचायत सभा तथा विद्यालय ट्रस्ट कमेटी एवं प्रबंध कारिणी कमेटी द्वारा विद्वत् रत्न की उपाधि से तथा 51000 /- इन्क्यावन हजार रूपया की राशि से सम्मानित किया गया। इसी अवसर पर पूज्य पंडित जी ने आजीवन नि:शुल्क सेवा करने का वचन दिया तथा आजीवन इसे सम्मानपूर्वक निभाया । वर्ष 2006 में 12 फरवरी को जब सारे देश में तथा मोराजी के बाहुबलि जिनालय में भगवान बाहुबली स्वामी का महामस्तकाभिषेक चल रहा था, इसी पावन धार्मिक आयोजन की पावन, ध्वनि सुनते, सुनते तथा महामंत्र णमोकार का स्मरण एवं उच्चारण करते करते ठीक 12 बजकर 40 मिनट पर पंडित जी का समाधिमरण तुल्य देहावसान हुआ । यह विरले ही पुण्यशाली जीवात्माओं के जीवन में ऐंसा घटित होता है । वे सच्चे पुण्यात्मा थे।
पूज्य पंडित जी को अखिल भारत वर्षीय तीर्थंकर ऋषभदेव विद्वत् महासंघ पुरस्कार से पूज्य गणिनी प्रमुख आर्यिका ज्ञानमति माताजी के शुभाशीष सहित सम्मानित किया गया था। वर्ष 2005 में श्री अतिशय क्षेत्र तिजाराजी में, पूज्य 108 उपाध्याय रत्न ज्ञानसागर जी महाराज के सानिध्य में एवं पंचकल्याणक के महोत्सव के पावन अवसर पर "श्री श्रुत संबर्धन-पुरस्कार से सम्मानित किया गया तथा 31000 हजार (इकतीस हजार) रूपया की नगद राशि सम्मान स्मृति चिह्न, शाल श्रीफल आदि से सम्मानित किया गया जो समाज एवं महाविद्यालय के लिए गौरव की बात है। मुझे भी पूज्य पंडित जी के साथ तिजारा जी जाने का यह सौभाग्य प्राप्त हुआ था । इस के साथ ही "जैन पूजा काव्य' शोध प्रबंध पर पंडित जी को पीएच. डी., की उपाधि सागर विश्वविद्यालय से प्राप्त हुई थी। पूज्य पंडित जी स्वर्गीय पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य "साधुमना" के शिष्य थे। ऐसे बहुश्रुत मनीषी विद्वान का वियोग समाज के लिये अपूरणीय क्षति है। मैं दिवंगत आत्मा के चरणों में अपनी आदराञ्जली प्रेषित करता हूँ तथा स्मृति ग्रंथ प्रकाशन में सभी सहयोगी महानुभावों एवं सम्पादक मंडल की अपनी शुभकामना एवं बधाई प्रेषित कर गौरव का अनुभव करता हूँ।
विनतभाव सहित।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शालीनता, गरिमा की मूर्ति श्रद्धेय पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य
नेमिचंद रांधेलिया विनम्र परम आदरणीय पं. दयाचंद जी प. पू. गणेश प्रसाद जी वर्णी की शिष्य परम्परा की अंतिम कड़ियों में एक सुप्रतिष्ठित विद्वान, शिक्षक, धर्म एवं समाज के प्रथम श्रेणी के मोती थे। पू. वर्णी जी जो स्वयं 87 वर्ष की पुण्य शाली आयु में समाधिपूर्वक स्वर्ग सिधारे थे, उनके अनेक प्रमुख चोटी के विद्वान शिष्य भी दीर्घ आयु को प्राप्त करने वाले, सौभाग्यशाली थे, जिनमें सर्वप्रथम शिष्य पं. मुन्नालाल जी रांधेलिया न्यायतीर्थ वर्णी सागर (1893-1993) पं. वंशीधर जी व्याकरणाचार्य बीना (सागर), पं. जग मोहन लाल शास्त्री कटनी, पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य , पं. दरवारीलाल जी कोठिया आदि। स्वयं पं. दयाचंद जी भी लगभग (1915-2006) 91 वर्ष की उत्कृष्ठ आयु को पूर्ण हुए थे। इतने लम्बे समय तक जिनसे समाज को चतुर्मुखी लाभ मिला, यह समाज का अहोभाग्य था।
पू. पं. जी अपने परिवार में विद्वानों की परम्परा में, स्व. पं. पिता श्री भगवानदास भाई जी एवं पू. माता - श्रीमती मथुराबाई की कोख को गौरवान्वित करने वाले तृतीय पुत्र थे। सिद्धांतशास्त्री जी एवं साहित्याचार्य उपाधि प्राप्त करने वाले, निरंतर अध्ययन करके, एक उनका उदाहरण नई पीढ़ी को है। 75 वर्ष की अवस्था में सन् 1990 में "जैन पूजा काव्य" पर शोध प्रबंध लिखकर 'डाक्टरेट' की उपाधि प्राप्त कर, डिग्री को भी गौरवान्वित किया। 'धर्म दिवाकर' 'साहित्य भूषण' उपाधि से सम्मानित होना तथा 2004 में "श्रुत संवर्धन पुरस्कार " से अलंकृत होना, न केवल श्री दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय, गौरवमय हुआ, समस्त जैन समाज भी। 55 वर्ष की निरंतर शिक्षण सेवायें देकर सेवानिवृत होना भी एक अति दुर्लभ उदाहरण है। 12 फरवरी 2006 को, श्री गोमटेश्वर भगवान के महा मस्तिष्क अभिषेक के पुण्य दिवस में समाधिपूर्वक प्रयाण करना, पूर्व जन्म के शुभ संस्कारों का प्रतिफल हम मानते है ।हम जैन लोग पूर्व जन्म के कर्मो की परिणति को मानते है।
मेरा पू.पं. जी से लगभग 60 वर्ष से परिचय था, जबकि मैं हाईस्कूल का विद्यार्थी था । मैंने उनको सदैव सादगी से रहते देखा, अत्यंत विनम्र और सभी को आत्मीयता से व्यवहार करते देखा । सामाजिक, धार्मिक कार्यो में अग्रणी रहते ही थे , मेरे पू. पिताश्री पं. मुन्नालाल जी रांधेलिया न्यायतीर्थ वर्णी के पास, (जबकि वे 1939 से 1948 तक संस्था के मंत्री थे) अंतिम समय तक (2 मई 1993) बीच बीच में एवं तात्विक चर्चा करते कुशल क्षेम ज्ञात करने नियमित रूप से आते थे। ऐसे व्यवहारिक पक्ष के धनी व्यक्ति की अस्वस्थ्यता कम ही दृष्टिगोचर होते हैं । यह भी व्यक्ति के आदर्श आचरण का एक उत्तम उदाहरण है। मैं आज 80 वर्ष में चल रहा हूँ, अतः सभी तरह के अनुभवों का भुक्त भोगी एवं साक्षी हूँ।
अति श्रद्धास्पद पं. जी. से मेरी विशेष निकटता सन् 1990 से हुई जबकि मैं श्री गणेश दि. जैन
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ महाविद्यालय ट्रस्ट में ट्रस्टी के रूप में निर्वाचित हुआ। अत: बैठकों में प्राचार्य जी को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाता है, तब उनकी कुशलता एवं प्रबंध व्यवस्था को अधिक निकटता से देखा, परखा। आप 1995 में स्व. पं. मुन्नालाल जी रांधेलिया न्यायतीर्थं वर्णी के स्मृति ग्रन्थ के प्रधान संपादक निर्वाचित हुए जिसका मुझे संयोजक संपादक बनाया गया था। तब समय - समय पर आपके पास जाना होता था वे घर भी पधारते थे और संपादक मंडल की बैठकों में तो अनिवार्य रूप से । उनका मार्गदर्शन अनुभव, प्रेरणा सदैव आशावादी, उत्साहवर्धक हम सभी को रही। 3 मई 1998 को उस ग्रंथ का लोकार्पण संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के पवित्र सानिध्य एवं आशीर्वाद से सागर भाग्योदय तीर्थं में संपन्न हो रहे श्री गौराबाई दि. जैन मंदिर, के पंच कल्याणक के शुभ अवसर पर भव्य समारोह के साथ संपन्न हुआ था ।
अंत मैं उनके कुछ विलक्षण सद्गुणों की चर्चा संक्षेप में करके अपनी लघु विनयांजलि की इति श्री कर रहा हूँ । प्रथम यह कि मैं महाविद्यालय का ट्रस्टी था और जब भी उनके निवास पर सौजन्य भेंट हेतु पहुँचा उन्होंने मुझे सम्मानपूर्वक (13 वर्ष छोटा था आयु में) कुर्सी प्रदान की, पर उनको गुरु मानते हुए कभी भी उनके सामने कुर्सी ग्रहण नहीं की बेंच पर ही बैठा । द्वितीय वे चर्चा शालीन एवं गरिमापूर्ण ही करते थे, पर निंदा से बचते थे। तृतीय विशेषता थी कि यथाशक्ति सभी को विनम्र भाव से सहयोग प्रदान करते थे।
उनकी पुण्य स्मृति को शत् शत् नमन वंदन ।
डॉ. पं. श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य भ्रातृत्व गुण की एक मिसाल थे।
नेमिचंद्र जैन, भू.पू. महाप्रबंधक, भोपाल
पुत्र स्व. पं. श्री माणिकचंद जी जैन दर्शनाचार्य सप्तम प्रतिमाधारी आध्यात्मिक पंडित श्री भगवानदास जी भायजी संगीतरत्न. ग्राम शाहपुर जिला सागर के निवासी थे, उनके पाँच पुत्र थे। जिस प्रकार पाण्डु के पाँच पुत्र, पाँच पाण्डव के नाम से विख्यात हुए, उसी प्रकार पंडित भायजी के पाँच पुत्र, पाँच विद्वान हुए।
___ मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है जो मेरे पूज्य पिता जी पं. श्री माणिकचंद जी ने बताया था। जब परम पूज्य श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी ने सागर में लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा हेतु संस्कृत विद्यालय की स्थापना की तो प्रारंभ करने के लिए सबसे पहले पढ़ाने हेतु पंडित/विद्वान की व्यवस्था के लिये समस्या का सामना
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ करना पड़ा, जैसे तैसे पंडित की व्यवस्था पूर्ण हुई तो दूसरी समस्या पढ़ने के लिए विद्यार्थियों की आई। इसके लिए वर्णी जी ने कई ग्रामों में भ्रमण कर जैन परिवारों से बच्चे विद्यालय में पढ़ने हेतु भेजने का आग्रह किया। इसी संदर्भ में जब वे ग्राम शाहपुर गये तो उन्हें पता चला कि यहाँ श्री भगवानदास भायजी के पांच पुत्र हैं। अतः उन्होंने भायजी से कहा, कि आपके पांच पुत्र ही उनमें से विद्यालय में पढ़ने के लिए कितने पुत्र दे सकते हो, तो भायजी ने दृढ़ता पूर्वक अपने तीन बड़े पुत्रों को देने का आश्वासन दे दिया। तथा अपने तीन पुत्र माणिकचंद, श्रुतसागर एवं दयाचंद को वर्णी जी के साथ पढ़ने के लिए भेज दिये । जो आजीवन उन्हीं के सानिध्य में रहे. वापिस घर नहीं आये।
___ यह घटना सन् 1915-20 की होगी जब राजे - महाराजे एवं ब्रिटिश शासन की हुकूमत थी, अशिक्षा एवं पिछड़ापन का वातावरण था, आवागमन के साधन नहीं थे ऐसे कठिन समय एवं परिस्थितियों में पं. भगवानदास भायजी ने त्याग एवं हिम्मत की मिसाल कायम की थी।
परमपूज्य श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी की असीम कृपा एवं आशीर्वाद से उन तीनों की शिक्षा - दीक्षा हुई तथा एक दिन वे संस्कृत साहित्य एवं जैन दर्शन के उद्भट विद्वान बन गये । वर्णी जी ने पं. माणिक चंद जी एवं पं. दयाचंद जी को श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में पढ़ाने के लिये नियुक्त कर दिया तथा पं. श्रुतसागर जी को संस्कृत विद्यालय कटनी में पढ़ाने के लिए भेज दिया। इस प्रकार तीनों भाईयों ने वर्णी जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान आजीवन दिया।
___ जिस प्रकार पूज्य वर्णी जी की धर्ममाता श्रीमती चिरोंजाबाई थी, उसी प्रकार संस्कृत महाविद्यालय सागर में उनके चार धर्मपुत्र थे श्री पं. दयाचंद जी सिद्वान्त शास्त्री, श्री पं. माणिकचंद जी जैन दर्शनाचार्य एवं न्याय काव्यतीर्थ डॉ. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य एवं डॉ. पं. श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य । जिन्हें उन्होंने पुत्रवत् स्नेह दिया | चारों अखिल भारतवर्षीय श्रेणी के विद्वान थे। चारों ने वर्णी जी के पद चिन्हों पर चलकर आजीवन संस्कृत महाविद्यालय सागर की सेवा की तथा हजारों विद्वान तैयार कर देशऔर समाज को समर्पित किये।
मेरे पूज्य पिता जी श्री पं. माणिकचंद जी एवं श्री पं. दयाचंद जी जो मेरे काका जी थे जीवन भर सागर महाविद्यालय में साथ-साथ कार्यरत रहे । दोनों में भ्रातृ स्नेह अत्यंत प्रगाढ़ था। दोनों हमेशा परस्पर विचार-विमर्श एवं परामर्श से कार्य किया करते थे। मेरे पिताजी का जब - जब भी स्वास्थ्य खराब होता था तुरंत मुझसे कहते थे कि जाओ भैया को बुला लाओ। पं. दयाचंद जी का अन्य भाईयों से भी उतना ही स्नेह था । प्रत्येक वर्ष गर्मियों की छुटिटयों में तीनों भाई जो बाहर थे सपरिवार अपने भाईयों एवं माता-पिता के ग्राम - शाहपुर पहुँच जाते थे और लगभग 2 माह वहीं रहते थे। सभी इतने हिल-मिलकर रहते थे कि आप कल्पना नहीं कर सकते । सभी भाईयों का धर्मचर्चा एवं प्रवचन आदि में समय व्यतीत होताथा। पांचों भाई आपने माता-पिता के प्रति अत्यंत श्रद्धान्वित तथा समर्पित थे। सभी अपने पिता जी के साथ स्वाध्याय
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तथा तत्वचर्चा किया करते थे एवं मिलकर माता-पिता की सेवा किया करते थे। उनका भ्रातृ-प्रेम एक मिसाल थी जिसे समाज के सभी प्रबुद्ध जन जानते थे। मेरे पिता जी प्रशासनिक दृष्टि से कुछ तेज थे लेकिन मेरे काका जी पं. दयाचंद जी अत्यंत सरल स्वभावी एवं दया. थे उनको मैंने कभी किसी को डाटते, फटकारते या गुस्सा करते नहीं देखा । उनका ऐसा एक आदर्श था।
मेरे पूज्य बब्बा जी ने जब पांचों भाईयों में सम्पत्ति का बटवारा किया तो किसी ने कोई शब्द नहीं बोला। उन्होंने जैसा किया वैसा ही स्वीकार कर लिया। मैंने पांचों भाईयों में कभी कोई विवादास्पद प्रसंग या चर्चा नहीं देखी। वे आपस में इतने समर्पित थे कि हमेशा सहयोग के लिए तैयार रहते थे। वे परस्पर एक दूसरे की मान-मार्यादा एवं सम्मान का पूरा ध्यान रखते थे। पारिवारिक मामलों में सभी ने अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों को नि:स्वार्थ भाव से पूर्ण किया। उनके ये आदर्श गुण सभी के लिए अनुकरणीय है।
महनीय व्यक्तित्व व कृतित्व के धनी : डॉ. दयाचंद जी
पंडित सुनील जैन संचय शास्त्री,
जैन दर्शनाचार्य, नरवाँ जिला-सागर 11 अगस्त 1915 को शाहपुर (मगरोन में जन्मे) साहित्य मनीषी, सरस्वती के वरद पुत्र संस्कृत, प्राकृत एवं जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान आदरणीय पंडित डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य से कई बार मुझे वार्तालाप करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज की प्रेरणा से संचालित श्रुत संवर्धन शिविरों के आप संरक्षक रहे हैं, इसकी स्वीकृति आपने मुझे प्रत्यक्ष प्रदान की थी। मुझे याद है जब शिविरों के समापन समारोह - 2001 में पंडित श्री को शाहगढ़ समापन समारोह हेतु आमंत्रित करने गया तो उन्होंने हमें जो स्नेह और वात्सल्य दिया वह सदैव याद रहेगा। आपकी श्लथकाय को देखते हुए मैंने पंडित जी से कहा समारोह के दिन में किसी को लेने भेज दूंगा | पंडित जी ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया तुम परेशान मत हो, तुम्हें बहुत कार्य देखना है । मैं सागर से आने वाले अन्य महानुभाव श्री जीवन सिंघई (क्षमासागर जी के गृहस्थ अवस्था के पिता श्री), गुलाबचंद जी पटना (दृढ़मती माता जी के गृहस्थ अवस्था के पिता श्री), बालक सिंघई आदि के साथ पहुँच जाऊँगा । आदरणीय पंडित जी का उत्तर सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ । आदरणीय पंडित जी ने उक्त कार्यक्रम में शाहगढ़ पहुँच कर समारोह की गरिमा बढ़ायी थी।
उसके बाद जब तब आदरणीय पंडित जी की कर्मभूमि, शिक्षाभूमि गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी प्रांगण के उनके निवास पर जाकर परामर्श लेता रहा, उनका आदर्श सादगी
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पूर्ण जीवन देखकर उनकी महानता को देखा जा सकता था । आपने जिस समर्पण भावना के साथ जैन समाज की सेवा हेतु अपना जीवन समर्पित किया है वह श्लाघनीय व स्तुत्य है।
आपका बहुचर्चित शोधग्रंथ जो साहित्य क्षेत्र में अपनी प्रसिद्धि का परिचय लहरा चुकी है ऐसी संस्था भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जैन पूजा - काव्य, एक चिंतन का अध्ययन करने का अवसर मिला है । यह महनीय पुस्तक देखकर आपकी साहित्य सपर्या का मूल्यांकन किया जा सकता है । यह कृति निश्चित ही जैन साहित्य ही नहीं अपितु जैनतर साहित्य में भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
अपने जीवन के अमूल्य समय का कैसे सदुपयोग किया जावे जो बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, बन सके यह जानने और समझने के लिए डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य का आदर्श जीवन है ।
आदरणीय पंडित जी के विशाल कृतित्त्व एवं व्यक्तित्व का मूल्यांकन माँ सरस्वती की उपासना का ही एक अंग है । आपका पूरा जीवन शिक्षा और साहित्याराधना के लिए समर्पित रहा है। उनकी इसी महान् साहित्यिक प्रतिभा को देखते हुए पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज की प्रेरणा से संचालित श्रुत संवर्धन पुरस्कार दिया गया, जो निष्पक्ष समाज सेवा की दृष्टि से उनका उचित मूल्यांकन है।
___बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी आदरणीय पंडित दयाचंद्र जी का व्यक्तित्व बहुत विशाल है । आपने अपने जीवन में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं । साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में आपका योगदान अत्यंत प्रशंसनीय रहा है। साहित्यिक कार्यों के अतिरिक्त सामाजिक कार्यो में भी आप अत्यधिक व्यस्त रहे हैं । यही कारण है कि प्राचार्य होने के साथ ही साहित्यिक शैक्षणिक तथा सामाजिक संस्थाओं के साथ आपका घनिष्ट सम्बंध रहा है।
उनका जीवन अत्यंत धार्मिक, सरल व सेवाभावी रहा है । सादा जीवन व उच्च - विचार को उन्होंने सच्चे अर्थो में चरितार्थ किया है। उनकी कथनी व करनी में कोई अंतर नहीं था। उनकी वाणी में मिठास, कोमलता, सरस हृदयता थी। वे कभी किसी का दिल दुखाना जानते ही नहीं थे। सेवा के क्षेत्र में बिना किसी लोभ-लालच के आगे रहे । यही कारण है कि लोगों का उनके प्रति पूर्ण विश्वास, प्रेम व अपनापन सदैव रहा । उनमें गुरुत्वाकर्षण शक्ति थी, जिससे सभी उनके पास खिंचे आते थे। वे सही मायनों में अजातशत्रु थे।
पंडित जी का पूरा जीवन धार्मिक भावना से ओत प्रोत रहा है । आप सच्चे मुनिभक्त थे। अनेक आचार्यो, मुनियों, साधुओं व विद्वानों की आप पर असीम कृपा रही है । सम्पूर्ण विद्वत् जगत् में आपकी गिनती अग्रणी पंक्ति में होती थी। आपकी छत्रछाया, सहयोग व मार्गदर्शन में अनेक छात्रों ने अपना जीवन संवारा है। विद्वानों का आदर सत्कार करना आपकी विशेषता रही है । आप अत्यंत सहिष्णु व संयमी थे। पंडित जी में किसी प्रकार का पूर्वाग्रह नहीं था।
ऐसे विशाल गौरवशाली व्यक्तित्व व कृत्तित्व के धनी आदरणीय पंडित जी को समर्पित साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियां नामक स्मृति ग्रंथ निश्चित ही साहित्य की मानिदों पर एक नयी इबारत लिखेगा
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इस अवसर पर आदरणीय पंडित जी को हमारी विनम्र आदरांजलि समर्पित है :
कीर्ति तुम्हारी अमर रहे व जीवन ज्योतिर्मान । है विद्वान, तुम्हारी विद्वत्ता का हमको अधिमान ॥
अतिविशिष्ट साधना पुरूष का शतश: बंदन है। होम दिया जिसने समाज हित, तन-मन-धन जीवन है ।
ऐसे गुरु भाग्य से ही मिलते है
पं. नन्हें भाई शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य
वर्धमान कालोनी, केशवगंज, सागर (म.प्र.) धार्मिक दृष्टि से सर्वप्रथम पंच परमेष्ठी का ध्यान करते हुए व्यक्ति की अपनी दिनचर्या प्रारंभ होती है। तो लौकिक दृष्टि से सर्वप्रथम अपने माता पिता की विनय करने से उसकी दिनचर्या प्रारंभ होती है। लौकिक दृष्टि से सर्वमान्य पिता ही होता है । और गुरु पिता के समान नहीं वरन् हमारे पिता ही हैं क्योंकि नीतिकारों ने कहा है कि -
जनिता चोपनेता च, यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता, पंचैति पितरः स्मृतः ॥ अर्थात् उत्पन्न करने वाला, उपनयन संस्कार कराने वाला, विद्या प्रदान करने वाला, अन्न को देने वाला और भय से बचाने वाला ये पाँच प्रकार के पिता कहे जाते हैं।
धन्य है उन गुरुओं को जो अपने जीवन पर्यन्त की कमाई एवं अनुभव अपने शिष्यों को उदारता पूर्वक देते है। ऐसे ही हमारे गुरुवर थे, आदरणीय पं. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य उनके पढ़ाने की शैली कुछ भिन्न थी जब तक कक्षा के पूर्ण विद्याथियों को पढ़ाया हुआ विषय कण्ठस्थ नहीं हो जाता था, तब तक विषय को आगे नहीं बढ़ाते थे और अनुशासन इतना कठोर था कि पंडित जी सा. का पीरियड आने के पहले ही सब विषय गौण करके सर्वप्रथम छात्र उनके ही विषय को याद करते थे।
लौकिक विषयों को पढ़ाने वाले शिक्षकों को जो पारिश्रमिक एवं अन्य सुविधाएँ प्राप्त होती है। वे सुविधाएँ धार्मिक एवं संस्कृत पढ़ाने वाले शिक्षकों को दुर्लभ होते हुए भी वे अपने कार्यो के प्रति सजग रहते है और पूर्ण ईमानदारी के साथ कार्य करते है।
मैंने 1964 में श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय में कक्षा 6 वीं. में प्रवेश लिया था। उस
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ समय विषयों की अधिकता थी साथ ही पंडिज जी सा. के ऊपर घर की जिम्मेदारियाँ भी थी, फिर भी प्रात: 6 बजे से रात्रि के 8 बजे तक अध्यापन कार्य किया करते थे। बीच का अवकाश उसमें समाहित रहता था।
उन्होंने अपने जीवन में, जो विभिन्न स्थानों पर जाकर एवं स्थानीय रूप से समाज को प्रवचन के माध्यम से नई चेतना प्रदान की तथा छात्रों को अध्यापन के रूप में कठिन से कठिन परिश्रम किया वह नीव के पत्थर के समान है। जिस प्रकार नींव का पत्थर त्याग की प्रतिमूर्ति बनकर भी किसी को दिखता नहीं है उसी प्रकार विद्वानों का परिश्रम उनकी उदारता एवं त्याग किसी को दिखाई नहीं देता इस कारण ही समाज एवं छात्रों को अपने गुरुओं का विद्वानों का जो सम्मान करना चाहिए उससे वह वंचित रहते है। यदि पंडित जी सा. शासकीय सेवा में रत होते तो किसी विश्वविद्यालय के कुलपति होकर रिटायर होते परन्तु वर्णी जी के प्रति समर्पित होकर उन्होंने अपना पूर्ण जीवन धार्मिक शिक्षण संस्थानों के लिए आजीवन समर्पित कर दिया।
_इसे अपूर्व संयोग ही कहा जायेगा कि आपके पाँचों ही भाई उच्च कोटि के न्याय दर्शन, साहित्य एवं प्रतिष्ठा कार्य के मर्मज्ञ विद्वान थे ये संस्कार आपको अपने पिताजी के माध्यम से प्राप्त हुए थे।
मैंने छात्र जीवन एवं अध्यापकीय जीवन भी उन्हीं की छत्र छाया में व्यतीत किया। उनका मार्गदर्शन हमेशा ही अनुकरणीय रहेगा। ऐसे ज्ञान पिपासु जिन्होंने ढलती उम्र मैं पी.एच.डी. करके हम सभी के प्रेरणास्त्रोत बनें। आपके आदर्श हम अपने जीवन में उतार सकें इसी भावना के साथ आपके प्रति श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ।
अनुकरणीय व्यक्तित्व के धनी
ज्ञान चंद्र शास्त्री, व्याकरणाचार्य
वर्णी भवन मोराजी श्रद्धेय डॉ. पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य जैन जगत के ख्याति प्राप्त सुप्रसिद्ध विद्वान् थे आपने अपने जन्म स्थान शाहपुर ग्राम में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की अनन्तर आप सतर्कसुधा तरंगणी संस्कृत पाठ शाला सागर वर्तमान नाम श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत पाठशाला सागर महाविद्यालय सागर में प्रविष्ट हुए और क्रमश: अध्ययन करते हुए आपने सिद्धांत शास्त्री साहित्याचार्य तथा एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। इस प्रकार आपने जैन सिद्धांत संस्कृत साहित्य,न्याय, व्याकरण आदि महत्वपूर्ण विषयों का गहन अध्ययन किया।
अध्ययन के उपरांत आप इसी महाविद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगे । अनेकों शिष्यों को
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आपने योग्य बनाया । परिमाणस्वरूप वे विभिन्न उच्च पदों पर कार्यरत रहते हुए आपका सदैव स्मरण करते है । बहुत समय तक अध्यापक के रूप में कार्य करने के बाद आप प्राचार्य पद पर नियुक्त हुए । जिसका विधिवत निर्वाह करते हुए आपने महाविद्यालय को उत्तरोत्तर प्रगति की ओर पहुँचाया आपकी कार्य करने की क्षमता, लगन शीलता एवं समय की पाबंदी अत्यंत प्रशंसनीय तथा अनुकरणीय रही है । आपके प्राचार्यत्व में मुझे भी अध्यापन कार्य करने का सुअवसर मिला आपके कुशल निर्देशन में अध्ययन अध्यापन कार्य सुचारु रूप से चलता था । पंडित जी में प्रमाद रंचमात्र नहीं था उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीव: माँ सरस्वती की उपासना में व्यतीत किया । जीवन के अंतिम चरण में उन्होंने पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की तथा जीवन के अंतिम समय तक वे छात्रों को पढ़ाते रहे । यह एक महत्वपूर्ण बात है।
ऐसे मनीषी विद्वान के प्रति मैं अपनी हार्दिव विनयांजलि अर्पित करता हुआ पंडित जी के नाम के अमरत्व की कामना करता हूँ।
सरस्वती के निष्पृह उपासक
प्रतिष्ठाचार्य पं. वीरेन्द्र कुमार शास्त्री
शिक्षक, धर्मालंकार, विलासपुर मुझे अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि जिनवाणी के निष्पृह उपासक, सरस्वती के वरदपुत्र, लोकप्रिय व्यक्तित्व, बुंदेलखण्ड गौरव, कर्मठ, यशस्वी, धर्म प्रभावक, बहुआयामी प्रतिभा के धनी, निर्लोभी, आदर्श विद्वान स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य जिनकी चिरस्मृति बनाये रखने के लिए अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है।
1971 - 72 से 1984 तक मेरे शिक्षाकाल में स्व. पं. जी से असीम अपनापन, वात्सल्य एवं प्रेरक मार्गदर्शन मिला । गुरु शिष्य के भावुकक्षण आज मेरी आँखों में चलचित्र के समान तैर रहे है ।
___ मैंने श्री गणेश प्रसाद दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी सागर में प्रथमा से लेकर शास्त्री / धर्मालंकार / जैनदर्शनाचार्य आदि की शिक्षा प्राप्त की। पूज्य प्रात: स्मरणीय गणेश प्रसाद जी वर्णी के अनन्य भक्त स्व. पं. दयाचंद सिद्धांतशास्त्री ने बालवोध भाग - 1 तथा पंडित प्रवर राष्ट्रपति पुरुस्कार से सम्मानित स्व. डॉ. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने पुरुषार्थ सिद्धियुपाय, सर्वार्थसिद्धी जीवकांड कर्मकांड एवं नियमसार प्रवचनसार समयसार का अध्यापन कराया। तथा स्व. पं. जी के ज्येष्ठ भ्राता स्व. पं. माणिकचंद जी न्याय काव्यतीर्थ (गोल्डमेडल प्राप्त) ने द्रव्य संग्रह न्यायदीपिका, प्रेमयरत्नमाला एवं अत्यंत क्लिस्ट शास्त्र प्रमेय कमल मार्तण्ड का अध्ययन कराया। उसी परम्परा में स्व. पं. जी ने लघु
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सिद्धांत, मध्य सिद्धांत कौमुदी (व्याकरण) साहित्य तथा न्याय के ग्रंथ पढ़ाये। मुझे याद है पं. जी ही 5 से 8 बच्चों के समूह की अभिषेक पूजन की ड्यूटी श्री 1008 चन्द्राप्रभुजिनालय में लगाते थे।जो छात्र पूजन अभिषेक में नहीं जाते उन्हें पं. जी दण्डित करते, डांटते थे। पं. जी का स्वभाव जितना ऊपर से गरम था, अंदर से उतने ही सरल निष्कपट थे। पं. जी समाज में बाहर कहीं भी पूजा विधिविधान आदि काम कराते थे तो छात्रों के एक समूह को प्रयोगात्मक ज्ञान हेतु साथ ले जाते थे व सभी विधि समझाते थे।
इनके विद्वान भाईयों का पारिवारिक स्नेह तो देखने लायक था । मुझे याद है कि इनके एक भाई स्व. पं. श्रुत सागर जी कटनी विद्यालय में पढ़ाते थे। जब भी सागर आते मोराजी आते । स्व. पं. जी. स्व. पं. श्रुतसागर को लेकर हमारी कक्षा में अध्ययन करा रहे पं. स्व. श्री माणिकचंद जी के पास आते । एक भाई दूसरे भाई को पूरा सम्मान देते इनकी आपस में मुस्कराकर चर्चा हम लोगों के कौतुहल का विषय होता था- भाईयों में आपस में बहुत स्नेह व वात्सल्य था जो आज के परिवेश में भाई - भाई में देखने को नहीं मिलता।
__ स्व. पं. दयाचंद साहित्याचार्य समय के बहुत पाबंद थे उन्हें अनुशासन बहुत प्रिय था। उनकी कक्षा में देर से जाने से छात्र डरते थे मैं तो उदण्ड था सबसे ज्यादा सजा मुझे ही दी जाती थी। लेकिन पं. जी दण्ड देने के बाद बहुत पश्चाताप करते थे यह अनेकों वार हुआ। उनकी सहृदय की विशालता इसी से परिलक्षित होती है।
___14-15 वर्ष तक मैं पूज्य पं. जी की छत्र छाया में रहा मुझे कभी यह अहसास/ आभास ही नहीं हुआ कि मैं विद्यालय में हूँ, कि घर में । उनके निर्देश पर ही विद्यालय के छात्रों ने जनता हायर सेकेण्डरी स्कूल पुरव्याऊटौरी तथा स्नातक एवं स्नातकोत्तर सागर विश्वविद्यालय से किया ।आज पं. जी के पढ़ाये हजारो छात्र भारत के कोने कोने में रहकर अपनी आजीविका के साथ समाज सेवाकर रहे है । पं. जी ने अपना समस्त जीवन ज्ञानदान में ही समर्पित कर दिया था।
__ एकबार 1982 में स्व. डॉ. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य एवं स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य से छात्रों ने ग्रुप फोटो ग्रूपिंग (उतरवाने) का निवेदन व आग्रह किया। पं. जी द्वय ने कहा भैया व्यर्थ पैसा क्यों व्यय कर रहे हो ? तथा ग्रुपफोटो को मनाकर दिया। पुन: प्रयास व साहस बनाकर द्वय पं. जी के पास गये बहुत आग्रह के बाद समूह फोटो उतरवाई गई। जो आज मेरी यादों की धरोहर है।
स्व. पं. जी को जब यह जानकारी हुई कि मेरी नियुक्ति शिक्षक पद पर श्री पार्श्वनाथ गुरुकुल खुरई में हुई है तो सरस्वती भवन के बाद वाले कमरे में सहयोगी छात्र से मुझे बुलाया (जहाँ पं. कक्षायें लिया करते थे) और गदगद हो आशीर्वाद दिया तथा शिक्षक के पद की गरिमा बनाये रखने का आदेश दिया। कुछ वर्षों बाद 1988-89 शासकीय सेवा में मेरी नियुक्ति विलासपुर में हुई तो मैं खुरई से सागर पं. जी के पास गया व सब कुछ पूछने के बाद पं. जी ने कहा तुम जहाँ कहीं भी जाओ मोराजी विद्यालय को नहीं भूलना और मंगल आशीर्वाद दिया। उन क्षणों को स्मृत कर आँखे भीग गयीं। पं. जी का पुत्रवत स्नेह व ज्ञानपाकर
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मैं अपने आपको धन्य मानता हूँ। पं. जी ने अपने ज्ञान रूपी दीपक से अनेकों दीपक जलाये हैं जो दीपक रूपी शिष्य देश के कोने कोने में जिनवाणी की दीपशिखा ज्वलंत बनाकर रखे हैं। आपके द्वारा जो ज्ञान की ज्योति जलाई गई वह निरंतर इसी प्रकार जलती रहे यही मेरी भावना, यही मेरी उनके चरणों में श्रद्धांजलि होगी। मैं आभारी व ऋणि हूँ श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी सागर तथा स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का जिन्होंने मुझ जैसे बुद्धिहीन व्यक्ति को शिक्षक एवं प्रतिष्ठाचार्य के प्रतिष्ठापूर्ण पद तक पहुँचाया। तथा प्राप्त धर्म ज्ञान द्वारा जिनवाणी के प्रचार प्रसार करने का आज सुअवसर मिल रहा है।
स्व. डॉ. पं. दयाचंद साहित्याचार्य स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति के साथ सागर समाज को साधुवाद, देना चाहता हूँ जिन्होंने यह दुस्सह कार्य करने का प्रयास किया। तथा स्व. पं. जी के जीवन दर्शन, व्यक्तिगत, कृतित्व के उन सभी पहलूओं से अवगत होने का अवसर मिलेगा जो हमें अब तक ज्ञात नहीं है।
पं. जी आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके द्वारा दिया गया ज्ञान हमारे अन्तरमन में प्रदीप्त रहेगा। किसी कवि ने ये पक्तियाँ ठीक ही लिखी है :
"महकता था जिससे, हमारा गुलिस्तां।
फूल को अपनी महक, फैलाकर चला गया।" मैं अनेक प्रतिष्ठापूर्वक सम्मानों से सम्मानित अविस्मरणीय गुरु, सौम्य व्यक्तित्व के धनी, निस्पृह कर्मयोगी पितृतुल्य स्नेह स्व. पंडित दयाचंद साहित्याचार्य के चरणों में सादर श्रृद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
"यशः शरीरेण जीवत्येव, तस्मै श्री गुरुवे नम:'
पं. जयकुमार शास्त्री (प्रतिष्ठाचार्य)
नारायणपुर, बस्तर (छ.ग.) मेरे जीवन में गुरुओं का आशीर्वाद रहा है उनमें पूज्य गुरु देव डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य के पितृतुल्य आशीर्वाद एवं स्नेह को मैं कभी भुला नहीं सकता । मुझे उनके पास श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महा विद्यालय सागर में रहकर संस्कृत व्याकरण लघु सिद्धांत कौमुदी एवं तत्वार्थसूत्र ग्रन्थ पढ़ने का अवसर मिला। उनके द्वारा दी गई उक्त दोनों ग्रन्थों की शिक्षा ने मुझे आगे बढ़ने के द्वार खोल दिये, मुझे तो उक्त दोनों विषय अपनी उन्नति एवं योग्यता के आधार लगते है। पूज्य पंडित जी का जीवन अत्यंत स्नेही था वे व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत स्नेह करते थे। मुझे तो वे गुरु के साथ - साथ पितृ
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तुल्य थे | उन्होंने सद् संस्कारों से युक्त शिक्षा देकर मुझपर बहुत बड़ा उपकार किया है। मैं उनके उपकार का ऋणी हूँ। उनके चरणों में हमेशा विनयावनत रहा और उनका आशीर्वाद पाता रहा हूँ अंत मैं यही कामना करता हूँ कि बार- बार डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य गुरु के रूप में मेरा मार्गदर्शन करने हेतु मिलते रहे। वे आज भौतिक शरीर से भले ही जीवित न हो किन्तु वे यशः शरीर से आज भी जीवित है। उनके द्वारा दिये गये आशीर्वाद एवं स्नेह को मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता ।
गुरुचरणों में विनयावनत
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" श्रदेय पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य जी '
जैन समाज का चमकता ध्रुवतारा
पं. ऋषभ कुमार शास्त्री अधीक्षक भारत शासन, सागर
वर्तमान के वैज्ञानिक युग में अविष्कृत - आविष्कारों से जहाँ एक ओर स्थान एवं समय की दूरियाँ हुई वहीं मन की दूरियाँ बढ़ रही है। हिंसा व अत्याचार का तांडव नृत्य दिन प्रति दिन वृद्धिंगत हो रहा है। ऐसे समय में राम और महावीर जैसे अगणित नर रत्नों को जन्म देने वाली रत्नगर्भा धरा पर "शाहपुर नगर की भूमि पर सबसे प्रतिष्ठित परिवार में एक होनहार बालक का जन्म होता है । बालक चंन्द्रमा की कलाओं की तरह निरंतर बढ़ता हुआ एवं लक्ष्य की ओर अग्रसर होता गया, एवं अत्यल्प समय में पं. दयाचंद साहित्याचार्य के रूप में अविस्मरणीय हो गया । पंडित जी जीवन भर उद्देश्य प्रधान होने से धनहीन रह गये, परन्तु कभी विवाद के लक्षण प्रगट नहीं हुए। जब भी बताई यथार्थ बात ही बताई समाज माने या न माने । विद्यालय ज्ञान के आयतन है। पंडित जी विद्यालय को अपना सर्वस्व समझते थे । सतत अध्ययन एवं अध्यवसाय से अनुपम पांडित्य प्राप्त किया था। पंडित जी विद्यालय के गौरव थे ।
"संसार में भी सार है एवं मोक्ष भी सार है " संसार में रहकर मनुष्य भव में संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त हो सकता है। पंडित जी कहा करते थे कि मोक्षमार्ग की कथा करने की अपेक्षा मोक्षमार्ग में लगजाना श्रेयस्कर है। ज्ञानं मोक्षमार्ग में साधक है ।
पंडित जी सम्यक विवेचना द्वारा मोह अभिभूत मिथ्यात्व भ्रमितं कषायांध कुतर्क जाल में उलझे मानव मस्तिष्क को युक्तिपूर्ण तरीके से राह पर आरुढ कर सत्य तथ्य से परिचित कराने में निपुण थे । तर्कपूर्ण शैली में विवेचना पंडित जी के अगाध ज्ञान गरिमा का परिचायक है। उनकी शैली से आवाल वृद्ध सभी लाभान्वित हुए हैं। उनके द्वारा ज्ञान की दिव्य आभा जगती तल पर समय- समय पर बिखेरी गई ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पंडित जी कहा करते थे कि ''नेत्र की रक्षा आवश्यक है ' बिना नेत्र के मात्र चश्मा स्वच्छ रखने से कुछ दिखने वाला नहीं ।
पंडित जी की जीवन सरिता जन्म एवं मृत्यु के दोनों किनारों के बीच निरपेक्ष भाव विषम परिस्थितियों में भी आज्ञानियों को ज्ञान दान देती हुई बढ़ती गई। जिससे छात्रों का महा उपकार हुआ ही साथ ही समाज का भी उपकार हुआ। क्योंकि ज्ञान दान के समान कोई और इस जगत में उत्तम कार्य नहीं है। अब तो उनके असीम गुणों का पावन स्मरण ही शेष
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अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त स्वनाम धन्य
डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य एक स्मृति
डॉ. हरिश चंद्र शास्त्री सहप्राचार्य संस्कृत महाविद्यालय, मुरैना (म.प्र.) परमपूज्य श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य एक स्वच्छ व्यक्तित्व के धनी थे इनका जन्म सागर (म.प्र.) के नजदीक शाहपुर ग्राम में हुआ था । पूज्य वर्णी जी से प्रभावित होकर इनके पिता जी ने अपने सभी पुत्रों को धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने हेतु श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय (मोराजी) सागर भेज दिया था । और सभी पुत्र अध्ययन करके मान्य पंडित विद्वान बने । जिन्होंने अपना नाम पूरे विश्व में किया उन्हीं में तृतीय पुत्र के रूप में डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य जी हुए ।
पूज्य पंडित जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन जिस विद्यालय में अध्ययन किया उसी विद्यालय की सेवा ही समर्पित कर दिया। पंडित जी को अंतिम समय तक अध्ययन की अत्यंत रूचि थी। उनका 75 वर्ष की उम्र में डॉ. भागचंद जी के निर्देशन में जैन पूजा काव्य पर पीएच. डी करना इसका प्रतीक है। पू. पंडित जी को डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से सन् 1989-90 में पीएच. डी की उपाधि से विभूषित किया गया। पूज्य पंडित जी ने जिन डॉ. भागेन्दु जी के निर्देशन में पीएच. डी की वह डॉ. भागेन्दु जी स्वयं पं. जी के ही स्वयं शिष्य रहे है ।
पंडित जी को कई उपाधियां एवं पुरस्कार अपने इस संघर्षमय जीवन में प्राप्त हुए। जिसमें प्रमुख 2004 में श्रुत संवर्धन पुरस्कार से 31000 रु. शाल, श्रीफल आदि से पू. उपाध्याय ज्ञान सागर जी महाराज के सानिध्य में अतिशय क्षेत्र तिजारा में सभी विद्वानों एवं श्रीमंतों के सामने सम्मानित किया गया । भारत में क्या पूरे विश्व में ऐसा कोई परिवार नहीं होगा जिस घर में माता पिता के सभी पुत्र पंडित बने हो और ऐसे वैसे पंडित नहीं पंडितों के अग्रणी विद्वान रहे ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मैंने संस्कृत विद्यालय सागर में सन 1971 में अध्ययन हेतु प्रवेश लिया था। तथा सन् 1982 तक विद्यालय में रहा । पूज्य पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य जी का सानिध्य मुझे 11 वर्ष तक अध्ययन करने का प्राप्त हुआ मेरे अध्ययन काल में मेरे तीनों गुरु रत्नत्रय के समान थे। डॉ. पंडित पन्नालाल जी, पं. माणिकचंद जी एवं डॉ. पंडित दयाचंद साहित्याचार्य ये तीनों श्रद्धेय पूज्य मेरे गुरु रहे है। संस्मरण -
__पंडित जी छात्रों को जितना स्नेह करते थे उतना डांटते भी थे। पंडित जी को हम लोग स्नेह से बड़े शास्त्री : हा करते थे। तथा पंडित धरमचंद जी उस समय के छोटे शास्त्री थे। पूज्य पंडित दयाचंद जी की पिटाई उस समय जगत प्रसिद्ध थी। पंडित जी की पिटाई से अनगिनत छात्रों की जिन्दगी सुधर गई, ऐसी मेरी मान्यता है।
जब मैं पूर्व मध्यमा प्र. खण्ड में अध्ययन करता था, पंडित जी हमारे कक्षा शिक्षक थे। कक्षा में किसी छात्र ने डेक्स गिरा दिया, पंडित जी ने डंडा लेकर पूछा किसने गिराया है, उसने मेरे तरफ इशारा कर दिया पंडित जी ने मेरी पिटाई प्रारंभ कर दी। मैंने बहुत कहा कि मैंने नहीं गिराया फिर भी पंडित जी पीटते रहे जब शांत हुए तब छात्रों ने कहा पंडित जी डेक्स तो किसी दूसरे ने गिराया था आपने इसको पीट दिया तो पंडिा जी बोले आपने पहले क्यों नहीं बताया मैंने कहा वही तो कह रहा था परन्तु आपने सुना ही नहीं तो पंडित जी को बहुत पछतावा हुआ पंडित जी किसी की छोटी सी भी गलती सहन नहीं करते थे। उनका अनुशासन कड़ा था हम लोग उस समय इन सब बातों को हँसी में निकाल देते थे परन्तु आज एक एक पंडित जी की बात याद आती है। ऐसे पूज्य गुरुवर्य पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य जी के चरणों में अपने हृदय से विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ।
पं. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य - विद्यार्थियों के मसीहा (व्यक्तित्व कृतित्व)
__ पं. राजकुमार जैन शास्त्री,ग्रामीण बैंक
मकरोनिया, सागर (म.प्र.) भारत वसुन्धरा में श्रेष्ठ व्यक्तित्व की हमेशा पूजा हुई है। यह भारत भूमि की श्रेष्ठतम विशेषता है। भारत देश वह देश है जहाँ विद्वान मनीषी, साहित्यकार, वैज्ञानिक,कवि, लेखक, गायक जैसे प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व का राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान हुआ। भारत देश के अंचल बुंदेलखण्ड की पवित्र माटी में सागर की शाहपुर की भूमि में एक बालक ने जन्म लिया। जैसी कहावत है पूत के लक्षण पालने में दिखने लगते है सो हुआ भी ऐसा ही पूत सपूत होतो सोने में सुगंधी बिखेर देता है । बालक जन्म से ही आज्ञाकारी एवं दयालु
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ था और इसी यथा नाम तथा गुण के आधार पर नाम रख दिया दयाचंद । बालक से युवा होने का क्रम समय की धारा के साथ जुड़ता गया और विद्यार्जन का सिलसिला शुरू हुआ। पिता पं. भगवानदास जी ज्ञान की गरिमा को जानते थे और धर्म की वैशिष्टता से विज्ञ थे अत: प्राथमिक संस्कार व शिक्षा शाहपुर में प्राप्त कराके वर्णी जी के उस विशाल ज्ञानतरू में श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में दाखिला दिला दिया, विद्यार्थी की प्रतिभा तो प्रेरक थी ही ज्ञान की गंगा में अवगाहन करके अपने अग्रज पं. माणिकचंद्र एवं पं. श्रुत सागर जी के सरंक्षण व दिशा निर्देशन में विद्यालय में अध्ययन प्रारंभ कर दिया । उत्कृष्टतम संस्कृत धार्मिक शिक्षा प्राप्त की तथा जैन दर्शनचार्य साहित्याचार्य, सिद्धांताचार्य, प्रतिष्ठाचार्य जैसी उत्कृष्टतम उपाधियों को प्राप्त किया। तथा शोध प्रबंध लिखकर पी.एच.डी (डॉक्टर) की उपाधि से विभूषित हुए।
पण्डित जी के जीवन की पगडंडियों का मापदण्ड व सफरनामा संघर्षमय रहा जिसे मैं अपना विषय नहीं बनाना चाहता हूँ किन्तु वे परिस्थिति से जरा भी विचलित नहीं हुए और जिनवाणी की उपासना से कभी वंचित नहीं हुए उनने पीछे मुड़ना कभी नहीं जाना वे तो आगे बढ़ते गये जो उनके अदम्य साहस की विशेषता थी। अब मैं अपनी कलम को दूसरी ओर मोड़ रहा हूँ मैंने उन्हें अपने गुरु के रूप में पाकर जो ग्रहण किया जो उनसे पाया उसे कलम से कागज पर उकेर रहा हूँ जो मैंने उनमें पाया उसे विभिन्न बिन्दुओं के माध्यम से लिख रहा हूँ -
श्रेष्ठतम गुरु :- गुरु का हृदय कबीर की उस परिकल्पना से आंका जा सकता है जिसमें कहा गया कि "गुरु कुलाल शिशु कुम्भ है, गड़ गड़ काड़े खोट, भीतर हाथ संभारकर ऊपर मारे चोट" ये चार चरण पण्डित जी में समाहित थे। मुझे उनका शिष्यत्व प्राप्त हुआ है। वे श्रेष्ठ गुरु के सभी गुणों से विभूषित थे। उन्हें देखकर धौम्य वशिष्ठ जैसे गुरुओं की परिकल्पना परिलक्षित होती थी। अपने विद्यार्थी के प्रति वे कितने सजग रहते थे विद्यार्थी को श्रेष्ठ से श्रेष्ठ बनाने की भावना रखते थे। विद्यार्थी उनका केन्द्र बिन्दु रहा करता था। यदि विद्यार्थी बीमार होता था तो उसे कमरे से जगाकर कक्षा तक ले आते थे उनके मन में भावना रहती थी कि विद्यार्थी आज के विषय से वंचित न रह जाये आदर्श शुरू के सभी गुण उनमें विद्यमान थे।
अनुशासन प्रिय :- पण्डित जी को विद्यालय में बड़े शास्त्री कहा जाता था छोटे शास्त्री पं. धर्मचंद्र जी कहलाते थे। बड़े शास्त्री का अनुशासन जितना कठोर था उनका हृदय उतना ही मृदु था वे लापरवाही उदण्डता, आलस्य के घोर विरोधी थे वे बड़े प्रभावी विद्वान थे बैठने, पढ़ने, बोलने आदि का अनुशासन मैंने पंडित जी साब की कृपा से प्राप्त किया है। नियमों के प्रवर्तन में जितने कठोर थे उसके प्रवर्तन में उतने ही सरल थे। उनका वेंत प्रसिद्ध था जो हमेशा अनुशासित रहने का मार्ग प्रशस्त करता था समय - समय पर पंडित जी वेंत का प्रयोग करते थे। वे विद्यार्थी को मारने के तत्काल बाद वेहद् पश्चाताप करते थे कहाँ करते थे देखों विद्यार्थी पिट गया तथा विद्यार्थी के सिर पर हाथ फेरने लगते थे। सहिष्णु थे पण्डित जी :- पंडित साब बड़े सहृदयी एवं सहिष्णु थे वे विद्यार्थी की प्रत्येक पीड़ा को
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ समझते थे यदि ठण्ड का समय होता था और विद्यार्थी के शरीर पर स्वेटर नहीं होती थी तो वे चादरा ओढ़कर कक्षा में विद्यार्थी को बुला लेते थे।यदि छात्र बीमार है तो उसके इलाज हेतु प्रत्येक समय प्रतिबद्ध रहते थे । वे विद्यार्थी के दुःख सुख सभी में जुड़े रहते थे।
अथक परिश्रमी :- 85 वर्ष की उम्र में भी जिनकी लेखनी अविरल चलती रही उन परिश्रम के पुजारी को प्रणाम । उनकी लेखनी चलती रही, जबान पढ़ती रही एवं आँखे देखती रहीं, मन मस्तिष्क चिंतन शील बना रहा, कलम के धनी थे उनके सारगर्भित लेख उनके चिंतन का नवनीत हुआ करता था । रात्रि के 11, 12 बजे तक अध्ययन व लेखन करते रहते थे उनके हृदय में सरस्वती का वास था । परिश्रमी व्यक्ति ही जीवन को उन्नत बना सकता है । सो उनने बनाया।
संयमी जीवन :- पण्डित जी जीवन भर बड़े विवेकी एवं संयमी रहे उनके त्याग और आचरण की अलग विशेषता थी कभी भी शाही विवाह में सामूहिक भोजन को नहीं जाते थे दीदी किरण जी स्वयं एक संयमी बहिन है अत: वे अपने पिताजी को शुद्ध व सात्विक भोजन कराती थी अष्टमी चतुर्दशी व्रतों में संयमी जीवन व्यतीत करते थे उनका अधिकांश से ज्यादा जीवन ब्रह्मचर्य से व्यतीत हुआ।
___ डाक्टरेड उपाधि से विभूषित :- अपने वैदुष्य व पाण्डित्य से तब और विभूषित हो गये थे जब उन्होंने जैन पूजा काव्य पर शोध प्रबंध सम्पन्न किया तथा पीएच.डी. उपाधि को जीवन के अंतिम छोर तक प्राप्त करने में कसर नहीं छोड़ी इसी से प्रतीत होता है कि वे जिनवाणी के प्रति कितने समर्पित थे उनका शोध प्रबंध पूर्णत: चिंतनात्मक एवं मौलिक था वे बड़े कर्मठ थे दिन रात एक करके अपने लक्ष्य का पीछा करते थे यही पाठ विद्यार्थियों को पढ़ाते थे।
विद्यालय के सजग प्रहरी :- पू. ग. प्रसाद जी वर्णी का उनके ऊपर वरदहस्त था उनके आशीष व मार्ग दर्शन से उन्होंने विद्यालय में ज्ञानतरू के नीचे बैठकर अध्ययन किया तथा पश्चात् उसी विद्यालय में अपनी सेवाएँ देना प्रारंभ कर दी थी। तथा अंत में संस्था के प्राचार्य पद को भी प्राप्त किया था अपने सम्पूर्ण जीवन को विद्यालय के नाम मानों उन्होंने रजिस्टर्ड कर दिया हो विद्यालय मात्र अल्प वेतन ही दे पाता था जिसमें उन्होंने हमेशा संतोष स्वीकार किया। विद्यालय के विभिन्न अंगों का ध्यान वे रखते थे शरीर के किसी अंग को जब कष्ट होता है तो सारा शरीर कष्टमय रहता है। ठीक उसी प्रकार विद्यालय के ऊपर कभी कुछ होता आर्थिक स्थिति गड़बड़ाती तो पंडित जी तुरंत चिंतित होने लगते थे उन्होंने विद्यालय का हमेशा आर्थिक संरक्षण किया व हमेशा सजग रहते थे।
स्वाभिमानी व्यक्तित्व के धनी :- पंडित जी एक निर्भीक एवं स्वाभिमानी विद्वान रहे उन्होंने पैसे के पीछे तथा निजी स्वार्थवश कभी भी अपने स्वाभिमान को आंच नहीं आने दी। वे साहस के साथ जीवन जीते चले गये । छोटे-छोटे हवा के झोंकों की उन्होंने परवाह नहीं की तथा बड़े-बड़े झंझबातों की थपेड़ों को भी सहन किया किन्तु स्वाभिमान हमेशा सुरक्षित रखा उनका रहन सहन भी सदा साफ व स्वच्छ रहता था। धोती, कुर्ता, जाकिट व टोपी उनकी वेशभूषा थी।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ गुरु के गुणगाने को कितना भी लिखा जाए उतना कम है स्याही व कागज कम पड़ सकता है किन्तु गुरु के त्याग तपस्या को लिखना कम नहीं हो सकता, मैं तो अपने आप को सौभाग्य शाली मानता हूँ कि मुझे श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय में पढ़ने का सौभाग्य मिला और मिला सौभाग्य पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, पं. माणिकचंद जी न्यायाचार्य, पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का मंगलमयी सानिध्य । पंडित जी से मिलने जब भी मोराजी जाता था तो पंडित जी का रोम रोम रोमांचित हो जाता था वे अत्याधिक प्रशन्न होते थे और तुरंत ही किरण दीदी को आवाज देते थे राजकुमार को कुछ खिलाओं और दीदी भीतर से पहले से ही नास्ता की प्लेट सजाकर ले आती थीं।
उनका समूचा जीवन जिनवाणी आराधना में व्यतीत हुआ और अंत जीवन भी शांतिपूर्ण व्यतीत हुआ साहित्य की सर्जना का फल उन्हें मोक्षफल की ओर ले जावेगा ऐसे साहित्य के मनीषी अपने गुरु को परोक्ष प्रणाम।
श्रद्धा भरी दृष्टि
पं. उदय चंद शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य
मकरोनिया सागर साहित्य मनीषी श्रद्धेय पं. जी का जीवन निरंतर सम्यकज्ञान की अलख जगाने में बीता, निस्पृही भाव से ज्ञान की धारा जन जन तक प्रवाहित करने वाले पंडित जी को मैंने साक्षात कई बार इस चिंतन में डूबे हुए देखा। वे बच्चों को धर्म की तह तक पहुँचाने का सदैव प्रयत्न करते रहते थे।
वर्णी जी की अनन्य शिष्यता उन्हें अंत समय तक स्वीकृत रही उनका जीवन वर्णी जी के चरणों से प्रारंभ हुआ तथा अध्ययन से अध्यापन तक का सम्पूर्ण काल वर्णी जी की संस्था को ही समर्पित रहा। श्री गणेश संस्कृत महाविद्यालय मोराजी में जहाँ आपने लगभग 15 वर्ष अध्ययन किया वही आपने विद्यालय में निरंतर 1951 से 2006 जनवरी तक अध्यापन कार्य किया था। यहाँ यह स्मरणीय है कि पंडित जी ने वर्ष 2001 से 2006 तक अवैतनिक कार्य कर वर्णी जी के प्रति महान कृतज्ञता ज्ञापित की है।
___ आप एक कुशल अध्यापक के साथ सफल प्रशासक भी रहे है कि 1983 से 2003 तक आपने संस्था के प्राचार्य का कार्यभार संभाला है अनेक उपाधियों से विभूषित पंडित जी को सागर वि.वि. द्वारा डाक्ट्ररेट की उपाधि से अलंकृत किया।
मैंने पंडित जी से अध्ययन कर जो उनसे पाया है उससे मैं कभी भी उऋण नहीं हो सकता उनके चरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पण करता हूँ। वे इस देह से हमारे बीच नहीं है लेकिन हमारे मन में सदैव जीवंत है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्रद्धा के मंदिर
राजेन्द्र सुमन
चकराघाट, सागर मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता है कि भारत वर्ष के ख्याति प्राप्त जिनवाणी सेवक तथा श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, के प्राचार्य का स्मृति ग्रन्थ (साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ) प्रकाशित होने जा रहा है। मां जिनवाणी की सेवा करने का शुभाषीष पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य जी को पू. वर्णी जी महाराज द्वारा प्राप्त हुआ था जिसे उन्होंने जीवन पर्यन्त पालन किया। वे राष्ट्रीय स्तर के सफल प्रवाचक, सफल लेखक तथा छात्र हितैषी आदर्श अध्यापक थे। मुझे चौधरन बाई मंदिर पाठशाला में स्क. पंडित जी से धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनका सदैव शुभाशीष मुझे मिलता रहा, तथा मैंने भी स्मृति ग्रन्थ प्रकाशन में सदैव अपनी तत्परता दिखाई है तथा ग्रन्थ प्रकाशन में पूर्ण सहयोगी बनकर ग्रन्थ की समाजोपयोगी सफलता चाहता हूं। उनके गुणों का सदैव स्मरण करता रहूंगा। आत्मीय शुभकामनाओं सहित
व्यक्तित्व की विशालता
पंडित राजेन्द्र कुमार जैन
वर्धमान मेडीकल शाहपुर हिमालय की हिम की शुभ गगन स्पर्शी चोटियों का वात्सल्य जब अगणित निर्झरों में, सरिताओं में विगलित होता, तब देश की बंजर भूमि उर्वरक होकर समृद्धता प्रदान करती है। ऐसे ही हमारे पूज्य दादा श्री पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य जिनकी उदात्तता ने सैकड़ों हजारों छात्रों में ज्ञान की जल राशी बहाकर उनकी संकीर्णता तथा अज्ञान की बंजर भूमि को ज्ञान की निर्झरणी से भर दिया है। उनके व्यक्तित्व को देख ऐसा प्रतीत हुआ कि हिमालय भी उनके व्यक्तित्व को देख शर्माकर आप पिघल रहा है।
उन्होंने निष्कंप दीप शिक्षा की भांति अपने जीवन को तिल तिल कर जलाया। तभी इस बुंदेलखंड की माटी को ज्ञान का प्रकाश मिल सका है। नीरव वन प्रांतर के अंधकार को चीरने के लिए एक दीप काफी है। उसी प्रकार ज्ञान रश्मियां अज्ञान अंधकार को चीरने में समर्थ है। जिसे पूज्य दादाजी ने अपने जीवन भर फैलाया। पंडित जी के त्याग की विशालता ने सागर नगर की विशाल संस्था में अपना समर्पण देकर यहां पढ़ने वाले छात्रों को ज्ञान की रोशनी देकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी, साथ भगवान महावीर के अपरिग्रह सिद्धांत को अपने जीवन में उतार कर समाज के समक्ष अपना आदर्श प्रस्तुत किया।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भ. महावीर के समान सत्य अहिंसा द्वारा कठिन समस्याओं पर विजय पाई जा सकती है। सत्यवादी अहिंसक की सबसे बड़ी विशेषता होती है मितव्ययता, आचरण की, व्यवहार की, भाषण की धनादि की। जिसका पालन कर पंडित जी ने अपना सारा जीवन विता दिया।
उनके प्रवचन की संक्षिप्तता उनकी विशेषता थी। उन्होने जो कुछ भी कहा हृदय से निकला हुआ तीखा सत्य कहा । उन्होंने अपने प्रवचनों में कभी पांडित्य का प्रदर्शन नहीं किया। उन्होंने अपने हृदय की अभिव्यक्ति बिना अलंकृत किए सहज शब्दों में प्रस्तुत की। जिससे जन मानस उनकी सहजता, सरलता, और उनकी अभिव्यक्ति का कायल हो गया।
इस शिक्षित और वैज्ञानिक युग में ज्ञान और आचरण के बीच गहरी खाई बन चुकी है। "पर उपदेश कुशल बहुतेरे' के दर्शन हर जगह हो जायेंगे। लेकिन पंडित जी ने ज्ञान को व्यवहारिक रूप प्रदान किया। जिन्होंने शिक्षा को आचरण में ढाल दिया, जिसे उन्हें प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं पड़ी। वे ऐसे विरल रत्न थे जिन्होंने आचरण हीन ज्ञान को पाखंड माना ।
___ सेवा सादगी जीवन का मूल मंत्र है। उनका सारा जीवन सेवा की उज्जवल कहानी रहा है। उनकी आवश्यकतायें कम थी और कम से कम में ही पूरा जीवन आनंद के साथ जिया । उनकी सादगी उनके अपरिग्रही होने का सबसे बड़ा प्रमाण थी।
इस शिक्षित युग के व्यक्तियों में पवित्र श्रद्धा तथा संयम के प्रति आकर्षण शून्य सरीखा होता जा रहा है। वाणी से चारित्र का उच्चारण बार बार होता है पर जीवन में संपर्क नहीं हो पाता।
महापुराण में जिनसेन स्वामी ने सम्राट भरत के स्वप्न "एक वृक्ष जो शुष्क हो गया" का उल्लेख करते हुए लिखा कि आगे स्त्री पुरूष समाज में सदाचार में शिथिलता उत्पन्न होगी। पर पंडित जी ने अपने जीवन में मृत्यु पर्यंत तक शिथिलता को अपने पास फटकने नहीं दिया।
__ आध्यात्मिक अंधियारी में ऐसे कम सौभाग्य शाली हैं जो समीचीन श्रद्धा मूलक ज्ञान और सदाचार का पालन कर रहे है । तब पंडित जी ने श्रद्धा मूलक ज्ञान और सदाचार का निष्कंलक पालन कर जड़वाद से जर्जरित युग में अध्यात्मवाद के प्रदीप को प्रदीप्त रखते हुए मार्गभ्रष्ट लोगों का पथ प्रदर्शन करते रहे ।
___पंडित जी द्वारा भरतेन्दु के समान अजस्र साहित्यिक धारा का सुनहले प्रभात का उदभव हुआ। साहित्यिक महारथियों के मध्य पंडित जी की साहित्यिक साधना ने अपना स्थान अग्रिम पंक्ति के पंडितों में दर्ज करवा लिया।
आपका हृदय निष्पाप था। आपके हाथ सदा कार्य करते रहे । पैर व्यर्थ घुमने से कतराते रहे। आपके वचनों में मधुरता शिष्टता एवं निष्कपटता थी। आपकी दूरदर्शिता आपकी पथ प्रदर्शक रही। आप अपने छात्रों को अपने समतुल्य बनाने का उपक्रम निरंतर करते रहे । वस्तुत: आप धन्य है, वह संस्था धन्य है, जहां आपने अपने व्यक्तित्व के साथ संस्था के विकास की आधार शिला रखी। हमारा अपना भायजी परिवार धन्य है जहां आप जैसे मृदुभाषी, सरल, विद्वानों के कारण अलंकृत हो उठा है। ऐसे आध्यात्मवेत्ता बड़े पापा को श्रद्धा सुमन अर्पित करता हुआ कोटिशः नमन करता हूँ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे जीवन के प्रकाशक दीपक गुरुजी
पं. ताराचंद्र शास्त्री
___ डोंगरगाँव, राजनांदगाँव (छ.ग.) "श्री गुरुवर दयासिंधु, आपको शत् - शत् है वंदन । आपको पावन चरणों में, कोटिशः हो नमन अर्पण ।
आपके सत्पथप्रदर्शक हो, विनय से नम्र हो तन मन ।
कामना वश आप हो शिवगामी, आपको विनयांजलि अर्पण ॥" हमें हर्ष के साथ विषाद भी है कि हमने एक महान यशस्वी, साहित्य मनीषी परम श्रद्धेय पंडित जी साहब स्व. श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य के रूप में विद्वतरत्न खो दिया है । जिस स्थान की पूर्ति करना असंभव ही है परन्तु हर्ष भी है कि श्रद्धेय पंडित जी साहब का स्मृति ग्रन्थ “साहित्यमनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ" का भव्य प्रकाशन होने जा रहा है ।जो जन जन के लिए अनुकरणीय एवं आदर्श स्वरूप रहेगा।
परम श्रद्धेय पंडित प्रवर परमपूज्यनीय स्व. श्री पंडित जी बहुमुखी व्यक्तित्व के शिखर पुरुष थे। आपका बहुमुखी व्यक्तित्व सम्पूर्ण जैन समाज के लिए अनुकरणीय अद्वितीय एवं चिरस्मरणीय है । जो हम सभी के लिए परम हर्ष, गौरव का सूचक है। हमें नाज है उन श्री गुरुवर पर । आप जैन साहित्य यशस्वी मनीषी रहे हैं, आपका जीवन सादगीपूर्ण रहा है । आपका गुणानुवाद जितना किया जाये वह भी कम है।
(1) माता पिता के दुलारे :- परम श्रद्धेय पंडित जी साहब आप अपने माता पिता के लिए सदैव अतिप्रिय संतति रहे हैं, आप पर उनका असीम दुलार था। आपकी माता पिता के प्रति आस्था एवं आज्ञाकारी पुत्र होने की गौरव गरिमा से अभिभूत रहे हैं। आपने अपने माता पिता के गौरव, मान सम्मान में अभिवृद्धि की है।
(2) भ्रातृस्नेह के अग्रदूत :- परम आदरणीय पंडित जी साहब में अपने भाईयों के प्रति असीम प्रेम देखने को मिला है। चाहे बड़े भाईयों के प्रति आदर या फिर अपने अनुजों पर असीम स्नेह की भावना से आपका हृदय भरा हुआ था मैंने आपके उस परम स्नेहिल रूप को बहुत ही करीब से अनुभव किया है । आपको यह गुण आपके माता पिता से आशीष रूप में मिला । आपने सभी भाईयों में तीसरे क्रम में जन्म लिया, इस कारण आप मध्यम भ्राता की गरिमा से गौरवान्वित हुए।
अत: कहा जा सकता है कि आप वास्तव में भ्रातृस्नेह की मिसाल हैं।
(3) दयासिंधु :- श्रद्धेय गुरुदेव आपने “यथा नाम तथा गुण" अर्थात् आपका जैसा नाम है वैसा ही काम की युक्ति को चरितार्थ किया है । आपमें नाम के अनुरूप दया (करूणा) का गुण जन्मजात है आप एक सहृदय पुरुष थे। आप में प्राणीमात्र के प्रति रहम की भावना कूट - कूट कर भरी हुई थी। आप किसी की पीड़ा से व्याकुल हो जाते थे यही गुण आपको धवल कीर्ति से अलंकृत करता रहा है। आपने अपने नाम को सार्थक किया है । उन श्रद्धेय गुरुदेव की कृपा दृष्टि एवं शुभाशीष हम पर सदा रही है।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (4) सत्पथ प्रदर्शक :- परम श्रद्धेय गुरुवर पंडित जी साहब ने सदैव दूसरों (जनसामान्य) को जनकल्याण की भावना से सन्मार्ग दिखाने का कार्य किया है। आप सच्चे पथ प्रदर्शक, परम हितैषी थे, जो कि आपने भटके हुए जन - जन को सच्ची राह दिखाकर अध्यात्म के पथ पर अग्रसर करके आत्मकल्याण करने की प्रेरणा प्रदान की है। जिससे जैन धर्मावलम्बियों ने आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त किया है। यह आपकी श्रीकृपा का ही प्रतिफल है।
(5) अध्यात्मवेत्ता :- श्रद्धेय पंडित जी साहब, आप जैनधर्म के मर्मज्ञ, चारों अनुयोगों के ज्ञाता, जिनवाणी के विज्ञपुरुष, जैन साहित्य के रसिक, जिन शासन की धर्मपताका फहराने वाले मनीषी है। आपने अपना सम्पूर्ण जीवन "माँ भगवती जिनवाणी' की सेवा में समर्पित किया है। माँ सरस्वती के आप वरदपुत्र थे। माँ भगवती शारदे की कृपा दृष्टि का वरदहस्थ आप पर था । आपने जैनधर्म के शास्त्रों के अलावा अन्य संप्रदायों या धर्मो के भी रसास्वादु बन ज्ञानधन में अभिवृद्धि की। अत: आप हम सभी के लिए आदर्श है । आपका आचरण अनुकरणीय है।
(6) कुशल प्रशासक :- श्रद्धेय पंडित जी साहब आप अनुशासन के सशक्त प्रहरी रहे हैं । आप समय के पाबंद होकर आपने विद्यालय के छात्रों के जीवन में अनुशासन की अमिट छाप अंकित की है। जो आज भी हम सभी के जीवन का प्रमुख संबल है। आपने अपना सारा जीवन माँ सरस्वती को अर्पित कर विद्यालय एवं अन्य स्तर पर ज्ञान का प्रकाश फैलाया है। आपका यह उपकार कभी हम विस्मृत नहीं कर सकेंगे। आपने विद्यालय में साहित्य का चिंतन करते हुए श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर (म.प्र.) के प्राचार्य के पद को कई वर्षों तक सुशोभित किया है। साथ ही आपने उस पद की भूमिका का निर्वहन बड़ी सहजता एवं कुशल प्रशासक के रूप में किया । जो युगों - युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। ऐसी हमारी मंगलमय भावना आपके श्री चरणों में समर्पित है।
(7) साहित्य सृजेता :- आप जैन धर्म के साहित्य मनीषी होने के साथ आपने जैन साहित्य का सृजन किया है आपने इसी कड़ी में जैन साहित्य में जैन पूजा काव्य का सृजन कर डाक्ट्र रेट की मानद उपाधि से विभूषित होकर जैन समाज को नया मार्ग प्रशस्त किया है। आपकी यह अनुपम कृति जन जन के लिए कल्याणकारी होगी। जो हम सभी के जीवन का प्रमुख आधार होगी । आपकी अनुपम कृति सदा जीवंत रहे एवं युगों - युगों तक जन जन का मार्ग प्रशस्त करती रहेगी।
(8) विद्वत्वर्य :- परम श्रद्धेय पंडित जी साहब जैनधर्म की गुरु परम्परा के मूर्धन्य मनीषी थै । आपका जैन धर्म के मूर्धन्य विद्वानों में अग्रणीय स्थान रहा विद्वत्जगत के आप चांद थे , जो कि अपनी अद्भुत ज्ञानकला से जन जन को सुसंस्कारित किया है। उस उपकार को हम कभी नहीं भुला सकते । अत: आपका उपकार हमारे जीवन में चिरस्मरणीय रहेगा।
____ अंत में हमारी यही मंगल कामना है कि साहित्य मनीषी परम श्रद्धेय गुरुवर, स्व. श्री पंडित दयाचंद जी साहब की यह स्मृति स्वरूप कृति स्मृति ग्रन्थ सदा जयवंत हो । पंडित प्रवर स्व. श्री पं. दयाचंद साहित्याचार्य जी की पावन स्मृति में उनके चरण कमलों में अश्रु पूरित विनयांजलि अर्पित करता हूँ।
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व्यक्तित्व
जिनका आशीर्वाद हमें मिला अटल निश्चयी गुरुवर
अरविन्द कुमार जैन, प्रबंधक / परीक्षाधिकारी कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
विद्वान समाज रूपी मंदिर के स्वर्ण कलश है। कलश के बिना मंदिर की और विद्वान के बिना समाज की गरिमा में निखार नहीं आता । जैन दर्शन के वरिष्ठ मूर्धन्य विद्वान, जैन विद्या के अप्रतिम मनीषी, उच्चकोटि के सहृदय, लब्ध प्रतिष्ठित, समर्पित और जागरूक शिक्षक, आदर्श और सफल, क्षमा, मार्दव और चतुर्मुखी प्रतिभा सम्पन्न, अद्वितीय सौम्य व्यक्तित्व के कर्तव्यशील, जैन जगत के गौरव, जैन जग की अमूल्य निधि, मार्ग दर्शक, समता-ममता के अनुरंजक जीवन मूल्यों के प्रति आस्थावान, सरल, सहज एवं स्नेही विनम्रता की साकार जीवन्त प्रतिमूर्ति, जीवन पथ प्रदर्शक, प्रेरणा एवं स्फूर्ति के स्रोत, निश्चल और अध्ययनशील, कर्मयोगी, मधुर व्यवहारी, धर्मानुरागी, साहित्यसेवी, तत्वज्ञान के भण्डारी, महामनीषी, कर्मठ, गहरे और उदार, निर्लोभी, मुनि भक्त डॉ. (पं.) दयाचंद जी साहित्याचार्य सदा जयवंत रहेंगे। उनकी अप्रतिम सेवायें अविस्मरणीय योगदान तथा आत्मज्ञान का अखण्डदीप शाश्वत जलता रहेगा ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
गुरुवर का सानिध्य अविस्मरणीय है। शिष्य के साथ ही मुझे उनसे पुत्रवत् स्नेह मिला है जिसको मैंने आत्मसात किया । जिसको शब्दों में अंकित करना सूर्य के सामने दीपक जैसा है। उनके द्वारा किये गये उपकार का मैं सदैव ऋणी रहूँगा । गुरुवर आज हमारे बीच भले ही न हो लेकिन उनका आशीर्वाद व वात्सल्यपूर्ण स्नेह व मार्गदर्शन मेरी जिन्दगी में हमेशा साथ रहेगा ।
शत् शत् नमन / वंदन ।
गुरूओं के भी गुरू थे पंडित जी
डॉ. संजय शास्त्री, तिगोड़ा
मुझे याद है, जब मैं पंडित जी के द्वारा दिये गये परीक्षा मुख के सूत्रों को कंठस्थ कर के सुनाया करता था तो वह प्रसन्नता से कहते थे ठीक है इसे सअर्थ करो। उनके बोलने की शैली निराली थी कभी एक मिनिट किसी कार्य के लिए लेट हो गये तो पंडित जी कहा करते थे कि समय का ध्यान रखो समय बहुत कीमती है । एक मिनिट की कीमत एक-एक लाख रूपये बराबर मानो क्योंकि समय जाने के बाद लौटता नहीं। उनके गुण उनको जानने वालों के मन में सदा जीवंत रखेंगे। मुझे याद है सुबह चार बजे वर्णी स्मारक के कई चक्कर लगाया करते थे । विद्यालय में अध्ययनस्थ विद्यार्थियों को कहा करते थे कि सुबह थोड़ा
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ व्यायाम अवश्य करें। इससे आलस्य दूर होता है, शरीर स्वस्थ रहता है । अत: आलस्य त्यागकर प्रभु वंदना करो और फिर थोड़ा व्यायाम करो पढ़ाई में मन लगेगा। इस प्रकार कई बहुमूल्य बातें पंडित जी विद्यार्थियों को लगभग नित्य समझाते थे। उनकी यह बाते जो मानते गये वे आज निश्चित ही उच्चता के शिखर को छु रहे हैं। आपको अपने विद्यार्थियों से बहुत ही वात्सल्य था आपने अगर विद्यार्थियों को सजा भी दी तो वात्सल्य के साथ कई बार उस सजा का कारण उनने बताया है जिससे वे वह गलती पुन: न करें।
आपके जितने शिष्य भी थे वे सब आपके ऋणी है जो आपने उन्हें ज्ञान रत्न देकर मनुष्य बनाया , आपके ही कारण अज्ञानी पशु समान व्यक्ति भी विद्वतता को पाकर अपना अच्छा बुरा सोचने लगे अन्यथा उनका जीवन अंधकार मय ही रहता है।
आपका जैसा नाम था वैसे आपके भीतर गुण थे जिनने आपके नाम को सार्थकता दी आपका पूरा नाम पंडित दयाचंद जी था, साहित्याचार्य, आप अपनी अटूट ज्ञान पिपासा से बन गये। तदोपरान्त दो तीन ग्रंथों के शोध से आपको पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई और आप पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य बन गये आपने अपने जीवन में जिनवाणी की जो आराधना की है उसका प्रतिफल ही है जो लाखों जनों के हृदय में आप बसे हुए हैं। आपके द्वारा जो शिक्षा प्रदान की गई उसके प्रभाव से कुछ ऐसी हस्तियाँ भी जन्मी जिन्होंने पंडित जी की मेहनत को सार्थक कर दिया, जिनमें मुख्यता आचार्य 108 सुनीलसागर जी है जिन्होंने आचार्य श्री 108 आदिसागर जी अंकलीकर के तृतीय पट्टाचार्य 108 श्री सन्मतिसागर जी से मुनि दीक्षा लेकर तपोसाधना व ज्ञानाराधना करते हुये लगभग दस वर्ष बाद 25 जनवरी 2007 को औरंगाबाद में अपने गुरुवर के कर कमलों से आचार्य पद प्राप्त किया। उन्हें यह पद भार इसलिए दिया गया है कि वे भी अब स्व कल्याण के साथ-साथ पर कल्याण पर भी ध्यान दें। आचार्य श्री सुनीलसागर जी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी है। आपकी विभिन्न भाषाओं पर पकड़ है, प्राकृत, पाली, अपशृंश, संस्कृत के तो आप उत्कृष्ट विद्वान हैं। आपके प्रत्येक विधा में कई कला कृतियां है जिनमें से अञ्जप्पसारों, तत्वार्थ सूत्र, आत्मसारशतक, णीदीसंग्रहों, बसुनंदी श्रावकाचार, जैनाचार विज्ञान, जैन इतिहास, मेरी सौ कवितायें, पथिक, दूसरा महावीर आदि पैंतीस कृतियां हैं जो अत्यंत ज्ञानोपयोगी और समसामायिक है जो आपकी लेखनी से निश्रित होकर ज्ञान प्रकाश कर रही है।
इसके उपरांत मुनि श्री 108 विभव सागर जी महाराज यह भी उच्च कोठि के विद्वान साधु हैं जिन्होंने पंडित जी से अध्ययन किया यह आचार्य श्री 108 विरागसागर जी से दीक्षित है। इनके बाद मुनि श्री मार्दवसागर जी महाराज जो आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के संघस्थ है इसी संघ में श्री पदमसागर जी मुनि महाराज भी पंडित जी के पूर्व शिष्य रहे हैं। आचार्य श्री सन्मतिसागर जी ज्ञानभूषण जी के शिष्य श्री क्षुल्लक 105 ध्यानभूषण जी भी आपके पूर्व शिष्य थे। पंडित जी एक महान विद्वान रत्न थे, जिन्होंने न जाने कितने, पंडित कितने साधु, कितने लेखक , कितने प्रवचनकार, ज्ञान पयोनिधि से समाज को दिये हैं। ऐसे पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य जी को मेरा शत्-शत् प्रणाम ।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
एक आदरणीय सत्पुरुष का व्यक्तित्व
प्रतिष्ठाचार्य पं. कमल कुमार जैन शास्त्री
साहित्याचार्य गोइल्ल कोलकाता प. बंगाल परमादरणीय डॉ. पंडित श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य का नाम समाज के उन महान लगनशील ज्ञानियों में से प्रमुख हैं जिन्होंने श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय में प्राचार्य पद पर रहकर विद्यालय में सेवाएँ देते हुए अपनी लेखनी और वाणी से जैन जगत में ख्याति प्राप्त की । मैं जिस समय विद्यालय में अध्ययनरत था तभी सन् 1988 से बराबर उनके ज्ञान स्तम्भों का रसास्वादन करता रहा हूँ। आपने अपने अनेकानेक आलेखों के माध्यम से जैन समाज को ज्ञान के क्षेत्र में नई दिशा प्रदान की।
यह निर्विवाद सत्य है कि उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ज्ञान साधना में व्यतीत किया यह प्रत्यक्ष दर्शी मैंने देखा ।उनके त्याग, आगम श्रद्धा, लगन व उनकी सहनशीलता की प्रशंसा कहा तक की जावे, उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करके समाज को सच्चा ज्ञान दिया।
स्व. वयोवृद्ध पंडित जी के सीधे - सादे व्यक्तित्व को देखकर यह परिचय देना स्वाभाविक हो जाता है कि आप बड़े अनुभवी, शास्त्रज्ञ, अनुशासन प्रिय रहे है। पंडित जी सादगी की प्रतिमूर्ति थे, आप निर्भीक नि:स्वार्थ निर्लोभ, सच्चरित्र तथा सहृदय पुरुष थे।
"स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते" वाली कहावत पंडित जी के जीवन में चरित्रार्थ हो गई वृद्ध अवस्था में भी आपकी विशिष्ट कर्मठता देखकर सबको आश्चर्य मिश्रित हर्ष होता था कि प्रमाद आपको छूता भी नहीं था इसी कारण से आपने आयु के उत्तरार्ध में शोध परक अध्ययन से मानद डाक्ट्ररेड की उपाधि भी प्राप्त कर ली। जिनवाणी की सेवा व उद्धार के लिए प्रतिदिन कई घण्टों श्रम करते रहते थे। आपने अपना सम्पूर्ण जीवन जिनवाणी के स्वाध्याय में समर्पित कर दिया । आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि भाषाओं के मर्मज्ञ थे आपका आदर्श कृतित्व और व्यक्तित्व समाज के लिए प्रेरणास्पद है इनकी वाणी में सत्यता मधुरता, गम्भीरता एवं रोचकता थी। एक बार जो कोई उनके प्रवचन सुन लेता था, वह अप्राणित नहीं रह पाता था। उनकी कथनी एवं लेखनी में अनेकांत पक्ष झलकता था। उन्होंने कभी मतभेद जैसी बात नहीं की निश्चय पक्ष और व्यवहार पक्ष का सापेक्ष कथन ही किया | आगम की बात पर पूर्ण श्रद्धा करते हुए उन्होंने कभी कुतर्क को महत्व नहीं दिया । अंत मैं उनकी स्मृति में प्रकाशित ग्रन्थ "साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ " की सफलता की कामना करता हुआ स्व. आदरणीय डॉ. पंडित दयाचंद जी जैन साहित्याचार्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ एक मनीषी विद्वान का व्यक्तित्व
पं. अजित कुमार शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य
शांति मोहल्ला दिल्ली जिस प्रकार इत्र की खुशबू अपने आप फैलती है उसी प्रकार एक ज्ञानवान, चारित्रवान विद्वान की ख्याति अपने आप पूरी दुनिया में फैलती है । डाक्टर पंडित श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य लब्ध प्रतिष्ठित मूर्धन्य विद्वान थे आपका ज्ञान, शैली, वक्तृत्व कला अनोखी थी। मैंने अपने अध्ययन काल में पंडित जी का स्नेह प्रेम देखा है जब भी हम लोगों को कोई समस्या होती थी, आदरणीय पंडित जी साहब से बताते थे तो आप उस समस्या का समाधान तुरंत ही करते थे। आप इस युग के महान आध्यात्मिक विद्वान थे। आप चौबीसों घण्टे स्वाध्याय, मनन, चिंतन, ध्यान में अपना मन लगाते रहते थे आपने जीवन काल का एक मिनट भी व्यर्थ नहीं जाने दिया, चूँकि आप जानते थे कि दुनिया एवं जीवन पानी की बूंद के समान है इसलिए आपने न तो ज्यादा परिग्रह इकट्ठा किया, न ही ज्यादा मोह किया इसका उदाहारण हमारे सामने कु. किरण बहिन जी है जिन्होंने वैवाहिक बंधन में सुख न मानकर आत्मकल्याण तथा अपने पिताजी की सेवा में ही अपना जीवन व्यतीत करना अच्छा समझा । इस भौतिकता के युग में आपने आत्मध्यान एवं ज्ञान के द्वारा जन जन को उपदेश देकर तथा प्रेरणा के साथ मार्गदर्शन दिया। आप इस युग के महान विद्वानों में एक थे। श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय रूपी वृक्ष को हरा भरा बने रहने में आपने जल सिंचित कर अपना पूर्ण सहयोग दिया। लगभग आपने 55 वर्षों तक विद्यालय की सेवा करके समाज पर एवं विद्यार्थियों पर बहुत बड़ा उपकार किया जिसको हम लोग तथा समाज युगों - युगों तक नहीं भूलेंगे विद्यार्थी मिट्टी के समान होता है लेकिन कुम्भकार उसको पीट - पीट कर जब अपने हाथ का सहारा लगाता है तथा उसको एक सुन्दर से मटका का रूप दें देता है उसी प्रकार आपने हम छोटे से विद्यार्थियों को शाम- दाम दण्ड भेद के द्वारा उस योग्य कर दिया कि आज हम कहीं भी रहें कभी समाज के सामने ज्ञान के विषय में झुकना नहीं पड़ता। आपके द्वारा लाखों विद्यार्थियों को ज्ञान, शिक्षा प्राप्त हुई जो अनेक उच्च पदों पर कार्यरत है तथा अनेकों समाज की सेवा कर रहे है । आप एक वात्सल्य की मूर्ति थे जो भी आपके सानिध्य में रहा है उसको सही दिशा देने में आप अग्रसर रहते थे।आपको समाज के द्वारा अनेक पुरुस्कारों से विभूषित किया गया तथा समाज के द्वारा भी आपको अनेकों पुरस्कारों से पुरस्कृत किया गया । यह आपके ज्ञान का सम्मान था अनेकों साधुओं को आपने गुरु बनकर अध्ययन कराया तथा उनको मोक्ष मार्ग पर चलने में अपना सराहनीय सहयोग दिया। डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से “जैन पूजा काव्य" के महत्व पर आपने शोध कार्य करके डाक्टरेड उपाधि प्राप्त की है। यह भी समाज के ऊपर बहुत बड़ा उपकार है तथा अपने आप में एक गौरव का विषय है ।
हम लोगों को आपका मार्गदर्शन जीवन भर याद रहेगा तथा हम लोग आपके ऋणी रहेंगे जब तक हम लोगों का जीवन है आपकी गौरवगाथा गाते रहेंगे । आज जहाँ भी हो जिस गति में हो हम लोगों को आशीर्वाद देते रहेंगे । हम सभी सदगति की कामना करते है।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे आदर्श जीवन निर्माता पंडित जी
___ पं. श्रवण कुमार जैन
प्रतिष्ठाचार्य , झण्डा चौक, बण्डा, जिला सागर परम आदरणीय डॉ. पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य जी का जीवन एक आदर्श जीवन रहा है । आजीवन साहित्य साधना में निरत अनवरत ज्ञानदान की दिशा में कार्यरत पंडित जी जैन समाज के मूर्धन्य विद्वान थे । प्रत्येक विद्यार्थी के लिए उनका जीवन प्रेरणा का स्त्रोत और वात्सल्य से आप्लावित था | वे अपने विद्यार्थियों के प्रति तन मन धन से समर्पित रहते थे । सदैव साहित्य साधना के क्षेत्र में कार्य करने वाले प्रत्येक विद्वान और विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते रहते थे गहन ज्ञान गरिमा से मंडित पंडित जी की महानता को मुझ जैसा अल्पज्ञ व्यक्ति व्यक्त करने में नितांत असमर्थ है । विद्वद्वर्य पंडित जी के जीवन को मैं इस बात का उदाहरण मानता हूँ कि स्वाध्याय और चिंतन से उपलब्ध ज्ञान की परिपक्वता और प्रभाव की कोई सीमा नहीं है। यह पंडित जी की विचक्षणता का प्रमाण है। कि पारम्परिक परिपाटी के विद्वान होते हुए भी ज्ञान और शोध की नई परिपाटी को अपना कर आपने वृद्धावस्था में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त कर डाक्ट्ररेड की पदवी प्राप्त की, आपका शोध प्रबंध “जैन पूजा काव्य एक चिंतन" सागर विश्वविद्यालय से इस उपाधि के लिए सम्मानित किया गया । पंडित जी ने श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय की सेवा में इसकी उत्तरोत्तर प्रगति में अपना सारा जीवन लगा दिया। सच्चे अर्थो में पंडित जी दीपक की तरह स्वयं को समर्पित कर समाज को निरंतर प्रकाश पुंज बिखेरते रहे। अध्यापन, अनुशासन , प्रशासन, चिंतन, सृजन, लेखन, भाषण एवं प्रवचन के माध्यम से पंडित जी ने समाज में जो ज्ञान का अखण्ड दीपक जलाया है वह अद्वितीय एवं अविस्मरणीय है।
__पंडित जी जैन सात्विक सदाशयी, सद्भावपूर्ण तथा सर्वमंगलकारी व्यक्तित्व के धारी समर्पित निष्ठावान तथा मनस्वी पुरुष संसार में विरले है जिन्होंने नवीन अनुसंधान करके सारश्वत क्षेत्र को भास्वर
और उज्ज्वल बनाया। प्राय: पंडित जी पढ़ाते पढ़ाते लेखन कार्य में और लेखन कार्य करते करते अध्यापन कार्य में लगे ही रहते थे। उनके अभीक्ष्ण ज्ञान उपयोग के हम लोग प्रत्यक्ष दर्शी है पंडित जी के व्यक्तित्व में यह एक बड़ी विशेषता रही है कि आप जीवन भर कभी पक्ष विपक्ष में नहीं पड़े। हमेशा आगम और न्याय संगत बात का ही पक्ष रखा। जिसका परिणाम है कि आप समाज के प्रत्येक क्षेत्र में और प्रत्येक वर्ग में आप समान भाव से आदर और सम्मान के पात्र रहे । श्रुत ज्ञान के ऐसे प्रकृष्ट आराधक माननीय पंडित जी का श्रद्धाभिभूत हृदय से कोटिशः वंदन करते हुए उनके दिवंगत चरणों में हम विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते है।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अलौकिक गुणों के प्रकाश पुञ्ज थे पंडित जी
___डॉ. सुधीर जैन, एम.डी. (मेडीसिन)
मेडीकल स्पेश्लिस्ट, जिला चिकित्सालय, सागर पूज्य पंडित जी से मेरा सानिध्य उनके अंतिम करीब 15 वर्षों तक रहा। उनके मार्ग निर्देशन में मैंने शास्त्री, सिद्धांत रत्न और प्रतिष्ठाचार्य की परीक्षायें पास की। इन 15 वर्षो में मैंने पंडित जी को एक अत्यंत शांत स्वभावी और वात्सल्य से परिपूर्ण पाया । कई बार पंडित जी की चिकित्सा करने का अवसर आया । मैं हर बार उनका उपचार करते समय उनके शांत स्वभाव से रोमांचित हो उठता था। हर बार मैंने उन्हें मुनियों जैसा शांत देखा । वे बीमारी के किसी भी अवसर पर न बीमारी से दुखी हुये और न ही शीघ्र स्वस्थ होने के लिये व्यग्र । एक बार उनसे मैंने इस शांति का कारण पूछा तो उन्होंने कहा था कि "बीमारी कर्म का उदय है, अपना समय पूरा करके निकल जायेगी" दुखी होने से तो वह और गाढ़ा बंध जायेगा। उपचार की व्यवस्था अपना प्रयास है सो कर लेते है । यह पुरूषार्थ जैसा है। रीतिरिवाज है कि बीमार होने पर उपचार कराया जाता सो कर लेते हैं। आज मैं सोचता हूँ कि पंडित जी न केवल कर्म सिद्धांत को जानते थे बल्कि जीने की कला भी जानते थे।
ऐसे ही उपचार के वक्त मैंने उनकी सहजता और आज्ञाकारिता देखी । मैंने जो दवा, परहेज आदि जैसा-जैसा उन्हें जब कभी भी बताया वो उसे अपनी अनुकूलता के साथ पूरा करते रहे । कभी भी उन्होंने चिकित्सक या उसकी चिकित्सा में कोई शंका नहीं की । गजब का विश्वास । मुझे आज भी लगता है कि उनका शांत स्वभाव और उनका विश्वास ही उन्हें हर बार आरोग्य प्रदान करता रहें, दवा लिखना और इलाज करना तो डॉक्टर का रीति रिवाज है जो मैं करता रहा। काश पंडित जी जैसी धारणा हर मरीज की हो जावे तो बीमारी तो अपनी जगह अपने समयानुसार ठीक हो ही जावेगी पर मरीज को दुख और पुन: कर्मबंध तो न हो । पंडित जी को हमेशा ही मैंने कुछ चिंतन करते हुये देखा । यहाँ तक कि वो कहीं आते जाते हुये भी कभी अपना ध्यान यहाँ वहाँ नहीं भटकाते थे। मानों बता रहे हों कि मैं जो चल रहा हूँ या अन्य कोई कार्य कर रहा हूँ यह सब स्वत: जरूरत अनुसार हो रहा है । मैं और मेरा ध्यान तो मेरे लक्ष्य की ओर है। ...
मैं अन्य विद्यार्थियों जैसा तो नियमित कक्षाओं में नहीं पढ़ा पर अक्सर ही पंडित जी से जब चाहे मिलता रहता था । कभी भी उन्होंने मना नहीं किया और हर बार अपना अन्य कार्य छोड़कर भी मुझे मार्गदर्शन दिया । वे कहते थे कि तुम्हारा समय कीमती है। तुम अपनी इस डॉक्टरी लाइन में रहकर भी समय निकाल कर मेरे पास आये हो मेरा कार्य तो मैं बाद में भी कर लूंगा । उनकी प्रसन्नता उनका स्नेह उनकी
आँखों और मुस्कान से छलकने लगता था । अब पंडित जी की अनुपस्थिति में भी उनका रूप आँखों में बसा है। एक बार चाँदखेड़ी में परम पूज्य मुनिपुंगव 108 श्री सुधासागर जी महाराज ने मंदिर के गर्भालय से अद्वितीय जिनविंब निकाले थे तो मैं वहाँ जा रहा था। सागर रेल्वे स्टेशन पर पंडित जी मुझे मिले और कहा"डॉक्टर साब आप सिद्धांतरत्न की परीक्षा में प्रथम आये हैं और आपके लिये इंदौर से 200/- का पुरस्कार
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आया है। आपको पुरस्कार मिला है और मुझे बेहद खुशी।" ऐसा अपनापन और वात्सल्य पंडित जी से मुझे मिला।
पंडित जी ने शाहपुर के मंदिर जी में बिराजमान करने के लिए एक चांदी की पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा जी प्रतिष्ठित करायी थी जिन्हें लेकर मैं पंडित जी व अन्य लोगों के साथ शाहपुर गया था तब भी मैंने पंडित जी को सारे रास्ते भर मंत्र जपते हुये देखा । भगवान की अगवानी के लिये पूरा शाहपुर गाँव के बारह आया हुआ था । भव्य शोभायात्रा के साथ भगवान मंदिर जी पहुँचे । अपरान्ह में प्रतिमा जी के अभिषेक के बाद विधान हुआ। शाम को पंडित जी ने मुझसे कहा "डॉक्टर साब मेरे जीवन का यह अंतिम कार्य था जो आज पूरा हो गया। अब कोई इच्छा मन में शेष नहीं रही हैं।" ऐसा सुनकर मैं अचरज में डूब गया क्योंकि उस दिन से पूर्व और बाद में आज तक मैंने कभी भी न ऐसा देखा और न ही सुना कि किसी के जीवन के कार्य पूरे हुये हों । कोई अपने मन को इच्छारहित महसूस कर सका हो और दूसरे से कहे कि अब मन में कोई इच्छा शेष नहीं रही। मुझे आगे भी ऐसी उम्मीद नहीं है कि कभी कोई और पंडित जी जैसे शब्द कहेगा कि आज उसके जीवन का अंतिम कार्य पूर्ण हुआ। ऐसा कहना तो केवल पंडित जी जैसे व्यक्तित्व द्वारा ही संभव है वरना तो जीवन पर जीवन बीतते जाते हैं पर व्यक्तियों के कार्यो और इच्छाओं की सूची का अंत नहीं आता । पंडित जी की यह बात सुनकर उस दिन भी मेरी आँखों में आँसू आ गये थे आज उस बात को लिखते हुये भी मेरी आँखें भर आई हैं। मैं सोच रहा हूँ कि मेरे जीवन में भी पंडित जी जैसी समता और शांति की वो घड़ी न जाने कब आयेगी जब मैं भी कहूँ कि बस आज मेरे जीवन का अंतिम कार्य पूर्ण हुआ। मैं पंडित जी के अंतिम समय में उनके पास ही था । प्रात: करीब 7 बजे किरण दीदी ने फोन से मुझे मोराजी बुलाया जहाँ मैंने देखा कि पंडित जी आँखे बंद किये लेटे हैं। न किसी से बोलते हैं और न किसी की सुनते हैं । मैं समझा पंडित जी गंभीर हालत में हैं और शायद मूर्छित अवस्था में है तो मुझे काफी दुख हुआ और मैंने किरण दीदी को कहा भी कि मुझे जैसा अब बुलाया हैं ऐसा रात में या और पहले क्यों नहीं बुलाया? तो सुषमा दीदी बोली चलो अब देखकर बताओ कि पंडित जी की हालत कैसी है ? और क्या करना है ? मैंने पंडित जी की जाँच पर पाया कि उनकी नाड़ी, बी.पी. आदि सब ठीक है, मात्र पंडित जी न जाने क्यों आँखे बंद किये हुये है।
मैंने पंडित जी से 2-4 बार बात की, कुछ कुछ पूछा, उनकी नाड़ी, व्लडप्रेशर आदि उन्हें बताया | उनसे पूछा कि पंडित जी आपको क्या तकलीफ है आप बतायें । आपका शरीर तो स्वस्थ है आप आँखे खोलिये । पर इतने सब के बावजूद भी जब उन्होंने आँखे नहीं खोली तो मुझे आभास होने लगा कि यद्यपि पंडित जी अभी चैतन्य है पर शायद अपना अंत समय निकट जानकर इस संसार से नजर मोड़ चुके हैं। वे अपने सभी परिग्रह त्यागकर सारे मोह के बंधन तोड़ एक अलग ही रास्ते पर पंचम गति की ओर चल पड़े हैं। मैंने तत्क्षण ही सुषमा दीदी से कहा कि दीदी हमें तत्काल ही पंडित जी को आचार्यश्री के पास कुण्डलपुर ले चलना चाहिए। परंतु पंडित जी का मन तो शायद पूर्व से ही बड़े बाबा और छोटे बाबा के चरणों में पहुँच
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ चुका था इसलिये उनके शरीर को कुंडलपुर न ले जा पाये। करीब 9-9/बजे पंडित जी की नाड़ी क्षीण होने लगी और ब्लडप्रेशर भी क्रमशः कम होने लगा। उपस्थित सभी लोग अपनी अपनी समझ अनुसार उपक्रम किये जा रहे थे पर पंडित जी का ध्यान इन बातों की ओर कतई नहीं गया। उनने तो जो आँखे बंद की तो फिर खोल कर इस संसार की ओर नहीं देखा। तब तक अन्य डाक्टर व महेश विलहरा, गुलाब कक्का जी, सिंघई जी, मंत्री क्रांतकुमार सराफ बगैरह सभी लोग आ गये और जैसे जैसे पंडित जी की खबर बाहर-बाहर फैली, लोग मोराजी की तरफ दौड़ने लगे। शीघ्र ही मोराजी परिसर लोगों की भीड़ से भरने लगा, सभी लोग णमोकार मंत्र पढ़ने लगे हर तरफ उदास आँसुओं बोझिल आँखे दिखने लगीं। ऐसे माहौल में हमारे पंडित जी ने 12-40 बजे अंतिम सांस ली, और वे उस जीवन की मृत्यु के रोग से मुक्त हो गये। पूरे परिसर में हर चेहरे-चेहरे पर आँसुओ की बरसात होने लगी। उनके दिवंगत चरणों में श्रद्धासुमन समर्पित उन जैसा पंडित मरण सभी का हो, इसी विनत भावना के साथ।
दीप्तिमान नक्षत्र
कुन्दन लाल जैन
आदिवासी क्षेत्र अधीक्षक, रायसेन म.प्र. जैसे आकाश में नक्षत्र अपनी दीप्ति फैलाते है अर्थात् अपनी कांति से सुशोभित होते है, वैसे ही पंडित जी अर्थात् मेरे श्वसुर साहब अपनी कीर्ति से अर्थात् अपने व्यक्तित्व से सुशोभित थे। उनका अंतरंग दर्पण जैसा.स्वच्छ था उनके अंदर में छल - कपट जैसे कोई विकार नहीं थे। उनका व्यक्तित्व अपनी ज्ञान गरिमा से सुशोभित था और साथ में परिणामों की सरलता उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा देती थी। आज के समय में ऐसी सहजता होना बहुत दुर्लभ है। मैंने आज तक उनकों श्वसुर के रूप में कभी नहीं देखा, हमारी दृष्टि मैं तो वे एक महान विद्वान थे उसी विद्वता की दृष्टि से मैने उनको देखा है । दुनियां में अनेकों घर में धन-सम्पत्ति अनेक प्रकार का वैभव, सभी परिवार संबंधीजन देखने को तो मिल जाते हैं, परन्तु ऐसी महान व्यक्तित्व वाली धर्म प्रतिभा सम्पन्न मानव मूर्ति का मिलना बहुत दुर्लभ था वे हमारे श्वसुर नहीं जीवन की एक निधि थे। उनके दिवंगत होने पर हमारे हृदय में जो दुख हुआ है उसका वर्णन हम लेखनी से नहीं कर सकते, बस यही एक कामना है कि वह महान आत्मा भव भव में सद्गति को प्राप्त होकर अंत में मोक्ष को प्राप्त करे।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे मार्गदर्शक पण्डित जी
वीरेन्द्र कुमार शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य
परवारपुरा, नागपुर (महाराष्ट्र) आप सागर मण्डलान्तर्गत धार्मिक नगरी शाहपुर के धर्म शिरोमणि श्रावक पं. भगवान दास जी भायजी के पुत्र थे। आपके पाँचों भाई श्रुतपारङ्गत विद्वान थे। आप जैन दर्शन के तत्ववेत्ता एवं देव शास्त्र गुरु पर प्रगाढ़ श्रृद्धा रखते थे। आप श्री गणेश दि. जैन संस्कृत विद्यालय के स्नातक अध्यापक एवं प्राचार्य भी रहे है । पंडित जी वर्णी जी के अनन्य भक्त थे।
सरस्वती पुत्र - आप सरस्वती के वरद पुत्र थे , सरस्वती आपके कंठ में विराजमान थी।
निर्भीक प्रखरवक्ता - पंडित जी की प्रवचन शैली जन जन को प्रभावित करने वाली थी। आप जिनागम के रहस्य को निर्भीकता से अपनी ओजस्वी वाणी से स्पष्ट करने में सिद्ध हस्त थे।
विद्यावारिधि - आपने अपने यशस्वी पिता से जैनागम के गूढ रहस्यों को ज्ञातकर जनमानस को उसका ज्ञान वितरित कर लाभान्वित किया था।
विद्वत्ता की खान - आप गंभीर शास्त्रवेत्ता, पुरानी पीढ़ी के आगम सम्मत मनीषी, गंभीर विद्वान थे। गूढ से गूढ विषय को सरल पद्धति से समझाने की कला आपकी विद्वत्ता एवं योग्यता की परिचायक है।
कृतज्ञता ज्ञापन - पंडित जी के जीवन में कृतज्ञता कूट कूटकर भरी थी। उदाहरण स्वरूप आप 2003 में समाज द्वारा सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त हो गये थे। फिर भी विद्यालय के प्रति वे निष्ठावान एवं कृतज्ञ थे अत: उन्होंने जीवन के अंतिम क्षणों (जनवरी 2006 तक) नि:शुल्क शिक्षण कार्य कर महत्वपूर्ण सेवा की है।
आपने विद्यालय में अनेक पदों को सुशोभित करते हुए, आपके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थीगण भारत वर्ष के कौने कौन में जैन शासन की महती धर्म प्रभावना कर रहे है वे सभी विद्यार्थी आपके प्रति कृतज्ञता को शब्दों में व्यक्त करने में असमर्थ है। आप स्वर्गस्थ होकर कहीं भी विराजमान रहें लेकिन आपकी स्मृतियाँ सभी विद्यार्थी वर्ग को हमेशा स्मरणीय रहेंगी। हम सभी विद्यार्थी आपका गुणानुवाद करने में चिरकाल तक समर्थ नहीं है। मैं पंडित जी के प्रति कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मेरे जीवन को एक फुलवारी की तरह संवारा है और मुझे विद्यालय में अपने साथ अध्यापन कार्य में रखकर सहयोग प्रदान किया है। तथा आज मैं जिस ऊँचाई पर हूँ, आदरणीय पंडित जी की देन है और मैं चिरकाल तक पंडित जी का ऋणी रहूँगा । मैं पंडित जी के चरणों में कोटि कोटि वंदन करता हुआ अपनी विनयांजलि समार्पित करता हूँ।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ गुरु के प्रति कृतज्ञता
प्रकाश शास्त्री एम.कॉम,
वर्धमान कालोनी, सागर (म.प्र.) आदरणीय पंडित जी श्री दयाचंद्र जी साहित्याचार्य जी के बारे में कुछ कहना मतलब सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर होगा। वर्ष 1976 में जब में ग्राम सागौनी उमरिया जिला - सागर से श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में अध्ययन हेतु आया था। उसके पूर्व उक्त विद्यालय के बारे में कोई भी जानकारी नहीं थी। अचानक आना हुआ । तथा एडमीशन होने के पश्चात विद्यालय में आदरणीय पन्ना लाल जी साहित्याचार्य जी, पं. माणिकचंद जी तथा पं. दयाचंद जी आदि विद्वानों का अद्भुत संगम देखने को मिला जहाँ साहित्य, दर्शन, एवं न्यायाचार्य की शिक्षा उक्त विद्वानों द्वारा दी जाती थी | समय बीतते देर नहीं लगती एक समय ऐसा भी आया जब मुझे भी उक्त विद्वानों के द्वारा प्रथमा उत्तर मध्यमा एवं शास्त्री की शिक्षा दी गई। आदरणीय पंडित जी श्री दयाचंद साहित्याचार्य “यथा नाम तथा गुण" की सूक्ति पर खरे उतरते थे। हम लोगों को पंडित जी द्वारा प्रातः काल की शुभ बेला में 4:30 बजे से अध्यापन कार्य करवाते थे । तथा सायं 5 बजे से पुन: अध्यापन कार्य करवाते एवं बड़े ही सुन्दर ढंग से समझाते तथा लिखवाते उनका व्यक्तित्व अद्भुत था पंडित जी कभी कभी गुस्सा होते किन्तु अगले ही पल बड़े प्रेम से कहते जो समझ में न आये वह पूछ लो। इस तरह से काफी समय हम लोगों को पंडित जी के सानिध्य में अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ कई बार पंडित जी के साथ पर्युषण पर्व में बाहर जाने का भी अवसर प्राप्त हुआ वहाँ पर भी पंडित जी के द्वारा बताया जाता था कि समाज में कैसे प्रवचन देनाहै पंडित जी हम लोगों को छात्रहितकारिणी सभा द्वारा बोलने एवं लिखने के बारे में बताते थे। जो बोलने से डरते उन्हें बताते थे कि कैसे और क्या बोलना। हम जब विश्वविद्यालय सागर में एम.कॉम तथा विद्यालय में शास्त्री की पढ़ाई कर रहे थे उसी समय हमने मिनी पी.एस.सी. की परीक्षा दी उसका काफी समय पश्चात परीक्षाफल आया किन्तु उस समय हमने ध्यान नहीं दिया सोचा अभी तो पढ़ रहे है आगे देखा जायेगा कि अचानक पंडित जी एक नियुक्ति पत्र लिये मुझसे कहने लगे कि प्रकाश चंद देखो यह किसका है मैंने देखा रोल नं. याद नहीं था और इस नियुक्ति पत्र पर नाम नहीं है तो मैंने पंडित जी से कहा कि मैं देखकर बताता हूँ अपने साथियों से पूछा तथा उसके पश्चात मैंने अपना रोल नं. पंडित जी को बताया। तो वह नियुक्ति पत्र मेरा निकला, वह क्षण मेरे जीवन का सुनहरा एवं अद्भुत क्षण था जब मेरे लिए नौकरी का नियुक्ति पत्र पंडित जी के हाथ से प्राप्त हुआ जिन्होंने लगभग आठ वर्ष हमें पढ़ाया था। क्लास में छात्र पहुँचे अथवा नहीं किन्तु पंडित जी समय पर पहुँच जाते थे। समय उनका इंतजार करता किन्तु वे समय का इंतजार नहीं करते थे। किस्मत से मेरी नियुक्ति भी सागर में हो गयी। तथा काफी समय से मैं यही पर पदस्थ हूँ और प्राय: पंडित जी के सम्पर्क में बना रहता था। मैं उदासीन आश्रम जाता तो पंडित जी वहा सुबह 5 बजे से स्वाध्याय करते एवं कराते थे। कई बार हाल चाल पूछते तब बड़ा सुखद लगता था। कि एक महान विद्वान
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जो कभी भी अपने पढ़ाये विद्यार्थियों को नहीं भूलते और जब भी समय मिलता था तो पंडित जी के पास जाता। उनके समाचार याद करता था। 87, 88 वर्ष की उम्र में भी पंडित जी पैदल उदासीन आश्रम जाते थे। एवं अपनी वाणी से लोगों को स्वाध्याय कराते थे पंडित जी उम्र के हिसाब से अस्वस्थ भी कभी कभी रहते थे। किन्तु अपनी दिन चर्या में बदलाव कभी नहीं आने दिया। वह दिन मोराजी में भगवान बाहुबली के मस्तकाभिषेक का दिन था । सौभाग्य से मैं भी गया था कि अचानक मालूम पड़ा कि पंडित जी का स्वास्थ्य ज्यादा खराब है। उन अंतिम क्षणों में पंडित जी की सेवा का अवसर मिला तब एक सुखद अनुभूति का एहसास हुआ कि पंडित जी में कितनी गंभीरता है जो अपने अंतिम क्षणों में इस नश्वर पर्याय को छोड़ने के लिए ईश्वर आराधना में ध्यान लगाये है। पंडित जी का देहावसान एक समाज एवं देश के लिए बहुत बड़ी क्षति है किन्तु उनके द्वारा पढ़ाये गये छात्र आज भी पूरे देश में सम्मान जनक पदोंपर तथा अच्छे - अच्छे व्यवसायों में कार्यरत है। ऐसे महान गुरु एवं विद्वान के बारे में मुझे कुछ लिखने का अवसर मिला जिसे मैं अपना महान सौभाग्य समझता हूँ ऐसे महान गुरु के प्रति मेरी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित है।
स्वाति नक्षत्र की बूंद के अद्वितीय मोती
राकेश जैन "रत्नेश"
वर्णी कालोनी सागर (म.प्र.) सागर जिले के शाहपुर ग्राम के पण्डित परिवार में जन्मे पं. जी अपने नाम के अनुरूप दयावान एवं क्षमाशील थे। विनम्रता, सहजता, सरलता सादगी की प्रतिमूर्ति थे। यह एक सुखद संयोग था या पूर्व जन्म के संस्कार से एक ही परिवार में भगवान दास जी के घर आँगन में मथुरा देवी की कोख से पाँच सरस्वती पुत्र उत्पन्न हुए। जो इस धरा पर रत्न की भांति चमके । पाँचों पुत्र अपने क्षयोपशम से जैन धर्म के उत्कृष्ट विद्वान बने । जिन्होंने उस ज्ञान की ज्योति को स्वयं प्रकाशित किया एवं घर, समाज को भी आलोकित किया। पूज्य वर्णी जी की प्रेरणा से इनके पिताजी ने अपने तीन ज्येष्ठ पुत्रों को जैन समाज में जैन धर्म का प्रचार प्रसार हेतु समर्पित कर दिया । उन्हीं में तृतीय पुत्र पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य थे। उनका जीवन बहुत संघर्षमय रहा फिर भी धन लक्ष्मी के प्रति उनका कोई मोह नहीं था तभी तो उन्होंने अल्प वेतन में भी पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी द्वारा संस्थापित इस संस्कृत महाविद्यालय में सुपरिडेटेन के रूप में एक वर्ष एवं 55 वर्ष तक अध्यापन का कार्य किया। जिसमें 20 वर्ष तक विद्यालय के प्राचार्य पद को भी सुशोभित किया। इतने अधिक समय तक किसी एक संस्था से जुड़े रहना यह उनकी उस संस्था के प्रति गहरी निष्ठा को दर्शाती है जो अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है । वर्ष 2001 में संस्था की ओर से पंडित जी
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ को 51000 रुपये की नगद राशि एवं विद्वत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया गया। इसी वर्ष से पंडित जी ने अपने वेतन का त्यागकर विद्यालय में आजीवन नि:शुल्क सेवा करने का संकल्प लिया जो उनकी निस्पृहता का परिचायक है। . पंडित जी का जीवन मान अपमान से परे था । पंडित जी ऐसे विनम्र थे कभी किसी से ऊँची आवाज में बात नहीं करते थे उनकी गर्दन सदैव झुकी रहती थी। इसलिए उनके शरीर पर भी इसका प्रभाव पड़ा और उनकी गर्दन झुकने लगी जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि वह नम्रीभूत होकर झुक रही हो । वह प्रतिदिन भक्ति में तन्मय होकर एक डेढ घंटे खड़े होकर पूजन किया करते थे। इसलिए अंतिम समय में भी संस्था के जिनालय में भगवान बाहुबली स्वामी का मस्तकाभिषेक का कार्यक्रम पूर्ण नहीं हो गया, तब तक उनकी सांसे चलती रही कि शायद हमारी श्वांस रुकने से कहीं अभिषेक महोत्सव में व्यवधान उत्पन्न न हो जाये इसलिये अभिषेक पूर्ण होने के पश्चात ही उन्होंने इस संसार से प्रयाण किया । पंडित जी श्रेष्ठ साहित्य मनीषी थे तभी तो उनके द्वारा लिखा गया शोध ग्रन्थ जैन पूजन महाकाव्य एक चिंतन पर डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर द्वारा पीएच. डी उपाधि प्राप्त की और जिसके प्रकाशन का गौरव भारतीय ज्ञान पीठ नई दिल्ली जैसी उत्कृष्ट साहित्य संस्था ने प्राप्त किया। पंडित जी का हमारे ऊपर बड़ा ही धर्मानुराग और स्नेह था तभी तो उन्होंने हमें स्वयं कमरे पर बुलाकर जैन पूजन महाकाव्य एक चिंतन की एक प्रति अपने हाथों से भेंट की यह मेरा परम सौभाग्य है। मेरी ऐसी भावना हुई कि उनकी इस कृति पर मैं उनसे हस्ताक्षर करवा लूं लेकिन यह बात अधूरी रह गयी।
अंत में मैं श्रद्धेय पंडित जी के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन समर्पित करते हुए अपनी भाव भीनी श्रृद्धांजलि अर्पित करता हूँ। और यही भावना भाता हूँ कि उनकी आत्मा को सद्गति और उनकी स्मृतियों की कीर्ति दिगदिगंत तक फैली रहे ।
ओम शांति ।
पंडित दयाचंद साहित्याचार्य हमारे ज्ञान प्रदाता
संतोष जैन (एम.कॉम. एल.एल.बी.)
ट्रस्टी भाग्योदय तीर्थं, सागर आप विद्वान परिवार में जन्में शाहपुर (गनेशगंज) निवासी श्री भगवान दास जी भाई जी के तृतीय सुपुत्र थे। भाईजी के पाँच पुत्र थे पाँचों ही विद्वान जिनमें से पंडित अमरचंद जी प्रतिष्ठाचार्य देश के जाने माने विद्वान प्रतिष्ठाचार्य है। भाई जी साहब के प्रथम पुत्र पंडित माणिकचंद जी जो वर्णी भवन मोराजी में ही अपने अंतिम सांस तक छात्रों को शिक्षा देते रहे । द्वितीय पुत्र श्रुत सागर जी, तृतीय पं. दयाचंद
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ साहित्याचार्य जी, चतुर्थ पं. धर्मचंद जी शास्त्री, पंचम पं. अमरचंद जी शास्त्री है।
पं. दयाचंद साहित्याचार्य जी ने देश एवं समाज को नई जागृति दी है, पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य जी के बाद आप अंतिम समय तक वर्णी भवन मोराजी में प्राचार्य रहे है। सन् 1990 में वृद्धावस्था होते हुए भी सागर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. मानद उपाधि प्राप्त की और डॉ. दयाचंद साहित्याचार्य के पद से विभुषित हुए आप संस्कृत एवं धार्मिक विषयों के प्रकाण्ड विद्वान थे उनके पढ़ाये हजारों विद्यार्थी देश विदेश में विभिन्न पदों पर सेवारत है एवं बहुत से विद्यार्थी विद्वान की श्रेणी में आकर प्रवचन एवं अपने पुस्तकों के माध्यम से समाज को नई दिशा दे रहे है।
___ सौभाग्य से विद्यालय में दो पं. दयाचंद जी थे प्रथम प्राचार्य पं. दयाचंद सिद्धांत शास्त्री जो वर्णी जी के शिष्य एवं पंडित पन्नालाल जी साहित्याचार्य के गुरु जो सौभाग्य से हमारे बब्बा जी (दादाजी) दूसरे पं. दयाचंद साहित्याचार्य जो हमारे बब्बाजी के ही शिष्य रहे । हमारे बब्बाजी के रहते वक्त तक हम 17 साल के थे धार्मिक अभिरूचि और ज्ञान सामान्य था। तब हम पं. दयाचंद साहित्याचार्य जी के पास तत्वार्थ सूत्र का स्वाध्याय हम एवं हमारे मित्र मुन्नालाल जी डीलक्स पेट्रोल पंप वालों ने उनके निवास पर लगातार एक वर्ष किया मैंने बचपन में चौधरन बाई पाठशाला में उनके सानिध्य में चौथा भाग तक पढ़ाई की । वह हम लोगों को इतनी आत्मीयता से पढ़ाते थे कि बहुत दोहे तो तुरंत ही कंठस्थ करा देते थे उनकी पढ़ाई में एक नया ओज एवं लालित्व होता था सरलता एवं सहजता कूटकूटकर भरी होती थी, आपने देश के कोने कोने में अपने प्रवचन के माध्यम से जो छाप छोडी है वह अद्वितीय रही. लाखों रुपये का दान संग्रह करके आप वर्णी भवन मोराजी को लाये है, आप अपने अंतिम समय तक विद्वान तैयार करते रहे है, बेटा न होने से पुत्रियों को बेटा जैसा प्यार एवं उत्कृष्ट शिक्षा दिलाई है एवं बड़े बड़े घरों में सम्बंध किये है जो एक विद्वान के लिए असंभव होता है, किन्तु इनकी छोटी पुत्री ब्र. किरण जैन को बचपन से ही
वैराग्य रहा और संसार के बंधन से मुक्त रही एवं आचार्य विमल सागर जी से आजीवन ब्र. व्रत लेकर महिला समाज को ज्ञान एवं स्वाध्याय के माध्यम से नई दिशा दे रही हैं । पंडित जी के अंतिम समय में उनकी सभी बेटियाँ एवं दामाद एवं समाज के गणमान्य एवं बुद्धिजीवी लोग उनकी सल्लेखना में संलग्न रहे, पंडित जी अंतिम समय तक शास्त्र का स्वाध्याय करते एवं सुनते रहे तथा भगवान का नाम लेकर णमोकार मंत्र पढ़ते पढ़ते पूर्ण होश हवास में उन्होंने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया, अपने निज निवास वर्णी भवन मोराजी में ही किया। जिस संस्था में बचपन से लेकर वृद्धा अवस्था तक सेवाएँ दी उसी संस्था में देह का विसर्जन करके उत्तम गति को प्राप्त किया । आप अपने अंतिम समय तक समाज को धर्मलाभ देते रहे एवं अपने हाथ से दानपुण्य भी करते थे। वे हमारे विद्यागुरु है, दादा गुरु है, समाज की शान थे, आचार्य श्री विद्यासागर जी के सच्चे भक्त थे उनसे ही कई नियमों को लिया था । सागर समाज उनके द्वारा की गई सेवाओं को भुला नहीं सकता इसलिए उनको देश में विभिन्न विभिन्न समयों पर कई उपाधियों से सम्मानित किया गया है । सागर समाज ने भी उनके रहते हुए वर्णी भवन मोराजी में एक विशेष समारोह के तहत 51,000/- रु. नगदी एवं शाल श्रीफल से सम्मानित किया था उनके विषय में जितना भी लिखा जाये कम है, अस्तु।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उद्भट विद्वान का व्यक्तित्व
अरविन्द कुमार शास्त्री, संगीतकार सागर पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य एक अनोखे प्रतिभा के धनी पाण्डित्य परोपकारी विद्वान थे जिन्होंने अपने जीवन में निस्वार्थ भाव से एवं लगनपूर्वक देश के कोने कोने में जैनधर्म का प्रचार - प्रसार किया तथा समाज को अमूल्य सेवाएं प्रदान की। आप सिद्धांत, तथा साहित्य के उद्भद विद्वान थे, आपके पढ़ाने की शैली सबसे अलग थी यदि आपने किसी भी विषय को एक बार पढ़ा दिया वह विषय विद्यार्थियों के दिमाग में बैठ जाता था, यह मेरा अनुभव स्वयं का प्रयोग किया हुआ है। निम्न लिखित विशेषताएँ पंडित जी के व्यक्तित्व में थी -
1. स्वाभिमानी - आपने अपने जीवन में सबसे ज्यादा महत्व स्वाभिमान को दिया, किसी भी परिस्थिति में आपने कभी समाज के सामने ऐसा कार्य नहीं किया जिससे आपको नीचा देखना पड़ा हो, क्योंकि आप सुदृढ़ एवं कार्य के प्रति लगन शील है। आपमें आत्मनिर्भरता महात्मा गाँधी जैसी थी आपमें अहंकार नाम की कोई भी बात नहीं थी।
2. शास्त्रज्ञ - आप अपने विषय के ज्ञाता थे सिद्धांत, न्याय, दर्शन, साहित्य, प्राकृत आदि विषयों के पूर्ण जानकार एवं वेत्ता थे। आपसे किसी भी विषय में चर्चा करें उसका उत्तर शास्त्रानुसार सटीक होता था। चारों अनुयोगों का ज्ञान भी आपमें पूर्ण रूपेण झलकता था।
3. निष्ठावान एवं कर्मठ - आपने अपने कार्य के प्रति लगन एवं निष्ठा के साथ जीवन को सुचारु रूप से व्यतीत किया । आपको जब जो कार्य करना होता था कर्मठता के साथ किया, आपका कहना था जो समय निकल जाता है फिर वह समय कभी वापिस नहीं आता। आपने सभी विद्यार्थियों को यही पाठ पढ़ाया था जिसने भी आपके जीवन की मिशाल को अपने जीवन में अपनाया है आज वह किसी न किसी उच्च पद पर कार्यरत है।
4 नि:स्वार्थ भाव एवं ईमानदार - आपके अंदर छल कपट किंचित मात्र भी नहीं था स्वार्थ भाव से आपने कभी भी कोई कार्य नहीं किया | ईमानदारी से आपने उच्च पद पर रहकर उसका निर्वाह किया चूंकि व्यक्ति स्वार्थी होता है लेकिन आपमें ऐसा दुर्गुण कभी देखने में नहीं आया है। अत: आप नि:स्वार्थी एवं ईमानदार विद्वान थे।
5. सादा जीवन उच्च विचार - आपका जीवन विल्कुल सादा एवं उच्च विचार महात्मा गाँधी जैसे थे जिस प्रकार साधु का जीवन होता आपका जीवन भी उसी प्रकार सादगीपूर्वक बीता। चूंकि सद्
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ गृहस्थ होने के कारण आपकी दिन चर्या भी साधुओं जैसी थी। आपने सागर विश्वविद्यालय से “जैन पूजा काव्य "में डाक्ट्रेड की उपाधि भी प्राप्त की तथा अर्यिका ज्ञानमती माता जी ने भी आपको “वाग्भारती" से पुरुस्कृत किया । आपको अनेक संस्थाओं के द्वारा अनेक पुरुस्कार प्राप्त हुये । इन सब विशेषताओं से सर्व विदित होताहै कि आप एक उद्भट विद्वान थे।
आपका मरण भी समाधिपूर्वक हुआ, भगवान बाहुबली के मस्तकाभिषेक के वह मंत्र आपके कानों में गूंज रहे थे उस समय आपकी अंतिम सांसे चल रही थीं, मैंने भी उसी समय जाकर आपको देखा कि आपका समाधि मरण हो रहा है। डॉ. पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य को सद्गति ही प्राप्त हुई हो ऐसी मेरी कामना है।
अगाध ज्ञान के भंडार
ब्र. सुषमा दीदी,
वर्णी भवन मोराजी, सागर (म.प्र.) ___परम श्रद्धेय पंडित डॉ. दयाचंद साहित्याचार्य जी समाज के अद्वितीय विद्वान थे। उनके द्वारा दी गई शिक्षा प्राप्त कई विद्वान आज भी मौजूद है। मैं स्वयं उनके द्वारा दी गई शिक्षा को कभी भुला नहीं सकती हूँ। समय की कद्र करने वाले थे। विद्यालयों मे पढ़ते हुए विद्यार्थी को देखकर बड़े प्रसन्न होते थे। वे हमेशा कहते थे आप का भविष्य उज्जवल बने, आप परिश्रम करते रहे, सफलता चरण चूमेगी।
आप बड़े सरल, सहज एवं शांति प्रिय थे हमेशा स्त्रोतों के अर्थ लगाया करते थे। और कहते थे कि बिना अर्थ के पाठ करना व्यर्थ है। अर्थ लगाकर ही पाठ करो । जिससे परिणामों में समता आवें और आत्मा परमात्मा बन सकें ऐसा उपदेश सदैव देते रहे ।
समूचा जीवन सरस्वती आराधना में ही लगाया। आज जैन समाज में अद्वितीय सरस्वती पुत्र का अभाव हो गया है। यह क्षति कभी पूरी नहीं हो सकती है। मैं वीर प्रभु से प्रार्थना करती हूँ कि उनकी आत्मा को अनंत शान्ति एवं मोक्ष गति प्राप्त हो ।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे जीवन के आदर्श पूज्य पिता जी
ब्र. किरण जैन, प्रबंध संपादिका
स्मृति ग्रंथ, वर्णी भवन मोराजी सागर प्रत्येक व्यक्ति का जीवन एक खुली किताब है । उस किताब को पढ़कर हमें अपने जीवन को किस रूप में ढालना है यह स्वयं के ऊपर निर्भर करता है।
हमारे पिताजी ने अपने जीवन को एक ऐसे सिक्के में ढाला था कि कहीं से भी देखों वह सिक्का बड़ा कीमती दिखाई देता था। कहते थे कि जीवन का समय बड़ा कीमती है एक समय भी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। समय की कीमत करो, समय तुम्हारी कीमत करेगा । अन्यथा जीवन का समय ऐसे ही व्यर्थ चला जायेगा।"सादा जीवन उच्च विचार" वाली कहावत उनके जीवन में चरितार्थ होती थी। हर समय पुस्तक और कलम उनके हाथ में रहती थी।
हमारे पिता श्री का जीवन बड़ा संघर्ष मय रहा है, उस संघर्षमय जीवन में भी समता और शांति उनके चेहरे पर झलकती थी। 2 वर्ष की उम्र में मेरी माँ का देहान्त हो गया था, हमारे पिताजी ने ही हम सभी बहनों का पालन पोषण किया। पिताजी तो हमारे पिता थे ही, वे ही हमारी माँ थी क्योंकि बचपन से ही हमारा पालन पोषण उन्हीं ने किया, और वे ही हमारे गुरु थे, क्योंकि हमारे जीवन को शिक्षित और धर्ममय बनाने में उन्हीं का ही पुरूषार्थ रहा है। इसलिये माँ पिता और गुरू हम उन्हीं को मानते । अकेले होकर भी हम सभी पोंचों बहनों को पढ़ाना लिखाना सर्विस के साथ गृहस्थी का भार संभालना और चारों बहनों को समय पर गृहस्थ जीवन में प्रवेश कराना, सारा संघर्ष अकेले ही सहन करते हुए सहन शीलता के साथ जीवन बिताना यह जीवन की बहुत बड़ी देन है।
पढ़ना लिखना तो उन्हें बहुत रूचिकर लगता था विद्यार्थी जीवन में शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब कुछ दिन तक सर्विस नहीं लगी तो घर (शाहपुर) माँ-पिता के पास चले गये । वहाँ एक दिन उनके पिताजी ने कहा कि यदि सर्विस नहीं लगती है तो हम यहाँ किराने की दुकान खुलवा देते है तो हमारे पिताश्री ने कहा नहीं ! हमारी सब पढ़ाई व्यर्थ चली जायेगी और सर्विस करने के लिए अडिग बने रहे। कुछ दिन जबलपुर
और बीना रहकर श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में सर्विस के लिए सन् 1950 में प्रविष्ट हये और सन् 2006 जनवरी तक निरंतर अपनी सेवायें देते रहे। बड़ी रूचि और परिश्रम के साथ विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। उनके पढ़े हुये विद्यार्थी आज भी उनके परिश्रम की प्रशंसा करते है कि यदि पंडित जी का इतना समर्पण न होता तो हम लोग ऐसे पदों पर न होते | कक्षा में अधिक परिश्रम होने से एक दिन हमसे कहने लगे कि गांवों के अनपढ़ विद्यार्थी यहां पढ़ने आते हैं। उनको इंसान बनाने में बड़ी मेहनत होती है।
पण्डित जी की जीवन झांकी में दीपावली की दीपमालिका के जगमगाते प्रकाश की भाँति जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अपने जीवन काल में अद्वितीय योगदान दिया है ऐसे पंडित जी के जीवन में अध्ययन अध्यापन करना कराना जीवन का अभिन्न अंग सा बन गया था। जिस प्रकार सूर्य और रश्मियाँ, चंद्रमा और
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ चांदनी, नदी और तरलता अन्योन्याश्रित होते है, वैसे ही ज्ञान शिक्षण देना एवं ज्ञान प्राप्त करना जीवन का अनन्य लक्ष्य बन गया था ।
वर्णी जी के आदेशानुसार गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय के लिए अपना जीवन समर्पित करने का लक्ष्य बनाया था । विद्यालय के लिए अपने आप को ऐसा समर्पित किया कि विपरीत परिस्थितियों की एक भी आँधी उस समर्पण को न मिटा सकी । कितनी भी विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, लेकिन काल की कराल छाया भी उस समर्पण को मलिन व धुंधला भी न बना सकी, ऐसा पिताजी का वर्णी
प्रति विद्यालय के प्रति समर्पण था । वह समर्पण जीवन के अंत तक भी सेवा भाव के रूप में प्रकट होता था । शारीरिक क्षमता न होते हुये भी समर्पण का भाव ही उन्हें सेवा से मुक्त नहीं करा पाता था । ऐसे मेरे पिताजी का अद्वितीय व्यक्तित्व ही जीवन में दीपक की तरह जगमगाता था ।
कर्त्तव्य निष्ठ - प्रत्येक कार्य के लिए कर्त्तव्य निष्ठ होना यह उनका स्वभाव था । कोई भी कार्य के लिए किसी की अपेक्षा नहीं करते थे, अपना कर्त्तव्य समझकर कार्य करने लगते थे। एक बार की बात है कि विद्यार्थियों का दीपावली का अवकाश काल समाप्त हो गया था एक भी विद्यार्थी विद्यालय में उपस्थित नहीं था, विद्याथी अपने घर से वापिस नहीं आये थे, पिताजी अपने क्लास रूप में जाकर बैठ गये । हमने घर में देखा पिताजी नहीं है, दूर से देखा कि उनके क्लास रूम के दरवाजे खुले है, हम उपर गए और पिताजी से कहा- पिताजी यहाँ एक भी विद्यार्थी नहीं है, आप अकेले बैठे यहाँ क्या कर रहे है चलो नीचे, घर चलो । पिताजी ने उत्तर दिया इस विषय में तुम मत बोलो दीपावली का अवकाश काल समाप्त हो गया है, विद्यार्थी आयें चाहे न आयें ड्यूटी देना हमारा कर्त्तव्य है, मंत्री देखे या न देखें हमें अपने कर्त्तव्य का पालन करना है। और फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि हम संस्था का फ्री वेतन नहीं ले सकते हैं, ड्यूटी देने के बाद ही वेतन स्वीकार करेंगे । क्लास में अकेले बैठे बैठे बड़े बड़े शास्त्र राजवार्तिक प्रमेय कमल मार्तण्ड आदि बड़े गहन विषयों के नोट्स सरल भाषा तथा संक्षेप में बना देते थे, विद्यार्थियों के घर से आने पर उन्हें नोट्स लिखने को दे देते थे कि हम ने कठिन विषयों को सरल और संक्षेप कर दिया है, इतने कठिन विषयों को तुम लोग नहीं पढ़ पाओगे, इन्हें अपनी कापी में लिख लो, इस तरह अकेले बैठकर भी अपने समय का सदुपयोग करते थे। अध्ययन और लेखन कार्य तो उनके जीवन के अभिन्न अंग थे । विद्यार्थियों से भी यही कहते थे कि अपने कर्त्तव्य का पालन करो। गृह प्रबंधक देखे या न देखे अपनी पढ़ाई करो ।
परिग्रह के प्रति उदासीनता - पिताजी को घर गृहस्थी की वस्तुओं के प्रति कोई मोह नहीं था, हम कभी किसी घर की बात को पूंछते थे तो कह देते थे कि तुम जानों, जैसा करना हो करो। हमें घर गृहस्थी विषय से कोई मतलब नहीं। पिताजी ने आज तक अपने हाथ में पैसा रखा ही नहीं था, कहीं से रूपया लेकर आते थे तो पहले रूपया निकालकर हमें देते थे, फिर कपड़े उतारते थे यदि हम किसी काम में लगे रहते
तो कह देते थे कि पिताजी अभी रूपया आप रखों, हम काम करके ले लेगें तो रूपया वहीं नीचे रखकर कह देते थे कि रूपया ये रखे है, उठाओ चाहे न उठाओ, हमने तो लाकर दे दिये हैं, अब हमें कोई मतलब नहीं ।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हमें शीघ्र हाथ धोकर रूपया रखना पड़ते थे। यदि कभी बाजार कोई सब्जी फल लेने जाते थे तो हमसे रूपया मांगते थे। हमने कहा पिताजी रूपया अपने हाथ उठा लो अपना ही तो घर है, हम काम कर रहे हैं, तो कहने लगे कि हम रूपयों में हाथ नहीं लगाते, रूपया तुम्हारे भाग्य का है, हमारा नहीं, तो हमें उठकर रूपया देना पड़ते थे । यदि हम कभी अपने लिये आवश्यक चीजों को लेने बाजार जाते थे तो पिताजी की आज्ञा से रूपया लेते थे, एक बार पिताजी कहने लगे कि रूपया तुम्हारे ही पास तो रखा है, उठा के ले जाओं । पूछने की क्या आवश्यकता हैं ? हमने कहा पिताजी रूपया आपका है आप से बिना पूछे कैसे ले जा सकते है ? तो धीरे से हंसने लगे। घर में रखे रूपयों को न कभी पिताजी ने अपना कहा, न उसमें हाथ लगाया और न कभी उन रुपयों को हमने अपना कहा, क्योंकि कमाई तो पिताजी की थी। ऐसे ही घर का काम चलता रहता था।
एक दिन पिताजी कहने लगे कि हमने तुम्हारे जीवन के लिए पर्याप्त रूपया रख दिया है, बस जीवन में अपनी धर्म साधना करना । जीवन में एक ही शब्द का उन्होंने हमें संकेत दिया, अधिक कुछ नहीं कहते थे कि यह रोने लगेगी। एक बार हमने भी सोचा (2-3 वर्ष पहले की बात) कि पिताजी को चिन्ता मुक्त कर देना चाहिये, बड़ा साहस करके कहा - पिताजी आप हमारी चिन्ता नहीं करना, हम तो कहीं भी आश्रम में या मुनि संघों में रह लेगें | आप निश्चिन्त होकर मोह छोकर अपनी धर्म साधना करो । जबकि अतरंग में हमें तो पिताजी के जाने को धक्का लगा ही रहता था, परन्तु उनको मोह रहित करके धर्म साधना कराना थी । इसलिये शब्दों में तो उनको निश्चिन्त कर दिया। कभी हम उनसे भविष्य के बारे में अधिक बात नहीं करते थे कि पिताजी को हमसे मोह न बना रहे और न पिताजी कभी इस विषय को उठाते थे, कि इसको भविष्य का दुख न हो जाये ।
पिताजी श्रावक के षड् आवश्यकों का पालन अच्छी तरह करते थे और हमें तथा सभी को शिक्षा देते थे कि ब्राह्म मुहूर्त में उठकर सामायिक तथा स्तोत्र पाठ करो। समय बड़ा कीमती है, अन्यथा समय चला जायेगा, हम कुछ नहीं कर पायेंगे। पिताजी ने अपने जीवन में तीन चांदी की प्रतिमायें एवं चौथी नव देवता की सफेद धातु की प्रतिमा विराजमान की है। पांचवी प्रतिमा की शाहपुर के गजरथ में प्रतिष्ठा कराना थी वह नहीं करा पाये, उसकी प्रतिष्ठा उनके जाने के बाद हुई । इन्होने अपने जीवन में एक सिद्धचक्र मंडल विधान भी रचाया था और भी अन्य प्रकार से दान करते रहते थे । सम्मेद शिखर जी की वन्दना में पिताजी ने तीर्थंकरों की टोंकों पर चांदी के कलशा चढ़ाये एवं प्रत्येक टोंक पर ध्वजा, श्रीफल, दीपक, चांदी की लोंग एवं 5 टोंकों पर मंगल कलश स्थापित किये। इस प्रकार बहुत भाव के साथ उमर अनंत सिद्धों को नमस्कार करते हुये नीचे टोंकों पर अर्घ समर्पण करते हुये भाव भानी बन्दना की। भारत के सभी तीर्थो की एवं सम्मेद शिखर जी की कई बार वन्दना की ।
कषायों की मंदता होना एवं जीवन में सभी का बहुत उपकार करना, उनके जीवन का पुरूषार्थ था। उनसे कोई गलती हो जाये तो हाथ जोड़कर गलती की क्षमा मांगते थे ।
संस्कृत भाषा का ज्ञान होने से स्तोत्रों का पाठ अर्थ लगाकर ही करते थे। कहते थे कि बिना अर्थ
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लगाये पाठ करने से अधिक लाभ नहीं है। प्रतिदिन 1 घंटे खड़े होकर पूजन करते थे, एक घंटे में एक ही पूजन होती थी। कोई भी धर्म विषय पढ़कर चिंतन करते थे। कभी कभी रात्रि में जब नींद नहीं आती थी तो चिंतन करते थे। एक बार अस्वस्थ्य हो गये तो रात्रि में नींद नहीं आई, सुबह उठकर कहने लगे आज हमने रात भर स्वस्ति मंगल पढ़ा है, "स्वस्ति क्रियासु परमर्षयो न:"। आगे फिर कभी नींद नहीं आई तो आज हम रात में तीन स्तोत्रों के भाव अर्थ लगाते रहे । इस प्रकार उनका चिंतन चलता रहता था।
इन्द्रिय विषयों से उदासीनता - भोजन में उन्हें कोई असक्ति नहीं रह गई थी। हाथ जोड़कर बोले कि किरण हमसे भोजन करने की नहीं कहा करों, हमें खाने की कोई इच्छा नहीं है, तुम हमें खाने के लिए बहुत कहती हो, हमने कहा पिताजी ! हम खाने की इसलिए कहते है कि तुम्हें गर्मी न बढ़ जाये और शरीर की शक्ति न टूट जाये, तो बोले - हाँ, तो कम से कम खाने दिया करो, तो हमने शाम को कम खाने दिया, ऐसा कहकर चुप हो गये। जब रात्रि में सोये तो उन्होंने शाहपुर के गजरथ की सातों फेरी स्वप्न में देखी। सुबह उठकर बोले देखो किरण हमने कहा था कि हमें कम खाने दिया करो, कम खाने से कितना अच्छा स्वप्न आया कि हमने शाहपुर के गजरथ की सातों फेरी देखी । ऐसे शुभ भाव बनाये रखते थे।
__ कभी कपड़े बनवाने की बात हम करते थे तो एक दम इन्कार कर देते थे कि हमें कुछ नहीं बनवाना है बस इतने ही बहुत हैं। इस प्रकार किसी भी इन्द्रिय के प्रति विषयों में कोई असक्ति नहीं रह गई थी। देहान्त के दो दिन पहले हमने पिताजी को पेड़ा रसगुल्ला खाने को दिये, किसी भी चीज में हाथ नहीं लगाया।
पिताजी को बुखार था बुखार में भी धीरे धीरे चलते फिरते रहते थे। एक दिन पहले ऑफिस में जाकर बैठ गये । सबसे धीरे धीरे बातें करते रहे, और कुछ देर बाद घर आ गये, हमने कहा पिताजी कहाँ गये थे ? आप की शक्ति नहीं थी। बोले हमें आज अच्छा नहीं लग रहा था सो ऑफिस में जाकर बैठ गए थे। वहाँ से आकर फिर सो गए । हम नहीं समझ पाये कि हमारे पिताजी कल यहाँ से चले जायेंगे।
___ तारीख 11 फरवरी शाम से शिथिलता आने लगी थी। रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग, परिग्रह का त्याग कर के सोये थे। एक दिन पहले शुद्ध वस्त्र रख लिये कि कल बाहुबलि भगवान का अभिषेक करेगें, लेकिन सुबह होते ही उल्टी श्वांस चलने लगी थी, अभिषेक के लिए नहीं जा पाये थे, लेकिन अभिषेक होने की ध्वनि नीचे से ही सुन रहे थे, बुद्धि पूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण कर रहे थे और दूसरों के द्वारा भी मंत्र सुन रहे थे। सुबह पुन: चारों प्रकार के आहार का त्याग, परिग्रह का त्याग करा दिया था। वर्णी कालोनी से अभिषेक के लिए मंगल कलश भी उसी समय आ रहे थे, साथ में हाथी भी था जो घर के दरवाजे पर मंगल सूचक खड़ा था । माघ सुदी पूर्णिमा को बाहुबलि भगवान के अभिषेक के समय शुभ मुहूर्त में सामायिक काल में महामंत्र का चिंतन करते हुए अपने जीवन की अंतिम यात्रा समाप्त की। माघ सुदी पूर्णिमा की रात्रि में ही शाहपुर में सुबह चार बजे स्वप्न दे दिया कि "तुम लोग दुखी मत हो हम तो बारह भावना का चिंतन करते हुए आ गये थे" बस एक शब्द कहकर स्वप्न समाप्त हो गया। स्वप्न में बहुत तेज प्रकाश था एक दम सफेद धोती दुपट्टा पहने हुए थे। एक वाक्य कहकर स्वप्न समाप्त हो गया। वह स्वप्न सदा स्मरण रहता है। हमारे पिताजी सदा के लिए हमसे विदा हो गये।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनुकरणीय व्यक्तित्व - पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य
डॉ. आशा जैन, पीएच.डी.
विश्वविद्यालय,सागर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डॉ. पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य मेरे आदर्श गुरूवर थे। वे साधुमना, स्वाभिमानी, मधुर वक्ता, सफल शिक्षक, लेखक, अनुवादक, टीकाकार, संपादक, एवं साहित्य साधना के लिए समर्पित जीवन के रूप में समाज में बहुचर्चित थे। मुख्य रूप से जीवकांड, कर्मकाण्ड के कुशल ज्ञाता होते हुए प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं अष्ट सहस्त्री जैसे जटिल दर्शन शास्त्र के प्रकांड पंडितों में से माने जाते है। श्री स्वामी समन्तभद्राचार्य, भट्टाकलंक स्वामी एवं पूज्यपाद स्वामी आदि महान आचार्यो द्वारा विरचित करणानुयोग के साथ सभी अनुयोगों के अंतर रहस्य को विद्यार्थी के मानसपटल पर सरल एवं सौम्य भाषा में अंकित करने में विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे।
पंडित दयाचंद्र जी का आकर्षक व्यक्तित्व था। स्वच्छ धोती, कुरता, खादी की टोपी सामान्य लंबा शरीर, कान्तिमय चेहरा, चश्मा, प्रोल्लसित मुख और वैदुष्यपूर्ण वाणी से सभी को अपनी ओर आकर्षित किए रहते थे। जिस तरह से वे ज्ञान के भंडार थे, उसी तरह से सदाचारी और जीवन निर्माण के क्षेत्र में भी अग्रणी थे।
पंडित दयाचंद साहित्याचार्य जी मेरे लिए पिता के समान आदरणीय थे। उनके साथ मेरा रिश्ता तो नहीं था परंतु उनके पास बैठकर कुछ समय अवश्य मैंने बिताया और कई बातों में मैंने उन्हें गुरू मानकर उनका अनुकरण भी किया। उनके साथ अधिकतम सानिध्य का लाभ मुझे तब मिला जब मैंने "पूज्य गणेश प्रसाद वर्णी जी के शैक्षणिक योगदान का विश्लेषणात्मक अध्ययन शोध कार्य किया " उनसे मुझे हमेशा स्नेहपूर्ण सहयोग और आत्मबल मिलता था । मैं जब जब जिज्ञासा वश अपनी समस्याओं को लेकर पहुँचती थी तब उनके पास से पूर्ण मनोरथ होकर ही लौटती थी।
शोधकार्य के समय :- मैं कभी कभी बहुत निराश हो जाती थी तब वे बड़े ही धैर्यपूर्वक मेरी हर समस्या का समाधान कर देते थे। अपने कर्त्तव्यों के प्रति सदैव सजग रहते थे। उन्हें कितना भी शारीरिक कष्ट क्यों न हो, पर वे अपने कार्य किये बिना नहीं रहते थे। बीमारी की हालत में भी मुझसे धार्मिक चर्चा करते रहते थे। मैं जब भी उनके पास बैठकर धार्मिक चर्चा करती थी तो वे बड़े प्रसन्न हो जाते थे क्योंकि उन्हें इस बात की हार्दिक प्रसन्नता होती थी कि मैं वर्णी जी पर शोध कार्य कर रही हूँ उन्होंने स्वयं वर्णी जी के सानिध्य में रहकर जैन धर्म की उत्कृष्ट शिक्षा प्राप्त की थी। पंडित दयाचंद जी के पिता जी ने उन्हें पूज्य गणेश प्रसाद वर्णी के करकमलों में सौंप दिया था। यह वर्णी जी के ही आर्शीवाद का फल था कि पंडित दयाचंद्र जी का जीवन आगमानुकूल लगातार अध्ययन के फलस्वरूप बौद्धिक विकास से ज्ञान के सर्वोच्च शिखर को छू सकने में सफल हुआ। श्री दयाचंद्र जी को पंडित दयाचंद्र साहित्याचार्य की प्रतिष्ठा से महिमामंडित करने का पावन श्रेय
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पूज्य गणेश प्रसाद वर्णी जी को ही जाता है। अपने अध्ययन काल में अनेक उतार चढ़ावों से जूझते हुए नित्य नये प्रकाश को प्राप्त करते हुए विद्यार्जन करते रहे । विद्यार्जन के पश्चात् जीवकोपार्जन की ओर चित्तवृत्ति का जाना स्वाभाविक था। चूंकि वर्णी जी के प्रयास से ही श्री दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना वर्णी भवन मोराजी में हुई थी तथा सौभाग्यवश संरस्वती पुत्र डॉ. पंडित दयाचंद्र साहित्याचार्य उसी विद्यालय में प्राचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए एवं आजीवन विद्यालय की सेवा में तत्पर रहे ।
___ अनेक विषम परिस्थितियों से जूझते हुए वे कभी अपने जीवन में विचलित नहीं हुए। वे दयालु प्रवृत्ति के थे साथ ही क्षमाशील व दानवीर भी थे। उनके जीवन के दो उदाहरण क्रमशः प्रस्तुत कर रही हूँ। प्रथम यह कि वे अपने विद्यार्थियों से पुत्रवत् स्नेह रखते थे, जब विद्यार्थी उनकी कक्षा में होमवर्क नहीं करके लाते थे तो वे एक छोटा सा बेंत अवश्य दिखाते थे पर मारते नहीं थे। केवल उससे डराते और धमकाते थे। सिर्फ इतना ही कहते थे कि "क्यों होमवर्क क्यों नही किया ?" बच्चों को उनकी यह वाणी झकझोरे बिना नहीं रहती थी वे दूसरे दिन अवश्य होमवर्क करके लाते थे।
द्वितीय बात यह कि वे भारत वर्ष के विभिन्न शहरों में आमंत्रित होकर पयूषण पर्व में प्रवचन हेतु जाते थे और धर्म - प्रभावना कर स्वयं सम्मानित होकर विद्यालय को गौरवान्वित करते थे एवं सम्मान राशि विद्यालय को दान कर देते थे।
आज पंडित दयाचंद्र साहित्याचार्य जी हमारे बीच नहीं हैं केवल उनकी स्मृति शेष रह गई है । स्मृति ग्रंथ प्रकाशन प्रशंसनीय कार्य है और वर्णी जी के सच्चे अनुयायी पंडित दयाचंद्र जी साहित्याचार्य के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि समर्पित करती हूँ। पंडित जी को मेरी ओर से विनम्र श्रद्धांजली।
यथा नाम तथा गुण पंडित दयाचंद्र जी
श्रीमती मणि केसली, प्रा. चेअर पर्सन
अ.भा. दि. जैन महिला परिषद् पंडित दयाचंद्र जी का यथा नाम तथा गुण को परिभाषित करने वाला व्यक्तित्व कुछ अनोखा अनुपम एवं श्रेष्ठतम ही था । ऐसे ही उत्कृष्ट व्यक्तित्व के धनी बुंदेलखण्ड के गौरव एवं आदर्श पूर्ण जीवन से स्वयं का एवं पर का जीवन आलोकित करने वाले महान विद्वान, मनीषी जीवन में कम ही देखने को प्राप्त होते है। मेरे परम सौभाग्य ही था कि पंडित जी की महान जीवन शैली को पड़ोसी होने के नाते निकट से देखने का अवसर प्राप्त हुआ।
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पंडित जी को अभिमान न था। चाहे कितने भी बड़े सम्मान से सम्मानित
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ क्यों न हों। अनेक पदों से विभूषित होने पर भी कभी न ही हर्षातिरेक में देखा, न ही कभी विषाद या क्षोभ के क्षण, उनके मुख पर परिलक्षित होते थे। बस एक मंद सी मुस्कान साम्य भाव की परिलक्षित होती थी । सदैव ही समता भाव पूर्ण बात ही मुख से निकलती थी । परम संतोष धैर्य, साम्य भाव का गुण तो आत्मा में कूट कूट कर भरा था।
__परिवारिक पृष्ठ भूमि में पाँचो बेटियों में से सबसे छोटी बेटी ब्रह्मचारिणी किरण दीदी ने जैसे पिताजी की सेवा का संकल्प का पालन करते हुए पंडित जी के पूरे जीवन में धर्म एवं संयम, व्रत, स्वाध्यायी जीवन की परिपूर्णता में सहयोग किया । पूज्य पंडित जी आजीवन अनवरत् स्वाध्याय एवं लेखन में रत एवं लीन रहते थे। किसी से भी संक्षिप्त वार्ता और अपनी बात मध्यम स्वर में कहना सहज गुण था।
महान महान पदवियों के धारक एवं महान विद्वान जिन्होंने बड़े बड़े ग्रंथो एवं शोधग्रंथ की रचना की। एक चिंतन शील स्वाध्यायी एवं परम संयम धारण करने वाले पंडित जी सरल स्वभावी थे।
उनके निज निवास पर किरण दीदी के द्वारा दोपहर व रात्रि में आध्यात्मिक ग्रंथो का वाचन होता था। अत: सभी महिलायें नित्य वाचन में जाकर धर्मलाभ लेती है । अत: प्रतिदिन स्वाध्याय में कोई कठिन प्रश्न आ जाता जो समझ में न आता था तो पंडित जी से पूछते थे तो पंडित जी सहज, सरलता से शंका का समाधान करते थे। पूज्य पंडित जी का जीवन तो अनेकानेक गुणों से भरा था । आध्यात्मिक ज्ञान की प्रतिभा, विद्वता का अतुलनीय भंडार, उनकी अनुपम लेखनी द्वारा प्रभावित हुआ है। जिसकी सुगंध युगों युगों तक इस संसार में विद्यमान रहेगी।
श्रद्धेय पंडित जी के लिए विनयांजलि अर्पित कर उनके अनुकरणीय जीवन को आदर्श मान कर मैं भी अपने जीवन को धन्य समझूगी।
सागर के मोती (मेरे जन्म दाता पूज्य पिताजी)
श्रीमती मनोरमा जैन सिरोंज म. प्र. मैं तो अपने पिताजी को एक मोती के रूप में देखती हूँ। जैसे वास्तवित मोती का मिलना बहुत दुर्लभ होता है, ऐसे ही मेरे पिताजी जैसे पिता का मिलना भी बहुत कठिन है। मोती तो सागर के तल में होता है वह भी सीप के अंदर बंद होता है वैसे ही मेरे पिताजी के अंतर में ज्ञान रूपी मोती छिपा हुआ था, वे अंतरंग रूपी सीप को खोलकर सबको मोती देते थे, कभी कभी विद्यालय में और कभी कभी धर्म सभा में ज्ञान रूपी
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मोती विखराते थे। मोती की कीमत भौतिक संसार में होती है और ज्ञान रूपी मोती की कीमत मोक्ष मार्ग में होती है। उन्होंने अपने घर परिवार को एवं विद्यालय के अनेकों छात्रों को ऐंसा ज्ञान से संस्कारित किया है कि आज भी विद्यार्थी उनके संस्कारों को नहीं भूलते हैं और पग पग पर उनके दिये ज्ञान मोती को याद करते रहते है। हमारे पिताजी तो इस मनुष्य भव को पार कर गए यहां से चले गए और हम सभी बहनों पर अपने संस्कारों की अमिट छाप छोड़ गये, जिन संस्कारों को हम लोग क्षण क्षण याद करते रहते है। और अपने पिताजी का स्मरण करते रहते हैं ऐसे हमारे पिताजी जिनेन्द्र भगवान के चरणों में हर क्षण शांति लाभ धर्म लाभ प्राप्त करें ऐसी हमारी शुभ कामना हैं।
अविस्मरणीय मेरी आँखों के तारे पिताजी
श्रीमती राजेश्वरी जैन, रायसेन म.प्र. जैसे तारागणों से आकाश शोभायमान होता है वैसे ही हमारे पिताजी से भी हमारा घर शोभायमान था। कहीं से भी हम आते थे और पिताजी दिख जाते थे तो मन प्रसन्नता से भर जाता था। क्योंकि हमारे घर में बस पिताजी ही बड़े थे, हम सब बहनें छोटे- छोटे थे। वे अपने वात्सल्य से हम लोगों को पढ़ाते, लिखाते थे धर्म की शिक्षा देते थे, सुमार्ग पर चलाते थे वे ही संस्कार हम लोगों के जीवन में प्रकट हुये हैं। जैसे आकाश में तारे झिलमिलाते हैं वैसे ही हमारे जीवन में पिताजी भी प्रत्येक कार्य में आगे पीछे झिलमिल होते थे, क्योंकि प्रत्येक कार्य में हमारे पिताजी का ही हमें आश्रय मिला है, कितनी भी आपत्ति या दुख जीवन में आता था तो उनकी सांत्वना से हम लोगों को बड़ी शांति मिलती थी, समता आती थी, ऐसा लगता था कि बस मेरे पिताजी ही जीवन के सहारे हैं, उनको देखने मात्र से बड़ा धैर्य और साहस बंध जाता था। ऐसा लगता है कि वे पिता के रूप में ही हमें धर्म का मार्ग दर्शन देने आये थे मार्ग दर्शन देकर चले गये, हमारे जीवन में अमिट छाप छोड़ गये । उनका यह उपकार हम भव भव में नही भूल सकते । स्मृति ग्रंथ के रूप में जो उनका स्मरण किया जा रहा है, उसके प्रति मैं भी अपनी विनयांजलि समर्पित करती हूँ।
हम सब बहिनों के आंखों के तारे पिताजी हम लोगों को छोड़कर चले गये। और अपना आशीष दे गये। उनकी सद्गति की कामना के साथ ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ चंद्र चाँदनी सम मेरे पिताजी
श्रीमती शकुन्तला जैन, भोपाल जैसे चंद्रमा की चांदनी सबको सुखदायी होती है वैसे ही मेरे पिताजी भी हम सबको सुखदायी थे। जैसे नक्षत्रों के बीच चंद्रमा शोभायमान होता है, वैसे ही हम सब बहिनों को बीच हमारे पिता श्री शोभायमान थे। बहुत परिश्रम से सर्विस करके हम बहनों को पढ़ाया लिखाया धर्म साधना करने की शिक्षा दी। संघर्ष मय जीवन के साथ भी धर्ममार्ग पर चलते रहे। दूसरों का उपकार करने में पीछे नहीं रहते थे। जीवन भर विद्यार्थियों को ज्ञान दान देते रहे। वर्णी जी के आदेश का पालन बड़े समर्पण के साथ किया, उनके आदेश का पालन करना अपना कर्त्तव्य समझा था। जैसे चांदनी सब प्राणियों पर समान रूप से अपनी आभा विखेरती है, वैसे ही मेरे पिताजी सब को समान रूप से शिक्षा देते रहे । समान रूप से सबका परोपकार करते थे। किसी के भी साथ भेदभाव नहीं करते थे। पिताजी के जाने से हम लोगों को ऐसा लगता है, जैसे हमारा अब कोई नहीं है । शुक्ल पक्ष के बाद अब कृष्ण पक्ष ही नजर आ रहा है । शुक्ल पक्ष में तो चंद्रमा अपनी चांदनी विखेरता रहता है लेकिन कृष्ण पक्ष में चांदनी धीरे धीरे विलीन होती जाती है । बस अब ऐसा ही लग रहा है कि हमारे पिताजी के जाने से चांदनी के अभाव जैसा शून्य सा लग रहा है, उनके जाने से हम बहनों के मन में जो उदासीनता आई है, वह उदासीनता संसार की असारता का दिग्दर्शन करा रही है। उनकी जीवन गाथा को शब्दों में जितना कहें उतना कम है । भावों में उनका स्मरण करते हुये हम उनकी आत्मशांति के लिए विनयांजलि समर्पित करते हैं।
पिता रूपी सूर्य की स्मृति
श्रीमती सोमा श्री जैन, कोरवा म.प्र. ज्ञानपुंज स्वरूप मैं अपने पिता की भाव भींगी स्मृति करते हुये उनके जीवन के आदर्श रूप दर्पण को जब याद करती हूँ तो ऐसा लगता है कि ज्ञान की आभा विखेरने वाले आज मेरे पिता हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन ज्ञान की अमिट छाप हम लोगों पर छोड़ गये है, जैसे सूर्य अपनी रश्मियों से जगत को आलोकित करता हैं। वैसे ही हमारे पिताजी स्वयं को एवं समस्त समाज को ज्ञानपुंज से आलोकित करते थे। उनके आदर्श की छाप उनके पढ़ाये प्रत्येक विद्यार्थी पर पड़ी हैं। जैसे किसमिस अंदर भी नरम और बाहर भी नरम दोनों तरफ समान है, वैसे ही हमारे पिताजी अंदर बाहर से सरल स्वभावी थे। उनका व्यक्तित्व धर्म की कसौटी पर निखरा हुआ था। धर्म ध्वजा फहराना उनके जीवन का लक्ष्य था। उन्होंने सम्मेद शिखर जी की
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ टोंको पर जब ध्वजा फहराई थी, तब उस एक ध्वजा पर लिखवा दिया था "जैनं जयतु शासन" जैन शासन सदा जयबंत रहे । जैसे सूर्य उदयाचल और अस्ताचल के समय समान लालिमा विखेरता है वैसे ही मेरे पिता श्री सुख और दुख दोनों ही समय में समता भाव धारण करते थे, कहते थे कि "यह न रहा है तो वह न रहेगा" अर्थात् अपने पास सुख नहीं रहा तो दुख भी न रहेगा । यह तो सुख दुख का कालचक्र है, चलता ही रहता है। उसमें धैर्य धारण करना हमारा धर्म है। उनकी इन सभी स्मृतियों को संजोते हुये भव भव में धर्म मार्ग पर चलने वाली उस परम आत्मा के प्रति हम कृतज्ञता प्रगट करते हैं, उनके प्रति नतमस्तक होते हैं।
सागर से गंभीर मेरे नानाजी
श्रीमती ज्योति जैन प्रदीप जैन, नरसिंहपुर मेरे नानाजी की मुझे बहुत याद आती है । मैं बचपन में अपने नानाजी के घर आकर बहुत खेलती थी, तथा नानाजी हम लोगों पर बहुत स्नेह रखते थे कभी आज तक नानाजी हम लोगों को नाराज नहीं हुये हम लोग कुछ गलती कर देते थे तो बड़ी शांति पूर्वक समझा देते थे कि अभी ये सब छोटे हैं बच्चों से गलती हो जाया करती है कोई बात नहीं भविष्य में ध्यान रखना । ऐसी गंभीरता मेरे नानाजी के अंदर थी। हमें ऐसा लगता है कि ऐसी गंभीरता हम लोगों के अंदर भी आना चाहिए । नानाजी बड़े शांत परिणामी, आकर्षक सौम्य मुद्रा, परम हितैषी थे, ऐसे आदर्श गुणों से लबालब भरे कोई विरले ही मानव दिखते है। मेरे नानाजी का रहन सहन बिल्कुल सादा और उनकी पोशाक नेताओं के समान थी। हम लोगों को बचपन में धार्मिक शिक्षा दिया करते थे, उसी संस्कार वश आज हम लोगों का जीवन भी धर्म मय है । समुद्र के लिए गंभीरता की उपमा दी जाती है समुद्र में लहरें वायु के संयोग से उठा करती हैं जब वायु नहीं चलती तो समुद्र बड़ा गंभीर और स्तब्ध होता है वैसे ही शांति उनके जीवन की अनुचरी थी। उनका जीवन संघर्षमय होने पर भी उन्होंने अपने गुणों को नहीं छोड़ा उनका कहना था कि सुख दुख में हमेशा शांत रहना चाहिए । एक वाक्य हमेशा कहा करते थे कि "यह न रहा है तो वह न रहेगा" अर्थात सुख नहीं रहा तो दुख भी न रहेगा। दोनों परिस्थितियों में समान रहना चाहिए। ऐसी नाना जी की कई बातें हम लोगों को जीवन में याद आती रहती हैं हम उनकों कभी भूल नहीं सकते । ऐसी परलोक में विराजमान उस महान आत्मा को मेरा शत् शत् बार प्रणाम ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रत्नसम अमूल्य मेरे नाना जी
श्रीमती प्रीति जैन, संजय जैन
महासैल, भोपाल (म.प्र.) नाना जी का नाम लेते ही मेरी आंखों के सामने नाना जी का चित्र झलकने लगता है मुझे बचपन के वह दिन याद आते हैं जब गर्मी की छुटटी के दिन नाना के पास में ही व्यतीत करते थे। जैसे रत्नों की दीप्ति अद्वितीय होती है, वह रत्न सब वस्तुओं में बड़ा मूल्यवान हुआ करता है, वैसे ही मेरे नाना जी एक अद्वितीय महापुरूष जान पड़ते थे उनमें विशेष रूप से ज्ञान की आभा झलकती थी, उनका महान व्यक्तित्व दिखाई देता था, उन्होंने अपना सारा जीवन ज्ञानार्जन में ही व्यतीत किया, जीवन पर्यन्त जिनवाणी की सेवा की है। अन्त समय तक विद्यार्थियों को भी अध्ययन कराते रहे ऐसा आत्मवल तो किन्हीं बिरले महापुरुषों में देखने को मिलता है। नाना जी समाज की धरोहर जैसे थे उनके दिवंगत होने पर हम सबको ऐसा लग रहा है जैसे हम लोगों के बीच से कोई कीमती वस्तु चली गई हो । नाना जी हम सब बच्चों को बहुत वात्सल्य से रखते थे और आदर्श जीवन की शिक्षा देते थे। सागर से जाने के बाद बहुत दिन तक नाना जी याद आते रहते थे। इन्हीं सब स्मृतियों को संजाते हुए उनका आगामी भव धर्म मार्ग पर प्रशस्त रूप से बना रहे ऐसी शुभकामना है।
सरल एवं सहज व्यक्तित्व
वीरेन्द कुमार शास्त्री
ग्राम बोरई (गढ़ाकोटा) सागर आदरणीय पंडित जी के बारे में कुछ कहना सूर्य को चिराग दिखाने जैसा है। आप इतने सरल एवं सहज स्वाभावी व्यक्ति थे कि मान तो कभी छू भी नहीं पाया है ।जिनवाणी के गूढ रहस्यों को अपनी विद्वतमय शैली एवं सुसंस्कारित सरल भाषा में उद्घाटित कर मानवीय गुणों की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देते रहे।
मैंने जब अध्ययन करने के लिए विद्यालय में दाखिला लिया, तब पं. जी प्राचार्य के पद पर प्रतिष्ठापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे। विद्यालय के समय, मैं पं. जी से बहुत डरता था लेकिन जैसे - जैसे सम्पर्क में आया तो इतना वात्सल्य एवं प्रेम मिला कि वर्णन नहीं कर सकता हूँ।
। एक दिन की बात हम सभी विद्यार्थी "बाहुबली जिनालय" में सामूहिक पूजन कर रहे थे कि अचानक पंडित जी भी दर्शनार्थ आये एवं हम सभी लोगों को पूजन की विधि एवं प्रभु का गुणानुवाद किस प्रकार किया जाता है या श्रावक को करना चाहिए यह बताया । यह सब मैंने पहली बार एक "सरस्वती
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पुत्र" के श्री मुख से सुना । तब से जिनेन्द्र प्रभु की आराधना करने के लिए मेरा मन प्रतिक्षण उत्साहित रहता है ।, यह आपकी प्रेरणा हमारे जीवन को सुगंधित एवं सुरभित कर रही है । पंडित जी जब पढ़ाते थे तो लगता था कि समय ही रूक जाये परन्तु पंडित जी पढ़ाते रहे और हम सुनते रहे । कोई विषय समझ में न आने पर या जिज्ञासा होने पर किसी भी समय जाकर समझ लेते थे और आप भी पुत्रवत मृदु स्वभावी होने के कारण सरलता पूर्वक विषय को समझाकर हमारे मन की भ्रांतियाँ अलग कर देते थे। उनके सानिध्य में हमें बहुत कुछ सीखने का सौभाग्य मिला है, पंडित जी कहते थे भले ही थोड़ा पढ़ो लेकिन चिंतन करके अपने आचरण में उतारने का प्रयास करो । पंडित जी के सहज, सरल, निर्मल एवं भद्र परिणाम होने के कारण वे सम्यग्दृष्टि थे। क्योंकि यह आगमोक्त है कि - "सम्यग्दृष्टि भद्र परिणामी होता है।" आप पूज्य गणेश प्रसाद जी “वर्णी" की सजग प्रतिभूर्ति थे एवं वर्णी जी के व्यक्तित्व कृतित्व के माध्यम से अपने जीवन को सुशोभित कर देश - देशांतर में दशलक्षण महापर्व, अन्य शैक्षिणिक एवं धार्मिक कार्यक्रमों, विद्वत - सभाओं आदि में धर्म की प्रभावना करते हुए ज्ञान की पताका फहराई एवं जिनवाणी के प्रचार - प्रसार एवं सेवा में अपना जीवन समर्पण कर दिया।
__पंडित जी ज्ञान रूपी कमल की तरह थे जिसकी सिद्धांत, ज्ञान, आचरण रूपी महक पूरे विद्यालय में आज भी विद्यार्थियों के लिए प्रेरणास्रोत बनकर कार्य करती है।
सहजता एवं सरलता की मूर्ति श्रद्धेय श्री के पावन चरणों में नम्रीभूत हो अपनी आदरांजलि समर्पित करता हूँ।
जीवन भर आपका कर्जदार रहूँगा
अखिलेश कुमार जैन,झलोन परम आदरणीय पं. दयाचदं जी साहित्याचार्य जी का सम्पूर्ण जीवन नि:स्वार्थ भाव से सबका उपकार करने में व्यतीत हुआ। वे हमेशा बस इसी चिंता में लगे रहते थे कि किस तरह से मैं इस विद्यालय (श्री गणेश दि. संस्कृत महाविद्यालय सागर) को एवं इस विद्यालय के विद्यार्थियों को सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचा दूं मैंने जितने बार भी उनके व्याख्यान को सुना, सदैव यही निष्कर्ष निकलता कि विद्यालय की उन्नति कैसे हो?
मैं अपने आपको बड़ा अभागा समझता हूँ कि मुझे आपसे पढ़ने का सौभाग्य नहीं मिला लेकिन मुझे आपके चरणों की छत्र - छाया में आठ वर्ष रहने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐंसा सोचकर थोड़ा सा मैं अपने आप में गर्व महसूस करने लगता हूँ। पंडित जी जब भी मुझसे बातें करते थे तो मैं अपने आपको
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ बड़ा भाग्यशाली समझने लगता क्योंकि इतने उच्च कोटि के विद्वान के सामने मैं उनके चरणों की धूल के बराबर भी नहीं था। वैसे तो पंडित जी में हजारों गुण थे लेकिन मैंने उनमें एक विशेष गुण पाया और वह है अपने ज्ञान का अभिमान न होना यह गुण बहुत ही कम लोगों में होता है।
सन् 2000 में जब मैं आठवीं कक्षा में था, दशलक्षण पर्व पर सब विद्वान प्रवचन हेतु बाहर जा रहे थे, मेरी भी तीव्र अभिलाषा थी कि मैं भी कहीं न कहीं किसी के साथ जाऊँ पर छोटी उम्र (13 वर्ष) होने के कारण कोई साथ ले जाने को तैयार न था, लेकिन पूज्य पंडित जी ने जब मुझसे पूंछा कि तुम मेरे साथ भोपाल चलोगे तो मुझे एक झटका सा लगा, कि संस्था के प्राचार्य इतने बड़े विद्वान के साथ जाने का मौका मिल रहा है, तो मैं तुरंत तैयार हो गया । आपके सानिध्य में रहकर मैंने जो अनुभव प्राप्त किये वो हमेशा काम आते है । आप मुझे हमेशा यही कहते कि समाज में जाना तो हमेशा अपना व्यवहार मधुर बना के रखना, खुश रहोगे।
__ आपका वात्सल्य हमेशा मेरे ऊपर रहा। समय समय पर आप मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहते थे। एक बार जब मैं छात्रवृत्ति फार्म पर पंडित जी के हस्ताक्षर करवाने गया तो आपने कहा था कि देखो अखिलेश हस्ताक्षर तो मैं कर दूंगा लेकिन अगर तुमने इन रुपयों का दुरुपयोग किया तो इसका सारा दोष मुझे लगेगा। और मैंने संकल्प किया था कि मैं हमेशा छात्रवृत्ति का सद् उपयोग करुंगा। और पंडित जी जब भी छात्रवृत्ति बांटते तो सबके पहले रजिल्ट देखते उसके बाद छात्रवृत्ति देते थे। उनकी यह विशेषता थी। जब मैं विद्यालय से उत्तर मध्यमा द्वितीय वर्ष की परीक्षा पास करके आ. भरतसागर जी के पास चला गया तो पंडित जी हमेशा यही कहते थे कि अपनी पढ़ाई जारी रखना, मैं जब भी घर आता तो आपसे मिलने जरूर आता । मैं 2 फरवरी 2006 को जब आपके पास आया तो आप कुछ अध्ययन कर रहे थे देखते ही पंडित जी ने पूछा कि क्यों कहाँ से आ रहे हो, पढ़ाई कर रहे हो कि नहीं। पंडित जी ने मुझे पास बैठाते हुए कहा कि अखिलेश मेरी एक बात हमेशा याद रखना कि इधर - उधर घूमने से कुछ नहीं होगा, अगर जीवन में सफल होना है तो स्थिर हो जाओ, पैसे कम मिले तो चिंता मत करना लेकिन स्थिर जरूर हो जाना | यह आपसे मेरी अंतिम मुलाकात थी इसके बाद मैं घर (झलौन) चला गया। 12 फरवरी को ज्यों ही सुना कि पंडित जी नहीं रहे तो मानो जैसे बिजली का झटका लग गया हो मैं दो तीन मिनट तक इक टक अचल सा हो गया विश्वास नहीं हो रहा था लेकिन यह विधान ही ऐसा है।
आपके जाने से विद्यालय को समाज को बहुत ही बड़ी क्षति हुई है, जो कभी भी पूरी नहीं हो सकती। आपके संस्कार आपके आदर्श, आपकी चर्या सदैव ही मेरे लिए अनुकरणीय रहेगी आपके आशीष की छत्रछाया अब हमें उपलब्ध नहीं, किन्तु आपका सम्पूर्ण जीवन हमें आगे की प्रेरणा देता रहेगा। यही मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
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व्यक्तित्व
ज्ञान और वात्सल्य के समुन्दर थे पूज्य पंडित जी
पू. पण्डित जी का अंतिम शिष्य राजकुमार शास्त्री, प्रिन्स (एम.ए.), जबलपुर
पूज्य पंडित श्री डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य ज्ञान और वात्सल्य भाव के धनी थे । पूज्य पंडित जी की याद हमारे अंतरंग में आती है तो उनके जीवन की सचित्र झलकियाँ अंतरंग में तैरने लगती है।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
हम पूज्य पंडित जी के अंतिम विद्यार्थी रहे है। अंतिम अवस्था में भी पूज्य पंडित जी की कर्तव्य परायणता और ज्ञान पिपासा हमारे जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण शिक्षा देती है । पूज्य पंडित जी अपनी अंतिम अवस्था में भी हम लोगों को पढ़ाने के लिए अपने समय पर आते थे । तथा उनकी पिपासा इतनी अधिक थी कि जब पूज्य पंडित जी पढ़ाने में असमर्थ हुए तब हम लोगों से कहते थे कि आप लोग पढ़कर सुनाओ जिससे मेरा स्वाध्याय हो जायेगा | उनका ज्ञान इतना प्रबल था कि हम लोगों के पाठ में भी वे गलतियाँ निकालकर मौखिक बता देते थे। पूज्य पंडित जी का वात्सल्य छात्रों के प्रति बहुत अधिक था जब हम लोग मिलते थे तो बड़े ही प्रेम से हम लोगों को समझाते थे । वे कहते थे कि मैं आपके पिता के समान हूँ तथा वात्सल्य के रूप में कहा जाये तो पूज्य पंडित जी पूज्य वर्णी जी की प्रतिमूर्ति थे ।
पूज्य पंडित जी जीवन भर धर्म के प्रति सजग रहे भगवान की पूजन करना उनके लिए एक महत्वपूर्ण कर्तव्य था तथा नियम पालन में वे हमेशा सजग रहते थे। श्रावक के छः आवश्यकों को वे हमेशा पालन करते थे। वे इस प्रकार है :
देव पूजा गुरु पास्ति स्वाध्याय: संयमः तपः । दानंचेति गृहस्थाणां, षट् कर्माणि दिने दिने ||
अंतत: : पूज्य पंडित जी के जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला जावें तो उनका सारा जीवन एक आदर्श जीवन रहा है । उन्होंने अपने जीवन में “सादा जीवन उच्च विचार" वाली इस सुक्ती को चरितार्थ किया | उनका जीवन एक आदर्श व्यक्तित्व की शिक्षा देता है ।
पूज्य पंडितजी के जीवन के बारे में जितना वर्णन किया जावें उतना ही कम है। किसी ने कहा है कि
सात समुन्दर की मसि करो, लेखन सब बन राई ।
धरती सब कागद करो, गुरुगुण लिखा ना जाई ॥
तथा अंत में श्री पं. दयाचंद जी नहीं है पर याद शेष चन्द्रमा की तरह मंद-मंद मधुर मधुर ज्ञान कलाएँ बिखेरती ।
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सागर के सूर्य की सुखद स्मृति
महाकवि योगेन्द्र दिवाकर, सतना म.प्र. हे विशुद्धात्मन् ! सर्वज्ञता की ओर जो गये उनकी सुखद स्मृति, कृतज्ञता का आदर्श प्रस्तुत करती हुई शाश्वत ही होती है। ज्योतिपुंज डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य की अप्रतिम स्मृति को प्रणाम करते हुए हम आत्मा से गदगद होते है क्योंकि वे पर्याप्त प्रबुद्ध प्राचार्य होकर भी अति भोले भाले महामानव थे जो मूक दृष्टा साहित्य मनीषी के रूप में सागर के सुप्रसिद्ध चिंतक व सरस्वती के चरणों में समर्पित थे महामनस्वी होकर भी शांत स्वर में कहते थे कि -
सम्पूर्ण विश्व में शिक्षा से ही सदाचार ।
शिक्षा ही खोले अंतरंग के सत्यद्वार । धराधाम के विद्वत्जनों में ऐसे महान आदर्श शिक्षक डॉ. दयाचंद जैन वास्तव में सागर के सूर्य थे। हमने सूर्य का अभिनंदन पहले नहीं किया (उनके जीवन काल में) अब ‘साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ' नाम से सार्थक स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित कर रहे हैं शायद भगवान के ज्ञान में ऐसा ही सुयोग सम्भाव्य होना था । महाकवि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का दोहा -
उपादान की योग्यता, निमित्त की भी छाप ।
स्फटिक मणि में लालिमा, गुलाब बिन ना आप || इस आदर्श ग्रन्थ के प्रकाशन में सारी शंकाओं का समाधान करना है। सही बात तो यह कि पंडित जी ने सागर में रहकर सागर का नाम अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से ऊँचा किया है, इसलिए सागर निवासी भी अपने पंडित जी के प्रति अपनी निश्चय व्यवहार मैत्री का मुखबंध दे रहे है जिसकी -
स्याही काली, पीली, नीली. हरी लाल है कई रंग की। किन्तु आत्मा बिना रंग की, और अमूर्तिक बिना अंग की।
शब्दातीत उपशांत आत्मा, ज्योतिर्मय जो सदा अनूठी।
जिसके प्रति, विचार सूत्र है , जो अखण्ड मुक्तिप्रद होती॥ ऐसी पंडित जी की महान आत्मा का मंगल गान कौन अक्षर पुरुष नहीं करेगा। हम तो सागर के सूर्य से कई बार मिले है। हमने देखा है उनका सादा जीवन, उच्च विचार मोराजी के प्रांगण में उनकी स्मृतियों का शाश्वत आज भी जीवंत है सच तो ये है -
सागर देखता रहा और वे सागर के सूर्य बन गये। दर्शन ज्ञान आचरणमयी ऊर्जा लिए अपूर्व बन गये ॥
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संस्मरण में पंडित जी
पं. राजेन्द्र कुमार जैन, शाहपुर जब हम कक्षा पांचवी पढ़ते थे। हमारे बब्बा जी श्री भगवान दास जी भायजी के पांचों पुत्र श्री माणिकचंद्र जी, श्री श्रुतसागरजी, श्री दयाचंद्र जी, श्री धरमचंद्र जी एवं श्री अमर चंद्र जी शाहपुर में जन्में इनमें श्री माणिकचंद्र जी, श्री श्रुतसागर , श्री दयाचंद्र जी बाहर सर्विस करते थे। गर्मी की छट्टियों में तीनों भाई अपने पिताजी के पास आते थे। फिर होती थी उनमें धर्म चर्चा । सुबह भोजन के पश्चात् सभी भाई इकट्ठा एक हाल में बैठ जाते थे। श्री पंडित माणिकचंद्र सभी को पान लगाकर देते जाते थे। उनकी आपस में घंटों संस्कृत में चर्चा चलती रहती थी। मैं वहां बैठकर पान खाने के लालच में बैठा रहता और उनके संस्कृत के वार्तालाप को सुनता रहता था। उनके संस्कृत का परिसंवाद और मधुर हास्य आज भी याद आता है।
___ पूज्य भगवानदास जी भायजी उत्कृष्ट अध्यात्म वेत्ता के साथ एक अच्छे संगीतकार भी थे। वे अपने पुत्रों में पंडित धर्मचंद्र जी एवं श्री अमरचंद्र जी को गायन वादन सिखाते हुए देखा सुना है उन्होंने अपने नातियों एवं श्री भानू कुमार आदि को हारमोनियम सिखाते हुए देखा । तब मैं वहां बैठकर देखता सुनता और जब भी मौका मिलता हारमोनियम बजाता। बब्बा जी के आते ही भाग जाता। तीनों बड़े ताऊ बाहर से आते तब शिक्षा की गतिविधियां बढ़ जाती थी। तब गमिर्यो की छुट्टियों का समय कैसे बीत जाता था पता ही नही चलता था । पूज्य भगवान दास जी भायजी के स्वर्गवास के बाद अनेक वर्षो तक सभी ताऊ जी आते रहे। धीर धीरे उनकी व्यस्ततायें बढ़ती गयी धारा प्रवाह आनंद घटता चला गया। आज हमारे बीच हमारे परिवार के पांच पांडवों के नाम से विख्यात पंडितों में से आज चार पांडव हमारे बीच नहीं है केवल आखिरी स्तंभ पंडित अमर चंद्र जी हमारे परिवार एवं संपूर्ण समाज के मार्गदर्शक के रूप में हमारे बीच विद्यमान है वे निरोग रहकर अपना आशीष देते रहे।
मेरे जीवन के प्रकाशक पंडित जी
सुदीप कुमार, सगरा जब से मैंने श्री गणेश दिग. जैन संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन के लिये प्रवेश किया था तब से पंडित जी का मेरे ऊपर बहुत वात्सल्य था, जीवन में कोई शिक्षा देते थे तो बहुत समझा समझाकर बताते थे कि ये विद्यार्थी भविष्य में कभी इन बातों को भूल न जायें तथा उन नैतिक व धार्मिक बातों को हमारे अन्दर प्रवेश करा देते थे। कहीं भी दशलक्षण पर्व आदि में बाहर जाते तो हमें साथ ले जाते थे और उपदेश देने की
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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कला सिखाते थे। जीवन में समाज के बीच में कैसे बैठना, कैसे उठना कैसे व्यवहार करना इन सभी बातों का ज्ञान कराते थे हमारे जीवन को धार्मिक बनाने में पंडित जी का ही योगदान है इसलिये वह हमारे जीवन
प्रकाशक हैं कभी भी पंडित जी के घर पहुँच जाते थे तो अपने खाने - पीने की वस्तु में से मुझे भी दे देते थे कि लो सुदीप मीठा मुँह करो। ऐसा वात्सल्य हमें अपने जीवन में किसी से नहीं मिला, जो एक गुरु से प्राप्त हुआ है। अपनी दिनचर्या को समय से चलाओ, प्रत्येक कार्य का अपना समय होता है, समय की सीमा
बाहर कार्य शोभा नहीं देता, जैसे समय से सामायिक करना, समय पर पूजा करना और समय पर भोजन करना, प्रत्येक कार्य अपने समय से करते रहो, जीवन में जागृति बनी रहेगी तथा जीवन का लक्ष्य बनाओ, कि पढ़कर के क्या करना है जीवन का प्रत्येक कार्य धर्म से जुड़ा रहना चाहिये, धर्म बिना कार्य शोभा नहीं पाता, ऐसी शिक्षा हमें पंडित जी हमेशा दिया करते थे । जो हमारे जीवन को प्रकाशित कर गये, ऐसी दिवंगत आत्मा को हमेशा प्रणाम करता रहूँगा और उन्हीं के बताये मार्ग पर चलता रहूँगा इसी शुभाकामना साथ विराम लेता हूँ ।
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खण्ड-तृतीय
परस्परोपग्रहोजीवानाम्
कर्तृत्व डॉ. दयाचंद साहित्याचार्य की लेखनी से
निसृत जिनभाषित रहस्य
malianimom
Rue des use only
www.jainenorary.org
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
खण्ड-3 डॉ. दयाचंद्र साहित्याचार्य - प्राचार्य की लेखनी से निसृत
जिन भाषित रहस्य
कर्तृत्व- हिन्दी
कर्मयुग के प्रवर्तक आदि ब्रह्मा ऋषभदेव
अति प्राचीन इस आर्यावर्त में उन्नतिकाल के भोगभूमियुग में भोजनांग, वस्त्रांग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्षों द्वारा जीवन निर्वाह के योग्य सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओं को प्राप्त कर उनका मानव भोग करते थे इसलिए उस युग को भोगभूमि या भोगयुग कहते हैं और अवनतिकाल के कर्मभूमियुग में सर्वकल्पवृक्षों का अभाव हो जाने के कारण, लेखनकर्म, कृषिकर्म आदि छह कर्मो के द्वारा अपना यथायोग्य जीवन निर्वाह मानव करते थे उस युग को कर्म भूमि या कर्मयुग कहते हैं। यह काल का परिवर्तन स्वयमेव होता है।
इस विश्व में भोगयुग एवं कर्मयुग का परिवर्तन सदैव होता रहता है। जब भोगयुग (भोगभूमि) का अंत होने के अनंतर ही कर्मयुग (कर्मभूमि) का प्रारंभ हो रहा था, इस परिवर्तन काल में तीर्थंकर परम्परा के जन्मदाता प्रथम तीर्थकर ऋभषदेव ने अयोध्यानगरी के राजमहल में चैत्रकृष्ण नवमी के मंगलमय सुप्रभात में अवतार लिया। तीर्थंकर के सातिशय जन्म से पिता महाराजा नाभिराज एवं माता मरूदेवी के हृदय सरोवर हर्ष से परिपूर्ण हो गये। तीर्थंकर के आवश्यक अवतार के विषय में पुराणों में कहा गया है :
आचाराणां विद्यातेन, कुदृष्टीनां च सम्पदा । धर्म ग्लानिपरिप्राप्तं, उच्छयन्ते जिनेश्वरा : ॥
(रविषेणाचार्य: पद्मपुराण: पर्व -5) सारांश - जब जब इस भूमि पर सदाचार का नाश और दुराचार , अधर्म प्रचलित होने लगता है, कुरीतियाँ, अन्याय वृद्धिंगत होने लगते है, धर्म का दिनों दिन हास होने लगता है, उस भयंकर समय में तीर्थंकर जैसे महापुरूष अवतार लेते हैं । ऋषभदेव के सातिशय जन्ममात्र से ही लोक में स्वाभाविक आनंद की लहर व्याप्त होने लगी। इस समय देव समाज और मानव समाज ने एक साथ जन्म समय महोत्सव के द्वारा
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कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सार्वभौमिक हलचल मचा दी। मेरूपर्वत पर देव समाज के अधिपति इन्द्रों द्वारा जन्माभिषेक 1008 कलशों से समारोह के साथ किया गया। इस महोत्सव को दूसरे शब्दों में जन्मकल्याणक महोत्सव कहते हैं। ऋषभ जन्म के प्रभाव से आकाश निर्मल, पृथ्वी स्वच्छ, पुष्पवर्षा, सुगंधित मंद पवन, वाद्यों के घोष, संगीत के साथ नृत्य गायन, जय जयकार और इन्द्रों के आसन कम्पित होने लगे ।
बाल्यकाल में ऋषभदेव का रूप एवं आकृति सुन्दर, शरीर सुगंधित, पसीना तथा मलमूत्र का अभाव, प्रिय हित सुन्दर वचन, अतिसबल, शरीर में सफेद रूधिर, शरीर में 1008 शुभ लक्षण, शरीर वज्रवृषभ नाराच संहनन से अतिदृढ़ दर्शनीय था । दिव्य वस्त्राभूषणों से सुशोभित ऋषभदेव अन्य बालकों के साथ स्वाभाविक बाल क्रीड़ा करते थे । जिसको देखकर देव एवं मानव प्रसन्न होते रहते थे । उनका बाल्य जीवन आनंदप्रद, शिक्षाप्रद और संस्कारप्रद होता था ।
जन्म से पूर्व गर्भ कल्याणक का वर्णन करना आवश्यक है -
ऋषभदेव पूर्व भव में स्वर्ग लोक के श्रेष्ठ सर्वार्थसिद्धि विमान के ज्ञानोपयोगी देव थे । वहाँ की स्थितिपूर्ण होने पर वे आषाढ कृष्णा द्वितीया के उत्तराषाढनक्षत्र शुभ मुहूर्त में, अयोध्या के राज भवन में विराजमान मातेश्वरी त्रिशला के गर्भ में आये । माता को तत्काल बहुत हर्ष हुआ। गर्भ में आने के छह माह पूर्व से जन्म समय तक पन्द्रह मास पर्यन्त अमूल्य रत्नों की वर्षा से मानव सम्पत्ति सम्पन्न हो गये । एक दिन रात्रि के अंतिम प्रहर में माता मरूदेवी ने सोलह मंगल स्वप्न देखे । उन स्वप्नों का शुभफल यह था कि सर्व गुण सम्पन्न प्रबुद्ध प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव का सातिशय जन्म होगा, जो युग प्रवर्तक एवं मुक्ति मार्ग का प्रवर्तक होगा ।
प्रात: काल मंगलवाद्यों की मधुर ध्वनि के साथ मंगलगीत और परमेष्ठी परम देवों की जय ध्वनि गगन में गुंजित हुई। मातेश्वरी ने जागरण कर नमस्कार मंत्र का पाठ करते हुए परमात्मा का स्तवन किया । पश्चात् जिनालय में प्रवेश कर परम देव शास्त्र गुरु का भावपूर्वक अर्चन किया । प्रातः काल का यह कर्तव्य सभी महिला एवं मानवों को अनुकरणीय है। दिक्कुमारी एवं अन्यकुमारियों ने माता की सेवा, शिक्षाप्रद प्रश्नोत्तर, वार्तालाप, मधुरसंगीत, गुणकीर्तन, तीर्थंकर पुत्र जन्म का शुभ संदेश और मंगल कामनाओं द्वारा मातेश्वरी का हृदय हर्षित किया ।
पूर्व जन्म की पवित्र भावना एवं शुभ संस्कारों से सुसंस्कृत, स्वयंबुद्ध, प्रबुद्ध और दूरदर्शी ऋषभदेव द्वितीयाचंद्र के समान वृद्धिंगत होते हुए युवावस्था को प्राप्त हुए । ऋषभदेव ने किसी भी महाविद्यालय में अध्ययन नहीं किया, कारण कि उनकी पवित्र आत्मा में पूर्व जन्म के संस्कार से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधि ज्ञान विशेष का उदय था जिनके प्रभाव से वे कोई अन्याय, अनीति एवं अधर्म का कार्य नहीं करते थे किन्तु लौकिक और पारमार्थिक सभी कार्य विवेक से करते थे ।
युवावस्था प्राप्त होने पर महाराजा नाभिराजा ने ऋषभदेव के साथ परामर्श कर उनका पाणिग्रहण संस्कार धार्मिक पद्धति से दो सुयोग्य कन्याओं के साथ सम्पन्न कर दिया। उन कन्याओं का परिचय - ( 1 )
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कृतित्व / हिन्दी
कच्छदेश के राजा की बहिन यशस्वती, (2) महाकच्छदेश के राजा की बहिन सुनंदा,
कर्मयुग का यह सबसे प्रथम विवाह संस्कार था जो कि अन्य मानवों के लिए विवाह संस्कार का पथ प्रर्दशक हुआ था । माता - पिता दोनों ऋषभदेव के गृहस्थ जीवन से अति प्रमुदित हुए । समय व्यतीत होने पर यशस्वतीरानी ने चैत्र कृष्णा नवमी के शुभमुहूर्त में वीर पुत्र भरत को जन्म दिया। जो भारतवर्ष (आर्यावर्त) का भरत चक्रवर्ती होगा। कुछ समय पश्चात् ब्राह्मी नाम की एक श्रेष्ठ पुत्री हुई।
सुनंदारानी (द्वितीय) ने कुछ समय पश्चात् शुभ वेला में बाहुबलि नाम के सुपुत्र को जन्म दिया, जो बलिष्ठ प्रथम कामदेव का पद धारण करेगा। समय व्यतीत होने पर सुनंदा ने सुंदरी नामक कन्या रत्न को जन्म देकर अपने इक्ष्वाकु वंश कृतार्थ किया। इस प्रकार इस आर्यावर्त के ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर भरत प्रथम चक्रवर्ती और बाहुबलि प्रथम कामदेव सुशोभित हुए।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
एक समय ऋषभदेव सिंहासन पर विराजमान थे, उसी समय ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने आकर विनयपूर्वक पिता जी को प्रणाम किया। दोनों पुत्रियों को गोद में बिठाकर उनके विनय आदि गुणों की प्रशंसा की। उनसे यह भी कहा कि विद्या से मानव जीवन का कल्याण होता है एवं जीवन पवित्र होता है। इसलिए तुम दोनों को विद्या का अभ्यास करना चाहिए। उन दोनों पुत्रियों ने विद्याभ्यास की इच्छा प्रकट की। ऋषभदेव ने श्रुतज्ञान देवता का स्मरण कर ब्राह्मी को ब्राह्मी भाषा और लिपि का अभ्यास कराया व्याकरण साहित्य आदि विषयों का पाठ पढ़ाया। सुन्दरी कन्या को भी "ओं नमः सिद्धेभ्यः " मंत्र का उच्चारण कराते हुए | अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित का अच्छा अभ्यास कराया । कुछ समय पश्चात् वे दोनों कन्यायें अपने - अपने विषय में विदुषी हो गई । ऋषभदेव ने प्रसन्न होकर उन दोनों विद्या प्रवीण कन्या रत्नों को मंगलमय आशीर्वाद प्रदान किया ।
ऋषभदेव ने अपने पुत्र भरत, बाहुबलि आदि को भी यथायोग्य, राजनीति, नाट्यकला, समाजशास्त्र, विज्ञान, साहित्य आदि कलाशास्त्रों का ज्ञान कराया। साथ ही सम्यक् श्रद्धा, सम्यक्विज्ञान और सम्यक्आचरण रूप आध्यात्मिक विद्या की शिक्षा प्रदान कर कृत्य पूर्ण किया ।
यह संक्रान्ति का युग था, भोगयुग की समाप्ति होने से कल्पवृक्षों का अभाव हो गया। उनके अभाव से मानवों के लिए जीवन निर्वाह की सामग्री तथा कपड़ा, रोटी और मकान का मिलना कठिन हो गया । निराधार जनसमूह जब भोजन आदि के अभाव से बहुत दुखी होने लगा, तब अपने रक्षक महाराजा नाभिराज के दरवार में जन समूह एकत्रित होकर चिल्लाने लगा - महाराज ! रक्षा करो ! रक्षाकरो ! भूख प्यास सता रही है, खाने पीने को कुछ भी नहीं है रक्षा करो यह दुःखभरी आवाज सुनकर नाभिराजा ने जनसमूह से कहा - तुम्हें दुखी होने की जरूरत नहीं है, तुम शीघ्र ही ऋषभदेव के पास चले जाओं, वे तुम्हारी सब पीड़ा को दूर करने में समर्थ हैं। यह सुनकर जनसमूह ऋषभदेव के महल पर आया और पूर्ववत् चिल्लाने लगा । ऋषभदेव ने जोरदार शब्दों में कहा, दुःखी मत हो ओ । सामने प्राकृतिक उत्पन्न ये गन्ने (इक्षु) के पेड़ लगे हुए हैं, इनको टुकड़े टुकड़े कर इनका रस चूसो, तुम्हारी भूख प्यास दोनों दूर हो जावेगी । जन समूह ने सैकड़ों गन्ने
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उखाड़कर रस चूसा तो जनता की भूख प्यास दोनों शान्त हो गई। जनता प्रसन्न होकर ऋभषदेव का जय जय कार करने लगी। उस समय ऋषभदेव ने इक्षु (गन्ने) की खेती करना सिखलाया।
भूखी प्यासी जनता के प्रार्थना करने पर ऋषभदेव ने सर्वप्रथम इक्षु शब्द का प्रयोग किया था, इसलिए ऋषभदेव का वंश 'इक्ष्वाकु' इस नाम से प्रसिद्ध हो गया । शास्त्रों में कहा है - "इक्षु इति शब्दं अक तीति, अथवा इक्षुमाकरोतीति इक्ष्वाकुः इति" अर्थात् भूखी प्यासी जनता के माँग करने पर सर्वप्रथम इक्षु शब्द का प्रयोग किया था इस कारण ऋषभदेव का वंश 'इक्ष्वाकु' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। ऋषभदेव का राज्याभिषेक: -
कुछ समय पश्चात् इन्द्र देव और विशिष्ट मानवों ने मिलकर सिंहासन पर ऋषभदेव का राज्याभिषेक कर वस्त्राभूषण धारण कराये, तिलक करण किया , नाभिराजा ने अपने शिर का मुकुट उतार कर ऋषभदेव के सिर पर स्थापित किया, तलवार एवं श्रीफल करकमलों में समर्पित किया, इसी समय देश देश के मण्डलेश्वरों द्वारा उपहार के थालभेंट किये गये, आर्यावर्त का सम्राट घोषित किया गया, वाद्यों की मधुर ध्वनि, पुष्पवर्षा, मंदपवन, गंधोदक वृष्टि, नृत्यगायन और जय ध्वनि से आकाश व्याप्त हो गया। देवों द्वारा 'आनंद' नाटक का अभिनय किया गया।
ऋषभदेव सम्राट ने अयोध्या में अनेक विशाल मंदिरों के साथ सुकोशल, अवन्ति, मालव, काशी, महाराष्ट्र, काश्मीर, कलिंग आदि अनेक देशों का एवं ग्रामों का निर्माण कराया । नगरों को स्थापित कराया।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको राष्ट्रों के निर्माण के साथ षट्कर्मो का उपदेश दिया जो इस प्रकार हैं - (1) असिकर्म-सैनिकवृति,शस्त्र-अस्त्रों का संचालन, सैनिकों के कर्तव्य आदि। (2) मसिकर्म: -भाषा एवं लिपि की कला, कानून शास्त्र, राजनीति, विद्यालय एवं महाविद्यालयों की स्थापना कर शिक्षा का उच्चस्तर करना, परीक्षाओं, की व्यवस्था आदि । (3) कृषिविज्ञान - वनस्पति, अन्न, फलफूल, शाक आदि का उत्पादन। (4) विद्या - पुरूषों की बहत्तर कलाओं का शिक्षण, तथा महिलाओं की चौंसठ कलाओं का शिक्षण, रचना और विकास । (5) वाणिज्य बाजार स्थापित करना, दुकानों की व्यवस्था, विविध माल का उत्पादन, न्यायपूर्वक व्यापार की व्यवस्था करना आदि। (6) शिल्पकर्म भवन निर्माण, मिट्टी के बर्तन बनाना, क्षौरकर्म, काष्ठकर्म, लौहकर्म, स्वर्ण चाँदी के आभूषणों का निर्माण, धातु के बर्तन, वस्त्रकला आदि । ऋषभदेव ने प्रजा के सुखपूर्वक जीवन निर्वाह के लिए उक्त षट्कर्मो के उपदेश और आदेश दिये, जिससे प्रजा सुख से जीवन व्यतीत करने लगी
__ किसी मानव से अपराध होने पर यथायोग्य हा,मा,धिक ये तीन दण्ड घोषित किये गये । (1) हा अर्थात् बड़े दुःख की बात है कि आप जैसे चतुरपुरूष ने यह अपराध किया है, अब नहीं करना । (2) मा - बड़े आश्चर्य की बात है कि आप जैसे विवेकी ने यह अपराध किया है अब भविष्य में ऐसा अपराध न हो । (3) धिक - आप जैसे शिक्षित पुरूष यह अपराध करते हैं आप के जीवन को धिक्कार है अब भविष्य में कभी नहीं करना । इन दण्डों से पुरूष सावधान हो जाता था।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सम्राट ऋषभदेव ने चार वंश स्थापित किये, जिससे समाज की सुयोग्य व्यवस्था स्थिर रहे - (1) हरिवंश, (2) अकम्पन वंश (नाथवंश), (3) काश्यप (उग्रवंश), (4) सोमप्रभ (कुरूवंश) । प्रत्येक वंश के अंतर्गत चार - चार हजार क्षत्रियराजा थे। आत्मकल्याण या जीवन शुद्धि के लिए अन्य षट्कर्म :
(1) परमदेव, शास्त्र और गुरु का दर्शन एवं गुणकीर्तन । (2) सुयोग्य गुरु की उपासना, (3) ज्ञानवृद्धि के लिए ग्रन्थों का स्वाध्याय, लेखन, मनन, (4) पंच इंद्रियों का वशीकरण तथा प्राणियों की सुरक्षा करना। (5) तप बढ़ती हुई इच्छाओं को रोकना, हिंसा आदि पापों के विचारों को नहीं करना, सादा जीवन और उच्चविचार करना.धार्मिक तत्त्वों का मनन करना। दान, परोपकार या सेवा करना -
(1) पात्रों को आहार देना, दीन दुखी अनाथों के लिए भोजन व्यवस्था, प्रपा (प्याऊ) की व्यवस्था, कूपों का निर्माण, जल (पेय) की व्यवस्था करना । (2) विद्यालय, महाविद्यालयों को स्थापित कर उनकी व्यवस्था करना। पुस्तकों का वितरण करना, अज्ञानियों को ज्ञान दान करना, लिखाई की व्यवस्था, परीक्षक एवं परीक्षा की व्यवस्था, संस्था का वार्षिक अधिवेशन, सभाओं और धार्मिक कवि सम्मेलनों के आयोजन, गोष्ठी का आयोजन, ग्रन्थ प्रकाशन आदि । (3) धर्मार्थ औषधालय एवं अस्पतालों का संचालन, पीड़ित रोगी के दवा परिचर्या और पथ्य की व्यवस्था, आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार औषधियों का निर्माण, प्राकृतिक चिकित्सा की व्यवस्था, योग चिकित्सा की व्यवस्था, दैनिक चर्या को व्यवस्थित बनाना, पर्यावरण की शुद्धि एवं सुरक्षा, सुर्योदय के पूर्व जागरण, पठन और पर्यटन, शुद्ध शाकाहार विहार- आहार, स्वच्छता के साथ जीवन यापन आदि। (4) धर्मशाला, अतिथिगृह, उदासीन आश्रम, छात्रावास, उपासना गृह आदि का निर्माण एवं उनकी व्यवस्था करना, गृहहीन दीनजनों के लिए गृहव्यवस्था, सर्विस अथवा व्यापार का आश्रय देना, निर्बल तथा अल्पसंख्यकजनों की सुरक्षा, गाय, भैस आदि पशु पक्षियों की सुरक्षा, मांसाहार और मांस व्यापार का विरोध आदि इस प्रकार अहिंसा प्रधान शासन करते हुए ऋषभदेव के जीवन का बहुत समय व्यतीत हो गया। ऋषभदेव का वैराग्य और दीक्षा कल्याणक -
सम्राट ऋषभदेव अयोध्या के राज दरबार में सिंहासन पर विराजमान थे। एक दिन इन्द्र ने राज दरबार में नृत्य करने के लिए नीलांजना अप्सरा को भेजा। सुन्दर नृत्य करते हुए वह विलुप्त हो गई। रंग में भंग न हो, इस कारण इन्द्र ने तत्काल दूसरी उसी आकृति की नीलांजना दरबार में भेज दी । उसका नृत्य भी होने लगा। इस चमत्कार को देखकर ऋषभदेव अपने अवधि ज्ञान से समझ गये कि जैसा नीलांजना का जीवन क्षणिक है वैसा ही विश्व समस्त प्राणियों का जीवन क्षणिक है कोई अजर अमर नहीं है। इस प्रकार विचार करते हुये ऋषभदेव की मतिश्रुत अवधि ज्ञान परिपूर्ण आत्मा में संसार शरीर और पंचेन्द्रियों के योग्य विषयों से उदासीनता समा गई। ऋषभदेव ने चक्रवर्ती भरत को भारत का राज्य तिलक करण एवं मुकुट बंधन के साथ प्रदान किया
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तथा बाहुबलि को राज्य देकर युवराज पद प्रदान किया । अन्य पुत्रों को भी यथायोग्य राज्य प्रदान किये।
पश्चात् शिबिका (पालकी) द्वारा पुरिमतालपुर के सिद्धार्थ वन में जाकर चैत्रकृष्ण नवमी के शुभलग्न में वस्त्राभूषणों का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा को अंगीकार किया । सर्वप्रथम छह मास का अनशन और मौनपूर्वक ध्यान दशा में स्थिर हो गये। इसके पूर्व वैराग्य के समय पंचम स्वर्ग के निवास स्थान से पधारकर आठ लौकान्तिक सम्यग्दृष्टि देवों ने ऋषभदेव के वैराग्यपूर्ण विचारों का समर्थन एवं स्तवन को किया । ध्यान समाप्त कर आहारचर्या के लिए विहार किया । दिगम्बर साधु को आहारदान की विधि के अनभिज्ञ होने के कारण छह माह तक अंतरायों के आने पर भी मुनिराज ऋषभ संतोष के साथ मौन धारण किये रहे । नगरों में विहार करते हुए इस युग के सर्वप्रथम ऋषभ मुनिराज ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया | उनके प्रथम दर्शन कर नगर के महाराजा श्रेयांस और सोमप्रभ की पवित्र आत्मा में पूर्व जन्म में दिगम्बर मुनि को दिये गये आहार
और उसकी विधि का स्मरण हो गया । तत्काल उन्होंने नवधा भक्ति के साथ मुनिराज ऋषभ को इक्षुरस का दान देकर एक वर्ष तेरह दिनों की पारणा कराने का पुण्य अवसर प्राप्त किया। उसी समय पाँच उत्सवों का दृश्य उपस्थित हुआ (1) दुन्दुभिवाद्यों की ध्वनि, (2) पुष्पवर्षा, (3) मंदमंदपवन (4) सुगंधित जल की मंद वर्षा , (5) जय जय कार । ऋषभ मुनिराज ने दीर्घकाल के पश्चात् इक्षुरस का आहार लेकर 'शाकाहार' के आदर्श को प्रसिद्ध किया । यह पुण्य अवसर था वैशाख शुक्ला तृतीया जो अक्षय तृतीया पर्व के नाम से लोक में और पुराणों में प्रसिद्ध है।
हस्तिनापुर से यथा समय विहार, तपस्या और उपदेश करते हुए अनेक नगरों से पार होकर पुरिमतालपुर (प्रयाग) के शकटनाम उद्यान में वट वृक्ष के नीचे शिलातल पर पूर्वाभिमुख विराजमान मुनिराज ऋषभ ने शुक्ल ध्यान के प्रभाव से फाल्गुन कृष्णा एकादशी की शुभवेला में सम्पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त किया । देव, इन्द्र, विद्याधर, मानव, भरतचक्री, कामदेव बाहुबलि आदि महापुरूषों ने पुरिमतालपुर में दीक्षा कल्याणक के समान केवल ज्ञान कल्याणक का विशेष पूजा के साथ महोत्सव किया। इसलिए इस पुरिमतालपुर का नया नाम प्रयाग (प्रकृष्ट: यागा: पूजा यस्मिन् नगरे संजाता इति प्रयागः) अर्थात् दो कल्याणकों की विशेष पूजा जहाँ हुई उसको प्रयाग कहने लगे । यवन संस्कृति की अपेक्षा इलाहाबाद प्रसिद्ध हो गया | उसी समय वह वटवृक्ष 'अक्षयवट' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। केवल ज्ञान का उदय एक हजार वर्ष की घोर तपस्या का सुफल है जो घातिकर्मो के क्षय से होता है।
उसी समय इन्द्र की आज्ञा से कुवेर देव ने गोल विशाल समवशरण की रचना की। जिस में बारह सभायें चारों और शोभायमान होने लगी - (1) गणधर आदि मुनि प्रवर, (2) कल्पवासी देवियां, (3) ज्योतिषदेवियां, (4) व्यंतरदेवियां, (5) भवनवासी देवियां, (6) भवनवासी देव, (7) व्यंतरदेव, (8) ज्योतिषदेव, (9) कल्पवासी देव, (10) आर्यिका तथा श्राविका, (11) मानव (12) संज्ञीपशु - पक्षी । चौबीस घण्टों में 2.24 मि. उपदेश पश्चात् 3.36 मि. विराम, चार समय भगवान ऋषभदेव का दिव्य उपदेश - अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह ,स्याद्वाद (अनेकान्तवाद) अध्यात्मवाद, कर्मवाद, मुक्तिवाद और सिद्धांत विषयों पर होता था ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रयाग से विहार करते हुए भगवान ऋषभदेव ने सैकड़ों वर्षों तक आर्यावर्त के शत् शत् नगरों में विहार कर देव मानव और पशु पक्षी समाज को सम्बोधित किया।
विहार की समाप्ति होने पर भगवान् ऋषभदेव कैलाश पर्वत की शिलापर पूर्वाभिमुख पद्मासन से विराजमान होकर श्रेष्ठ चतुर्थ शुक्ल ध्यान के द्वारा अघातिकर्मो का क्षय कर माघ कृष्णा चतुर्थी के प्रातःकाल ब्राह्म मुहूर्त में नित्य परमात्मपद (मुक्ति धाम ) को प्राप्त हो गये । इसी समय देव इन्द्र, विद्याधर मानव, भरतचक्री, बाहुबलि आदि महापुरूषों ने एकत्रित होकर केवल ज्ञान कल्याणक का महोत्सव अनुपम भक्ति के साथ समाप्त किया। भगवान ऋषभदेव के पाँचो ही कल्याणक विश्व का कल्याण करने वाले हैं। भगवान ऋषभदेव की प्राचीनता -
भारतीय इतिहास, पुरातत्व और संस्कृति से तीर्थंकर ऋषभदेव का अस्तित्व सिद्ध होता है। पंजाब के ऐतिहासिक स्थान मोहन जोदड़ो और हड़प्पा के पुरातत्व में कतिपय मूर्तियाँ और मुद्रायें ऐसी हैं जिनका - सम्बंध इतिहासज्ञ ऋषभदेव से स्थापित करते हैं । इन नग्नमूर्तियों की पूर्णसमानता जिनमूर्तियों से मिलती है। इन मूर्तियों की समानता लोहानीपुर (पटना) से प्राप्त मौर्य कालीन और सुंगकालीन मूर्तियों के धड़ से होती है। स्व. डा. काशीप्रसाद जायसवाल और डा. ए. वनर्जी शास्त्री पुरातत्वज्ञों ने इन मूर्तियों को जिन मूर्ति ही पहचाना है। (अहिंसावाणी वर्ष 7, अंक अप्रैल मई 1950 पृ. 54)
सिन्धु घाटी उपत्यका (तलहटी) से प्राप्त मुद्राओं पर भी ऐसे योगियों की आकृतियाँ हैं जो नग्न, शिरोभाग पर त्रिशूल (रत्नत्रय) चिन्ह, कायोत्सर्ग, नाशाग्रदृष्टि से अंकित है। वृषभ का चिन्ह भी है। इसलिए प्रो. रामप्रसाद चंदा (पुरातत्वज्ञ) ने इन मूर्तियों को ऋषभ देव का पूर्व रूप माना है। कलिंग के अग्रजिन ऋषभदेव -
खण्डगिरि उदय गिरि के प्रसिद्ध हाथी गुफास्थित शिलालेख में अग्रजिन नामक उस ऋषभ मूर्ति को महाराज खारवेल द्वारा, मगध से कलिंग को वापस लाने का उल्लेख मिलता है, जिस ऋषभमूर्ति को नंदराज आक्रमण करके मगध ले गया था। इससे स्पष्ट है कि नंदराज के समय में आदि जिन की मूर्तियों का निर्माण होने लगा था। रानीगुफा आदि में भी ऋषभजिन की प्राचीन मूर्तियां मिली है। अत: ऋषभ मान्यता महाराज नंदकाल से भी प्राचीन प्रमाणित होती है। (जर्नल ऑफ दी विहार एन्ड ओड़ीसा रिसर्च सोसायटी, भा. 3 पृ. 467)
मथुरा (उ.प्र.) कंकाली टीला से प्राप्त ऋषभजिन की प्राचीन मूर्तियां और आयागपट्ट, जिन पर मोहन जोदड़ों की मुद्राओं पर अंकित योगियों के सिर पर बने त्रिशूल (रत्नत्रय) व वृक्ष, ठीक वैसे ही बने हुए हैं, आदि ऋषभ जिन के अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं। यदि ऋषभदेव नाम का कोई महापुरूष हुआ ही न होता तब उनकी मूतियां कैसे बन सकती थी। (अहिंसावाणी: डा. कामता प्रसाद जैन पृ. 56)
इत्यं प्रभाव ऋषभोऽवतार: शंकरस्य में । सतां गति: दीन बंधुर्नवम: कथितस्तवन ॥
(शिवपुराण 4/47) (150
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सारांश :- इस प्रकार ऋषभावतार होगा जो मेरे शंकर (शिवरूप) हैं, वह मानवों के लिए दीन बंधु रूप में नवमें अवतार होंगे। उनका स्तवन करो । यह वैदिक पुराण का प्रमाण है।
त्वंब्रह्मा परम ज्योतिस्त्वं प्रभूष्णुरजोऽरज: । त्वमादि देवो देवानां, अधिदेवो महेश्वरः ॥
(जिनसेनाचार्य: महापुराण -30 प.) तात्पर्य - हे वृषभदेव ! आप ब्रह्मा, परमज्योति, समर्थ, पापरहित, आदि देव (प्रथमतीर्थंकर), देवों के अधिदेव ओर महेश्वर (शिव) हैं। बौद्ध साहित्य में भगवान् ऋषभदेव:
बौद्ध ग्रन्थों में भी जैनधर्म के संस्थापक भ. ऋषभदेव का उल्लेख किया गया है। धम्मपद ग्रन्थ में ऋषभ और महावीर का उल्लेख है। 'आर्य मंजुश्री मूलकल्प' में भारत वर्ष के प्राचीनतम सम्राटों में नाभिपुत्र ऋषभ और ऋषभ के पुत्र भरत को लिखा है। तथा ऋषभ ने हिमालय से सिद्धि प्राप्त की थी और वह जैन धर्म के आप्तदेव थे। न्यायबिन्दु अ.3 एवं 'सत्शास्त्र' आदि ग्रन्थों में भी भ. ऋषभ को जैन धर्म का आप्त पुरूष व्यक्त किया गया है। (अहिंसा वाणी : डा. कामताप्रसादः पृ.53)
उपसंहार :- सतयुग में ऋषभदेव तीर्थंकर का श्रेष्ठ अवतार, दुराचारियों के दुरा चार को, धर्म भ्रष्टजनों के पापको, अज्ञानियों के अज्ञान को दूरकर धर्मतीर्थ को प्रवर्तन करने के लिए हुआ था। इस गर्भ के बाद ऋषभदेव को पुन: गर्भ में नहीं आना है इसलिए गर्भकल्याणक, इस जन्म के पश्चात् पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त करना है इसलिए जन्मकल्याणक, राजपाट आदि वैभव, शरीर एवं विषय भोगों से विरक्त होकर तपस्वी हुए, इसलिए दीक्षा कल्याणक, कठोर तपस्या के द्वारा पूर्णज्ञान प्राप्त किया, अत: ज्ञान कल्याणक और शुक्ल ध्यान के माध्यम से कर्मो को विनष्टकर निर्वाण प्राप्त किया, इसलिए निर्वाण कल्याणक विश्व के कल्याणकारी थे। उन्होंने जनता को जीवन निर्वाह के षट्कर्म और जीवन शुद्धि के लिए षट्कर्तव्य, पुरूषों के लिए 72 कलाएँ
और महिला समाज के लिए 64 कलाओं को दर्शाया । वे ऋषभदेव कर्म युग के विधाता, प्रजा के प्रजापति, कलाओं के आविष्कारक, भ्रष्टों के पथ दर्शक, शाकाहार के आदर्श नेता, गणतंत्र के अधिनायक, अहिंसात्मक शासन के प्रशासक और कर्म भूमि के कर्मठ अधिष्ठाता हुए थे।
अहिंसा ध्वजगीत आदि ऋषभ के पुत्र भरत का भारत देश महान ऋषभदेव से महावीर तक करें सुमंगलगान। पंचरंग पाँचों परमेष्ठी, युग को दें आशीष, विश्वशान्ति के लिए झुकायें पावन ध्वज को शीष जिन की ध्वनि जैनमय संस्कृति, जन जन को वरदान, भारतदेश महान भारतराष्ट्र महान ॥ अहिंसा ध्वज की जय ॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा दर्शन
भगवान महावीर ने सर्वोदय के लिए अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त, अध्यात्मवाद, कर्मवाद, आदि उदार सिद्धांतों का प्रसार एवं प्रचार किया। जिनका जीवन में उपयोग कर, न केवल मानव समाज अपितु प्राणी मात्र आत्म हित तथा परहित करने में समर्थ हो सकता है। ये सिद्धांत सर्व शक्तियों के विकास के साथ विश्व में शान्ति स्थापित करने वाले हैं। अशान्त जीवन को शान्त और अज्ञानी जीवन को ज्ञानी बनाने के लिए उक्त सर्व ही सिद्धांतों की जीवन में नितान्त आवश्यकता है।
जिस प्रकार विद्यार्थी अपनी अल्पबुद्धि और शक्ति के अनुसार अपार विद्या गुण को सहसा ग्रहण करने में असमर्थ होता है तो भी वह विद्या की कक्षाओं के क्रम से शनै: - शनै: अभ्यास करता हुआ महान् विद्यागुण को ग्रहण कर महान् विद्वान बन जाता है । उसी प्रकार अहिंसा एक विशाल सिद्धांत है विश्व के निर्बल मानव प्राय: अहिंसा जैसे उच्च व्यापक सिद्धांत को अपने जीवन में पालन करने के लिए सहसा असमर्थ होते हैं कारण कि समस्त मानवों के धारणा ज्ञान और आत्मबल एकसा नहीं होता है । तथापि यदि मानव के समक्ष अहिंसा की कक्षाएं उपस्थित कर दी जायें, तो वे मानव अपने बल, विवेक और परिस्थिति के अनुकूल उन कक्षाओं को जीवन में उतारने के लिए समर्थ हो सकते हैं । अहिंसा की सर्वोच्च व्यापक परिभाषा -
यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥
___ (पुरूषार्थ सिद्धयुपाय श्लोक 43) भावार्थ - क्रोध, मद, छल और लोभ से युक्त मन वचन तथा शरीर के द्वारा अपने तथा दूसरों के अंतरंग प्राणों एवं बाह्य प्राणों का घात नहीं करना अहिंसा है और उनका वध करना हिंसा है। अहिंसा सुखप्रद महान् धर्म है और हिंसा कष्ट प्रद महापाप है। अंतरंग प्राण = आत्मा के ज्ञान दर्शन सुख बल आदि गुण । बाह्य प्राण 1. स्पर्शन, 2 रसना, 3 नासिका, नेत्र, 5 कर्ण, 6 मनोबल, 7 वचनबल, 8 शरीरबल, 9 आयु, 10 श्वास। "आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है" इस नीति के अनुसार महावीर ने अहिंसा की कक्षाओं का आविष्कार कर उनको जन समाज के समक्ष रखा और उपदेश दिया - "कि जिस व्यक्ति में जितनी बुद्धि तथा शक्ति है, उसी के अनुसार अपनी - अपनी कक्षाओं को स्वीकार कर अहिंसा व्रत को जीवन में उतारो"। इन सभी कक्षाओं में अहिंसा ही प्रधान लक्ष्य है।
अहिंसा की मुख्यत: तीन कक्षाएं हैं - 1. पाक्षिक अहिंसा (अहिंसा के एक देश पालन का अभ्यास), 2 एक देश नैष्ठिक अहिंसा व्रत (नियम पूर्वक अहिंसा का अणुव्रत रूप से दृढ पालन करना), 3 अहिंसा महाव्रत (प्रतिज्ञा की दृढ़ता से अहिंसा का पूर्णरूप से पालन करना ।)
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कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
प्रथम कक्षा के कर्तव्य - 1. अहिंसा व्रत को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना । 2. नीतिविरूद्ध, देशविरुद्ध, शासन विरूद्ध कार्य न करना। 3. मदिरा, मांस, मधु, ऊमर, कठूमर, पीपलफल, बड़फल, पाकर फलों का त्याग करना । 4. हृदय में मैत्री तथा दयाभाव धारण करना । 5. रात्रि भोजन त्याग का अभ्यास करना । 6. गालित तथा शुद्ध जल का उपयोग करना । 7. निर्दोष (18 दोष रहित ) देव, शास्त्र, गुरु की संगति करना । 8. हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पंचपापों के त्याग का अभ्यास करना । 9. जुआ, मांस, मद्य, वेश्यासेवन, प्राणियों का शिकार, चोरी, परस्त्रीसेवन इन 7 महापापों का त्याग करना । 10 त्रस प्राणियों की हिंसा का त्याग करना |11. चमड़े आदि के व्यापार का त्याग। 12. अन्यायपूर्वक द्रव्य के व्यापार का त्याग
करना ।
अहिंसा की द्वितीय कक्षा के कर्तव्य -
1. प्रथम कक्षा के नियमों को निर्दोषरीति से पालन करना। 2. सत्यार्थ देव (परमात्मा), सत्यार्थ विद्या, सत्यार्थ गुरु की दृढ़ता से संगति एवं भक्ति करना। 3. अहिंसा आदि बारह व्रतों का निर्दोष रीति से दृढ़तापूर्वक पालन करना । 4. दैनिकचर्या को सुदृद रखना। 5. राष्ट्रीय तथा सामाजिक द्रोह, छल, मद, तृष्णा, मूर्च्छा आदि का त्याग करना। 6. देश तथा समाज का कल्याण करना। 7. दृढ़ प्रतिज्ञापूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना । 8. सुवर्ण, चाँदी, रूपये, धान्य, वस्त्र, वर्तन, मकान, अहंकार, मूर्च्छा आदि परिग्रह का त्याग करना जो कि उत्तरोत्तर एक देश त्याग दृढ़ता से हो। 9. नैष्ठिक श्रावक की 11 प्रतिमाओं की निर्दोष रीति से
साधना करना ।
अहिंसा की तृतीय कक्षा के कर्तव्य -
1. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों की मन, वचन, कर्म, कृत, कारित, अनुमति, संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ इन 27 प्रकारों (3.3=9.3=27) से साधना करना। 2. जीव रक्षण के लिए सावधानता से शरीर - वचन तथा मन की शुद्ध क्रिया करना। 3. समता, वंदना, स्तवन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय तथा शरीर से मोह का त्याग करते हुए खड्गासन या पद्मासन लगाकर आत्मा का ध्यान करना इन छह आवश्यक दैनिक कर्तव्यों का पालन करना । 4- स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र, कर्ण, इन पंच इन्द्रियों के विषयों का त्याग करते हुए उन पर विजय प्राप्त करना। 5- मन वचन शरीर इन तीन योगों का वशीकरण करना । 6- वस्त्र धारण का त्याग । 7-केशों का लुञ्चन करना । 8- स्नान का त्याग 9- भूमि पर एक करवट से सोते अल्प निद्रा लेना 10 दिन में एक बार लघु भोजन ग्रहण करना । 11- दन्त धावन तथा दंत मंजन का त्याग | 12- खड़े होकर हाथों पर विधिपूर्वक शुद्ध आहार ग्रहण करना । 13 अनशन (उपवास), ऊनोदर (भूख से कम भोजन करना), भोजन के विषय में नियम ग्रहण करना, रस त्याग करना, एकान्त पवित्र स्थान में शयन करना या आसन लगाना, शरीर से मोह छोड़कर अधिक समय तक आसन लगाना एवं 6 बाह्यतपों की साधना करना। 14- प्रायश्चित (दोषों की शुद्धि करना), विनय, वैयावृत्य ( धर्मात्मा मानवों की सेवा करना), स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि करना, मिथ्याधारणा आदि अंतरंग तथा धन - महल आदि बहिरंग परिग्रह से अहंकार को
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ छोड़ना, ध्यान (आत्मा एवं परमात्मा का ध्यान चिंतन करना इन छ: अन्तरंग तपो की साधना करना ।) 15सर्वश्रेष्ठ क्षमा शान्ति को धारण करना, विद्या आदि का मद न कर नम्र होना, मायाचार का त्याग कर सरल प्रवृत्ति करना, हितमितप्रियवचन का प्रयोग करना लोभ का त्याग, संयम का पालन, इच्छाओं का निरोध, दान करना, परिग्रह का त्याग करना, ब्रह्मचर्य इन दश धर्मो की साधना करना । 16-अनित्य, अशरण,संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, धर्म इन बारह भावनाओं का चिंतन करना । 17-क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि 22 प्रकार के कष्टों को शान्तभाव से सहन करना । अहिसा के प्रायोगिक क्षेत्र -प्रथम तथा द्वितीय कक्षा के कर्तव्यों द्वारा अहिंसा का आंशिक पालन गृहस्थ नागरिक करते हैं, वह अहिंसा अणुव्रतरूप होती है। तृतीय कक्षा के कर्तव्यों द्वारा अहिंसा की पूर्ण साधना मुनिराज या ऋषिराज करते हैं अतः वह अहिंसा महाव्रत रूप होती है - अहिंसा के दूसरी प्रकार से भेद -
(1) संकल्पी हिंसा (दृढ़तापूर्वक निर्दयता से की गई जीव हिंसा), (2) आरंभी हिंसा (कृषि, गृहनिर्माण, आदि कार्यो में होने वाला जीव वध,) (3) उद्योगीहिंसा (व्यापार, कारीगरी आदि कार्यो में होने वाला जीव वध), (4) विरोधी हिंसा (विरोध या बैर के कारण युद्ध उपद्रव आदि को दूर करने के लिए होने वाली जीव हिंसा),इन चार प्रकार की हिंसाओं में प्रथम संकल्पी हिंसा का ही गृहस्थ त्याग कर सकता है, अन्य तीन प्रकार की हिंसा को दूर नहीं कर सकता । कारण कि प्रथम हिंसा का मुख्य लक्ष्य दृढ विचार से किया गया जीववध ही है दूसरा कोई लक्ष्य नहीं। परन्तु शेष तीन हिंसाओं में जीव मारने का लक्ष्य न होकर गृह कार्य, व्यापार, आत्म रक्षा आदि कार्यो का ही मुख्य लक्ष्य है । वह गृहस्थ या श्रावक विचार पूर्वक जीववध करता नहीं है पर उन कार्यो के करते हुए जीववध हो जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि गृहस्थ नागरिक को धर्म, अर्थ, काम पुरूषार्थ के द्वारा गृहस्थाश्रम लोक व्यवहार राज्य शासन आदि के कार्य निश्चित रूप से करने पड़ते है। अन्यथा जीवन निर्वाह शान्तिपूर्वक नहीं हो सकता है, सब प्रकार की परिस्थितियाँ उसके सामने उपस्थित होती रहती है।
इसलिए प्रथम द्वितीय कक्षा में मानव अहिंसा का एक देश पालन करता है। वह अपने पद की अहिंसा का पालन करता हुआ ही शत्रु का सामना करके देश रक्षा, समाज रक्षा, साहित्य रक्षा, मंदिर रक्षा, महिलाओं, के सतीत्व की रक्षा, कुटुम्ब और अपनी रक्षा कर सकता है ।अणुव्रती अहिंसा का धारी श्रावक गृहकार्य, व्यापार आदि तो करता ही है पर आवश्यकता के अनुसार द्वारपाल से लेकर राष्ट्रपति तक राज्य शासन के कार्य भी कर सकता है। श्री जम्बुकुमार जैसे अहिंसक वीर का नाम विश्व में प्रसिद्ध है कि जिसने अल्पवय में ही शस्त्र और शास्त्र विद्या का अभ्यास कर अपने पराक्रम से युद्धकर महाराज श्रेणिक की शत्रु सेना का बहिष्कार कर दिया था। और मगध देश की रक्षा कर अहिंसा का झण्डा फहराया था। माता-पिता द्वारा शिक्षा के लिए पुत्र को दण्ड देना, शिक्षक द्वारा शिष्य को दण्ड देना, निरोगता प्राप्त करने के लिए सूची यन्त्र तथा आपरेशन के प्रयोग अणुव्रती अहिंसा के कर्तव्य हैं।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मुनिराज या साधु महाराज अहिंसा महाव्रत की उच्च साधना करते हैं, उसमें सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर संयम की उच्च साधना होती है। पंचेन्द्रिय विषय तथा कषायों का पूर्णत त्याग होता है। ज्ञान ध्यान और तपस्या की साधना होती है। उस पद में गृहस्थ के कोई भी कर्तव्य नहीं किये जा सकते हैं । गृहस्थ और साधु की कक्षा में महान अंतर है । कर्तव्यों में भेद है। अहिंसा और राजनैतिक क्षेत्र -
___ अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि राजनैतिक क्षेत्र और राष्ट्रीय क्षेत्र में अहिंसा का क्या स्थान है। उसका प्रयोग हितकारी है या नहीं। इस महत्वपूर्ण प्रश्न के उत्तर में यही लिखा जाता है कि राजनैतिक क्षेत्र एवं राष्ट्रीय क्षेत्र में अहिंसा का स्थान प्रमुख है, उसका प्रयोग परम हितकर है। अथवा यह कहना चाहिए कि अहिंसात्मक नीति और रीति से ही राज्य शासन तथा राष्ट्रीय व्यवस्था शान्तिपूर्ण तथा प्रजाहितकर हो सकती है, हिंसा से वह संभव नहीं। अहिंसा का उपासक मानव शासन के क्षेत्र में साधारण कार्यवाहक से लेकर चक्र वर्ती तक अपना शासन क्षेत्र बना सकता है । और राष्ट्रीय क्षेत्र में नर से लेकर नारायण तक अपना क्षेत्र बढ़ा सकता है। अहिंसा उन कार्यो में बाधक नहीं हो सकती।
कृतयुग (सतयुग) में ऋषभदेव आदि 24 तीर्थकर, भरत आदि 12 चक्रवर्ती, कृष्ण आदि 9 नारायण, रावण आदि 9 प्रतिनारायण, रामचंद्र आदि 9 बलभद्र - इन 63 शलाका महापुरूषों का, और मध्यकाल में मगध सम्राट श्रेणिक, स. चंद्रगुप्त, स. ऐल खारवेल, स. महामेघवाहन, महाराणा प्रतापसिंह और क्षत्रिय युवराज जीवन्धर कुमार एवं स. अशोक जैसे भारतीय वीर राजाओं के शासन तथा राष्ट्रीय क्षेत्र अहिंसा मूलक ही थे अतएव उस समय के शासन क्षेत्र तथा राष्ट्रीय क्षेत्र समृद्धि सम्पन्न और सुख शान्ति पूर्ण थे, सर्वत्र अहिंसात्मक प्रजातंत्र का झण्डा लहराता था। यदि कभी किसी शासक ने अज्ञान या प्रमाद के आधीन होकर एक मिनिट भी अहिंसा को छोड़कर अन्याय, अत्याचार आदि अधर्म को अपनाया है, तो वहाँ उन्होंने उसका कुफल प्राप्त कर अपना पतन भी किया है । इतिहास, पुराण और पुरातत्व इनके साक्षी हैं।
__ स्व. महात्मा गाँधी अपनी अहिंसात्मक साधना और अहिंसात्मक आंदोलन के बल पर ही 15 अगस्त 1947 में, अनेक शताब्दियों से परतंत्र भारत को स्वतंत्र करने में और 26 जनवरी 1950 में प्रजातंत्र शासन स्थापित करने में सफल हुए थे। उन्होंने अहिंसा सत्य मूलक पंचशील के आधार पर देश का नया संविधान निर्माण कर राष्ट्रीय ध्वज को फहराया। भारत के इतिहास में यह एक अपूर्व तथा चमत्कारपूर्ण अध्याय है।
___ अहिंसा मूलक शासन में सत्य न्याय तथा सेवा प्रधान है । इसलिये न्याय की रक्षा के लिए और अन्याय एवं पापाचार का नाश करने के लिए अपराधी को दण्डित तथा आक्रमणकारी को बहिष्कृत करना कर्तव्य होता है । वह एक देश अहिंसा की एक सीढ़ी है। इस विषय में श्री रामचन्द्र जी, श्री महाराणा प्रताप, श्री जम्बुकुमार, श्री जीवन्धर कुमार आदि महापुरूषों के नाम इतिहास में उल्लेखनीय है।
विक्रम की तेरहवीं शदी के प्रकाण्ड संस्कृत विद्वान श्री आशाधर जी ने गृहस्थ धर्म का व्याख्यान करते
हुए कहा है -
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दण्डो हि केवलो लोकमिमं चामुं च रक्षति । यज्ञा शत्रौ च पुत्रे च यथादोषं समं धृतः ॥
(सागार धर्मामृत अ. 4 श्लो. 5 की संस्कृति का )
भावार्थ - राजा के द्वारा न्याय या धर्म की रक्षा के लिए शत्रु एवं पुत्र के विषय में अपराध के अनुकूल दिया गया समान दण्ड इस जीवन में और परलोक जीवन में मानव की रक्षा करता है ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
अहिंसा - कायरता नहीं है -
कुछ व्यक्तियों का मत है कि अहिंसा कायरता का ही रूप है, कायर पुरूष ही इसे अपनाते है, परन्तु उनका यह कथन विचार शून्य है । अहिंसा की व्याख्या, प्रयोग और अहिंसा धारी शासकों के इतिहास से यह सिद्ध हो जाता है, कि अहिंसा सिद्धान्त में कायरता को लेश मात्र भी स्थान नहीं है । अहिंसा और कायरता (भीरूता) में आकाश और पाताल तथा अन्धकार और प्रकाश जैसा अंतर है तथाहि - अहिंसा परम धर्म है और कायरता पाप है । अहिंसा धारी मानव पवित्र हृदयी, बलिष्ठ और रक्षक होता है, किन्तु कायर मनुष्य कपटी क्रूर और भक्षक होता है | अहिंसा से उन्नति होती है और कायरता से पतन होता है । अन्याय अत्याचार को I सहन नहीं करना अहिंसा है और उसे सहन करना कायरता है। अहिंसाधारी मानव का हृदय उदार एवं निडर रहता है जब कि कायर पुरूष का चित्त क्षुद्र एवं शंकित रहता है।
"घर में अन्न नहीं इसलिये उपवास करो, पास में पैसा नहीं इसलिए संतोष करो, भुजाओं में बल नहीं इसलिए क्षमा करो, कुछकर नहीं सकते इसलिए शान्त रहो"- यह आदर्श अकर्मण्य ( का पुरूष) का हो सकता है किन्तु जिसके हृदय में अदम्य उत्साह और शरीर में बल है वही अहिंसा का पालन कर सकता है । उस व्यक्ति में, अकर्मण्य पुरूष के उक्त लक्षणों से भिन्न लक्षण होते हैं। अहिंसक मानव की दयालु परोपकारी हो सकता है उस व्यक्ति का पृथ्वी ही कुटुम्ब हो जाता है। इस विषय में महात्मा गाँधी के विचार मनन करने के योग्य हैं -
-
" अहिंसा में कायरता के लिए स्थान है ही नहीं । अहिंसा का तो पहला पाठ है अभयता ( निर्भयता), सहिष्णुता, क्षमा, धैर्य ये अहिंसा के अंश है । निर्भयता और कायरता का निवास एक ही स्थान में असम्भव है । शस्त्र संचालन के कौशल को अथवा हिंसा को शौर्य समझना भूल है । उसी प्रकार केवल अत्याचार सहन करने का नाम भी अहिंसा नहीं हो सकता। शौर्य एक आत्मिकगुण है". (हिन्दी नव जीवन 23 अप्रैल सन् 1922 g.285)
अन्य शब्दों में गाँधी जी के विचार -
"हिंसा करने की पूरी सामर्थ्य रखते हुए भी जो हिंसा नहीं करता है वही अहिंसा धर्म पालन करने में समर्थ होता है। जो मनुष्य स्वेच्छा से और प्रेमभाव से किसी की हिंसा नहीं करता वही अहिंसा धर्म का पा करता है। अहिंसा का अर्थ है प्रेम, दया, क्षमा । शास्त्र उसका वर्णन वीर के गुण के रूप में करते हैं। यह वीरता
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शरीर का नहीं आत्मा का गुण है ।शरीर से क्षीण पुरूष भी औरों की मदद से हिंसा करते हुए देखे गये हैं। शरीर से बलवान होते हुए भी युधिष्ठिर जैसे विराट राजा जैसों को क्षमा प्रदान करते हुए देखे गये हैं।' (हिन्दी नव जीवन 23 अप्रैल सन् 1922 पृ.285)
धर्म शास्त्रों का प्रमाण है - "क्षमा वीरस्य भूषणम् । ___ "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्" अर्थात् - इस जगत में अहिंसा समस्त प्राणियों के लिए परब्रह्म के समान प्रसिद्ध है। (आचार्य समंतभद्र) अहिंसा से ही विश्वशान्ति -
इस वैज्ञानिक युग में अहिंसा से विश्व शान्ति नहीं मानना मिथ्याधारणा है । वर्तमान में मानव हिंसा के भयानक हत्याकाण्डों से ऊबकर सुख शान्ति की शीतल छाया में आना चाहता है इसके लिए वह महान् अन्वेषण भी कर रहा है। वह मानव शान्ति सम्मेलन और सार्वजनिक सभाओं में उस शान्ति के लिए जोशीले भाषण भी देता है । समाचार पत्रों में लम्बे लम्बे लेख और कविताएं लिखकर विश्व शान्ति का देश - देश में प्रचार भी करता है । और राज्य के कानून भी उसके लिए बना रहा है ।परन्तु वर्तमान जगत के प्रायः किसी भी क्षेत्र में जीवन शान्ति दृष्टिगोचर नहीं हो रही है, वह तो केवल प्रशंसा करने की ही वस्तु बन रही है। इसका कारण विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि अभी मानव ने विश्व शान्ति या जीवन शान्ति का प्रधान कारण परम अहिंसा धर्म की उपासना सच्चे मन वचन कर्म से नहीं की है। जैसे दवा के नाम को हजारों बार जपने और उसकी प्रशंसा करने पर भी रोगी के रोग दूर नहीं हो सकते है, वैसे ही अहिंसा का नाम हजारों बार रटने और उसकी प्रशंसा करने से भी जीवन के कष्ट दूर नहीं हो सकते है, कर्मो का अभाव कर आत्मा पवित्र नहीं हो सकती । इसलिए यदि यह मानव विश्व में या अपने जीवन क्षेत्र में सुख शान्ति एवं आत्म शुद्धि चाहता है तो उसे अपने जीवन क्षेत्र में श्रद्धा - ज्ञान पूर्वक अहिंसा को अपनाना (आचरण करना) आवश्यक होगा और हिंसा का बहिष्कार करना ही होगा । विक्रम की 13 वीं शताब्दी के संस्कृतज्ञ भारतीय जैन विद्वान पं. आशाधर महोदय का मत देखिये -
दुःख मुत्पद्यते जन्तोर्मन: संक्लिश्यतेऽस्पते । तत्पर्यायश्च यस्यां सा हिंसा हेया प्रयत्नत:॥
___(सागार धर्मामृत अ.4 श्लो.13) भावार्थ - हिंसा से प्राणियों के जीवन में दुःख उपस्थित होता है । हृदय सदा संक्लिष्ट तथा अशुद्ध रहता है। वर्तमान जीवन तथा देश की दशा नष्ट हो जाती है सुखशान्ति का नाम ही नहीं रहता है। केवल अशान्ति का वातावरण ही छा जाता है इसलिए अनेक उपायों से हिंसा को त्यागकर अहिंसा का आचरण करना चाहिए।
आज का मानव अग्नि से सन्तप्त लोहे का गोला है। जैसे सन्तप्त लोहे का गोला सब ओर से वस्तुओं को जलाकर अपनी तरह कर लेता है, वैसे ही तृष्णाग्नि से सन्तप्त यह प्राणी या मानव सब ओर से वस्तुओं को लूटकर अपने आधीन करना चाहता है। विश्व में शान्ति स्थापना की डींग मारकर जगत का एकच्छत्र सम्राट
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होना चाहता है। इस युग के कुछ वैज्ञानिक तो चंद्रलोक पर भी अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए राकेट से चंद्रलोक की यात्रा कर रहे हैं और इसके लिए राकेट, एटमबम, हाइड्रोजन बम आदि भयंकारी आविष्कारों से अखिल विश्व का मानष पटल कम्पित कर रहें हैं। सारा विश्व तृतीय विश्व युद्ध की शंका से कम्पित हो रहा है विज्ञान का क्षेत्र ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है त्यों-त्यों विश्व में अशान्ति बढ़ती जाती है। दैनिक जीवन से मानव इस अशान्ति का अनुभव भी कर रहा है। इस अशान्ति के अनुभव से यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध हो गया है कि विज्ञान से विश्व में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती ।
विश्व शान्ति या उभय लोक की जीवन शान्ति का सफल साधन क्या है ? इस गंभीर प्रश्न का सफल समाधान, समीचीन विवेक से परामर्श करने पर यही सिद्ध होगा कि अहिंसा, अपरिग्रह वाद, अनेकान्त, अध्यात्मवाद इन वास्तविक सिद्धांतों के द्वारा ही प्राणी मात्र का सर्वोदय या परम कल्याण होना अनिवार्य है। अमेरिका के डालर साम्राज्यवाद और रूस देश के साम्यवाद (कम्यूनिज्म) से या विश्व में प्रचलित अन्यवादों से विश्व में शान्ति संभव नहीं है । भ. महावीर ने अहिंसा मूलक समाजवाद (साम्यवाद) के आधार पर ही सर्वोदय या विश्वकल्याण घोषित किया। विश्व युद्ध से तो व्यक्ति विशेष की क्षणिक शान्ति या स्वार्थ सिद्धि हो सकती है। पर विश्व शान्ति या सर्वोदय होना असम्भव है। भारत विजय नाटक में महात्मा गाँधी पात्र द्वारा स्पष्ट कहा गया है कि -
"सती युद्धे प्राणी हिंसा शान्ति भङ्गः प्रजाक्षयः । आयनाशो व्ययाधिक्यं नास्माद् युद्धं समर्थये ॥”
(भारत विजय नाटक श्लोक 46)
भावार्थ - युद्ध के होने पर प्राणियों की हिंसा होती है, शान्ति सुख का नाश, प्रजा का विनाश, आमद नाश होता है और खर्च तथा मँहगाई अधिक हो जाती है इसलिये हम (गाँधी) युद्ध का समर्थन कभी भी नहीं कर सकते। अंग्रेजी में लोकोक्ति है - "Live and let live and help others to live" अर्थात् स्वयं विरह तथा दूसरों को भी जीवित रहने दो और दूसरों को जीवित रहने में सहायता दो या परोपकार करो । दैनिक जीवन में अहिंसा
-
अहिंसा को मनसा वाचा कर्मणा दैनिक जीवन में अपनाना ही अहिंसा की साधना है। गृहस्थ जीवन तीन पुरुषार्थों में अर्थ तथा काम पुरुषार्थ, धर्म मूलक ही होते हैं और धर्म अहिंसा रूप ही होता है अर्थात् तीनों पुरुषार्थो में अहिंसा ही प्रधान तत्व है। अहिंसा का पालन करने के लिए अच्छे विचार, हितकारी सत्य प्रिय वचनों का प्रयोग और अच्छे कर्म (क्रिया) करना अति आवश्यक है । हिंसा, असत्य, चोरी (अपहरण), कुशील और परिग्रह (मोह) इन पाँच पाप कार्यों से तथा क्रोध, अभिमान, मायाचार, लोभ इन चार कुत्सित भावों से मानव आदि प्राणियों के दोनों लोको का विनाश होता है, निन्दा होती और असंख्य कष्ट होते है । अत: उन 5 पाप कार्यो का तथा चार कषाय विकारों का परित्याग करना आवश्यक है । अहिंसा की सिद्धि के लिए मैत्री भाव, प्रमोदभाव, करूणा भाव और माध्यस्थ (तटस्थ) भाव हृदय में धारण करना चाहिये ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रतिदिन अहिंसा की साधना के लिए सत्य हित प्रियवचनों का अल्प प्रयोग करना अथवा मौन धारण करना, दूषित चित्त की प्रवृत्ति को रोकना, प्राणियों की रक्षा तथा अपनी रक्षा के लिए चार हाथ आगे भूमि देखकर चलना, प्राणी रक्षा तथा आत्मरक्षा के लिए स्वच्छ एवं जीव जंतु रहित भूमि पर सावधानी से काम आने वाली वस्तुओं को रखना तथा उठाना, दिन में स्वच्छ प्रकाश तथा स्वच्छ हवा से युक्त स्थान में शुद्ध स्वच्छ भोजन करना इन पाँच कर्तव्यों का भावपूर्वक आचरण करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त अहिंसा की दैनिक आराधना के लिए निम्नलिखित कर्तव्यों का पालन करना चाहिए -
___ इच्छानुकूल गमनागमन रोकने के लिए रस्सी आदि से जानवर बालकों आदि प्राणियों को नहीं बांधना, किसी भी प्राणी को अंकुश, वेंत कोड़ा, आदि से नहीं मारना, प्राणियों के शारीरिक अङ्गो का हथियारों द्वारा छेदन भेदन नहीं करना, किसी भी प्राणी पर लोभ के वश होकर शक्ति से अधिक भार नहीं लादना, अपने आश्रित प्राणियों को (पशुओं या मानवों को) समय पर भोजन देना, चमड़े की वस्तुओं का उपयोग नहीं करना, मांस एवं मदिरा का सेवन तथा व्यापार नहीं करना, बड़ पीपल आदि पंच उदम्बर फलों का त्याग करना, कारण कि इन में स्थूल तथा सूक्ष्म चर प्राणी रहते हैं। जीव हिंसा तथा स्वास्थ्य की रक्षा के लिए वस्त्र से गलित जल का एवं गर्म जल का उपयोग करना, कीड़ों को उबाल कर बनाये गये रेशमी, मखमल आदि वस्त्रों का त्याग करना, चमड़े में रखे हींग घृत पानी आदि का त्याग करना, धूत (जुआ) आदि सात व्यसनों का त्याग करना, प्राणियों को देवी देवताओं के लिए बलिदान नहीं करना, आदि । शाकाहार से अहिंसा की साधना -
शाक भाजी अन्न फल मेवा मिष्टान्न दूध दधि घृत तेल आदि पदार्थो के भक्षण से शरीर की स्थिति, पुष्टि और निरोगता की रक्षा करना शाकाहार का प्रयोजन है ।दो इन्द्रिय आदि प्राणियों के शरीर के भक्षण से क्षुधा शान्तकर शरीर की रक्षा करना मांसाहार का प्रयोजन है। इन दो प्रकार के आहारों में शाकाहार को प्राप्त करना सुलभ है और मांसाहार को प्राप्त करना दुर्लभ है। शाकाहार के लिए हथियार की जरूरत नहीं रहती जब कि मांसाहार बिना हथियार के प्राप्त नहीं हो सकता । शाकाहार मानवीय प्राकृतिक भोजन है और मांसाहार तामसिक राक्षसी भोजन है। शाकाहार अहिंसा की उपज है जो कि मैत्री भाव को बढ़ाने का कारण है। तथा मांसाहार हिंसा की उपज है। जो कि क्रूर भाव को बढ़ाने में निमित्त है। जैन दर्शन में शाकाहार ग्राहय और मांसाहार त्याज्य दर्शाया गया है। मांसाहार से असंख्य जीवों का वध होता है।
आमा वा पक्वां वा खादति य: स्पृशति वा पिशित पेशीम् । स निहन्ति सतत निचितं पिण्डं बहुजीव कोटी नाम्॥8॥पुरुषार्थ
__(आचार्य अमृतचंद्र) श्री आचार्य ने दर्शाया है जो प्राणी कच्ची, पक्की अथवा सूखी हुई मांस की डली को खाता है या व्यापार करता है वह व्यक्ति सदा मांस में उत्पन्न हुए अनेक जाति के जीव समूहों की हिंसा करता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्राय: आज का मानव मानवता की ओर न जाकर दानवता की ओर जा रहा है, उसने पास में छुरी को रखना, अपशब्द या गाली बकना, चोरी या अपहरण करना, व्यभिचार करना, विविध तृष्णा को बढ़ाना, माद्य का सेवन करना, अण्डे खाना, जुआ में प्रवृत्ति करना, अभक्ष्य भक्षण करना आदि को अपना परम कर्तव्य और उन्नति का मार्ग समझ लिया है। यह सब अधर्म या अन्याय मांसाहार के कारण ही होने लगा है। मांस भक्षण से कुत्सितविचार, क्रूर स्वभाव और अनेक रोगों की उत्पत्ति हो जाती है। 1. "डॉ. अलेक्जेन्डर हेग, डा. एच.सी.मिन्केल.डॉ. जार्ज डब्लू किरले के मतानुसार मांसाहार से यूरिक
अम्ल की वृद्धि, दिल की बीमारी, गठिया, एक प्रकार का सिरदर्द, टी.वी. जिगर की खराबी इत्यादि रोगों
की उत्पत्ति होती है | 2. "स्काटलेन्ड के प्रसिद्ध डॉ. बेले के प्रयोगात्मक अध्ययन के अनुसार मांस भक्षण मानव को “कैंसर की
कैद' में डालता है "। 3. "मांस निमंत्रण देता है कीटाणुओं को। क्या आपको पता है कि एक औंस मांस में 1/1/2 करोड़ से 10
करोड़ तक कीटाणु होते हैं "। (मांसाहार का त्याग - भागलपुर प्रपत्र पृ. 1-2)
इसलिए मानव या किसी भी प्राणी को दीर्घ जीवन, सुखी जीवन, परोपकारी जीवन, विवेकी जीवन और धार्मिक जीवन प्राप्त करना है तो शाकाहार, शुद्धाहार और संयमित भोजन ग्रहण करना चाहिए ।
"पाश्चात्य डॉक्टरों ने मानव की शारीरिक आकृति और बनावट को देखते हुए यह निश्चित रूप से घोषित किया है कि मानव शाकाहारी प्राणी है।मानव की आंत, दंत, त्वचा और अवयव यही सिद्ध करते है कि मानव का प्राकृतिक भोजन शाक- भाजी आदि है अतएव वही भोजन मानव के लिए श्रेष्ठ और स्वास्थ्य वर्धक हो सकता है "| (मानव जीवन में अहिंसा का महत्व पृ. 39) अहिंसा पर विचारकों के विचार - • "महात्मा महावीर अहिंसा के अवतार थे। उनकी पवित्रता ने संसार को जीत लिया था"।
(वीरगौरव -महात्मा गाँधी) "अहिंसा सभ्यता का सर्वोपरि और सर्वोत्कृष्ट दरजा है यह निर्विवाद सिद्ध है"
(डॉ. एल.पी.टेसिटोरी इटली)। "जैनग्रन्थों में अहिंसा यथार्थ रूप में कही गई है"।
(प्रोफेसर चतुरसेन जी शास्त्री). "प्राणीमात्र पर दया का भी अमूल्य सिद्धांत है "।
(प्रो. फणीभूषण एम.ए.काशी) • "यदि अहिंसा धर्म को देश मानता होता तो परस्पर द्वेषाग्नि न फैली होती और न विदेशी विधर्मियों का यहाँ शासन ही जमता"।
(अहिंसा पत्र पं. रामचरित उपाध्याय गाजीपुर) (160
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "जैन ग्रन्थों में जिस अहिंसा धर्म की शिक्षा दी गई है उसमें यथार्थ में श्लाघनीय समझता हूँ"।
(डॉ. जोहन्नेस हर्टल जर्मनी - 17-6-1908 का पत्र) "अहिंसा वीर पुरुषों का धर्म है , कायरों का नहीं" (सरदार श्री वल्लभ भाई पटेल अनेकान्त वर्ष 6 पृ.39) "भगवान महावीर के सत्य और अहिंसा संबंधी उपदेश विश्व के वर्तमान संघर्षो और समस्याओं के समाधान की दृष्टि से विशेष महत्व रखते है । यदि हमें अपनी महान् परम्पराओं का निर्वाह करना है तो हमें अपने और विश्व के हित के लिए इन सिद्धांतों के प्रति आत्मविश्वास का पुनर्नवीकरण करना होगा"। (दिव्य ध्वनि देहली - वर्ष 1, अंक 6)
स्व. डॉ. एस. राधाकृष्णन राष्ट्रपति भूतपूर्व ।। "यदि हम भ. महावीर की कुछ शिक्षाओं को भी आंशिक रूप में अपने दैनिक जीवन व्यवहार में क्रियान्वित करने में सफल हो जाये तो यह एक बहुत बड़ा कार्य होगा"। (दिव्य ध्वनि देहली वर्ष 1 अंक 6)
भू.पू. उपराष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन ।। "अहिंसा का सिद्धांत आज भी उतना ही सत्य है जितना कि 2500 वर्ष पूर्व था। आज देश को अहिंसा और अपरिग्रह की ओर ले जाने की आवश्यकता है।
(इन्दिरागाँधी मार्च 1970 देहली) स्वामी दयानंद जी ने मांस मदिरा तथा मधु के त्याग की शिक्षा दी और वस्त्र से पानी छानकर पीने का उपदेश दिया। वेदतीर्थ आचार्य श्री नरदेव जी शास्त्री के शब्दों में स्वामी दयानंद जी यह स्वीकार करते थे कि श्री महावीर स्वामी ने अहिंसा आदि जिन उच्चकोटि के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है वे सब वेदों में विद्यमान हैं।
(श्री वर्धमान महावीर पृ. 69) मैं अपने को धन्य मानता हूँ कि मुझे महावीर स्वामी के प्रदेश में रहने का सौभाग्य मिला है। अहिंसा जैन दर्शन की विशेष सम्पत्ति है।
(स्व. डॉ. श्री राजेन्द्र प्रसाद जी अनेकान्तवर्ष 6 पृ. 39) • भगवान महावीर एक महान तपस्वी थे। जिन्होंने सदा सत्य और अहिंसा का प्रचार किया । इनकी
जयंती का उद्देश्य मैं यह समझता हूँ कि इनके आदर्श पर चलने और उसे मजबूत बनाने का यत्न किया जावे।
(राजर्षि श्री पुरूषोत्तम दास जी टण्डन वर्धमान देहली अप्रैल 53 पृ. 8) मैं भ. महावीर को परम आस्तिक मानता हूँ। श्री भ. महावीर ने केवल मानव जाति के लिए ही नहीं परन्तु समस्त प्राणियों के विकास के लिए अहिंसा का प्रचार किया।
(आचार्य श्री काका कालेलकर जी ज्ञानोदय वर्ष 1 पृ. 66) -6
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लोग कहते हैं कि अहिंसा देवी नि:शस्त्र है। मैं कहता हूँ यह गलत ख्याल है। अहिंसा देवी के हाथ में अत्यंत शक्तिशाली शस्त्र है वह अहिंसा रूप शस्त्र प्रेम के उत्पादक होते हैं संहारक नहीं।
(आचार्य श्री विनोवा भावे - ज्ञानोदय भाग 1 पृ. 564) रिश्वत, बेईमानी, अत्याचार अवश्य नष्ट हो जावें यदि हम भ. महावीर की सुन्दर और प्रभावशाली शिक्षाओं का पालन करें।
(श्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री वर्धमान देहली अप्रैल 53 पृ. 59) भारतीय संस्कृति में संवर्द्धन से उन लोगों ने उल्लेखनीय भाग लिया है जिनको जैन शास्त्रों से स्फूर्ति प्राप्त हुई थी। वास्तुकला, मूर्तिकला वाड्मय सब पर ही जैन विचारों की गहरी छाप है।
(डॉ. सम्पूर्णा नन्द जी - जैन धर्म दि. जैन पृ. 11) • जैन धर्म देश का बहुत प्राचीन धर्म है, इसके सिद्धांत महान् है, और उन सिद्धांतों का मूल्य उद्धार,
अहिंसा और सत्य है । गाँधी जी ने अहिंसा और सत्य के जिन सिद्धांतों को लेकर जीवन भर कार्य किया, वही सिद्धांत जैन धर्म की प्रमुख वस्तु है। जैन धर्म के प्रतिष्ठापकों तथा भ. महावीर स्वामी ने अहिंसा के कारण सबको प्रेरणा दी थी।
(श्री गोविन्द वल्लभपन्त - जैन संदेश आगरा 12-2-51 पृ. 2) यदि आपको केवल विज्ञान का ज्ञान है तो आप अणुवम तक जाकर रूक जावेंगे । आप विश्व को ध्वंसात्मक शक्तियों से रोक नहीं सकते । ऐसी स्थिति में विध्वंश से बचने के लिए विज्ञान तथा आध्यात्मिक दर्शन के मध्य एक पुल हमें बचा सकता है।
(जवाहरलाल नेहरु अहिंसा वाणी वर्ष 8, अंक 9, दिसम्बर 58) • मतभेदों को दूर करने के लिए युद्ध करना या खून बहाना मानवता के हित में नहीं है । आज देश देश के
बीच का अंतर समाप्त हो गया है, और युद्ध रहित संसार में ही आज की सुरक्षा हैं। (अहिंसा वाणी दिसम्बर 1059-अमरीकी राष्ट्रपति आइजन हावर के, देहली में राजभोग के समय उद्गार)
अहिंसा और हिंसा के फलों की विचित्रता - 1. एक व्यक्ति हिंसा को नहीं करके भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र होता है और एक व्यक्ति हिंसा
करके भी अहिंसा के फल को भोगने का पात्र होता है। जैसे किसी मनुष्य ने एक दिन नदी पर जाकर मछली मारने का दृढ़ निश्चय किया पर वह घर पर कोई विशेष कारण वश मछली मारने के लिए न
जा सका तो उसको द्रव्य हिंसा न होने पर भी भाव हिंसा होने से हिंसा फल की प्राप्ति होती है। 2. एक पुरूष को अल्पहिंसा उदयकाल में बहुत फल को देती है और किसी पुरूष को बहुत हिंसा
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उदयकाल में अल्पफल को देती है। जैसे किसी पुरूष के भाव एक क्विन्टल मछली मारने के थे पर वह किसी कारण से एक ही मछली मार सका तो उसको अल्पहिंसा से अधिक हिंसा फल की प्राप्ति हुई और किसी पुरूष का विचार एक ही मछली को मारने का था परन्तु मालिक की कठोर आज्ञा के कारण उसको एक हजार मछलियाँ मारना पड़ी तो उसको बहुत हिंसा भी अल्पहिंसा के फल को देने वाली होती है। यदि एक साथ मिलकर दो व्यक्ति किसी को मारते हैं तो जिसके भाव तीव्र कषायरूप हों उसको हिंसा का अधिक फल और जिसके भाव मंदकषायरूप हो उसको हिंसा का अल्पफल प्राप्त होता है। कोई हिंसा, हिंसा प्रारंभ करने के पहले ही फल को देती है। कोई हिंसा, हिंसा कर चुकने पर भी फल को देती है। कोई हिंसा, हिंसा का प्रारंभ करके पूर्ण न करने पर भी फल को देती है। सारांश - कषायभावों के अनुसार फल होता है। एक पुरूष हिंसा को करता है, परन्तु उसका फल अनेकों को प्राप्त होता है और अनेक पुरूष हिंसा को करते हैं परन्तु उसका फल एक पुरूष भोगता है । जैसे अनेक पुरूषों ने रूपये देकर या भय दिखाकर एक पुरूष को किसी के मारने के लिए तैयार किया, तो उसके उस पुरूष को मारने पर हिंसा का फल अनेक पुरूषों को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार किसी सेनापति ने एक हजार सैनिकों को, किसी राजा को मारने के लिए आर्डर दिया तो सैनिकों के मारने पर एक सेनापति को हिंसा का फल प्राप्त होता है। किसी पुरूष को हिंसा उदयकाल में एक ही हिंसा के फल को देती है और किसी पुरूष को वही हिंसा उदयकाल में बहुत अहिंसा के फल को देती है |धर्म शास्त्र में कथा का उल्लेख मिलता है कि किसी वन की गुफा में मुनिराज ध्यान कर रहे थे। उसी समय एक सिंह उनको खाने के लिए अंदर जाना चाहता है परन्तु गुफा के द्वार पर मुनि रक्षा हेतु बैठा हुआ शूकर सिंह को अंदर नहीं जाने देता।गुफा के बाहिर दोनों का भीषण संघर्ष होता है । फलस्वरूप सिंह मरकर नरक जाता है और शूकर मरकर स्वर्ग जाता है। यहाँ पर उसी हिंसा ने सिंह को हिंसा का फल दिया और शूकर को अहिंसा का फल दिया। किसी पुरूष को अहिंसा उदयकाल में हिंसा के फल को देती है और किसी पुरूष को हिंसा उदयकाल में अहिंसा के फल को देती है। जैसे किसी पुरूष ने किसी व्यक्ति को जान से मारने के लिए तालाब में फैक दिया परन्तु वह पुरूष पुण्य के उदय से तालाब में कोई काष्ठखण्ड प्राप्त कर तैरता हुआ किनारे लग गया तो उस पुरूष द्वारा हिंसा न होने पर भी घात करने का लक्ष्य होने से हिंसा के फल का भागी वह फैकने वाला पुरूष होगा। तथा जैसे किसी डॉक्टर ने किसी रोगी को अच्छा करने के लिए पेट का आप्रेशन किया, परन्तु वह रोगी खून कम होने से सहसा मर गया । यहाँ पर डॉक्टर सा. के द्वारा की
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ गई हिंसा ने डॉक्टर महोदय को अहिंसा का फल दिया कारण कि डॉक्टर सा, का इरादा रोगी को मारने का न था । किसी गुरु के समीप नयचक्र द्वारा हिंसा अहिंसा के फलों को अवश्य समझना चाहिये ।
हिंसा अहिंसा के विषय में भ्रांतिपूर्ण विचारों का निराकरण -
(1)
“परमेश्वर अर्हन्त द्वारा कहा गया धर्म बहुत गम्भीर है अतः धर्म के निमित्त हिंसा करने में कोई दोष नहीं" इस प्रकार भ्रमपूर्ण मान्यता द्वारा किसी भी प्राणी का वध नहीं करना चाहिए | कारण कि दयापूर्वक जीव हिंसा का त्याग करने से ही धर्म का विकास होता है, प्राणियों की हिंसा से कभी धर्म होता। धर्म के हेतु हिंसा करना भी पाप है।
निश्चय से धर्म देवताओं से उत्पन्न होता है अत: इस लोक में उनके लिये सब वस्तुऐं ही दे देना योग्य है अर्थात् प्राणियों का या प्राणों का बलिदान करना उचित है - इस प्रकार अविवेक पूर्ण विचार
किसी भी प्राणी अर्थात् पशु पक्षी बालक नर नारी आदि का बलिदान या समर्पण नहीं करना चाहिए। कारण कि प्राणियों के बलिदान, मांस, मदिरा, रक्त, या अंगदान से कोई भी देवता प्रसन्न नहीं होते है। और न कुछ खाते है । प्रत्युत महान् हिंसा से पाप ही उत्पन्न हो जाता है ।
(2)
(3)
(4)
(5)
पूज्य पुरूषों के लिये या अतिथियों के लिए बकरा मुर्गा हिरण आदि प्राणियों का घात कर सम्मान करने में कोई दोष नहीं है - इस प्रकार की कुत्सित विचार धारा से किसी भी जीव का घात करना योग्य नहीं है । कारण कि वे पूज्य या अतिथि इस क्रिया से प्रसन्न नहीं होते, प्रत्युत हिंसा पाप ही उत्पन्न हो जाता है । जो धर्म का शत्रु है ।
1
बहुत प्राणियों के घात से अथवा बड़े प्राणियों के घात उत्पन्न भोजन की अपेक्षा एक प्राणी अथवा छोटे प्राणी के घात से उत्पन्न हुआ भोजन निर्दोष है - ऐसे कुविचार से कभी भी एक जंगम जीव का अथवा एक छोटे प्राणी का घात नहीं करना चाहिए। कारण कि हिंसा प्राण घात करने से ही उत्पन्न होती है और एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदि जीवों के घात में बहुत हिंसा है तथा एक छोटे जंतु की अपेक्षा बड़े प्राणी के मारने में बहुत हिंसा होती है । कोई भी हिंसा से धर्म नहीं होता । सर्प बिच्छू सिंह आदि दुष्ट हिंसक जीवों के घात करने से अनेक प्राणियों की रक्षा हो जायेगी । तथा सर्प आदि हिंसक जीवों को और उनके घातक प्राणियों को पुण्य का लाभ होगा- ऐसा कुविश्वास
र सिंह आदि दुष्ट जीवों का वध नहीं करना चाहिए । कारण कि दुष्ट प्राणियों के मारने से विश्व के समस्त दुष्ट प्राणियों का विनाश नहीं हो सकता, न उन प्राणियों की योनि का विनाश हो सकता है, न उन दुष्ट जीवों को पुण्य का लाभ होगा और न उनके घातक पुरूषों को पुण्य का लाभ होगा, प्रत्युत उन प्राणियों को मारने वाला मानव स्वयं दुष्ट प्राणी बन जायेगा, तो उस दुष्ट प्राणी को भी मारना चाहिए और उसको मारने वाला दूसरा भी दुष्ट हो जायेगा, इस प्रकार घातक का अंत न होने से अनवस्था दोष हो जाता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनेक जीवों के घातक ये दुष्ट सिंह सर्प बिच्छू आदि प्राणी अधिक दिनों तक जीवित रहेंगे तो अधिक पाप बंध करेंगे और शीघ्र मार दिये जावेंगे तो परलोक में पुण्य की प्राप्ति करेंगे - इस प्रकार की खोटी दया से सिंह आदि दुष्ट जीवों का विनाश नहीं करना चाहिये । कारण कि इस रीति से जगत में दुष्ट जीवों का अभाव नहीं हो सकता । इसी प्रकार मारे गये प्राणियों को और मारने वालों को पुण्य की प्राप्ति होना असंभव है। अनेक दुःखो से पीड़ित कोई भी प्राणी अल्पसमय में ही दुःख का नाश होने से सुख को प्राप्त हो जायेगा- इस प्रकार की वासना रूप कृपाण को लेकर दुःखी जीव का वध न करना चाहिए । कारण कि दुःख पूर्ण दशा में संक्लेशभावों से मरकर कोई प्राणी सुखी नहीं हो सकता, वह वर्तमान दुःख का तथा अग्रिम दुःख का अनुभव अवश्य करेगा। किसी के भाग्य का कोई भी व्यक्ति विनाश नहीं कर सकता। सुख की प्राप्ति बड़े कष्ट या परिश्रम से होती है इसलिये इस लोक में सुखी प्राणी का नाश अवश्य कर देना चाहिए। जिससे कि इस लोक का बचा हुआ सुख परलोक में भी काम आवे ।यदि इस लोक में सब सुख समाप्त हो जायेगा तो परलोक दुःख संयुक्त हो जायेगा । इस प्रकार के कुतर्क रूप खङ्ग को सुखी प्राणी के गर्दन पर नहीं चलाना चाहिए । कारण कि सुखी जीव को मारने से उसे दुःख होगा, दुःख दशा में मरने से परलोक में कुगति प्राप्त होगी, जिसमें बहुत दुःख होगा। मारने वाला हिंसक कहा जायेगा। दूसरी युक्ति-भाग्य में लिखे हुए किसी भी प्राणी के सुख-दुख को कोई मेंट नहीं सकता। गुरूवर अधिक काल तक अभ्यास करके अब समाधि में मग्न हो रहे है यदि इस समय ये मार दिये जावे तो उच्चपद प्राप्त कर लेंगे इस मिथ्याश्रद्धान से परोपकारी शिष्य को अपने गुरुजी का शिरच्छेद नहीं करना चाहिए कारण कि गुरु जी ध्यान के द्वारा अपना सुख स्वयं कर लेंगे। गुरुजी को मारने से पाप का बन्ध होगा । मरते समय गुरु जी के संक्लेश भाव होने से खोटी गति प्राप्त होगी |किसी के
भाग्य को कोई मेट नहीं सकता । अन्यथा भाग्य का लेख व्यर्थ हो जायेगा। (10) विक्रम की 12वीं शताब्दी में भारत में एक खारपटिक' नाम का मत प्रचलित था जिसमें मुक्ति के
स्वरूप की मान्यता विचित्र प्रकार की है - जिस प्रकार एक घड़े में कैद की गई चिड़िया घड़े के फोड़ देने से उड़ जाती है उसी प्रकार शरीर का नाश कर देने से शरीर में स्थित आत्मा की मुक्ति हो जाती है - इस प्रकार धन लोलुपी, रक्त के प्यासे खारपटिक मतवादियों के सिद्धांत को मानकर किसी भी प्राणी की हिंसा न करना चाहिये । कारण कि हिंसा पाप से मुक्ति मानना पत्थर पर कमल उत्पन्न करने के समान असंभव है।मोक्ष इतना सस्ता और सरल नहीं है कि किसी प्राणी को जान से मार देने
पर मिल जाता हो । अन्यथा मुक्ति के लिए त्याग और तपस्या करना व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। (11) किसी भूखे मांस भक्षी पुरूष को, किसी रोगी को, देवता को, अतिथिसत्कार को, लोभ के कारण
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्वार्थ सिद्धि के लिए आत्मघात कभी नहीं करना चाहिए, कारण कि मांस भक्षी प्राणी दान का पात्र
नहीं होता, मांस का दान करना अन्याय है, तथा आत्मा का घात करना महापाप है। (12) केवल स्व पर प्राणों का घात करना ही हिंसा नहीं है किन्तु क्रोध मान मायाचार लोभ झूठ चोरी
व्यभिचार परिग्रह जुआ खेलना, मांस भक्षण मदिरापान वैश्यासेवन शिकार खेलना परस्त्रीगमन भय ग्लानि हास्य अरति शोक इन्द्रिय भोग अन्याय अभक्षभक्षण और मिथ्या धारणा आदि सभी दुष्कर्म भी हिंसा है और इन सब का त्याग करना अहिंसा है। इससे सिद्ध होता है कि सब पापों में हिंसा प्रधान पाप है और सब धर्मो में अहिंसा प्रधान धर्म है।
अहिंसा का विरोधी भाव हिंसा है, हिंसा से मानव, नैतिक स्तर, सद्विचार और मानसिक शुद्धि से दूर रहता है, इसलिए वह प्राणियों की हिंसा करता है, मांस मछली अण्डे खाता है, मदिरा सेवन करता है जो मानव कर्तव्य नहीं है । इस मानव ने मांस को अपना दैनिक भोजन बना लिया है, वह मांस हिंसा की उपज है। जो प्राणी या मानव हिंसा का पूर्ण त्याग करते है वे कभी भी मांस भक्षण नहीं करते इस मांस भक्षण को छुड़ाने के लिए सभी सम्प्रदायों ने मांसाहार का विरोध किया है। उन सम्प्रदायों के आचार्यो तथा संतों ने मांस मछली अण्डों के विरोध में निम्न प्रकार अपने विचार व्यक्त किये है। 1. मदिरापान, मछली का भोजन, मधु, मांस भोजन अपवित्र भोजन ये सब खूनों से ही कल्पित हुए हैं,
ये वेद कल्पित नहीं है (महाभारत अध्याय 265) 2. अग्नि की प्रार्थना करते हुए कहा गया है "हे अग्निदेव ! तू मांसभक्षकों को अपने ज्वाला मय मुख में
रख ले' (ऋग्वेद 10-872) "जंगली जानवरों को पीड़ा न देना चाहिए"। “जो दूसरों के प्राणों की रक्षा करता है वह गोया तमाम मनुष्य समाज के प्राणों की रक्षा करता है।" "जो कोई अन्य प्राणियों के साथ दया का व्यवहार करता है अल्लाह उस पर दया करता है । मूक पशुओं की खातिर अल्लाह से डरो"। (कुरान शरीफ 5-6-3-8) जो कोई मांस मछली खाता है और मादक वस्तुओं का सेवन करता है उसके तमाम पुण्य नष्ट हो जाते है। मांस मांस सब एक है, मुर्गी हिरणी गाय । आँख देख कर खात हैं, ते नर नरकहिं जाय ॥1॥ (गुरु नानक देव) मांस मछलियाँ खात है, सुरापान से हेत। वे नर नरकहिं जायेंगे, माता-पिता समेत ॥ तिल चर मछली खायके, कोटि गऊ दे दान । काशी करवट ले मरे, तो भी नरक निदान ॥2॥ (कबीर दास जी)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
पशुओं की अनीतिपूर्वक हत्या करता है उसके अंगोपांग तोड़कर छिन्न भिन्न किये जायेंगे ।
( पारसीग्रन्थ आर्द 274-192)
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हमें समस्त जगत के सभी जीवों के प्रति घृणा और द्वेष से रहित होकर प्रेम का व्यवहार करना चाहिए | (बौद्धग्रन्थ)
अहिंसा परमो धर्मः तथा ऽहिंसा परो दमः ।
अहिंसा परमं दानं, अहिंसा परमं तपः ॥ (महाभारत)
किसी के प्राणों को पीड़ा देना अच्छा नहीं, बल्कि दूसरों के प्राणों की रक्षा करने के लिए इतना ही सावधान रहना चाहिए जितना कि अपने प्राणों के लिए, कारण कि अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है (महावीर स्वामी)
(विश्व जैन मिशन ट्रेक्ट से उद्धृत)
Jesus said, "I sary unto all who desire to be my disciples, Keep your hand from bloob shed and no flesh / meat enter your mouth for, God is just and bountiful who ordaineth that man shall live by fruits, grains and seeds of the earth alone"
अर्थात् ईसामसीह ने कहा- "मेरे शिष्यो, तुम रक्त बहाना छोड़ दो और अपने मुँह में मांस मत डालो। ईश्वर बड़ा दयालु है उसकी आज्ञा है कि मनुष्य पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले फल और अन्न से जीवन निर्वाह करें। (ईसा मसीह )
Be ye, therefore, merciful as your Father is merciful अर्थात् जब तुम्हारे पिता दयावान हैं तब तुम भी दयावान बनो ।
ईसाई मत की दश आज्ञाओं में पंचमी आज्ञा - hou shall not kill अर्थात् किसी भी प्राणी का वध मत करो। (सेण्ट ल्यूकस 36-6 ) ।
We are the living graves of Murdered Beasts, Slaughtered to satisly our appetite. we never, pause to wonder at our Feasts It Animals, life man, can possibly have Rights. ( होसिया (hosia) अध्याय 8, आयत 15 ) अर्थात् मनुष्यों तथा जानवरों को भी जीने का हक दो, उन्हें खाकर पेट को कब्रिस्तान मत बनाओं ।
Yes, when ye make many prayers, I will not hear, your hands are full of blood अर्थात् हाँ, जब तुम लगातार प्रार्थना करोंगे तो भी मैं ध्यान नहीं दूंगा क्योंकि तुम्हारे हाथ प्राणियों के वध के कारण रक्तमय हो रहे है। (जार्ज बर्नाड शा इंग्लैण्ड)
( नव जीवदया मण्डल नई सड़क देहली के प्रपत्र से)
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वैदिक ग्रन्थों में प्राणियों के बलिदान का बहिष्कार -
जैन दर्शन में हिंसा को दीर्घ पाप कहा गया है। किसी भी धार्मिक क्रिया के निमित्त मनुष्य पशु पक्षी आदि प्राणियों का बलिदान करना संकल्पी हिंसा कहा गया है अत: बलिदान भी महापाप है । न केवल जैनग्रन्थों में बलिदान को हिंसा पाप कहा गया है, किन्तु वैदिक ग्रन्थों में भी बलिदान को हिंसा पाप दर्शाकर उसका बहिष्कार किया गया है वैदिक ग्रन्थों के कुछ प्रमाण निम्नलिखित है -
(1)
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कल्पद्रुमावलि - पद्मोत्तर खण्ड अध्याय 104-105 में - श्रीपार्वती ने श्री शिव जी से कहा हे महाराज ! मनुष्य पशुओं को मारकर उनके मांस और रक्त से मेरी और आप की पूजा करता है वह सूर्य चंद्र रहने तक नरक में वास करेगा ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
मनुस्मृति के पञ्चम अध्याय में महाराजा मनु का कथन है कि प्राणियों की हिंसा किये बिना मांस की उत्पत्ति नहीं और प्राणियों का वध स्वर्ग सुख देने वाला नहीं ।
सांख्य तत्त्व कोमुदी - जब एक मांस के छोड़ने से शुद्ध सौयज्ञों का फल मिल जाता है तो म छोड़कर क्यों न उस फल को प्राप्त किया जायें ।
श्रीमद् भागवत - स्कंध 4 अध्याय 25 - महर्षि श्रीनारद जी ने नृप प्राचीन वह से कहा - राजन् ! तुमने यज्ञ में निर्दयतापूर्वक जिन सहस्रों पशुओं की बलि दी है वे सब तुम्हारे द्वारा प्राप्त हुई पीड़ाओं की स्मृति रखते हुए बदला लेने के लिए तुम्हारी वाट देख रहे हैं।
महर्षि श्री व्यास जी - जो प्राणियों के वध से धर्म चाहता है वह कालसर्प के मुखरूपी गुफा से अमृत की वर्षा को चाहता है ।
महाभारत - अश्वमेधपर्व अध्याय 91
नहीं है ।
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महाभारत शान्ति पर्व - बड़े से बड़े दान का फल कुछ काल में क्षीण हो जाता है किन्तु भयभीत को • दिये हुए अभयदान का फल कभी क्षीण नहीं होता ।
यज्ञ में पशुवध करने की विधि इष्ट अर्थात् वेद निहित
महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 335 - भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा- ऋषियों ने अपना पक्ष प्रकट किया कि यज्ञ में बीज आदि से होम करना चाहिये । क्योंकि वह वैदिक श्रुति अज शब्द से बीज अर्थ को ही ग्रहण करती है, बकरा नहीं ।
पद्मपुराण - अध्याय 280 श्लोक 95 - यज्ञ पिशाच और मद्य मांस से प्रिय देवताओं का पूजन नहीं करना चाहिए ।
वाराह पुराण - अध्याय 132 श्लोक 9 - मनुष्य, गौ, भैंस, बकरा, आदि, सब प्रकार के अण्डज (पक्षी), उद्भिज्ज (पृथ्वी को फाड़कर निकलते हुए पौधे), वनस्पति आदि, तथा पसीने से उत्पन्न जीवों की जो पुरुष हिंसा नहीं करते हैं वे ही शुद्धात्मा और दयापरायण सर्वोत्तम हैं ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (11) वृहस्पाराशर - संहिता - जो मनुष्य प्राणियों का वध करके अपने पितरों की तृप्ति मांस से करना
चाहता है वह मूर्ख चंदन को जलाकर उसके कोयलो को बेचना चाहता है। (12) किसी देवी भक्त कविका कथन है कि तीनों जगत की माता, सब जीवों पर दया करने वाली देवी क्या
चाण्डालों के समान पशुवध तथा मद्य मांस आदि दिये जाने से प्रसन्न हो सकती है।
(विश्व मानव परिषद् आगरा के प्रपत्र से उद्धृत) मांस का अंग अण्डा -
अधिकांश मांसलोलुपी मनुष्यों का विचार है कि अण्डा मांस नहीं है, उसके खाने में मांस भक्षण का कोई दोष नहीं। वह प्राणी का अंग भी नहीं है, वह तो मुर्गी के माध्यम से उत्पन्न हुआ एक प्राकृतिक फल है, इसलिए उसके सौकीन मनुष्य उसको “सफेद आलू" कहने लगे है। परन्तु युक्ति पूर्ण विचार करने पर उक्त विचार असत्य एवं व्यर्थ सिद्ध होते हैं । अण्डा प्राणी का अंग है क्योंकि वह मुर्गे के संयोग से ही मुर्गी के गर्भाशय में उत्पन्न हुआ है। रज एवं वीर्य के संयोग से उत्पन्न अण्डा मांस ही है ।अण्डज प्राणियों के गर्भजन्म कहा गया है । और गर्भज प्राणियों के मांस मय शरीर अवश्य होता है। उस सफेद आलू में जीव भी है क्योंकि माता की ऊष्मा (शारीरिक गरमी) से वह बढ़ता भी है, यदि ऊष्मा न मिले तो वह सड़ जाता है । अण्डा बड़ा हो जाने पर उसमें से पक्षी का बच्चा निकलता है। पक्षी को संस्कृत में द्विज कहते हैं क्योंकि वह पक्षी, माता के उदर से तथा अण्डे से इन दो स्थानों से उत्पन्न होता है। इससे सिद्ध होता है कि अण्डा एक प्राणी है और उसके खाने में मांस भक्षण का दोष अवश्य है।
अण्डा के भक्षण से रसनालालसा होने से भावहिंसा, सूक्ष्म कीटाणुओं का वध होने से द्रव्य हिंसा, इन्द्रिय विषयों का उत्तेजन और अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं यह धर्म शास्त्र कहते है। इसके विषय में धर्म ग्रन्थों का समर्थन आधुनिक वैज्ञानिक और डाक्टर्स भी करते है। कुछ वैज्ञानिक एवं डॉक्टरों के उद्धरण निम्न प्रकार है - (1) अण्डे की जरदी में कोलेस्ट्रोल' नामक भयानक तत्त्व अधिक होता है जिससे दिल की बीमारी, हाइ ब्लड प्रेशर, गुरदे की बीमारी, पित्त की थैली में पथरी आदि रोग पैदा होते है।
(डॉ. जे.ऐमन विल्कन्ज, डॉ. कैथेराइन निम्मो) (2) अण्डे की सफेदी निरीधात (गंदी चीज) होती है। इससे केंसर, लकवा, शरीर की सूजन जैसे भयंकर रोग पैदा होते है।
(डॉ. रावर्ट ग्राम, प्रो, इरविन डेविडसन) (3) अण्डे की सफेदी में 'एविडीन' नामक भयानक तत्त्व होता है जिससे ऐग्जिमा रोग उत्पन्न होता है।
(डॉ. आर.जे. विलियम्स, डॉ. मारग्रेट बोस - इंग्लैण्ड)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (4) अण्डे की सफेदी हाजमे के रसों को बिगाड़कर हाजमा खराब करती है।
(वरनन,हैटिन, वायलिस-लंदन यूनिवर्सिटी) (5) अण्डे टी.बी. , पेचिस आदि छूत के रोगों को पैदा करते हैं।
(डॉ. रोवर्ट ग्राम) (6) अण्डे अंतड़ियों के कीटाणुओं को जहरीला बनाकर भयंकर रोग पैदा करते हैं ।
(डॉ. जे.ई.आर.मैकडोनाग, एफ.आर.सी.एस.) अण्डा गंदगी से भरा है, अण्डा पेशाब की जगह से निकलता है, और उस घृणित रजवीर्ण से भरा है जिसे आदमी छूना तक पसंद नहीं करता, खाने की बात तो दूर रही
(डॉ. कामता प्रसाद) अण्डा विष है, एक अण्डे में लगभग 4 ग्रेन कोलेस्ट्रॉल की मात्रा पाई गई है, जिसकी अधिकता से दिल की बीमारी, हाइ ब्लड प्रेशर, गुरदे की बीमारी, धमनियों में (रगों में ) जख्म पैदा हो जाते हैं । अण्डे से टी.बी. और ऐग्जिमा की भी बीमारी फैलती है।
(Dr. J.F.R.N.E.DEMAGH) (9) मिस्टर हैरासन ब्राऊन ने “चैलेन्ज ऑफ मेन्स फ्युचर' नामक पुस्तक में कहा है कि मांस की
अपेक्षा दूध में, उतने ही रुपयों में जितने की मांस पर खर्च किये जाते हैं, ढाई गुना प्रोटीन मिलता है
और वह प्रोटीन मांस की अपेक्षा ज्यादा उपयोगी एवं लाभप्रद है। (10) भारत केसरी मास्टर चन्दगीराम के विचार - अण्डा, मछली , मांस, शराब एवं तम्बाकू सेहत
और दिमाग के बर्बादी के कारण है और ये भारतवासियों के लिए सर्वथा प्रतिकूल है। मछली एवं मांस जहर है इसमें एसिड (तेजाब) यूरिया और यूरिक एसिड विष की काफी मात्रा पाई गई है। जिसके कारण कैंसर, टी.वी., पेट के कीड़े, बुखार, पथरी, लकवा, एपैण्डे साइटिस, गुरदे की कमजोरी, मिर्गी (हिस्टीरिया), मलेरिया न्युमोनिया, इनफ्लुएन्जा आदि रोग उत्पन्न होते है।
(Dr. Alexander Halg M.A.M.D.F.R.C.S. England) (12) डॉ. प्रकाश चंद्र माहेश्वरी ने "स्लाटर हाऊस एट आगरा (हजरतपुर) एन अन प्रेग मेटिक डिसीजन"
नामक पुस्तक में सप्रमाण सिद्ध किया है कि आर्थिक दृष्टि से राष्ट्र को मांसोत्पादन से हानि है । (जनकल्याण समिति 1443. मालीवाड़ा दिल्ली द्वारा प्रकाशित पोस्टर नं. 6 एवं 7 के आधार पर
साभारउद्धृत) (संयोजक - विश्वमानव परिषद् आगरा) उपसंहार - जो आत्मा तीर्थकर प्रकृति के प्रभाव से आत्म कल्याण के साथ विश्व में धर्म तीर्थ का विशेष प्रवर्तन
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ करती है उसे तीर्थकर कहते है उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी काल में 24-24 तीर्थकरों की परम्परा का जन्म धारण करना अनादि कालिक प्रवाह है । अवसर्पिणी काल (हासयुग)के 24 तीर्थकरों की परम्परा में भगवान महावीर 24 वे तीर्थकर थे। उनकी सत्ता इतिहास एवं विज्ञान से सिद्ध होती है। (1) मैं दृढ़ता के साथ कह सकता हूँ कि भ. महावीर के अहिंसा सिद्धांत से ही विश्व कल्याण तथा शान्ति की स्थापना हो सकती है।
(आचार्य श्री काका कालेलकर) ____ आज के विद्वान केवल पुदगल (अचेतन द्रव्य) को ही जानते है परन्तु जैन तीर्थकरों ने आत्मा की भी खोज की है।
(प्रो. विलियम) जर्मनी के डॉ. अनेस्ट लायमेन कहते हैं - श्री वर्धमान महावीर केवल अलौकिक महापुरूष ही न थे। बल्कि तपस्वियों में आदर्श, विचारकों में महान, आत्मिकविकास में अग्रसर दर्शन कार और उस समय की सभी विद्याओं में प्रवीण (Expert) थे। जैन फ्लासफरों ने जैसा पदार्थ के सूक्ष्मतत्त्व का विचार किया है उसको देखकर आज कल के फ्लासफर बड़े आश्चर्य में पड़ जाते हैं और कहते है महावीर स्वामी आजकल की साईन्स के सबसे पहले जन्म दाता है।
(वर्धमान महावीर प्रस्ताव पृ. 23-24 प्रकाशन जैनमिशन सहारनपुर) भगवान महावीर द्वारा प्रणीत अहिंसा सिद्धांत विश्वकल्याणकारी, अक्षय और महान् है। वह सर्वधर्म सम्मत, सर्वदर्शनों द्वारा समर्थित, सर्वराष्ट्रों द्वारा स्वीकृत एवं नेता, विचारक सन्त और लेखकों द्वारा सम्मान्य है । अहिंसा परमब्रह्म के समान, श्रेष्ठ आत्मा का गुण और ब्रह्मचर्य महाव्रत है । “भ. महावीर अहिंसा के अवतार थे उनकी पवित्रता ने संसार को जीत लिया था "। (महात्मा गाँधी ) भ. महावीर पृ.77
___ "यदि जनता सच्चे हृदय से अहिंसा का व्यवहार करने लग जाये तो संसार को अवश्य सुखशान्ति प्राप्त हो जाये" (सरहदी गाँधी अ.ग.खां.) वर्धमान महावीर पृ. 94 अहिंसा विश्वशान्ति का मूलमंत्र है ।सदैव उपासना करने योग्य है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तीर्थंकर महावीर और उनका जीवन दर्शन
परिवर्तनशील कालचक्र के अनुसार विश्व का उत्थान एवं पतन सर्वदा होता रहता है ।अपने महान् आत्मबल से पतित विश्व को उत्थान की ओर ले जाने वाले जगत्पूज्य महात्मा भी इस वसुन्धरा पर समय - समय पर अवतार लेते आये हैं। भोग युग के अंत में प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ इस भारत में अवतरित हुए थे और कर्म युग के आदि में उन्होंने असि मषि, कृषि, कला व्यापार और शिल्प इन छह लौकिक कर्मो के उपदेश से तथा देवार्चा, गुरु भक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और त्याग (दान) इन छह धार्मिक कर्मो के उपदेश से तत्कालीन भोली जनता को जीवन निर्वाह और आत्म कल्याण का मार्ग दर्शाया। यह विषय प्राचीन शिलालेख, तीर्थक्षेत्र, इतिहास एवं पुराणों से सिद्ध हो चुका है।
प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव के पश्चात् क्रमश: श्री अजितनाथ आदि 23 तीर्थकरों ने भी इस भारत भूमि में अवतार (जन्म) लेकर अपने दिव्य उपदेश से अखिल जगत को कल्याण का पथ प्रदर्शित किया था। तेवीसवें तीर्थकर श्री भ. पार्श्वनाथ के मुक्तिपद को प्राप्त करने के अनन्तर प्राय: सौ वर्ष व्यतीत हो जाने पर यह विश्व पतन की ओर जाने लगा था। उस समय की जनता विवेक को स्वार्थ लालसा की भट्टी में झोंककर हिंसा को अहिंसा, असत्य को सत्य, दुराचार को सदाचार और पापकर्म को पुण्यकर्म समझने लगी थी। सत्य
और सदाचार का गला घोंटकर जीवन में छल और दुराचार को जीवित करने लगी थी। उस समय का मानव मानवता को भेंट कर दानवता का पुजारी बन गया था । वह समय था कि जब प्राणियों के जीवन पर मरण ने, सुख पर दुख ने, द्रव्य पर दरिद्रता ने, न्याय पर अन्याय ने बलात् अपना अधिकार जमा लिया था। उस समय के प्रभाव से व्यक्ति जल का प्यासा न होकर खून तथा मदिरा का प्यासा, शाकाहारी न होकर मांसाहारी, और समाज का रक्षक न बनकर भक्षक बन गया था।
उस समय के प्रभाव से स्वार्थ सिद्धी के कारण किये जाने वाले यज्ञों मे हव्य सामग्री के स्थान पर मूक प्राणी और देवी की पूजा में द्रव्य के स्थान पर देह का बलिदान होने लगा था। साम्प्रदायिकता का नाच घर घर में हो रहा था । नारी का शील बाजारों में बिकने लगा था। ऊँच नीच के विषैले भेदभाव ने मजदूर एवं सेवक वर्ग का जीवन पैरों के नीचे कुचल दिया था। मिथ्यामार्ग के झण्डे यत्र तत्र लहरा रहे थे। इस प्रकार उस समय की जनता ने प्राय: अपने ही आनंद के लिए स्वर्ग के द्वार को खोलने की इच्छा होते हुए भी अपने हाथों से नरक का द्वार खोल लिया था।
उस समय लोक की इस भीषण दशा को छिन्न भिन्न करने के लिए वे धीर वीर वर्द्धमान, भारत के विहार प्रान्तीय कुण्डलपुर में आज से 2572 वर्ष पूर्व, ईशा से लगभग 600 वर्ष पूर्व, भ. पार्श्वनाथ के मुक्ति गमन के 178 वर्ष बाद, विक्रम सं. 542 वर्ष पूर्व, मोहम्मद पेगम्बर से 1180 वर्ष पूर्व, गर्भ से 9 माह 8 दिन पश्चात् चन्द्र के उतराफाल्गुनिनक्षत्र काल में उदित होने पर, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवार को रात्रि के अपरभागान्त में जन्म लेकर ज्ञातृवंश के काश्यपगोत्र के तिलक रूप में प्रसिद्ध हुए। इसका प्रमाण भी देखिये
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ - 'चहत - सियपक्खे तेरसिए रत्तिये'। 'तिसिला देवीय' । 'कुण्डपुरपुरवरिस्सर सिद्धत्थक्खत्तियस्स णाहकुले' । (जयधवलाटीका - भाग 1 पृष्ठ 78 ) | श्री महावीर के पिता महराज सिद्धार्थ कुण्डलपुर (कुण्डपुर) नगर के अधिपति कहे जाते थे । उनकी माता प्रियकारिणी अथवा त्रिशला देवी, वैशाली नगर के अधिपति महाराज चेटक की सुपुत्री, उनकी सातपुत्रियों में ज्येष्ठ पुत्री प्रसिद्ध थी । प्राचीन काल में विहार प्रदेश को विदेह कहा जाता था । भारत वर्ष के विहार या विदेह प्रदेश मे, कुण्डपुर अथवा कुण्डलपुर नगर में तीर्थंकर महावीर का जन्म हुआ था। इसका प्रमाण 'सिद्धार्थनृपतितनयो भारतवास्ये विदेह कुण्डपुरे' ( निवार्ण मक्ति ) । 'अथ देशोऽस्ति विस्तारी, जम्बूद्वीपस्य भारते । विदेह इति विख्यातः स्वर्गखण्ड समाश्रिया । सुखाम्मः कुण्डमामाति, नाम्ना कुण्डपुरं पुरम् ॥'
(हरिवंशपुराण - सर्ग 2 श्लोक 1, 5)
वीर जन्म कुण्डली में ग्रहों की उच्च स्थिति
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९
१२
१ सू. बु.
२ शु.
१० के.मं.
४ रा. वृ.
७ श.
३
(श्री वर्धमान महावीर ले, दिगम्बर दास जैन सहारनपुर पृ. 245 )
वेधीर वीर वसुधा पर आये समय की समस्या को हल करने के लिए वे प्रतापी वीर दिवाकर त्रिशला के उदरपर्वत से उदित हुए थे हिंसा का अंधकार मिटाने के लिए। वे करुणासागर आये थे । तृष्णा की ज्वाला से सन्तप्त प्राणियों को संतोषामृत का पान कराने के लिए। वे शान्ति के दूत अवतरित हुए थे अन्याय की चक्की में पिसती हुई जनता को शान्ति देने के लिए। वे महात्मा पधारे थे मूक प्राणियों के करूणास्वर को सुनकर उन्हें जीवनदान करने के लिए। वे अहिंसा के नेता पधारे थे अहिंसा का डंका बजाने के लिए। वे धर्मवीर थे, कर्मवीर थे, युगवीर थे, धीर वीर थे और महावीर थे ।
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८
६ च.
ऐतिहासिक प्रमाण -
तीर्थंकर महावीर ऐतिहासिक महापुरूष थे। ईशा से लगभग 600 वर्ष पूर्व महावीर ने अपने परम जन्म से भारत के बिहार प्रान्त को पवित्र किया था । उनका अधिकांश जीवन विहार प्रान्त में ही व्यतीत हुआ
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ था श्री महावीर के अस्तित्व काल में तथा उनकी निर्वाण प्राप्ति के अनंतरकाल में विहार प्रान्त जैन धर्म और जैन संस्कृति का केन्द्र रहा है । विहार के शासक सम्राट, श्रेणिक, सम्राट चेटक, सम्राट खार वेल, स. चंद्रगुप्त,स.अशोक आदि जैन शासक थे और उनका शासन अहिंसा सत्य के आधार पर था।
'विहार में मौर्य वंशी सम्राट चंद्रगुप्त और सम्प्रति ने जैन धर्म को अपनाकर उसका अच्छा उत्कर्ष किया। इसके बाद मौर्य साम्राज्य का हास होना प्रारंभ हुआ और उसके अंतिम सम्राट वृहद्ध को उसके ब्रा. सेनापति पुष्पमित्र ने मारकर राजदण्ड को अपने हाथों में ले लिया। इसने श्रमणों पर बड़ा अत्याचार किया। उनके विहार और स्तूप नष्ट कर दिये । फिर भी जब चीनी यात्री ह्वेनसांगई. सन् 629 में आया तो उसने वैशाली, राजगृह, नालंदा और पुण्डवर्धन में अनेक निर्ग्रन्थ साधुओं को देखा था। (जैन धर्म पृ. 35)।
___ इस प्रकार महावीर का जन्म स्थान तथा तपोभूमि होने से विहार एक ऐतिहासिक प्रदेश सिद्ध होता है। तीर्थंकर महावीर के गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण (मोक्ष) ये पाँच कल्याणक देव समाज और मानव समाज द्वारा महोत्सव के रूप में मनाये गये थे। तीर्थकर की ये पाँच, क्रियाएँ अखिल विश्व का कल्याण करती हैं । इसी कारण इनको कल्याणक शब्द से कहा जाता है। अन्य पुरूषों के गर्भ, जन्म आदि संस्कारों में यह विशेषता नहीं पाई जाती है। अत: उनके संस्कारों को कल्याणक नहीं कह सकते । महावीर के गर्भ तथा जन्म के विषय में अन्य प्रमाण इस प्रकार है -
'सुरमहिदोच्चुदकप्ये भोगं दिव्वाणुमागमणुमृदो । पुप्फु तरणामादो विमाणदो जो चुदो संतो ॥' बाहत्तरिवासाणिय थोवविहीणाणि लखपरमाऊ।
आसाद जोण्हपवखे छटीए जोणिमुवयादो॥ इत्यादि अर्थात् - जो देवों के द्वारा पूजा जाता था। जिसने अच्युत नामक 16वें स्वर्ग में दिव्यभोगों को भोगा। ऐसे महावीर का जीव बहत्तरवर्ष की आयु लेकर, पुष्पोत्तर विमान से चयकर, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन कुण्डलपुर नगर के स्वामी क्षत्रिय नाथवंशी सिद्धार्थ के घर, सेकड़ों देवियों से सेवित त्रिशलादेवी के गर्भ में आया । वहाँ नवमाह आठ दिन रहकर चैत्रशुक्ला त्रयोदशी की रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में महावीर का जन्म हुआ। (जैन धर्म पृ. - 21-22)।
तीर्थकर महावीर जन्मकाल से ही पूर्व संस्कार के कारण मतिज्ञान (Sensuous kowledge) क्षुतज्ञान (Scripturel knowledge), अवधि (lairuoyant knowledge), ज्ञान इन तीन ज्ञान के धारी थे स्वयंबुद्ध होने से उनको किसी गुरु (शिक्षक) eacher से विद्याभ्यास करने की आवश्यकता नहीं थी। उनका स्वभावत: सुन्दर सुगन्धित शरीर, हितमित प्रियवाणी, सतुल्यबल, शरीर में 1008 शुभ चिन्ह और सौम्य आकृति आदि 10 विशेषता दिखाई देती थी।
तीर्थकर वीर के जन्मकल्याणक के प्रभाव से भूतल का, प्रकृति का, देवसमाज एवं मानवसमाज का वातावरण हर्षमय तथा विकासमय हो गया था। चैत्र शुक्ला चतुर्दशी को प्रात: अमर समाज द्वारा मेरू गिरी
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ के अर्धचंद्राकार शिलातल पर श्री वीर का जन्माभिषेक किया गया। इसी अवसर पर इन्द्र ने आप का मृगेन्द्र चिन्ह घोषित किया। इस महान् मानव के जीवन काल में पाँच नाम अधिक प्रसिद्ध हुए जो कि विशेष कारणों से सार्थक एवं महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं -
चौबीसवें तीर्थंकर उस पूज्य आत्मा के गर्भ में आने के छ: माह पूर्व से ही राजवंश में, प्रजा में, लोक में, देवों में गुण, ऐश्वर्य और प्रमोद की वृद्धि हुई थी अत: प्रथम नाम 'वर्द्धमान' प्रसिद्ध हुआ विशाल उद्यान में अपने मित्रों के साथ खेलते हुए कुमार वर्धमान के साहस एवं वीरता की परीक्षा करने के लिए स्वर्ग से संगमदेव आया और सर्प का रूप धारण कर उस वृक्ष से लिपट गया, जिस पर तीर्थंकर कुमार अपने मित्रों के साथ बैठे थे। सब बालक डरकर भाग गये ।परन्तु वीरकुमार ने उसके साथ क्रीड़ा की और उसे दूर कर दिया ।इस कुमार का अतुल साहस देखकर वह देव अतिप्रसन्न हुआ और आपका 'महावीर' यह नाम घोषित किया।
'स्तुत्वा भवान् महावीर इति नाम चकार स:' (उत्तरपुराण) आचार्य श्री रविषेण ने 'महावीर' नाम का दूसरा निमित्त दर्शाया है पादांगुष्ठेन यो मेरूमनायासेन कम्पयत्।
लेभे महावीर इति नाकालयाधिपात् ॥ (पद्मपुराण 2 - 76) अर्थात् - शक्तिशाली आत्मा ने बिना श्रम के ही पैर के अंगुष्ठ से मेरू पर्वत को कम्पित कर दिया था इसलिए देवेन्द्र ने आप का नाम 'महावीर' घोषित किया।
कुमार वर्द्धमान जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी और समस्त विद्याओं की सीमा के पारगामी थे। महानज्ञाता और विचारक आकर उनके बुद्धिबल से अपनी समस्या का समाधान प्राप्त कर लेते थे। एक समय तत्कालीन संजय और विजय नाम धारी दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों को तत्वज्ञान के विषय में संदेह (शंका) हो गया था। विहार करते हुए वे कुण्डलपुर में पधारे । किसी समय कुमार वर्द्धमान के दर्शन मात्र से उनकी शंका का समाधान हो गया। वे आनंद में विभोर हो गये। कुमार की वैज्ञानिक प्रतिभा को देखकर उन मुनिराजों ने आपका 'सन्मति' (श्रेष्ठ बुद्धिशाली) नाम प्रतिष्ठित कर दिया। एक समय कुण्डलपुर नगर में राजद्वार का मदोन्मत्त हाथी रोष में शांकल तोड़कर उपद्रव करने लगा। नगर के मानव डरकर भागने लगे। कुमार महावीर साहस के साथ घटनास्थल पर गये ।वहाँ अपने पराक्रम तथा मधुर वचनों से उसको पकड़कर राजद्वार में बद्ध कर दिया । इस पराक्रम को देखकर जनता ने 'वीर' नाम से जयघोष किया। मोहशत्रुराज पर विजय करने के कारण देवराज ने तपस्वी महावीर को 'अतिवीर' के नामकरण से जयघोष को किया। इस प्रकार विशेष कारणों से चौबीसवें तीर्थंकर विश्व में पाँच विशेष अभिधानों से प्रतिष्ठित हुए।
for private & Pers
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ - इसके अतिरिक्त भारतीय साहित्य में भ. महावीर के दूसरे विविधनामों का भी उल्लेख पाया जाता है जिनसे उनकी ऐतिहासिकता एवं व्यापकता सिद्ध होती है । वे अभिधान इस प्रकार हैं - केशव,श्रमण, विदेह, विदेहदिन्न, णायपुत्त,ज्ञातपुत्र, वैसालिय, वैशालिक, मुनिब्राह्मण, माहण, महतिवीर, देवार्य, अन्त्यकाश्यप, महति, नाथान्वय, चरमतीर्थंकर सिद्धार्थपुत्र, त्रिशलानंदन, -
सन्मतिर्महति ीरो महावीरऽन्त्यकाश्यप: ।
___ नाथान्वयो वर्द्धमानो यतीर्थमिह साम्प्रतम्॥ द्वितीयाचंद्र के समान प्रतिभा सम्पन्न बाल्यावस्था से उन्नति करते हुए कुमार वर्द्धमान सर्वांगसौन्दर्यशोभित यौवनदशा को प्राप्त हुए । उनका शारीरिक एवं बौद्धिक विकास वृद्धिंगत हो रहा था। समय तथा दशा के अनुकूल पिता सिद्धार्थ ने नवयुवक वर्द्धमान के पाणिग्रहण संस्कार की वार्ता करना प्रारंभ कर दिया। उस बुद्धिमान नवयुवक के कर्णों में विवाह शब्द की ध्वनि आते ही पिता जी से विनम्र निवेदन किया हमारे पूर्व तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ ने विवाह के बंधन को इसलिये स्वीकार नहीं किया कि उनकी आयु केवल सौ वर्ष थी उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर श्री नेमिनाथ ने श्री अखण्ड ब्रह्मचर्य लेकर इन्द्रियों के विषयों से अपने मन को विमुक्त बना स्वपर कल्याण किया। मरी आयु केवल 72 वर्ष है । इस अल्प जीवन में विषयों की दासता परित्याग कर में पूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना करना चाहता हूँ। मुझे राज्यवैभव विषतुल्य लगता है। अब मैं कर्मशत्रुओं को नाश कर सच्चेसुख और शान्ति को प्राप्त करना चाहता हूँ। इसलिए आप के द्वारा प्रदर्शित राग के पथ पर प्रवृत्ति करने में मैं असमर्थ हूँ। इतना कहकर उस नवयुवक वर्द्धमान ने अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया। (भ.महावीर पृ. 15)
___ उन नवयुवक की पवित्र आत्मा में भोगने नहीं योग ने, सरागता ने नहीं विरागता ने, संयोग ने नहीं, वियोग ने, मोह ने नहीं उदासीनता ने, दोषों ने नहीं, गुणों ने, निर्दयता ने नहीं, सहृदयता ने, विषमता ने नहीं समता ने , अज्ञान ने नहीं विज्ञान ने, भ्रष्टाचार ने नहीं सदाचार ने , स्वार्थ ने नहीं सेवा ने,कायरता ने, नहीं वीरता ने , अपना स्थान जमा लिया था। इसलिए उन्होंने तीस वर्ष की अरूण तरूण दशा में आग्रहायन कृष्ण 10 वीं तिथि को, ईसा से 569 वर्ष पूर्व सन्ध्या के समय चंद्रप्रभा पालकी में बैठकर नगर से तपौवन में जाकर उत्तरानक्षत्र में सर्व विषय कषाय तथा पापों का त्याग करते हुए णमोसिद्धाणं' कहकर दिगम्बर(वस्त्ररहितदशा) दीक्षा को धारण कर लिया और सघन वन के एकान्त प्रदेश में कठोर तपस्या करने लगे। इसी विषय का समर्थन देखिये
भुक्त्वा कुमारकाले त्रिशद्वर्षाण्यनन्तगुणराशिः । अमरोपनीतभोगान सहसाभिनिवोघितोऽन्येधु : ॥ नानाविधिरूपचितां विचित्रकूटोच्छ्रितां मणि विभूषाम्। चंद्रप्रभारव्यशिविकामारूह्य पुराद् विनिष्क्रान्त : ॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मार्गशिरकृष्णदशमी -हस्तोत्तर - मध्यमाश्रिते सोमे । षष्ठे न त्वपराण्हे भक्तेन जिन: प्रवद्वाज ॥
(निर्वाणभक्ति श्लोक 06-7-8) विहारप्रान्त के ज्ञातृवन मे चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग करते हुए योगी महावीर ने संयम की साधना की। इसी समय वीर की आत्मा में चतुर्थ मनः पर्ययज्ञान का विकास हुआ। मोनधारणकर अनशन आदि बारह प्रकार के तप की साधना करते हुए योगिराज महावीर का एक युग (12वर्ष) व्यतीत हो गया।
'मन:पर्ययपर्यन्त: चतुर्ज्ञानमहे क्षण : । तपोद्वादशवर्षाणि चकार द्वादशात्मकम् ॥'
(हरिवंश पुराण अ - 2 श्लोक 056) इस द्वादशवर्षीय तपस्याकाल में योगिराज महावीर ने राजगृह, चम्पा मद्दिया, वैशाली, मिथिला, वाराणसी, कौशाम्बी, अयोध्या, श्रावस्ती, वज्रभूमि, शुभ्रभूमि, नालन्दा, तक्षशिला आदि विविध विद्याकेन्द्रों में प्रवास कर सिद्धांतों का प्रतिपादन किया । आमलकप्पा , कयंगला, काकन्दी, कम्पिला, तुंगिया, अपापा, श्वेताम्बिका, वाणिज्यग्राम, अस्थिकग्राम आदि अनेक ग्राम पुर, खेट, मंडम्ब, कर्वट, स्थानों में पदयात्रा करते हुए कल्याणकारी तत्वों का उपदेश दिया।
आपकी शान्तिपूर्ण तपस्या से प्रभावित होकर न केवल मानव समाज, अपितु देव समाज भी आप की आदरभाव से अर्चा, स्तुति एवं वंदना करता था। अत: श्री पूज्यपाद आचार्य ने आपको 'अमर पूज्य ' विशेषण प्रदान किया है -
ग्रामपुरखेटकर्वटमटंवधोषाकरान् प्रविजहार। उग्रैस्तपोविधानै दशवर्षाण्यमर पूज्य : ॥
(निर्वाण भक्ति श्लोक 10) एक समय महायोगी महावीर विहार करते हुए उज्जैननगरी पधारे। उन्होंने वहाँ के अतिमुक्तक नाम के स्मशान में प्रतिमायोग धारण किया। उस समय वहाँ के निवासी रूद्र ने भयंकर रूप धारण कर उनको ध्यान से विचलित करने का प्रयत्न किया । इस उपसर्ग के समय महावीर अपने ध्यान योग से जरा भी विचलित न हुए। इससे प्रभावित होकर रूद्र ने क्षमा याचना कर महति महावीर कहते हुए आपकी स्तुति को किया। महति महावीराख्यां कृत्वा विविधस्तुति: ........अमत्सर: अगात्।" (भ. महावीर, जीवनदर्शन पृ. 24)
इस प्रकार महर्षि महावीर ने तपश्चर्या काल में सार्वकालिक योग, ध्यान योग, अनशनयोग, उत्सर्गयोग, स्वाध्याययोग, आसन योग, वर्षायोग, शीतयोग, ग्रीष्म योग, एवं प्रतिक्रमण योग, ज्ञानयोग, दर्शनयोग, और आचार योग के माध्यम से आत्मसाधना को ऋद्धिसिद्धियों का आधार बनाया।
4. ईसासन से लगभग 556 वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल दशमी के दिन संध्या समय, हस्तोत्तरनक्षत्र के
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मध्यभाग में चन्द्रमा के आ जाने पर महायोगी महावीर ने जृम्मकग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के तट पर स्थित रम्य उद्यान में शाल्मलिवृक्ष के नीचे महारत्नशिला पर प्रतिमा योग धारण कर शुक्ल ध्यान (आत्मध्यान) रूप चक्र से मोहनीयकर्म रूप शत्रु सेनापति का भेदन कर ज्ञानावरण दर्शनावरण- अंतराय इस कर्मरूप सेना को छिन्न भिन्न करते हुए आत्मनिधि निर्मलपूर्णज्ञान, विश्वदर्शन, अपरिमित बल एवं अक्षयसुख को प्राप्त (उदित) कर लिया | अब वे जीवनमुक्त, अर्हन्त, तीर्थकर भगवान के रूप में जगत्पूज्य हो गये । इस विषय
का प्रमाण
ऋजुकूलायास्तीरे शाल्मदुमसंश्रिते शिलापट्टे ||11|| अपराह्ने षष्ठेनास्थितस्य खलु जृम्मिका ग्रामे | वैशाखसितदशम्यां हस्तोतरमध्यमाश्रिते चन्द्रे | क्षपक श्रेण्या रूढस्योत्पन्नं के वलज्ञानम् ॥12 ॥
(निर्वाण भक्ति श्लोक 11 - 12 )
पूर्ण विशद ज्ञान विकसित हो जाने पर ही ज्ञानी व्यक्ति विश्वकल्याणकारी उपदेश देने का अधिकारी हो सकता है इस प्राकृतिक नियोग के अनुसार अर्हन्त महावीर तत्वोपदेश देने के अधिकारी सुयोग्य प्रवक्ता हो गये । अत: देवेन्द्र की आज्ञा से वैश्रवणदेव ने सर्वप्रथम विहार प्रान्तीय राजगिरीक्षेत्र के समीप विपुलाचल नामक पर्वत पर एक योजन विस्तृत गोल विस्तार वाले समवशरण की रचना कर दी । समवशरण उस विशाल सभा का नाम है जहाँ से धर्मतीर्थ का प्रवर्तन होता है, और जिसमें बिना भेदभाव के प्राणीमात्र का संरक्षण, शरण और अन्वेषण प्राप्त होता है। उसमें धर्मापदेश सुनने का सब ही को अधिकार प्राप्त होता है। इस कारण उसके चारों ओर बारह विभाग होते है - (1) मुनिगण, (2) वैमानिक देवांगना, (3) आर्यिका एवं श्राविका, (4) ज्योतिष्कदेवांगना, (5) भवनवासी देवियां, (6) व्यन्तरदेवियां, (7) व्यन्तरदेव, (8) भवनवासी देव, (9) ज्योतिष्कदेव, (10) वैमानिक देव, (11) मनुष्यगण, (12) पशु पक्षी दल ।
इन बारह उपसभाओं के मध्य में गन्धकुटी होती है जिसपर तीर्थकर प्रवक्ता का आसन रहता है। इस प्रकार भ.महावीर के समवशरण की सामग्री सम्पूर्ण रूप से सज्जित हो चुकी थी । परन्तु उनके समवशरण का कोई मुख्य गणधर न था। जो कि श्री महावीर के गम्भीर सिद्धांतों या दार्शनिक तत्वों को अपने हृदयस्थ कर अक्षरात्मक भाषा द्वारा मानवों के हृदय तक पहुँचा सके और विविध शंकाओं का समाधान कर सके । अत: मुख्यगणधर के अभाव में भ. महावीर का दिव्य उपदेश 66 दिन तक स्थगित रहा ।
आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के शुभदिन देवराज के सत्प्रयास से विहार प्रान्तीय गौतम ग्राम निवासी गौतम गौत्रीय इन्द्रभूति पुरोहित संस्कृतज्ञ विद्वान को प्रधानगणधर पद पर आसीन होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसलिए यह दिन 'गुरूपूर्णिमा' के नाम से पर्व के रूप में प्रसिद्ध हो गया। प्रधानगणधर पद पर श्री इन्द्रभूति के आसीन होने पर श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के प्रातः काल सूर्योदय के समय उसकी किरण के साथ ही महावीर ने दिव्यवचन रूपकिरणों से प्राणियों के मोहान्धकार को भेदन कर मानस पटल में प्रकाश करना प्रारंभ किया । इसलिए इस दिवस को 'श्रीवीर शासन जयंती पर्व' कहा गया है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भ. वीर की वाणी अर्धमागधी भाषा रूप अवश्य थी, पर वह किसी भाषा विशेष के अक्षर रूप नहीं थी किन्तु निरक्षरी (अन्य भाषा के अक्षरों से हीन) ओंकारध्वनि रूप सत्य, शिव, सुन्दर ध्वनित होती थी इसलिए उसको सभी भाषा भाषी मानव, देव पशु - पक्षी आदि सब ही प्राणी अपनी -अपनी मातृभाषा में समझ लेते थे उनकी दिव्य भाषा में यह महान वैज्ञानिक अतिशय था कि उस दिव्यवाणी को अनेक महादेशों के 18 महाभाषा भाषी मानव और 700 लघुभाषा वादी मानव अपनी अपनी मातृभाषा में समझ लेते थे। शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि -
यथाजल धरस्याम्म: आश्रयाणां विशेषत: ।
नानारसं भवत्येवं वाणी भगवतामपि ॥ जिस प्रकार मेघ का एकस्वमावयुक्त मिष्ट जल भूमि के भेद से तथा वनस्पतिरूप आधार के भेद से खट्टा मीठा आदि अनेक रसरूप परिणत हो जाता है उसी प्रकार भगवान की निरक्षरी भव्यवाणी भी अनेक भाषा रूप परिणत हो जाती है। जिससे सभी प्राणी सरलता से अपनी अपनी भाषा में समझ लेते हैं।
उदाहरण के रूप में पशुपक्षियों की एक ऐसी जघन्य भाषा सुनने में आती है जिसमें स्वर व्यंजन अक्षर तो नहीं होते हैं पर वह ध्वनिरूप से प्रगट होने वाली एक प्रकार की भाषा अवश्य है। जो दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पशुपक्षियों के भेद से अनेक प्रकार की होती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध किया है कि सिंह, चीता, व्याघ्र, श्याल, हिरण, रीछ, कुत्ता, बिल्ली, गाय, भैंस, बकरी, बंदर तथा काक तोता मैना- कोयल -चिड़िया , कबूतर, आदि सभी पशु - पक्षी अपनी - अपनी भाषा में बातचीत करते हैं
और उसके द्वारा दैनिक व्यवहार चलाते है। इसी प्रकार भ.महावीर की सर्वश्रेष्ठ अतिशयपूर्ण एक अर्धमागधी भाषा थी जिसमें अक्षर नहीं होते थे और वह ओंकार ध्वनिरूप से व्यक्त होती थी। जिसको सुनकर सभी प्राणी उपदेश के ज्ञान से आनंद मग्न हो जाते है। दिव्य ध्वनि का वैज्ञानिक महत्व -
वैज्ञानिकों ने किसी भी वाणी को दूर तक चारों ओर भेजने के लिए ध्वनि विस्तारकयन्त्र (Loudspeaker)का आविष्कार किया है जिसका उपयोग सभा आदि कार्यक्रमों में इस समय बहुत होता है । भ.महावीर के समय में भी एक ऐसा विचित्र अतिशय रूपयंत्र था जिसके द्वारा उनकी वाणी चारों ओर सैकड़ों किलो मीटर तक विस्तृत होती थी जिसको सभी प्राणी सुन लेते थे।
आधुनिक वैज्ञानिकों ने एक ऐसे अनुवादकर्ता, (ट्रान्सलेटर) यंत्र का आविष्कार किया है जो एक भाषा का अनेक भाषाओं में अनुवाद (ट्रांसलेशन) करता है जिसका उपयोग वर्तमान में विश्व की लोकसभा राज्यपरिषद् सुरक्षा परिषद् आदि सदनों की मर्यादा में होता है । जिसमें वक्ता (Speaker) एक अंग्रेजी भाषा में कहता है और उसका अनुवाद, सुनने वाले की इच्छा के अनुकूल हिन्दी आदि सभी भाषाओं में होता जाता है। भगवान वीर के समवशरण में भी एक ऐसा ही विचित्र अतिशयरूप यंत्र था कि जिसके द्वारा उनकी वाणी का अनुवाद प्राकृत - संस्कृत आदि 18 महाभाषाओं और 700 लघुभाषाओं में होता जाता था, जिसको
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सुनकर सभी भाषावादी आनन्दित होते थे, अन्यथा वे प्राणी या मानव हर्षित न होकर समवशरण से भाग जाते ।
उस महावीर आत्मा ने विश्वकल्याण के लिए आर्यखण्ड के 32 हजार देशों में विहार कर धर्मतीर्थ की स्थापना की।उन्होंने श्रेष्ठ अहिंसा अनेकान्त अपरिग्रह अध्यात्मवाद आदि धाराओं द्वारा सर्वोदय सिद्धांत का प्रचार तथा प्रसार किया। इस आशय को व्यक्त करने वाला एक प्राचीन ग्रन्थ का प्रमाण इस प्रकार है।
काश्यां काश्मीर देशे कुरूषु च मगधे कौशले कामरूपे कच्छे काले कलिंगे जनपद महिते जांगलान्ते कुरोदौ । किष्किन्धे मल्लदेशे सुकृतिजनमनस्तोष दे धर्मवृष्टिं कुर्वन् शास्ता जिनेन्द्रो विहरति नियतं तं यजैऽहं त्रिकालम् ।
(प्रतिष्ठासार संग्रह) अर्थात् -काशी काश्मीर कुरू मगध कौशल कामरूप कच्छ काल कलिंगे कुरूजांगल किष्किंध मल्लदेश इत्यादि प्राचीन विशाल देशों में भव्यजनों के मानस पटल को संतोषप्रदा धर्मामृत की वृष्टि को करते हुए उपदेष्टा भ.महावीर ने विहार किया था। अत: उनकी हम त्रैकालिक वंदना अर्चा और स्तुति करते है।
पांचाले के रले वाऽमृतपदमिहिरो मद्रवेदीदशार्णवंगां गाथोलिकोशीनर, मलयविदर्भेषु गौडे सुसहो । शीतांशुरश्मिजालादमृतमिव सभां 'धर्मपीयूषधारां'
सिंचन योगाभिरामा परिणमयति चस्वान्तशुद्धिं जनानां ॥ अर्थात् - पांचाल केरल भद्रवेदी दशार्ण वंग अंग आथोलि कोशीनर मलय विदर्भ गोड सुसहा इत्यादि देशों में ज्ञानामृत के चंद्र उन तीर्थकर महावीर ने चन्द्र किरणों से अमृतमय झरने के समान शान्तिपूर्ण .. धर्मामृत की धारा का सिंचन करते हुए मानवों की आत्मशुद्धि को किया था।
पुन्नाट चौल विषयेऽपि च पौण्ड्रदेशे, सौराष्ट्र मध्यमकलिन्द किरातकादों।
सुयोग्ये सुदेशमहिते सुविहृत्य धर्म, चक्रेण मोहविजयं कृतवान् जनानाम् ॥
अर्थात् - पुन्नाट चौल पौण्ड्रदेश सौराष्ट्र मध्यम कलिन्द किरातक आदि देशों में, और भी योग्य महान् देशों से शोभित राष्ट्रों में विहार कर महावीर तीर्थंकर ने धर्मचक्र के द्वारा मोह शत्रु पर विजय प्राप्त की।
(प्रतिष्ठासार संग्रह - ज्ञानकल्याण प्रकरण) भगवान महावीर के समवशरण में श्रोताओं की संख्या - गृहस्थमानव 100000 (1 लाख)
श्राविकाएँ - 300000 (3 लाख) गणधर - 11
मुख्यगणधर - 1 श्रीइन्द्रभूति ऋषिगण - 14000
पूर्वज्ञानधारी मुनि 300 उपाध्यायमुनि 9900
अवधिज्ञानीमुनि - 1300
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ केवलज्ञानी साधु 700
विक्रियाऋद्धिधारी यति -900 विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी - 400
आर्यिका - 36000 प्रमुख आर्यिका चंदनासती -1
वादी - 400 देव - अगणित
देवांगना - अगणित पशु पक्षी (संज्ञी - पंचेन्द्रिय) - अगणित ।
कुल संख्या - 45,39,11 केवलज्ञानी भगवान महावीर का आत्मिक प्रभाव -
(1) चारों दिशाओं में 100-100 योजन तक सुकाल रहना और लोक में या देशों में अकाल की दशा का नहीं होना । (2) 500 धनुष ऊपर आकाश में महावीर का गमनतप के प्रभाव से होना । (3) प्राकृतिक एक मुख होते हुए भी चारों दिशाओं में चार मुखी का दर्शन होना, इसी अपेक्षा से भगवान को चतुर्मुख कहते हैं। (4) मानवों में और पशुओं में हिंसक या कलहकारी प्रवृत्ति न होकर परस्पर में दयाभाव या करूणा भाव का होना । (5) भगवान महावीर के ऊपर कोई उपसर्ग या उपद्रव का न होना (6) ग्रास द्वारा ग्रहण किये जाने वाले भोजन के बिना ही शरीर का पुष्ट रहना एवं रोगों का न होना । (7) समस्त लौकिक तथा अलौकिक विद्याओं का ज्ञान महावीर की आत्मा में होना । (8) नख तथा केशों का नहीं बढ़ना, अत: भ. महावीर को छौरकर्म एंव केशलोंच आदि की आवश्यकता नहीं होती थी। (9) नेत्रों की पलकों का न झपकना, निद्रा का नहीं होना और नेत्रों का सदैव खुले रहना। (10) सूर्य चंद्र बिजली आदि के प्रकाश में शरीर की छाया नहीं होना एवं जल में भी महावीर के शरीर का प्रतिबिम्ब नहीं होना। इस प्रकार निर्मल पूर्णज्ञान होने पर भगवान महावीर की आत्मा के दश प्रकार के अतिशय व्यक्त होते थे।
इनके अतिरिक्त भ.महावीर की परम शुद्ध आत्मा के प्रभाव से देव समाज द्वारा जो महत्वपूर्ण कार्य किये गये थे उनका संक्षिप्त वर्णन भी ज्ञातव्य है - 1- भगवान की अर्धमागधी भाषा को सुदूर तक प्रसारित करना। . 2 - देव मानव पशु पक्षी इन प्राणियों में परस्पर मित्रता का होना बैर विरोध का छूट जाना। 3- सर्वदिशाओं का स्वच्छ सुरम्य होना। 4- आकाश का दृश्य स्वच्छ एवं सुन्दर होना। 5- समस्त ऋतुओं के फलफूल शाक धान्य आदि का एक साथ अत्यन्त उत्पन्न होना 6- कूड़ा कर्कट मल आदि से रहित भूमि का अत्यंत स्वच्छ होना। 7- महावीर के चलते समय चरण कमलों के नीचे स्वागतार्थ सुवर्ण कमलों का रचा जाना । 8- भूतल पर मनुष्यों द्वारा और आकाश में देवों द्वारा जय जय आदि उच्च ध्वनियों का होना । 9- स्वास्थ्य प्रद मंद सुगन्धित पवन का चलना। 10- आनंदप्रद सुगन्धित जल की मंद-मंद वर्षा होना ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 11- भूमि पर कांच सुई कांटे आदि नुकीले पदार्थो का न होना, जिससे गमनागमन में प्राणियों को किसी
प्रकार का कष्ट न हो। 12- देश देश , नगन - नगर और ग्राम - ग्राम में समस्त वातावरण का आनंदमय होना। 13- बिहार के समय भ. महावीर के आगे धर्मचक्र का चलना। 14- कलश ध्वजा स्वस्तिक आदि आठ मंगलद्रव्यों का निकट विद्यमान रहना । इन सब के द्वारा देशों में,
नगरों में बड़ा परिवर्तन, सुधार और विकास हो गया था। विश्वशान्ति का झण्डा लहराया गया जिससे समस्त प्राणियों को कल्याण मार्ग का दर्शन होने लगा।
उस समवशरण में दिन रात्रि का भेद नहीं रहता, अत: उनका दिव्य उपदेश छह घटी (2 घण्टा - चौबीस मिनिट ) ध्वनित होकर, नवघड़ी (3 घण्टा 36 मिनिट) स्थगित रहता था। इस क्रम से 24 घण्टों में चार वार चालू रहना और चार - वार स्थगित रहना, इस प्रकार दैनिक उपदेश का प्रवाहतीसवर्ष तक चलता रहा। भ.महावीर के समवशरण में ग्यारह गणधर नियक्त थे उनमें इन्द्रभतिगौतमगणधर प्रधान थे जो कि वीर के गंभीर सिद्धांतों को धारणकर सरल शब्द रचना द्वारा जनसाधारण तक भेजते थे। निर्वाण का पूर्व रूप -
पद्मवनदीर्घिकाकुल विविधद्रुमखण्डमण्डिते रम्ये ।
पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थित: स मुनि : ॥16॥ अर्थात् - आर्यखण्ड के सैकड़ों देशों में विहार करने के बाद तीर्थकर महावीर ने विहार प्रान्तीय पावापुरी में शोभित कमलयुक्त विशाल सरोवर तथा विविधवृक्षों से व्याप्त रमणीय उद्यान में कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी (धन्यत्रयोदशी) को मन वचन काय की क्रिया को रोकने के लिए व्युपरत क्रिया निवृत्ति नाम के शुक्ल ध्यान (श्रेष्टध्यान) का आश्रय लेना प्रारंभ किया। वह दशा खड्गासन में थी। निर्वाण कल्याणक
कार्तिककृष्ण स्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरजः ।
अवशेषं सम्प्रापद् व्यजरामरमक्षयं सौख्यम् ॥17॥ पावापुरस्य बहिरून्नतमूमिदेशे पद्मोत्पलाकुलवतां 'सरसां' हि मध्ये । श्री वर्धमान जिनदेव इति प्रतीतो निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूतपाप्पा ॥24॥
(निर्वाण भक्ति श्लोक 17-24) अर्थात् - कार्तिककृ ष्णा अमावास्यातिथि में स्वातिनक्षत्र के उदयकाल में, अवशेष वेदनीय, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्मनामके अघाति कर्म रूप धूलि का क्षयकर, सरोवर के मध्य उच्च भूप्रदेश में, चतुर्दशगुणस्थान में अल्पसमय व्यतीत कर, ईसा से 527 वर्ष पूर्व काल में सूर्योदय के पूर्व निर्वाण (परमविशुद्ध अवस्था) को प्राप्त हुए। उन्होंने अष्टकर्म दोषों के अभाव में आठ परम गुणों का अक्षय विकास कर लिया। वे परम गुण इस प्रकार है - (1) सम्यक्त्व, (2) अनंतदर्शन, (3) अनंतज्ञान , (4) अगुरूलघुत्व (5) अवगाहनत्व,
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (6) सूक्ष्मत्व (7) अनंतशक्ति (8) अव्यावाधत्व । इस वीर निर्वाण से यह प्रत्यक्ष सिद्ध हो गया कि चतुर्गति में जन्ममरण प्राप्त करने वाले भव्य प्राणी ही आत्म पुरूषार्थ करके परमसिद्ध परमात्मपद को प्राप्त कर लेते है यह तीर्थकर महावीर का सर्वश्रेष्ठ 'सर्वोदय' सिद्धांत है। इस सिद्धांत के माध्यम से सभी प्राणियों को उन्नति का द्वार खुला हुआ है। इस सिद्धांत से प्रभावित होकर एक वैज्ञानिक ने अपने विचार व्यक्त किये हैं जो इस प्रकार है -"I want to interpret Mahavira's life as Rising from Manhood to God - hood' and not as from God-hood to Super-God-hood. If that were so, I would not even touch Mahavira's life, as we are not God but men. Man is the greatest subject for man's study,"(Anekanta 1944, August, Number).
इसका आशय :- मुझे महावीर जीवन इससे प्रिय लगता है, कि वह मानव को परमात्मा बनने की शिक्षा देता है ।उसमें यह बात नहीं है कि महावीर की शिक्षा ईश्वर को और महान् ईश्वरत्व प्रदान करती है
यदि ऐसी बात न होती, तो मैं महावीर के जीवन चरित्र का स्पर्श भी नहीं करता, क्योंकि हम ईश्वर नहीं है, किन्तु मानव है। मनुष्य के अध्ययन के योग्य महान् विषय मानव ही है। (अनुवाद भ.महावीर जीवन दर्शन, पृ. 050)
___ इतिहास कहता है कि ईसा सन् से 527 वर्ष पूर्व श्री वीर ने मुक्ति प्राप्त की। इस निर्वाण की स्मृति में देवों और मानवों ने असंख्य दीपक प्रज्वलित कर वीर के गुणों का स्तवन किया। इसी स्मृति में वीर निर्वाण सम्वत् भी चालू किया गया । इसका ऐतिहासिक प्रमाण यह है कि एक शिलालेख अजमेर के अजायब घर में विद्यमान है। इसको वहाँ के क्यूरेटर रायबहादुर श्री गौरीशंकर जी ओझा ने पढ़ा है। इस शिलालेख की प्रति लिपि इस प्रकार है -वीराय भगवत् चतुरासी निवस्से सालामालिणीये रण्णिविद्रमिज्वमिके। यह शिलालेख वीर नि.सं.84 का सिद्ध होता है । (महावीर निर्वाणोत्सव पृ. 23)
इसी समय से भारत में दीपावली पर्व का उदय हुआ। इस पवित्र अमावस्या के सायंकाल में भ.वीर के प्रधान गणधर श्री इन्द्रभूति गौतम ने केवल ज्ञान को प्राप्त किया। इस स्मृति के उपलक्ष्य में मानवों ने सायंकाल अपने घरों में दीपक जलाये और भ.वीर के साथ गौतमगणधर का पूजन - स्तवन किया। हरिवंशपुराण में इस विषय का प्रमाण इस प्रकार है -
ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुरासुरै दीपितया प्रवीप्तया । तदास्य पावानगरी समंतत: प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥1॥ ततश्च लोक: प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्ध दीपालिक यात्र भारते ।
समुद्यत: पूजार्यतुं जिनेश्वरं जिनेन्द्र निर्वाणविभूतिभक्ति भाव ॥2॥ अर्थात् देवों और मानवों के द्वारा प्रदीप्त तथा महती प्रज्वलित दीपावली से पावानगरी का गगनतल एवं भूतल उस निर्वाण काल में जगमगा रहा था। उसी समय से भारत में मानव समाज वीर निर्वाण की भक्ति में लीन होकर प्रतिवर्ष दीपावली के द्वारा भ.वीर की अर्चा करने में मन वचन कर्म से उद्धत हो गया है।
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तीर्थंकर महावीर के दर्शन में अपरिग्रहवाद
चौबीसवें तीर्थंकर भ. महावीर ने आज से 2532 वर्ष पूर्व, कठोर आध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप, वैशाख शुक्ल दशमी तिथि, सन्ध्या समय, हस्त और उत्तरा नक्षत्र मध्य भाग में चन्द्रमा के सुशोभित होने पर, जृम्मक ग्राम के निकट, ऋजुकूला नदी के रम्य तट पर, मनोहर नामक वन के मध्य महारत्न शिला पर विराजमान वीर प्रवर महावीर ने आत्मा में विश्व विज्ञान को उदित किया । अनन्तर तीस वर्ष तक आर्यावर्त के हजारों राष्ट्रों, देशों एवं ग्रामों में निरन्तर विहार करते हुए दिव्य उपदेश द्वारा धर्मामृत का वर्षण किया।
भगवान महावीर ने लोक कल्याण हेतु विचार के लिये अनेकान्त वाद, आचार के लिये अहिंसा, आस्था के लिये अध्यात्मवाद, बहिष्कार के लिये परिग्रह वाद (अर्थवाद), कर्मक्षय के लिये मुक्ति पुरुषार्थ, आहार के लिये शाकाहार और प्रसार के लिये परोपकार (सेवा) का पथ प्रदर्शन किया।
उक्त सिद्धान्तों में अपरिग्रह वाद पर विचार करना इस समय मुख्य लक्ष्य है। भ. महावीर के दर्शनों अपरिग्रहवाद लोककल्याणकारी सार्थक दर्शन है। जैन ग्रन्थों में इसकी व्याख्या की गई है- परि=समन्तात्, ग्रहणाति इति परिग्रहः न परिग्रहः इति अपरिग्रहः अर्थात् जो सब प्रकार से आत्मा को जकड़ लेवे ( पराधीन करे) उसे परिग्रह कहते हैं, जैसे कि अपराधी जन को पुलिस बेड़ियों द्वारा सब प्रकार से जकड़ लेता है ( गिरफ्तार कर लेता है), उसी प्रकार परिग्रह भी आत्मा को सर्वथा गिरफ्तार कर लेता है। इसका स्पष्ट भावार्थ यह हुआ जो आत्मा के विशुद्ध भावों को नष्ट कर अपना रौद्र रूप परिणाम कर देता है उसे परिग्रह की संज्ञा दी गई है।
परिग्रह की परिभाषा - 'मूर्च्छा परिग्रहः'
वाह्यानां गोमहिषमणिमुक्ताफलादीनां चेतनाचेतनानां अभ्यन्तराणां च रागद्वेषादीनां उपधीनां संरक्षणार्जन संस्कारादि लक्षणाव्यावृत्ति: मूर्च्छा | (आचार्य पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धिः पृ. 204, अ. 7 सू. 7) सारांश- मूर्च्छा (मोह-माया) को परिग्रह कहते हैं. स्पष्टार्थ - बाह्य, गो, महिष (भैंस), भृत्य आदि चेतन पदार्थों में, मणि, मुक्ताफल, सुवर्ण, रजत आदि अचेतन पदार्थों में तथा अन्तरंग राग, द्वेष, मोह आदि विकारी भावों में संरक्षण, अर्जन, संस्कार, वासना आदि रूप व्यापार या वातावरण को मूर्च्छा कहते हैं। यह विशेषता है कि वात-पित्त-कफ के विकार जनित रोग के कारण होने वाली बेहोशी या मूर्छा को परिग्रह नहीं कहते हैंकारण कि दवा के द्वारा रोगादिकी मूर्च्छा दूर होने पर भी रोगी के स्वस्थ होने पर धनादि सम्बन्धी मोह, माया, लोभ आदि दूषित परिणाम देखे जाते हैं। शारीरिक रोग दवा से नष्ट हो सकते हैं, परन्तु आत्मा के लोभ, मोह माया रूप विचार दवा नष्ट नहीं हो सकते, उनके नाश करने के लिये तो आत्मा के शुद्ध भाव श्रद्धान, ज्ञान, सदाचार, क्षमा आदि गुण होना चाहिये । मूर्च्छा को दूसरे शब्दों में आशा, तृष्णा, लोभ और दुरिच्छा भी कहते हैं। परिग्रह का वर्गीकरण :
परिग्रह के मूल दो प्रकार होते हैं (1) बाह्य, (2) आभ्यन्तर । बाह्य परिग्रह दो भेदों में विभक्त हैं। (1) चेतन परिग्रह (पदार्थ)- भृत्य, गो, महिष, घोड़ा, हाथी सेना आदि । (2) अचेतन (जड़) परिग्रह- क्षेत्र, भवन,
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सुवर्ण, चांदी, धन धान्य, खजाना, फर्नीचर, वस्त्र, बर्तन आदि । (2) आभ्यन्तर (आत्मा में उत्पन्न दोष) परिग्रह- चौदह भेदों में विभक्त है (1) मिथ्या श्रद्धान, (2) क्रोध, (3) अभिमान (4) मायाचार, (5) लोभ या तृष्णा, (6) हास्य या मजाक, (7) रति-लोलुपता, (8) अरति-द्वेष भाव, (9) शोक या चिन्ता, (10) भयउद्वेग, (11) घृणा, (12) स्त्री वेद, (13) पुरुष वेद (14) नपुंसक वेद । धर्मशास्त्रों में बहिरंग परिग्रह-10 प्रकार और अन्तरंग परिग्रह-14 प्रकार, कुल 24 प्रकार परिग्रह कहे गये हैं। परिग्रह के पात्र :
जिस प्राणी के मोहकर्म का उदय होता है उसके अन्तरंग में वस्तुओं के प्रति अहंकार-ममकार भाव अवश्य उत्पन्न होता है और अन्तरंग में भाव होने पर बाह्य, धन, सुवर्ण, महल आदि पदार्थों को एकत्रित करने का प्रयत्न अवश्य करता है। जैसे नृपति, व्यापारी आदि। जिस व्यक्ति के हृदय में धन आदिएकत्रित करने की तीव्र इच्छा है, परन्तु बाह्य में उसके पास कुछ भी नहीं है मात्र लंगोटी है, तो वह बहुपरिग्रही है जैसे भिखारी, याचक आदि । जिस व्यक्ति के हृदय में बाह्य धन-मकान, राज्य, सेना, खजाना आदि सब कुछ है, परन्तु आत्मा में बाह्य पदार्थों के प्रति मोह - माया-अहंकार-ममकार आदि दोष कुछ भी नहीं हैं वे मोह माया रहित, परिग्रह से हीन पवित्र आत्मार्थी हैं, वे सन्त जल से भिन्न कमल की तरह निर्दोष रहते हैं। जैसे भरत चक्रवर्ती। जो सन्तशिरोमणी आत्मा में मोह माया तृष्णा से हीन हैं और बाह्य में भी कुछ वस्तु भी नहीं रखते हैं, आत्म साधना में ही लीन रहते हैं जैसे दिगम्बर साधु । वे दोनों प्रकार के परिग्रह से रहित हैं।
इस वर्णन से यह सिद्ध हो जाता है कि मूर्छा या तृष्णा यह अन्तरंग परिग्रह प्रबल है, इसके कारण ही मानव जगत की वस्तुओं को समेटता फिरता है, कभी भी सन्तोष को प्राप्त नहीं होता । जैसे एक भिखारी के पास कुछ भी पैसा नहीं था, वह सोचता है कि बाजार में मांगने से यदि एक रुपया मिल जावे, तो मैं सुखी हो जाऊँगा। यह विचार कर वह बाजार में मांगने जाता है तो उसे एक रुपया मिल जाता है, फिर उसकी तृष्णा बढ़कर 10 रु. पर हो जाती है, 10 रु. मिलने पर तृष्णा 100 रु. पर चली जाती है। इस तरह वह चक्री के पद पर भी चला जाता है तो भी उसकी तृष्णा शान्त नहीं हाती, वह दुखी ही बना रहता है । एक हिन्दी के कवि ने इसी दृष्टान्त को व्यक्त किया है। "जब एक हुआ अब दश होते, दश हुए तो सौ की इच्छा है, सौ पाकर भी यह सोच हुआ, अब सहस्र हों तो अच्छा है। वह इसी तरह बढ़ते-बढ़ते चक्री के पद पर पहुंचा है।" फिर भी सन्तोष नहीं पाता, ऐसी यह उत्पन्न तृष्णा है।
जब तक हृदय में तृष्णा है, तब तलक प्रकाश (ज्ञान) नहीं होता,
हाँ, आयुनाश हो जाती है पर तृष्णा का नाश नहीं होता ॥ अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह (पदार्थ) का बुद्धिपूर्वक त्याग करने को अपरिग्रहवाद कहते है, अबुद्धिपूर्वक त्याग को परिग्रह त्याग की सीमा में नहीं लिया गया है । त्याग की दो कक्षाएँ होती हैं (1) आंशिक त्याग, या अणुत्याग, (2) सर्वांश त्याग या महात्याग। सेना, मकान, सुवर्ण आदि दश प्रकार के बाह्य पदार्थों का परिमाण करके उससे अधिक वस्तुओं में किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं करना परिग्रह परिमाण नामक आंशिक व्रत (अणुव्रत) कहा जाता है । इस विषय में आचार्य समन्तभद्र की वाणी है -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ धनधान्यादिग्रन्थं, परिमाण ततोधिकेषु निस्पृहतः । परिमितपरिग्रह: स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार- श्लोक 15, अ. 3) गोधन; सुवर्ण, धान्य आदि पदार्थों का परिमाण (मर्यादा) कर उससे अधिक पदार्थों में तृष्णा नहीं करना परिग्रह परिमाण नाम का अणुव्रत कहा जाता है। इसको इच्छा परिमाण नामक, व्रत भी कहते हैं, क्योंकि इस नियम में अनेक पदार्थों के प्रति तथा इन्द्रिय विषयों के प्रति बढ़ती हुई इच्छाओं पर रुकावट हो जाती है। जलती हुई इच्छाओं की शान्ति, ज्ञान एवं संयम रूप शीतल जल से ही होती है । यह गृहस्थों या श्रावकों की अणुव्रत कथा प्रसिद्ध है।
__ यह परिग्रह परिमाण व्रत/इच्छापरिमाण व्रत अत्यन्त लोककल्याणकारी है। यदि आज का मानव, शासक अथवा सत्ताधिकारी व्यक्ति, इस व्रत को जीवन में बुद्धिपूर्वक स्वीकृत कर लेवें तो पंजाब की समस्या, अयोध्या मन्दिर की समस्या, काश्मीर की समस्या और एकच्छत्रशासन की समस्या का समाधान सरलता से पूर्ण हो जावे तथा हाइड्रोजन बम एवं एटमवम का भय समाप्त हो जाय । सभी व्यक्ति अपनेअपने राज्य का सन्तोष के साथ संरक्षण करें, कोई शासक किसी राष्ट्र पर आक्रमण न करे। कवि का कथन है
'जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूल समान ।' यदि ज्वलन्त इच्छाओं को सीमित कर लिया जाय अथवा पदार्थों का परिमाण कर लिया जाय तो सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन सुख शान्ति से परिपूर्ण हो जाय । पारिवारिक जीवन में धन के बँटवारे के कारण विद्रोह शान्त हो जाय । न्यायपूर्वक धनोपार्जन के कारण अनेक विद्रोह एवं भ्रष्टाचार नष्ट हो जाय । समाज में सन्तोषामृत के कारण संघर्ष, चोरी, डकैती, लूटपाट, अपहरण आदि की दुर्घटनाएं समाप्त होकर शान्ति का वातावरण छा जाय । यह सब एकदेश अपरिग्रह के कारण हो सकता है।
अब परिग्रह (वस्तु संग्रह) के महात्याग या महाव्रत, जो दूसरी बड़ी कक्षा है उस पर विचार किया जाता है :
__ जिस कक्षा में सेवक, पशु धन, सुवर्ण, भवन, क्षेत्र आदि बाह्य वस्तुओं का तथा अतत्त्व श्रद्धान, क्रोध, तृष्णा, मोह, माया आदि अन्तरंग कुभावों का मनसा, वाचा, कर्मणा, कृत, कारित, अनुमति इन नव प्रकारों से बुद्धिपूर्वक परित्याग किया जाता है वह पूर्ण परिग्रह त्याग महाव्रत अथवा सकल व्रत कहा जाता है। इस महान व्रत की साधना साधु ही कर सकते हैं। व्याकरण की दृष्टि से व्युत्पत्ति कही गई है कि 'साधनोति परमकार्य इति साधुः' अर्थात् जो मुक्ति के मार्ग की या परिग्रह त्याग महाव्रत की जो अटल साधना करे वह साधु, मुनि या तपस्वी प्रसिद्ध है। धर्मशास्त्रों में परिग्रह त्याग महाव्रत का कथन इस प्रकार है -
चेतनेतर बाह्ययान्तरंगसंगविवर्जनम् । ज्ञानसंयमसंगों वा निर्ममत्वमसंगता ॥
(धर्मामृत अध्याय 5 : श्लोक 7)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सारांश-चेतन और अचेतन तथा बाह्य और अन्तरंग सर्व प्रकार के पदार्थों को सर्वथा छोड़ देना एवं निर्ममत्व भाव को अंगीकार कर ज्ञान एवं संयम की साधना करना परिग्रहत्याग महाव्रत कहा जाता है। इस शारीरिक और आध्यात्मिक तपस्या से ही जन्म-मरण तथा कर्म विकारों को विनष्ट कर संसारी आत्मा, परमात्म पद (मुक्ति) को प्राप्त करता है। महावीर के अपरिग्रहवाद और वैज्ञानिकों के अर्थशास्त्रों में अन्तर :
भगवान महावीर ने अर्थ पुरुषार्थ (अर्थशास्त्र) में न्यायपूर्वक साधनों से अर्थ संयम, अर्थ संरक्षण अवश्य दर्शाया है- परन्तु उस अर्थशास्त्र में मर्यादा द्वारा आंशिक त्याग, गृहस्थ जीवन में और सम्पूर्ण अर्थत्याग साधु जीवन में आवश्यक रूप से शक्ति के अनुसार भी कहा है। इस नियम का पालन करते हुए मानव आवश्यकता से अधिक अर्थ का संग्रह न करे, दूसरे के वैभव को देखकर दुखी न होवे, अत्यन्त तृष्णा न करे और अर्थार्जन के कारण भृत्यों एवं पशुओं को कष्ट न देवें।
अब वैज्ञानिकों के अर्थशास्त्र में देखिये कि उन्होंने विज्ञान के उचित साधनों से अर्थ का अर्जन, संग्रह, विकास को अवश्य कहा है परन्तु सामाजिक कर्त्तव्य की दृष्टि से धन की मर्यादा करके आंशिक त्याग नहीं कहा है। इस मर्यादा के बिना यह हानि अवश्य होती है कि मानव विज्ञान के द्वारा न सम्पूर्ण धन का अर्जन कर सकता है और न नियम करके सन्तोष से जीवन पवित्र कर सकता है। वह तो पशुपक्षियों की तरह तृष्णा से ही जीवन समाप्त कर देता है, परलोक में दुर्गति का पात्र होता है। वैज्ञानिकों की अर्थशास्त्र की परिभाषाओं का दिग्दर्शन :(1) अर्थशास्त्र धन का विज्ञान है । (एडम स्मिथ) (2) अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो धन या सम्पत्ति की विवेचना करता है। (श्री जे.बी. से) (3) अर्थशास्त्र ज्ञान की वह शाखा हे जो धन से सम्बन्धित है । (प्रो. बाकर) (4) अर्थशास्त्र जीवन के साधारण व्यवसाय में मनुष्य की क्रियाओं का अध्यापन है। यह इस बात की
जांच करता है कि मनुष्य अपनी आय किस प्रकार प्राप्त करता है और उसका किस प्रकार उपयोग
करता है । (प्रो. मार्शल) (5) अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जिसमें मानव व्यवहार का उसकी अनन्त आवश्यकताओं और सीमित
साधनों, "जिनका विभिन्न प्रकार से उपयोग हो सकता है", के बीच के सम्बन्ध के रूप में अध्ययन
किया जाता है । (प्रो. राबिन्स) (6) अर्थशास्त्र एक विज्ञान है जो मानवीय आचरण (व्यवहार) का आवश्यकता रहित अवस्था में पहुंचने
के लिये एक साधन के रूप में अध्ययन करता है । (प्रो. जे.के. मेहता अर्थशास्त्री)
(आनन्दस्वरूपगर्ग : अर्थशास्त्र की रूपरेखा - 1982 : पृ2-19) अन्य अर्थशास्त्र की परिभाषाएं :(1) राज्य अर्थव्यवस्था (अर्थशास्त्र) का उद्देश्य उन कारणों का विवेचनात्मक वर्णन करना होता है जिन पर मनुष्य का भौतिक सुख निर्भर होता है । (प्रो. कैनन अर्थशास्त्री)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
(2) अर्थशास्त्र उन सामान्य रीतियों का अध्ययन है जिनसे मनुष्य अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सहयोग करते हैं। (प्रो. बैवरिज अर्थशास्त्री)
(3) अर्थशास्त्र आर्थिक कल्याण का अध्ययन है। (प्रो. पीगू अर्थशास्त्री)
(अर्थशास्त्र के सिद्धान्त भाग 1, पृ. 5) ऊपरी कथित वैज्ञानिकों के अर्थशास्त्र के सिद्धान्त भौतिकवादी है, उनसे मानव का कल्याण पूर्ण तथा संभव नहीं है कारण कि उनसे मानव, अति धन संग्रह करता है, दूसरे मानवों के वैभव को देख स्पर्धा करता है, अतितृष्णा से सन्तोष (संतुष्टि) को धारण नहीं करता है। उन अर्थशास्त्रों में आध्यात्मिकता नहीं है और न अर्थ के परिमाण का कोई नियम है। जैसा कि परिमाण अर्थ पुरुषार्थ या परिग्रहपरिमाण व्रत में है ।
परन्तु कुछ ऐसे वैज्ञानिक अर्थशास्त्री भी हैं जिन्होंने अर्थ की सीमा, अनतिसंग्रह और सन्तोष (संतुष्टि ) गुण का महत्व अर्थशास्त्र की रूपरेखा में कहा है। तथाहि - "उन सब मानवी क्रियाओं का धन कमाने और व्यय करने से संबंधित रूपेण अर्थशास्त्र में अध्ययन किया जाता है, संक्षेप में अर्थशास्त्र धन से सम्बन्ध रखने वाली भावी क्रियाओं का अध्ययन करता है।" इस परिभाषा का स्पष्टीकरण करते हुए टिप्प्णी में कहा गया है कि
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साधुओं, सन्यासियों, संयमी आदि व्यक्तियों पर यह कथन नहीं घटता, क्योंकि अर्थशास्त्र केवल साधारण व्यक्तियों की क्रियाओं का अध्ययन करता है। इस प्रकार के व्यक्ति साधारण श्रेणी से परे हैं। अत: अर्थशास्त्र महात्माओं की क्रिया का अध्ययन नहीं करता। उनकी साधना आध्यात्मिक होती है ।
(अर्थशास्त्र का परिचय भाग 1, पृ. 6, ए. एन. अग्रवाल)
“पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों का कथन है कि अर्थशास्त्र से मनुष्य अपनी जितनी अधिक इच्छाओं की एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा, उसको उतना ही अधिक सन्तोष प्राप्त होगा परन्तु प्रो. जे. के. मेहता (भारतीय विज्ञ) पाश्चात्य वैज्ञानिकों के इस मत से सहमत नहीं है। आपका कथन है कि अर्थशास्त्र का संबन्ध मनुष्य की बढ़ती हुई इच्छाओं और आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से नहीं, किन्तु इनको कम करने से और अन्त में इनको समाप्त करने से है जिससे कि इच्छा रहित या आवश्यकता रहित जीवन की स्थिति उत्पन्न हो सके ।
(अर्थशास्त्र की रूपरेखा : आनन्द स्वरूप गर्ग : पृ. 3 ) प्रो. जे. के. मेहता का उक्त कथन ही भ. महावीर के अपरिग्रहवाद सिद्धान्त के अनुकूल है।
उपसंहार
भगवान महावीर ने लोक कल्याणार्थ न केवल आचारमार्ग अहिंसा का ही उपदेश दिया है, किन्तु अध्यात्मवाद, कर्मवाद, अनेकान्त ( स्याद्वाद) और अपरिग्रहवाद का मार्ग भी प्रशस्त किया है। अपरिग्रहवाद, समाजवाद, अर्थशास्त्र-पूंजीवाद - भौतिकवाद - मानव विज्ञान आदि सिद्धान्तों में अपरिग्रह वाद ही अधिक कल्याणकारी सिद्ध होता है। इस सिद्धान्त का आचरण करना मानव का कर्त्तव्य है ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इतिहास एवं पुरातत्व के आलोक में तीर्थंकर महावीर और वैशाली प्रदेश
तीर्थंकर शब्द की व्याख्या -
"संसार सागरं तरति अथवा संसार सागर : तिर्थते अनेन अथवा तरण मात्रं वा इति तीर्थ: । ... तीर्थ करोति इति तीर्थंकरः" इसका आशय यह है कि जो जन्म मरण रुप संसार सागर को पार करता है अथवा जिसके द्वारा संसार सागर पार किया जाय उसको तीर्थ कहते हैं अथवा जो संसार सागर को पार करना कराना मात्र है उसे तीर्थ कहते हैं और धर्मतीर्थ का जो विधान करता हैं उसे तीर्थंकर कहते है, तीर्थकर यह शब्द यथा नाम तथा गुण है अर्थात् यह शब्द पूर्णतया सार्थक है , निरर्थक नहीं है। तीर्थकर के उदय का प्रयोजन
___विश्व में तीर्थकर का उदय पवित्र जन्म अधर्म, पाप, अन्याय और दुराचार को विनाश करने हेतु एवं धार्मिकता,नैतिकता, सदाचरण और समीचीन ज्ञान के विकास के लिये होता है। साथ ही धार्मिक मानवों के संरक्षण और दुराचारी मनुष्यों के बहिष्कार के लिये होता है। पौराणिक कथन स्मरणीय है -
आचाराणां विधातेन, कुदृष्टीनांच सम्पदा। धर्म ग्लानिपरिप्राप्तं, उच्चयन्ते जिनोत्तमा॥
__रविषेणाचार्य: पद्मपुराण: पर्व-5 तात्पर्य - सदाचार के विघात से दुराचारी मनुष्यों का साम्राज्य जब इस भूमण्डल में वृद्धिंगत होता है और धार्मिकता-नैतिकता रसातल में धंस जाती है उस समय लोक में तीर्थकर का उदय होता है । अतएव कृतयुग (ततयुग-चतुर्थकाल) में चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा प्रवाहित रही है । भारतीय सम्राट अशोक शासक के चक्र में चौबीस आरे इस चौबीस संख्या के द्योतक है।
इस तीर्थकर परम्परा में प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थकर महावीर हुए हैं, जिन्होंने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन इस विशाल भूमण्डल पर किया है।
आज से प्राय: 2592 वर्ष पूर्व ईशा से प्राय: 600 पूर्व, पार्श्वनाथ 23 वें तीर्थकर के निर्वाण के करीब 198 वर्ष पश्चात् विक्रमादित्य से 570 वर्ष पूर्व, मुहम्मद पैगम्बर से करीब 1180 वर्ष पूर्व गर्भ से 9 माह 8 दिन पश्चात् चन्द्रमा के उत्तरा फाल्गुनि नक्षत्र के काल में उदित होने पर, उच्चग्रहों की स्थिति में, शुभलग्न में चैत्रशुक्ला त्रयोदशी,दिवस सोमवार के प्रात: काल विहार प्रान्तीय वैशाली की कुण्डलपुर नगरी में 24 वें तीर्थकर महावीर का पुण्य जन्म हुआ। उस समय देवेन्द्रों और मानवों द्वारा जन्मकल्याण महोत्सव किया गया। पिता-महाराज सिद्धार्थ ने एवं माता त्रिशला ने अपने यौवन को महत्वपूर्ण समझा।
तीर्थंकर महावीर का अस्तित्व, पुरातत्व एवं इतिहास के आलोक में चमक रहा है। जिसके प्रमाण एवं उद्धरण निम्नलिखित हैं -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ___कंकालीटीला मथुरा उ.प्र. से महावीर की एक मूर्ति नृप कनिष्ठ के राज्यकाल 53 ईशा पूर्व की प्राप्त हुई हैं, वह सर्व प्राचीन प्रतिमाओं में से एक है।
इसके अतिरिक्त कंकालीटीला मथुरा से ऐसी जिनमूर्तियाँ एवं अन्य शिलापट्ट प्राप्त हुए है जिन पर ईशा पूर्व प्रथमशती से ईस्वी प्रथमशती तक के लेख अंकित हैं और जिनमें महावीर-वर्धमान को नमस्कार किया गया है। ये लेख गणना में सात हैं। जिनमें प्रथमलेख प्रस्तुत किया जाता है- "नमो अर्हतो वर्धमानस" (पं. विजयमूर्ति एम. ए. शास्त्राचार्य: जैनशिलालेख संग्रह भाग 2 शि. ले. नं. 5 पृष्ठ 12 सन् 1952) विस्तार के भय से अन्यलेख अंकित नहीं किये गये हैं।
वाडली राजस्थान से प्राप्त शिलालेख सर्वप्राचीन हैं, जिनमें भ. महावीर का उल्लेख है । इसको पुरातत्वज्ञों ने इस प्रकार पढ़ा है "वीराय भगत्व 84 चतुरासिनिवस ज्ञापे सालिमालिनीये रं निविद्रमिज्मिके" अर्थात भ. महावीर के लिये 84 वें वर्ष में नमस्कार कर माध्यमिका में सालि मालिनी-इत्यादि। ठा. जायसवल ने इसका काल 374 ईशा पूर्व माना है। यदि यह वी. नि. सम्वत् हो तो इसका काल 443 ईशा पूर्व होगा। वर्तमान में यह शिलालेख अजमेर राजस्थान के संग्रहालय में विद्यमान है। इसको यहाँ के संग्रहालयाध्यक्ष (कयूरेटर) रायबहादुर पं. गौरी शंकर जी ओझा ने पढ़ा है |उसका सारांश भी दर्शाया है।
बिहार प्रान्तीय राजगृहक्षेत्र के मणियार मठवाले शिलालेख में यद्यपि महावीर का उल्लेख नहीं है तथापि उसका सम्बन्ध महावीर से अवश्य है। भ. महावीर के अनन्यतम भक्त मगधदेश के सम्राट श्रेणिक थे और भ. महावीर का प्रथम उपदेश विहार प्रान्तीय राजगृह के विपुलाचल पर हुआ था। जिस मूर्ति पर यह लेख अभिलिखित है जिसका पादपीठ का अंग ही शेष है, जिसमें विपुलाचल और उस पर श्रेणिक राजा की अवस्थिति दर्शित है । इस पर कुशाणकालीन (ईश्वर प्रवाती) लिपि में यह लेख अंकित है। __"पर्वतो विपुल राजा श्रेणिक.....इस लेख से जैन मान्यता की पुष्टि होती है कारण कि विपुलाचल पर श्रेणिक महाराज कालक्षेप करते थे, क्योकि वहां भगवान महावीर का समवशरण आया था । समवशरण में महाराज श्रेणिक ने, इन्द्रभूति गौतम पुरोहित के प्रति आत्मज्ञान के लिये हजारों प्रश्न किये थे। इन्द्रभूति गणधर भ. महावीर के समशवरण के प्रधान श्रोता थे। (बौद्धविद्वान श्री धर्मानन्दजी कौसाम्बी)।
महावीर ने 12 वर्ष के तप और त्याग के पश्चात् ज्ञानशक्ति के द्वारा अहिंसा का खूब सन्देश दिया। उस समय देश में बहुत हिंसा होती थी। हिंसात्मकयज्ञ और बलिदान होते थे। उसको बन्द कराया, अगर उन्होंने अहिंसा का संदेश न दिया होता तो आज हिन्दुस्तान में अहिंसा का नाम भी नहीं लिया जाता।
(सुघोषा पत्र सं 1984-85 कार्तिकमासं) स्व. महात्मा गांधी को एक महान् राष्ट्र पिता मानते थे....
"मैं आप लोगों से विश्वासपूर्वक यह बात कहूंगा कि महावीर स्वामी का नाम इस समय यदि किसी भी सिद्धांतों के लिये पूजा जाता है तो वह अहिंसा है। मैने अपनी शक्ति के अनुसार संसार के जुदे-जुदे धर्मो का अध्ययन किया है और जो सिद्धांत मुझे योग्य मालूम हुए हैं उन अहिंसा आदि का मैं आचरण भी करता हूं।" (जैन जगत अप्रेल 1927)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ महावीर भगवान का निर्वाण
कार्तिककृष्णस्यान्ते, स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरज: । अवशेषं संप्रापद् व्यजरामर मक्षयं सौख्यम् ॥
(पूज्यपादाचार्य महावीर निर्वाण भक्ति, श्लोक । 17) तात्पर्य :- बिहारप्रान्तीय पावापुर के उद्यान से भ. महावीर कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रातः स्वातिक्षत्र में अवशेष कर्मरज को नष्ट कर अक्षय अजर अमर मुक्ति पद को प्राप्त हुए। इतिहास के पृष्ठों में भगवान महावीर
भगवान महावीर से पूर्व मध्य एशिया के नगरों में जैनधर्म का प्रसार था । यूनान के इतिहास में अहिंसाधर्म का उल्लेख प्राप्त होता है । यूनान के दार्शनिक पैथेगोरस, भगवान महावीर के समकालीन थे। वे पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांत को मानते थे। इस विषय में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किया जाता है।
पूरी संभावना है कि भगवान महावीर के पहिले मध्य एशिया के स्पिया, अमन, समरकन्द, वलख आदि नगरों में जैन धर्म फैला था। ईशा पूर्व छठी शताब्दी में यूनान के इतिहासकार हेरोडोन्स ने अपने इतिहास में एक ऐसे भारतीय धर्म का उल्लेख किया है जिसमें मांस वर्जित था, जिस धर्म के अनुयायी शाकाहारी थे। 580 ईशा पूर्व उत्पन्न दार्शनिक पैथेगोरस जो भगवान महावीर एवं महात्मा बुद्ध के समकालीन थे। जीवात्मा के पुर्नजन्म व आवागमन तथा कर्मसिद्धांत में विश्वास करते थे। जीव हिंसा तथा मांसाहार के त्यागने का उपदेश देते थे। कुछ वनस्पतियों को दार्शनिक दृष्टि से अभक्ष्य मानते थे। इस सम्प्रदाय के विचारक आयोनियन या आरकिक कहलाते थे" उपरोक्त विचारों का सादृश्य जैन धर्म से मिलता है।
. (रतनलाल जैन, एडवोकेट, जैनधर्म पृ. 194-295) ईसा पूर्व छठी शदी में काशीनरेश शिशुनाम ने मगधराज्य पर अधिकार जमा लिया । इस वंश में सबसे पहिला प्रतापी राजा श्रेणिक बिन्दुसार था जो भ. महावीर का परमभक्त था। राजा श्रेणिक ने छोटे छोटे राज्य एवं अंगदेश को जीतकर और अपने राज्य में मिलाकर सम्राटपद को प्राप्त कर लिया था।
कलिंग देश में जैन धर्म प्राचीनकाल से रहा है। इस राज्य के इष्टदेव कलिंगजिन रहे हैं। ईशापूर्व छठी शदी में कलिंग देश का राजा जितशत्रु था जो तीर्थकर महावीर के पिता महाराज सिद्धार्थ के बहिनोई थे। ईशापूर्व 424 में मगध के राजा नन्दिवर्धन ने कलिंग देश पर आक्रमण करके वहां के इष्ट देवता कलिंग जिन (भगवान ऋषभ की प्रतिमा) को ले गये थे। भ. पार्श्वनाथ के समय से ही वैशाली के वज्जिसंघ. कौशल मगध-आदि देशों के राजवंशों में जैन धर्म की उपासना होती थी।
भ. महावीर ने उभय तपस्या के माध्यम से केवल ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके ई. पू. 527 से 557 ई. पू. 30 वर्ष तक भारत एवं आर्यखण्ड के विभिन्न प्रदेशों में विहार करके जैनधर्म का प्रसार किया । उत्तरी तथा मध्यभारत के अनेक राजा और प्रजागण भ. महावीर के भक्त बन गये।
उज्जयिनी में भ. महावीर के समय से मौर्य साम्राज्य के 164 ई. पू. पतन तक जैनधर्म की प्रभावना
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रही। 164 ई. पू. शुंगनरेशों का उज्जयिनी में अधिकार हुआ । परन्तु यहां के शासक सब धर्मो के प्रति सहिष्णु थे। कलिंग नरेश खारवेल ने मालवा पर अधिकार जमाकर अपना एक राजकुमार शासक नियुक्त कर दिया।
बंगदेश में जैनधर्म भ. महावीर के समय से विद्यमान था, अनेक जैन बस्तियां थीं। गुप्तकाल में एक विशाल जैन बिहार था। छठी शती में व्हेनसांग नामक चीनी यात्री ने अनेक जैन मंदिर तथा निर्ग्रन्थ मुनि बिहार करते देखे थे। वीरभूमि, वर्धमान, सिंहभूमि, मानभूमि आदि नगरों के नाम यत्र-तत्र बिखरी हुई जैन प्रतिमायें, ग्रामों एवं निवासित जैन सराक श्रावक जाति की उपस्थिति सूचित करती है कि जैन धर्म सम्पूर्ण देश में फैला हुआ था। भ. ऋषभदेव, महावीर तथा अन्य तीर्थकरों की कितनी ही प्रतिमायें भैरव आदि देवताओं के नाम से पूजी जा रही थीं। (रतनलाल एडवोकेट जैन धर्म प्र. देहली पृ. 198- 202) लगभग सन् 1209 ई. में रटूवंश के राजा लक्ष्मीदेव की रानी श्री चन्द्रिका देवी एक धर्मवत्सला महिलारत्न थी। एक समय उन्हें घटसर्प नामक असाध्य रोग ने आ घेरा । उस समय वेणुग्राम वर्तमान-वेलगांव में रामबाग के पास चंद्रिकादेवी का उपासना गृह बनाया गया। वहां निर्मापित भ. महावीर के मंदिर में उनकी प्रतिमा विराजमान की गई। चन्द्रिका देवी निरन्तर भ. महावीर की उपासना करके रोग मुक्त हो गई। इस अतिशय के कारण वेलगांव अतिशय क्षेत्र की तरह प्रसिद्ध हो गया। (अहिंसावाणी, तीर्थंकर महावीर विशेषांकः सन् 1956 पृ. 110 अलीगंज) प्राचीन शिलालेखों में एवं स्तंभ लेखों में भगवान महावीर -
भारत के विभिन्न प्रदेशों में जो शिलालेख तथा स्तंभलेख प्राचीन स्थानों से प्राप्त हुए हैं उनमें भ. महावीर के संक्षिप्त इतिवृत लिखित हैं, जिन लेखों से तीर्थ, महावीर की प्राचीनता एवं महत्ता सिद्ध होती है। इस विषय में कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं -
आडूर (धारवाड़) के कीर्तिवर्मा प्रथम (ई. 5 वीं शती)। के शिलालेख में भ. महावीर को लक्ष्य कर मंगलाचरण किया गया है - सन् 1023 ई. के मथुरा उ.प्र. वाले शिलालेख से स्पष्ट होता है कि आचार्य विजयसिंह के उपदेश से नवग्राम आदि स्थानों के श्रेष्ठ श्रावकों ने वर्धमान स्वामी की सर्वतोभद्र प्रतिमा का निर्माण कराया था।
___ सन् 1103 ई. में दानसाले के चालुक्य सामन्त महामंडलेश्वर सान्तर देवतैल, जो भ. पार्श्वनाथ के उग्रवंश के जन्मे थे, उनके शिलालेख में भ. महावीर के तीर्थ और गौतमगणधर आदि का उल्लेख है । (शिलालेख पृ. 369-370)
भीनवाल में सन् 1277 का एक स्तंभलेख जयकूपझील के उत्तरीय किनारे पर है, उसमें भ. महावीर के श्रीमालनगर में आने का उल्लेख इस प्रकार है "य: पुराना महास्थाने श्रीमाले सुसमागतः । सदैवः श्रीमहावीरः। भयत्राता प्रज्ञा यं शरणं गताः । तस्य वीरजिनेन्द्रस्य पूजार्थ शासनं नवं "इस लेख को कायस्थों के नैगमकुल के बहिकाराज्याध्यक्ष श्री सुमट आदि शासकों ने भ. महावीर की वार्षिक पूजा एवं रथयात्रा के प्रसंग में उत्कीर्ण कराया था।
दी गजेटियर आफ दी बम्बई प्रेसीडेन्सी भा. सं. (पू. 480) करनाटक प्रान्तीय श्रवणवेलगोल के सिद्धरवस्ती के स्तंभलेख शक सं.1320 में भ. महावीर का स्मरण दो श्लोकों में किया गया है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वीरो विशिष्टां विनवायरावीमिति त्रैलोकेरभिणर्य नतैय : (इत्यादि 2 श्लोक) पौराणिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
प्राचीन पुराण और इतिहास के विषय में एक मत हैं कि तीर्थंकर महावीर का जन्म विदेह के अन्तर्गत कुण्डग्राम में हुआ था, पौराणिक ग्रन्थों में भी तीर्थंकर महावीर का जन्म स्थान कुण्डग्राम कहा गया है। उस कुण्डपुर अथवा कुण्डग्राम की स्थिति स्पष्ट करने के लिये ही विदेह कुण्डपुर अथवा विदेहजनपद स्थित कुण्डपुर कहा गया है। इसी को कुण्डपुर, कुण्ड ग्राम अथवा कुण्डलपुर कहते है। भ. महावीर काश्यपगोत्रीय क्षत्रिय थे। अब भी उस प्रदेश में काश्यपगोत्री जथरिया क्षत्रिय विद्यमान हैं जो वस्तुत: ज्ञातृवंशी हैं और ज्ञात शब्द का ही अपभ्रंश जथरिया प्रसिद्ध हो गया।
विदेह जनपद विशाल होने के कारण इसको वैशाली भी कहने लगे हैं और इतिहास में प्रसिद्ध भी हो गया है। इसलिये यह निर्णय हो जाता है कि भ. महावीर का जन्म स्थान मध्य प्रान्तीय कुण्डपुर न होकर विहार प्रान्तीय वैशाली विदेह स्थित कुण्डपुर ही है। इस विषय में दिगंबर, श्वेताम्बर और बौद्ध सभी मानव का एक मत है। वैशाली का इतिहास -
वैदिक पुराणों के अनुसार वैशाली की स्थापना नृप और अलम्बुषा के पुत्र विशाल नामक राजा के द्वारा की गई, इसलिये इसका वैशाली नाम प्रसिद्ध हुआ। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार जनसंख्या बढ़ने से कई ग्रामों को सम्मिलित करके तीन बार में इसको विशालरुप दिया गया इसलिये इसका नाम वैशाली प्रसिद्ध हो गया। जैन साहित्य के अनुसार जनसंख्या बढ़ने से कई ग्रामों को सम्मिलित करके तीन बार में इसको विशाल रूप दिया गया, इसलिये इसका नाम वैशाली प्रसिद्ध हो गया । जैन साहित्य के अनुसार ब्राह्मण कुण्डपुर के ईशानकोण उत्तर-पूर्व में एक बहुशाल चैत्य था । इस नगर में ऋषभदत्त ब्राह्मण और उसकी पत्नी देवीनन्दा रहती थी, ये दोनों भ. महावीर के उपासक थे। एक बार भ. महावीर यहां पधारकर बहुशालचैत्य में अवस्थित हुए। उनके उपदेश से प्रभावित होकर विप्र दम्पत्ति ने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। इससे सिद्ध होता कि इस नगर के ईशानकोण में बहुशाल विशाल चैत्यालय शोभित हो रहा था । इसलिये इस क्षेत्र का नाम वैशाली प्रसिद्ध हो गया।
वैशाली में तीर्थंकर महावीर से कुछ शताब्दी पूर्व से ही गजसंघप्रणाली प्रचलित थी। संभवत: गणतंत्र गणसत्ताक राज्य की स्थापना ई. सन् के लगभग सातशती पूर्व गंगा के तट पर हुई थी। इससे हुए विदेश राज्य का अन्त, जनकवंशी निभिराजा के पुत्र कलारनृप के समय में हो चुका था। इसके बाद विदेह राज्य लिच्छवियों के गणसंघ में मिल गया । इतिहास के अनुसार जनकवंश के अंतिम राजा कलार को उसके ही दुराचार के कारण. प्रबुद्ध जनता ने सदा के लिये बहिष्कृत कर दिया।
तत्कालीन परिस्थिति को देखकर विदेह की जनता ने निर्णय लिया कि इस समय विदेह में राजतंत्र की स्थापना न होकर गणतंत्र की स्थापना होना जरूरी है। जिसमें जनता द्वारा शासन जनता के लिये होगा। इस निर्णय के अनुसार जनता ने विदेह में गणतंत्र राज्य की स्थापना की। उस समय वैशाली में लिच्छवि संघ का
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शासन चल रहा था । कुछ समय बाद दोनों गणसंघों के राजाओं ने बैठकर परस्पर सन्धि कर ली और विदेहगणराज्य विशाल वैशाली संघ में मिला दिया गया। इस संघ का नया नाम 'वज्जी संघ घोषित हुआ। इस विशाल गणसंघ की राजधानी वैशाली घोषित की गई। इस विशेषकारण से भी इस नगरी का नाम वैशाली रखा गया।
वर्तमान में यह स्थान बसाढ़ नाम ग्राम से पहचाना जाता है । इसके आसपास आज भी बसाढ़ के अतिरिक्त वणिज ग्राम, कमन, छपरागाही, वासकुंड और कोल्हा आबाद है। समय के परिवर्तन के साथ यद्यपि प्राचीन नामों में अधिकांश परिवर्तन अवश्य हो गया किन्तु इन नामों से प्राचीन नगरों की पहचान अवश्य की जा सकती हैं, जैसे वैशाली, वणिज्यग्राम, कौल्लाग, सन्निवेश, कर्मारग्राम और कुण्डपुर आदि।
बौद्ध साहित्य के अनुसार वैशाली में प्राचीनकाल में कुण्डलपुर और वणिज्यग्राम भी मिले हुए थे। दक्षिण पूर्व वैशाली, उत्तरपूर्व में कुण्डलपुर ,पश्चिम में वणिज्यग्राम था । कुण्डलपुर के आगे उत्तर पूर्व में कोल्लाग नामक एक सन्निवेश था, उसमें प्राय: ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय रहते थे। इसी कोल्लाग सन्निदेश के पास ज्ञातृवंशीय क्षत्रियों का द्युतिपालाश उद्यान और चैत्य था । इस विशाल गणराज्य की सीमाएं इस प्रकार थीं।
पूर्व में वन्यदेश, पश्चिम में कौशल देश और कुशीनारापावा जो मल्लों के गणराज्य थे। दक्षिण में गंगा और गंगा के उस पार मगध साम्राज्य था। उत्तर में हिमालय की तलहटी का वन्यप्रदेश बौद्धग्रन्थों के अनुसार इस गणराज्य का विस्तार 2300 वर्गमील में था। सातवीं शताब्दी में हावानसांग नाम का एक बौद्ध यात्री भारत आया था, उसने लिखा है कि इस गणराज्य का क्षेत्रफल पांच हजार मील 5925 क्षेत्र है। (भारत के दि. जैन तीर्थं द्वि. भा. प्रका. । कमेटी बंबई 52-54)
जैन साहित्य में वैशाली संघ के गणपति का नाम महाराजचेटक दिया गया है जो विशाल गणतंत्र अधिनायक थे। महाराजा चेटक और महारानी सुभद्रा के सात पुत्रियां कुल की गौरवशालिनी थी प्रियकारिणीत्रिशला, सुप्रभा प्रभावती, सिप्रादेवी, सुज्येष्ठा, ज्येष्ठा, चेलना, चन्दना चैटक की माता का नाम यशोमती और पिता का नाम केक प्रसिद्ध था।
इन सात पुत्रियों में चेटक की ज्येष्ठ पुत्री त्रिशला प्रियकारिणी का विवाह संस्कार, विदेह देश के कुण्डपुर में नाथवंश के शिरोमणि महाराजा सिद्धार्थ के साथ हुआ था। इन दोनों के आत्मज तीर्थंकर महावीर थे। महाराजा चेटक के दश पुत्र कुल के आभूषण हुए थे।
धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, सुदत्त, सिंहभद्र, सुकुंभोज अकम्पन, पतंगक, प्रभजन, प्रभात । उपसंहार -
विश्व की 24 तीर्थंकर परम्परा में तीर्थकर महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे जिनका पवित्र जन्म आज से 2592 वर्ष पूर्व विहार प्रान्तीय वैशाली के कुण्डपुर नगर में हुआ था। तीर्थंकर महावीर का अस्तित्व, इतिहास, पुरातत्त्व पुराण और प्रतिमाओं से सिद्ध होता है । इसी प्रकार उनके जन्म क्षेत्र की ख्याति भी इतिहास एवं पुराणों से ज्ञात होती है । वैशाली में गणतंत्र राज्य का उदय हुआ, इसके अधिपति महाराज चेटक नियुक्त हुए।
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तीर्थंकर महावीर का समाजवाद
विश्व में अवतरित चौबीस तीर्थंकरों की प्राचीनता, सत्ता और महत्ता, भारतीय इतिहास पुराण पुरातत्व वेद तथा तीर्थ क्षेत्र आदि प्रमाणों से सिद्ध होता है। सब ही तीर्थंकरों ने राष्ट्र में स्वस्थ समाजों की स्थापना कर उनका कल्याण एवं सुधार किया है, परन्तु श्री ऋषभदेव और श्री महावीर के समाज निर्माण में
ही विशेषता ज्ञात होती है। वह यह कि कर्म युग के प्रारंभ में मानव भोले अज्ञानी तथा सरल स्वभावी थे । उनकी समाज रचना में अनेक सामाजिक तत्त्वों का आविष्कार कर श्री ऋषभदेव ने महान् श्रम से उन तत्त्वों को समाज में ढाला और समाज का कल्याण किया ।
इसी प्रकार श्री महावीर ने भी सामाजिक तत्त्वों का प्रयोग कर बहुत परिश्रम से समाज का किया, कारण कि महावीर के समय मानव अज्ञानी एवं कुटिल स्वभावी थे और कुटिल स्वभावी को समझा कर सन्मार्ग पर लगाना एक महत्वपूर्ण कार्य है ।
तीर्थंकर महावीर ने समाज का निर्माण अहिंसावाद, स्याद्वाद अध्यात्मवाद और अपरिग्रहवाद इन धार्मिक सिद्धांतों के ही आधार पर किया था। उन्होंने व्यक्ति की उन्नति से ही समाज की उन्नति करना प्रारंभ किया, कारण कि उन्होंने समाज का मूलाधार व्यक्ति को माना था । अतएव उस वीर आत्मा ने मिथ्या प्रवृत्तियों को तिरस्कृत कर हित प्रद प्रवृत्तियों को जन्म दिया था। जिन प्रवृत्तियों या कर्तव्यों से पतित एवं समाज एक प्रबल प्रभावक नेता की ललकार को सुनकर उन्नतिशील सजग, ज्ञानशील और शक्तिशाली
बन गया था ।
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उन कर्तव्य की धाराओं को एवं मानवीय गुणों को अपने हृदय पट पर लिखने का कष्ट कीजिये ।
अन्धविश्वास को त्यागकर सत्य दृढ विश्वास धारण करना । आध्यात्मिक तथा लौकिक ज्ञान का विकास करना ।
पाँच अणुव्रत रूप पंचशील की साधना करना ।
मादक, अभक्ष्य तथा अनिष्ट वस्तुओं का त्याग करना ।
अच्छे विचार तथा निरोग शरीर को बनाने के लिए शुद्ध खाद्यान्न जलादि का सेवन करना और दुर्व्यसनों का परिहार ।
क्रूरता के निराकरण के लिए मांसाहार का त्याग |
परमात्मा तथा सच्चेगुरु के गुणों का स्मरण करना ।
विश्वमैत्री, परोपकार और सहयोग की रचनात्मक भावना ।
नैतिक एवं धार्मिक रीति से योग्य विवाह करना ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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10. न्यायपूर्ण पंचायतों की स्थापना करना ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 11. न्यायपूर्ण शासन की मान्यता, सहयोग और सुरक्षा । 12. सत्यता एवं नीतिपूर्वक व्यापार करना। 13. धार्मिक - राष्ट्रीय सामाजिक उन्नति में समानाधिकार । 14. धार्मिक साम्प्रदायिक सामाजिक द्वेष तथा द्रोह का अभाव । 15. व्यायाम आदि साधनों द्वारा शक्ति का विकास करना। आज भी स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए उक्त समाजवाद की अत्यावश्कता है।
यह सर्वविदित है कि भारतीय श्रमण परम्परा में जैन धर्म में चिंतन का विशेष महत्व है। ऋषभदेव के समय से लेकर आज तक यह चिंतन धारा अक्षुण्य रूप से प्रवाहित हो रही है। समय - समय पर अनेक मुनियों, आचार्यो एवं विद्वानों ने इस चिंतनधारा को समृद्ध बनाने के लिए प्रयास किए हैं जिन के परिणामस्वरूप जैन - चिंतन के विभिन्न पक्ष उभर कर सामने आये हैं। जैन तत्त्वमीमांसा, आचार शास्त्र, धर्म एवं ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में विभिन्न महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं और जैन चिंतन के इन पक्षों पर निरंतर कार्य हो रहा है। इस वैचारिक परम्परा का सामाजिक पक्ष अभी तक लगभग अछूता ही रहा है। अत: इस समाज का मुख्य लक्ष्य जैन चिंतन के सामाजिक पक्ष को सामने लाना है। हमें यह देखना है कि क्या इस सम्प्रदाय में व्यक्तिगत मोक्ष विद्या की ही विवेचना की गयी है अथवा किसी नवीन समाज - संरचना की भी कल्पना उपलब्ध है। किसी भी वैचारिक परम्परा द्वारा दिए गये आदर्शों को प्राप्त करने के लिए विशेष प्रकार के समाज की भी आवश्यकता होती है । जैन आदर्शों के अनुरूप जिस समाज की आवश्यकता है उसकी विवेचना करन भी हमारा उद्देश्य है । यह सम्भव है कि जैन आचार्यो की रचनाओं में सुसंबद्ध समाज - दर्शन उपलब्ध न हो, किन्तु इन रचनाओं में यत्र - तत्र बिखरे समाज - दर्शन के तत्त्वों को एकत्र कर के समाज संबंधी कतिपय सिद्धांतों की प्राप्ति हमारा मुख्य लक्ष्य है।
वर्तमान युग में समाज - दर्शन को अत्याधिक महत्व दिया जा रहा है। पश्चिमी देशों में इस विषय पर पर्याप्त चिंतन हो रहा है। कतिपय समकालीन भारतीय विचारक भी समाज संबंधी समस्याओं पर चिंतन करने में संलग्न रहे हैं। गाँधी, विनोबा, तिलक, अरविन्द, इत्यादि समकालीन भारतीय विचारकों ने सुसम्बद्ध समाज - दर्शन देने का प्रयास किया है। वे आधुनिक होते हुए भी परम्परा से जुड़े रहे । यही उनके चिंतन की विशेषता है। अत: जैन आचार्यों के समाज संबंधी चिंतन को इन आधुनिक विचारकों के परिप्रेक्ष्य में देखना हमारी इस रचना के लक्ष्य के अनुरूप होगा।
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तीर्थकर के जीवन का आदर्श
तीर्थकर भ. शांति, कुन्थु और अरह केवल धर्म के अवतार ही नही. राष्ट्रीयता के आदर्श भी थे । अतः जब हम उस पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यह विश्व प्राणियों का एक खजाना है जिसमें मानवरत्न भी हैं। ओर घोंघा वसंत भी हैं। देखा जाये तो स्थावर प्राणियों की अपेक्षा जंगमप्राणी श्रेष्ठ हैं, और जंगम प्राणियों में भी बाह्य तथा आंतरिक दृष्टि से मानव प्राणी श्रेष्ठ हैं इस श्रेष्ठता का कारण मानवता है। इस मानवता के कारण ही मानव - रत्न कहलाने के योग्य है । मानवता का विकास निम्न दो भावनाओं के बल पर होता है । 1. धार्मिक भावना और 2. राष्ट्रीय भावना । यद्यपि यहाँ पर भावना के उक्त दो भेद दर्शाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि व्यापक, सार्वभौमिक और उदार धार्मिकता के अन्तर्गत ही राष्ट्रीयता का पूर्णत: समावेश हो जाता है, तथापि मानव समाज के अनेक एकांतवादी व्यक्ति, धार्मिकता और राष्ट्रीयता में पारस्परिक विरोध समझ कर एकपक्ष
ही मान्यता प्रकट करने लगें और मानव समाज के एक अखण्ड मार्ग में पन्थ भेद न हो जावें अतएव मानवता के विकासार्थ उक्त भावनाद्वय का स्पष्ट कथन किया गया है। दूसरे शब्दों में मानवता के विकासार्थ मानव जीवन में धार्मिकता का और राष्ट्रीयता का समन्वय होना आवश्यक है। यदि मानव जीवन में दोनों सिद्धांतों का समन्वय हो तो वहां पर स्वतंत्रता, सदाचार, परोपकार स्वावलम्बन, व्यापार, शिक्षा, नागरिकता, संगठन आदि अमूल्य गुणों का समावेश हो सकता है और मानवता के विकास से जीवन शांतिपूर्ण तथा उन्नत हो सकता है। अन्यथा जीवन में उल्लिखित साधनों का अभाव होने से पुरुषार्थत्रय की सिद्धि पूर्वक मानव की मुक्तिसाधना सिद्ध नहीं हो सकती है जो कि मानव का अन्तिम उद्देश्य है। तीर्थकर भ. शांति. कुन्थु और अरह के जीवन में ये दोनों भावनायें मूर्तिमान हो चमकती है । इसलिए इन पर यहाँ गौर करना जरूरी है ।
यदि अन्धविश्वासी संकुचितमनोवृत्ति वाला कोई व्यक्ति अपने को महान् धर्मात्मा समझता हुआ राष्ट्रीयता को धर्मविरूद्ध जानकर नहीं अपनाता है तो उस व्यक्ति की धार्मिकता पूर्ण नहीं, स्थिर नहीं, सत्यनिष्ठ नहीं और वह व्यक्ति इस लोक में अपूर्ण धार्मिक जीवन को स्थिर तथा उन्नत करने में समर्थ नहीं है। ऐसे व्यक्ति आत्म साधना और आत्मबल से समाज, देश तथा विदेश में अपना व्यक्तित्व स्थापित नहीं कर सकते हैं।
इसी प्रकार एकान्त राष्ट्रीयता का पुजारी कोई व्यक्ति धार्मिकता का तिरस्कार करता है या उसको राष्ट्र हित में बाधक समझता है तो उसकी राष्ट्रीयता पूर्ण नहीं, स्थिर नहीं और व्यापक नहीं है। वह व्यक्ति देश को स्वतन्त्र, सुरक्षित, स्वस्थ, उन्नत और शिक्षित करने में समर्थ नहीं हो सकता अर्थात् उस व्यक्ति की अधूरी राष्ट्रीयता उसे सच्चा देश सेवक या देश का नेता नहीं बना सकती है।
वस्तुतः धर्म मित्र के द्वारा ही प्रत्येक प्राणी अपना कल्याण करने में सर्वथा स्वतंत्र है, अधिकारी है। राष्ट्रीय भावों में इतनी उदारता नहीं है, वहां तो सीमित क्षेत्र- द्रव्य- काल में ही रक्षण की भावना निहित है । आचार्य उमास्वाति ने मोक्ष शास्त्र में दर्शाया है : " मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थानि चसत्त्वगुणाधिक
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ क्लियमानाविनयेषु” अर्थात् - अखिल प्राणियों में मित्रता, गुणी व्यक्तियों में सहर्ष भक्ति, दीन दुखी प्राणियों में दयाभाव या सेवाभाव और अविनयी या विरोधी व्यक्तियों के प्रति माध्यस्थभाव ये चार भावनायें मानव
सदा चित्त में धारण करना चाहिए। आगे प्राणीहित के लिये सेवा मार्ग बताया है - "अनुगृहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानं" (मोक्ष शास्त्र अ. 7 सूत्र 38 ) अर्थात् प्राणियों की भलाई के लिये अपने धन आदि का समर्पण करना दान है । यह प्रत्येक मानव का कर्तव्य दर्शाया है।
इसी प्रकार अमितगति आचार्य ने कहा है :
सत्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् माध्यस्थभावं विपरीतवृतौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥1॥
आचार्य गुणभद्र का उपदेश है :
सुखितस्य दुःखितस्यच संसारे धर्म एव तव कार्य: । सुखितस्य तदभिवृद्धये, दुःखभुजस्तदपघाताय ।1।
( आत्मानुशासन श्लोक 18 ) अर्थात्-संसार में सुखी प्राणियों को सुख की वृद्धि के लिये और दुखी प्राणियों को दुख नाश के लिये सर्वदा अहिंसा धर्म का आचरण करना चहिये । अन्यच्च
धर्मो सेन्मनसि यावदलं स तावद्धन्ता न हन्तुरपि पश्य गतेऽथ तस्मिन । दृष्टा परस्परहति: जनकात्मजानां रक्षा ततोसस्य जगतः खलु धर्मएव 1 2 1 जब तक हृदय में धार्मिकता है तब तक मारने वाले पुरुष को भी मारने वाला कोई नहीं है। अर्थात् धर्मनिष्ठ व्यक्ति अपकार का बदला भी उपकार से देते है । परंतु धर्म के नाश होने पर पिता-पुत्र में भी कलह होता देखा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि विश्व के प्राणियों की रक्षा धर्मचक्र से ही हो सकती है। जिस चक्र तीर्थकर ने अपूर्व रीति से अवधारण किया था । धार्मिक भावों से जिसकी आत्मा पवित्र है ऐसे चाण्डाल चमार आदि को भी पूज्य कहा गया है। जैसे धूली लिप्त रत्न या अंगार अन्दर चमकपूर्ण रहता है । यहां मानवता के विकास की कितनी उच्च भावना है।
( सामायिक श्लोक 1)
उक्त उदाहरणों और प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि धार्मिकता महान् और व्यापक है । राष्ट्रीय भावना तथा राजनीतिका भी उसमें अन्तर्भाव हो जाता है। इसी लिए तीनों तीर्थकर के जीवन इस बात के प्रमाण है कि मानवता विकास राष्ट्रीयता को धर्मतत्त्व से ओत प्रोत करने पर ही हो सकता है।
इन तीनों एवं अन्य तीर्थकरों ने जो धर्मोपदेश दिया उसमें राष्ट्रीयता को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। जहाँ व्यापक धार्मिकता का महत्व प्रसिद्ध है, वहां उसके अन्तर्गत राष्ट्रीयता का महत्व एवं उपयोगिता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। धार्मिक कर्तव्यों में हृदय या आत्मा को पवित्र एवं बलिष्ठ बनाने के लिये एक कर्तव्य भगवत्पूजन है। पूजन के पश्चात् मंगलप्रार्थना करना आवश्यक माना गया है जिसका एक श्लोक निम्नलिखित है
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांतिं भगवान् जिनेन्द्रः" ॥
(शांतिपाठ) अर्थात् - जन्म मरण आदि 18 दोषों से रहित परमात्मा की पूजन के प्रभाव से विनयी भक्तों को, नेताओं को, संरक्षकों को, त्यागी महात्माओं को, शिक्षकों को देश, राष्ट्र, नगर और न्यायी शासकों को सर्वथा शांति लाभ हो, किसी प्रकार का उपद्रव या अराजकता न फैले । यहाँ कृत्यों के मध्य में राष्ट्रीयता की प्रार्थना की गई है। अपरंच
क्षेमं सर्व प्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल: काले काले च सम्यक वर्षतु मधवा व्योधयो यान्तु नाशम् दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां भास्म भूज्जीवलोके
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायी ।।। अर्थात- विश्व के अखिल मानवों का कल्याण हो, शासकवर्ग न्यायी, धर्मरत, शक्तिशाली हो, समय समय पर जलवृष्टि अनुकूल हो, जिससे राष्ट्रों में अन्न, जल शाकफल आदि की पूर्ति हो, किसी भी प्राणी को रोग न हो, यदि रोगी हो जावें तो वे स्वस्थ हों, अकाल-चोर डकैती- प्लेग-हैजा-मारी आदि रोग विश्व में कभी न फैले, सब प्राणियों को सुखप्रद तीर्थकर प्रणीत अहिंसा आदि धर्म का चक्र सदैव चलता रहे । किंच
"कुर्वन्तु जगत: शांतिं वृषभाद्या: जिनेश्वरा: " ऋषभनाथ आदि 24 तीर्थकर जगत में शांति या विश्व प्रेम स्थापित करें। जिससे किसी प्रकार का उपद्रव युद्ध गृहयुद्ध आदि न हो।
विधाय रक्षां परत: प्रजानां, राजा चिरं योऽ प्रतिमप्रताप: । व्यधात्पुरस्तात्स्वत एव शांति: मुनिर्दयामूर्तिरिवाध शांतिम् ।
(समन्तभद्राचार्य वहत्स्वयम्भूस्तोत्र-शान्तिनाथ स्तवन) अर्थात् - दया की साक्षात् मूर्ति, क्षत्रियराजपुत्र 16 वें तीर्थकर श्री शांतिनाथ ने पहिले राज्य सिंहासन पर आरुढ होकर चिरकाल तक सर्व प्रकार से प्रजा की रक्षा की और पश्चात् निज पौरुष से मोह-हिंसा आदि दुष्कर्मो को विनष्ट किया।
निसन्देह सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ, 17 वें कुन्थु नाथ 18 वें अरहनाथ इन तीन महात्माओं ने भी अपने अपने जीवन काल में धर्मतीर्थ, शासन प्रणाली और कला सौदर्य का विश्व में असाधारण प्रचार किया। इसी कारण उक्त तीन अवतार , तीर्थकर, चक्रवती तथा कामदेव इन तीन तीन पदवियों के धारी हुए। ये पदवियां ही उक्त अवतारों के इस आदर्श को व्यक्त करती हैं कि उन्होंने धर्म और राष्ट्रनीति का सुयोग्य समन्वय उपस्थित किया था। उनके जीवनकाल की यह महती विशेषता थी।
उक्त तीर्थकरत्रय द्वारा विश्वज्ञानलब्धि के पश्चात् अनेक राष्ट्रों और देश देशान्तरों में विहार कर धर्मतीर्थ और लोक सेवा का प्रचार किया गया। पुराणों में उनके विहार के क्षेत्रों का संक्षेप में उल्लेख किया गया।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ काश्यां काश्मीरदेशे कुरूसु च मगधे कौशले कामरुपे कच्छे काले कलिंगे जनपदमहिते जांगलान्ते कुरादौ । किष्किन्धे मल्लदेशे सुकृतिजनमनस्तोषदे धर्मवृष्टिं कुर्वन शास्ता जिनेन्द्रो विहरति नियतं तं यजैऽहं त्रिकालम्
(प्रतिषठासार संग्रह-इत्यादि) दत्वा किमिच्छुकं दानं समाऽभि: य: प्रर्वत्यते । कल्पवृक्षमहः सोऽपं जगदाशाप्रपूर्णाः।
(सागारधर्मामृत) इच्छानुसार प्रजा को दान देकर चक्रवती सम्राट द्वारा जो भगवत्पूजन की जाती है वह प्रजा के सर्व मनोरथों को पूर्ण करने वाली कल्पवृक्ष पूजन प्रसिद्ध है। धर्मग्रंथों के अर्चाप्रकरणों में कथित पांच प्रकार की पूजनों में यह चतुर्थ पूजन है। इसमें धार्मिक साधना के साथ राष्ट्रीय साधना का भी समावेश है।
धर्मग्रन्थों ने श्रीतिलक, म. गांधी आदि नेताओं को राष्ट्रीयता के प्रचार में निम्नलिखित कर्तव्य और सिद्धांत प्रदान किये हैं जिनके द्वारा राष्ट्रों का महान हित हुआ है स्वतंत्रता प्राप्त हुई है 1. अहिंसा, 2. सहनशीलता, 3. त्याग. 4. मांस त्याग, 5. मादक पदार्थ का त्याग, 6. स्वावलम्बन, 7. ब्रह्मचर्य, 8. शोषण- चोरी का त्याग, 9. विलासिता का त्याग, 10. निर्भयता, 11. विश्वप्रेम, 12. रेशमी, 13. मखबली वस्त्रों का त्याग, 14. अनशन, 15. कायक्लेश, 16. प्रतिज्ञा, 17. सत्याचरण, 18. सेवाधर्म, 19.साम्यवाद, 20. न्याय, 21. नैतिक शिक्षा, 22. अपरिग्रहवाद, 23. अनेकांतवाद ।
___ अत: यह सिद्ध है कि राष्ट्रीयता और आध्यात्मिकता का घनिष्ट सम्बन्ध है, विश्व हित के लिये उन दोनों के समन्वय की अविरोधरूपेण आवश्यकता है। अन्यदेशों में धार्मिकता और राष्ट्रीयता का उचित समन्वय नहीं है। वहां एकांत राष्ट्रीयता का ही प्रचार अधिक है , आध्यात्मिकता न होने से ही उन देशों में विश्व शांति नहीं है किन्तु असंतोष ही बढ़ रहा है। इसके कारण ही विश्वयुद्ध गृहयुद्ध, हाइड्रोजन बम, एटमबम आदि घातक प्रयोगों का जन्म होता है, ये प्रयोग विश्व रक्षण के लिये नहीं किंतु विश्व भक्षण के लिये होते हैं। अत: विश्वरक्षा या शांति के लिये उक्त दोनों के समन्वय की आवश्यकता है। प्राचीन भारत विश्व का नेता, स्वतंत्र, उन्नत, राष्ट्र था, समृद्धशाली था, जब उक्त दोनों सिद्धांतों का समन्वय भारत से लुप्त होता गया तो भारत परतन्त्र हुआ, पतन की सीमा पर आया । समय आने पर भारतीय नेता जागृत हुए, उन्होंने इस पातित भारत में उक्त दोनों सिद्धान्तों का समन्वय करना प्रारंभ किया। गांधीवाद का प्रचार किया गया। फिर भी वर्तमान में भारत में आध्यात्मिकता और राष्ट्रीयता का उचित समन्वय नहीं हो पाया है अतएव भारत अब तक पूर्ण स्वस्थ नहीं हो सका है। अत: इन तीर्थकरत्रय के आदर्श से उसे अपनी राष्ट्रीयता को अहिंसा धर्म में अनुरंजित करने का पाठ पढ़ना उचित है।
___मानव को दोनों के समन्वय में पुरुषार्थ करना आवश्यक है। इसी में उसका कल्याण है तीर्थकरों का जीवन पुकार पुकार कर यही कह रहा है। विश्व इसे सुने और अपना कल्याण करे।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
तीर्थंकर परम्परा से प्रवाहित प्राचीन जैन दर्शन में वैज्ञानिक तत्त्व
चौबीस तीर्थंकर शलाकापुरूषों से प्रवाहित जैन दर्शन में जिन तत्त्वों या सिद्धांतों की व्याख्या की गई है, वह व्याख्या विशिष्ट ज्ञान विज्ञान अर्थात् केवल ज्ञान के माध्यम से की गई है, वे सिद्धांत अतिप्राचीन हैं। उनका परीक्षण करने पर वे सिद्धांत (तत्त्व) आधुनिक भौतिक विज्ञान से प्राय: समंवय (संतुलन) रखते हैं । युक्ति, प्रमाण, अनुमान, प्रयोग और वैज्ञानिकों के आविष्कारों से उन तत्त्वों की सत्यता सिद्ध होती है । जैनदर्शन में 24 तीर्थंकरों का उद्भव विश्व कल्याण हेतु माना है,
तथाहि
आचाराणां विधातेन, कुदृष्टीनां च सम्पदा | धर्म ग्लानिपरिप्राप्त - मुच्छ्रयन्ते जिनेश्वराः || 206 ते तं प्राप्य पुनर्धर्मं, जीवाः वान्धव मुत्तमम् । प्रपद्यन्ते पुनर्मार्ग, सिद्ध स्थानाभिगामिनः ॥
(रविषेणाचार्य: पद्मपुराण: पर्व 5 पद्य 206-207)
तात्पर्य - - जब लोक में पंचपापों और 7 व्यसनों से अत्याचार बढ़ जाते हैं, मिथ्यादृष्टियों का प्रभाव हो जाता है, इनके प्रभाव से धर्म का ह्रास होकर अधर्म फैल जाता है, तब विश्व कल्याण के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है । वे पतित प्राणी उत्तम मित्र के समान धर्म को धारण कर मुक्ति मार्ग के पथिक होकर परमात्मपद को प्राप्त करने का पुरूषार्थ करते हैं ।
विज्ञान का समर्थन -
" जैन धर्म एक विज्ञान है जिसका प्रवर्तन एवं इस युग में इस पूर्ण विज्ञान का उद्भव श्री ऋषभनाथ तीर्थंकर से हुआ है। वैदिक ऋषियों ने भगवान ऋषभदेव को धर्म का प्रतीक माना है और उन्हें अपने प्रमुख देवता विष्णु के अवतारों में सम्मिलित किया है। वे ऋषभदेव के चिन्ह बैल (नादिया) को धर्म प्रतीक के रूप प्रयोग करते हैं । और भ. ऋषभदेव को धर्म का आद्यप्रवर्तक कहते हैं । "
(जय भगवान एडवोकेट : तीर्थकर ऋषभविशेषांक पृ. 13)
1.
" श्री ऋषभदेव अयोध्या के सम्राट नाभिराज एवं सम्राज्ञी मरूदेवी के पुत्र | कल्पसूत्रग्रन्थ के अनुसार उन्होंने अपने राज्यकाल में जनता की भलाई के लिए पुरूष की 72 कलायें बताई, जिनमें लिपिकला प्रथम, गणित कला द्वितीय विशेष महत्त्वशाली हैं, शकुनज्ञान अंतिम कला है । पश्चात् उन्होंने नारियों की 64 कलायें 100 उपकलायें और मनुष्यों को तीन प्रमुख व्यवसाय शिखाए'
(डॉ. एच. डी. सांकलिया : ऋषभदेव शीर्षक अंग्रेजी लेख का अनुवाद)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ __ डॉ. हर्मनयाकोबी ने इसी उल्लेख को इस प्रकार स्पष्ट किया है - "कुम्हार, लुहार, चित्रकार, जुलाहे और नाई की कलाओं को पाँच प्रकार से विभाजित किया, इनमें से प्रत्येक के बीस विभागों का आविष्कार किया गया। इनका पढ़ाना आवश्यक हुआ । व्यवसाय कृषि एवं व्यापार देश में सर्वत्र फैलने लगे"। लेख का अन्तिम चरण - महाराज नाभिराज और ऋषभदेव के स्वर्णातीत पर,जैन तथा ब्राह्मणों की परम्पराओं के अनुसार दृष्टिपात करने से यह कोरा कपोल कल्पित नहीं है - कि उनका उस समय में अस्तित्व था । जब मनुष्य अपने सांस्कृतिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में था तब उसका जीवन स्तर ऋषभदेव के द्वारा उन्नत किया गया था । संभवत: इसीलिए वे प्रथम तीर्थंकर और प्रथम उपदेष्टा या आदि ब्रह्मा कहे जाते हैं, उन्होंने मानव को सभ्य बनाया था । (अहिंसावाणी: ऋषभविशेषांक पृ. 14-15)
अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जापानी विद्वान प्रो. नाकामुरा ने बौद्ध त्रिपिटक साहित्य का मन्थन करके भ.ऋषभदेव विषयक साहित्य का अध्ययन कर अमूल्य लेख “वायस ऑफ अहिंसा '' में प्रकाशित कराया है । लेख का शीर्षक है "चीनी बौद्धसाहित्य में श्री ऋषभदेव" । उसी लेख का भावानुवाद कुछ उद्धरण के रूप में हिन्दी में प्रस्तुत है (टिप्पणी सम्राट ऋषभविशेषांक)।
बौद्ध धार्मिक ग्रन्थों के चीनी भाषा में रूपान्तरित संस्करणों में यत्र - तत्र जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव विषयक उल्लेख मिलते हैं। भ. ऋषभदेव के व्यक्तित्व से जापानी भी अपरिचित नहीं हैं । जापानियों को उनका परिचय चीनी साहित्य द्वारा प्राप्त हुआ है, जापानी उन्हें "रोक् शब (Rok Shaba)" नाम से पुकारते हैं।
चीनी में इस उद्धरण पर विवेचना करते हुए त्रिशास्त्र सम्प्रदाय के संस्थापक श्री चित्संग (549-633ई.) ने इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार किया है - "ऋषभ एक तपस्वी ऋषि हैं उनका उपदेश है कि हमारे शरीर को सुख और दुःख अनुभव करने होते हैं, हमारा दुःख जो पूर्व संचित कर्मो का फल है, वह कदाचित् इस जीवन में सच्ची तपस्या द्वारा समाप्त हो जाता है तो सुख तुरंत प्रकट होता है, उनके धर्मग्रन्थ “निर्ग्रन्थ सूत्र" नाम से प्रसिद्ध हैं। उनमें हजारों कारिकायें हैं "।
(तीर्थंकर ऋषभ विशेषांक : पृ. 16 17 ) एवं (प्रो. हाजिमे नाकामुरा टोकियो) "यह सत्य है कि भगवान् ऋषभदेव मानवता के पहले नियन्ता थे। वे, थे जिन्होंने भौतिक संसार में संस्कृति और सम्यता के बीजों को वोया था। वे, वे थे जिन्होंने समस्त कलाओं और विज्ञानों का विश्व को पाठ पढ़ाया था। संसार उनके प्रति चिर ऋणी है "।
(के.बी.फिरोदिया: पूर्व स्पीकर: विधान सभा बम्बई) मोहनजोदड़ो, हड़प्पा (सिन्ध प्रान्त), लोहानीपुर (पटना), कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त पुरातत्व ने इतिहासकारों को आश्चर्य में मग्न कर दिया है । मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक पद्मासन में स्थित योगी की मूर्ति और हड़प्पा से प्राप्त एक नग्न मूर्ति का धड़, ऋषभदेव की दिगम्बर मुद्रा के समान ज्ञात होता है, उसधड़ मूर्ति का साम्यलोहानीपुर (पटना) से प्राप्त मौर्यकालीन और सुंगकालीन मूर्तियों के धड़ से होता है। स्व. डा.
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ काशीप्रसाद जायसवाल और डा. ए. वनर्जी शास्त्री ने इन मुद्राओं को जिन मूर्ति से ही पहिचाना था मोहनजोदड़ो की मुद्राओं में किसी-किसी पर बैल की आकृति भी बनी है जो ऋषभदेव का चिन्ह है । इसीलिए प्रो. 1 रामप्रसाद जी चंद्रा ने इनको ऋषभमूर्ति का पूर्व रूप माना था । श्री डा. प्राण नाथ काशी हिन्दु विश्वविद्यालय पूर्व कुलपति विद्यालंकार ने एक मुद्रा पर "जिनेश्वर " शब्द को पढ़ा है, ऋषभदेव को जिनेश्वर शब्द से भी कहा गया है। एक मुद्रा शील क्र. 44 से ऐसा भी दृश्य प्रतिभासित होता है कि ऋषभदेव के पुत्र सम्राट भरत, भगवान् ऋषभदेव की विनय कर रहे हैं । भरत के नाम इस देश का नाम भारत प्रसिद्ध हुआ । ("आदि तीर्थंकर भ. ऋषभदेव : " लेखक - डा. कामता प्रसाद सं. जैन मिशन एटा (उ.प्र.), प्र. स. 1959 )
इस प्रकार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का अस्तित्व उक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है । ऋषभदेव से प्रवाहित यह तीर्थंकर परम्परा अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर तक समाप्त होती है। इस समय ती. महावीर धर्म तीर्थ चल रहा है । भगवान् महावीर का अस्तित्व भी इतिहास, पुरातत्त्व, तीर्थ, मंदिर मूर्तिलेख और संस्कृति से सिद्ध होता है ।
2. कतिपय प्रमाण
(1) श्री दि. जैन मंदिर पावापुर (विहार) में भ. महावीर का निर्वाणक्षेत्र, तालाब के मध्य निर्मित मंदिर में महावीर की प्राचीन मूर्ति एवं चरण चिन्ह हैं ।
(2) पुरातत्त्व संग्रहालय मथुरा उ.प्र. में कंकाली टीका मथुरा से प्राप्त, आयाग पट पर अन्य तीर्थंकरों के साथ भ. महावीर की प्रतिमा विद्यमान है। समय कुशाणकाल एवं गुप्तकाल ।
(3) प्राचीन क्षेत्र खजुराहो में महावीर की पाषाणमयी जिनमूर्ति
(4) "प्रिन्स अलवर्ट एण्ड विक्टोरिया संग्रहालय लन्दन" में उड़ीसा से प्राप्त ऋषभदेव और महावीर की प्राचीन मूर्तियों का पट्ट है ।
(5) वाडली से प्राप्त ईशापूर्व 374 का शिलालेख, जिसमें भ. महावीर का उल्लेख है, यह स्थान राजस्थान में है ।
( 6 ) भ. महावीर एवं अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियां (10वीं शती की) जो दाता के भूगर्भ से प्राप्त एवं मेरुमूर्तियां प्रतिष्ठापूर्वक मंदिर जी में विराजमान हैं।
(7) मु. कागली, ता. हरपनहल्ली, जि, वेलारी से प्राप्त भ. महावीर की धातु प्रतिमा जो मद्रास के संग्रहालय में सुरक्षित है। इस विषय में 25 प्रमाण प्राप्त हैं। इस प्रकार की ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर और अंतिम ती. महावीर का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर मध्य के 22 तीर्थंकर जैन दर्शन और विज्ञान से स्वयमेव सिद्ध हो जाते हैं एवं उनके सिद्धांत भी ॥
3.
(डा. कामता प्रसाद: अहिंसावाणी: तीर्थंकर महावीर विशेणांक) जैन दर्शन • शौरसेनी प्राकृत भाषा में महामंत्र ( मूलमंत्र ) णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ।
(आचार्य पुष्पदन्त: वनवास देश (कर्नाटक) वी.नि.सं. 633)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विज्ञानसम्मत - णमोकार मंत्र की सत्यसाधना से विश्व के मानवों के लिए परमात्मा बन जाने का द्वार खुल जाता है। इस महामंत्र को नमस्कार पूर्वक शुद्ध पढ़ने से 1600 रक्त के सफेद दाने बढ़ जाते हैं और मान माया आदि कषाय करने से रक्त के 1600 सफेद दाने घट जाते हैं, रक्त विकृत हो जाता है।
(म.प्र. वित्तमंत्री स्व. श्री शिवभानु सिंह सोलंकी : 1986) "रोगी तब तक स्वास्थ्य लाभ नहीं कर सकता जब तक वह अपने आराध्य में विश्वास नहीं करता। आस्तिक्यता ही समस्त रोगों को दूर करने वाली है। जब से रोगी को चारों ओर से निराशा घेर लती है, उस समय आराध्य देव के (मंत्र के) प्रति की गई प्रार्थना प्रकाश का कार्य करती है, प्रार्थना का फल अचिन्त्य होता है वह मंगल को देती है ।
(अमेरिकन डाक्टर होआर्ड रस्क का अभिमत) "आत्मशक्ति का विकास तभी होता है जब मनुष्य यह अनुभव करता है कि मानव शक्ति से परे भी कोई मंत्र वस्तु है, अत: श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना बहुत चमत्कार उत्पन्न करती है ।
(वैज्ञानिक जज हेरोल्डमेहिना अमेरिका) "सभी बीमारियां शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं से संबद्ध हैं, अत: जीवन में जब तक धार्मिक प्रवृत्ति (मंत्र आदि) का उदय नहीं होगा, रोगी का स्वस्थ होना कठिन है। प्रार्थना धार्मिक प्रवृत्ति (मंत्र शक्ति) पैदा करती है । आराध्य (मंत्र आदि) के प्रति की गई भक्ति में बहुत बड़ा आत्म संबल है। उच्च या पवित्र आत्माओं की आराधना (मंत्र बल) जादू का कार्य करती है"।
(वैज्ञानिक डाक्टर सलफ्रैंडहोरी अमेरिका) 4. जैन दर्शन में आध्यात्मिक रत्नत्रय का महत्वपूर्ण कथन -
"सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:"।
(उमास्वामी3 वि.द्वि. शती प्रथम चरणः तत्त्वार्थ सूत्र प्रथम । प्र. अ. सू)1 तात्पर्य - भव्य आत्मा में एक साथ प्राप्त यथार्थ दर्शन सत्यार्थ - ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये तीन आत्मिक रत्न मुक्ति के मार्ग हैं। विज्ञान से सिद्धि (1) "Right belief Right knowledge and Right conduct these tagether constitute the Path to Liberation"
(स्वतंत्रता के सूत्र - तत्त्वार्थ सूत्र, आ. कनकनन्दी) (2) दूरदृष्टि (श्रद्धा), पक्का इरादा (ज्ञान), कड़ा अनुशासन (सदाचरण) ये तीन कर्तव्य राष्ट्र का कल्याण करते हैं, एवं इन गुणों से मानव की आत्मा पवित्र होती है।
(स्व. इन्द्रिरागाँधी: पूर्व प्रधान मंत्रिणी: भारत)
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(3) दिल (श्रद्धा), दिमाक (ज्ञान) के स्वस्थ (सदाचरण युक्त) रहने पर ही आत्मा महान् शान्ति का अनुभव करता है.
(वैज्ञानिक सर अलवर्ड आइन्स्टीन जर्मन) (4) वह व्यक्ति नास्तिक है जो अपने आप में विश्वास नहीं करता । विश्वास पूर्वक ज्ञान सदाचार को नाता है।
(हिन्दुस्तान सन् 1963 जनवरी) (5) हैट (विश्वास), हार्ट (विज्ञान), हैण्ड (आचरण) इन तीन स्वस्थ साधनों से ही मानव जीवन के कार्य बहुत अच्छे होते है ।
(वैज्ञानिक टेनिसन)
(6) जिस प्रकार पिपर मेन्ट, अजवानफूल, कपूर ये तीनों युगपत् सम मात्रा में मिलकर अमृत धारा को जन्म देते हैं और वह रोगों से मुक्त करती है। उसी प्रकार सम्यक् रत्नत्रय युगपत् मिलकर अमृत धारा (मोक्ष मार्ग) को दर्शाते हैं । और वे कर्म रोग मुक्त करते हैं ।
(विज्ञान पूर्ण भौतिक प्रयोग) |
(7) "देखभाल कर चलो" - आचार्य प्रवर विद्यासागर | 5. जैन दर्शन में अहिंसा की व्याख्या -
यत्खलु कषाय योगात्,प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्यकरणं, सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥
(पुरूषार्थ. अमृत चंद्राचार्य, श्लो. 43 / वि.सं. 962)
सारसौन्दर्य - क्रोध, अभिमान, माया, लोभ आदि कषाय भावों से सहित मन वचन शरीर, कृत कारित अनुमति द्वारा अपने एवं दूसरे प्राणियों के ज्ञान आदि भाव प्राणों का तथा शरीर आदि द्रव्य प्राणों का विनाश करना हिंसा पाप है और इस पाप हिंसा का मन वचन काय, कृत कारित अनुमति से भाव पूर्वक त्याग करना अहिंसा की परिभाषा है।
वैज्ञानिक मान्य अहिंसा तत्व -
"मैं आप लोगों से विश्वास पूर्वक यह बात कहूँगा कि महावीर स्वामी का नाम इस समय यदि किसी भी सिद्धांत के लिए पूजा जाता हो तो वह अहिंसा है। मैंने अपनी शक्ति के अनुसार संसार के जुदे - जुदे धर्मो का अध्ययन किया है और जो जो सिद्धांत मुझे योग्य मालूम हुये हैं उनका आचरण भी मैं करता रहा हूँ । प्रत्येक धर्म की उच्चता इसी बात में है कि उस धर्म में अहिंसा का तत्त्व कितने परिमाण में है और इस तत्त्व को जिसने अधिक से अधिक विकसित किया है वे एक महावीर स्वामी ही थे " ।
(महात्मा गाँधी: जैन जगत्, 1 अप्रैल 1927 से उद्धृत )
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"अहिंसा, सभ्यता का सर्वोपरि और सर्वोत्कृष्ट दरजा है यह निर्विवाद सिद्ध है"।
(डा. एल. पी. टेसिटोरी इटली)
"यदि अहिंसा धर्म को देश मानता होता तो परस्पर द्वेषाग्नि न फैली होती और न विदेशी पुरूषों का यहाँ शासन ही जमता "। (अहिंसा पत्र पं. रामचरित उपाध्याय गाजीपुर)
"जैन ग्रन्थों में जिस अहिंसा धर्म की शिक्षा दी गई है उसे मैं यथार्थ में श्लाघनीय समझता हूँ "| (डा. जोहन्नेस हर्टल जर्मनी 17-6-1908 का पत्र )
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
"अहिंसा वीर पुरूषों का धर्म है कायरों का नहीं "।
(सरदार श्री बल्लभ भाई पटेल : अनेकान्त वर्ष 6 पृ. 39) "भगवान महावीर के सत्य और अहिंसा संबंधी उपदेश विश्व के वर्तमान संघर्षो और समस्याओं के समाधान की दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं । यदि हमें अपनी महान् परम्पराओं का निर्वाह करना है तो हमें अपने और विश्व के हित के लिए इन सिद्धांतों के प्रति आत्मविश्वास का पुनर्नवीकरण करना होगा "। (स्व. डा. एस. राधाकृष्णन पूर्वराष्ट्रपति भारत: दिव्यध्वनि देहली : वर्ष 1, अंक 6 ) “यदि हम भ. महावीर की कुछ शिक्षाओं को भी आंशिक रूप से अपने दैनिक जीवन व्यवहार में क्रियान्वित करने में सफल हो जाये तो यह एक बहुत बड़ा कार्य होगा "।
(दिव्यध्वनि देहली व. 1, अ. 6 पूर्व उपराष्ट्रपति डाक्टर जाकिर हुसैन) "अहिंसा का सिद्धांत आज भी उतना ही सत्य है जितना कि वह 2500 वर्ष पूर्व था । आज देश को अहिंसा और अपरिग्रह की ओर ले जाने की आवश्यकता है" ।
(इन्दिरा गाँधी प्र. मंत्री - मार्च 1970 देहली ) "मैं भ. महावीर को परम आस्तिक मानता हूँ । श्री भ महावीर ने केवल मानव जाति के लिए ही नहीं, परन्तु समस्त प्राणियों के विकास के लिए अहिंसा का प्रचार किया "।
(आचार्य श्री काका कालेलकर जी, ज्ञानोदय वर्ष 1 पृ. 66 ) "लोग कहते हैं कि अहिंसा देवी नि:शस्त्र है। मैं कहता हूँ यह गलत ख्याल है अहिंसा देवी के हाथ में अत्यंत शक्तिशाली शस्त्र है । वह अहिंसा रूप शस्त्र प्रेम के उत्पादक होते हैं संहार के नहीं " ।
(आचार्य श्री विनोवा भावे - ज्ञानोदय भाग 1 पृ. 564) "रिश्वत, बेईमानी, अत्याचार अवश्य नष्ट हो जावें, यदि हम भ. महावीर की सुन्दर और प्रभावशाली अहिंसा आदि शिक्षाओं का पालन करें "।
(स्व.लाल बहादुर शास्त्री : वर्धमान देहली अप्रैल 53, पृ. 59 ) “यदि आपको केवल विज्ञान का ज्ञान है तो आप अणुवम हाईड्रोजन बम तक जाकर रूक जावेंगे। आप
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विश्व को ध्वंसात्मक शक्तियों से रोक नहीं सकते। ऐसी स्थिति में विध्वंस से बचने के लिए विज्ञान तथा आध्यात्मिक अहिंसा दर्शन के मध्य एक पुल हमें बचा सकता है "।
(जवाहरलाल नेहरू : अहिंसा वाणी वर्ष 8, अंक 9 दिसम्बर 58) __ "मतभेदों को दूर करने के लिए हिंसात्मक युद्ध करना या खून बहाना मानवता के हित में नहीं है। आज देश - देश के बीच का अंतर समाप्त हो गया है और युद्ध रहित संसार में ही आज की सुरक्षा है।" (अमरीकी राष्ट्रपति आइजन हावर, अहिंसा वाणी दिसम्बर 1959, देहली में राज भोग के समय उद्गार)।
"यदि जनता सच्चे हृदय से अहिंसा का व्यवहार करने लग जाये तो संसार को अवश्य सुख शान्ति प्राप्त हो जाये"।
(सरहदी गाँधी अब्दुलगफ्वार खाँ - वर्धमान महावीर पृ. 94) 6. जैन दर्शन का स्यावाद (अनेकान्तवाद) एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। उसकी परिभाषा जैनाचार्यो द्वारा प्रणीत है - "अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वाद" (अकलंक आचार्य, लधीयस्त्रग्रन्थ/7 वीं शती वि. उत्त.) अथवा "अर्पितानर्पितसिद्धेः" (उमास्वामी: तत्त्वार्थ सूत्र: अ. 5 सूत्र 32)।
भावसौन्दर्भ - एक पदार्थ में स्वभावत: अविरोधी अनंत धर्मो की सत्ता का कथन अथवा परस्पर विरोधी दो धर्मो की अपेक्षाकृत सत्ता का कथन करना अनेकान्तवाद है तथा एक पदार्थ में परस्पर विरोधी दो धर्मो का अपेक्षाकृत अथवा मुख्यता -गौणता से कथन करना स्यावाद कहा जाता है। जैसे एक आत्मा में ज्ञान दर्शन सुख शान्ति, शक्ति, अगुरू लघु, अवगाहनत्व, सम्यक्त्व, सूक्ष्मत्व ये विशेष गुण तथा अस्तित्व, वस्तुत्व आदि सामान्य गुणों की सत्ता है । अथवा = एक द्रव्य द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा नित्य है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्य है । अथवा एक ही मनुष्य पुत्र की अपेक्षा पिता है एवं स्वपिता की अपेक्षा पुत्र है, अपने मामा की अपेक्षा भानजा है एवं अपने भानजा की अपेक्षा मामा है इत्यादि। वैज्ञानिकमत -
अमेरिका के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. डा. आर्चीब्रह्म पी. एच. डी ने अनेकान्त के महत्व को पत्रों में स्वीकृत किया हैं
(दा वायस आफ अहिंसा, अंक 1 पृ. 3) जर्मन के विज्ञान योगी सर अल्वर्ट आइन्स्टाइन ने अपने युग में सन् 1905 में सापेक्षवाद (TheTheroy of Relativeity) थिओरी आफ रिलेटिव्हिटी का आविष्कार कर, विविध समस्याओं के समाधान में और दैनिक जीवन व्यवहार में सापेक्षवाद का उपयोग किया। सापेक्षवाद ही स्यादवाद का पर्यायशब्द है । स्याद्वाद के विषय में आपके विचार, जो अंग्रेजी से हिन्दी में अनूदित है।
_"हम सभी मानव अल्प शब्द ज्ञान वाले हैं, इसलिए केवल सापेक्षवाद को ही जानने में समर्थ हो सकते हैं। वस्तुओं के निश्चय पूर्ण सत्य को तो केवल विश्व दृष्टा ही जानने में समर्थ है । स्पष्ट भाव यह है कि
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हम सब अल्प ज्ञानी मानव अपेक्षावाद (स्यादवाद) से ही वस्तु के एक देश को जान सकते हैं परन्तु विश्वदर्शी आत्मा प्रमाण ज्ञान के द्वारा लोक के सब पदार्थो को स्पष्ट जानने में समर्थ है "।
(1) (धर्मयुग 22 अप्रैल सन् 1956)
( 2 )
( अनेकान्त वर्ष 11, किरण 3 पृ. 243)
(1) पाश्चात्य दार्शनिक विद्वान “विलियम जेम्स" महोदय के प्राग्मेटिज्म (Pragmatism) के सिद्धांत की तुलना अनेक दृष्टियों से स्याद्वाद के साथ सिद्ध होती है।
(2) जर्मन देशीय तत्त्ववेत्ता हेगिल (Hegel) महोदय की मान्यता है कि विरूद्ध धर्मात्मक वस्तु का सिद्ध होना ही संसार का मूल है। किसी वस्तु के वास्तविक तत्त्व का वर्णन अवश्य करना चाहिए, परन्तु उसके साथ वस्तु के विरूद्ध दो धर्मो का वर्णन समंवय रूप से भी करना आवश्यक है । अन्यथा वस्तु पूर्ण व्यवहार नहीं हो सकता ।
(3) श्री वैज्ञानिक ब्रेडले महोदय की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु निज रूप में आवश्यक होते हुए भी, उससे इतर वस्तु की तुलना में तुच्छ भी है। यहाँ विवक्षा से वस्तु को मुख्य एवं गौण कहा गया है।
(अहिंसा दर्शन पृ. 302-303)
7.
जैन दर्शन में आत्मा (जीव ) की मान्यता -
भगवान महावीर स्वामी की आचार्य परम्परा ने विश्व के मूल छह द्रव्यों में प्रथम सात तत्त्वों में प्रथम और नव पदार्थो में प्रथम द्रव्य आत्मा स्वीकार किया है । जिसकी परिभाषा इस प्रकार है -
अस्ति पुरूषश्चिदात्मा, विवर्जित: स्पर्शगन्धरसवणैः । गुणपर्ययसमवेतः, समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः ॥ ( आचार्य अमृतचंद्र पुरूषार्थ पद्य 9 वि.सं. 962) सारांश - जो निश्चय दृष्टि से अखण्ड ज्ञानदर्शन स्वरूप है । व्यवहार दृष्टि से स्पर्श गन्ध, रस, वर्ण से रहित, गुण पर्याय से सहित और उत्पाद, व्यय, नित्यत्व संयुक्त अनंत शक्ति सम्पन्न सूक्ष्म तत्त्व आत्मा
है ।
वैज्ञानिक मान्यता - "शरीर के कन्धे परजीव बैठता है और दोनों के साथ से पुण्य तथा पाप होता है "। (महात्मा टालस्टाय, अहिंसावाणी, अगस्त 1956 )
श्री राल्फ बाल्डो इमर्सन की सूक्तियाँ आत्मा के विषय में - (1) आध्यात्मिक का सच्चा अर्थ ही वास्तविक है ।
(2) संसारी आत्मा बीरान परमात्मा है।
(3) अविश्वास धीमी आत्महत्या है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (4) मैने चमकीली आँखें देखी, सुन्दर स्वरूप यानी खूब सूरत शकलें देखी, लेकिन एक ऐसी आत्मा नहीं
मिली जो मेरी आत्मा से बोलती। (5) कीमती चीज दुनियाँ में एक है "सक्रिय आत्मा"। (6) आत्मविश्वास वीरता की जान है। (7) आत्मसम्मान पहला रूप है जिसमें महानता प्रकट होती है
(अहिंसावाणी, जनवरी 1060) "जो पूर्ण सद्गुण शील है उसे आंतरिक अशान्ति नहीं होती "।
(कन्फ्यूशियस वैज्ञानिक) "शान्तिपूर्ण आत्मा में एक शाही शान है"।
(वाशिंगटन इर्विग वैज्ञा.) "दुनियां की तमाम शानसौकत से बढ़कर है आत्मशान्ति, स्थिर और शान्त अन्तरात्मा"।
(वै.शेक्सपियर) "पहले स्वयं शान्त बनो, तभी औरों में शान्ति का संचार कर सकता है"।
(वैज्ञानिक थामस केम्पी) . "व्यक्ति की आत्मा में परमात्मा छुपा है"।
(महासाहित्कार जार्ज बर्नार्ड शां इंग्लैण्ड) धर्म आत्मा का प्राण है, धर्म बिना आत्मा निष्प्राण है 8. जैन दर्शन में आत्मा के भाव 3 होते है (1) अशुभ (2) शुभ (3) शुद्ध। विज्ञान - व्यक्ति के भाव 3 तरह के होते हैं (1) ईड (2)ईगो (3)सुपरईगो
(आधुनिक मनोवैज्ञानिक डाक्टर फ्रियूड) 9. जैन दर्शन में पृथ्वी कायिक जीव में 4 प्राण मान्य है। विज्ञान - एक वर्ग इंच जीवितभूमि में प्राय: 50 लाख कीटाणु अणुवीक्षणयंत्र से सिद्ध होते है।
(वज्ञौनिक साइकस) 10. जैद दर्शन में जल जीव में चार प्राण मान्य हैं स्पर्शन इन्द्रिय कायबल, आयु, श्वास ।
विज्ञान - जल की एक बूंद में 36450 कीटाणु सिद्ध होते हैं यंत्र से। अग्नि - वायु में अणुवीक्षणयंत्र से बहुत कीटाणु सिद्ध होते हैं ।
(वैज्ञानिक - केप्टन स्क्वोर्सवी - सिद्ध पदार्थ विज्ञान)।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 11. जैन दर्शन में वनस्पति मं 4 प्राण - स्पर्शन, कायबल, आयु, श्वास । विज्ञान - वनस्पति में प्राण, श्वास, सुख, दुख वेदन क्रेस्कोग्राफ यंत्र से सिद्ध होते हैं।
__(डा. बोस । डा. जगदीश चंद्र वसु) भारतीय वैज्ञानिक । जैन दर्शन में वनस्पति वर्णन वैज्ञानिक व्यावहारिक तथा प्राचीन है
(वैज्ञानिक डा. कोहल) 12. जैनदर्शन में तैजस शरीर स्थूल शरीर में माना गया है।
विज्ञान - मनुष्य के शरीर में विद्युत शक्ति का परिमाण 500 या 700 बोल्ट रहता है इसको इलेक्ट्रिकल बाडी कहते हैं।
(आफ्रिका के एक डाक्टर, इंजीनियर, साइंटिस्ट सीकदिसोल)
(जैन धर्म और दर्शन पृ. 82) 13. जैन दर्शन में लोक रचना अनादि, भूस्थिर चपटीगोल, सूर्य चंद्रगमन।।
विज्ञान - लोक रचना का आदि - अंत नहीं, पृथ्वी स्थिर, चपटी, गोल, सर्यचंद्र ग्रहण - गमन,ज्योतिष विद्या, गणित की प्राचीन मान्यता जैन दर्शन से सिद्ध, मानवीय श्रद्धा पर आश्रित ।
(डा. जिम्मर, डा. कोहल, डा. आइनस्टीन, डा. शूविंग) 14. जैन दर्शन में अजीव एवं बहु प्रदेशी 4 द्रव्य - धर्म अधर्म, आकाश, पुद्गल हैं
विज्ञान - Ether (ईथर) = धर्म द्रव्य । Nonether(नॉन ईथर) = अधर्मद्रव्य (एरियल)
Space (स्पेश) = आकाश । ime (टाईम) = काल । (वैज्ञानिक आइनस्टीन) 15. जैनदर्शन में शब्द पुद्गल (अजीव) द्रव्य का परिणमन है, आकाश का गुण नहीं।
विज्ञान - वैज्ञा. मारकोनी ने (इटली) रेडियो ; वै. ग्राहमवेल अमेरिका ने टेलीफोन द्वारा, वै. मोर्श अमे. नेटेली ग्राफ से, वै. वरबीनर अमे. ने ग्रामोफोन से, वै. वेअर्ड ने (इंग्लैण्ड) टेलीविजन से और वै. एडीसन अमे.ने सिनेमा के आविष्कार से शब्द को जड़ द्रव्य का परिणमन सिद्ध किया है। 16. जैन दर्शन में पुद्गल के भेद अणु और स्कन्ध की मान्यता प्राचीन कथित है।
विज्ञान - डा. जेकोबी वैज्ञानिक ने जड़ द्रव्य के परमाणु एवं स्कंध (पिण्ड) को जैन दर्शन में ऋषि
कणाद (न्यायदर्शन) से भी प्राचीन सिद्ध किया है ।। (जैनधर्म और दर्शन) 17. दार्शनिक जैनधर्म में - 'कालश्च' (तत्त्वार्थ सूत्र अ. 5, सूत्र 39 आचार्य उमास्वामी, वि.द्वि, शती
प्रथम चरण) सूत्र के प्रमाण से कालद्रव्य की मान्यता है।
विज्ञानसम्मत - फ्रान्स के वैज्ञानिक वर्गसन ने सिद्ध किया है कि “समस्त विश्व में कालद्रव्य की सत्ता के बल पर ही क्षण - क्षण में परिवर्तन हो रहा है। वस्तुएं देखते - देखते नवीन से पुरानी व जीर्ण शीर्ण हो रही है। काल एक Namic Reality(क्रियात्मक सत्ता) है। काल के प्रबल अस्तित्व को स्वीकार करना अनिवार्य है।"
(जैनधर्म पृ. 26)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 18. तैजस शरीर का द्वितीय वैज्ञानिक उद्धरण - __"विज्ञान ने सूक्ष्म शरीर को भी रूसी वैज्ञानिक सेमसोम किर्लियान तथा उनकी पत्नी श्रीमती वेलेन्टीना किर्लियान के द्वारा मानव, पशु यहाँ तक कि पेड़ पौधों के भी सूक्ष्म शरीर के चित्र खींचने के पश्चात् स्वीकार 'किया है यह आभा मण्डल के रूप में स्थूल शरीर के आस - पास विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा के रूप में विद्यमान होता है।"
(पुष्पांजलिग्रन्थ, पृ. 2/120, 'पुष्प' अभिनंदन ग्रन्थ)। 19. 24 तीर्थंकरों के अस्तित्व का द्वितीय वैज्ञानिक प्रमाण -
___ "अनेक प्रमाणों के आधार से सिद्ध हो जाता है कि ऋषभदेव आदि तीर्थंकर थे और आध्यात्मिक विज्ञान एवं भौतिक विज्ञान के महान् आविष्कारक थे। इनके बाद क्रमश: तेबीस तीर्थंकरों ने भी तदनुकूल धर्मतीर्थ का प्रणयन किया। जिनका जीवन चरित्र जैन पुराण ग्रन्थों में सविस्तार मिलता है, तीर्थों तथा शिला लेखों से सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त मथुरा के कंकाली टीला एवं अन्य स्थानों से प्राप्त ईस्वी सन से शताब्दियों पूर्व की निर्मित प्रतिमाओं से भी शेष तीर्थंकरों का ऐतिहासिक अस्तित्व प्रमाणित होता है"।
(जैनस्तूप एण्ड अवर एन्टीक्वीटीज ऑफ मथुरा : पृ. 24-25)
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महामंत्र णमोकार : एक तात्त्विक एवं वैज्ञानिक विवेचन
भारतीय संस्कृति और साहित्य में मंत्र शास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है, उसके अन्तर्गत जैन मंत्र शास्त्र का भी उल्लेखनीय अस्तित्व सुरक्षित है। जैन शास्त्रों में हजारों लाखों मंत्रों का उल्लेख और उनके यथास्थान प्रयोग दर्शाए गये है। शुद्ध मंत्रों की साधना से मानव जन्म-मरण, द्रव्यकर्म (ज्ञानावरण आदि), भावकर्म (राग, द्वेष, मोहादि), और शरीर आदि के अनन्त दुःखों को विनष्ट कर, अशुद्ध आत्मा से परमात्मा बन जाता है यह मंत्रों का परमार्थ सुफल है। इसके अतिरिक्त शुद्ध मंत्रों की साधना से विषनाश, रोगनाश, अतिशय सिद्धि, वशीकरण आदि लौकिक फल भी सिद्ध हो जाते है।
व्याकरण से मंत्र शब्द की सिद्धि
1. प्रथम सिद्धि - दिनादिगणी मन् (ज्ञान) धातु से ष्ट्रन (त्र - शेष) प्रत्यय का योग करने पर मंत्र शब्द सिद्ध होता है । इसकी व्युत्पत्ति- 'मन्यते - ज्ञायते आत्मादेशः अनेन इति मन्त्रः अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का निज अनुभव या स्वरूप जाना जाता है, उसे मंत्र कहते हैं ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
2. द्वितीय सिद्धि - तनादिगणी मन् (अवबोधे ) धातु से ष्ट्रन (त्र-शेष) प्रत्यय करने पर मंत्र शब्द सिद्ध होता है, इसकी व्युत्पत्ति - 'मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन स इति मंत्र' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मबल या रत्नत्रय पर विचार किया जाय वह मंत्र कहा जाता है।
3. तृतीय सिद्धि - सम्मानार्थक मन् धातु से ष्ट्रन (त्र-शेष) प्रत्यय करने पर मंत्र शब्द सिद्ध होता है । तदनुसार व्युत्पत्ति - 'मन्यन्ते - सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिताः आत्मान:, यक्षादिशासनदेवता वा अनेन इति मंत्र' अर्थात् जिसके द्वारा पंचपरमेष्ठी आत्माओं का अथवा यक्ष आदि शासन देवों का सम्मान किया जाय वह मंत्र कहा जाता है । इस प्रकार मंत्र शब्द और उसका सार्थक नाम सिद्ध होता है ।
व्याकरण सूत्र- "सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन" अर्थात् सर्वधातुओं से यथायोग्य धातु के अर्थ में ष्ट्रन (त्र-शेष) प्रत्यय होता है ।
मंत्र हजारों एवं लाखों की गणना में होते हैं उन सब में णमोकार मंत्र विशिष्ट एवं अद्वितीय स्थान प्राप्त करता है। उस परम पवित्र मंत्र का उल्लेख इस प्रकार है
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं || 1 ||
श्री 108 धरसेनाचार्य के मुख्य शिष्य, मंत्र शास्त्र वेत्ता श्री 108 पुष्पदन्त आचार्य ने शौरसेनी प्राकृत भाषा में इस महामंत्र की रचनाकर विश्व का उपकार किया है। इसमें 5 पद (चरण), 35 अक्षर और 58 मात्राएँ विद्यमान हैं। इस आर्याछन्द में पंच परमेष्ठी परम देवों को सामान्य पदों के प्रयोग से नमस्कार किया गया है जो अनन्त पूज्य आत्माओं का द्योतक है। यह महामंत्र अंकलेश्वर (गुजरात) में चातुर्मास व्यतीत करने के बाद
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पुष्पदन्त आचार्य ने वनवास देश (उत्तर कर्नाटक का प्राचीन नाम) में वी.नि. सं. 633 के आसपास प्रस्तुत किया । इस विषय में डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य ने कहा है
___ "वनवास देश उत्तर कर्नाटक का प्राचीन नाम है । यहाँ कदम्ब वंश के राजाओं की राजधानी थी । इस वनवास देश में ही आ. पुष्पदन्त ने जिनपालित को पढ़ाने के लिये 'वीसदि सूत्रों की रचना की। इनका समय वी.नि.सं. 633 के पश्चात् होना चाहिये । “यह षट्खण्डागम का प्रथम मंगलाचरण है। इस महामंत्र का संस्कृत में रूपान्तरण -
नमो अर्हदम्य:, नम: सिद्धेभ्य:, नम: आचार्येभ्य:, नम: उपाध्यायेभ्य:,नमो लोके सर्वसाधुभ्यः। महामंत्र का हिन्दी भाषा में रूपान्तरण -
लोक में तीन कालों के सर्व अरहन्तों को नमस्कार हो, लोक में तीन कालों के सर्वसिद्धों को नमस्कार हो, लोक में तीन कालों के सर्व आचार्यो को नमस्कार हो, लोक में तीन कालों के सर्व उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक में तीन कालों के सर्वसाधुओं को नमस्कार हो ।
यह महामंत्र अनेक विशेषणों से महत्वपूर्ण सिद्ध होता है, यथा1. अनादि निधन मंत्र -
यह मंत्र आदि तथा अन्त से रहित है, कारण कि उत्सर्पण - अवसर्पण रूप कालचक्र में पंचपरमेष्ठी देवों का सदैव अस्तित्व भूतकाल में था, वर्तमान में है, भविष्य में होता रहेगा। कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये यह महामंत्र भाव (अर्थ) की अपेक्षा अनादिनिधन है परन्तु शब्द रचना की अपेक्षा सादि सान्त है। पूजन के प्रारंभ में महामंत्र को कहने के पश्चात् पूजन पढ़ते हैं
ओं ही अनादिमूल मंत्रेभ्यो नमः । पुष्पांजलि क्षिपेत् । 2. मूल मंत्र - ___मूल का एक अर्थ मुख्य होता है अतः यह मंत्र सर्व मंत्रों में प्रधान है। मूल का द्वितीय अर्थ जड़ है, जैसे जड़ वृक्ष की उत्पत्ति , वृद्धि, स्थिति, फूलफलोदय में कारण है, उसी प्रकार यह मूल मंत्र भी हजारों मंत्रों की उत्पत्ति , वृद्धि और पुष्पित फलित होने में कारण है। पूजन से अतिरिक्त अन्य ग्रंथों में कहा गया है कि -
अनादिमूल मंत्रोऽयं, सर्वविघ्नविनाशनः ।' 3. महामंत्र णमोकार मंत्र -
इस णमोकार मंत्र को महामंत्र भी कहते हैं कारण कि यह मंत्र द्वादशांग श्रुतज्ञान का सार है, सर्व स्वर व्यंजनों का इसमें अन्तर्भाव है। इससे 84 लाख योनियों का विच्छेद होता है इसलिये इसको चौरासी लाख मंत्रों का राजा कहा जाता है। द्वितीय कारण यह है कि इस मंत्र की साधना से लौकिक तथा पारलौकिक ऋद्धिसिद्धि की प्राप्ति होती है अतएव इसको महामंत्र कहते हैं। व्रत, विधान, पूजन, प्रतिष्ठा पाठ और पंचकल्याणक विधानों के जितने मंत्र कहे गये हैं उन सर्व मंत्रों का अन्तर्भाव इस महामंत्र में हो जाता है। हिन्दी के एक कवि
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ने कहा है -
महामंत्र की जाप किये नर सब सुखपावें अतिशयोक्ति रंचक भी इसमें नहीं दिखावें । देखो शून्यविवेक सुभग ग्वाला भी आखिर
हुआ सुदर्शन कामदेव इसके प्रभाव कर ।। 4. णमोकार मंत्र नमस्कार मंत्र
इस महामंत्र को नमस्कार मंत्र भी कहा जाता है कारण कि इस मंत्र में अनन्त पूज्य आत्माओं को नमस्कार किया गया है, इसलिये इस मंत्र में लोक एवं सर्व पद रखा गया है। इसमें दूसरी विशेषता यह है कि इसमें सामान्य पद निष्ठ अरिहन्त, सिद्ध शुद्ध आत्माओं को ही प्रणाम किया गया है, विशेष नाम के कथन से सीमित आत्माओं को ही नमस्कार हो पाता, किन्तु सामान्य पद के ग्रहण से अनन्त आत्माओं को नमस्कार सिद्ध हो जाता है। पूज्य आत्माओं को प्रणाम करने से आत्मा में विशुद्धि बढ़ती है तथा कष्टों का क्षय होता है।
सन् 1986 में वर्णी भवन सागर म.प्र. में आयोजित सेमिनार में मध्यप्रदेश के तत्कालीन वित्तमंत्री स्व. श्री शिवभानुसिंह सोलंकी ने जो भाषण दिया था उसका सार इस प्रकार है"साम्प्रत विश्व में 300 धर्म प्रचलित हैं, तथा प्रसिद्ध 112 विश्व के प्रमुख राष्ट्रों में सिद्ध मंत्र 16 हैं उनमें एक णमोकार मंत्र भी महान प्रसिद्ध है। णमोकार मंत्र की वास्तविक साधना से विश्व के अन्य मानवों के लिये सिद्ध परमात्मा बन जाने का द्वार खुल जाता है । णमोकार मंत्र को नमस्कारपूर्वक शुद्ध पढ़ने से 1600 रक्त के सफेद दाने बढ़ जाते हैं और मान आदि कषाय बढ़ने से रक्त के 1500 सफेद दाने घट जाते हैं, यह सब णमोकार मंत्र का प्रभाव है।" अर्चनासंग्रह में कहा है -
'एसो पंच णमोकारो, सव्वपावप्पणासणो।" अर्थात् - यह पंचनमस्कार मंत्र सर्व पापों का नाश करने वाला है। णमोकार मंत्र की अन्य विशेषता -
“णमोकार मंत्र में उच्चरित ध्वनियों से आत्मा में धन और ऋणात्मक दोनों प्रकार की विद्युत शक्ति उत्पन्न होती हैं जिससे कर्म कलंक और लौकिक जीवन के सर्वकष्ट एवं पाप भस्म हो जाते है।" 5. सर्वप्रथम मंत्र (आद्य मंत्र) -
___ यह णमोकार मंत्र सब मंत्रों में प्रथम (आद्य) मंत्र है अतएव इसकी प्राचीनता एवं अलौकिकता सिद्ध हो जाती है। इसके उत्तरकाल में निर्मित हुए मंत्रों का मूल आधार यही आद्य मंत्र है। इसलिये यह मंत्र अन्य मंत्रों से अपराजित और सर्वविघ्नों का विनाशक है। श्री उमास्वामी आचार्य ने इसी आशय को व्यक्त किया है।
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अपराजित मंत्रोयं, सर्वविघ्न विनाशक: । मंगलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मंगलं मतः ॥
तात्पर्य - अपराजित, सर्वविघ्नविनाशक यह महामंत्र सब मंत्रों में प्रथम (आद्य) मंत्र आचार्यो द्वारा
मान्य किया गया है।
6. प्रथम मंगल मंत्र -
जो अक्षय आत्मिक सुख को प्रदान करे उसे मंगल कहते है । अथवा जो हिंसादि पापों को एवं ज्ञानावणादि कर्मों को विनष्ट करे उसे मंगल कहते हैं अथवा जो आत्मज्ञान या ध्यान के निकट प्राप्त करावे उसे मंगल कहते है । णमोकार मंत्र सर्वप्रथम मंगलमय है और मंगल को करने वाला है इसलिये सर्वप्रथम मंगलमय मंत्र है । उसी विषय को आचार्य उमास्वामी ने स्पष्ट किया है
'मंगलाणं च सव्वेसिं, पदमं हवई मंगलं "
अर्थात् - यह महामंत्र सर्व मंगल मंत्रों में प्रथम मंगलमंत्र है ।
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7. मंगल सूत्र -
चत्तारि मंगलं - अरहंता मंगलं, सिद्धामंगलं, साहूमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमाअरहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णतो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि
अरहंते सरणं पव्वज्जामि सिद्धेशरणं पब्बज्जामि, साहूसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि |
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
अर्थात् - अरिहन्त, सिद्ध, साधु एवं जैन धर्म ये चार देव, लोक में मंगल, उत्तम और शरणरूप हैं। इस मंगल सूत्र में संक्षिप्त रूप से साहू शब्द आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी का वाचक है, अत: यह मंगलमंत्र का मंगल सूत्र है। सूत्र संक्षिप्त अक्षरवाला होता है।
8. ग्रहारिष्ट निवारक मंत्र
यह महामंत्र दूषित नवग्रहों को शान्त करने वाला होता है। किस मंत्र के पद से किस ग्रह की शान्ति होती है इसका विवरण इस प्रकार है।
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ओं हृीं णमो अरिहंताणं
ओं हृीं णमो सिद्धाणं
ओं हृीं णमो आइरियाणं
ओं हृीं णमो उवज्झायाणं
बुध ग्रह का निराकरण ।
ओं ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं
शनि, राहु, केतु ग्रहों की शान्ति ।
अतिशय पुण्यात्मा चौबीस तीर्थकरों के भक्तिपूर्वक अर्चन से भी नवग्रहों की शान्ति होती है। किस तीर्थकर के अर्चन से किस दूषितग्रह की शान्ति होती है। इसका क्रमशः विवरण इस प्रकार हैं
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सूर्य, मंगल ग्रहों की शान्ति ।
चन्द्र, शुक्र ग्रहों का निवारण ।
गुरु ग्रह दोष की शान्ति ।
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8.
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 1. ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ,
गुरुग्रहशान्ति ___ सुमतिनाथ, सुपार्श्वनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ पद्मप्रभ
सूर्यग्रहशान्ति। चन्द्रप्रभ
चन्द्रग्रह शान्ति। विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ,
बुधग्रहशान्ति कुन्थुनाथ, अरनाथ, नमिनाथ, वर्धमान वासुपूज्य
मंगलग्रह शान्ति पुष्दन्त
शुक्रग्रह शान्ति 7. मुनिसुव्रतनाथ
शनिग्रह शान्ति नेमिनाथ,
- राहुग्रह शान्ति 9. मल्लिनाथ, पार्श्वनाथ
- केतुग्रह शान्ति भद्रबाहु चरूवाचैवं, पंचम: श्रुतके वली ।
विद्या प्रवादत: पूर्वात्, ग्रहशान्ति रूदीरिता ॥ 8 ॥" अर्थात् - पंचम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु आचार्य ने कहा है कि विद्याप्रवाद पूर्व से यह नवग्रह शान्ति विधान कहा गया है। महामंत्र में ध्वनि विज्ञान -
इस महामंत्र में स्वर व्यंजन तथा तदनुसार कुछ ध्वनियाँ भी विद्यमान हैं। ध्वनि विज्ञान के आधार पर । वर्ग का आद्य अक्षर अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है । इसलिये समस्त मंत्रों की मूलभूत मातृकाएँ ध्वनि रूप में इस महामंत्र के अन्तर्गत इस प्रकार विद्यमान हैं
__ अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अ: । क् ख ग घ इ. च छ ज झ ञ, द ड् द ण, त् थ् द्ध न, प फ ब भ म य र ल व श ष स ह । इन ध्वनि रूप मातृकाओं के विषय में आचार्य जयसेन ने प्रतिपादन किया है
अकारादि क्षकारान्ता वर्णा: प्रोक्तास्तु मातृका: ।
सृष्टिन्यास स्थितिन्यास - संहतिन्यासतस्त्रिद्या ।।" सारांश - अकार से लेकर क्षकार (क् + ए = क्ष् + अ) पर्यन्त मातृका वर्ण कहे जाते है। इनका क्रम तीन प्रकार का होता है 1. सृष्टि क्रम, 2. स्थिति क्रम, 3. संहार क्रम । णमोकार मंत्र में मातृका ध्वनियों का तीनों प्रकार का क्रम सन्निविष्ट है। इसी कारण यह महामंत्र आत्मकल्याण के साथ लौकिक अभ्युदयों को भी देने वाला है। संहारक्रम ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मो के विनाश को अभिव्यक्त करता है । सृष्टि क्रम और स्थित क्रम आत्मानुभूति के साथ लौकिक अम्युदयों की प्राप्ति में सहायक होता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ बीजाक्षरों की निष्पत्ति भी इसी महामंत्र से होती है, इसी कारण इस मूल मंत्र से हजारों मंत्रों का जन्म होता है। इसके विषय में आ. जयसेन का मत
____ हलो बीजानि चोक्तानि, स्वराः शक्तय ईरिता: । ___ सारांश - ककार से लेकर हकार पर्यन्त व्यंजनवर्ण वीन संज्ञक कहे जाते हैं। और अकारादि स्वर शक्तिरूप कहे जाते है। मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। इसलिए इस महामंत्र में सम्पूर्ण ध्वनियों की शक्तियाँ ध्वनित होती हैं। इसमें श्रुतज्ञान के समस्त अक्षरों का समावेश हो जाता है अत: यह महामंत्र द्वादशांग श्रुतज्ञान का सार है । इसमें अहिंसा , अनेकान्त, अपरिग्रहवाद, अध्यात्मवाद, तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य, प्रमाण, नय, मुक्ति और मुक्तिमार्ग आदि संपूर्ण लोक कल्याणकारी सिद्धांत ध्वनित होते हैं। महामंत्र का संक्षिप्तरूप और उसकी सिद्धि -
यदि कोई संक्षिप्त रूचि वाला व्यक्ति महामंत्र को एक अक्षर में कहने की इच्छा व्यक्त करता है तो आचार्यो ने महामंत्र का लघुरूप शास्त्रों में दर्शाया है । 35 अक्षरों वाले मंत्र को एकाक्षर मंत्र बनाने का
रोते हैं।
चमत्कार -
अरहंता असरीरा, आइरिया तह उवज्झया मुणिणो ।
पढमक्खरणिप्पण्णो, ओंकारों पंच परमेष्ठी ।।" भावसौन्दर्य - 'नामैकदेशेन नाम मात्र ग्रहणम्' अर्थात् नाम के एक देश से भी संपूर्ण नाम का ग्रहण या व्यवहार होता है इस नीति के अनुसार अरहन्त का अ, अशरीर (सिद्ध) का अ, इस प्रकार अ + अ = आ, 'अकः सवर्णे दीर्घ: इस सूत्र से एक दीर्घ आ हो गया । आचार्य का आ + आ(पूर्वका) वहाँ पर भी पूर्व सत्र से आ + आ = आ हो गया। पश्चात उपाध्याय का 'उ' आटगण इस सत्र से आ +उ: ओ आदेठा गया । मुनि (साधु) का प्रथम अक्षर म्। यहाँ पर मंत्र शास्त्र के अनुसार म् को अनुस्वार होने पर ‘ओं' यह एकाक्षर मंत्र सिद्ध होता है। इसी ओं को औंकार कहते हैं। शास्त्र प्रवचन के आदि में मंगलाचरण इस तरह प्रसिद्ध है -
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।
कामदं मोक्षदं चैव, ओंकाराय नमो नम: ॥1॥ विज्ञान के आलोक में महामंत्र का महत्व -
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित आत्मिक विज्ञान बहुत सूक्ष्म एवं व्यापक है। उसकी तुलना आधुनिक भौतिक विज्ञान नहीं कर सकता । भौतिक विज्ञान जिस सीमा पर समाप्त होता है उस सीमा से आत्मिक विज्ञान प्रारंभ होता है । तथापि अनेक दृष्टियों से आध्यात्मिक विज्ञान और भौतिक विज्ञान, अधिकांश तत्वों में साम्य रखता है। नीचे कुछ वैज्ञानिकों के उद्धरण दिये जाते हैं जिनसे महामंत्र का महत्व प्रतीत होता है
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आधुनिक वैज्ञानिकों ने इस प्रकार के ट्रांसलेटर यंत्रों का आविष्कार किया है जिससे वक्ता के एक भाषा का अनेक भाषाओं में एक साथ अनुवाद होता जाता है। लोकसभा के अधिवेशन में इसका प्रयोग होता है। इसी प्रकार भगवान महावीर की विशाल सभा (समवशरण) में उनकी ओंकार ध्वनि (दिव्य देशना) का एक साथ अनेक भाषाओं में अनुवाद होता जाता है अर्थात् सभी भाषा - भाषी मानव अपनी - अपनी भाषा में समझते जाते हैं। एक अतिशय यह भी है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय पशु - पक्षी भी उस देशना को अपनी - अपनी भाषा में समझ लेते हैं, अन्यथा उनको आनन्दानुभव नहीं होता।
जिनकी ध्वनि है ओंकार रूप, निरक्षरमयमहिमा अनूप वैज्ञानिक दृष्टि से णमोकार मंत्र का मन पर प्रभाव पड़ता है, एवं आत्मशक्ति का विकास होता है उससे पवित्रता आती है, इसी कारण यह मंत्र सर्वकार्यो में सिद्धिदायक माना गया है । इस विषय का उद्धरण भी मिलता है जैसे -"मानव मस्तिष्क में ज्ञानवाही और क्रियावाही ये दो प्रकार की नाड़ियां होती हैं । ज्ञानवाही नाड़ियाँ और मस्तिष्क के ज्ञान, केन्द्र, मानव के ज्ञान विकास में एवं क्रियावाही नाड़ियां
और मस्तिष्क के क्रिया केन्द्र, चारित्र के विकास की वृद्धि के लिये कार्य करते हैं । क्रिया केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र का घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण णमोकार मंत्र की आराधना, स्मरण और चिंतन से , ज्ञान केन्द्र और क्रिया केन्द्रों का समन्वय होने से मानवमन सुदृढ़ होता है और आत्मिक विकास की प्रेरणा मिलती है।
वैज्ञानिकों ने यह भी सिद्ध किया है कि शब्दों की तरंगे (ध्वनियां) मानवों एवं पशुओ के मन में टकराती हैं अतएव उनका मानस पटल प्रभावित होता है । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी जैनाचार्यो ने आधुनिक विज्ञान से हजारों वर्ष पूर्व यह सिद्ध कर दिया है कि महामंत्र की बीज एवं शक्ति के संयोग से उत्पन्न तरंगे (ध्वनियां) पशुओं एवं मानवों के मानस पटल में टकराती हैं, अतएव इनसे मानवों एवं पशुओं का भी हित होता है।
आधुनिक वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकृत करते हैं कि बिना आत्मबल या श्रद्धा के किसी लौकिक कार्य में भी सफलता प्राप्त करना संभव नहीं है । इस विषय में अमेरिकन डाक्टर होआर्ड रस्क ने अभिमत व्यक्त किया है -
"रोगी तब तक स्वास्थ्य लाभ नहीं कर सकता, जब तक वह अपने आराध्य में विश्वास नहीं करता है, आस्तिकता ही समस्त रोगों को दूर करने वाली है । जब रोगी को चारों ओर से निराशा घेर लेती है। उस समय आराध्य के प्रति की गई प्रार्थना प्रकाश का कार्य करती है. प्रार्थना का फल अचिन्त्य होता है । वह मंगल को देती है।"
अमेरिका के द्वितीय वैज्ञानिक जज हेरोल्ड मेहिना का अभिमत है "आत्म शक्ति का विकास तभी होता है जब मनुष्य यह अनुभव करता है कि मानव शक्ति से परे भी कोई वस्तु है अत: श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना बहुत चमत्कार उत्पन्न करती है।" अमेरिका के तृतीय वैज्ञानिक डॉ. एल.फ्रेंड होरी का अभिमत है - "सभी बीमारियाँ शारीरिक,
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं से सम्बद्ध हैं अत: जीवन में जब तक धार्मिक प्रवृत्ति का उदय नहीं होगा, रोगी का स्वास्थ्य लाभ करना कठिन है । प्रार्थना धार्मिक प्रवृत्ति पैदा करती है। आराध्य के प्रति की गई भक्ति में बहुत बड़ा आत्म संबल है। उच्च या पवित्र आत्माओं की आराधना जादू का कार्य करती है । ''
उक्त उद्धहरण में भी महामंत्र की आराधना के प्रति संकेत किया गया है कि महामंत्र की पवित्र आत्माओं की प्रार्थना आत्मसंबल को बढ़ाती है।
जैन दर्शन में महामंत्र के महत्व को अभिव्यक्त करने वाली आचार्यकृत अनेक रचनाएं विद्यमान है यथा णमोकार मंत्र माहात्म्य, नमस्कारकल्प, नमस्कार माहात्म्य, णमोकार मंत्र की महिमा आदि । आचार्य उमास्वामी द्वारा णमोकार मंत्र के विषय में कथित माहात्म्य, इस प्रकार है -
___ यह महामंत्र संसार में सार है, त्रिलोक में अनुपम है, हिंसा आदि सर्व पापों का नाशक है, जन्ममरण आदि रूप संसार का उच्छेदक है, सर्प आदि जीवों के तीक्ष्ण विष का नाशक है, द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म का समूह नाशक है, लौकिक एवं अलौकिक कार्यो की सिद्धि का प्रदायक है, मुक्ति सुख का जनक है, इसका ध्यान करने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, पुष्पदंत आचार्य द्वारा प्रणीत इस महामंत्र को प्रति समय जपते रहो । इसका शुद्ध ध्यान करने से जन्ममरण आदि 18 दोषों से मुक्ति होती है।
यह महामंत्र देवेन्द्रों की विभूति का प्रदायक है, मुक्ति लक्ष्मी को सिद्ध कराने वाला, चतुर्गति के कष्टों का उच्छेदक, समस्त पापों का विनाशक, दुर्गति का निरोधक, मोह माया का स्तंभक, विषयाशक्ति का प्रक्षीणक, आत्मश्रद्धा का जाग्रतिकारक और यह महामंत्र प्राणि सुरक्षाकारक है। महामंत्र से स्वजीवन का उद्धार करने वाले व्यक्ति - 1. प्राचीन भारत के महापुरनगर में मेरूदत्त श्रेष्ठी के पुत्र पद्मरूचि नामक युवक ने, एक मरणासन्न बैल
को कर्ण में महामंत्र सुनाया, बैल शरीर त्याग कर उसी नगर के नृप का वृषभ ध्वज नाम का पुत्र उत्पन्न
हुआ। पद्मरूचि और वृषभ ध्वज दोनों मित्र, धर्म की साधना से द्विस्वर्ग में देव हुए। 2. बिहार प्रान्तीय राजगृह नगर के नृप सत्यन्धर के सुपुत्र विद्वान जीवन्धरकुमार ने एक नदी के तट पर,
मरणासन्त कुत्ते के कान में, दयाभाव से महामंत्र सुनाया। मंत्र के प्रभाव से कुत्ता अगले भव में यक्षेन्द्र
हुआ। यक्षेन्द्र ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए जीवन्धर के लिये तीन मंत्र प्रदान किये।" 3. वाराणसी नगरी में एक सन्यासी डूड़ जलाकर तप कर रहा था। भ्रमण करते हुए तीर्थकर पार्श्वनाथ ने
अवधि ज्ञान से वहां जान लिया कि इस लक्कड़ में नाग - नागिनी का एक जोड़ा है। लक्कड़ चीर कर उन्होंने जलते हुए सर्पयुगल को णमोकार मंत्र सुनाया। मंत्र के प्रभाव से सर्प धरणेन्द्र देव और नागिन
उसकी पद्मावती देवी हुई। दोनों ने मुनिराज पार्श्वनाथ का उपसर्ग दूर किया । " 4. महामंत्र के उच्चारण से सुभग ग्वाले का उद्धार -
चम्पापुरी निवासी सुभग ग्वाले को निकटभव्य जानकर एक मुनिराज ने णमोकार मंत्र का उपदेश दिया। एक समय गायों की रक्षार्थ प्रवाहपूर्ण गंगा में वह कून्द पड़ा । महामंत्र का उच्चारण करते हुए उसका
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मरण हो गया । वह ग्वाला अपने ही मालिक सेठ वृषभदास के यहां सुदर्शनकुमार नाम का पुत्र हुआ। कामदेव सुदर्शनकुमार तपस्या करते हुए पाटलिपुत्र (पटनानगर) से मुक्ति को प्राप्त हुए।" 5. महामंत्र के ध्यान से राजकुमार वारिषेण का चमत्कार -
मगधदेश के सम्राट श्रेणिक का पुत्र वारिषेण चतुर्दशी की रात्रि में श्मशान में महामंत्र का जाप कर रहा था। असत्य चोरी के आरोप में राजा के आदेश से सैनिक द्वारा तलवार का प्रहार गले में किया गया । महामंत्र के प्रभाव से खड्ग फूलों की माला बन गई। वारिषेण मुनिदीक्षा लेकर तफ करने लगे। 2 6. महामंत्र को सिद्ध करने का चमत्कार -
मगधदेशीय राजगृहनगर में श्रेष्ठि जिनदत्त, कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में श्मशान प्रांगण में मूलमंत्र के ध्यान में मग्न थे। स्वर्ग से आये विद्युत्प्रभ देव ने उनकी अटल परीक्षा के पश्चात् प्रसन्न होकर जिनदत्त, के लिये आकाशगामिनी विद्या प्रदान की। वह प्रतिदिन मेरूपर्वत की वंदना करने लगे। 7. महामंत्र को सिद्ध करने का चमत्कार -
राजगृहनगर के अंजनकुमार ने जिनदत्तश्रेष्ठि के सदुपदेश से शुद्ध भावों से महामंत्र को विधिपूर्वक सिद्ध किया । सिद्ध हुई उस आकाशगामिनी विद्या ने उसको मेरुपर्वत के अकृत्रिम चैत्यालय में भेज दिया । वहां मुनिराज के उपदेश से अंजन ने मुनि दीक्षा ग्रहण की। वहां से कैलाशपर्वत पर जाकर तप करते हुए सातवें दिन उन्होंने कैलाश से मुक्ति को प्राप्त किया। 4 8. महामंत्र की साधना से महासतियों के अतिशय -
अयोध्या में अपने सतीत्व को निर्दोष सिद्ध करने के लिये सती सीता ने महामंत्र के प्रभाव से , प्रचण्ड अग्नि कुण्ड में व्यक्त हुए जल के मध्य सुवर्णमय सिंहासन प्राप्त किया । अनन्तर आर्यिका दीक्षा ग्रहण की।
और तप करते हुए 16 वें स्वर्ग में देवपद प्राप्त किया। 9. काशीराज की सुपुत्री सुलोचना सती ने महामंत्र के प्रभाव से ग्राहग्रसित गंगा में डूबते हुए हाथी को सुरक्षित कर दिया था। हाथी पर बैठी हुई सुलोचना ने आनन्द से गंगा को पार किया।" 10. नारायणदत्ता नामक सन्यासिनी के बहकावे में आकर मालव नरेश चण्डप्रद्योत ने , रौरवपुर नरेश उदायन की पत्नी प्रभावती पर मोहित होकर, नृप उद्दायन की अनुपस्थिति में रौरवपुर पर आक्रमण किया। उस समय रानी प्रभावती ने, अन्न जल का त्याग कर महामंत्र की आराधना की । तत्काल एक देव ने आकर उस सेना को उड़ाकर प्रभावती के शील को सुरक्षित किया। अन्त में रानी ने आर्यिका दीक्षा लेकर जीवनान्त में पंचमस्वर्ग में देवपद को प्राप्त किया। 11. अंगदेश की चम्पा नगरी के निवासी श्रेष्ठी प्रियदत्त की बाल ब्रह्मचारिणी पुत्री अनन्तमती ने संयम से सहित धर्म विज्ञान का अर्जन किया । दुर्भाग्यवश उसने जीवन में अनेक भयंकर कष्ट उठाये, परन्तु संयम के प्रभाव से देवों ने रक्षा की । अन्त में कमल श्री आर्यिका के निकट आर्यिका दीक्षा को स्वीकृत किया | मरण समय णमोकर मंत्र के ध्यान के प्रभाव से बारहवें सहस्रार स्वर्ग में देव पद प्राप्त किया। 12. काशी नरेश की सुपुत्री सुलोचना सती जैन धर्म में श्रद्धावती एवं ज्ञानवती प्रसिद्ध थी। एक दिन उस
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ की सखी विन्ध्यश्री उद्यान में फूल तोड़ने गई। वहां सहसा विन्ध्यश्री को एक सर्प ने काट लिया वह मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। सुलोचना ने महामंत्र सुनाया, जिसके प्रभाव से चलकर वह स्वर्ग में गंगा देवीं हुई।" 13. सोमासती को सासु ने शील भंग का कलंक लगाया। परिवार जनों ने उसकी परीक्षा के लिये घट में सर्प को रखकर उसको निकालने के लिये कहा, सोमा ने नमस्कार मंत्र के शुद्ध स्मरणपूर्वक सर्प को निकालने का प्रयास किया तो सर्प के स्थान पर फूल माला का उद्भव हुआ। चारों ओर से सोमा की जय ध्वनि हुई। यह महामंत्र का प्रखरप्रभाव है।
इस प्रकार महामंत्र के प्रभाव के विषय में जैन दर्शन के प्रथमानुयोग शास्त्रों में बहुत कथाएं प्रसिद्ध हैं। विस्तार के भय से यहां पर कतिपय कथाओं का ही दिग्दर्शन कराया गया है। 14. महामंत्र के अविनय से चक्रवर्ती सुभौम का घोर पतन -
भारत का आठवां चक्रवर्ती सुभौम बहुत रसनालोभी था ।आदत के अनुसार उसने स्वादिष्ट खीर बनवाई। खाने के लोभ से उसने गर्म खीर खाना प्रारंभ किया तो हाथ एवं जीभ जल गई। उसने क्रोध से गर्म खीर का थाल जयसेन- पाचक को मारा, तो पाचक मरकर व्यन्तर देव हुआ। प्रतिक्रिया की दृष्टि से व्यन्तर ने एक दिन श्रेष्ठ फल सुभौम को भेंट किये । फलखाने पर वह प्रसन्न हुआ। चक्री ने कहा, ये फल किस उद्यान में हैं हमें ले चलो। चक्री चला, मार्ग में एक नदी पार करते समय देव ने माया से जल वर्षा कर नदी वेग बढ़ा दिया। चक्री व्याकुल हुआ, उसने तापसी व्यन्तर से कहा, तापस बचाओ, जीवन समाप्त हो रहा है। तापस ने कहामहाराज अब हमारे वश की यह बात नहीं रही, हम उपद्रव नहीं टाल सकते । परन्तु एक उपाय रक्षा का हो सकता है कि यदि आप महामंत्र को जल में लिखकर अपने पैरों से मिटा देवें तो आप बच सकते है, अन्यथा नहीं। चक्री ने तत्काल जल में महामंत्र लिखकर पैरों से मिटा दिया, वह तत्काल जल में डूबकर मृत हो गया
और सप्तम नरक में नारकी हो गया। यह महामंत्र के अविनय करने का फल है । अत: किसी भी व्यक्ति को महामंत्र का अविनय नहीं करना चाहिये।"
__ भारतीय संस्कृति और साहित्य में जैन मंत्र शास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है । जैन शास्त्रों में वर्णित लाखों मंत्रों की साधना से एवं उनके मूलमंत्र की साधना से लौकिक और अलौकिक कार्य सिद्ध होते हैं। व्याकरण से मंत्र शब्द सिद्ध होता है। णमोकार मंत्र के महत्व बोधक चार नाम प्रसिद्ध हैं 1. अनादि निधन मंत्र, 2. मूल मंत्र, 3. महामंत्र, 4. णमोकार मंत्र (नमस्कार मंत्र)। म. प्र. के तात्कालिक वित्तमंत्री स्व. श्री शिव भानुसिंह सोलंकी द्वारा महामंत्र की पर्याप्त प्रशंसा की गई हैं। इस मंत्र में व्याप्त धन और ऋणात्मक विद्युत शक्तियों से कर्मरज और लौकिक कष्ट भस्म हो जाते हैं। इसमे द्रव्य एवं भावभुत का समावेश हो जाता है, यह द्वादशांग का सार है । प्राकृत भाषा के इस महामंत्र का संक्षिप्त रुप एकाक्षर मंत्र ‘ओं' सिद्ध होता है विज्ञान के आलोक में भी महामंत्र का महत्व सिद्ध होता है। आचार्य उमा स्वामी द्वारा रचित “णमोकार मंत्र माहात्म्य' महामंत्र के अपूर्व माहात्म्य को दर्शाता है । इस लेख में 14 कथाओं द्वारा महामंत्र का अप्रतिम अतिशय सिद्ध होता है ।दूषित नवग्रहों की शान्ति इसी महामंत्र से होती है। इस मंत्र के अविनय करने का फल भी कथांश के उद्धरण से दर्शाया गया है।
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कृतित्वं/हिन्दी सन्दर्भ - 1. वरदराजाआचार्य, मध्यसिद्धान्त कौमुदी: उणादिप्रकरण: पृ. 445 2. संस्कृत नित्य पूजन पृ. 17
मंगल मंत्र णमोकार एक चिंतन, पृ. 63 4. अर्चना संग्रह पृ. 11
मंगल मंत्र णमोकार एक अनुचिंतन पृ. 12 6. धर्मध्यान दीपक: णमोकार मंत्रमाहात्म्य श्लो. 29 पृ. 7
अर्चना संग्रह पृ. 24 विमल भक्ति संग्रह पृ. 34-35
णमोकार मंत्र की महिमा, पृ. 4 10. नवग्रह शान्ति स्तोत्र, पद्य 8 11. जय सेनाचार्य : जयसेन प्रतिष्ठापाठ, श्लो. 376 12. जयसेन प्रतिष्ठापाठ, श्लो. 377 13. वृहद् द्रव्य संग्रह, गाथा 49, ब्रह्मदेव संस्कृत टीका अन्तर्गत
दि. जैन पूजन संग्रह, पृ. 106 15. मंगल मंत्र णमोकार : एक अनुचिंतन, प्र. 78 16. मंगल मंत्र णमोकार : एक अनुचिंतन, पृ. 21, द्वि सं. प्रस्तावना 17. तथैव-पृ. 22 18. तथैव 19. क्षत्रचूडामणि 20. पार्श्वनाथ चरित्र 21. आराधना कथा कोष 22. श्रेणिक चरित्र 23. डा. पन्नालाल : रत्नकरण्ड श्रावकाचार 24. मोक्ष मार्ग की सच्ची कहानियां 25. सीता चरित्र 26. सुलोचना चरित्र 27. मंगल मंत्र णमोकार : एक अनुचिंतन 28. डा. पन्नालाल : रत्नकरण्ड श्रावकाचार 29. मंगल मंत्र णमोकार : एक अनुचिंतन 30. आराधना कथा कोष 31. मंगल मंत्र णमोकार : एक अनुचिंतन प्राप्त - 22,12, 95
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सार्वभौम श्री पयूर्षण पर्व का महत्व एवं मूल्याँकन
धर्म की वीणा बजाता दिव्य पावन, पर्व पर्युषण हृदय के द्वार आया। भारतीय संस्कृति को जीवित या सुरक्षित रखने के लिए भारत की जैन पर्व परम्परा अपनी विशेष सत्ता रखती है। जो मानव समाज को जीवन शुद्धि के लिए समय पर प्रेरणा देती रहती है। पर्व का दूसरा शब्द पावन भी है, जिसका अर्थ पवित्र दिन होता है। पर्व अर्थात् वह मुख्य विशेष अथवा पवित्र दिन कि जिस दिन मानव आत्म शुद्धि करता है, सदैव के लिये नियम लेता है।पर्व का दूसरा अर्थ गाँठ भी है जैसे गन्ने की नीरस गांठ सरस गन्ने को उत्पन्न करती है । उसी प्रकार धार्मिक पर्व विषय रस हीन होते हुए भी आत्मरस को उत्पन्न करते हैं।पर्व मानव को प्रभावित करते हैं। यदि पर्व का निमित्त न हो तो मानव के हृदय में उत्साह तथा जागृति नहीं हो सकती है। विश्व के प्राय: सभी देशों में अपने अपने धर्म तथा संस्कृति के अनुसार पर्वो की मान्यता है इन पर्वो में श्री पयूषण पर्व एक स्वाभाविक-अनैमित्तिक महा पर्व है जो अपनी विशेष सत्ता रखता है। अनादित्व -
मुख्यत: पर्व तीन प्रकार के है । (1) साधारण, (2) नैमित्तिक (3) नैसर्गिक । साधारण अष्टमी, चतुर्दशी आदि । नैमित्तिक रक्षाबन्धन दीपावली आदि । नैसर्गिक-पयूर्षण पर्व इस कारण स्वाभाविक है कि अन्य पर्वो की तरह इसके उदय या जन्म का कोई कृत्रिम निमित्त नहीं है, न किसी महापुरुष की जीवन काल की विशेष घटना का कोई आधार है। इसका सम्बन्ध तो अनादि परिवर्तनशील कालचक्र के साथ है । विद्वानों की परम्परा से तथा धार्मिक पर्वो से, कालचक्र के साथ इस महा पर्व का यह सम्बन्ध जाना जाता है कि अवसर्पिणी (कल्पकाल का एक मुख्य विभाग) का तीसरा काल भोग युग का काल था ।उसका जब पल्य का आठवां भाग बराबर समय अवशिष्ट रह गया तब भोग युग की सभ्यता क्षीण होकर कर्म युग की सभ्यता का प्रारम्भिक विकास होने लगा था। भोग युग के कल्पवृक्षों की कान्ति क्षीण हो जाने से आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा की सन्ध्याकाल में सर्व प्रथम मानव समाज को एक साथ सूर्यास्त का दृश्य पश्चिम में और चन्द्रोदय का दृश्य पूर्व में दिखाई दिया। इस दृश्य से सहसा भयभीत मानवों को प्रथम कुलकर या मनुमहात्मा ने इस दृश्य का अभिप्राय समझाया। उसका अग्रिम दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदा (एकम) कर्म युग का प्रथम दिन प्र. सप्ताह, प्र. पक्ष, प्र. मास, प्र. अयन, प्र. वर्ष, और प्रथम युग तथा प्र. शताब्दी थी। इसी दिन से कर्मयुग का व्यवहारकाल प्रारंभ हुआ था। भोग युग में मानव समाज के मध्य सांस्कृतिक विकास नहीं था परन्तु जब कर्म युग प्रारंभ हुआ और मानवों की संख्या बढ़ने लगी तो उनके सांस्कृतिक विकास एवं जीवन शुद्धि के लिए मनुमहात्माओं ने दशलक्षण धर्म, षोडश भावना और रत्नत्रय धर्म का उपदेश साधारण रुप से दिया । कुछ समय पश्चात् श्री ऋषभदेव आदि 24 तीर्थंकरों ने विशेष रुप से धर्म का उपदेश दिया। इस समय से पर्दूषण पर्व का विकास हुआ था।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
अपि च- अवसर्पिणीकाल के अन्त में ज्येष्ठ कृष्णा एकादशी से आषाढ़ शुक्ला 15 तक 49 दिन भरत और ऐरावत क्षेत्रों में प्रलय क्रांति भयंकरता से होती है तत्पश्चात् उत्सर्पिणीकाल के प्रारम्भ में श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से भाद्र शुक्ल 4 तक 49 दिन घृत, दुग्ध आदि श्रेष्ठ वस्तुओं की वर्षा से प्रलयताप की शान्ति होती है। प्रलय से भयभीत तथा विविध दुःखों से पीड़ित हिंसक वृत्ति अशान्त मानव को भाद्र शु. 5 से जीवन शुद्धि तथा आत्महित के लिए क्षमा आदि दश धर्मो का उपदेश दिया जाता है। यहाँ से भी पयूषण पर्व का उदय होता रहता है। इसी प्रकार अनादिकाल से उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी कालों में सदैव दश लक्षण पर्व की विकास परम्परा होती रहती है । इसी दृष्टि से यह पर्व अनादि और नैसर्गिक है ।
काल का प्रभाव सदैव चेतन तथा अचेतन द्रव्यों पर होता रहता है। पर्व एक पवित्रकाल है जिसका प्रभाव मानव पर अवश्य ही होता है। उसके निमित्त से आत्मा स्वयं उत्तमक्षमादि गुणों को धारण कर पवित्र होता है। पर्व एक सबल इन्जेक्शन का काम करते हैं जिससे मोह निद्रा से प्रथम भ्रष्ट मानव श्रद्धा ज्ञान तथा चारित्र के विकास की प्रेरणा और सतर्कता प्राप्त करता है। अतएव दशलक्षण महापर्व जैसे पवित्र निमित्त की विश्व को, राष्ट्रों को एवं मानवों को अत्यावश्यकता है। यह महापर्व परमात्मा का दूत जैसा है।
संज्ञा और सार्थकता -
जैन साहित्य में इस पर्व सम्बन्धी अनेक नाम प्रसिद्ध है जो देश में अपनी सार्थकता एवं महत्व दर्शाते हैं वे इस प्रकार है -
(1) पर्वराज- अन्य पर्वो से विशेष महत्व तथा क्रान्ति का सम्पादक है।
(2) महापर्व - अति प्राचीन है, दश दिनों में इसकी साधना पूर्ण होती है।
( 3 )
दशलक्षण पर्व - इसमें धर्म के क्षमा आदि दश अंगों की साधना होती है । (4) पर्यूषण - जिसमें विषय कषायों का दहन अर्थात् त्याग किया जाये ।
(5) पर्युपासना - जिसमें आत्मशुद्धि के लिए सब प्रकार से श्रेष्ठ साधना की जाय ।
( 6 )
पर्युपवास- सर्व प्रकार से आत्मा के गुणों में लीन होना तथा आचार्य गुरू आदि की संगति करना |
(7) पर्युपशमना - जिसमें पूर्ण साधना के द्वारा आत्मा के विषय कषाय आदि विकारों को शान्त किया जाय। तथा आत्म शान्ति को प्राप्त किया जाय ।
(8) पर्युषण - परिसमन्तात् उषयन्ते दह्यन्ते कर्माणि यस्मिन्पर्वणि इति पर्यूषण पर्व ।
(9) पर्यूषण - इस अपभ्रंश शब्द का उक्तार्थ है ।
( 10 ) पज्जुषणा - इस प्राकृत शब्द का उक्तार्थ है ।
(11) पज्जसवण- रस प्राकृत शब्द का अर्थ नं. 5 के समान है।
(12) सम्वत्सरी पर्व यह शब्द श्वेताम्बर समाज में प्रसिद्ध है अर्थात् जो पर्युषण पर्व सम्वत्सर (वर्ष) प्रतिक्रमण के साथ समाप्त किया जाता है ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विकास परम्परा
__ प्रत्येक अवसर्पिणी कालके तीसरे विभाग के अन्तिम समय से इस महापर्व का प्रारम्भिक विकास होता है उस समय से लेकर अब तक उसकी परम्परा चली आ रही है, वर्तमान महा पर्व उसी परम्परा का अंग है। दिगम्बर मान्यता के अनुसर भाद्र शुक्ला 5 से 14 तक यह पर्व विशेष रुप से मनाया जाता है । माघ शुक्ला तथा चैत्र शुक्ला में भी यह पर्व यथा शक्ति मनाया जाता है । इस प्रकार इस पर्व की वर्ष में तीन शाखाएँ विकसित होती हैं। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार यह पर्व भाद्र कृ, 10 से भाद्र शु. 4 तक समारोह के साथ सम्पन्न किया जाता है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के प्रथम विभाग से लेकर महापर्व का प्रारम्भिक विकास होता है जो उत्सर्पिणी के तीसरे काल तक प्रवाहित रहता है। चौबीस तीर्थंकरों के तीर्थ में इस पर्व का अधिक विकास होता है। धर्म और उसकी धारायें -
__ इस महापर्व में धर्म की साधना विशेष रुप से की जाती है इसलिए यह धार्मिक पर्व कहा जाता है। धार्मिक साधन के पूर्व धर्म का लक्षण जानना आवश्यक है। धर्म का लक्षण आचार्यों ने कहा है -
वथ्थु सुभावो धम्मो, उत्तम खमआदि दह विधो धम्मो ।
रयणत्तयं च धम्मं, अहिंसा हि लक्खणो धम्मो ॥ अर्थात- निश्चयनय से सामान्य रुप से वस्तु के स्वभाव नित्य गुण अथवा शुद्ध प्रकृति को धर्म कहते हैं। जब विश्व के मानव सामान्य लक्ष्य से धर्म का अर्थ नहीं समझ सकते हैं। तथा व्यवहार धर्म का तदनुरुप पालन करने में असमर्थ रहते हैं। उस दशा में आचार्यो ने व्यवहार नय से धर्म के विशेष लक्षण कहे हैं। इस दश लक्षण पर्व में क्रमश: धर्म के दश अंगों की उपासना की जाती है । वे निम्न प्रकार है - जो अमृतचन्द्राचार्य की लेखनी से प्रसिद्ध है -
धर्म: सेव्य : क्षान्ति मुंदुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् ।
आकिंच्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ॥ (1) उत्तम क्षमा (क्रोध को जीतकर सहनशीलता धारण करना), (2) मार्दव- (मान कषाय का त्याग कर विनय ग्रहण करना), (3) आर्जव- (माया कषाय को नष्ट कर सरल अर्थात् निष्कपट वृत्ति की धारणा), (4) शौच- (लोभ का बहिष्कार कर भावों को पवित्र रखना), (5) सत्य- (यथार्थ हित मित प्रिय वचनों का प्रयोग करना) , (6)संयम- (स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र, कर्ण तथा मन के विषयों को जीतकर मैत्रीभाव से प्राणियों की रक्षा का प्रयत्न करना), (7) तप (भौतिक वस्तुओं में बढ़ती हुई इच्छाओं को रोककर ज्ञानाभ्यास, उपवास, सामायिक आदि नियमों की साधना करना), (8) त्याग- (जड़ वस्तुओं में बढ़ती हुई आसक्ति या ममता का परित्याग करना, आहारदान, ज्ञानदान, औषधिदान तथा अभयदान का उपयोग करना, समाज सेवा, लोकोपकारी संस्थाओं की एवं सभाओं की व्यवस्था करना, संरक्षण करना आदि), (9) आकिंचन्य- (भौतिक वस्तुओं से स्वार्थ बुद्धि को दूर करना, जड़ वस्तुओं से पृथक आत्मा में श्रद्धा रखना क्रोध आदि अन्तरंग
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ परिग्रह तथा सुवर्ण रूपया आदि वहिरंग परिग्रह से अहंकार और ममकार का परित्याग करना), (10) ब्रह्मचर्य - (आत्मा के गुणों में लीन रहना, या उनको जानना इन्द्रिय विषयों का त्याग, काम विकारों का त्याग, असभ्य फैशन का त्याग, बालवृद्ध तथा अनमेल विवाह का त्याग, अनावश्यक दहेज प्रथा का बहिष्कार, अवैद्य व्यभिचार तिरष्कार, बहुपत्नी विवाह का बहिष्कार, नारी अपहरण का परित्याग आदि) इन दश धर्मो के द्रव्य तथा भाव अथवा निश्चय तथा व्यवहार के भैद से दो दो भेद होते हैं जिनको क्रमश: मुनि तथा गृहस्थ पालन करते हैं।
इन दश धर्मो के साथ उत्तम विशेषण का प्रयोग तीन दृष्टि से है जैसे सम्यग्दर्शन सहित क्षमा उत्तम क्षमा है । सर्वदेश क्षमा ( मुनि की क्षमा) उत्तम क्षमा है। विश्व में क्षमा धर्म - उत्तम क्षमा है । इसी प्रकार सब धर्मो में समझना चाहिये ।
दश धर्मो की उपासना करने में रत्नत्रय धर्म की प्रथम आवश्यकता होती है । दश धर्म पालन करने की सफलता रत्नत्रय धर्म पर अबलम्बित है अतएव इसी भाद्रमास में रत्नत्रय धर्म की उपासना करने का विधान है। वह तीन प्रकार का है - 1. सम्यग्दर्शन- आत्मा आदि सात तत्वों की तथा वीतराग देव शास्त्र गुरू की, तीन मूढ़ता तथा आठ मद के प्रभाव से हीन अष्टांग पूर्ण श्रद्धा करना और संवेद, निर्वेद अनुकम्पा तथा आस्तिक्य गुणों का धारण करना। 2. सम्यग्ज्ञान- निर्दोष श्रद्धापूर्वक तत्वों के समीचीन तथा अष्टांग पूर्ण ज्ञान का विकास करना | जिस ज्ञान में संदेह, असत्यता और विभ्रम दोष नहीं होते हैं । 3. सम्यक्चरित्र - निर्दोष श्रद्धान तथा समीचीन ज्ञान पूर्वक विकार भावों का त्याग कर आत्म चिन्तन करना, पंच महाव्रत, पंच समिति तथा तीन गुप्ति इन तेरह अंगों की साधना द्वारा कर्मक्षय का पुरुषार्थ करना ।
पूर्व गाथा में कथित "च" शब्द से सोलह भावनाओं का ग्रहण करना भी धर्म कहा जाता है। जो भावनाएँ तीर्थंकर पद के माध्यम से स्वहित के साथ समस्त लोक का कल्याण करती हैं। भाद्रमास इन भावनाओं की विशेष रूप से साधना की जाती है। इनके दृढ़ संकल्प का रचनात्मक रूप "षोडशकारणव्रत " के नाम से प्रसिद्ध है जो भाद्रमास तीस दिनों में सम्पन्न होता है । वे पवित्र भावनाएँ इस प्रकार हैं1. दर्शनविशुद्धि 2. विनयशीलता, 3. शोलव्रतेष्वनतिचार, 4. अभीक्षणज्ञानोपयोग, 5. संवेग, 6. शक्तितस्त्याग, 7. शक्तितस्तप, 8. साधु समाधि, 9. वैयावृत्य, 10. अर्हद्भक्ति, 11 आचार्य भक्ति 12.बहुश्रुत भक्ति, 13. प्रवचन भक्ति, 14. आवश्यकापरिहाणि, 15. मार्ग प्रभावना, 16. प्रवचनवत्सलत्व ।
इनके अतिरिक्त गाथा में 'अहिंसा' लक्षण वाला महान धर्म भी कहा गया है। धर्म ग्रन्थों में अहिंसा सबसे बड़ा धर्म और हिंसा सबसे बड़ा पाप कहा गया है । अहिंसा की प्रमुख दो धाराएँ हैं :1. महाव्रत 2. अणुव्रत । महाव्रत की उपधारायें पाँच हैं :- 1. अहिंसा महाव्रत 2. सत्य महाव्रत, 3. अचौर्य महाव्रत, 4. ब्रह्मचर्य महाव्रत, 5. परिग्रह त्याग महाव्रत । अणुव्रत की भी 5 उप धाराएँ हैं :- 1. अहिंसाणुव्रत 2. सत्याणुव्रत, 3. अचौर्यायुव्रत, 4. ब्रह्माचर्याणुव्रत, 5. परिग्रहपरिमाण अणुव्रत । इन सब व्रतों के द्रव्य और भाव के भेद से दो दो रूप होते हैं। इन सब व्रत अथवा यम नियमों से अहिंसा सिद्धांत की साधना
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
होती है। अहिंसा से दस धर्मों की साधना और दस धर्मों की साधना से अहिंसा की साधना होती है । दश लक्षण पर्व की मान्यता का यही ध्येय है।
वैदिक दर्शन में दश धर्मो का समर्थन -
( मनुस्मृति: )
1. धृति, 2. क्षमा, 3. कामदमन, 4. अचौर्य, 5. शौच, 6. इन्द्रिय विजय, 7 सद्बुद्धि 8. विद्या, 9. सत्य, 10, अक्रोध ।
धृतिः क्षमादमोऽस्तेयं शौच मिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम् ॥
पौराणिक कथा वस्तु -
धातकी खण्ड द्वीप में विद्यमान पूर्व विदेह क्षेत्र के विशाल नगर में प्रियंकर राजा की पुत्री मृगांकलेखा, मतिशेखर मंत्री की पुत्री कमलसेना, गुणशेखर की पुत्री मदनवेगा और लक्षभट विप्र की कन्या रोहिणी इन चारों कन्याओं ने छात्र जीवन में एक गुरू के निकट एक साथ लौकिक विषयों की तथा धर्म विषय की शिक्षा प्राप्त की। उनका जीवन समाज में प्रशंसनीय हो गया। एक समय वसन्त ऋतु में वन क्रीड़ा के लिये उन्होंने वन में विहार किया। वहां पर एक दिगम्बर जैन ऋषि के दर्शन कर धार्मिक उपदेश श्रवण किया। उन कन्याओं ने श्री मुनिराज से प्रश्न किया कृपया स्त्री पर्याय के तथा जन्म मरण के विच्छेद का सत्य मार्ग बतलाइये, जिससे हमारा कल्याण हो । श्री मुनिराज ने कहा- हे पुत्रियों ! तुम सब मनसा वाचा कर्मणा प्रति वर्ष भाद्र, माघ, चैत्र मास के शुक्ल पंचमी दिवस से चतुदर्शी पर्यन्त दश दिनों में श्री दशलक्षण व्रत की साधना करो । उन्होंने उत्साह के साथ इस पर्व में अभिषेक अर्चन सामायिक, प्रतिक्रमण, स्तवन, स्वाध्याय अनशन आदि पवित्र कर्तव्यों का आचरण किया । दश वर्ष की साधना के पश्चात् उन कन्याओं ने समारोह से अपने व्रत का उद्यापन किया । उनका सुख शान्ति मय जीवन मानव समाज में गौरव पूर्ण हो गया । उन्होंने जीवन के अन्त में समाधिमरण कर दशम स्वर्ग में ऋद्धिशाली देवपद प्राप्त किया ।
वहाँ से चयकर भारत के मालवा प्रान्त के उज्जैन नगर में महाराज मूलभद्र के चार पुत्रों के जन्म को क्रमशः उन्होंने ग्रहण किया। छात्र जीवन में शिक्षा प्राप्त करने के बाद योग्य अवस्था में उनका विवाह हो गया। श्री मूलभद्र नृप राज्यभार उनको देकर मुनि पद में दीक्षित हुए ।
उन चारों पुत्रों ने भी राज्य किया और जीवन के अन्त में मुनि दीक्षा लेकर तप किया। धर्म का आदर्श मार्ग दर्शाते हुए उन्होंने परमात्मपद प्राप्त किया। इस प्रकार उक्त चारों कन्याओं ने श्री दश लक्षण धर्म का आदर्श इस विश्व में उपस्थित किया । शिक्षाप्रद है।
सामाजिक महत्व
कर्मयुग के आदिकाल में भ. ऋषभदेव के द्वारा जब मानव समाज की व्यवस्था की गई, तब समाज में सभ्यता और संस्कृति के विकास की आवश्यकता प्रतीत हुई। प्रथम तीर्थंकर ने क्षमा आदि दश गुणों के
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ द्वारा धार्मिक विकास और वस्तु तत्व तथा विश्व तत्वों के द्वारा दार्शनिक विकास का समाज में श्री गणेश किया । तदनुरूप सभ्यता का निर्माण किया। कारण कि बिना संस्कृति और सभ्यता के मानव समाज का सच्चा निर्माण नहीं हो सकता है। आज भी स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए धार्मिक तत्वों और दार्शनिक तत्वों की आवश्यकता है। अतएव समाज में दशलक्षण पर्व के निमित्त से धार्मिक तत्वों का विकास किया जाता है। सामाजिक रीति के अनुसार यह महा पर्व वर्षाकाल में अधिक मनाया जाता है कारण कि इस समय प्रकृति का वातावरण शीतल व हरा भरा रहता है । लौकिक कार्यो की शिथिलता या मन्दता हो जाने से धार्मिक कर्तव्यों का अधिक आचरण होता है। तीसरी विशेषता यह कि वर्षा ऋतु में तत्त्व ज्ञानी चारित्रवान् पूज्य मानवों का चातुर्मासिक योग होने से एक स्थान पर उनकी स्थिर संगति समाज को प्राप्त हो जाती है | जिससे समाज में तत्त्वोपदेश से ज्ञान का विकास होता है। समाज का संगठन दृढ़ होता है, सेवा की भावना जागृत होती है, कुरीतियों का निवारण होता है, धर्म प्रभावना होती है । धार्मिक महोत्सव और सभाओं के अधिवेशन सफलता के साथ सम्पन्न होते हैं। साहित्य का प्रचार होता है । इस प्रकार महापर्व सामाजिक महत्त्व रखता है। राष्ट्रीय महत्व -
कर्मयुग के प्रारम्भकाल में जब भ. ऋषभदेव ने सर्व प्रथम राष्ट्रों की स्थापना की, तब राष्ट्रों में स्थायित्व, विकास, शान्ति, स्वास्थ्य, नैतिक शिक्षा, सत्यता और न्याय की विस्तारता के लिए आत्म श्रद्धा, क्षमा, विनय आदि धार्मिक धाराओं का प्रचार किया गया। राष्ट्रों के तत्व और शासन अहिंसा तथा सत्य मूलक स्थापित किये गये । यह परम्परा उस समय से प्रवाहित होकर आज भी अपनी सत्ता रखती है।
___ आधुनिक राष्ट्रों के नये विकास, उन्नति और स्थायित्व के लिये भी दशलक्षण धर्म, अहिंसा, सत्य आदि धार्मिक सिद्धान्तों की आवश्यकता है। राष्ट्रों की अनेक समस्याएँ उक्त सिद्धांतों से सफलीभूत हो सकती है। जैसे सुरक्षा की समस्या अहिंसा से, परिवार नियोजन की समस्या ब्रह्मचर्य से , अन्न रक्षा की समस्या- अनशन आदि तप, व्रत, संयम सादा भोजन आदि से, मांसाहार त्याग की समस्या शाकाहार से हल की जा सकती है । दशलक्षण धर्म तथा रत्नत्रय धर्म की साधना कि बिना राष्ट्रों का स्वस्थ जीवन स्थायी नहीं हो सकता है। वैज्ञानिक महत्व -
विज्ञान ने मानवता को ही भगवान और नैतिक पुरूषार्थ को ही धर्म माना है और मानवता तथा नैतिकता का विकास दशलक्षण धर्म के द्वारा हो सकता है और अवश्य होता है अतएव दश धर्म तथा अहिंसा आदि धर्म ही महान विज्ञान हे । जिसके आविष्कारक तीर्थंकर थे । वर्षाकाल के विषैले असंख्यात प्राणी, संक्रामक कीटाणु तथा तज्जन्य अनेक रोग अपना प्रभाव दश धर्मो के साधक मानव पर नहीं छोड़ सकते । वर्षाकालिक महा पर्व की मान्यता का यह भी एक महत्व है । इस प्रकार यह पर्युषण पर्व सार्वभौम सिद्ध होता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पर्युषणपर्व की साधना का परिणाम:
एवे दहप्पयारा, णावकम्मस्स णासिया भणिया ।
पुण्णस्सयं संजणया, पर पुण्णत्थंण कायव्वा ॥ तात्पर्य - धर्म के दश प्रकार क्षमा आदि पाप कर्मों के नाशक और पुण्यकर्म के उपार्जक कहे गये हैं परन्तु मात्र पुण्यकर्म के संचयार्थ नहीं करना चाहिए इन धर्मों की साधना किन्तु सुमुक्ति हेतु । उपसंहार :
भारतीय संस्कृति एवं साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए जैनपर्व परम्परा अपना विशेष महत्व व्यक्त करती है। आत्म शुद्धि तथा मुक्ति के लिए उसकी अति आवश्यकता है। पर्व की सार्थक परिभाषा एवं मूल उत्तरभेद ज्ञातव्य है । यह पर्युषणपर्व अनादिनिधन है कारण कि इसका संबंध अनादिकाल परम्परा के साथ है । पर्युषण के पर्याय शब्द और स्यावाद शैली से धर्म की परिभाषा का दिग्दर्शन कराने के पश्चात् विभिन्न आचार्यो की दृष्टि से धर्म के दश अंगों का निर्देश किया गया है।पर्युषण पर्व से विश्वशांति, सामाजिक सर्वोदय और तत्वेदक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानवता का विकास नियमित होता है।
पर्युषण के पर्व-पर्व में भरा हुआ है अमृत रस । आत्म शुद्धि वृद्धिंगत होती, जीवन बनता है समरस ॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लोक में श्रमण परम्परा का महत्व एवं उपयोगिता
तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर तीर्थंकर भगवान महावीर तक श्रमणों की परम्परा की प्रगति होती रही। 2516 वर्ष पूर्व भ. महावीर की मुक्ति के पश्चात् इन्द्रभूति गणधर एक, प्रतिगणधर -10, केवलज्ञानी, श्रुतकेवली, श्रुतधराचार्य, सारस्वताचार्य, प्रबुद्धाचार्य और शतशत परम्परा पोषक, सिद्धान्तवेत्ता आचार्यो के अस्तित्व से श्रमण परम्परा सिद्ध होती है।
णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ इस महामंत्र में आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु वर्ग को नमस्कार करने से भी अतिप्राचीन श्रमण परम्परा का अस्तित्व प्रमाणित होता है।
जिस प्रकार पिता-पुत्र से वंश की परम्परा की प्रगति होती है उसी प्रकार आचार्य-शिष्य परम्परा से श्रमण परम्परा संचालित होती है। आचार्य एवं उपाध्याय,शिष्यों का अनुग्रह तत्त्वोपदेश, संघ प्रवर्तन, दीक्षा, नियमोपदेश और संघपरिरक्षण का कार्य अनुशासनबद्ध करते हैं तथा प्रायश्चित एवं प्रतिक्रमण द्वारा शिष्य (मुनियों) के दोषों को दूर कर आत्मा की शुद्धि करते हैं।
श्रमण धर्म की आवश्यकता को व्यक्त करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द श्रमण धर्म का उपदेश प्रदान करते हैं -
एवं पणमिय सिद्धे, जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे । पडिवज्जदु सामण्णं, जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ॥
(प्रवचनसार. अ.3, गा. 1) अर्थात्- ज्ञानगुण के महत्व को समझकर भव्यमानव यदि कर्मजनित असंख्य दुःखों से पूर्णत: मुक्ति चाहते हैं तो श्रमण धर्म को अंगीकार करें। यह उपदेश, सिद्ध अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय और श्रमणों को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके कहा गया है। इस कथन से श्रमण धर्म की अत्यन्त आवश्यकता प्रतीत होती है।
__ श्रमण परम्परा को अक्षुण्ण रखने, प्रभावित करने, वृद्धिंगत करने एवं सार्थक करने के विषय में पण्डित प्रवर आशा धर ने घोषित किया है :
जिनधर्म जगद् बन्धु-मनुबद्धमपत्यवत् । यतीन् जनयितुं यस्येत् , तथोत्कर्षयितुं गुणैः ॥
__(सागारधर्मामृत अ । 2, पद्य 71) तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अपने वंश की परम्परा को सुरक्षित एवं वृद्धिंगत करने के लिये सन्तान
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों की उत्पत्ति तथा उसको गुणी बनाने का पुरूषार्थ किया जाता है, उसी प्रकार श्रीमान धीमान् श्रावक जनों को प्रयत्न करना चाहिए कि जगत्बन्धु जैन धर्म की परम्परा को वृद्धिंगत तथा सुरक्षित करने के लिये वे मुनियों को दीक्षित करने में एवं उसको ज्ञानदिगुणों से सम्पन्न कराने में सहायक बने अन्यथा जिनधर्म की परम्परा का विच्छेद हो जाएगा।
श्री पण्डित प्रवर आशाधर जी ने यह भी लिखा है कि यति परम्परा को अक्षुण्ण रखने के लिये वर्तमान मुनियों के प्रति श्रद्धा, सुरक्षा एवं पूज्यता का भाव रखना समाज को आवश्यक है :
विन्यस्यै दंयुगीनेषु, प्रतिमासु जिनानिव ।
भक्त्यापूर्वमुनीनर्चेत, कुत: श्रेयोऽतिचर्चिनाम् ॥ तात्पर्य यह है कि जैसे वर्तमान प्रतिमाओं में पूर्णकालिक जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके उनकी पूजा की जाती है, उसी प्रकार आधुनिक मुनियों में पूर्वकालिक मुनियों की स्थापना करके उनके प्रति श्रद्धा सुरक्षा एवं पूज्यता का भाव व्यक्त करना आवश्यक है। यद्यपि वर्तमान मुनियों में द्रव्य,क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा, चतुर्थकाल के यतियों की तरह आत्मबल, तपस्या, विशुद्धि, ज्ञान आदि में समानता नहीं पाई जाती है तथापि इस पंचमकाल में भी रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग की साधना का प्रतिनिधित्व करने के कारण आधुनिक यति भी उपासना करने के योग्य पूजनीय हैं । इस विषय में अतिसूक्ष्म विचार करने योग्य नहीं।
(सागारधर्मामृत अ. 2, पद्य 64) यद्यपि इस कलिकाल में मुनि वर्ग में तपस्या करने पर भी ऋद्धि सिद्धि एवं विशेषज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है तथापि विशेष ज्ञान आदि गुणों के विकास के लिये श्रमण एवं श्रावक समाज को नैमित्तिक पुरूषार्थ अवश्य करना योग्य है। इस विषय को भी पण्डित प्रवर आशाधर जी ने व्यक्त किया है
श्रेयो यत्नवतोऽस्त्येव, कलिदोषाद् गुणद्युतो । असिद्धावपि तत्सिद्धौ, स्वपरानुग्रहो महान् ॥
(सागार. अ. 2 पद्य 72) तात्पर्य यह कि कलिकाल के दोष से अथवा अशुभकर्म के उदय से पूज्य यति वर्ग में यदि विशेष गुणों का उदय न हो सके तो पौरूष करने वाले साधु को और श्रावक को पुण्य कर्म का अर्जन तो अवश्य होता है। यदि साधु वर्ग में विशेष गुणों का विकास हो जाय तो वैयावृत्य करने वाले साधर्मीजनों का तथा स्वयं साधुजनों का महान् उपकार होगा। दोनों ही दशा में विशेष लाभ होने से साधु और श्रावक दोनों को पुरुषार्थ करना चाहिए, हताश होना श्रेष्ठ नहीं है। अपिच
उपासना गुरवो नित्यं, अप्रमत्तै: शिवार्थभिः । तत्पक्षतार्क्ष्यपक्षान्तश्चरा विघ्नोरगोत्तरा : ।।
(सागार धर्मामृत अ. 2 पद्य 45)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भाव यह है कि ज्ञानी मानवों का कर्त्तव्य है कि वे प्रमाद रहित होकर श्रेष्ठ गुरु (यति-ऐलक आदि) की उपासना सदैव करें। जो सत्यार्थ गुरु की भक्ति करते हैं उनके धर्मानुष्ठानों में कोई विघ्र नहीं आते हैं जैसे कि गरुड़ के प्रभाव से निकट में सर्पो का आगमन नहीं होता है । नीतियों का कथन है कि
"सत्संगति: कथय किं न करोति पुंसां" । इति चतुर्विध संघ की यथायोग्य उपासना करना भी विश्व समाज और व्यक्ति के लिये हितकारी होता है:
आर्यिका: श्राविकाश्चापि सत्कुर्याद् गुणभूषणा: । चतुर्विधेऽपि संघे, यत्, फलत्युप्तमनल्पश: ॥
(सागार धर्मामृत अ. 2 पद्य 73) तात्पर्य यह कि धार्मिक गृहस्थ या श्रावक, मुनि आर्यिका, श्रावक,श्राविका जो ज्ञानादि गुणों से विभूषित हैं , उनका यथायोग्य आदर सत्कार, संगति, सुरक्षा और दान आदि के द्वारा उपकार करें, कारण कि चार प्रकार के धार्मिक संघ में विधिपूर्वक किया गया कर्त्तव्य दानादि यथासमय बहुत कल्याणकारी होता है।
गुरव: पान्तु वो नित्यं, ज्ञानदर्शन नायका: ।
चारित्रार्णवगम्भीर: , मोक्षमार्गोपदेशका: ॥ सारांश - वे श्रमण तुम सब की पाप एवं अधर्म से रक्षा करें जो यथार्थ दर्शन, ज्ञान, चारित्र की स्वयं साधना करते हैं और विश्व दर्शन, ज्ञान, चारित्र की स्वयं साधना करते हैं। और विश्व के मानवों को मुक्ति के मार्ग का उपदेश देते हैं। कारण कि सत्यार्थ दर्शन, ज्ञान, चारित्र की क्रमशः साधना करना मुक्ति का मार्ग है
और दर्शन, ज्ञान चारित्र की सम्पूर्ण सिद्धि को प्राप्त करना परम मुक्ति कही जाती है। श्रमणदीक्षा का सर्वप्रथम उद्घाटन:
इस भरतक्षेत्र में जब विभिन्न कल्पवृक्षों के सद्भाव से भोगसामग्री का पर्यावरण था, तब उस भोगयुग में श्रमणदीक्षा को धारण करने की योग्यता, नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव के अनुकूल न होने से मानव में नहीं थी, उस समय श्रमण-धर्म की सत्ता नहीं थी। जब भोगयुग का पर्यावरण समाप्त हो गया
और कर्मयुग का पर्यावरण प्रांरभ हुआ। तब मानव की आत्मशुद्धि के लिये मोक्षमार्ग के प्रचार की आवश्यकता प्रतीत हुई। मोक्षमार्ग का प्रदर्शन श्रमणसाधना के बिना नहीं हो सकता है। इसी कारण से श्री ऋषभ तीर्थकर के द्वितीय पुत्र ने परम्परा को चलाने के लिये सर्वप्रथम स्वयं ही मुक्तिप्राप्त करने के लिये श्रमणदीक्षा का उद्घाटन किया। श्री बाहुबलिस्तोत्र का उद्धरण:
श्रीमान्नाभेयजातः, प्रथममनसिजो, नाभिराजस्य नप्ता, संसारं देह भोगं, तृणमिव बिमुचे, भारते संगरे यः । कायोत्सर्ग वितन्वन, ममदुरगलद् , गर्भवल्मीक जुष्टम्, सोऽयं विन्ध्याचलेशः, सजयतु सुचिरं, गोमटेशो जिनेश: ॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तात्पर्य- सौन्दर्यसम्पन्न, ऋषभदेव के आत्मज, 24 कामदेवों में प्रथम कामदेव, नाभिराज सम्राट् के नप्ता (नाती) जिन बाहुबलीस्वामी ने भारत में भरतचक्रवर्ती के साथ होने वाले समर के कारण, संसार शरीर
और भोगों को तृण के समान छोड़ दिया था अर्थात् दैगम्बरी दीक्षा को धारण कर लिया था और जिन्होंने एक वर्ष तक, परिवार से मोह छोड़कर वल्मीक (सर्पबिल) से व्याप्त भूमि पर मौन के साथ कायोत्सर्ग तप को धारण किया था । वही प्रसिद्ध विन्ध्याचलेश , गोमटेश्वर, जिनेश्वर श्री बाहुबलीस्वामी चिरकाल तक इस जगत में जयवन्त रहें।
जैन दर्शन ग्रंथों में श्रमण (दिगम्बर मुनि के पर्यायवाचक शब्दः (१) अकच्छ (लंगोटी रहित दि.जैन मुनि), (२) अकिंचन (परिग्रह रहित मुनि), (३) अचेलक या अचेलव्रती (वस्त्रहीन साधु), (४) अतिथि। (५) अनगार (गृहत्यागी दि0 मुनि), (६) अपरिग्रही। (७) अहीक । (८) आर्य । (९) ऋषि । (१०) गणी । (११) गुरु, (१२) जिनलिंगी, (१३) तपस्वी, (१४) दिगम्बर (१५) दिग्वास, (१६) नग्नसाधु, (१७) निश्चेल । (१८) निर्ग्रन्थ । (१९) निरागार, (२०) पाणिपात्र, (२१) भिक्षुक (२२) महाव्रती (२३) माहण (ममत्व त्यागी) (२४) मुनि (२५) यति, (२६) योगी, (२७) वातवसन (वायुरूपी वस्त्र धारी) (२८) विवसन (वस्त्रहीन) (२९) संयमी,(३०) स्थविर (दीर्धतपस्वी दि0 मुनि), (३१) साधु। (सन्यस्त (सन्यासधारी), (३३) श्रमण (समतारसी मुनि), (३४) क्षपणक (दिगम्बर मुनि), (३५) वातरशन (वायुरूपी करधनी के धारी) । भारतीय संस्कृत साहित्य में दिगम्बर श्रमण :
पाणि: पात्रं पवित्रं भमणपरिगतं, भैसमक्षय्यमन्नम्, विस्तीर्ण वस्त्र, भाशासुदशकममलं, तल्पस्वत्लमुर्वी । येषां नि:संगतांगी, करण परिणति:, स्वात्मसंतोषितास्ते, धन्याः सन्यस्तदैन्यव्यतिकर निकरा: कर्मनिर्मूलयन्ति ।
(वैराग्य शतक पृ.46) भाव सौन्दर्य- जिन श्रमणों का हाथ ही पवित्र वर्तन है, भिक्षावृत्ति से प्राप्त जिनका भोजन है, दशदिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, सम्पूर्ण पृथ्वी ही जिनकी शय्या है, एकान्त में नि:संग रहना ही जिनको आनन्दप्रद है, दीनता को जिन्होंने छोड़ दिया है, कर्मो को जिन्होंने निर्मूल कर दिया है, जो आत्मा में ही संतुष्ट रहते हैं वे श्रमण प्रशंसनीय हैं। इतिहास के आलोक में पूज्य श्रमण:
यस्य प्रांशुनखांशुजाल विसरद् धारान्तरा विर्भवत् पादाम्भोजरज: पिशंगमुकुट प्रत्यग्ररलधुति: । संस्मर्ता स्वममोघवर्ष नृपतिः पूतोऽहमध्येत्यलम्, स श्रीमान् जिनसेन पूज्य भगवत्पादो जगन्मंगलम् ॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सार सौन्दर्य - जिन श्री जिनसेन श्रमण के देदीप्यमान नखों के किरण समूह से फैलती हुई धारा बहती थी और उसके अन्दर जो उनके चरण कमल की शोभा को धारण करते थे उनकी रजसे जब राजा अमोघवर्ष के मुकुट जड़ित रत्नों की कान्ति पीली पड़ जाती थी, तब वह राजा अमोघवर्ष आप को पवित्र एवं पूज्य मानता था और अपनी उसी अवस्था का सब स्मरण किया करता था। ऐसे श्रीमान् पूज्यपाद भगवान श्री जिनसेनाचार्य सदा संसार का मंगल करें। (दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि पृ. १७५)
मुगल साम्राज्य में श्रमण साधुओं का प्रभाव :
मुस्लिम साम्राज्य में प्राय: सम्पूर्ण देश त्रसित एवं दुखित हो रहा था आर्यधर्म संकटापन्न थे, किन्तु उस समय भी हम देखते हैं कि प्रसिद्ध यवनशासक हैदरअली ने श्रवणबेलगोल की दिगम्बर विशालमूर्ति श्रीगोम्मटदेव की सुरक्षा के लिये अनेक ग्रामों की जागीर भेंट की थी। उस समय श्रवणबेलगोल के जैनमठ में जैनसाधु विद्याध्ययन कराते थे । दिगम्बराचार्य विशाल कीर्ति ने सिकन्दर और वीरु पक्षराय के सामने वाद किया था । (तथैव - पृ. १८० )
भारतीय पुरातत्त्व में श्रमण परम्परा का प्रभाव :
सिन्धु देश के पुरातत्त्व के उपरान्त सम्राट अशोक द्वारा निर्मित पुरातत्त्व ही सर्वप्राचीन है, वह पुरातत्त्व भी दिगम्बर श्रमणों के अस्तित्व का द्योतक है। स. अशोक ने अपने एक शासनलेख में आजीवक साधुओं के साथ निर्ग्रन्थसाधुओं का भी उल्लेख किया है।
सम्राट अशोक के पश्चात् खण्ड गिरि-उदयगिरि का पुरातत्त्व दिगम्बर परम्परा का पोषक है। जैन सम्राट खारबेल के हाथीगुफा वाले शिलालेख में दिगम्बर श्रमणों का तापस (तपस्वी) शब्द से उल्लेख है । उन्होंने अखिल भारत के दिगम्बर मुनियों का सम्मेलन किया था । खारवेल की पटरानी ने भी कलिंग श्रमणों के लिये गुफा निर्मित करा कर उनका उल्लेख अपने शिलालेख में इस प्रकार उल्लेख किया -
"अरहन्तपसादायम् कलिंगानं समनानं लेनं कारितम् राझो लालकसह थी साहसपयोतस् धुतुना कलिंगचक्रवर्तिनो श्रीखारवेलस अगमहिसिना कारितम् "।
ताप्पर्य - अर्हन्त के प्रासाद या मन्दिर रूप यह गुफा कलिंगदेश के श्रमणों के लिये कलिंग चक्रवर्ती सम्राट् खारवेल की मुख्य पटरानी ने निर्मित कराई, जो हथीसहस के पौत्र आलकस की पुत्री थी । वैदिक साहित्य में श्रमणों का उल्लेख:
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भारतीय साहित्य में वैदिक साहित्य प्राचीन माना जाता है। उसमें भी श्रमणों का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है इससे सिद्ध होता है कि वैदिक साहित्य की रचना के पूर्व भी श्रमण परम्परा का अस्तित्व था । अत: वैदिक साहित्य के कतिपय उद्धरणों का उल्लेख यहाँ किया जाता है
तात्पर्य - हे विष्णुदत्त परीक्षित ! यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्री विष्णु दत्त
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ महाराज, नाभिराज का प्रिय करने के लिये उनके रनिवास में महारानी मरुदेवी के गर्भ से, वातरशना (दिगम्बर) श्रमणऋषियों और ऊर्वरतामुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये, शुद्ध सत्त्वमय विग्रहधारी ऋषवदेव के रूप में अवतरित हुए अर्थात् अवतार लिया। (श्रीमद भागवत् पुराण: स्क्रन्ध ५, अ0 २: पद्य २०)
"श्राम्यन्ति इति श्रमणाः मुक्त्यर्थं तपस्यन्ते इत्यर्थ :। जो मुक्ति के लिये तपस्या करते हैं, उन्हें श्रमण कहते हैं । "श्रमणा : वातरशना आत्मविद्या विशारदा:"। वातरशन श्रमण आत्मविद्या में विशारद (प्रवीण) होते हैं । (श्रीमद् भागवत, अ0 ११ पद्य २)
सन्तुष्टा: करुणा मैत्रा: , शान्ता दान्तास्तितिक्षवः । आत्मारामा: समदृश:, प्रायश: श्रमणा: जनाः ।।
(भागवत, स्कन्ध १२: अ0 ३, पद्य १९) केश्यग्नि: केशी विषं केशी विभर्मि शेदसी । केशी विश्व स्वहसे , केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥
(ऋग्वेद 10/136/1) भावसौन्दर्य - ऋषभ (केशी सुन्दर केशधारी) मुनिदशा में अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है । वह विश्वदृश्वा, प्रकाशमान ज्योति (केवलज्ञानी) है।
मुनयो वातरशना:, पिशंगा वसते मला: । वातस्यानुध्रांजियन्ति, यद् देवासो अविक्षत ॥
(ऋग्वेद 10/136/23 ऋचा) अतीन्द्रयार्थ दर्शी वातरशना मुनि (श्रमण) स्नान न करने से मलधारण करते हैं जिससे वे पिंगलवर्ण दिखाई देते हैं, जब वे प्राणायाम करते हैं तब वे तप की महिमा से दैदीप्यमान होकर देवतारूप को प्राप्त हो जाते हैं । मौनवृत्ति से अशरीरी ध्यानवृत्ति को प्राप्त हो जाते हैं।
___ वातरशन श्रमणमुनि, जो ब्रह्मपद की ओर उत्तक्रमण करने वाले हुए थे। उनके पास अनेकों ऋषि प्रयोजनवश आये और उन्होंने अनेकों प्रश्न पूछे । श्रमण मुनियों ने उनके लिये आत्म विद्या का उपदेश दिया। (तैत्तरीय आरण्यक २, प्रपाठक-६, अनु, १-२) विदेशों में दिगम्बर श्रमणों का विहार:
दिगम्बर श्रमणों ने न केवल भारत में विहार कर मानव समाज को सम्बोधित किया, अपितु विदेशों में भी विहार करते हुए जनसमाज को धार्मिक चेतना प्रदान की है। इस विषय में कतिपय उद्धरण प्रस्तुत किये जाते हैं:
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन पुराणों के कथन से स्पष्ट है कि तीर्थकरों और श्रमणों का विहार समस्त आर्यखण्ड में हुआ था। वर्तमान की ज्ञातदुनियाँ का समावेश आर्यखण्ड में हो जाता है। इसलिये यह मान्यता सत्य है कि अमरीका, यूरोप चीन, एशिया आदि देशों में किसी समय दिगम्बर धर्म प्रचलित था और वहाँ दिगम्बर श्रमणों का विहार होता था। आधुनिक विज्ञान भी इस वृत्त को सिद्ध करता है कि बौद्धसाधु और जैन भिक्षुगण, यूनान, रोम और नार्वे तक धर्मप्रचार करते हुए विहार करते थे।
लंका में जैनधर्म की गति प्राचीन काल से ही है। ईशापूर्व चतुर्थ शती में सिंहलनरेश पाण्डुकामय ने वहाँ के राजनगर अनुरुद्धपुर में एक जैन मंदिर और जैनमठ बनवाया था। निग्रंथ साधु वहाँ पर निर्बाध धर्मप्रचार करते थे। (दिगम्बर और दिगम्बरमुनिः सन् १९३२, २४२ पृ0) उपसंहार
समाज में धार्मिकता, नैतिकता, सदाचारत्व , विनयशीलता और अध्ययन-चिंतन की प्रेरणा के प्रदायक, साधना एवं भावना साधक, सर्वोदय सिद्धान्त के प्रणेता एवं अहिंसा के प्रतिपालक श्रमण होते हैं। श्रमण की संगति के बिना श्रावक समाज का उद्धार होना कठिन है। कर्मयुग के आदि में सर्वप्रथम श्रमणदीक्षा का आदर्श श्री बाहुबली स्वामी ने उपस्थित किया । भारतीय संस्कृत साहित्य में श्रमण का महत्व, इतिहास, पुरातत्व और मुगलकाल में श्रमणों का प्रभाव, वैदिक साहित्य में श्रमणों का प्रशंसनीय उल्लेख और विदेशों में श्रमणों के विहार से श्रमण परम्परा का महत्व और उसकी उपयोगिता प्रमाणित होती है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विश्वतत्त्व प्रकाशक अनेकान्तवाद
पीठिका :
विश्वदर्शनों की परम्परा में प्राचीन भारतीय जैनदर्शन का अस्तित्व पूर्व इतिहास, पुराण, पुरातत्व और तीर्थ क्षेत्रों के द्वारा प्रसिद्ध है, यह वृत्त भारतीय और वैदेशिक साहित्यकों के द्वारा स्वीकृत किया गया है। व्याकरण की व्युत्पत्ति एवं शब्दार्थ से सिद्ध होता है कि जैनदर्शन विश्वदर्शन है, किसी समाज विशेष, वर्ग विशेष और जाति विशेष का नहीं है। तथाहि - योद्रव्य भावकर्मशत्रून् जयतीतिस: जिन: जिनेन (अर्हदेवेन) प्रणीतं दर्शनं इति जैनदर्शनं । अथवा जिनो देवता येषां ते जैना :, जैनानादर्शनं । दृश्यते - ज्ञायते वस्तुतत्त्वं येन इतिदर्शनं शास्त्रमिति का । तात्पर्य - जो महात्मा तीर्थकर ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मो को, क्रोध, मान, मोह, तृष्णा आदि भावकों को नष्टकर विशिष्ट ज्ञान दर्शन शान्ति एवं शक्ति को प्राप्त कर लेता है वह अर्हन्तदेव जिन कहा जाता है तथा जिन देव के द्वारा प्रणीत दर्शन जैनदर्शन कहा जाता है। अथवा जिनदेव जिनमानवों के आप्त (देव) हैं वे मानव जैन शब्द के द्वारा कहे जाते है। ऐसे जैन मानवों का दर्शन जैनदर्शन कहा जाता है। जिसके द्वारा यथार्थ वस्तुतत्व जाना जाता है उसे दर्शन, सिद्धांत या शास्त्र कहते है।
अपरिग्रहवाद, अहिंसा, अनेकान्त (स्यादवाद), अध्यात्मवाद, कर्मवाद, मुक्तिवाद ये जैनदर्शन के मौलिक सिद्धांत हैं। उनमें अनेकान्तवाद जैनदर्शन का अद्वितीयलोचन, विश्वतत्वप्रकाशक, वस्तुतत्व प्रदर्शक, लोक का तेजस्वी दिवाकर है। यह अनेकान्त, जैनदर्शन भवन की आधार शिला के रूप से अपनी सत्ता को स्थापित करता है। विश्वशान्तिप्रद अहिंसातत्व की प्रतिष्ठा के लिये दार्शनिक लोक में जैनदर्शन की यह अपूर्णदत्ति (दैन) अनेकान्तमार्तण्ड है, जो अनेकान्त सत्यासत्य का निर्णायक विश्वमैत्री का विधायक होते हुए नव प्रमाण किरणों के द्वारा मिथ्याज्ञानतिमिर को मार्तण्ड के समान निसर्गत: विध्वस्त कर देता है उसके बिना विश्व तत्वों का आलोक नहीं हो सकता। अनेकान्त का उदय :
जैनदर्शन की मान्यता है कि लोक में स्कंध और अणु रूप तथा स्थूल एवं सूक्ष्म रूप जीव पुद्गल (जड़) आदि द्रव्ये अनन्त धर्म विशिष्ट, नय एवं प्रमाण से सिद्ध होती है जैसे - कदलीफल में रूप रस गन्ध स्पर्श स्थूलत्व, गुरुत्व अस्तित्व वस्तुतत्व, द्रव्यत्व प्रमेयत्व अगुरूलघुत्व प्रदेशवत्व क्षुधाशामक, पित्तशामक, मलबन्धक आदि गुण होते है । तथा रूग्णजनों को उदरबाधा श्वासकास ,कफवर्धकत्व आदि दोष होते है। इसी प्रकार विश्व के सकल पदार्थो में अनेक धर्म रहते हैं। उन अनेक धर्मो को सर्वज्ञदेव ही अपने विशुद्धज्ञान से एक साथ जान सकता है, परन्तु लोक का यह अल्पज्ञमानव वस्तु के मुख्य एक - एक धर्म को ही शब्द से क्रमश: जान सकता है, एक साथ नहीं जान सकता सब धर्मो को। जैसे नारिंग फल को खाने पर कोई व्यक्ति क्रमश: खट्टा , मीठा, पीला, सुगन्धित, तृषाशामक, कोमल आदि गुणों को अपनी - अपनी दृष्टिकोण से कहते हैं।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लोक में देखा जाता है कि वक्ता समय - समय पर अपने - अपने दृष्टिकोणों से विवक्षित वस्तु के विवक्षित गुणों को शब्दों द्वारा क्रमश: कहते है किन्तु वस्तु के सकल धर्मो को युगपत् कहने की शक्ति वक्ता के शब्दों में नहीं है। अत: वस्तु के समस्त गुणों को क्रमश: जानने के हेतु अनेकांतवाद की और क्रमशः कहने के लिये स्यावाद की आवश्यकता होती है इससे सिद्ध होता है कि वक्ता एवं श्रोता के इच्छित कार्य की पूर्ति के लिये , आवश्कतानुकूल अनेकांतवाद एवं स्यावाद का उदय हुआ । अनेकान्तसूर्य के उदय से मानव का अज्ञानतिमिर ध्वस्त हुआ और विश्वतत्वों का एवं वस्तुतत्वों का मानस क्षेत्र में प्रकाश (ज्ञान) हुआ। अनेकान्त की रूपरेखा :
न एक इति अनेक + अन्त (धर्म), अर्थात् परस्पर विरोधी दो धर्म - नित्य - अनित्य, एक - अनेक, सत् - असत् आदि जिस द्रव्य में पाये जावें उसे अनेकान्त द्रव्य कहते हैं , यथा एक पुरुष में पितृत्व एवं पुत्रत्व आदि अनेकान्त द्रव्य का यह प्रथम अर्थ है। अनेकान्त की द्वितीय रूपरेखा :
अनेक अर्थात् अनन्त, अन्त (धर्म) जिस द्रव्य में पाये जावें उसे अनेकान्त द्रव्य कहते हैं जैसे एक आत्मा में ज्ञान, दर्शन, सुख, शान्ति, वीर्य, सूक्ष्मता, नित्यता, एकत्व, विनय सरलता, पवित्रता, सत्यता, संयम, इच्छा, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा , सदाचार, परोपकार, दया, संतोष, भक्ति , सेवा विवेक, साहस, पुरुष की 72 कलाएँ, महिला की 64 कलाएं आदि अनन्त गुणों का अस्तित्व अनेकान्त ही दर्शाता है । आत्मा में सामान्य गुण भी 6 पाये जाते हैं - (1) अस्तित्व (2) वस्तुत्व(3) द्रव्यत्व (4) प्रमेयत्व - ज्ञेयत्व (5) अगुरूलघुत्व - शक्ति के अंश, (6) प्रदेशवत्व - परिमाण । इसी प्रकार विश्व के समस्त पदार्थ असीम धर्म वाले हैं। आध्यात्मिक सन्त श्री अमृतचंद्र आचार्य ने समयसार में कहा है :
अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यंती प्रत्यगात्मन: । अनेकान्तमयी मूर्ति: नित्यमेव प्रकाशताम् ।।
(समयसार पृष्ठ - 3) अर्थात् - अनन्तधर्मविशिष्ट शुद्धात्माके स्वरूप को जानने वाली - अनेकान्तमयी मूर्ति (सिद्धांत) सर्वदा लोक में प्रकाशित रहे ।। स्याद्वाद की रूपरेखा :
__ स्यात् - कथंचित् = अपेक्षा से, वाद = कथन करना स्यावाद का शब्दार्थ है । विशदार्थ - अनन्तगुणात्मक द्रव्य में स्यात् = अपेक्षावश, वाद = किसी एक धर्म का मुख्य कथन करना और विरोधी धर्म की गौणता द्योतित होना स्यादवाद कहा जाता है जैसे द्रव्यार्थिकनय (निश्चयनय) की अपेक्षा घट नित्य है और पर्यायार्थिक नय (व्यवहारनय) की अपेक्षा घट अनित्य है।
__ भगवान् महावीर की आचार्य परम्परा के आचार्यो ने स्याद्वाद की व्याख्या अनेक दृष्टि कोणों से घोषित की है। यथा अनेकान्तात्मक द्रव्य का कथन करना स्याद्वाद है -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्यावाद :" (लघीयस्त्रयग्रन्थे अकलंक देव :)
"विधेयमीप्सितार्थागं, प्रतिषेध्याविरोधियत् ।। तथैवादेयहेयत्वमिति स्यादवादसंस्थिति: ॥"
(आचार्य समन्तभद्र : आप्तमीमांसा का . ।। 3) विशदार्थ :
अनेक धर्मविशिष्ट वस्तु में सद्भाव - निषेध रूप परस्पर विरोधी दो धर्मो का अथवा हेय - उपादेय धर्मो का अथवा मुख्य - गौण धर्मो का कथन करना स्याद्वाद है । यथा एक ही पुरुष अपने पिता की अपेक्षा पुत्र और अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है अपने मामा की अपेक्षा भानजा है और अपने भानजे की अपेक्षा मामा है। निश्चयनय की अपेक्षा वस्त्र नित्य और व्यवहारनय की अपेक्षा वस्त्र अनित्य है, नित्य नहीं है। खांसी के रोगी की अपेक्षा घृत, मिष्टान्न आदि वस्तु नहीं खाने योग्य है और स्वस्थ पुरुष की अपेक्षा मिष्ठान्न आदि वस्तु खाने योग्य है।
स्यावाद सिद्धांत के द्वारा अनेकान्त की सिद्धि होती है । अनेक धर्म सहित किसी भी वस्तु के परस्पर विरूद्ध हो धर्मो का विवक्षावश परस्पर सापेक्ष कथन स्यावाद शैली के माध्यम से ही लोक व्यवहार में सफल हो सकता है। पदार्थ के तत्वज्ञान के बिना कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का ज्ञान नहीं होता है पदार्थ का तत्व ज्ञान अनेकान्त सिद्धांत के बिना नहीं होता है और अनेकान्त का विज्ञान स्यादवाद की रीति से होता है इसलिये स्यावाद शैली जीवन में उन्नति के लिये महत्वपूर्ण है। इन सब विशिष्ट कारणों से ही भ. महावीर ने स्यावाद पद्धति का आविष्कार किया है। इस शैली से ही पदार्थों में नित्यानित्य, एकत्वानेकत्व, विशेष सामान्य, सत् - असत् भिन्न - अभिन्न इत्यादि धर्म सिद्ध होते हैं ।
यहाँ पर कोई दर्शनकार प्रश्न करता है कि एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्म एक - अनेक, नित्यअनित्य आदि कैसे रह सकते है। इस प्रश्न का उत्तर आचार्य उमास्वामी (उमास्वाति) घोषित करते हैं -
"अर्पितानर्पितसिद्धे :" (तत्वार्थ सूत्र अ. 5, सूत्र 32) इसका तात्पर्य है कि एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्म वक्ता की अपेक्षा या दृष्टिकोण से सिद्ध होते हैं जैसे सन्तरा द्रव्यदृष्टि से एक पुद्गल (जड़द्रव्य) है और पर्यायों (विविध दशाओं) की दृष्टि से अनेक है। सन्तरे में स्पर्शन इन्द्रिय की अपेक्षा कोमल स्पर्श है, रसना की अपेक्षा मीठा रस है, नासिका की अपेक्षा अच्छी गंध है और नेत्र की अपेक्षा पीलावर्ण है, अन्यथा खाने वाले को इनरसादि के स्वाद से आनंद नहीं होना चाहिये।
स्यादवाद के विषय में अब तार्किक वाचक आचार्य समन्तभद्र की वाणी : -
अनवद्य: स्यादवादः , तव दृष्टेष्टा विरोधत: स्यादवाद: । इतरो न स्यादवाद : , सद्वितयविरोधान मुनीश्वरास्यादवादः ॥
(स्वयंभूरतोत्र: महावीरस्तवन: काव्य 3)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सारांश :- हे मुनीश्वर महावीर ! स्यात् कथंचित् (दृष्टिकोण) से सहित आपका वह स्यादवाद (अनेकान्तवाद) सिद्धान्त, प्रत्यक्ष परोक्षज्ञान का विरोध न होने से निर्दोष है । परन्तु स्यात् इस शब्द से रहित कथन, प्रत्यक्ष, परोक्ष ज्ञान का विरोधी होने से एकान्तवाद ( हठवाद) निर्दोष नहीं है, अपितु दोषपूर्ण है । अनेकान्तवाद और स्यादवाद में अन्तर :
जैन दार्शनिक ग्रन्थों में अनेकान्तवाद और स्यादवाद ये दो शब्द उपलब्ध होते है, उन दोनों में अन्तर विचाराधीन है | सामान्य सिद्धान्त की अपेक्षा तथा द्रव्य की अनन्त धर्म शक्ति के सद्भाव की अपेक्षा अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में कोई अंतर नहीं है । उन दोनों शब्दों के द्वारा ही पदार्थ के अनन्त धर्मो की सत्ता एवं सिद्धि होती है। दर्शनग्रन्थों एवं धर्मग्रन्थों में प्राय: अनेकान्तपद से स्याद्वाद का और स्याद्वाद से अनेकान्तपद का ग्रहण किया गया है, जैसे- आचार्य श्री अमृत चंद्र की वाणी है - “सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्”
(आ. अमृतचंद्रः पुरुषार्थ पद्य 2) इस पद्य की टीका में अनेकान्तपद से स्याद्वाद का ग्रहण किया गया है। समंतभद्राचार्य की उक्ति :"अनवद्य : स्यादवाद: तब दृष्टेष्टाविरोधत: स्याद्वाद :" |
इसका सारांश उपरिकथित है। इस पद्य में प्रथम स्यादवाद शब्द से अनेकान्तवाद का ग्रहण किया
गया है ।
बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतु:, बद्धश्च मुक्तश्च फर्लं च मुक्ते : । स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तं, नैकान्तदृष्टे : त्वमतोसि शास्ता ॥
(बृहत् स्वयंभूस्तोत्र पद्या 4 ) नाथ, बन्ध, मोक्ष, बन्धहेतु, मोक्षहेतु, बद्ध, मुक्त, मुक्ति का फल ये तत्व अनेकान्तवादी आपके दर्शन में ही सिद्ध होते हैं । एकान्तवादियों के मत में सिद्ध नहीं होते है । अत: आप यथार्थ तत्वों के प्रणेता है। इस पद्य में स्यादवाद शब्द से अनेकान्तवाद का ग्रहण टीका में किया गया है।
शब्दार्थ, संज्ञा स्वरूप और प्रयोग की अपेक्षा उन दोनों (अनेकान्तवाद - स्यादवाद) में अन्तर दृष्टिगोचर होता है । तथाहि -
1. अनेकान्तवाद
स्याद्वाद - अनेक + अन्त+वाद = अनेकांतवाद, स्यात् + वाद = द्रव्य का सिद्धांत सिद्धांत की प्रयोग शैली
वाच्य
वाचक
साध्य
साधक
लक्ष्य
लक्षक
विधेय
विधेयक
2.
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स्याद्वाद
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
ज्ञेय
ज्ञायक
प्रमाणात्मक
नयात्मक
निश्चयात्मक
व्यवहारात्मक
विज्ञानरूप
वचन रूप निर्देश्य . निर्देशक
मानसिक शुद्धिकर्ता वचनशुद्धिकर्ता अनेकान्तवाद के सप्त भंग (प्रकार) :
यह अनेकान्त सिद्धांत अनेक धर्म विशिष्ट द्रव्य के स्वरूप को प्रमाणित ज्ञान से निरूपित करता है और वह स्यादवाद वस्तु के धर्म के आपेक्षिक कथन को, कथित वचन की सत्यता को, दर्शनों के समन्वय को और पारस्परिक विरोध को दूर कर शान्ति को स्थापित करता है । अत: स्यावाद की प्रक्रिया से अनेक धर्मो की सिद्धि सात प्रकार से होती है उसे सप्तभंगी कहते है। सप्त भंगी प्रक्रिया का स्वरूप आचार्यों ने दर्शाया है - "प्रश्नवशात् एकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधि - प्रतिषेधेविकल्पना सप्त भंगी"।
(तत्वार्थराजवार्तिक: अकलंकदेव: अ.।. सू. 6) तात्पर्य - जिज्ञासु के प्रश्न के कारण एक वस्तु में विरोध रहित विधि एवं प्रतिषेध की कल्पना (रचना) को सप्तभंगी कहते हैं।
"एकत्र जीवादी वस्तुनि एकैक सत्त्वादि धर्म विषय प्रश्न वशात् अविरोधेन प्रत्यक्षा दिवाधापरिहारेण पृथक् भूतयो: समुदितयोश्च विधिनिषेधयो: पर्यालोचनांकृत्वा स्यात्शब्द लांछितो सप्तभिः प्रकार : वचन विन्यास : सप्त भंगी तिगीयते," (मल्लिषेणसूरि : स्याद्वादमंजरी : पृ.209)
जीव आदि पदार्थों में अस्तित्व आदि धर्मो के विषय में प्रश्न करने पर विरोध रहित, प्रत्यक्षादिप्रमाणों से अविरूद्ध पृथक् - पृथक् या सम्मिलित विधि और निषेध के विचार पूर्वक “स्यात्" शब्द से लांछित सात प्रकार की वचन रचना को सप्त भंगी कहते हैं।
एक द्रव्य के एक धर्म का अविरोध रूप से विधि तथा प्रतिषेधरूप वर्णन सात प्रकार से होता है। जैसे शर्वत के मधुर खट्टा, चर्परा, इन तीन रसों का वर्णन सात प्रकार (1-1-1-2-2-2-3) से आस्वाद्य होता है, उसी प्रकार द्रव्य के अस्तित्व धर्म की अपेक्षा अस्ति (है), नास्ति (नहीं है),अवक्तव्य (नहीं कहने योग्य) इन तीन मूलभंगों से सातभंग (1-1-1-2-2-2-3)होते हैं । इसी प्रकार वस्तु के प्रत्येक धर्म के अपेक्षाकृत सात-सात भंग होते है, अतएव द्रव्य अनेक धर्मो का आधार सिद्ध होता है। उदाहरण सहित भंग - (1) स्यात् अस्तिपुस्तकं - पुस्तक अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा है। (2) स्यात्नास्ति पुस्तकं - पुस्तक, अन्यघट के द्रव्य क्षेत्रकाल भाव की अपेक्षा नहीं है। (3) स्यात् पुस्तकं अस्ति - नास्ति - पुस्तक एक साथ स्वद्रव्य क्षेत्रकाल भाव की अपेक्षा है और अन्य
घट के द्रव्यादि की अपेक्षा नहीं है।।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (4) स्यात् अवक्तव्यं पुस्तकं - पुस्तक है और नहीं - इन दो धर्मो को एक साथ नहीं कह सकते है
अतएव अवक्तव्य है, शब्दों द्वारा क्रम से ही कहा जा सकता है। (5) स्यात् पुस्तकं अवक्तव्यं अस्ति - यद्यपि पुस्तक स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा मौजूद है तथापि
उसके अनेक गुण एक साथ शब्दों से नहीं कहे जा सकते है अत: अवक्तव्य है। (6) स्यात् अवक्तव्यं नास्ति -"यद्यपि अन्य द्रव्य के द्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा नहीं है यथापि उसके
निषेध रूप धर्म शब्दों से एक साथ नहीं कहे जा सकते , अत: अवक्तव्य है। (7) स्यात् पुस्तकं अस्ति नास्ति अवक्तव्यम् -
यद्यपि पुस्तक स्वपरद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा उभय (अस्ति - नास्तिरूप) रूप है तथापि पुस्तक के सद्भाव और निषेधरूप धर्मो को शब्दों के द्वारा एक साथ नहीं कहा जा सकता है अत: वस्तु उभयरूप होकर भी अवक्तव्य है। इसी प्रकार वस्तु के अनेक धर्मो में प्रत्येक धर्म का वर्णन सात-सात प्रकार से हो सकता है। अत: अनेक धर्मो की अपेक्षा अनेक सप्तभंगी सिद्ध हो जाती है। जिज्ञासु ज्ञानीजनों के वस्तुस्वरूप को जानने की इच्छा सात प्रकार से होती है अत: सात प्रश्नपूर्वक सात ही भंग कहे गये हैं, शास्त्रों में ।
सप्तभंगी के मूल में दो प्रकार के होते हैं - . (1) प्रमाणसप्त भंगी।
(2) नयसप्तभंगी। (1) उदाहरण - अनन्तधर्मात्मक आत्मा, स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा है और पर द्रव्यादिचार की अपेक्षा नहीं है। अनन्त धर्मो की अपेक्षा अवक्तव्य है इत्यादि सात प्रकार। (2) नयसप्त भंगी - घड़ी स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा - विद्यमान है और अन्य द्रव्य के द्रव्य आदि चार की अपेक्षा विद्यमान नहीं है, इत्यादि ।
अथवा द्रव्यनय की अपेक्षा घड़ी एक है और पर्याय (व्यवहार) नय की अपेक्षा घड़ी अनेक है इत्यादि । अथवा द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा वस्त्र नित्य है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा वस्त्र अनित्य है आदि।
अथवा निश्चयनय की अपेक्षा सूर्य अवाच्य है और व्यवहारनय की अपेक्षा सूर्यवाच्य (शब्दों द्वाराकथनयोग्य) है
अथवा - द्रव्यदृष्टि से एक पुरुष सामान्य है और पर्यायदृष्टि से वह पुरुष क्षत्रिय है, इत्यादि।
उक्त धर्मो के नयविवक्षा से सात - सात भंग हो जाते हैं इसलिये नयसप्तभंगी कहा जाता है। स्यात् पद की व्याख्या :
संस्कृत व्याकरण में “स्यात् “शब्द एक अव्यय है, “कथंचित्" उसका पर्यायशब्द है, जिसका अर्थ होता है - मुख्य - विवक्षा, अपेक्षा,दृष्टिकोण, नयापेक्षा, मुख्यलक्ष्य, वक्ता के मुख्यलक्ष्य का वाचक और गौण तत्व का द्योतक । किन्तु “स्यात्" इस पद का संभव, कदाचित् सन्देह, अनुमानत: अनिश्चय और शायद
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तथा प्राय: ये अर्थ नहीं है, कारण कि इन अर्थो से वस्तु का निश्चय नहीं होता और लोकव्यवहार भी नहीं चल सकता, सप्तभंगी तरंगिणी में कहा गया है कि - "द्योतकाश्च भवन्ति निपाता:","च शब्दात् वाचकाश्च अर्थात् स्यात् आदि अव्यय मुख्य अर्थ के वाचक होते है और अविवक्षित या गौण अर्थ के द्योतक होते हैं, किन्तु गौण अर्थ का निषेध नहीं करते हैं जैसे स्वद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा पुस्तक है यह मुख्य अर्थ का वाचक है और घटद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा पुस्तक नहीं है इस गौण अर्थ का द्योतक है किन्तु निषेधक नहीं है, यह “स्यात्"पद की विशेषता है, यदि मुख्यार्थ को ही मान्य कर लिया जाय और गौण का सर्वथा निषेधकर दिया जाय तो एकान्तपक्ष सिद्ध हो जाएगा और अनेकान्त तत्त्व का लोप हो जायगा।
दूसरा उदाहरण - एक बालक विद्यालय में प्रवेशार्थ गया, प्राचार्य ने प्रवेश समय उसके पिता का नाम पूछा, उसने पिता नाम लिखाया । इस समय बालक के पितृत्व की उस व्यक्ति में मुख्यता है और पुत्रत्व की गौणता है परन्तु पुत्रत्व का उस व्यक्ति में निषेध नहीं है, वह भी अपने पिता का पुत्र है। यदि उस व्यक्ति में पुत्रत्व का सर्वथा निषेधमान लिया जाये तो हास्य का विषय हो जायेगा। कि बिना पिता के पुत्र कहाँ से आ गया । इसलिये वह व्यक्ति एक ही समय में पिता - पुत्र दोनों रूप में है किन्तु लोकव्यवहार में प्रधानता और अप्रधानता से कथन होगा, अन्यथा व्यवहार का लोप हो जायेगा । (सप्तभंगी तरंगणी - पृ. 23) विविधदर्शनों के समन्वय में अनेकान्तवाद :
लोक में दर्शनों का आविष्कार सिद्धांतों की प्रतिष्ठा के लिये होता है और अहिंसा सत्य आदि सिद्धांतों से लोक कल्याण होता है अत: दर्शनों का लक्ष्य भी लोक कल्याण सिद्ध होता है। राष्ट्रों में अथवा देशों में दर्शनों की, सिद्धांतों की, धर्मो की और विविधविचारों की पारस्परिक प्रतिक्रिया, विवाद, वैमनस्य प्राय: देखा जाता है । इस दूषित वातावरण से दर्शनों का लोककल्याण या विश्वमैत्री रूप लक्ष्य सिद्ध नहीं होता है । अत: दर्शनों , सिद्धांतों और विविध विचारों के समंवय की अतिआवश्कता है । वस्तु के यथार्थ तत्वज्ञान के बिना दर्शनों एवं विचारों का समंवय होना कठिन है। दर्शनों की सम्यक् मैत्री के लिये यथार्थ वस्तुत्व विज्ञान, अनेकान्तवाद के माध्यम से ही संभव है वही दर्शनों की मैत्री का प्रबल साधन है ।
___ एकान्तवाद,दुराग्रह या हठवाद से ही पारस्परिक द्वेष विवाद और प्रतिक्रिया की भावनाओं का जन्म होता है। जैसे भगवान महावीर के समय, पदार्थो को एकान्तनित्य कथन करने वाले सांख्यदर्शनकार, क्षणिकवादी बौद्ध दार्शनिकों का तिरस्कार करते थे और बौद्धदार्शनिक, सांख्यदार्शनिकों का तिरस्कार करते
थे। यह पारस्परिक विद्वेष देखकर भ. महावीर की वाणी ने घोषणा की, कि अरे दर्शन कारो! पारस्परिक दुर्भावना की आवश्यकता नहीं, अपितु सद्भावना की आवश्यकता है । यदि सांख्यदर्शनवादी वस्तु को नित्य कहते हैं, तो द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से वह सिद्धांत भी सत्य है, असत्य नहीं है और यदि बौद्धदर्शनवादी वस्तु को क्षणिक कहते हैं तो पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से क्षणिक सिद्धांत भी सत्य है असत्य नहीं है, कारण कि वस्तु का मूलत: नाश नहीं होता है किन्तु कारणवश उसकी पर्याय (हालतें) बदलती रहती है। अत: इस विषय में भ. महावीर का अनेकान्तवाद यही सामंजस्य व्यक्त करता है कि द्रव्यदृष्टिकोण से जगत के पदार्थ नित्य हैं और परिवर्तनशील दशाओं के दृष्टिकोण से पदार्थ क्षणिक हैं । इस प्रकार भ. महावीर की अनेकान्तवाणी ने दोनों दर्शनकारों के मध्य मैत्री भाव जागृत कर दिया।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ___ इसी प्रकार ईश्वरवादी - अनीश्वरवादी, सत् = असत्वादी, एक - अनेकवादी, सामान्य, विशेषधर्मवादी, आत्मवादी-अनात्मवादी, भौतिकवादी, चैतन्यवादी आदि अनेक दर्शनकारों के मध्य अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) समंवय या मैत्री भाव स्थापित करता है। सारांश यह कि स्यादवाद निर्दोषवचन शैली को और अनेकान्त वस्तु के अनेक धर्मत्व को सिद्ध करता है। इसी उभय शैली के प्रभाव से मतान्तरों की मैत्री, समस्याओं का समाधान, विचारों का संशोधन, हिंसा , अन्याय आदि दुष्कृतों का निराकरण और राष्ट्र एवं समाजों का स्थितिकरण तथा संरक्षण होता है। दार्शनिक लोक में अनेकान्तवाद का प्रभाव :
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्य: परिग्रह : ।।
(हरिभद्रसूरि) भगवान महावीर तीर्थकर की शिष्य परम्परा के आचार्य हरिभद्र कहते है कि हमारा महावीर में पक्षपात नहीं है और न कपिल आदि ऋषियों में द्वेषभाव है, किन्तु जिसके युक्ति और प्रमाणपूर्ण वचन है, आत्महित के लिये उन वचनों को अवश्य ग्रहण कर लेना चाहिये । इस नीति के अनुसार पक्षपात या व्यामोह रहित होने से अनेकान्तवाद के द्वारा, परस्पर विरूद्ध सिद्धांतवादी दर्शनों का एवं सम्प्रदायों का समंवय सिद्ध हो जाने पर उसका उन दर्शनों में प्रभाव स्वयंमेव प्रसिद्ध हो जाता है ।लोक का संयोग - वियोग रूप परिवर्तन सापेक्ष, पारस्परिक व्यवहार और विश्व की व्यवस्था स्याद्वाद के माध्यम से ही होती है । अन्यथा लोक व्यवहार में विरोध उपस्थित हो जायेगा । अतएव लोक की स्थिति को देखकर उसको "दुनिया" (दो नयवाली) कहते हैं।
प्राय: सभी दर्शन नयवाद (स्याद्वाद) के द्वारा प्रभावित देखे जाते हैं जैसे ऋजुसूत्र (वर्तमान ग्राही) नय से बौद्धदर्शन, संग्रहनयवाद से वेदान्तदर्शन, नैगमनयवाद से न्यायदर्शन एवं वैशेषिक दर्शन, शब्दनय से शब्दब्रह्म दर्शन, व्यवहारनय से चार्वाकदर्शन प्रमाणित है।
भगवान महावीर तीर्थकर के समय अनेकान्तवाद से क्रियावादी प्रभृति 363 सम्प्रदाय प्रभावित हुए थे। (अहिंसा दर्शन पृ. 299-300)
अपि च - नित्यैकान्तवादी इन्द्रभूति आदि।। दार्शनिक विद्वान, उच्छेदवादी अजित केशकम्बलि आदि दार्शनिक विद्वान भ. महावीर के अनेकान्तवाद से प्रभावित हुए थे अतएव इन्द्रभूति आदि दार्शनिक विद्वान साक्षात् महावीर स्वामी के निकट ही मुनिधर्म में दीक्षित होते हुये गणधर पद पर आसीन हुए थे, उसी समय श्रावणकृष्ण प्रतिपदा के प्रात: भ. महावीर की दिव्यदेशना का शुभारंभ हुआ था। (जैनदर्शन पृ. 59)
भारतीय दर्शनशास्त्र, प्राचीन वेद, उपनिषद् आदि में विश्व के आदिम तत्व के विषय में सत् - असत् -उभय - अनुभय इस प्रकार चार भेदों के द्वारा निश्चय किया गया है । यहाँ पर भी स्यावाद शैली (विवक्षाशैली) के द्वारा ही पदार्थ में परस्पर विरूद्ध धर्मो का निर्णय जानना चाहिये, अन्यथा वस्तुतत्व का निर्णय परस्पर विरूद्ध होने से अशक्य हो जायेगा।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तथाहि - "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति"। (ऋग्वेद 1/164/46) अर्थात् - विप्रविद्वान एक सत् को चार प्रकार से कहते है - (1) सत् (2) असत् (3) उभय -सत्- असत् (4) अनुभय न सत् - न असत् । "सामान्यं द्विविधं प्रोक्तं परंचापरमेव च"
(कारिकावली कारिका 8, टीका पृ. 19) सामान्य दो प्रकार है - (1) परसामान्य - सकलजाति की अपेक्षा सत्ता पर सामान्य है जैसे मनुष्यमात्र ।
किसी जाति विशेष की अपेक्षा, अल्पविषय होने से अपर सामान्य कहा जाता है जैसे विप्र, क्षत्रिय, जैन, हरीजन आदि
"द्रव्यत्वादिक जातिस्तु परापरतयोच्यते ।।१।। द्रव्यत्व आदि जाति दो प्रकार की होती है -
(1) परजाति (2) अपरजाति । उनमें पृथिवीत्व जाति व्यापक होने से द्रव्यत्व जाति पर कही जाती है और मकान, घट आदि पदार्थो में पाई जाने वाली द्रव्यत्व जाति, अल्पदेशवाली होने से अपरजाति कही जाती है, इस प्रकार द्रव्यत्व के अपेक्षाकृत दो भेद कहे गये हैं। (कारिकावली - का. 9. पृ. 20 - 2)
"तंत्र गंधवती पृथिवी । सा द्विविधा - नित्याऽ नित्या च । नित्या परमाणु रूपा, अनित्या कार्यरूपा । इति पृथिव्या, नित्यानित्यत्वम्।"
सारांश - उन नव द्रव्यों में जो गंधवाली है उसे पृथिवी कहते है । वह पृथिवी दो भेद वाली है - (1) नित्यपृथिवी (2) अनित्यपृथिवी
नित्यपृथिवी परमाणु रूप होती है और अनित्यपृथिवी कार्य रूप होती है। जैसे - घट ,घड़ा, घर, घरट्ट आदि पदार्थ । यहाँ पृथ्वी के अपेक्षाकृत भेद कथित हैं। (तर्क संग्रहः प्रत्यक्षप्रकरण: सूत्र 9, पृ. 3)
महात्मा बुद्ध के अव्याकृतवाद का व्याख्यान चार भंगों की अपेक्षा से किया गया है और उन्हीं के समकालीन महात्मा संजय वेलदिठपुत्त के अनिश्चितवाद का व्याख्यान भी, सत् - असत् - उभय-अनुभय इन चार भंगों की अपेक्षा किया गया है। अत: बुद्ध के सिद्धांत भी अनेकान्तवाद से प्रभावित थे।
(जैनदर्शन : डॉ. महेन्द्र कुमार पृ. 535) इस प्रकार विविध दर्शन शास्त्रों के उक्त प्रकरणों में वस्तुत्व का निर्णय विवक्षा के बल से ही किया गया है, यही स्याद्वाद की शैली है। वैज्ञानिक लोक में अनेकान्तवाद का प्रभाव :
__जिस प्रकार निश्चयत: दार्शनिक लोक में अनेकान्त सिद्धांत प्रभावशील है उसी प्रकार विज्ञान के आलोक में भी अनेकान्त / स्यावाद प्रभावशील देखा जाता है। स्यावाद और विज्ञान में कोई विरोध प्राय: नहीं देखा जाता है कारण कि दोनों सिद्धांत प्राय: द्रव्यशक्ति की परीक्षा करने वाले एवं उपयोगी है। अनेकान्त
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ने जिस प्रकार द्रव्य की शक्तियों एवं गुणों का आख्यान कर उनकी उपयोगिता को सिद्ध किया है, उसी प्रकार वैज्ञानिकों ने भी पदार्थो में अनंत शक्ति, गुण , दशाएँ (पर्याय), व्यय नित्य - उत्पाद, संयोग एवं वियोग को अपेक्षाकृत स्वीकृत किया है । वैज्ञानिकों ने विज्ञान प्रयोगशाला में, अनेक वस्तुओं तथा अनेक अंशो के सम्मिश्रण एवं पृथककरण से हजारों पदार्थो के आविष्कार किये है जो वर्तमान में दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
इतना विशेष ज्ञातव्य अवश्य है कि अन्तरात्माज्ञानी एवं विश्वदर्शी भ. महावीर स्वामी ने जो सूक्ष्मपदार्थ विज्ञान दर्शाया है उसकी तुलना आधुनिक भौतिक विज्ञान नहीं कर सकता । भौतिक विज्ञान जहाँ पर अपनी सीमा समाप्त करता है वहाँ भ महावीर का आध्यात्मिक विज्ञान अपनी सीमा प्रारंभ करता है तथापि आध्यात्मिक विज्ञान और भौतिक विज्ञान में अनेक तत्वों में समानता एवं अनुकूलता सिद्ध होती है । यथा अनेकान्त / स्याद्वाद के विषय में कुछ वैज्ञानिक उद्धरण: -
__ अमेरिका राष्ट्र के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. डॉ. आर्चीब्रह्म पी.एच.डी.महोदय ने अनेकान्त के महत्व को स्वीकृत किया है -
"The Anehanta is na impartant principle of Jain logic, not commonly asserted by the western or Hindu Lagician, witch Promises much for world -pease through metaphysical hormony." (he Voice of Ahimsa Vol. I, P. 3.)
जर्मनदेश के विज्ञानयोगी सर अल्वर्ट आइन्स्टाइन महोदय ने अपने युग में स्यावाद और विज्ञान के समन्वय में महान् प्रयत्न किया । आपने सन् 1905 में सापेक्षवाद (he Theroy of Relativity) का आविष्कार कर, विविध समस्याओं के समाधान में और दैनिक जीवन व्यवहार में सापेक्षवाद का उपयोग किया । सापेक्षवाद ही स्यावाद का दूसरा पर्याय शब्द है - (धर्मयुग 22 अप्रैल सन् 1956)
अंग्रेजी भाषा में स्यावाद के विषय में आइन्स्टाइन के सद्विचार -
"We can know only the relative truth, the real truth is knowen to the unicersal observer."
तात्पर्य - हम सभी मानव अल्प शब्द ज्ञान वाले हैं, इसलिये केवल सापेक्षसत्य को ही जानने में समर्थ हो सकते हैं। वस्तुओं के निश्चय पूर्ण सत्य को तो (Absolute truth) केवल विश्वदृष्टा ही जानने में समर्थ है। स्पष्टभाव यह है कि हम सब अल्पज्ञानी मानव अपेक्षावाद (स्याद्वाद) से ही वस्तु के एक देश को जान सकते हैं परन्तु विश्वदर्शी आत्मा प्रमाण ज्ञान के द्वारा लोक के सब पदार्थो को स्पष्ट जानने में समर्थ है।
(अनेकान्त वर्ष 11, किरण 3, पृ. 243) पाश्चात्य दार्शनिक विद्वान विलियमजेम्स महोदय के प्राग्मेटिज्म (Pragmatism) के सिद्धांत की तुलना, अनेकदृष्टियों से स्यावाद के साथ सिद्ध होती है।
ग्रीकदेश में स्थापित इलियाटिक (Eleatic) सम्प्रदाय की मान्यता थी - “यह जगत परिवर्तन से हीन नित्य है ।" इसके विरुद्ध हिरीक्लीटियन (Herectition) सम्प्रदाय की मान्यता थी - “जगत सर्वथा परिवर्तनशील अनित्य है।“ परस्पर विरुद्ध इन दोनों मतों के समंवय को करने वाले तीन दार्शनिक विद्वानों की
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
मान्यता थी :- "जगत के पदार्थ नित्य होते हुए भी आपेक्षिक परिवर्तनशील (अनित्य) है ।" यहाँ पर स्याद्वाद से तुलना की गई है। तीन दार्शनिक विद्वानों के नाम -
1. एम्पीडोक्लीज
(Empedocles)
(Atomists)
12. एटोमिस्ट्स 3. इनैक्सागोरस
(Anaxagoras)
जर्मनदेशीय तत्ववेता हेगल (Hegel) महोदय की मान्यता है कि विरूद्ध धर्मात्मक वस्तु का सिद्ध होना ही संसार का मूल है। किसी वस्तु के वास्तविक तत्व का वर्णन अवश्य करना चाहिये, परन्तु उसके साथ वस्तु के विरूद्ध दो धर्मो का वर्णन समन्वय रूप में भी करना आवश्यक है । अन्यथा वस्तु का पूर्ण व्यवहार नहीं हो सकता ।
श्री ब्रेडले महोदय की मान्यता है कि “प्रत्येक वस्तु निज रूप में आवश्यक होते हुए भी, उससे इतर्वस्तु की तुलना में तुच्छ भी है।" यहाँ विवक्षा से वस्तु को मुख्य एवं गौण कहा गया है।
(अहिंसा दर्शन पृ. 302-303)
भारतीय दार्शनिक प्रो. हरिसत्यभट्टाचार्य ने जैनदर्शन में नयों (विवक्षासे एकदेशज्ञान) के अध्ययन को, यूरोपीय अर्वाचीन तर्कशास्त्र के सिद्धांत की तुलना के रूप में कहा है। यूरोपीय तर्कशास्त्र का सिद्धांत - "जैसा जैसा वस्तु का विश्लेषण किया जाता है, वैसा - वैसा उसका सूक्ष्म होता जाता है और वह सामान्य धर्म से विशिष्ट रूप होता जाता है ।" यहाँ पर भी सामान्य विशेष रूप स्यादवाद शैली सिद्ध होती है। (अनेकान्त पत्रिका वर्ष 11, किरण 3, पृ. 245)
भारतीय दार्शनिक डॉ. सम्पूर्णानन्द महोदय का अभिमत :
जैनदर्शन ने दर्शनशब्द की काल्पनिक भूमि को छोड़कर वस्तु स्थिति को आधार से, संवाद के समीकरण में और यथार्थ तत्वज्ञान के विषय में अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद भाषा को लोक के लिये प्रदान किया है । (डॉ. महेन्द्र कुमार जैनदर्शन पृ. 560 )
इस प्रकार विज्ञान के आलोक में अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद का प्रकृष्ट प्रभाव दर्शाया गया है। लोक व्यवहार में प्रभावशील अनेकान्तवाद :
लोक का समस्त व्यवहार, वातावरण और पर्यावरण स्यादवाद या अपेक्षावाद से प्रभावित है । मानव का एवं प्राणी मात्र का समस्त व्यवहार तथा वातावरण अपेक्षाकृत संयोग और वियोग से आनंदप्रद एवं उपयोगी होता है। अपेक्षा के बिना क्षणमात्र भी लोकव्यवहार या लोकव्यवस्था कार्यकारी नहीं हो सकती । जैसे स्वस्थपुरुष की अपेक्षा स्नान हितकर है और ज्वराक्रान्त रोगी की अपेक्षा स्नान अहितकर है । स्वस्थ पुरुष की अपेक्षा अन्नाहार पौष्टिक है और सन्निपातरोगी की अपेक्षा अन्नाहार प्राणनाशक है इत्यादि । अपेक्षावाद के कर्त्तव्यमार्ग का अन्वेषण होता है, कर्त्तव्यान्वेषण से मानवों के सत्यतत्व में प्रवृत्ति सदैव प्रवाहित होती है। इसी विषय को जैनशास्त्रों में व्यक्त किया गया है,
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैण विणा लोगस्सति, विवहारो सव्वाहनणिव्वडइ । तस्स भुवणेक्क गुरुणों, णमो अणेगंत - वायस्स ॥
_(सन्मतितर्क प्रकरण : सिद्धसेनदिवाकर: अ.3/68) जिस अनेकान्त के बिना लौकिक व्यवहार सुलभ रीति से अच्छी तरह नहीं चल सकता है, उस लोक के मुख्य गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार है।
किसी मानव की वार्ता को सुनकर सहसा विरोध नहीं करना चाहिये, किन्तु अपेक्षाकृत विचार करके ही उस वार्ता का हेय, उपादेय एवं अपेक्षा रूप निर्णय करना चाहिये । अन्यथा विचार या निर्णय करने पर कलह आगे - आगे दौड़ता है। किसी प्रबुद्ध व्यक्ति के उपदेश को सुनकर, किसी लेखक की रचना को पढ़कर विवक्षा या अपेक्षा से ही उसका विचार करना चाहिये । कारण कि विवक्षाकृत विषय प्रतिपादन विवाद या विरोध रहित होता है, अन्यथा पद - पद पर विरोध होता है।
हमारा कथन ही सत्य है किन्तु आपका कथन असत्य है यह हठवाद उपयोगी नहीं है किन्तु विरोध का उत्पादक है । इसलिये स्यावाद या अपेक्षाकृत शैली से जीवन का विकास, पास्परिक मैत्री, सहयोग, समाजसुधार , विवाह कार्य , सामाजिक - आदान - प्रदान, धार्मिक महोत्सव, गृहस्थाश्रम संचालन, व्यापार, परोपकार, भोजन, चिकित्सा, व्यायाम, विद्याध्ययन आदि सभी कार्य द्रव्य क्षेत्र काल भाव के विचार पूर्वक श्रम से करना चाहिये।
अपिच निमित्त उपादान, निश्चयव्यवहारनय, भाग्य, पुरुषार्थ, पुण्यपाप, धर्म - अधर्म, द्रव्य गुण पर्याय विषयक, सामाजिक विवाद अपेक्षाकृत शैली से निरस्त किये जा सकते हैं।
___ अपिच - साम्प्रदायिकद्वेष, सामाजिक द्वेष, शारीरिक वर्णद्वेष, भाषाविरोध, प्रान्तविरोध, पदाधिकारविरोध आदि अनैतिक तत्वों को स्याद्वादशस्त्र से खण्डित कर राष्ट्रीय क्षेत्र में परमशान्ति को स्थापित करना नितान्त आवश्यक है।
एक समय अकबर बादशाह ने विनोद के प्रसंग में ब्लेकबोर्ड पर चाक से लम्बी रेखा खींचकर बीरबल से कहा - यदि तुम वास्तव में बुद्धिमान हो, तो इस वोर्ड की लम्बी लाइन को बिना मिटाये ही छोटी कर दो । बीरबल ने बड़ी चतुराई से उस लाईन के नीचे एक बड़ी लाईन खींचकर बादशाह को उत्तर दे दिया बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ। अर्थात् नीचे की बड़ी लाईन की अपेक्षा बादशाह की लाईन बिना मिटाये ही छोटी हो गई ।यह स्यावाद (अपेक्षाकृत) शैली का ही प्रभाव है। अहिंसाक्षेत्र में अनेकान्तवाद का प्रभाव :
अनेकान्तवाद से पदार्थ के अनेक धर्मो (गुणों) का ज्ञान होता है । आत्मा के अनेक गुणों में अहिंसा भी एक गुण है । क्रोध का आवेग, अभिमान, मायाचार, लोभ, तृष्णा, असत्य, असंयम इन दुरभावों से अपने या अन्य किसी प्राणी के, ज्ञानादिभावप्राणों का एवं शरीर आदि द्रव्यप्राणों का घात करना हिंसा कहा जाता है। हिंसा का परित्याग कर क्षमा, विनय सदाचार, विशुद्धि, संयम, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि गुणों का मनसा वाचा कर्मणा आचरण करना अहिंसा कहा जाता है। अहिंसा की तीन कक्षाएं होती हैं -(1) सामान्य
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अहिंसा (2) अहिंसा अणुव्रत (3) अहिंसा महाव्रत । जीवन में इस अहिंसा धर्म की साधना भी कक्षाओं की अपेक्षा और द्रव्य , क्षेत्र, काल, भाव (परिणाम) की अपेक्षा से होती है। बिना अपेक्षा के अहिंसा के स्थान पर हिंसा का दुष्परिणाम भोगना पड़ता है।
__ अहिंसा विश्वशान्ति करने में, जीवन में संरक्षण में और जन्ममरण आदि दुःखों के निवारण करने में माता के समान है। अहिंसा न केवल शास्त्रों में और शब्दों में कथित है, अपितु जीवन में आचरण करने के लिये मानसिक अहिंसा, वाचनिक, अहिंसा एवं शारीरिक अहिंसा अपना प्रमुख स्थान रखती है। यही जीवन का परम लक्ष्य होना आवश्यक है। अहिंसा के विषय में धर्मग्रन्थों की घोषणा है :
अहिंसा परमो धर्म: तथा हिंसा परो दम: ।
अहिंसा परमंदानं, अहिंसा परमं तपः ॥ तात्पर्य -
प्राणियों का रक्षक, होने से अहिंसा परम धर्म है। पंच इन्द्रियों एवं मन का वशीकरण करना अहिंसा है। श्रेष्ठ दान करना या परोपकार करना अहिंसा है । इच्छाओं का निरोधकर परम संयम का पालन करना अहिंसा है। आहेसासे कर्त्तव्य में सफलता प्राप्त होती है। उपसंहार -
जैनदर्शन एक विश्वदर्शन है कारण कि वह मोह राग द्वेष आदि दुर्गुणों के विजेता जिनदेव के द्वारा प्रणीत है, वह किसी वर्ग विशेष का धर्म नहीं है। जैनदर्शन के अनेक सिद्धांतों में अनेकान्तवाद स्याद्वाद एक अद्वितीय सिद्धांत है । पदार्थ के समस्त गुणों को जानने के लिये अनेकान्तवाद का और उन गुणों को क्रमश:कहने के लिये स्यावाद का उदय हुआ है । एक पदार्थ में परस्पर विरोधी दो धर्मो की सत्ता होना अथवा अनन्त धर्मो की सत्ता का निर्देशक अनेकान्तवाद है और उन धर्मों की अपेक्षाकृत कथन की शैली स्यावाद है ।अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में वाच्यवाचक आदि सम्बंधों की अपेक्षा अंतर है,सामान्य से नहीं है । अनेकांतवाद के सप्तभंग प्रश्न की अपेक्षा से होते है । स्याद्वाद में स्यात् पद अर्थ अपेक्षा या दृष्टिकोण है । अनेकान्तवाद से विविध दर्शनों या विचारों में समन्वय होता है । अनेकान्तवाद को आधुनिक वैज्ञानिक भी सिद्ध करते है। लोक व्यवहार के समस्त कार्य अनेकान्तवाद से सफल एवं आनंदप्रद होते है । अहिंसा की कक्षाओं की साधना द्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा होती है। अंत में अहिंसा की परिभाषा एवं जीवन में उसकी उपयोगिता अपेक्षाकृत सिद्ध की गई है।
इमां समक्ष प्रतिपक्षसाक्षिणां, उदारघोषां अवघोषणां त्रुवे । न वीतरागात्परमस्तिदैवतं, न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थिति : ॥
(हेमचंद्राचार्य : स्यामंजरी भूमिकापृ. 17) श्री हेमचंद्राचार्य घोषणा करते है कि वीतरागी के समान कोई देव नहीं और अनेकान्त के समान कोई न्याय मार्ग नहीं है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन दर्शन में नयचक्र का वैज्ञानिक अनुसंधान
भारत के प्राय: सब ही दर्शनकारों ने इस मान्यता को प्रमुख स्थान दिया है कि समीचीन वस्तु तत्त्वज्ञान श्रेयस्कर एवं आत्मशुद्धि को करने वाला है, इसके बिना मानव जीवन की यात्रा शान्ति के साथ सम्पन्न नहीं हो सकती। परम सुख शान्ति का मूल कारण यह तत्त्वज्ञान ही हैं। इसी निर्दोष तत्त्वज्ञान को सभी दर्शनकारों ने प्रमाण शब्द से घोषित किया है । दार्शनिक ग्रन्थों में विभिन्न दर्शनवादियों ने, अपनी - अपनी मान्यता के अनुसार प्रमाण के लक्षण और भेदों का प्रणयन किया है । जब किसी भी दर्शनकार से कोई शिष्य प्रश्न करता है कि जगत के पदार्थो की यथार्थ जानकारी किस उपाय से होती है ? तब दर्शनकार उत्तर देता है कि प्रमाण से ही पदार्थो का ज्ञान होता है, प्रमाणाभास से नहीं।
उक्तं च "प्रमाणादर्थसंसिद्धि:, तदाभासाद् विपर्यय:"॥ प्रमाण का लक्षण और उसके भेदों को जानने के लिए विभिन्न दर्शनवादियों की प्रमाण विषयक मान्यताएं इस प्रकार हैं :1. चार्वाकदर्शन :- इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण कहा जाता है इस दर्शन में एक ही प्रमाण “प्रत्यक्ष" माना
गया है। प्रणेता- बृहस्पति 2. बौद्धदर्शन :- विवाद रहित ज्ञान प्रमाण कहा जाता है। महात्मा बुद्ध ।
इस दर्शन में दो प्रमाण माने गये है :- 1, प्रत्यक्ष, 2 अनुमान वैशेषिकदर्शन :- इसमें भी दो प्रमाण कहे गये हैं - ईश्वरकर्तावादी कणादमुनिप्रणीत - 1. प्रत्यक्ष
प्रमाण, 2. अनुमान प्रमाण 4. सांख्यदर्शन :- इस दर्शन में इन्द्रिय व्यापार को प्रमाण माना है इसके तीन भेद हैं। 1. प्रत्यक्ष,
2. अनुमान, 3. उपमान । इसके दो विभाग 1. निरीश्वर सांख्य दर्शन (कपिलमुनि प्रणीत) 2. ईश्वरवादी
सांख्य दर्शन (योगदर्शन) - पतंजलि प्रणीत । 5. नैयायिक दर्शन :- प्रमाक्रिया के प्रति जो करण है वह प्रमाण है । इसके चार भेद हैं। 1. प्रत्यक्ष,
2. अनुमान, 3.उपमान, 4.शाब्द । गौतम ऋषि प्रणीत । (अ) प्राचीननैयायिक :- कारकसाकल्य (कारण सामग्री) को प्रमाण कहते हैं। ये दर्शन वादी भी उक्त चार
ही प्रमाण कहते हैं। 6. प्राभाकरदर्शन :- इस दर्शन में आत्मानुभूति को प्रमाण का लक्षण माना गया है, इस प्रमाण के पंचभेद
कहे गये हैं - 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3.उपमान, 4. शाब्द, 5. अर्थापत्ति । 7. भाट्टदर्शन (जैमिनीदर्शन):- इस दर्शन में प्रमाण का लक्षण इस प्रकार है - पूर्व में नहीं जाने गये
पदार्थ के यथार्थ निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, इसके छह भेद कहे गये है - 1. प्रत्यक्ष,
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 2. अनुमान, 3.उपमान, 4. शाब्द, 5. अर्थापत्ति, 6. अभाव । इसको पूर्व मीमांसा दर्शन भी कहते हैं -
वेदवाक्यं प्रमाणम्। 8. वेदान्त दर्शन :- यह दर्शन भी भाट्टदर्शन की तरह छह प्रमाण भेदों को स्वीकार करता है ।
उत्तरमीमांसादर्शन (व्यासप्रणीत -ब्रह्माद्वैतवाद) 9. कोई दर्शनकार :- प्रमाण के सात भेदों को मानते हैं - 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3.उपमान, 4. शाब्द, 5.
अर्थापत्ति, 6. सम्भव, 7. अभाव। 10. पौराणिक - पौराणिक आचार्य पुराण को प्रमाण मानते हुए प्रमाण के आठ भेदों को स्वीकार करते हैं।
1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3.उपमान, 4. शाब्द, 5. अर्थापत्ति । 6. अभाव , 7.सम्भव, 8. ऐहिह्य (इतिहास) 11. जैन दर्शन :- इस दर्शन में पदार्थो के सम्यक्ज्ञान को प्रमाण का निर्दोष लक्षण माना गया है और प्रमाण
के दो प्रकार कहे गये हैं - 1.प्रत्यक्ष (इन्द्रिय तथा मन की अपेक्षा के बिना शुद्ध आत्मा से होने वाला ज्ञान), 2. परोक्ष (इन्द्रिय तथा मन की अपेक्षा से आत्मा में होने वाला ज्ञान)।
यद्यपि जैन दर्शन में आचार्यों ने प्रमाण का लक्षण और भेद अवश्य कहे हैं परन्तु पदार्थो का ज्ञान केवल प्रमाण से ही नहीं कहा है, अपितु पदार्थतत्वज्ञान के लिए द्वितीय प्रकार “नय"का भी एक विचित्र आविष्कार किया है जो अन्य दर्शनों से विशिष्ट एवं अपूर्व है । नयज्ञान के अनुसंधान की भूमिका निम्नलिखित पद्धति से है -
अंतिम तीर्थंकर भ. महावीर स्वामी की आचार्य परम्परा के अंतर्गत, विक्रम की द्वितीय शताब्दी के मध्य में हुए आचार्य उमास्वामी का प्रभाव भारत में अधिक व्यापक हो रहा था। सैद्धांतिक तत्वों का प्रवचन करने के कारण आप को “वाचक" पद से विभूषित किया गया। उस समय गुजरात प्रदेश के शिविर में आप के महत्वपूर्ण दार्शनिक प्रवचन प्रचलित हो रहे थे।
सौराष्ट्र के एक संस्कृतज्ञ द्वैपायक (सिद्धय्य) नामक जैन विद्वान ने एक दिन तत्वज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से शिविर में जाकर पूज्य श्री उमास्वामी आचार्य के प्रति प्रश्न किया कि हे गुरुवर्य ? तत्वज्ञान प्राप्त करने का सरल संक्षिप्त तथा युक्तिपूर्ण उपाय क्या है ? श्री आचार्य प्रवर ने सरल एवं संक्षिप्त शैली में संस्कृत भाषा के माध्यम से उत्तर दिया - "प्रमाणनयैरधिगमः" (तत्त्वार्थसूत्र अ.।, सूत्र-6) अर्थात् जीवादिसात तत्त्वों, छह द्रव्यों, नवपदार्थो और रत्नत्रय का ज्ञान यथार्थ रीति से प्रमाण एवं नय की पद्धति द्वारा प्राप्त होता है।
___ द्रव्यों तथा उनके सम्पूर्ण गुण एवं पर्यायों को, तथा तत्त्वों पदार्थो और सम्यक् रत्नत्रय को नि:संदेह स्पष्ट (विशद) जानने वाले यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, इसमें इन्द्रियों, मन आदि की अपेक्षा नहीं होती है, ज्ञानस्वरूप आत्मा ही द्रव्यों को विशद (स्पष्ट) जानता है। श्री माणिक्यनंदी आचार्य ने प्रमाण का स्वरूप कहा है - 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं' अर्थात् अपने को तथा अनिश्चित या अज्ञात पदार्थ को निर्णय या निश्चय करने वाले संदेह रहित ज्ञान को प्रमाण कहते हैं । अथवा 'सम्यग्ज्ञान प्रमाणम्' अर्थात् पदार्थो के समीचीन ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। श्री समंतभद्र आचार्य द्वारा सम्यग्ज्ञान की व्याख्या की गई है।
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अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज् ज्ञानमागमिनः ।।
(रत्नकारण्ड ज्ञावकाचार श्लोक - 42 ) जो ज्ञान पदार्थ (द्रव्य) के स्वरूप को न्यूनतारहित, अधिकतारहित, विपरीततारहित, यथार्थ, संदेहरहित जानता है उसको आगम के ज्ञाता आचार्य सम्यग्ज्ञान या प्रमाण ज्ञान कहते हैं।
प्रमाणज्ञान (सम्यग्ज्ञान) दो भागों में मुख्यतः विभक्त है 1. प्रत्यक्ष, 2. परोक्ष | प्रत्यक्ष ज्ञान में वह विशेषता है कि वह ज्ञान इन्द्रिय, मन, पदार्थ, प्रकाश, उपनेत्र, (चश्मा), कर्णयंत्र, पुस्तक शिक्षक, अक्षर, लेखनकला, मुद्रणकला, टंकणकला (टाईपिंग), टेलीफोन टेलीग्राम, चित्र आदि बाह्यनिमित्तों के बिना ही ज्ञान स्वरूप आत्मा से ही उत्पन्न होता है। इसके दो प्रकार हैं 1. एक देश प्रत्यक्ष ज्ञान, 2. सर्वदेश प्रत्यक्ष ज्ञान। एक देश प्रत्यक्ष ज्ञान की दो धाराएं हैं - 1. अवधिज्ञान, 2. मन:पर्ययज्ञान | अवधि ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम होने पर, द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से जो ज्ञान, इन्द्रिय मन प्रकाश आदि की सहायता के बिना, मात्र ज्ञानस्वरूप आत्मा से पदार्थ को स्पष्ट जानता है वह अवधिज्ञान कहा जाता है ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
मनः पर्ययज्ञानावरण कर्म का क्षयोपगम होने पर, द्रव्यक्षेत्र काल भाव की अपेक्षा या सीमा लिए हुए जो ज्ञान, इन्द्रिय, मन प्रकाश आदि बाह्यनिमित्त के बिना, किसी संज्ञी प्राणी के मन में विचारित पदार्थ को आत्ममात्र से स्पष्ट (विशद) जानता है वह मन: पर्ययज्ञान कहा जाता है।
सर्वदेश प्रत्यक्षज्ञान, केवल ज्ञान नाम से कहा जाता है जो ज्ञान केवल ज्ञानावरणकर्म का क्षय होने पर, किसी अन्य पदार्थ की सहायता के बिना, ज्ञानस्वभावी आत्मा में ही व्यक्त होकर, लोक अलोक, समस्त द्रव्यगुण और पर्यायों को एक साथ स्पष्ट (निर्मल), दर्पण की तरह जानता है एवं सूर्य के समान प्रकाशमान होता है वह केवल ज्ञान सार्थक नाम है ।
प्रमाण का दूसरा मुख्य विभाग परोक्ष प्रमाण है जो ज्ञान इन्द्रियों, मन आदि साधनों से आत्मा में व्यक्त होता है वह परोक्षज्ञान प्रसिद्ध है, इसको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहते है । इसके प्रमुख दो विभाग है 1.मतिज्ञान 2. श्रुतज्ञान । मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशमरूप अंतरंगनिमित्त के प्राप्त होने पर, बहिरंगनिमित्त यथायोग्य पाँच इन्द्रियां, मन, आदि के माध्यम से पदार्थ (वस्तु) का जो प्रथम ज्ञान होता है वह मतिज्ञान के नाम से प्रसिद्ध है जैसे यह पुस्तक है यह मनुष्य है इत्यादि ।
श्रुतज्ञानावरणकर्म की क्षयोपशमदशा होने पर, मतिज्ञान के द्वारा जाने गये पदार्थ के विषय में विशेष ज्ञान का व्यक्त होना प्रथमश्रुतज्ञान कहा जाता है, इसके बाद वस्तु का विशेष ज्ञान होना द्वितीय श्रुतज्ञान कहा जाता है इस उत्तरोत्तरकाल में श्रुतज्ञान की परम्परा चलती जाती है इस सब श्रुतज्ञान की परम्परा या वृद्धि को श्रुतज्ञान नाम से ही कहा जाता है, यह श्रुतज्ञान मन के चिंतन तथा गुरु के शिक्षण, पुस्तक के अध्ययन मन आदि बाह्यनिमित्तों के माध्यम से होता है जैसे यह पुस्तक कौन विषय की है, क्या मूल्य है किस विषय का वर्णन है उसका अध्ययन मनन इत्यादि ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जगत के अज्ञानी प्राणियों की जानने या किसी भी वस्तु का ज्ञान करने की सामान्य प्रक्रिया ही यह है कि सबसे प्रथम वस्तु की सामान्य सत्ता का प्रतिभास होता है जिसको दर्शन शब्द से कहा जाता है इसका समय बहुत सूक्ष्म होता है जो हम सबके जानने में नहीं आ पाता है, इस सामान्य प्रतिभास (झलक) के अनंतरकाल में ही वस्तु के आकार एवं वर्ण का ज्ञान रूप अवग्रहज्ञान, वस्तु के चिह्न लक्षण विचार रूप ईहा ज्ञान, इसके बाद चिह्नों के निर्णय से वस्तु का निश्चय रूप अवायज्ञान और इसके अनंतर ही बहुत समय तक निर्णीत वस्तु का ज्ञान स्थिर हो जाना रूप धारणाज्ञान होता है। यह सब सामग्री तथा ज्ञान की सूक्ष्म धाराएं मिलकर एक मतिज्ञान ही यथायोग्य होता है । इसके अनंतर प्रथम श्रुतज्ञान होता है तथा उत्तरोत्तरकाल में श्रुतज्ञान की द्वितीय आदि परम्परा यथायोग्य चलती जाती है, यह विशेष ज्ञान की परम्परा ही श्रुतज्ञान का रूप धारण करती है। अर्हतसर्वज्ञ केवलज्ञानी के क्षायिक ज्ञान होने से दर्शन तथा ज्ञान एक साथ व्यक्त होते है यह विशेषता ज्ञान की होती है जगत के प्राणियों के सदृश उस ज्ञान में क्रम नहीं होता है।
द्वितीय दृष्टि (वस्तुज्ञान की अपेक्षा) से प्रमाण ज्ञान के अन्य दो विभाग हैं - 1. स्वार्थप्रमाण, 2. परार्थप्रमाण । ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थप्रमाण कहते हैं और वचनात्मक (शब्दात्मक) प्रमाण को परार्थप्रमाण कहते है पाँच ज्ञानों के मध्य में मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान - इन चार ज्ञानों में, अपने को तथा अन्य पदार्थो को जानने की शक्ति तो है, परन्तु शब्दों द्वारा दूसरे व्यक्तियों को ज्ञान कराने (समझाने) की शक्ति नहीं है अत:ये चार ज्ञान स्वार्थप्रमाण हैं। किन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ तथा परार्थ दोनों रूप है कारण कि वह स्वयं (निज) तथा अन्य को जानता भी है और शब्दों द्वारा दूसरे मानवों को ज्ञान भी कराता है इसी कारण से श्रुतज्ञान के शब्दश्रुत तथा अर्थश्रुत ये दो भेद कहे गये हैं, अन्य चार ज्ञान के शब्द ज्ञान भेद नहीं है । अर्थात् भाषाभिव्यक्ति का कारण नहीं है । यह वचनात्मक श्रुतज्ञान ही नय प्रयोग को जन्म देता है । नय का सामान्य लक्षण यह है कि प्रमाणसिद्ध वस्तु के एक अंश को किसी दृष्टिकोण से ग्रहण करना । इसी विषय को श्री पूज्यपाद आचार्य ने कहा है - "सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च 2 तत्र स्वार्थ प्रमाणं श्रुतवज्यं । श्रुतं पुन: स्वार्थ भवति परार्थच । ज्ञानात्मकं स्वार्थ, वचनात्मकं परार्थ। तद्विकल्पा:नया: । प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणंनयः इति ।" (सर्वार्थसिद्धि सूत्र पृ. 6)
___ भावार्थ - समीचीन वस्तु के ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। वह प्रमाण दो प्रकार का होता है - स्वार्थ और परार्थ । उनमें स्वार्थ प्रमाण श्रुतज्ञान को छोड़कर चार ज्ञान कहे जाते हैं परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ तथा परार्थ दोनों रूप होता है । ज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण और वचनस्वरूप परार्थप्रमाण कहा जाता है, उससे नयों का जन्म होता है। प्रमाण से वस्तु को जानकर विवक्षावश वस्तु के एक अंश को ग्रहण करना ही नय कहा जाता है । वस्तु या पदार्थ के सम्पूर्ण स्वरूप को स्पष्ट जानने की सामर्थ्य सर्वज्ञ (सर्वदर्शी) आत्मा में होती है पर अल्पज्ञानी, परोक्षज्ञानी संसारी आत्मा में वस्तु के सर्वाश को जानने की शक्ति नहीं है वह तो वस्तु के एक देश को किसी भी विवक्षा से जान सकता है और उससे अपना प्रयोजन सिद्ध कर सकता है इसलिए नयज्ञान
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आवश्यकता है । शब्दों के माध्यम से वस्तु का एकधर्म कहकर लोक व्यवहार चलाया जाता है अतः नय की आवश्यकता होती है ।
जैनदर्शन तीर्थ का प्रवर्तन लोक में स्याद्वाद पद्धति के ज्ञाता आचार्यो द्वारा ही होता है इस कथन को आचार्य अमृतचंद जी ने पुष्ट किया है.
मुख्योपचारविवरण- निरस्तदुस्तरविनेयदुर्योधाः । व्यवहार निश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥
(पुरूषार्थसिद्धयुपाय श्लोक - 4)
मुख्य तथा उपचाररूप नय की व्याख्या से शिष्यों एवं श्रोताओं के गहन अज्ञानान्धकार को दूर करने वाले तथा व्यवहार निश्चय के ज्ञाता आचार्य इस विश्व में धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं ।
तीर्थंकरों के प्रमुख गणधरों द्वारा भी द्वादशांग शास्त्रों की रचना स्याद्वाद (नयचक्र) के आधार पर होती है कवि द्यानतराय ने कहा है कि
सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर, गूंथे बारह सुअंग । रवि शशि न हरे सो तम हराय, सो शास्त्र नमों बहुप्रीति लाय ॥
(देव शास्त्र गुरु पूजन, जयमाल )
श्री अमृतचंद्र आचार्य के पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ में नयों की आवश्यकता पर एक गाथा का उद्धहरण दिया गया है। हिन्दी टीकाकार ने श्लोक नं. 8 की टीका में कहा है
जड़ जिणमयं पवज्जइ, ता मा ववहारणिच्छए मुअह ।
एकेण विणा छिज्जई, तित्थं अण्णेण पुण तच्चं ॥
सारांश - विश्व में यदि जिनमत को प्रसारित करना चाहते हो तो निश्चय तथा व्यवहार नयों में से एक भी नय को मत छोड़ो, कारण कि एक व्यवहार के बिना धर्मतीर्थ का लोप हो जायेगा और दूसरे निश्चय न मानने पर वस्तुतत्त्व एवं आत्मतत्त्व का लोप हो जायेगा । अत: नयज्ञान आवश्यक है।
स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद परमागम या जैनदर्शन का मूल कारण है उसके बिना जैन सिद्धांत की रचना नहीं हो सकती और स्याद्वादनय को जाने बिना जैन सिद्धांत का रहस्य नहीं जाना जा सकता । अतः नयवाद और उसके प्रयोग का ज्ञान करना नितांत आवश्यक है ।
नय की सामान्य परिभाषा -
अनेक धर्म विशिष्ट पदार्थ के, विवक्षित दृष्टिकोण से किसी एक धर्म को ग्रहण करना या जानना न कहा जाता है, अथवा व्यक्ति अपने अभिप्राय से जो एक अंश, वस्तु का कथन करता है या उपयोग करता है उसे नय कहते हैं । श्री अकलंकदेव द्वारा कथित नय की व्याख्या " प्रमाणप्रकाशितार्थ विशेष प्ररूपको नयः " I
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अर्थात् प्रमाण के द्वारा सिद्ध अनेक धर्मात्मक पदार्थ के किसी एक धर्म विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान नय कहा जाता है । (राजवार्तिक पृ. 14. सूत्र 33 वार्तिक -1) श्री देवसेन आचार्य के मत से नय की परिभाषा -
"प्रमाणेन वस्तुसंगहीतार्थेकांशो नय: श्रुतविकल्पो वा, ज्ञातुरभिप्रायोवा नय: । नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन्स्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति वा नय: " (आलाप पद्धति पृ.112)
अर्थात् - प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश को ग्रहण करना नय है । अथवा श्रुतज्ञान का विकल्प (भेदप्रभेद) नय है, अथवा ज्ञाता का अभिप्राय विशेष नय है अथवा अनेक स्वभावों से वस्तु को व्यावृत कर किसी एक स्वभाव विशेष में विवक्षावश वस्तु को स्थापित करना या ग्रहण करना नय कहा जाता है । आगम की दृष्टि से नय की शैली मुख्यत: दो प्रकार की है । द्रव्यार्थिकनय - जो सामान्यरूप से या अभेदरूप से द्रव्य को जानता है जैसे ज्ञानस्वरूप आत्मा, वर्णादिरूपपुद्गल इत्यादि। 2. पर्यायार्थिकनय - जो विशेषरूप से या भेद रूप से द्रव्य की पर्यायविशेष को, किसी एक दृष्टिकोण से जानता है जैसे आत्मा का ज्ञान, जीव की मनुष्य पर्याय, आम का रस आदि।
उक्तंच-“द्रव्यं अर्थ:प्रयोजनं अस्येति-द्रव्यार्थिकः । पर्याय: अर्थ: प्रयोजनं अस्येति पर्यायार्थिकः ।" (सवार्थसिद्धि पृ. 9 अ.।, सूत्र - 6)
__ अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से भी नय दो प्रकार के होते हैं - 1. निश्चयनय, 2..व्यवहारनय । प्रश्न 1. द्रव्यार्थिकनय, 2.पर्यायार्थिकनय और 1. निश्चयनय, 2.व्यवहार नय इन नय के दो युगलों में सर्वनयों के मूलभूतनय कौन से हैं एवं इनमें क्या अंतर है ?
उत्तर- यद्यपि आगम (सिद्धांत एवं दर्शनशास्त्र) की दृष्टि से मूलनय द्रव्यार्थिकनय तथा पर्यायार्थिनय हैं कारण कि आगम में वस्तु तत्व की सिद्धि के लिए नयों के प्रयोग, इन दोनों के मूलाधार पर चलते हैं और आध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से मूलनय निश्चय तथा व्यवहारनय हैं कारण कि आध्यात्मग्रन्थों में वस्तुतत्त्व की सिद्धि के लिए नयों के प्रयोग निश्चय व्यवहार के मूलाधार पर चलते हैं, तथापि द्रव्यार्थिकनय, निश्चयनय का
और पर्यायार्थिकनय, व्यवहारनय का कारण है, अत: इन दोनों युगलों में कारण कार्य सम्बंध सिद्ध होता है इसका प्रमाण
णिच्छयववहारणया मूलिमभेया णयाण सव्वाणं । णिच्छयसाहणहेउं, पज्जयदव्वत्थियं मुणह ॥
(नयचक्र -गाथा 183) सारांश - सर्वनयों के मूल निश्चय और व्यवहार से दो नय हैं तथा द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय ये दोनों नय, निश्चय और व्यवहार के हेतु हैं। द्वितीय प्रमाण यह है -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दो चेवय मूलणया, भणिया दव्वत्थिपज्जयत्थिगया । अण्णे असंखसंखा, ते तब्भेया मुणेपव्वा ॥
(नयचक्र गा, 184) तात्पर्य - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों ही नय, मूलनय कहे गये हैं अन्य असंख्यातनय इनके ही भेद जानना चाहिए।
यद्यपि द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक और निश्चय एवं व्यवहार इन दो नय युगलों में क्रमशः कारण कार्य संबंध कहा गया है तथापि इनमें परस्पर विरोध नहीं है स्याद्वाद शैली से इनका समंवय भी किया जाता है। अन्य प्रमाण
“यद्यपि निश्चय नय को द्रव्याश्रित एवं व्यवहार नय को पर्यायाश्रित बताकर दोनों प्रकार से मूलनयों में समंवय का प्रयास किया गया है, तथापि यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि निश्चय और व्यवहारनय, द्रव्यार्थिक - पर्यायार्थिक के पर्यायवाची नहीं हैं।" (जिनवरस्य नयचक्रं पृ. 27)
उक्त प्रमाणों से यह निष्कर्ष घोषित होता है कि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों नय सब नयों में मूलरूप हैं, इनके आधार पर निश्चय और व्यवहार नयों का प्रयोग होता है, कारण कि लोक की स्थिति का मूलकारण द्रव्य है और उत्पाद नाश नित्यरूपसत् द्रव्य का लक्षण है, द्रव्य में गुण और पर्याय पाये जाते है इसी कारण दो नयों की मुख्यता हो जाती है - 1. द्रव्यार्थिकनय, 2. पर्यायार्थिकनय । इनके आधार से निश्चय और व्यवहार के प्रयोग होते है। निश्चय और व्यवहार नय की परिभाषा -
__ जो वस्तु के वास्तविक एक धर्म का अभेदरूप से प्रतिपादन करे उसे निश्चय नय कहते हैं अथवा एक स्वभाव का वर्णन करना अभेद रूप से निश्चय नय है जैसे आत्मा ज्ञानस्वरूप है, शुद्ध है इत्यादि । जो वस्तु के वास्तविक अर्थ को न कहकर अपेक्षावश अन्य अंश को ग्रहण करे उसे व्यवहारनय कहते हैं जैसे आत्मा की मनुष्य पर्याय अथवा अशुद्ध पर्याय । इस विषय में श्री आचार्य अमृतचंद्र जी की वाणी को देखिये
निश्चयमिह भूतार्थ, व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थं । भूतार्थबोधविमुख: प्राय: सर्वो पि संसार : ॥
(पुरूषार्थ सिद्धयुपाय श्लोक - 5) सारांश - इस ग्रन्थ में आचार्य अमृतचंद्र निश्चय को भूतार्थ (यथार्थ) और व्यवहारनय को अभूतार्थ (अयथार्थ) कहते हैं। प्राय: निश्चयनय के ज्ञान से समस्त संसार के प्राणी विपरीत हो रहे है। देवसेन आचार्य के मत की घोषणा -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 'अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयते इति निश्चय : । भेदोपचारतया वस्तु व्यवहियते इति व्यवहार: ॥
(आलापपद्धति पृ. 126) अर्थात् - निश्चयनय वह है जो अभेद तथा मुख्य दृष्टि से वस्तु का निश्चय करता है जैसे ज्ञानमय आत्मा । व्यवहारनय वह है जो भेद तथा उपचार (गौण दृष्टि) से वस्तु का व्यावहारिक प्रयोग करता है जैसे आत्मा का ज्ञानगुण अथवा जल का कलश इत्यादि। श्रीमत्पण्डितप्रवर आशा धर जी का प्रवचन -
कर्ताद्या वस्तुनो भिन्ना, येन निश्चय सिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोसो, निश्चयस्तदभेददृक् ॥
(अनगारधर्मामृत, अ । श्लोक 102) अर्थात् - जो निश्चय स्वरूप की प्राप्ति के लिए, कर्ता कर्म आदि कारकों को जीव आदि द्रव्यों से पृथक् सिद्ध करता है वह व्यवहारनय है और जो नय, कर्ता कर्म आदि कारकों को आत्मा आदि रूप से अभिन्न सिद्ध करता है वह निश्चयनय है। श्री आचार्य कुन्दकुन्द का उपदेश -
ववहारो भूदत्थो, भूदत्थो देसिदोदु शुद्धणओं । भुयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥
(समयतार गाधा -13 जीवाजीवाधिकार) सारांश - व्यवहारनय अभूतार्थ (असत्यार्थ) है और निश्चयनय भूतार्थ (सत्यार्थ) है ऐसा मुनिश्वरों ने दिखलाया है । जो जीव भूतार्थ के आश्रित हैं अर्थात् जो रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त हो चुके हैं, एवं अर्हन्तपद को प्राप्त हैं वे जीव निश्चय कर सम्यग्दृष्टि हैं।
लक्षणमेकस्य सतो यथाकथंचित यथा द्विधाकरणम् । व्यवहारस्य तथा स्यात् तदितरधा निश्चयस्य पुन: ॥
(पंचाध्यायी अ. 1 श्लोक 614) सारांश - जिस प्रकार एक सत्स्वरूप वस्तु का, जिस किसी दृष्टिकोण से भेद करना व्यवहारनय का लक्षण कहा जाता है, उसी प्रकार एक सत्स्वरूप द्रव्य का किसी भी दृष्टिकोण से भेद न कर अभेद रूप से ही ग्रहण करना निश्चयनय का लक्षण कहा जाता है।
जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स। सो ववहारो भणिओ, विवरीओ णिच्छयो होदि ।
(नयचक्रगाधा 262)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तात्पर्य - जो नय एक वस्तु के धर्मो में किसी अपेक्षा से भेद , प्रभेद तथा उपचार को करता है वह व्यवहारनय कहा जाता है और जो नय वस्तु के धर्मो में भेद रूप न कर अभेद दृष्टि से वस्तु को ग्रहण करता है वह निश्चय नय कहा जाता है।
____पंडित प्रवर श्री टोडरमल द्वारा प्रतिपादित निश्चय व्यवहार की व्याख्या - एक ही द्रव्य के भाव को उस रूप ही कहना निश्चयनय है और उपचार से उक्त द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भाव स्वरूप कहना व्यवहार नय है जैसे मिट्टी के घड़े को मिट्टी (पुद्गल) का कहना निश्चयनय का कथन है और घी का संयोग देखकर घी का घड़ा कहना व्यवहारनय का कथन है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ. 249, च.सं. 1978) कविवर पं. दौलतराम जी द्वारा उभयनय का संक्षिप्त कथन -
'जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो' (छहढाला तृ. ढाल छन्द प्रथम)
यद्यपि निश्चय और व्यवहार के उपरिकथित लक्षणों में भाषा तथा शैली की दृष्टि से भिन्न ज्ञात होती है तथापि समस्त लक्षणों का तात्पर्य (भाव) एक ही है कोई अंतर नहीं है। प्रश्न - भूतार्थ (सत्यार्थ) और अभूतार्थ (असत्यार्थ) का स्पष्ट अर्थ क्या है ? क्या भूतार्थ का सत्यधर्म तथा
अभूतार्थ का झूठपाप अर्थ ग्रहण करना उचित है ? उत्तर - जो वस्तु के शुद्ध स्वरूप को किसी दृष्टिकोण से कहे वह भूतार्थ (सत्यार्थ) निश्चयनय का विषय है और जो किसी दृष्टिकोण से वस्तु की पर्याय अथवा उसके एक अंश (गुण) को कहे वह अभूतार्थ (असत्यार्थ) व्यवहारनय का विषय हैं। यहाँ पर निश्चयनय सत्यरूप तो है ही, पर व्यवहारनय
भी सत्यरूप है उसका झूठपाप अर्थ नहीं है। प्रश्न - जब अभूतार्थ - व्यवहारनय भी सत्यरूप है तो उसको असत्यार्थ शब्द से क्यों कहा है ?
स्याद्वाद की शैली से इसका समाधान होता है अर्थात् निश्चयनय की अपेक्षा वस्तु के शुद्ध स्वरूप को ग्रहण न करने के कारण व्यवहार को असत्यार्थ कहा गया है परन्तु अपनी दृष्टि से वस्तु के सत्यांश को ग्रहण करने वाला होने से तथा निश्चय (नय)की प्राप्ति का हेतु होने से वह भी सत्यांश है और निश्चय की अपेक्षा असत्यांश हैं. अन्यथा कोई भी व्यक्ति दैनिक व्यवहार में घी का घड़ा पानी का लोटा यह प्रयोग करता न देखा जाता और न उससे सफलता प्राप्त करता हुआ देखा जाता। स्पष्ट कथन यह है कि मानव, व्यवहार का प्रयोग करता हआ जीवन में सफलता भी प्राप्त करता है।
दूसरा समाधान यह है कि जब तक जन्ममरण की परम्परा में भ्रमण करने वाला विश्व का मानव, सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र की पूर्णता को प्राप्त कर, विशुद्ध परमात्मस्वरूप को प्राप्त नहीं हो जाता तब तक व्यवहारनय का विषय सत्यार्थ है, आदरणीय है। शुद्ध परमात्म दशा को प्राप्त होने पर व्यवहारमार्ग असत्यार्थ हो जाता है अर्थात् स्वयं ही छूट जाता है। दूसरे शब्दों में कहने योग्य है कि कार्य सिद्ध हो जाने पर निमित्त कारण की आवश्यकता नहीं रहती। एकान्तपक्ष से व्यवहार को सत्यार्थ या असत्यार्थ नहीं कहा जा सकता।
समयसार ग्रन्थ की गाधा नं.।। में हिन्दी अर्थ में कहा गया है -
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"जो जीव भूतार्थ के आश्रित हैं वह जीव निश्चयकर सम्यग्दृष्टि हैं " ।
इसका भाव यही है कि सम्यग्दृष्टि जीव निश्चयनय के विषय को लक्ष्य में रखते हैं तथा अनुकूल व्यवहार विषय का आचरण करते हैं अन्यथा सम्यग्दृष्टि निष्क्रिय हो जायेगा औरे व्यवहार निष्फल हो जायेगा। सम्यग्दृष्टियों का पूर्ण शुद्धस्वभाव को प्राप्त करना ही, निश्चय के विषय को साक्षात् आश्रित हो जाना है । प्रश्न - असत्यार्थ व्यवहारनय को क्या झूठपाप कहा जा सकता है ?
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
उत्तर - कभी नहीं, असत्यार्थ - व्यवहारनय के विषय को झूठपाप कहना नितांत भूल होगी। कारण कि व्यवहार का विषय असत्य के लक्षण से भिन्न है । आ. उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र अ. 7 में असत्य का लक्षण कहा है - 'असदभिधानमनृतम्” अर्थात् - प्रमाद या कषायपूर्ण भावों से स्वपर के द्रव्यप्राण अथवा भावप्राण या दोनों का घात करने वाले वचनों का प्रयोग करना असत्य है, यह असत्य का लक्षण व्यवहार में घटित नहीं होता । अतः व्यवहार को असत्यपाप कहना अज्ञान है कारण कि व्यवहार के प्रयोग से किसी के प्राणों का घात नहीं होता ।
श्री अमृत चंद्र आचार्य ने पुरूषार्थ सिद्धयुपाय में श्लोक नं. 91 से 100 तक असत्य वचन के भेद कहे हैं- 1. सत्निषेध, 2. असत्यकथन, 3. विपरीत कथन 4. गर्हितवचन, 5. सावद्यवचन, 6. अप्रियवचन, इनमें से किसी भी असत्यवचन का लक्षण, अभूतार्थ व्यवहार में नहीं पाया जाता, अत: उसे असत्यपाप नहीं कहा जा सकता। व्यवहारनय से जो विद्वान अथवा मुनिराज आदि महात्मा उपदेश करते वह सत्य वचन ही है इसी विषय में श्री अमृतचंद्र जी आचार्य ने स्पष्ट श्लोक द्वारा कहा है -
-
तौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।।
(पुरुषार्थ. श्लोक 100)
इसका तात्पर्य यह है असत्यवचन के त्यागी महामुनि या अन्य महात्मा विद्वान हेय तथा उपादेय कर्तव्य के उपदेश आम सभाओं में दृष्टांत सहित करते हैं, पौराणिक चरित्र तथा कथाओं का विविध अलंकारों और नवरसों के साथ वर्णन होते हैं परन्तु वे असत्यवचन नहीं हैं। इसके अतिरिक्त उनके पापनिन्दक वचन, अज्ञानी अत्याचारी पुरूषों को वाण जैसे अप्रिय लगते हैं, सैकड़ों पुरूष चिढ़ते हैं दुखी होते हैं तो भी उन को असत्यपाप का दोष नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उनके वचन प्रमाद या कषाय से रहित हैं, इसी से हिंसा तथा असत्य के लक्षण में कहा गया है कि - क्रमश: "प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, असदभिधानमनृतम्' इति ।
पण्डित प्रवर आशा धर जी ने सागार धर्मामृतग्रन्थ में वचन के चार भेद कहे हैं - 1. असत्यासत्य - जो वचन हिंसादि पापों को उत्पन्न करें अथवा जो धर्म से विपरीत हो । 2. असत्यसत्य “वस्त्र बुनो," भात पकाओ इत्यादि वचन । 3. सत्यासत्य - किसी वस्तु के कल देने का निश्चय कर दूसरे को दो तीन दिन बाद दे देना, इत्यादि वचन । 4. सत्यसत्य - जो वचन वस्तु का सत्यार्थ कथन करने वाला हो, या स्वपरहितकारक हो । इनमें से अंत के तीन वचनों का प्रयोग व्यवहारनय से गृहस्थ मानव कर सकता है परन्तु असत्यासत्य
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वचन का प्रयोग व्यवहाराभास है वह त्याज्य है। इसलिए उस वचन के प्रकरण में कहा गया है कि गृहस्थमानव असत्यासत्य वचन को न कहे, शेष तीन वचनों का प्रयोग कर सकता है कारण कि वे वचन लोक व्यवहार में पीड़ा कारक नहीं माने गये हैं उनसे तो मानव के दैनिक जीवन का प्राय: निर्वाह होता है। अतः व्यवहार सत्य सिद्ध होता है असत्य नहीं। श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती ने सत्य के दस भेद कहे हैं -
जणवदसम्मदिठवणा णामे रूदे पडुच्चववहारे । संभावणेय भावे उवमाए दसविहं सच्चम् ॥
(जीवकाण्ड (गोम्मटसार) गाथा 222) सत्य दस प्रकार का होता है। 1. जनपदसत्य, 2.सम्मतिसत्य, 3.स्थापना सत्य, 4.नामसत्य,5.रूप सत्य, 6. प्रतीत्यसत्य, 7. व्यवहारसत्य, 8.संभावना सत्य, 9. भावसत्य, 10.उपमासत्य । ये दस प्रकार के सत्य वचन आगम में व्यवहारनय की अपेक्षा से ही कहे गये है। इससे व्यवहारनय की सत्यता सिद्ध होती है। उनमें भी सप्तमभेद व्यवहारसत्य नाम से ही अपेक्षाकृत सत्यता को सिद्ध करता है। ऐसे व्यवहार को झूठपाप कदापि नहीं कहा जा सकता है । इसी गाथा की हिन्दी टीका में कहा गया है - नैगम आदि नयों की प्रधानता से जो वचन कहा जाये उसको व्यवहार सत्य कहते हैं जैसे नैगमनय की अपेक्षा “वह भात पकाता है"। संग्रहनय की अपेक्षा द्रव्यसत् है अथवा द्रव्य असत् है इत्यादि।
धर्मग्रन्थों में अप्रिय असत्य के दस भेद अन्य प्रकार से भी कहे गये - 1.कर्कश, 2. कटुक, 3.परूष, 4.निष्ठुर, 5.परकोपी, 6.मध्यकृश, 7.अभिमानी, 8.अनयंकर, 9.छेदंकर, 19, वधकर । इन दस अप्रिय असत्य वचनों में से, व्यवहारनय रूप वचन कोई भी ऐसा वचन नहीं है जो कि प्राणियों का अहित कर सके ।
गोम्मटसार जीवकाण्ड में वचन योग के चार भेद कहे गये हैं - 1.सत्यवचनयोग, 2.असत्यवचनयोग, 3.उभयवचनयोग, 4. अनुभयवचनयोग । इनमें से व्यवहारनय का वचन सत्यवचनयोगरूप कहा गया है। उक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि असत्यार्थ (अभूतार्थ) व्यवहारनय का वचन भी सत्यार्थ है वह झूठ पाप नहीं है आचार्यां ने व्यवहार नय के वचन को शब्दों की अपेक्षा अभूतार्थ कहते हुए भी भाव की अपेक्षा भूतार्थ (सत्यार्थ) कहा है। प्रश्न - जैन दर्शन में व्यवहारनय का कथन एवं प्रयोग आवश्यक क्यों कहा गया है ? उत्तर- अज्ञानी साधक मानव को आत्मशुद्धि रूप साध्य को सिद्ध करने के लिए साधन रूप व्यवहारनय के
विषय का उपदेश दिया गया | साध्य की सिद्धि हो जाने पर व्यवहारनय की आवश्यकता नहीं रहती |श्री आचार्य अमृतचंद्र जी ने स्पष्ट कहा है -
अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥
(पुरूषार्थ श्लोक 6) -2600
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सारांश - उपदेशक आचार्य अज्ञानी मानव को समझाने के लिए व्यवहरनय का उपदेश करते हैं । जो मानव केवल व्यवहारनय को ही साध्य मानकर निश्चयनय के विषय को साध्य (लक्ष्य) नहीं मानता है, उस मिथ्याधारणा वाले के लिए आचार्य का उपदेश नहीं है । जैसे महल की छतपर जाकर जिस व्यक्ति को धूप सेवन करने की आवश्यकता है उसको सीढ़ी का आश्रय अवश्य लेना चाहिए । और सीढ़ियां पार कर छत पर जाकर बैठ जाना चाहिए । यदि कोई मानव छत पर प्राप्त होने का लक्ष्य न रखकर केवल जीने पर जाकर बैठ जाये तो उसके लिए जीने पर जाने की आज्ञा नहीं हैं। इसी प्रकार जिसको निश्चयनय विषय रूप छत को प्राप्त करने का लक्ष्य नहीं है उसको व्यवहार रूप सीढ़ी पर चढ़ने का अधिकार नहीं है। इसी विषय का प्रमाण है -
माणवक एव सिंहो, यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा, निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥
(पुरूषार्थ श्लोक 7) जैसे सिंह को कभी भी नहीं जानने वाले पुरूष की दृष्टि में वन विलाव ही सिंहरूप ज्ञात होता है, वैसे ही निश्चयनय को कभी भी नहीं जानने वाले पुरूष की दृष्टि में व्यवहारनय ही, निश्चयनय रूप ज्ञात होता है । इस एकांगी विपरीत ज्ञान से वस्तुतत्त्व का निर्णय तथा लौकिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता और न उसे लोक में सफलता प्राप्त हो सकती है। इसलिए प्रत्येक मानव को निश्चय तथा व्यवहार दोनों नयों का ज्ञान तथा उसका प्रयोग प्रत्येक विषय में प्राप्त करना चाहिए।
___ आध्यात्मयोगी श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी निश्चय के साथ ही व्यवहारनय की उपयोगिता को आवश्यक दर्शाया है इसका प्रमाण देखिये -
जहणवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदु । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ।।
(समयसार गाथा 8) तात्पर्य यह है कि जैसे म्लेच्छजनों को, म्लेचछ भाषा के बिना वस्तु के स्वरूप का ज्ञान कराने को कोई, भी पुरूष समर्थ नहीं हो सकता. उसी प्रकार व्यवहारनय के बिना परमार्थ (निश्चय) का ज्ञान कराने के लिए कोई अन्य साधन समर्थ नहीं है। इसलिए आचार्यो ने व्यवहारनय के प्रयोग को आवश्यक दर्शाया है। कविवर पं. दौलतराम जी ने भी व्यवहारनय का समर्थन किया है -
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवमग सो दुविध विचारो । जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो॥
(छहदाला तृ. ढाल)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ निश्चय तथा व्यवहार का समंवय -
निश्चय भूतार्थ और व्यवहार अभूतार्थ ये दोनों परस्पर विरोधी होने पर भी स्याद्वादशैली से दोनों का समंवय कार्यकारी सिद्ध होता है । “स्यात्" इस पद का अर्थ संदेह, शक, अनिश्चय और शायद नहीं हैं, अन्यथा संदेह होने से एक वस्तु में अनेक धर्मो की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती । अत: “स्यात्" इस पद का अर्थ दृष्टिकोण अपेक्षा तथा विवक्षा है उससे एक वस्तु में अनेक धर्मो की सिद्धी होती है। जैसे एक ही पुरूष पिता की अपेक्षा पुत्र है और पुत्र की अपेक्षा पिता है । इसका प्रमाण यह है -
वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यंप्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोर्थ, योगित्वात्तवकेवलिना मपि ॥
(अष्टसहसी पद्य 103) "द्योतकाश्च भवन्ति निपाता:' इत्यत्र चशब्दाद वाचकाश्च इति व्याख्यानात् (सप्तभंगीतरगिणी पृ. 23)
अर्थात् “स्यात्" यह पद वाक्य में मुख्य अर्थ का वाचक है और गौण (अमुख्य)अर्थ का द्योतक है इस प्रकार वह स्यात्पद एक वस्तु में परस्पर दो विरोधी धर्मो को सिद्ध करने वाला होने से अनेकान्त को प्रकाशित करता है। प्रकृत में स्यात्पद कहीं पर निश्चय धर्म का वाचक है और व्यवहार धर्म का द्योतक है तथा कहीं पर व्यवहार का वाचक है और निश्चय धर्म का द्योतक है एक ही समय में वाचक तथा द्योतक दो धर्म सिद्ध होते है।
___ उदारहणार्थ - एक भावपूजनरूप निश्चय धर्म प्रधान होने पर द्रव्यपूजन रूप व्यवहार धर्म का लोप नहीं करता और द्रव्यपूजन रूप व्यवहार प्रधान होने पर पर भावपूजनरूप निश्चय का लोप नहीं करता किन्तु भाव द्रव्य पूजन रूप दोनों ही कर्तव्य एक साथ चलते है। इस विषय में श्री अमृतचंद्र आचार्य का प्रमाण इस प्रकार है
व्यवहार निश्चयौयः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्य: ॥
(पुरूषार्थ. श्लोक8) जो मानव व्यवहार और निश्चय को अच्छी तरह समझकर दोनों पक्ष को स्वीकार करता है एक ही पक्ष का हठ नहीं करता है वही शिष्य तत्त्वोपदेश के लौकिक तथा अलौकिक सभी फल को प्राप्त करता है।
अन्य प्रमाण
सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरसीहिं । ववहारदे सिदापुण जेदु अपरमेट्ठिदाभावे ॥
(समयसार गाथा 14)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सारांश - जो शुद्धनय की अपेक्षा पूर्ण सम्यक् श्रृद्धा ज्ञान चारित्रवान हो गये हैं, उन शुद्ध परम आत्माओं को शुद्ध निश्चयनय का विषय आचरण करने योग्य है कि शुद्ध नित्य एक अखण्ड ज्ञानस्वभाव आत्मा में रमण करना और जो आत्माऐं श्रृद्धा ज्ञान चारित्र की पूर्णता को प्राप्त नहीं हुई है, परन्तु रत्नत्रय की पूर्णता करने के पुरूषार्थ में लीन हैं, साधकदशा में उन आत्माओं की व्यवहारनय द्वारा उपदेश करना चाहिए। इसी गाथा के कलश नं. 4-5-6 में भी यही विषय दर्शाया गया है कि श्रृद्धा ज्ञान चारित्र की पूर्णाता को प्राप्त
आत्माएं शुद्ध निश्चय का आलम्बन करें और रत्नत्रय साधना में मग्न आत्माएँ निश्चयनय का लक्ष्य रखते हुए व्यवहार का आलम्बन करें।
सारांश - आत्महित के लिए दोनों नयों का आश्रय लेना ही उपयोगी है। निश्चय एवं व्यवहार के समंवय में वैज्ञानिक उदाहरण -
पक्षाम्यां पतग: सगुड्डनपरो विद्युच्च तारद्वयात् गच्छेच्चक्रयुगेन साधु शकटं स्त्रीपुंसमुत्था प्रजा । ज्ञानं पंगु तथान्धलाचकरणि: योग्यानयो: संगति -
रेकं यो विरहय्यवष्टि सुगतिं सो ज्ञानिनामग्रणी: ।। सारांश - जिस प्रकार पक्षी दो पंखो से उड़ता है, जैसे दो तारों से बिजली का प्रकाश उत्पन्न होता है, जैसे दो पत्थरों के संघर्ष से अग्नि पैदा होती है, जैसे दो चक्रों के सहयोग से गाड़ी अच्छी तरह चलती है, जैसी स्त्री पुरूष के संयोग से संतान उत्पन्न होती है, जैसे क्रिया के बिना ज्ञान लंगड़ा (व्यर्थ) है और ज्ञान के बिना क्रिया अन्धी है तथा ज्ञान एवं क्रिया दोनों की संगति कार्यकारी है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना निश्चय धर्म लंगड़ा है और निश्चय धर्म के बिना व्यवहार धर्म अन्धा है,तथा दोनों का सहयोग कल्याणकारी है। जो व्यक्ति उक्त दो - दो पदार्थो में से एक को छोड़कर एक को उपयोगी कहता है हठग्राही वह अज्ञानियों का मुखिया है।
जगत् के पदार्थो का संयोग वियोग परिवर्तन एवं मानवों का व्यवहार नय की पद्धति से होता है अन्यथा लोकव्यवहार की समीचीन व्यवस्था नहीं हो सकती । नय तथा निक्षेप के द्वारा लोकव्यवहार की स्थिति को देखकर ही वैज्ञानिकों ने जगत् को "दुनिया" शब्द से कहा है, जिसका शुद्ध शब्द द्विनय अर्थात् दो नय वाला होता है। सारांश यह है कि लोक का व्यवहार, निश्चयनय तथा व्यवहारनय के द्वारा ही होता है।
वैज्ञानिक क्षेत्र में भी नयचक्र का प्रचुर महत्व है। नयवाद और विज्ञान में कोई विरोध नहीं है। अपेक्षा वश द्रव्यों की शक्ति की परीक्षा तथा आविष्कार नयों की अपेक्षा होते है। पदार्थो की अनंत शक्ति का कथन तथा संयोग वियोग का कथन नयों की अपेक्षा से होता है किसी वस्तु के आविष्कार में किसी द्रव्य के अंश अधिक होते है और किसी द्रव्य के अंश पूर्वद्रव्य की अपेक्षा कम होते है, यह अपेक्षा ही नयबाद है। जर्मन देश के विज्ञान योगी सर अलवर्ट आइन्स्टाइन महोदय ने सन् 1905 में अपेक्षाबाद का आविष्कार कर, मानव जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान किया है, इस सिद्धांत के अपेक्षाबाद से नयबाद का समर्थन होता है। (धर्म युग 22 अप्रैल 1056)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्री सरअलवर्ट आइन्स्टाइन महोदय ने सापेक्षवाद के विषय में अपने विचार प्रकट किये हैं - हम विश्व के प्राणी केवल सापेक्षसत्य को ही जान सकते है कारण कि शब्दों में, पदार्थ के सर्वदेश को जानने की शक्ति नहीं है और हमारे विचार शब्दों के माध्यम से ही व्यक्त हो सकते है । पदार्थ के सर्वांश सत्य स्वरूप को केवल विश्व दृष्टा ही जान सकता है। (अनेकान्त वर्ष 11 किरण 3 पृष्ठ 243 )
जैन दर्शन ने, दर्शन शब्द की काल्पनिक भूमि को छोड़कर वस्तु स्थिति के आधार से विचारों के समीकरण एवं यथार्थ वस्तु विज्ञान के विषय में स्याद्वाद पद्धति (नय पद्धति) को विश्व के लिए प्रदान की है। (डॉ. सम्पूर्णानंद जैन दर्शन पृ. 560 )
राष्ट्रीय क्षेत्र में नयवाद -
जैसे एक पदार्थ में स्थित अनेक धर्मो का परस्पर विरोध से रहित समीकरण करके नयवाद वस्तु व्यवस्था को निश्चित करता है, उसी प्रकार महाद्वीपों में और राष्ट्रों में निवास करने वाले मानवों के विविध विचारों में धर्मो में पारस्परिक विरोध को दूर कर विश्व बन्धुत्व की भावना को जन्म देने के लिए नयवाद समर्थ है। यह स्याद्वाद वर्ग विरोध, वर्ण विरोध, भाषा विरोध, प्रान्तविरोध और अधिकार विरोध को शान्ति से तिरस्कृत कर राष्ट्रीय क्षेत्र में सह अस्तित्व को स्थापित करने में सक्षम है।
लोक व्यवहार में नयवाद -
-
मानव समाज का सम्पूर्ण व्यवहार पदार्थों में तथा प्रकृति परिवर्तन में भी सापेक्ष होता है, सत्य मार्ग का अन्वेषण तथा मनुष्यों की स्वाभाविक प्रवृत्ति नयवाद के द्वारा सुरीत्या होती है । सत्य व्यवहार में उपस्थित विरोध एवं विघ्नशान्ति नयवाद से होती है। जैसे पोष्टिक भोजन स्वस्थ पुरूष की अपेक्षा उपादेय है और रूग्णपुरूष की अपेक्षा हेय है। ऋतुओं की अपेक्षा प्रकृति का परिवर्तन होता है। ऋतुओं की अपेक्षा फलों का सेवन स्वास्थ्यवर्धक होता है। रोग होने पर दवा का सेवन अपेक्षाकृत ही लाभ प्रद होता है। धार्मिक क्रिया का पालन अपेक्षाकृत ही उपयोगी होता है। सत्य असत्य के परीक्षण में नयवाद से सफलता प्राप्त होती है । यथा सज्जन का उपकार करना ही चाहिए, दुर्जन का उपकार न कर तटस्थ रहना ही अच्छा है ।
लोक में प्रश्न का समाधान नयवाद के द्वारा ही हर्षप्रद होता है। ऐतिहासिक घटना का उदाहरण है - एक समय बादशाह अकबर ने अपने मंत्री वीरबल से प्रश्न किया- काले तख्ते पर चाक से एक बड़ी लाईन खींचकर अकबर ने वीरबल से कहा, कि इस लाईन को बिना मिटाये आप छोटा कर देवे तो आपकी बड़ी बुद्धिमानी समझी जावेगी । वीरबल ने तख्ते पर खिंची उस लाईन के नीचे एक बड़ी लाईन खींच दी और कहा कि हुजूर यह ऊपर की लाईन बिना मिटाये ही छोटी हो गई । इस नय पद्धति से उत्तर को सुनकर बादशाह अतिप्रसन्न हुआ और इनाम दिया |
दूसरा उदाहरण -
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एक समय कक्षा में शिक्षक महोदय शिष्य के प्रति प्रश्न करते है - वोर्ड पर अ ब स लिखकर प्रश्न किया कि दक्षिण (दाहिनी ओर है या बाम ओर । छात्र ने उत्तर दिया कि स की अपेक्षा ब बाम ओर है और
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अ की अपेक्षा ब दक्षिण ओर है। इसलिए नय पद्धति से ब दोनों ओर स्थित है। शिक्षक इस नय शैली से उत्तर को सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और कक्षा के छात्र हंस पड़े ।
इस प्रकार नय वाद जीवन के प्रत्येक व्यवहार में उपयोगी सिद्ध होता है उसके बिना एक कदम भी व्यवहार में नहीं बढ़ाया जा सकता है।
नयों के भेद प्रभेद और उनके प्रयोग -
"भूताभूतार्थ भेदेन व्यवहारोपि द्विधा, शुद्धनिश्चया शुद्धनिश्चय भेदेन निश्चयनयोपि द्विधा इति नयचतुष्टयम्” ।
(समयसार गाथा ||, तात्पर्यवृत्तिटीका पृ. 23) व्यवहारनय भी दो प्रकार है 1. भूतार्थ (सत्यार्थ), 2. अभूतार्थ (असत्यार्थ ) । निश्चयनय भी दो प्रकार है 1. शुद्ध निश्चय 2. अशुद्धनिश्चय । भूतार्थ व्यवहारनय भी दो प्रकार का है। 1. अनुपचरित (मुख्य) 2. उपचरित्र (गौण)। अभूतार्थ व्यवहारनय भी दो प्रकार का है 1. अनुपचरित (मुख्य) अभूतार्थ व्यवहार 2. उपचरित (गौण) । अभूतार्थ व्यवहारनय, इस प्रकार नयों के साधारण दृष्टि से छह भेद होते है । इन छह नयों के प्रयोग -
1.
2.
3.
2.
3.
4.
5.
6.
नयों के निश्चय की अपक्षा से भेद और प्रयोग - 10 प्रकार
1.
शुद्ध द्रव्यार्थिकनय जैसे संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्ध हैं, यह नय कर्म संयोग से निरपेक्ष
होता है।
4.
शुद्ध निश्चयनय - जैसे केवलज्ञानस्वभावी शुद्ध आत्मा । अशुद्धनिश्चयनय - जैसे मतिज्ञान आदि स्वरूप आत्मा ।
5.
6.
अनुपचरित (मुख्य) सद्भूतव्यवहारनय जैसे आत्मा के केवल ज्ञान आदि गुण ।
उपचरित सद्भूतव्यवहारनय जैसे आत्मा के मतिज्ञान आदि गुण ।
-
मुख्य असद्भूतव्यवहारनय जैसे जीव का मानव शरीर, देव शरीर आदि
गौण असद्भूतव्यवहारनय जैसे जीव के धन सुवर्ण आदि द्रव्य ।
सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय जैसे द्रव्य नित्य है या सत् नित्य है ।
भेद निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय - जैसे द्रव्य अपने गुण पर्याय स्वभावात्मक है ।
कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय जैसे क्रोध आदि विकारों
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मायावी और लोभी है ।
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-
उत्पाद व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय जैसे एक ही समय द्रव्य उत्पाद व्यय (नित्य) स्वरूप है । भेद सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय जैसे आत्मा के ज्ञान दर्शन आदि गुण है ।
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'अपेक्षा आत्मा क्रोधी मानी
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7.
8.
9.
10.
व्यवहारनय (पर्यायार्थिक ) नय के 6 प्रकार और प्रयोग -
2.
3.
1. अनादि नित्य पर्यायार्थिकनय - जैसे सुमेरूपर्वत, चंद्र, सूर्य, तारागण, अकृत्रिम चैत्यालय आदि पुद्गल की स्थूल पर्यायें अनादि नित्य हैं
सादि नित्य पर्यायार्थिकनय -जैसे जीव की सिद्ध पर्याय सादि नित्य है ।
अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय जैसे द्रव्य की पर्यायें प्रतिसमय नष्ट होती हैं ।
सत्ताग्राहक नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय - जैसे द्रव्य को एक ही समय में उत्पाद व्यय नित्य पर्याय रूप
4.
5.
कहना |
कर्मोपाधिनिरपेक्ष नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय - जैसे सिद्ध पर्याय के समान जीव की संसार में शुद्ध पर्याय कहना ।
कर्मोपाधिसापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय - जैसे संसारी जीव जन्म और मरण करते हैं । (शास्त्रीय) विशेष द्रव्यार्थिकनय के तीन प्रकार और प्रयोग -
6.
अन्वय द्रव्यार्थिकनय - जैसे द्रव्य, गुण तथा पर्याय स्वभावी है।
स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिकनय - जैसे जीव अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा जीव है।
पर द्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिकनय जैसे जीव पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा जीव नहीं है ।
परम भाव ग्राहक द्रव्यार्थिकनय - जैसे आत्मा ज्ञान स्वभावी है ।
(2)
(1) क- भूतनैगमनय - जैसे आज दीपावली के दिन भ. महावीर मोक्ष गये थे ।
ख- भाविनैगमनय - जैसे अर्हन्त को सिद्ध ही समझो।
ग- वर्तमाननैगमनय - जैसे भोजन की तैयारी करने वाले पुरूष का, प्रश्न के उत्तर में कहना है कि मैं भोजन बना रहा हूँ ।
च - सामान्य संग्रहनय जैसे सत्स्वरूप होने से सभी द्रव्यों का परस्पर अविरोध रूप से ग्रहण हो जाता है ।
क्ष - विशेष संग्रहनय जैसे चैतन्यस्वभावी जीव द्रव्य को जानना चाहिए ।
त- सामान्य संग्रहभेदक व्यवहारनय जैसे द्रव्य के दो भेद हैं।
1. जीव, 2. अजीव ।
थ- विशेष संग्रहभेदक व्यवहारनय - जैसे जीव के दो भेद हैं । 1. संसारी, 2. मुक्त | संसारी के दो भेद - 1. बस, 2. स्थावर इत्यादि ।
(शास्त्रीय) विशेष पर्यायार्थिकनय के चार भेद और उनके प्रयोग -
(3)
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
1. (अ) सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय जैसे वर्तमान समय वर्ती पदार्थ को पर्याय का ग्रहण करना अर्थात् वर्तमान एक समयवर्ती मनुष्य पर्याय आदि ।
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साहित्य मनीषी की (ब) स्थूल ऋजुसूत्रनय - जैसे अपनी आयु प्रमाण (50 वर्ष) मनुष्य पर्याय का ग्रहण करना अथवा 30
वर्ष के राज्यकाल तक राजा का ग्रहण । 2. शब्दनय - जैसे दार, भार्या, कलत्र के भेद से स्त्री को 3 भेद रूप जानना । 3. समभिरूढनय - जैसे गो शब्द के 11 अर्थ होने पर भी अनेक प्रसिद्ध अर्थ गाय अथवा पशु ग्रहण करना | 4. एवंभूतनय - जैसे शिक्षा देते समय ही शिक्षक को शिक्षक कहना । राजा को राज्य करते हुए ही राजा
कहना, अन्य समय नहीं। व्यवहारनय (उपनय) के भेद और उनके प्रयोग -
उपनय के मुख्य तीन भेद हैं 1. सद्भूत व्यवहारनय, 2. असद्भूत व्यवहारनय, उपचरितअसद्भूत व्यवहारनय । उनमें से सद्भूत व्यवहार नय के दो प्रकार है । 1. शुद्ध , 2.अशुद्ध 1. शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय - जो शुद्ध द्रव्य में शुद्ध गुणी - गुण तथा पर्याय पर्यायी का भेदरूप कथन करें।
जैसे सिद्धात्मा के केवलज्ञान आदि गुणों का तथा सिद्ध आत्मा की शुद्ध सिद्ध पर्याय का कथन करना। 2. · अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय - जो अशुद्ध द्रव्यों के अशुद्ध गुणगुणी तथा अशुद्ध पर्याय-पर्यायी में भेद
रूप कथन करे। जैसे संसारी जीव के मतिज्ञान आदि चार ज्ञान का तथा मनुष्य देव आदि पर्याय का कथन करना । जो अन्य द्रव्य में प्रसिद्ध धर्म का अन्य धर्म में समारोप करे उसको असद्भूत व्यवहारनय कहते है। इसके तीन प्रकार हैं - 1. सजाति , 2. विजाति 3.सजाति - विजाति । 1. स्वजाति - असद्भूत व्यवहारनय - जो सजातीय पदार्थो में अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र
समारोप करे, जैसे परमाणु बहुप्रदेशी है। 2. विजाति असद्भूत व्यवहारनय - जो विजातीय पदार्थो में अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोप
करे। जैसे मतिज्ञान आदि ज्ञान मूर्तिक हैं। 3. सजातिविजाति असद्भूत व्यवहारनय - जो सजातिविजाति - पदार्थो में अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म
का अन्यत्र समारोप करे । जैसे ज्ञेय रूप जीव अजीव पदार्थो को ज्ञान कहना। असद्भूत व्यवहारनय के तीन भेदो में से प्रत्येक के भी 9,9 में उपभेद -
द्रव्य में द्रव्य का समारोप - जैसे चंद्र के प्रतिबिम्ब को चंद्र कहना। गुण में गुण का समारोप - जैसे मतिज्ञान आदि को मूर्तिक कहना ।
द्रव्य में गुण का समारोप - जैसे ज्ञान के विषय जीव अजीव को ज्ञान कहना । 4. द्रव्य में पर्याय का समारोप - जैसे परमाणु को बहुप्रदेशी कहना ।
गुण में द्रव्य का समारोप - जैसे ज्ञान को जीव कहना।
2.
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ गुण में पर्याय का समारोप - जैसे यह छात्र ज्ञान में निपुण है। 7. पर्याय में पर्याय का समारोप - जैसे इस मनुष्य का बलिष्ठ शरीर है।
पर्याय में गुण का समारोप - जैसे इस मनुष्य में साहित्य का ज्ञान श्रेष्ठ है। पर्याय में द्रव्य का समारोप - जैसे यह शरीर पुद्गल द्रव्य है।
इसी प्रकार विजाति और सजाति विजाति के भी 9,9 भेद होते हैं। उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के प्रकार और प्रयोग -
___ जो प्रयोजन और निमित्त के वश से अन्य पदार्थो का अन्य पदार्थो में उपचार पूर्वक उपचार करे। इसके तीन प्रकार हैं. 1. सजाति 2. विजाति 3. सजाति विजाति। 1. सजाति उपचरित असद्भूत व्यवहारनय - सजाति पदार्थो में निमित्त व प्रयोजन के वश से उपचारोपचार
करना, जैसे पुत्र स्त्री आदि मेरे हैं अथवा मैं इनका स्वामी हूँ। 2. विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहारनय - विजातीय पदार्थों में निमित्त और प्रयोजन के वश से
उपचारोपचार करना, यथा वस्त्र सुवर्ण रूपया मकान आदि मेरे हैं या मैं इनका स्वामी हूँ। 3. सजाति विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहारनय - जो सजातीय विजातीय पदार्थो में निमित्त व
प्रयोजन के वश से उपचारोपचार करे, जैसे देश राज्य राष्ट्र आदि मेरे हैं अथवा मैं इनका स्वामी हूँ। नयों पर आधारित लोक व्यवहार के प्रकार तथा प्रयोग
निक्षेप (लोक व्यवहार) नयों पर आधारित है, यदि नय वाद न हो तो लोक व्यवहार एक मिनिट भी नहीं चल सकता। नय के बिना देश तथा समाज में सुख शान्ति नहीं रह सकती। द्रव्यार्थिकनय के आधार पर नाम स्थापना और द्रव्य ये तीन निक्षेप (लोक व्यवहार) होते हैं और पर्यायार्थिकनय के आधार पर भाव निक्षेप होता है कारण कि आदि के तीन निक्षेपों में द्रव्य (सामान्य) का प्रयोजन है और भाव निक्षेपों में पर्याय (विशेष) का प्रयोजन सिद्ध होता है। (1) नाम निक्षेप - जिस नय की अपेक्षा से गुण जाति द्रव्य तथा क्रिया की अपेक्षा के बिना ही लोक व्यवहार
के लिए किसी मनुष्य का नाम रख लिया जाता है जैसे किसी बालक का नाम इंद्र कुमार है आदि । (2) स्थापना निक्षेप - जिस नय की अपेक्षा से धातु पाषाण काष्ठ आदि की तदाकार अथवा अतदाकार
मूर्तियों में या चित्रों में मूल पदार्थ की स्थापना कर मान्यता करना, जैसे महावीर की मूर्ति में भ. महावीर की स्थापना करना अथवा सतरंज की गोटो में बादशाह आदि की कल्पना । पोस्ट की टिकट में म. गाँधी
की स्थापना। (3) द्रव्य निक्षेप - जिस नय की अपेक्षा से किसी पदार्थ की भूत भविष्यत दशा की मुख्यता लेकर वर्तमान में उसके प्रति कथन करना । जैसे भूतपूर्व शिक्षक को, वर्तमान में वस्त्र विक्रेता होने पर भी शिक्षक
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कहना अथवा भविष्य में डाक्टर होने वाले एम.बी.बी.एस. कक्षा के छात्र को वर्तमान में डाक्टर कहना। (4) भावनिक्षेप - जिसनय की अपेक्षा से मनुष्य की वर्तमान पर्याय (दशा) का कथन किया जाए, जैसे
वर्तमान में राष्टपति को राष्ट्रपति कहना । शिक्षक को शिक्षक कहना आदि।
इस प्रकार 50 नयों के भेद प्रभेद और उनके प्रयोगों का वर्णन किया गया । मानव अपने जीवन में आवश्यकता के अनुसार यदि इन नयों का प्रयोग न करे तो जीवन इष्ट लक्ष्य की सिद्धि न होने से अपूर्ण अशांत और निर्वाह शून्य हो जायेगा । जो नय एकांत पक्ष का आश्रय लेते हैं तथा परस्पर निर्पेक्ष होते हैं वे नय नहीं, अपितु नयाभास (असत्यनय) हैं उनसे लोक में इष्ट प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती। जैसे वस्त्र के तंतु परस्पर सापेक्ष न हों, पृथक् - पृथक् रख दिये जायें तो उनसे शीत निवारण, शरीर रक्षा आदि इष्ट कार्य नहीं हो सकते । आचार्यो का दार्शनिक युक्तिपूर्ण कथन है।
मिथ्यासमूहो मिथ्याचैन्न मिथ्यैकान्त तास्ति नः ।
निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोर्थकृत ॥ सारांश - यदि एक पक्षीय मिथ्या एकांत नयों का समूह अनेकांत का अर्थ माना जाए तो वह अनेकान्त भी मिथ्या है। कारण कि जैन दर्शन में एकांत पक्ष रूप से नयो में असत्यता भी नहीं है। किन्तु जो नय परस्पर सापेक्ष हैं वे अच्छी तरह उपयोगी तथा सत्य है । और जो नय निरपेक्ष है वे नय नहीं अपितु नयाभास हैं वे इष्टकार्य को सिद्ध करने के लिए समर्थ नहीं हो सकते, अत: मिथ्या है। सारांश एवं उपसंहार -
उक्त कथन से यह सिद्ध हो गया कि प्रमाण और नयों के द्वारा पदार्थ का विज्ञान होता है । कारण कि अनंत धर्मो की सत्ता प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है। उनमें किसी नय शैली से निश्चय वयवहार नित्य - अनित्य, एक अनेक, बन्ध - मोक्ष, द्रव्य - भाव, शुद्ध - अशुद्ध, सत् -असत्, सामान्य विशेष, मूर्त - अमूर्त, गुण - गुणी, निमित्त - उपादान इत्यादि तत्वों का उपयोगी एवं वैज्ञानिक समंवय किया गया है। यदि जीवन में आत्म कल्याण की इच्छा है तो मानव को स्याद्वाद की रीति से समंवय के मार्ग पर चलना नितांत आवश्यक है। नय वाद जैन दर्शन का वैज्ञानिक अनुसंधान है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पिच्छिका से अनेक विशेष कार्य
1. संयमचर्या में पिच्छिका उपकारक है। 2. परम्परागत केवल ज्ञान का बाह्य कारण है।
मयूर को अपने कोमल सुन्दर पंखों के त्याग समय मोह और दुःख नहीं होता।
पिच्छिका के उपयोग से संयम भाव में वृद्धि । 5. यह मिथ्या भाव का नाशक 6. यह अभिमान का नाशक है 7. गृहस्थाश्रम और साधुआश्रम में अंतर दर्शक 8. नीरस होने से जीव जंतु उत्पन्न नहीं होते 9. इसमें कीटाणु निवास नहीं करते। 10. यह अचित्त एवं प्रासुक है। 11. इसमें सुगंध एवं दुर्गन्ध नहीं होती। 12. जल में सड़ती गलती नहीं । 13. कोमल होने से जीव रक्षक है प्राणदान है यह 14. पिच्छिका के देने से और लेने से पुण्याश्रव होता है। 15. पिच्छिका से भावों और क्रिया का शोधन होता है 16. पिच्छिका स्वयं शुद्ध है उसका शोधन नहीं होता है 17. आँखों में बाधक नहीं होती। 18. मयूरचन्द्रिका भस्म से अनेक रोग दूर होते हैं । 19. आशीर्वाद देने में और विनय में सहायक है। 20. रुग्णदशा में तथा परीषह में बल प्रदान करती हैं।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संयमधर्म का बाह्य उपकरण पिच्छिका
मयूर पंख निर्मित पिच्छिका दिगम्बर जैन साधुओं की चर्या के लिये अथवा संयम की साधना के लिये अत्यावश्यक है कारण कि मयूरपंखों को प्राप्त करने के लिये हिंसा आदि पाप नहीं करने पड़ते है। प्रतिवर्ष कार्तिक मास में मयूर अपने जीर्ण पंखों का स्वयं ही त्याग करते हैं। पंखों को प्राप्त करने के लिये मयूरों को मारना या किसी छल से सताना नहीं पड़ता है। स्वयं पतित मयूर पंख सरलता से वनों में प्राप्त हो जाते हैं। इसलिये श्रमण परम्परा को हिंसादि पाप दूषित नहीं करते हैं,
यद्यापि दिगम्बर श्रमण ज्ञान का साधन, शास्त्र, संयम का साधन पिच्छिका, शुद्धि का साधन कमण्डलु स्वीकार करते हैं, तथापि उनमें भी मोहभाव न होने से श्रमण परिग्रह पाप के भागी नहीं होते हैं। मयूर पंखों का अग्रभाग स्वयं इतना कोमल तथा हल्का होता है कि उनके द्वारा शोधन करने से सूक्ष्म, कमजोर एवं कोमल जन्तुओं को कष्ट नहीं होता और उनकी सुरक्षा हो जाती है इसलिये मयूर पंखो की पिच्छिका को दि. साधु अंगीकार करते हैं। पिच्छिका के पाँच उपयोग
छत्रार्थ चामरार्थं च, रक्षार्थ सर्वदेहिनाम् । यंत्र मंत्र प्रसिद्धयर्थ, पंचैते पिच्छिलक्षणम् ।।
(मंत्रलक्षणशास्त्र) तात्पर्य -
पिच्छिका के पाँच लक्षण - आवश्यकतानुसार पिच्छिका के प्रयोग (1) छत्र के लिये (2) चमर के लिये, (3) मंत्रसिद्धि के लिये, (4) यंत्रसिद्धि के लिये, (5) जीवसुरक्षार्थ ।
मयूर पंखों की पवित्रता शरीरजा अपि मयूरपिच्छ - सर्पमणि - शुक्ति- मुक्ताफलादयो लोके शुचित्व मुपागताः ।।
सन्ति मयूर पिच्छेत्र प्रतिलेखन मूर्तिजम् ।
तं प्रशंसन्ति तीर्थेशाः, दयायै योगिनां परम् ।। तात्पर्य
मयूर पंख प्राण्यंगज होते हुए भी पवित्र होते हैं, क्योंकि शरीरज होते हुए भी मयूर पंख, सर्पमणि, सीप मुक्ताफल (मोती), गजमुक्ता को लोक में पवित्र माना गया है। तीर्थेश उस मयूर पंख की प्रशंसा करते है जिससे प्रतिलेखन होता है और वह दया का उपकरण हैं।
पिच्छिका के पाँच गुण
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रजसेदाणमगहणं,मदव सुकुमालदा - लघुत्तंच । जत्थेदं पंचगुणा, तं पडि लिहणं पसंसंति ॥
(मूलाराधना) पिच्छिका के पाँच गुण - 1. धूल का निवारक, 2.स्वेद का निवारक । 3. कोमलता, 4.सुकुमारता, 5.लघुता । यह उपकरण प्रशंसनीय है।
अथ पिच्छिका गुणा: रजस्वेदाग्रहणद्वयम् । मार्दवं सुकुमारत्वं, लघुत्वं सदगुणा इमे ॥ पंचज्ञेयास्तथाज्ञेया: निर्भयादि गुणोत्तमा: । मयूर पिच्छजाताया: पिच्छिकाया जिनोदिताः ॥
(सकलकीर्ति धर्मप्रश्नोत्तर पद्य 29-30) जिन प्रतिमाधारियों को प्रतिलेखन (प्रतिशोधन) के लिये खण्डवस्त्र धारण करना पड़ता है उनको खण्डवस्त्र स्वच्छ करने की पुन: - पुन: आवश्यकता होती है परन्तु मयूर पिच्छिका को विशेष स्वच्छ करने की आवश्यकता नहीं होती, कारण कि उसमें स्वत: ही स्वच्छता गुण होता है। पिच्छिका आदि को ग्रहण करने में चौर्य आदि दोष नहीं -
प्रमत्तयोगतोयत स्याद, अदत्तादानमात्मनः ।
__ स्तेयं तत्सूत्रितं दानादानयोग्यार्थ गोचरम् ॥ तेन सामान्यतोऽदत्तमाददानस्य सन्मुनेः । सरिन्निझरणाद्यम्भ: शुष्कगोमयखण्डकम् ।
भस्मादि वा स्वयंमुक्तं, पिच्छालाम्बुफलादिकम् ॥ प्रासुकं , न भवेत् स्तेयं , प्रमत्तत्वस्य हानित: ॥
(तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 7/15)
तात्पर्य -
भूमि पर स्वयं पतित मयूरपंखों को ग्रहण करने में श्रमणों को चौर्यदोष नहीं लगता, कारण कि आवश्यकता पड़ने पर विशेष परिस्थितियों में कुछ वस्तुओं को ग्रहण करने की जिनागम में आज्ञा है जैसे नदी या झरने का पानी, शुष्क गोमयखण्ड (कण्डेकाटुकड़ा), भस्म, स्वयं पतित मयूरपंख, तुम्बीफल, समुद्री नारियल को ग्रहण करने में श्रमणों को चौर्य दोष नहीं होता है । ये सब पदार्थ प्रासुक हैं। इनको ग्रहण करना प्रमत्तता की हानि के लिये अभीष्ट हैं।
"स्वयं पतितपिच्छानां लिंगं चिह्न च योगिनाम्।" जैन श्रमणों के महान् त्याग और संयम का बोध कराने वाले पिच्छिका और कमण्डलु श्रमणत्व के परिचायक चिह्न (मुद्रा) हैं।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "मुद्रा सर्वत्र मान्यास्यात् निर्मुद्रा नैव मन्यते ।" भावलिंग के साथ पिच्छिका एवं कमण्डलु से ही श्रमणत्व की मान्यता मिलती है। क्योंकि मुद्रा से ही जगत में मान्यता प्राप्त होती है, बिना मुद्रा के नहीं। मुद्रा से विशिष्ट पहचान होती है, सभी शासकीय कार्य मुद्रा के बल पर ही संचालित होते हैं। डाक तार विभाग मुद्रा के बल पर ही चल रहा है। इसी प्रकार पीछी कमण्डलु भी दि.जैन श्रमणों की मुद्रा है। आवश्यक उपकरण
जो समणोणहि पिच्छं, गिण्हदि दे विमूढचारित्तो। सो समणसंघ वज्जो, अवंदणिज्जो सदा होदि॥
(भद्रबाहु क्रियासार) चारित्रपालन, कायोत्सर्ग, विहार, निहार, उठने बैठने आदि क्रिया में पिच्छिजैनश्रमणों के लिए एक आवश्यकउपकरण है । पिच्छिरहित श्रमण को मूढचरित्र एवं अवन्दनीय कहा है।
पिच्छिका के अन्य आगमकथित उपयोग -(1) सामायिक, (2) वन्दना, (3) प्रतिक्रमण, (4) प्रायश्चित्त (5) रुग्णदशा, (6) आहारचर्याकाल, (7) आसन, (8) उपवेशन, (9) उत्थापन, (10) गमनागमन, (11) आहारचर्या को गमनसमय पिच्छि - कमण्डलु दोनों को जैन श्रमण बाँये हाथ में धारण करते हैं । साधारण विहार के समय उनका कमण्डलु कोई भी श्रावक या ब्रह्मचारी लेकर चल सकते हैं। किन्तु पिच्छिका नहीं ले सकते।
जिसके पास पीछी - कमण्डलु है वह रत्नत्रय का धारी दिगम्बर साधु है ऐसी व्याप्ति नहीं है, किन्तु जो मोक्ष मार्गी दि. साधु है वह पीछी - कमण्डलु का धारी अवश्य है ऐसी व्याप्ति सिद्ध होती है। रत्नत्रय की साधना से ही दिगम्बर साधुओं को मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार है, पिच्छिका और कमण्डलु क्रमशः संयम
और शुद्धि के बाह्य उपकरण हैं। जो साधु स्वेच्छाचार से इन साधनों का दुरूपयोग करता है वह प्रायश्चित एवं प्रतिक्रमण का पात्र है। सारांश यह है, कि पिच्छिका एवं कमण्डलु विषय कषाय के पोषक नहीं होते हैं किन्तु ये तपस्या के बहिरंग साधन हैं।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
शाकाहार और उससे विश्व की सुरक्षा संभव
भारतीय साहित्य, धर्म और संस्कृति के विकास करने में भारतराष्ट्र के सभी दर्शनों एवं धर्मों ने अहिंसा सिद्धान्त का यथायोग्य प्रतिपादन किया है। जैनदर्शन में कहा गया है कि विश्व में एक ही प्रधान अहिंसा धर्म है और एक ही प्रधान हिंसा अधर्म (पाप) है। इससे सिद्ध होता है कि असत्य, चोरी, अपहरण, डकैती, भोगविलास, संग्रहवृत्ति, घमण्ड, क्रोध, मायाचार, भ्रष्टाचार-विचार, असंयम, शोक, हास्य, भय, घृणा, रति आदि सभी दोष हिंसा में गर्भित है अर्थात् हिंसा के दूसरे नाम हैं। इनसे विरुद्ध सभी सत्य, अचौर्य आदि गुण अहिंसा के पर्यायवाचक शब्द हैं। आ. अमृतचन्द्र ने इसी विषय को घोषित किया है - " आत्मपरिणामहिंसन, हेतुत्वात् सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिके वलमुदाहृत्तं शिष्यबोधाय ॥”
अर्थात् आत्मा के शुद्ध भावों का घात होने के कारण असत्य आदि सभी दोष हिंसा है और आत्मशुद्धि के कारण होने से सत्य आदि सभी गुण अहिंसा रूप ही हैं। वैदिक साहित्य में भी कहा गया है - अहिंसासंभवो धर्म:, स हिंसातः कथं भवेत् । न तोपजानि पद्मानि जायन्ते जातवेदसः ॥
सारांश :- अहिंसा से धर्म या पुण्य कर्म उत्पन्न होता है, वह धर्म हिंसा से कैसे उत्पन्न हो सकता है अर्थात् कभी नहीं। जैसे कि कमल जल में उत्पन्न होते हैं किन्तु अग्नि मध्य में नहीं ।
अहिंसा विश्व का व्यापक सिद्धान्त है उसकी साधना के लिये अनेक कर्त्तव्यों का निर्देश किया गया है जो मानव जीवन में अत्यन्त उपयोगी हैं जैसे सत्यप्रयोग, अचौर्य, सन्तोष, सदाचार, द्यूतत्याग, मदिरात्याग, करुणा, परोपकार, सहयोग, रात्रिभोजनत्याग, जलगालन, अभक्ष्यत्याग आदि। इनके अतिरिक्त शाकाहार भी एक श्रेष्ठ कर्त्तव्य है जिससे कि अहिंसा की साधना सुरीत्या हो सकती है। आधुनिक युग में शाकाहार बहु प्रसिद्ध कर्त्तव्य हो गया है जिससे मांसाहार, मद्यपान, कुव्यसन, शिकार करना, पशुवध और मांसनिर्यात का सर्वथा विरोध हो जाता है।
शाकाहार शब्द पर विचार करने से व्यापक और गंभीर अर्थ ही ध्वनित होता है केवल शाक (सब्जी) अर्थ ही नहीं होता है। शाकाहार दो शब्दों से रचा गया है- शाक + आहार = शाकाहार । मांस, मदिरा, पशुवध अभक्ष्यभक्षण, अण्डा आदि के विरोधी जितने खाद्य पदार्थ हैं वे सभी शाक शब्द से ग्रहण किये जाते हैं। जैसे गेहूँ, दाल, चना, उड़द, चावल, मसूर आदि खाद्यान्न पदार्थ | मूंगफली, सिंघाड़ा, रजगिरा, तिली, खशखश आदि खाद्य वस्तु । सेव, सन्तरा, केला, चीकू, अखरोट, बादाम, काजू, किसमिस, चिरोंजी, पिस्ता, गरी आदि मेवा, भिण्डी, लौकी, गिलकी, परमल, टमाटर, कृष्माण्ड, आलू, भटा, टिण्डा आदि शाक पदार्थ । दूध, जल, शरबत, चाय, आमरस, नीबू, शरबत, फलरस आदि पेय पदार्थ । सीरा, मलाई, सत्तू आदि लेह्य पदार्थ, मगध,
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पेड़ा, बरफी, इमरती, जलेबी, रसगुल्ला, फैनी, बाबर धेबर, कलाकन्द, गुजिया, चमचम आदि मिष्ठान, खारे सेव, पपड़ी, पापड़, तले चना, तली देवली, तली मूंगफली, दहीबड़ा, चटपटे भजिया एवं समोसा आदि नमकीन पदार्थ। इससे सिद्ध होता है कि शाक शब्द उक्त सभी प्रकार के भोज्य पदार्थों का उपलक्षण है। मात्र एक शब्द से शाक भाजी का ही ग्रहण नहीं समझना चाहिये ।
विचार करना है कि शाकाहार से विश्व के जीवों की सुरक्षा कैसे हो सकती है। इस समस्या पर विचार करने से स्वयं ही समाधान सिद्ध हो जाता है कि शाकाहार को प्राप्त करने में या खाने में किसी भी प्राणी का घात (कल्ल) नहीं करना पड़ता है, क्योंकि वह शाक आदि भूमि, जल और वृक्षों से प्राप्त हो जाती है। दुग्ध पशुओं से प्रसन्नतापूर्वक मिल जाता है। यह प्रत्यक्ष ही देखने में आता है कि शाकाहार करने के लिये किसी भी प्राणी का वध न होने से प्राणियों की सुरक्षा स्वयंमेव सिद्ध हो जाती है। मांसाहार से प्राणियों की सुरक्षा नहीं हो सकती।
वि.सं. 10 सती के आध्यात्मिक सन्त श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने पुरुषार्थ सि. श्लो. 65 में घोषित किया -
न बिना प्राणिविधातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यतेयेस्मात् ।
मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥
सारांश :- जिस कारण से प्राणियों के वध किये बिना मांस की प्राप्ति (उत्पत्ति) नहीं हो सकती है इस कारण मांसाहारी पुरुष को नियम से प्राणी हिंसा का दोष प्राप्त होता है। अर्थात् मांसाहार करने से प्राणियों सुरक्षा कभी नहीं हो सकती। किन्तु शाकाहार करने से ही प्राणियों की सुरक्षा संभव है।
शाकाहार में दूसरी विशेषता यह है कि भूमि, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन मूल तत्वों से उत्पन्न हुए शाक, फल, अन्न, मेवा आदि पदार्थ सर्व प्राणियों को सुख शान्ति से जीवन निर्वाह के लिये सुलभ प्राप्त हो जाते हैं इसलिये भूमि, जल आदि तत्वों की सुरक्षा करना मानव का आवश्यक कर्त्तव्य है। वर्तमान में ही पर्यावरण की सुरक्षा एवं आवश्यक संतुलन कहा जाता है।
शाकाहार के सेवन से जहां मानवों के जीवन की सुरक्षा है वहां विश्व में देश में नगर में और ग्रामों में न्याय नीति और शान्तिपूर्ण जीवन है । शाकाहार अहिंसा वृक्ष की एक शाखा है और अहिंसा विश्वा व्यापक धर्म है। नीति संग्रह में कथन है -
अहिंसा परमोधर्म:, तथाऽहिंसा परमोदमः ।
अहिंसा परमं दानं, अहिंसा परमं तपः ॥
अब विचार करना है कि वर्तमान में मानवों का जीवन नीति एवं शान्तिपूर्ण क्यों नहीं है । इच्छाओं ज्वाला क्यों बढ़ रही है ? पशु पक्षियों का अधिक वध क्यों हो रहा है ? जलपान का स्थान मदिरापान ने अधिक क्यों ले लिया है ? भ्रष्टाचार अधिक क्यों बढ़ रहा है ? इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर निकलता है कि
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वर्तमान में मानव इन्द्रिय विषयतृष्णा के कारण मांसाहार, तामसाहार और अभक्ष्याहार को अधिक मात्रा में सेवन करने लगा है इसलिये मानव के विचार दानव के समान दूषित हो गये हैं। इन्द्रियलिप्सा ने मांसाहार को बढ़ाया और मांसाहार ने प्राणिवध को बढ़ाया है। इससे मानव के दुर्विचार बढ़ने लगे हैं। हिन्दी कवि केवचन ध्यान देने योग्य हैं -
गंध के बढ़ जाने सेबाग उजड़ जाता है, आवाज बढ़ जाने से राग उजड़ जाता है । आचार बिगड़ जाने से जीवन भ्रष्ट हो जाता है, विचार बदल जाने से आचार बिगड़ जाता है । मांसाहार से मानव का विचार बदल जाता है ।
प्राणियों की हिंसा से भारत से विदेशों के लिये अधिक मांस का निर्यात हो रहा है। इससे मानवों में अशान्ति और विद्रोह की भावना बढ़ने लगी है। क्रूरभावों से ही मूक तथा निरपराध प्राणियों पर स्लाटर हाऊ सों में वैज्ञानिक शस्त्रों से प्रहार किया जा रहा है। अविवेकपूर्ण दुष्टविचारों से ही मानवों में पारस्परिक प्रेम परोपकार और सहयोग की भावना विनष्टप्राय हो रही है।
शाकाहार प्राकृतिक आहार है और मांसाहार मुर्दाप्राणियों के शरीर का आहार है। शाकाहार मानवों का आहार है और मांसाहार दानवों का आहार है। शाकाहार प्राणियों का रक्षक है और मांसाहार प्राणियों का भक्षक है । शाकाहार स्वर्ग का द्वार है और मांसाहार नरक का द्वार है । शाकाहार अहिंसा जनक है और मांसाहार हिंसा का जनक है। शाकाहार मित्रता का वर्धक है और मांसाहार शत्रुता का वर्धक है शाकाहार देश IT विधायक है और मांसाहार देश का विघातक है । शाकाहार देश का दिवाकर है और मांसाहार देश का निशाचर है । शाकाहार अमृत है और मांसाहार विष है। शाकाहार शान्ति का सागर है और मांसाहार अशान्ति का सागर । शाकाहार की जननी दया है और मांसाहार की जननी अदया है। शाकाहार का नारा - जिओ और जीने दो जमाने में सभी को और मांसाहार का नारा-मरो और मारो जमाने में सभी को ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सम्यक्चारित्र और उसकी उपयोगिता
आद्यवक्तव्य
मिथ्यात्रय, अन्याय और अमक्ष्णवस्तुओं के सेवन का परित्यागी मानव ही जैनधर्म में दीक्षित हो सकता है। सामान्य श्रावक या गृहस्थ और उनके आठ मूलगुण श्रावक की परिभाषा शास्त्रों में कही गई हैं - "शृणोति इति श्रावक"अर्थात् जो मानव जैनतत्त्वों को रूचि के साथ श्रवण करें, ज्ञान प्राप्त करें, मनन करे, याद करे, पालन करे, शंका समाधान के साथ दूसरे मानवों को समझावे, स्वयं अटल रहे, लेख लिखे और उपयोगिता को दर्शाये उसे श्रावक कहते हैं। शब्दों के संकेत के अनुसार श्रावक की व्याख्या -
श्र = श्रद्धावान, व : विवेकशील
क - क्रिया या आचरणवान् ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा श्रावक के मूलाधार, विभिन्न आचार्यों के मत से आठआठ प्रकार से कहे गये हैं। तद्यथा - (1) जिनसेनाचार्य - (5) पंचपाप विरति, (6) द्यूतविरति, (7) मांसविरति, (8) मद्यविरति । (2) सोमदेवाचार्य - 1 मद्यत्याग, 2 मांसत्याग, 3 मधुत्याग, 5 उदुम्बर फलत्याग । (3) अमृत चन्द्राचार्य - 3 मद्यमांसमधुत्याग, 5 उदुम्बर फलहत्याग । (4) पं. आशाधर जी - 3 मधमांसमधुत्याग । 5 क्षीर फलत्याग । (5) अन्य आचार्य - 5 हिंसादिपंचपापविरति । 3 द्यूत मद्यमांस विरति । (6) अन्य आचार्य - 3 मद्यमांसमधुत्याग, 4 रात्रिभोजनत्याग, 5 पंचोदुम्बरत्याग, 6 परमेष्ठी श्री देवदर्शन,
7 जीवदया, 8 सलिलगालन । (7) आचार्य शिवकोटि - 3 मद्यमांसमधुविरति, 5 अणुव्रत । (8) राजमल्ल महाकवि - 3 मद्य मांसमधुविरति । 5 पंचोदुम्बर फलविरति । चारित्र की आवश्यकता - 1. . मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्त संज्ञान :।
रागद्वेषनिवृत्यै, चरणं प्रति पद्यते साधुः ॥ 2. रागद्वेषनिव्रते: हिंसादिनिवर्तना कृता भवति ।
अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरूष: सेवते नृपतीन ॥
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अपि च -
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्तिणिदिट्ठो । मोहक्खो हविहीणो, परिणामो अप्पणोदु समो ॥ (प्रवचनसारगाथा )
चारित्र स्वरूप :
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
संसारकारणनिवृत्तिंप्रति आगूर्णस्य ज्ञानवतो बाह्याभ्यन्तर क्रियाविशेषोपरमः सम्यक् चारित्रम् । (रा.वा.अ. 9) हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया । धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुल: ||1|| ज्ञानं पंगौ क्रियाचान्धेः निःश्रद्धे नार्थकृदद्वयम् । ततो ज्ञान क्रियाश्रद्धा त्रयं सत्पदकारणम् 11211
जैसे ज्ञानरहित करनी अन्धी है धक्के खाती है ईर्षा तृष्णा की भट्टी में जलती है चिल्लाती है । उसी तरह से बिना क्रिया के, ज्ञान पंगु है थोथा है, जो चारित्रहीन हैं उनको, कहने भर का पोथा है ।
ज्ञान आंख तो क्रिया पैर है, क्या यह समझाना होगा पढ़ लेना ही पूर्ण नहीं, जीवन में लाना होगा । कोरी कथनी शब्द जाल है, करनी ही फल दाता है, अक्षर ज्ञान व्यर्थ, यदि करते, नहीं कहा जो जाता है ॥
पण्डित बनना बुरा नहीं, लेकिन इस पर तो गौर करो जीवन में कुछ उतार पाये, जो कुछ भी शोर करो । यदि उपयोग नहीं कर पाये, ज्ञान व्यर्थ ही जावेगा, लाद पुस्तकें गधा पीठ पर, क्या ज्ञानी कहलायेगा ||
गिद्ध उड़े ऊँचा कितना ही, नभ में कभी विचार किया सदा जमी पर पड़े मांस टुकड़ों से उसने प्यार किया । यों बकवादी बातें करता, लम्बी चौड़ी बड़ी बड़ी, किन्तु विषय भोगों की चरबी चरता रहता पड़ी पड़ी ॥
चरित्र दोष :
1 अतिक्रम, 2 व्यतिक्रम, 3 अतिचार, 4 अनाचार श्लोक अतिक्रमो मानसशुद्धिहानिः, व्यतिक्रमोयो विषयाभिलाषः । तथाविचारं कारणालसत्वं, भंगो ह्यना चारमिह व्रतानाम || समीक्ष्य व्रतभादेयम् ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उपादान और निमित्त कारण द्वय की आवश्यकता
यह विश्व षद्रव्यों का संयोगी रूप है । द्रव्य वह है जिसमें उत्पाद - व्यय और ध्रौव्य है अथवा जिसमें गुण और क्रमवर्ती पर्यायों की सत्ता है। प्रत्येक द्रव्य उत्पत्तिक्रिया, लय क्रिया और नित्यता से व्याप्त है अतएव वह अनंत पर्यायात्मक द्रव्य है
उक्तं च ............... "सद् द्रव्य लक्षणम्" "उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्तं सत्" "गुणपर्ययवद् द्रव्यम्"
(मोक्षशास्त्र अ. -5) जब कि द्रव्य में उत्पाद और व्यय सिद्ध है तो उसमें पर्यायात्मक कार्य कारण भाव स्वयमेव उपस्थित हो जाता है। यदि कोई वस्तु विशेष कार्यरूप है या पर्याय रूप है तो उसका कारण अवश्य ही होना चाहिए । क्योंकि बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता है। कारण अपेक्षित कार्य होता है अतएव लोक में कार्यकारण संबंध की सत्ता सिद्ध है और प्रति समय उसका उपयोग भी किया जाता है। इसलिए कार्य कारण भाव का विचार हो जाना आवश्यक है ।
लोक में कार्य के प्रति किसी को विवाद नहीं किन्तु विवाद कारण के प्रति है । वह कारण मूलत: दो प्रकार का है 1. उपादान कारण, 2. निमित्त कारण। द्रव्य की प्रत्येक पर्याय में दोनों कारण अपेक्षित हैं। तथाहिविशेषपर्याय का उपादान कारण वह द्रव्य स्वयं होता है जो कि उस पर्याय (कार्य) रूप परिणत होता है, उस द्रव्य में निमित्तवशात्, उस कार्य रूप व्यक्त में होने की शक्ति है इसी को उपादान कारण या अंतरंग कारण कहते है । और द्रव्य के उस विशेष कार्यरूप परिणत होने में जो कारण मात्र है उसे बाह्य कारण या निमित्तकारण कहते है । जैसे घटकार्य के प्रति मिट्टी उपादानकारण और दण्ड - चक्र कुम्भकारादि बाह्य निमित्तकारण हैं। घट के ये कारणद्वय प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है।
श्री तत्त्वार्थ राजवार्तिक में श्री मदकलंक देव ने कहा है - "कार्य स्थाने कोपकरण साध्यत्वात् तत्सिद्धे: - इह लोके कार्यमनेकोपक रणसाध्यं दृष्टं - यथा मृत्पिण्डो घटकार्य परिणाम प्राप्ति प्रति गृहीताभ्यंतर सामर्थ्य: बाह्यकुलाल दण्ड चक्र सूत्रोदक कालाकाशा धनेकोपकरणापेक्ष: घटपर्यायेणाविर्भवति । नेक एव मृतिण्ड: कुलालादिबाह्य -साधन सन्निधानेन विना घटात्मनाविर्भवितुं समर्थ: । तथा पतत्त्रिप्रभृतिद्रव्यं गति स्थितिपरिणाम प्राप्तिं - प्रत्यभिमुखं नान्तरेण बाह्यनेककारण सन्निधिं गति स्थितिं वा प्राप्तुमलमिति तदुपग्रह कारण धर्मा धर्मास्ति काय सिद्धिः इति" उक्त प्रमाण से कारणद्वय की सिद्धि होती है।
(त.रा.वा.अ. 5 स. 17 पृ. 214)
किञ्च -
उपादानकारण की सत्ता पृथक् सिद्ध है और निमित्तकारण की सत्ता भी पृथक् सिद्ध है। दोनों में स्वतंत्रसिद्ध पृथक् - पृथक् स्वशक्ति है, दोनों के पृथक् गुण हैं, इसलिए निमित्तकारण उपादान रूप नहीं होता
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ और न कार्य का सर्वथा कर्ता है किन्तु कार्य की सिद्धि में सहायक निमित्त (आश्रय) मात्र अवश्य है अथवा प्रभावक है। उक्तं च राजवार्तिके -
"यथा कुण्टरच गतिपरिणाम समर्थस्य यष्टिरूपग्राहिका, न तुसा तस्य गते: की। यद्यसमर्थस्यापि की भवेत् तर्हिमूर्च्छितसुषुप्तादीनामपि यष्टिसम्बन्धाद्गतिः स्यात्। यथा वा नयनस्य स्वतो दर्शन समर्थस्य प्रदीप उपग्राहकः न तु प्रदीपो नेत्रस्य दर्शनशक्ते: कर्ता । यद्यसमर्थस्यापि कर्ता स्यात् मूर्च्छित सुषुप्त जात्यन्धानामपि दर्शनं कुर्यात्॥" (रा.वा.अ.5 पृ. 213) अपिच -
__ “यथा मृदः स्वयमन्तर्घटभवन परिणामाभिमुख्ये, दण्ड - चक्रपौरूवेयप्रयत्नादिनिमित्तमात्रं भवति। यत: सत्स्वपि दण्डादिनिमित्तेषु शर्क रादि प्रचितो मृत्पिण्ड: स्वय मन्तर्घटभवन परिणाम निरूत्सुकत्वान्न घटीभवति । अतो मृपिण्ड एव बाह्य दण्डादिनिमित्तापेक्ष: आभ्यन्तर परिणामसान्निध्यात् घटो भवति, न दण्डादयः, इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्वं । तथा पर्यायिपर्याययो: स्यादन्य - त्वादात्मनः, स्वयमन्तः श्रुतभवन परिणामाभिमुख्ये - मतिज्ञानं निमित्तमात्रं भवति" इति । प्रमाणान्तर - (रा.वा.अ.प्र.पृ. 50)
स्कंधरूप कार्य की उत्पत्ति में निमित्त भेद संघात तथा भेद संघात कहे गये हैं। यहाँ पर भेद का लक्षण राज वार्तिक में कहा है, उसके भी दो कारण हैं निमित्त और उपादान । उक्तं च -
"बाह्याभ्यन्तर विपरिणाम कारण सन्निधाने सति संहतानां स्कन्धानां विदारण नानात्वं भेद इत्युच्यते।
भेदसंघातेभ्य: इत्ययं हेतुनिर्देश: तदपेक्षो वेदितव्य:, निमित्तकारण हेतुषु सर्वासां प्रदर्शनात् इति भेद संघातेभ्य: करणेभ्य: उत्पद्यन्ते इति हेत्वर्थगते: " (रा.वा.पृ.237 अ. 5 सू. 26)
उक्त उद्धहरण क्रमश: धर्माधर्मद्रव्य में, श्रुत के प्रति मतिज्ञान में, और स्कन्धकार्य के प्रति भेदादि में निमित्तत्व सिद्ध करते हैं उनकी सिद्धि में जो लौकिक दृष्टांत प्रदीप, दण्ड चक्र आदि - विषयक दिये गये है उनमें भी उपादान - निमित्तकारणत्व प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। किञ्च -
निश्चयनय से जीव स्वभावत: शुद्ध है परन्तु वह इस समय संसार में शुद्धक्यों नहीं है, और अपार विशद ज्ञान तथा दर्शन आदि गुणों का विकास क्यों नहीं हो रहा है। विचार करने पर इसका उत्तर यही मिलता है कि आत्मा के साथ किसी में निमित्त का संयोग है कि जिन दो वस्तुओं के संयोग से दोनों में विकार उत्पन्न हो रहा है जिससे कि यह आत्मा अपने स्वभाव से हटकर अन्य कषाय पापादिरूप परिणत हो रहा है। यह तो सबको स्पष्ट दिखाई दे रहा है। और जब कर्म का निमित्त दूर हो जाता है तब यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। यदि निमित्त न माना जाये तो यह विकार दशा कौन कर रहा है ! क्योंकि आत्मा का स्वभाव तो विकृत है
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ नहीं। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि आत्मा उपादान और कर्म के निमित्त से ही यह आत्मा की विकृत दशा को प्राप्त हुआ है। जिसको दूर करने का हम और आप सब ही प्रयत्न करते हैं । उक्तं च -
जीवपरिणाम हेर्दू, कम्मत्तं पुग्गला परिणमन्ति ॥
पुग्गलकम्मणिमित्तं, तहेव जीवो वि परिणमदि। (समयसार गाथा नं. 86) इसकी संस्कृत टीका में श्री जय सेनाचार्य जी कहते हैं -
“यथा कुम्भकारनिमित्तेन मृत्तिका घटरूपेण परिणमति तथा जीव सम्बन्धि मिथ्यात्वरागादिपरिणाम हेतुं लब्ध्वा कर्मवर्गणायोग्यं पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन परिणमति । यथैव च घटनिमित्तेन एवंघटं करोमीति कुम्भकार: परिणमति तथैवोदयागत पुद्गलकर्म हेतुं कृत्वा जीवोऽपि निर्विकार चित्चमत्कार परिणति मलभयान: सन् मिथ्यात्वरागादि विभावेन परिणमतीति" (समयसार - गाथा 80 संस्कृतर्यका)
उक्त उद्धहरण से यह सिद्ध हो जाता है कि जैसे कुम्भकार आदि निमित्त से मिट्टी घटरूप हो जाती है उसी प्रकार रागादिपरिणामों से कर्मवर्गणा ज्ञानावरणादि रूप परिणत हो जाती है और उनके निमित्त से आत्मा में भी विकार हो जाता है। इससे कारणद्वय की सिद्धि होती है। अपि च -
"आस्तां घात: प्रदेशेषु संदृष्टे रूप लब्धित: ॥ वातव्याधेर्यथाध्यक्षं पीडयन्ते ननु सन्धयः ॥"
(पंचाध्यायी अ. 2, श्लोक 249) अर्थात् - जैसे वातरोग के हो जाने पर सन्धि सन्धि में प्रत्यक्ष पीड़ा होती है वैसे ही कर्मरोग के निमित्त से जीव के प्रदेशों में विकार तो होता ही है साथ ही दुःखानुभव भी होता है । यहाँ पर उपादान और निमित्त की क्रिया सिद्ध होती है।
अन्य प्रमाण - नैमित्तिक क्रिया या व्रतादि अनुष्ठानों द्वारा भी आत्मा पर बहुत प्रभाव पड़ता है इसीलिये व्यवहार चारित्र या अर्चा आदि अनुष्ठानों को व्यर्थ नहीं कहा जा सकता है । श्री आचार्य कल्प पण्डित प्रवर आशा धर जी ने कहा है -
पञ्चम्यादिविधिं कृत्वा, शिवान्ताभ्युदयप्रदम् ॥
उद्योतयेद्यथा सम्पन्निमित्ते प्रोत्सहेन्मन: ॥ अर्थात् - श्रावक मोक्ष पर्यन्त इन्द्रादिपदों के दाता पञ्चमी, पुष्पाञ्जलि , मुक्तावली, रत्नत्रयादि ब्रतविधानों को शास्त्रानुसार करके स्वद्रव्य के अनुसार उनका उद्यापन करावे। क्योंकि दैनिक क्रियाओं को करने की अपेक्षा नैमित्तिक क्रियाओं के करने में मन अधिक उत्साहित होता है।
(सागार धर्मामृत अ. 2 श्लोक 78) इससे सिद्ध है कि ग्रहस्थधर्म में भी आत्मोन्नति के लिए उपादान कारण आत्मा और निमित्तकारण
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ व्यवहार चारित्र की युगपत् आवश्यकता है । क्योंकि निमित्त का प्रभाव उपादान पर व्यक्त होता है।
इस प्रकार संस्कृत साहित्य में निमित्त और उपादान की सिद्धि के लिए अनेकों प्रमाण ग्रन्थकारों ने कहे हैं जिनका मनन कर अपने विचार स्थिर करना चाहिए। _____ जब हिन्दी जैन साहित्य की ओर दृष्टिपात किया जाये तो उसमें भी अनेकों प्रमाण प्राप्त होते हैं, कुछ प्रमाण यहाँ भी देखिये । श्री कविवर पं. दौलतराम जी ने कहा है - “सम्यग्दर्शन ज्ञानचरण शिवमग सो द्विविध विचारो । जो सत्यारथ रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो ॥" (छहढाला तृतीयढाल)
यहाँ मोक्षमार्ग दो प्रकार का कहा गया है एक सत्यार्थरूप निश्चयमार्ग जो उपादान रूप है और दूसरा व्यवहार अर्थात् निमित्तरूप जो निश्चय का कारण है। इस प्रकार निश्चय (उपादान) और व्यवहार (निमित्त) रूप मोक्षमार्ग के द्वारा मुक्ति की प्राप्ति होती है। अन्य प्रमाण - श्री कविवर बनारसीदास जी ने कहा है -
"ज्ञाननैन किरियाचरन, दोऊ शिवमगधार । उपादान निहचै जहाँ, है निमित्त व्योहार ॥1॥ उपादान निजगुण जहाँ, तहँ निमित्त पर होय ॥ भेद ज्ञान परवान विधि, विरला बूझे कोय ।।2।।"
(बनारसी विलास पृ. 230) उक्त छन्दों में भी उपादान और निमित्त की आवश्यकता कार्य के प्रति व्यक्त की गई है। उसी को निश्चय और व्यवहार कहते हैं। दोनों से ही इष्ट की सिद्धि मानी गई है। इस विषय में और भी अनेक प्रमाण अन्वेषित किये जा सकते हैं, पर विस्तार के भय से यहाँ अधिक नहीं दिये गये हैं। निमित्तैकान्त में दोष -
प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में निमित्त और उपादान दोनों की आवश्यकता रहती है यह सप्रमाण कहा जा चुका है।
यदि कोई व्यक्ति यह विषय प्रकट करे कि कार्योत्पादन में निमित्त ही बड़ा बलवान तथा कार्यकरण में समर्थ है वह ही सर्वशक्तिमान है। प्रत्येक व्यक्ति उसकी ही अपेक्षा रखते हैं,उपादान की नहीं। उपादान में कार्य के प्रति सामर्थ्य नहीं है । इत्यादि । उसका यह कथन दोषपूर्ण है। यदि निमित्तैकान्त माना जाये जो वस्तु या वस्तुतत्त्व का लोप हो जायेगा, आध्यात्मिकता का लोप होकर क्रिया काण्डमात्र ही प्रधान हो जायेगा। विश्व के प्राणी अपने लक्ष्य की सिद्धि न कर सकेंगे। श्री अमृतचंद्राचार्य जी ने इस विषय में कहा है -
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कृतित्व/हिन्दी
(समयसार कलश - 221 )
अर्थात् - जो रागद्वेषादि की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही निमित्तैकांत रूप से मानते हैं, शुद्ध ज्ञान नेत्र से ही वे व्यक्ति मोहरूपी नदी को पार नहीं कर सकते हैं अर्थात् वे मिथ्यात्व के पंजे से नहीं छूट सकते हैं। वे केवल ब्राह्यसामग्री में ही उलझे रहेंगे, अपने मुख्य लक्ष्य को प्राप्त नहीं हो सकते ।
वृत्ति:
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
"रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ॥"
अन्य प्रमाण -
श्री समंतभद्राचार्य जी ने निमित्तैकान्त में दोष दर्शाते हुए कहा है।
"बहिरङ्गार्थतैकान्ते, प्रमाणाभासनिह्नवात ।
सर्वेषां कार्यसिद्धि: स्याद, विरूद्धार्थाभिधायिनाम् ॥"
“बहिरङ्गार्थतैकान्त: बाह्यार्थे कान्तः तस्मिन्नभ्युपगम्यमाने विरूद्धार्थाभिधायिनां सर्वेषां कार्यसिद्धिः भवेत् प्रमाणाभास निराकरणात् - इत्यादि "
(आप्तमीमांसा कारिका 81 वृत्ति सहिता )
अर्थात् - बहिरंगार्थ को एकान्तरूप से मानने पर सब विरूद्ध वस्तुतत्त्व के वक्ताओं के भी उसमें प्रमाणाभास (मिथ्यात्व) के निराकरण से सब कार्यो की सिद्धि हो जाना चाहिए, पर यह देखा नहीं जाता है। इससे सिद्ध है । कि निमित्तैकान्त कार्य के प्रति उपयोगी नहीं है।
निमित्तैकान्त के मानने पर मनुष्य का जीवन स्तर उन्नत नहीं हो सकता है । उपादानैकान्त में दोष
यदि कोई व्यक्ति निमित्त की उपेक्षा कर उपादानैकान्त में ही अपनी श्रद्धा व्यक्त करता है, उस ही को सर्वशक्तिमान, कार्योपादन में समर्थ, स्वतंत्रोपयोगी सर्वव्यापक मानता है, निमित्त की सत्ता भी नहीं मानता। है तो उसकी यह मान्यता भ्रमपूर्ण है। क्योंकि उपादानैकान्त के मानने में व्यवहार चारित्र, व्रतादि अनुष्ठान, दैनिकचर्या, नैमित्तिकक्रियाकाण्ड और कारण सामग्री के समरंभ समारंभ आरंभ का लोप हो जायेगा । यदि कोई व्यक्ति पढ़ना चाहता है तो उसको निमित्तकारणों के प्रति अपना पौरूष नहीं करना चाहिए, न बाह्यविनय आदि भी करना चाहिए, किन्तु स्वतः ग्रन्थाध्ययनरूप कार्य सिद्ध हो जाना चाहिए, पर यह स्पष्टतया लोक में देखा नहीं जाता है । अत: यह पक्ष भी उपादेय नहीं है । श्रीसमन्तभद्राचार्य ने अंतरङ्गर्थेकान्त के विषय में कहा है“अंतरङ्गार्थतैकान्ते, बुद्धिवाक्यं मृषाऽखिलम् । प्रमाणाभासमेवात - स्तत्प्रमाणदृते कथम् ॥"
(आप्तमीमांसा अ. 7 श्लोक 79 सवृत्ति) अर्थात् - अन्तरङ्गार्थ को एकान्ततया मानने पर बाल अर्थ के ज्ञान से पूर्ण बुद्धि तथा अनुमान के
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ निमित्त अन्य पदार्थ और अनुमानादि के वाक्य सब कुछ मिथ्या हो जाना चाहिए। पर यह सब मिथ्या नहीं देखे जाते हैं। यही एकान्त मिथ्यात्व है जो कार्यकारी नहीं और पतन का कारण है।
"यदि कोई यहाँ शंका करे कि जिसको आप निमित्त कहते हैं, वह भी अपनी स्वतंत्रसत्ता, शक्ति, क्रिया की अपेक्षा उपादान ही है और इसी उपादान से कार्य की सिद्धि होती है। निमित्त न है और न उससे कार्य की सिद्धि की कल्पना भी होती है। इसलिए उपादान ही सर्वथा उपयोगी कार्यकारी है"।
उक्त व्यक्ति की यह शंका भी निर्मूल है क्योंकि यदि निमित्तकारण अपनी सत्ता, शक्ति, क्रिया की अपेक्षा उपादान रूप है तो अन्य पदार्थ की अपेक्षा वह निमित्त रूप अवश्य हो सकता है। जैसे रथकार अपनी सत्ता, शक्ति और क्रिया के प्रति वह स्वयं उपादान रूप है तो वह रथकार रथ के प्रति निमित्तरूप अवश्य है। इस प्रकार अपेक्षावाद या स्याद्वादशैली से विचार करने पर उक्त शंका निर्मूल हो जाती है । एक वस्तु में अपेक्षाकृत उपादान और निमित्त की मान्यता में कोई विरोध नहीं आता है। अत: उपादानैकान्त भी उपादेय
नहीं है।
निरपेक्ष उभयैकान्त में दोष -
यदि कोई व्यक्ति निमित्त तथा उपादान की पृथक् सत्ता तो स्वीकार करता है परन्तु दोनों में परस्पर कोई सम्बंध नहीं मानता है। दोनों निरपेक्ष कार्य के प्रति रहते है तो उसकी यह मान्यता भी भ्रमपूर्ण है । क्योंकि यदि दोनों निरपेक्ष कार्य के प्रति हैं कोई उनमें परस्पर सम्बंध नहीं है तो निमित्त उपादान इस व्यवहार का लोप हो जायेगा, अपने कार्य के प्रति ही तो उन दोनों वस्तुओं में निमित्त उपादान का व्यवहार होता है। वस्तु के असम्बंध में व्यवहार नहीं हो सकता। कार्य के प्रति कारणों का संयोग तथा वियोग होना प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है। निरपेक्ष मान्यता में मानव के इष्ट कार्यो की सिद्धि, नूतन आविष्कार और उद्योग का अभाव हो जायेगा। मानव का सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन, पतन के सन्मुख हो जायेगा । अकर्मण्यता का ताण्डव विश्व में दिखाई देगा। मानव "किंकर्तव्य विमूढ़" हो जायेगा। अत: यह मान्यता मिथ्या ही है। स्याद्वाद से उभय की सिद्धि
उक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि - निमित्तैकान्त, उपादानैकान्त और उभयैकान्त की मान्यतायें वस्तुसिद्धि में अकार्यकारी ही नहीं हैं अपितु दोषपूर्ण भी हैं जो उपादेय नहीं है । अब प्रश्न यह होता है कि वह कौनसा मार्ग है जो उपयोगी तथा वस्तुसिद्धि में समर्थ हो और जिसको विश्व के मानव स्वीकार कर अपना हित करने में समर्थ हो सकें। जैन सिद्धांत ग्रन्थों के अनुशीलन करने से यह ज्ञात होता है कि स्याद्वाद शैली से ही वस्तुसिद्धि में निमित्त तथा उपादान का सामञ्जस्य सिद्ध होता है। पदार्थ अनेक धर्मात्मक हैं, जिस प्रकार उनमें नित्यानित्य, एकानेक, सदसत् आदि धर्म हैं उसी प्रकार उनमें निमित्तोपादानत्व धर्म भी है। स्वधर्म की अपेक्षा उनमें उपादानत्व है और परद्रव्य की अपेक्षा उनमें निमित्तत्व है। पर कथन में जब उपादान की विवक्षा होती है तब निमित्तगौण रहता है और जब निमित्त की विवक्षा होती है तब उपादान गौण रहता है किन्तु गौण होने से वह लुप्त नहीं होता है। उसकी सत्ता रहती है ।पदार्थो का संयोग - वियोग सदा होता रहता है
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इसलिए उनमें परिणमन होना भी स्वाभाविक है । अत: वस्तु तत्त्व की सिद्धि के लिए स्याद्वाद का आश्रय लेना ही श्रेयस्कर है। उससे ही निमित्त तथा उपादान का सामञ्जस्य कार्य के प्रति सिद्ध होता है । सामयिक कर्तव्य
र्तमान विज्ञान का युग है। मानव बुद्धिवाद और तर्कवाद की धारा को अपना कर उन्नति की ओर जाना चाहते हैं । राष्ट्रों और समाजों में महान् परिवर्तन हो रहे है। राष्ट्र नव्यनिर्माण की ओर प्रगति कर रहा है। ऐसी अवस्था में किसी भी विषय को विवाद ग्रस्त न बनाकर उसे सरलता से शीघ्र ही सुलझा लेना ही अच्छा है। इससे समाज की शक्ति क्षीण न होगी, पारस्परिक मनोमालिन्य जागृत न होगा, व्यर्थ भेदभाव का संचार न होगा, समय और द्रव्य का अपव्यय न होगा ।
यदि हम सब मिलकर शान्तिरीत्या विवादापन्न विषयों का हल नहीं निकालते हैं, केवल विवाद में पड़कर प्रश्न को जटिल करना चाहते हैं तो इसमें शक नहीं कि नया मत स्थापित हो सकता है। जिससे कि देश के साथ होने वाली हमारी महती प्रगति में महान् विघ्न उपस्थित हो जायेगा । अतः समय के अनुकूल जागृत होकर देश के साथ प्रगति करना हम सब का कर्तव्य है । वर्तमान जैन समाज में निमित्तपादान के आधार पर जो बहुत विवाद खड़ा हो गया है उसके शान्त करने के लिए ही यह संकेतमात्र है। ओम शान्तिः ॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्रुतपंचमी महापर्व - एक सात्त्विक चिन्तन
लोक में रत्न दो प्रकार के होते हैं । (1) आध्यात्मिक रत्न, (2) भौतिक रत्न । भौतिक रत्न वसुन्धरा में समुद्रों में, खदानों में, जौहरी बाजारों में, स्वर्गो में, मंदिरों में ,देवों के भवनों में और नृप आदि श्रीमानों के भवनों में उपलब्ध होते हैं। परन्तु आध्यात्मिक रत्न आत्मा में ही चमकते हैं, आत्मा को छोड़कर अन्य पुद्गल द्रव्य, भौतिक पदार्थ, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और काल द्रव्य तथा तीनलोक, आलोक में तीन कालों में कहीं भी विद्यमान नहीं हैं । द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में कहा गया है।
रयणत्तयं ण वट्टइ, अप्पाणंमुयतु अण्णदवियम्हि । तह्मातत्तियमइयो, होदिहु मोक्खस्सकारणं आदा ॥
(नेमिचन्द्रमुनिराज : द्रव्य संग्रह गाथा 40) सारांश - सम्यक्दर्शन ज्ञान चरित्र रूप रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में, लोक, अलोक तीन लोक और तीन कालों में कहीं भी विद्यमान नहीं हैं। इसलिये रत्नत्रय स्वरूप आत्मा ही निश्चय से मोक्ष का कारण है अथवा मोक्ष स्वरूप है (1) समीचीन तत्व श्रद्धान, (2) सम्यक् तत्वज्ञान, (3) सम्यक् चरित्र ये तीन अक्षय श्रेष्ठ गुण प्रत्येक आत्मा में सर्वदा एक साथ मोक्षमार्ग में और मोक्ष में विशिष्ट सत्ता से सुरक्षित हैं । प्रत्येक मानव को इनके पूर्व विकास के लिये पुरुषार्थ करना चाहिये । यहां सम्यक्ज्ञान विवक्षित है इसलिये उनका वर्णन किया जाता है।
__संशय, विपर्यय और विमोह दोषों से रहित, सम्यग्दर्शन के साथ उदित होने वाले या उदित हुए तत्वज्ञान को सम्यक्ज्ञान कहते हैं । अथवा आचार्य वट्टकेर स्वामी ने मूलाचार श्लोक 100 में घोषित किया है।
"जेणतच्चं विवुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरूज्झदि ।
जेण अत्ता विसुज्झज्ज, तं गाणं जिणसासणे ।। 70॥" अर्थात- जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जा सके, जिससे मनोबल विषय कषायों से विरक्त हो जाये, जिससे आत्मा विशुद्ध हो जाय उसको जिनशासन में सम्यक्ज्ञान कहा गया है।
सम्यक्ज्ञान के पंचभेद होते हैं (1) मतिज्ञान, (2) श्रतु ज्ञान. (3) अवधिज्ञान, (4) मन: पर्यय ज्ञान, (5)केवलज्ञान । इनमें से श्रुतज्ञान का कथन विवक्षित है जो ज्ञातव्य है ।
श्रुतज्ञान दो प्रकार का है (1) भाव श्रुत अर्थात् ज्ञानात्मक (2) द्रव्यश्रुत अर्थात् शब्दात्मक शेषचार ज्ञान वस्तुस्वरूप के ज्ञापक है, परन्तु शब्दरूप से कथन करने वाले नहीं हैं। यह श्रुतज्ञान की एक विशेषता है। इसी विषय को सर्वार्थ सिद्धि में स्पष्ट किया है -
"तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च । तत्र स्वार्थ प्रमाणं श्रुत वजम् । श्रुतं पुन: स्वार्थ भवति परार्थ च। ज्ञानात्मकं स्वार्थ , वचनात्मकं परार्थ तद्विकल्पानया:।"
(आ. पूज्यपादः सर्वार्थ सिद्धि : सूत्र 6. पृ. 18) -280
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
तात्पर्य : उक्त पांच प्रकार का ज्ञान प्रमाण ( वास्तविक) है। उनमें श्रुतज्ञान स्वार्थ (ज्ञानात्मक) है। और परार्थ (शब्दात्मक) भी है। शेष चार ज्ञान स्वार्थ ही हैं परार्थ नहीं हैं । ज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण और वचनात्मक परार्थ प्रमाण कहा जाता है। इनके भेद नयरूप हो जाते हैं। स्पष्ट यह है कि श्रुतज्ञान में ही पदार्थ को जानने की शक्ति है और पदार्थ के स्वरूप को कहने की शक्ति भी है। शेष चार ज्ञानों में केवल पदार्थ को जानने की शक्ति है कथन करने की शक्ति नहीं है । इसलिये तत्व को जानने के लिये, बोलने के लिये और लिखने के लिये श्रुतज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है। यह विशेष है कि अर्हन्त का केवल ज्ञान अक्षर रहित ही पदार्थ का पोषक होता है सातिशय ।
भगवान महावीर के निर्वाण से 683 वर्ष तक गणधर, उपगणधर, अंगपूर्व ज्ञान धारी आचार्यो के द्वारा ज्ञानात्मक एवं शब्दात्मक श्रुतज्ञान की परम्परा मौखिक रूप से चलती रही, लिपिबद्ध नहीं ।
भगवान महावीर निर्वाण के प्राय: 723 वर्ष पश्चात् श्रीधरसेन आचार्य ने कलिकाल में श्रुतज्ञान की सुरक्षा हेतु श्रुतज्ञान को जानने तथा बोलने के साथ लिपिबद्ध करने का शुभारंभ किया । जिसका इतिहास षट्खण्डागम जीव काण्डः सत्प्ररूपणा के आधार पर इस प्रकार है :
सौराष्ट्र (गुजरात) देश के गिरिनगर ( गिरनार ) की चन्द्रगुफा में तपस्यानिष्ठ, अष्टांगमहानिमित्त विद्या के पारगामी, प्रवचन वत्सल धरसेनाचार्य ने, पंचमकाल में श्रुतज्ञान विच्छेद के भय से महिमानगरी में पंचवर्षीय साधु सम्मेलन में सम्मिलित हुए दक्षिण देश (प्रान्त) के वरिष्ठ आचार्यों के पास संस्कृत में एक पत्र लिखकर भेजा । पत्र में लिखित धरसेनाचार्य के वचनों को गंभीरता से समझकर उन वरिष्ठ आचार्यो ने सिद्धांत को ग्रहण एवं धारण में समर्थनिर्मल एवं उज्जवल विनय से विभूषित, अंगधारी, गुरूओं द्वारा प्रेषणरूप भोजन से सन्तुष्ट, देशकुल जाति से शुद्ध, सकल कलाओं में पारंगत, आचार्यो द्वारा तीन बार प्रदत्त आज्ञा के शिरोधारी ऐसे दो दिगम्बर साधुओं को आन्ध्रदेश में बहने वाली वेणानदी के तटमार्ग से भेजा ।
मार्ग में उन दोनों साधुओं के आते समय, कुन्द पुष्प, चन्द्र और शंख के समान सफेदवर्ण सहित, शुभ लक्षणों से शोभित, धरसेन की तीन प्रदक्षिणा देने वाले, आचार्य के चरणों में नम्रीभूत दो सुन्दर बैलों को धरसेन भट्टारक रात्रि के अन्तिम भाग में स्वप्न में देखकर प्रसन्न हुए और धरसेनाचार्य ने उसी समय "श्रुत देवता जयताम् (श्रुतज्ञान रूपी देवता जयवंत हो) ऐसा शुभ वाक्य का उच्चारण किया ।"
उसी दिन दक्षिण देश से प्रेषित वे दोनों साधु धरसेनाचार्य के समीप आये । धरसेनाचार्य की पाद वन्दना आदि कृति कर्म के पश्चात् दो दिन व्यतीत कर तीसरे दिन उन दोनों साधुओं ने धरसेन से निवेदन किया कि इस विशेष कार्य हेतु हम दोनों आपके पादमूल में आये हुए हैं। उनके निवेदन को सुनकर आचार्य श्रेष्ठ ने शुभ हो कल्याण हो इस प्रकार मंगलाशीष कहते हुए उन दोनों साधुओं के लिये आश्वासन दिया ।
यद्यपि धरसेनाचार्य ने शुभ स्वप्न देखने मात्र से उन दोनों साधुओं के विशेष गुणों को जान लिया था, तथापि उनकी विशेष परीक्षा लेने हेतु निश्चय किया। कारण कि शिष्य की परीक्षा करने से गुरू के मन में संतोष हो जाता है।
पश्चात् धरसेनाचार्य ने परीक्षार्थ उन साधुद्वय को दो विद्याएँ सिद्ध करने के लिये प्रदान की। एक साधु के लिये अधिक अक्षरवाला मंत्र । और दूसरे के लिये कम अक्षर वाला मंत्र विद्या सिद्ध करने के लिये
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रदान किया। इन विद्याओं को दो दिनों के उपवास के साथ सिद्ध करो- ऐसा आदेश भी दिया । अनन्तर वे दोनों मुनिराज वन में एकान्त देश में स्व विद्या को सिद्ध करने में तत्पर हुए। फलस्वरूप एक अक्षर कम मंत्र के साधक साधु को काणा देव और एक अक्षर अधिक मंत्र के साधक साधु को एक दन्तवाला देव सामने उपस्थित हुआ। दोनों ने विचार किया कि देव तो सर्वांग सुन्दर होते हैं ये विकलाँग देव कैसे उपस्थित हुए। आश्चर्यान्वित उन दोनों साधकों ने मंत्र पर विचार किया, तो उन दोनों ने मंत्र-व्याकरण शास्त्र के अनुसार मंत्र को शुद्ध कर पुन: विद्या को सिद्ध किया, सिद्ध होने पर उन साधकों के समक्ष सुन्दर देव उपस्थित होकर आज्ञा पालन में तत्पर हुए।
अनन्तर दोनों मुनिराजों ने धरसेनाचार्य के समक्ष उपस्थित होकर सविनय मंत्र सिद्धि के सम्पूर्ण वृतान्त को कह दिया । आचार्य सुनकर बहुत अच्छा कहते हुए प्रसन्न हुए। पश्चात् धरसेन ने शुभतिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में सिद्धान्तग्रन्थ का पढ़ाना मौखिक रीति से प्रारंभ किया और क्रमश: अध्ययन करते हुए उन दोनों यतियों ने आषाढ़ शुक्ल एकादसी के प्रातः काल में अध्ययन समाप्त किया । ग्रन्थ समाप्ति के अवसर पर प्रसन्न हुए भूतजाति के व्यन्तरदेवों ने एक साधु की पुष्पबलि (पूजा) तथा शंख और तूर्य आदि वाद्यों की ध्वनियों के साथ महती पूजा को किया। उसे देखकर धरसेनाचार्य ने उनका नाम 'भूतबलि घोषित किया और देवों ने जिन साधु की पूजा के साथ अस्तव्यस्त दन्त पंक्ति को सुन्दर बना दिया इसलिये दूसरे साधु का नाम आचार्य प्रवर ने 'पुष्पदन्त घोषित किया।
तदनन्तर उसी दिन वहां से भेजे गये उन दोनों मुनिराजों ने आचार्य गुरूवर्य की आज्ञा से विहार करते हुए अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षायोग को धारण किया । वर्षायोग को पूर्णकर जिनपालित शिष्य के साथ पुष्पदन्त आचार्य वनवासी देश को चले गये और भूतबलि आचार्य तमिलदेश को विहार कर गये।
__ तदनन्तर पुष्पदन्त ने जिनपालित शिष्य को मुनिदीक्षा प्रदान की । पश्चात् बीस प्ररूपणागर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र रचकर तथा जिनपालित को पढ़ाकर उनको भूतबलि आचार्य के पास तमिलदेश को भेज दिया । तदनन्तर भूतबलि आचार्य ने जिनपालित के द्वारा प्रेषित बीस प्ररूपणान्तर्गत सतप्ररूपणा के सूत्रों को जान लिया है और यह भी जान लिया है कि पुष्पदन्त आचार्य अल्पायुष्क हैं। इसलिये धरसेनाचार्य के लक्ष्य के अनुसार महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विच्छेद न हो जाये तथा श्रुतज्ञान का विच्छेद न हो जाय इस धारणा से आचार्य भूतबलि ने खुद्दाबन्ध बन्धस्वामित्व. वेदनाखण्ड वर्गणाखण्ड और महाबन्ध नाम के षट्खण्डागम की रचना (जो शुक्लापंचमी को) समाप्त करने का सौभाग्य प्राप्त किया।
(षट्खण्डागम: जीवस्थान: सत्प्ररूपणा: पृ. 68-72) धवला में इस ग्रन्थ की रचना का इतना ही इतिहास पाया जाता है। इससे आगे का वृत्तान्त इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार से प्राप्त होता है।
ज्येष्ठ सितपक्षपंचम्यां ,चातुर्वर्ण्यसंघसमवेत: । तत्पुस्तकोपकरणे : व्यधात् क्रियापूर्व पूजाम् ॥ 783 ॥ श्रुतपंचमीति तेन प्रख्याति तिथिरयं परामाप । अद्यापि येनतस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैना : 144 ॥
(इन्द्रनन्दिकृत-श्रुतावतार श्लो. 143-144)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तात्पर्य: - भूतबलि आचार्य ने अंकलेश्वर (गुजरात) में ही वीर निर्वाण सं. 723 वि.स. 240, ई. सं. 163 में, ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के शुभ दिन में, षट्खण्डागम की शब्दात्मक रचना को पूर्णकर, चतुर्विध संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) के साथ षट्खण्डागम को ज्ञान का उपकरण मानते हुए श्रुतज्ञान का पूजन समारोह पूर्वक किया, जिससे श्रुतपंचमी पर्व की परम्परा जैन समाज में आज भी प्रचलित है । पश्चात् भूतबलि आचार्य ने उस षट्खण्डागम महाशास्त्र को जिनपालितशिष्य के द्वारा पुष्पदन्त गुरू के पास भेज दिया । पुष्पदन्त आचार्य ने अपने मनोरथ के अनुसार उसको पूर्ण देखकर अतिप्रमोद के साथ चार संघ के सहयोग से सिद्धान्त शास्त्र अर्चन भी किया।
दक्षिण भारत के वे वेणाकतटीपुर- महिमानगरी से संयोजित विशाल मुनिसम्मेलन में एक संस्कृत भाषा में लिखित पत्र को धरसेनाचार्य ने एक ब्रहृमचारी सज्जन के माध्यम से भेजा। वह पत्र इस प्रकार है - "स्वस्ति श्रीमत इत्यूर्जयन्ततट निकट चन्द्रगुहावासद् धरसेनगणी वेणाकतट समुदितयतीन् अभिवयं कार्य मेवं निगद त्यस्माकमायुखशिष्टं स्वल्पं, तस्मादस्मच्छूतस्य शास्त्रस्य च व्युच्छित्त: न स्याद यथा, तथा द्वौ यतीश्वरौ ग्रहणधारण समथौ निशितप्रज्ञौयूयं प्रस्थापयत इति । धरसेनाचार्य:
तात्पर्य - आप सब का कल्याण हो- इस प्रकार कहते हुए, गिरनान तट निकट चन्द्रगुफा का वासी धरसेनाचार्य वेणाकतटी पुर में सम्मिलित मुनीश्वरों का अभिवन्दन कर इस कार्य को स्पष्ट कहते हैं कि हमारी आयु अति अल्प अवशिष्ट है। इस कारण आचार्य परम्परा से समागत अपने भावश्रुत और द्रव्यश्रुत का विच्छेद जिस किसी प्रकार से न हो, उस प्रकार ज्ञान को ग्रहण करने और धारण करने में समर्थ, तीक्ष्णबुद्धि दो मुनीश्वरों को आप भेजने का प्रयास करें। धरसेनाचार्य :
(श्री 108 आर्यनन्दी मुनिराज की डायरी से प्राप्त और मुनिराज द्वारा दक्षिण के किसी जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार से प्राप्त)
इस प्रकार श्रुतपंचमी पर्व का इतिहास महत्वपूर्ण, प्रभावक और श्रुतज्ञान के अभ्यास से प्रेरणाप्रद है । इसलिये समस्त श्रीमानों, धीमानों और समाज को श्रुतज्ञान की परम्परा को भविष्य में चलाने के लिये प्रसार एवं प्रचार करना आवश्यक है। इस समय श्रुतज्ञान की उन्नति के लिये महाविद्यालय एवं संस्कृत प्राकृत, हिन्दी एवं अन्य भाषाओं में श्रुतज्ञान के विकास के लिये परीक्षा कोई अध्यापक, छात्र और संचालक मनसा वाचा कर्मणा पुरुषार्थ करें।
श्रुतेभक्ति: श्रुतेभक्तिः श्रुते भक्ति: सदास्तु मे। सज्ज्ञानमेव संसारवारणं मोक्षकारणम् ॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ धार्मिकता और राष्ट्रीयता में समन्वय
मानव विश्व में बुद्धिमान् एवं सुन्दर आकृतिवाला प्राणी है। उसका जन्म राष्ट्र में होता है, जीवननिर्वाह समाज में होता है और विकास आत्मा में होता है। व्यक्ति समाज का मूलाधार एवं महत्वपूर्ण इकाई है । अत: व्यक्ति के विकास से समाज का, समाज के विकास से राष्ट्र का और राष्ट्र के विकास से विश्व का विकास होना स्वत: सिद्ध है। मानव के जीवन की यात्रा राष्ट्रीय तत्वों पर और आत्मा का विकास धार्मिक तत्वों पर निर्भर है। राष्ट्रीय तत्वों और धार्मिक तत्वों के सहयोग के बिना मानव का सर्वांगीण विकास होना असम्भव है।
___ मानव के पतन से समाज का पतन और समाज के पतन से राष्ट्र का पतन होने में जरा भी विलम्ब नहीं होता । व्यक्ति, समाज और राष्ट का पतन एक साथ ही होता है। इसी प्रकार विकास भी एक साथ होता है, क्योंकि प्रत्येक मानव समाज और देश का अंग है । जिस प्रकार शरीर का कोई भी अंग विकृत हो जाने के साथ ही शरीर विकृत हो जाता है उसी प्रकार समाज या राष्ट्र के किसी भी सदस्य (नागरिक) के विकृत हो जाने से समाज या राष्ट्र का विकृत होना स्वाभाविक है।
___ पण्डितप्रवर श्रीआशाधर जी ने गृहस्थ या नागरिक के चौदह कर्त्तव्यों में आर्यसमिति: इस शब्द से मानव को सभ्यसमाज का सदस्य घोषित किया है । राजनीति के वेत्ता अरस्तू ने लिखा है कि “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है एवं बिना समाज के वह एक क्षण भी नहीं रह सकता।"
व्यक्ति का विकास धार्मिकता और राष्ट्रीयता के बिना नहीं हो सकता और व्यक्ति के विकास के बिना समाज एवं राष्ट्र विकास नहीं हो सकता, अतः समाज तथा राष्ट्र के निर्माण का मूलाधार व्यक्ति है । जब मानव अशिक्षित, असभ्य, अशान्त, अधर्मी अनुशासनहीन और कर्तव्यहीन हो जाता है तब उसके पतन में, धार्मिकता और राष्ट्रीयता के उचित सामंजस्य का अभाव ही मुख्य कारण होता है।
___ सर्वोदय सिद्धांत के अनुसार मानव का सर्वागीण विकास होना मानवता है । मानव को अपने पूर्ण विकास के लिये एक हाथ में धार्मिकता और दूसरे हाथ में राष्ट्रीयता को लेकर, दोनों का समन्वय करते हुए पुरुषार्थ करना आवश्यक है । धार्मिक तत्वों के बिना राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय तत्वों के बिना धार्मिकता विकसित नहीं हो सकती है। जीवन में यथायोग्य दोनों का सहयोग ही कार्यकारी हो सकता है।
जिस प्रकार राष्ट्रीयता के उत्थान के लिये अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पांच प्रमुख धर्मसिद्धांतों की आवश्यकता है उसी प्रकार धार्मिकता के उत्थान के लिये राजनीति, न्याय, अनुशासन, शिक्षा, संस्कृति, कला, व्यापार, सैनिक शिक्षा, कृषि, शिल्पकला, स्वास्थ्यरक्षा, पशुरक्षा, वनस्पतिरक्षा, सहकारिता, राष्ट्रनिर्माण, विज्ञान समाजव्यवस्था आदि राष्ट्रीय तत्व भी अत्यावश्यक हैं। बुद्धिजीवी मानव उक्त तत्वों का स्याद्वादशैली से यथायोग्य समीकरण करता हुआ अपना सर्वांगीण विकास करता है। धार्मिक तत्त्व अथवा राष्ट्रीय तत्त्व एकांगीरूप से अथवा दोनों परस्पर निरपेक्ष रूप से मानवजीवन का प्राय: उत्थान करने में समर्थ नहीं है । यदि धर्मतत्त्व निश्चयमार्ग है तो राष्ट्रीयतत्व व्यवहारमार्ग है, अत: मानवजीवन को शुद्ध आदर्श तथा उन्नत बनाने के लिये दोनों मार्गों का समन्वय करना आवश्यक है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मानव का स्थितिकरण
पुराण और इतिहास ग्रंथ कहते हैं कि इस अवसर्पिणी (हास) काल के अतिप्राचीन प्रारंभिक विभाग की प्रसिद्धि 'भोगयुग' के नाम से थी। इसको इतिहासकारों के शब्दों में पाषाणयुग से भी पूर्व का युग कहा जा सकता है। इस युग में मानव, वस्त्रांग-भोजनांग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्षों के द्वारा विविध जीवनोपयोगी वस्तुओं को प्राप्त कर सुखशान्तिपूर्ण स्वतंत्र जीवन व्यतीत करता था । भोगयुग समाप्त हो जाने पर कल्पवृक्ष भी लुप्त हो गये थे। तत्पश्चात् कर्मयुग के प्रारम्भकाल में मानवों का जीवन असहाय, अव्यवस्थित तथा संकटमय हो गया | उस विचित्र परिस्थिति में क्रमश: अवतरित प्रतिश्रुति आदि चौदह मनु (कुलकर) महापुरुषों ने आवश्यक धार्मिक तथा लौकिक कर्तव्यों का निर्देश कर मानवों के जीवन को व्यवस्थित, शान्त
और निर्वाहयोग्य बनाया। उस समय जब मानवों को सबसे प्रथम-भूख-प्यास के रोगों ने सताया तब किंकर्त्तव्यविमूढ मानव दुखित होते हुए श्रीऋषभनाथ के निकट गये। उन्होंने स्वयं उत्पन्न इक्षु (गन्ना) के रसपान द्वारा सर्वप्रथम भूख-प्यास को शान्त करने का समाधान किया । पश्चात् सेब, अनार आदि फलों का अन्वेषण कर शाकाहार द्वारा क्षुधा शान्त करने का आदेश दिया । प्रेमपूर्वक व्यवहार, रहन-सहन भूषा और भाषा का प्रयोग दर्शाया । यह स्थितिकरण आज तक परम्परया चला आ रहा है। वंशों की स्थापना
मानव जीवन व्यवस्थित और शान्त हो जाने के पश्चात् विवाह की प्रथा का श्रीगणेश हुआ। जब मानव की सन्तान बढ़ने लगी तब श्रीऋषभदेव ने व्यक्तियों के संगठन को कुटुम्ब या वंश के नाम से स्थापित किया। सर्वप्रथम श्रीऋषभदेव के वंश की प्रसिद्धि ‘इक्ष्वाकुवंश' के नाम से हुई थी, क्योंकि श्रीऋषभनाथ ने सर्वप्रथम जनता के कष्टों को दूर करने के लिये इक्षु-वनस्पति का अन्वेषण किया था, अत: श्रीऋषभदेव का स्मरण इक्ष्वाकु नाम से किया गया और उनका वंश 'इक्ष्वाकुवंश' नाम से प्रसिद्ध हुआ। धर्मग्रंथों में प्रमाण है कि “इक्षु इति शब्दं अकतीति अथवा इक्षुमाकरोतीति "(अहिंसावाणी ऋषभ वि0 पृ0 ३०) इस वंश का दूसरा नाम सूर्यवंश भी प्रसिद्ध हुआ । पश्चात् श्रीऋषभदेव ने कुरुवंश की स्थापना कर राजा सोमप्रभ को उसका नायक बनाया। हरिवंश का नायक राजा हरि को, नाथवंश का नायक राजा अकम्पन को , और उग्रवंश का नायक राजा काश्यप को घोषित किया । इन प्रधानवंशों की शाखा-प्रशाखारूप अन्य वंश भी समयानुसार स्थापित होते रहे हैं। उनकी परम्परा आज भी प्रचलित है। सर्वोदय समाज की स्थापना
वंशो की वृद्धि हो जाने से मानवों की समीचीन व्यवस्था सम्पन्न करने के लिये समाज का निर्माण होता है। सर्वप्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ ने वंशों का संगठन कर सर्वोदय समाज की स्थापना की। समाज के प्रत्येक सदस्य को मैत्रीभाव, सहयोग और समान व्यवहार करने का उपदेश दिया। मानवों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होने से तत्काल उपस्थित अनेक जटिल समस्याओं का समाधान किया गया । जैसे भोजननिर्माणविधि, वनस्पति का उपयोग, पशुपालन, बर्तननिर्माण, गृहनिर्माण, जलाशयनिर्माण आदि लौकिक
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सभ्यता तथा स्वस्थता, नागरिक कर्त्तव्य, कुलाचार, संस्कृति आदि धर्मतत्वों के उपदेश से मानव-जीवन की यात्रा को सरल, शान्त तथा पवित्र बनाया गया। अतएव कृतज्ञ जनता ने श्रीऋषभदेव को "प्रजापति" पद से विभूषित किया।
मानवजीवन को शुद्ध , सुसंस्कृत और सुशिक्षित बनाने के लिये विविध संस्कारों की रचना की गई और समाज में उनको प्रचलित किया गया । इसके अतिरिक्त समयोपयोगी अन्य आवश्यक साधनों एवं क्रियाओं का निर्माण किया गया जिससे कि समाज का सर्वागीण विकास हुआ था । अनेक शताब्दियों के व्यतीत होने पर वह समाज विकृत हो गया है। अब इस युग में पुनः सर्वोदय समाज की आवश्यकता है। राष्ट्र के नेता इस दिशा में प्रयत्नशील हैं। राष्ट्रों की स्थापना
समाज की रचना होते ही राष्ट्र की आवश्यकता होती है अतः प्राचीन काल मं श्रीऋषभदेव ने वृद्धिंगत समाजों का संगठन कर राष्टों की स्थापना की। मानवसमाज का 'राष्ट्र एक बड़ा संगठन है। इसमें समाज की सभी शक्तियों का तथा सभी वर्गो का एकीकरण किया जाता है। राष्ट्र की पूर्ण उन्नति के लिये प्रत्येक नागरिक में राष्ट्रीयता का विकास होना आवश्यक है। राष्ट्र की परिभाषा "पशुधान्यहिरण्यसम्पदा राजते इति राष्ट्रम् ।"
(नीतिवाक्यामृत, जनपदसमुद्देशसूत्र - १) अर्थात् -पशु, अन्न तथा सुवर्ण आदि सम्पत्तियों से शोभायमान क्षेत्र को राष्ट्र कहते है । 'भर्तुर्दण्डकोषवृद्धि दिशतीति देश: (नीति0 जन0 सू० २) अर्थात् जो क्षेत्र स्वामी को सैन्य और कोष की वृद्धि देता है उसको देश कहते हैं।
"जनस्य वर्णाश्रमलक्षणस्य द्रव्योत्पत्तेर्वा पदं स्थानमिति जनपदः" (नीति0 जन0 सू० ५) अर्थात्जो स्थान, क्षत्रिय आदि वर्गों में और ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों में विद्यमान मानवों का निवासस्थान हो तथा धन का उत्पत्तिस्थान हो उसे जनपद कहते है । यह राष्ट्र का समन्वयात्मक लक्षण है । इसमें राष्ट्र को, धार्मिक तथा राष्ट्रीय तत्वों से परिपूर्ण मानवों का निवासस्थान कहा गया है। अयोध्यानगरी का निर्माण
श्रीनाभिराज प्रारम्भिक कर्मयुग के अंतिम कुलकर (मनु) थे। उनकी पत्नी श्रीमरुदेवी की कुक्षि में जब प्रथम तीर्थकर श्रीऋषभनाथ ने अवतार लिया तब भारत के उत्तर में विशाल अयोध्यानगरी की रचना की गई और उसमें देवसमाज तथा मानवसमाज ने मिलकर ऋषभदेव का जन्मोत्सव मनाया। इस नगरी के मानवों के पास कोई आयुध (शस्त्र) नहीं थे, वे परस्पर मित्रता से रहते थे इसलिये इस नगरी का सार्थक नाम 'अयोध्या' रखा गया।श्री ऋषभदेव, अपने पिता के उत्तराधिकारी, इस नगरी के प्रथम शासक थे और सकल कलाओं के महान् शिक्षक थे।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उदीयमान उस कर्मयुग में मानवों के निवासगृह, शिक्षा आदि सकल व्यवस्थाओं को सम्पन्न करने के लिये श्रीऋषभदेव ने आर्यक्षेत्र में नगर, देश एवं राष्ट्रों की व्यवस्था की। उनमें सर्वप्रथम भारत था जिसका नामकरण स्वकीय ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम से किया गया।
तन्नाम्ना भारतं वर्षमिति हासीज्जनास्पदम् । हिमाद्रेरासमुद्राच्च क्षेत्रं चक्रभृतामिदम् ।।१५९।।
आदिपुराण पर्व १५ अर्थात्-श्रीऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र प्रथम चक्री भरत के नाम से, आर्यजनों के रहने का स्थान यह भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ है जो हिमालय से लेकर दक्षिणादि दिशाओं में तीनों ओर समुद्र से वेष्टित है। यह चक्रवर्तियों का क्षेत्र है।
अग्नीध्रसूनो भेस्तु ऋषभोऽभूत्सुतो द्विज: । ऋषभाद् भरतो जने वीर: पुत्रशताद्वरः ॥३९॥ हिमा दक्षिणं वर्ष भरताय पिता ददौ । तस्मात्तु भारतं वर्षे तस्य नाम्ना महात्मनः ॥४१॥
-मार्कण्डेयपुराण अ0 ५० अर्थात्-नाभिराज के पुत्र ऋषभदेव हुए और ऋषभदेव के पुत्र भरत अपने शत भ्राताओं में ज्येष्ठ थे। ऋषभदेव ने हिमालय के दक्षिण का क्षेत्र भरत को दिया । इस कारण उस वीर के नाम से देश का नाम 'भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ।
नाभे: पुत्रश्च ऋषभः, ऋषभाद् भरतोऽभवत् । तस्य नाम्ना त्विदं वर्ष,भारतं चेति कीत्यंते ॥५७॥
(विष्णु पुराण द्वि. अंश अ.1) तत्पश्चात् श्रीऋषभदेव ने अनेक देशों की स्थापना की। जिनमें कुछ प्रसिद्ध नाम उल्लेखनीय हैंसुकौशल, कुरुजांगज, अंग, वंग पुडू, उण्ड, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, समुद्रक, काश्मीर उशीनर, आवर्त, वत्स, पञ्चाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, करहाट महाराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र, कर्णाट, कोशल चोल, केरल, दारु, अभिसार, सौवीर, शूरसेन, अपरान्त , विद्रेह, सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदि, पल्लव, कम्बोज, आरद, वाल्मीक, तुरुष्क, शक, मरु,केकय इत्यादि । (अहिंसावाणी ऋषभ वि0 पृ० १०)
___ नगरी या नगरों के कुछ नाम- मथुरा माया काशी काञ्ची श्रावस्ती कोशाम्बी वाराणसी चन्द्रपुरी काकन्दीपुर भद्रिलपुर सिंहपुर चम्पापुर कम्पिलापुरी रत्नपुर हस्तिनापुर नागपुर मिथिला राजगृही सौरीपुर कुण्डलपुर ताल पुरिमतालपुर इत्यादि ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ __ समय की गति के अनुसार इस आर्यक्षेत्र में अनेकों देशों, नगरों तथा ग्रामों की रचना होती रही और प्राचीन देशों नगरों आदि का विध्वंश भी होता गया। यत: इस विश्व की दशा परिवर्तनशील है। वर्तमान में वे देशनगर आदि परिवर्तितरूप में है, और अनेकों का अस्तित्व भी नहीं पाया जाता है। उनमें से कुछ के नाम वही हैं, कुछ परिवर्तित हैं और कुछ विनष्ट हो गये है। राष्ट्रों की राष्ट्रीयता
___ राष्ट्रों की स्थापना होने पर उनमें राष्ट्रीयता का होना भी राष्ट्र की सत्ता, उन्नति और शान्तिपूर्ण व्यवस्था के लिये अत्यावश्यक है । यह राष्ट्रीयता राष्ट्र का प्राण है। नीतिवाक्यामृत में कहा गया है
"अन्योऽन्यरक्षक: खन्याक रद्रव्यनागधनवान् नातिवृद्धनातिहीनग्रामो बहुसारविचित्रधान्यहिरण्यपण्योत्पत्तेरदेवमातृक: पशुमनुष्यहित: श्रेणिशूद्रकर्षकप्राय: इति जनपदस्य गुणा: (जनपदसमुद्देश -सू0 8)"
____ अर्थात- राष्ट्र के गुण (राष्ट्रीयता) इस प्रकार हैं (1) राजा देश का रक्षक और देश राजा का रक्षक हो। (2) सुवर्ण आदि धातुओं की तथा गन्धक नमक आदि द्रव्यों की खानों से युक्त हो। (3) रुपया आदि धन तथा हाथी आदि पशु धन से परिपूर्ण हो । (4) न अत्याधिक और न अति कम जनसंख्या पूर्ण ग्रामों तथा नगरों से शोभित हो। (5) उत्तम पदार्थ, अन्न-सुवर्ण और व्यापार योग्य वस्तुओं से परिपूर्ण हो। (6) मेद्यजल की अपेक्षाहीन कृषिवाला हो अर्थात् रहट, विद्युत्पम्प आदि यन्त्रों से कृषि कार्य वाला हो, (7) मानव तथा पशुओं को सुखदायक हो। (8) कलाकार, कारीगर, श्रमिक, कृषक और विद्वान व्यक्तियों से शोभित हो । राज्य की परिभाषा
राष्ट्र की एकता, व्यवस्था, रक्षा और उन्नति का न्याय नीतिपूर्ण राज्य एक प्रबल आधार है। राज्य सार्वभौमिक होता है। “राज्ञ पृथ्वीपालनोचितं कर्म राज्यम्" (नीतिवा पृ. 63 सू. 4)
अर्थात- राजा के पृथ्वी की सुरक्षा एवं उन्नति के योग्य कर्म (सन्धि विग्रह यान आसन संश्रय द्वैधीभाव) को राज्य कहते हैं। श्री ऋषभदेव ने राज्य का आविष्कार करते हुए स्वयं राष्ट्र का शासक बनकर सर्वप्रथम न्यायपूर्णराज्य का आदर्श उपस्थित किया था। उन्होंने अपने राज्य में सुरक्षा शान्ति न्यायविधि (कानून), स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग, आवागमन, व्यापार, समाज कल्याण, पशुपालन, वनस्पति विज्ञान आदि के आविष्कार द्वारा कृत युग का वातावरण प्रारम्भ कर दिया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने समाज में शासन करने योग्य मानवों को क्षत्रिय वर्ग, अर्थविद्या एवं कृषिकला में प्रवीण मानवों को वैश्य वर्ग और श्रम तथा शिल्पकला में प्रवीण मानवों को प्रजा वर्ग केनाम से विभाजित कर उनको अपने कर्तव्यों पर नियुक्त कर दिया था। अपना राज्यकाल समाप्त कर ऋषभदेव ने उत्तर भारत का राज्य श्री भरत चक्री को और दक्षिण भारत का राज्य श्री बाहुबली को दे दिया था । चक्रेश भरत ने धार्मिक क्रिया काण्ड एवं शिक्षण देने में प्रवीण विद्वान् व्यक्तियों को ब्राह्मण वर्ग के रुप में घोषित किया और उनको धर्म शिक्षण के कार्य में नियुक्त किया । राष्ट्र की
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ यह श्रेष्ठ शासन व्यवस्था ही सतयुगी राज्य अथवा राम राज्य के नाम से विश्व में विख्यात हो गई। वह राज्य परम्परा आज तक चली आ रही है। धार्मिकता का आविष्कार
राष्ट्र में राष्ट्रीयता का आविष्कार करने के साथ ही सम्राट ऋषभदेव ने लोक कल्याण एवं आत्म कल्याण के लिये धार्मिक तत्त्वों का प्रचार किया। यत: आत्मशुद्धि के लिये धर्म तत्त्वों का ज्ञान एवं आचरण करना अत्यावश्यक है । धर्म के लक्षण हैं।
धर्म: प्राणिदया सत्यं क्षान्तिः शौचं वितृष्णता। ज्ञानवैराग्यसम्पत्ति रधर्मस्तविपर्यय: ॥१॥
आदिपुराण पर्व १० __ अर्थात- जीवदया, सत्य, क्षमा, मन: शुद्धि, अपरिग्रह तथा ज्ञान और वैराग्य को धर्म कहते हैं। इससे विपरीत हिंसा, असत्य, राग द्वेष, मोह आदि को अधर्म (पाप) कहते हैं। व्यक्तिगत आत्मशुद्धि का कारण होने से राज्य में शान्ति एवं नैतिक सभ्यता के लिये भी धर्म तत्त्वों की महती आवश्यकता है। अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य अपरिग्रह ये पंच अणुव्रत अथवा पंचशील रुप सिद्धांत राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और आध्यात्मिक उन्नति का मूल कारण हैं। वर्तमान की विश्व शान्ति, नि:शस्त्रीकरण आदि अनेक समस्याओं का हल उक्त सिद्धान्त में निहित है। आवश्यकता जन मानस में उसके विकास करने की है। धार्मिकता के विस्तृत भेद इस प्रकार हैं 1. अहिंसा 2. सत्य 3. अचौर्य 4.ब्रह्मचर्य 5. अपरिग्रह 6. आत्मविश्वास 7. तत्त्वविज्ञान 8. सम्यकचरित्र 9. क्षान्ति 10. विनय 11. निष्कपटता 12. योगशुद्धि, 13. संयम 14. विरागता 15. तपइच्छानिरोध 16. त्याग- दान 17. समताभाव 18. दर्शनविशुद्धि 19. व्रताचरण 20. स्वाध्याय 21. विरागता 22. धर्मात्मा का संरक्षण 23. गुणीजनभक्ति 24. शास्त्र भक्ति 25. प्रायश्चित्त 26. प्रतिक्रमण 27. धार्मिक प्रचार 28. विश्व बन्धुत्व इत्यादि। राष्ट्रीयता के विकास के साधन
असिमसि: कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव वा । कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ।
- आदिपुराण अर्थात् - कर्मयुग के प्रारभकाल में सम्राट ऋषभनाथ ने प्रजा के जीवन संरक्षण के लिये छह प्रमुख साधनों का सर्वप्रथम आविष्कार किया था - (1) असि (2) मसि (3) कृषि (4) विद्या (5) वाणिज्य (6) शिल्पकला। 1. असि
सैनिक शिक्षा, व्यायाम, शस्त्रास्त्र संचालन, विविध खेल, आसन प्रयोग, प्राणायाम, धनुर्विद्या, अश्ववाहन, गजवाहन, रथवाहन, राष्ट्र की सुरक्षा के अन्य साधन आदि ।
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'अ इ उ आदि ब्राह्मीलिपि, वर्तमान में भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी की नागरीलिपि का लेखन, राज्य कार्य लेखन, शास्त्र लेखन, पत्र तथा विद्याओं का लेखन चित्र तथा प्राकृतिक दृश्यों का लेखन, गणित की राशि एक से परार्ध तक मान, उन्मान, अवमान, प्रतिमान, बीजगणित, रेखा गणित आदि गणित विद्या का लेखन । इसके अतिरिक्त अठारह महालिपियों का लेखन- 1. हंसलिपि 2. भूतलिपि 3. यज्ञलिपि 4. यावनी 5. तुरकी 6. किरी 7. द्राविडी 8. सैन्धवी 9. मालवी 10. नडी 11. नागरी 12. लाटी 13. पारसी 14. अनिमित्ति 15. चाणाकी 16. मौलदेवी 17. राक्षसी 18. उड्डी । अथवा 1. लाटी 2. गौडी 3 डाहली 4. कानड़ी 5. गुजरी 6. सौरहठी 7. मरहठी 8 कौंकणी 9. खुरासानी 10 मागधी 11. सिंहली 12. हाड़ी 13. कड़ी 14. हम्मीरी 15. पारसी 16. मसी 17 मालवी 18. महायोधी अहिंसा वाणी ऋषभ वि० पृ. ८८ । 3. कृषि विज्ञान
• आदि कृषि के साधनों का प्रयोग, क्षेत्र की सुरक्षा, बैल आदि पशुओं का उपयोग, बीज का वपन, अन्न का उत्पादन, इक्षु का उत्पादन, फल, शाक आदि वनस्पतियों का उत्पादन, उद्यानों का निर्माण, कूप तथा जलाशयों का निर्माण, लतागृह इत्यादि ।
4. विद्या (कला) का आविष्कार
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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पुरुष की बहत्तर कलाओं का पुरुष समाज में प्रचार एवं प्रसार होने से राष्ट्र की उन्नति होती है । लेखन, गणित आदि से लेकर शकुनिरुत पर्यन्त बहत्तर कलाएं हैं।
श्री आदिनाथ पुराण के अनुसार कुमारी ब्राह्मी और सुन्दरी ने अपने पिता ऋषभदेव से नारियों की चौसठ कलाओं का शिक्षण प्राप्त कर महिला समाज में उनका प्रचार किया था। वर्तमान युग में भी नारियों को सुशिक्षित बनाना आवश्यक है यत: नारी समाज, मानव समाज का प्रमुख अंग एवं समभाग है । 5. वाणिज्य कर्म
राष्ट्र तथा समाज की दरिद्रता को दूर करने के लिये और मानव के जीवन निर्वाह के लिये अर्थ की आवश्यकता होती है तथा अर्थ की पूर्ति या आर्थिक उन्नति प्राय: वाणिज्य एवं व्यापार से होती है । अत: गृहस्थ को न्यायपूर्वक व्यापार तथा वाणिज्य करना चाहिये । राजकीय मुद्रा (सिक्का) व्यापार का एक सरल माध्यम है, मापतौल के साधन भी माध्यम हैं । अत: शासन के अनुकूल उनका उचित व्यवहार और प्रयोग करना आवश्यक है ।
6. शिल्पकर्म
राष्ट्र की उचित व्यवस्था और मानव समाज के जीवन व्यवहार के लिये शिल्प कर्म की आवश्यकता है। शिल्प कला अनेक प्रकार की होती है, जैसे कुम्हार की कला, लोहार की कला, रथकार कला, चित्र कला, वस्त्र कला, नाई की कला, गृह निर्माण कला, मूर्तिकला, कुटीर उद्योग इत्यादि । वर्तमान में वैज्ञानिक कला,
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तथा यन्त्रों का भी आश्यर्चजनक आविष्कार हुआ है जो प्राचीन शिल्प कला का ही विकास है । इससे राष्ट्र तथा समाज की उन्नति होती है । धार्मिकता के विकास के साधन
__ कर्मयुग में जिस प्रकार राष्ट्रीय लौकिक उन्नति के लिये असि मसि आदि छह कर्म कहे गये हैं उसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के लिये भी भ. ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों द्वारा छह साधन- षट्कर्म दर्शाये गये हैं। वे इस प्रकार है
देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने । अर्थात्- 1. जीवन्मुक्त आत्मा (अरिहन्त) एवं परमात्मा (सिद्ध) के गुणों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करना । 2.सच्चरित्र आचार्य, उपाध्याय, साधु तथा विद्वान गुरूओं की संगति में रहकर शिक्षा और सदाचार प्राप्त करना। 3. स्वाध्याय (शिक्षाप्रद ग्रंथों का अध्ययन) करना तथा लेख कविता पुस्तक आदि के रुप में सहित्य का निर्माण करना 4.संयम अर्थात् इन्द्रियों तथा मन पर विजय प्राप्त करने का अभ्यास करना और समस्त प्राणियों की सुरक्षा का यथा शक्ति प्रयत्न करना। 5. तप-क्रोध, मद. छल, तृष्णा इन चार विकारों को त्यागकर बढ़ती हुई इच्छाओं को रोकने के लिये अनशन एकाशन रस त्याग आदि नियमों की साधना करना। 6.दान या त्याग-द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार आवश्यक खाद्य वस्तु, ज्ञान प्राप्ति के साधन ग्रंथ आदि, रोग विनाश के साधन औषध आदि, प्राणि रक्षा के साधन गृह वस्त्र इत्यादि का त्याग करना, परोपकार करना, सेवा करना, आत्म कल्याण के लिए धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना | धार्मिक तत्त्वों के साथ राष्ट्रीय तत्त्वों का समन्वय
___ राष्ट्र में राज्य का संचालक राजा या शासक होता है। राजा वह है जो धार्मिक एवं राष्ट्रीय भावों का निर्विरोध समीकरण कर मानव समाज एवं प्राणि मात्र को निर्भय, सुखी, शान्त और व्यवस्थित कर दे, अपने राज्य को न्यायपूर्ण राम राज्य बना दे । राजा का लक्षण इस प्रकार कहा गया है।
“प्रतिपन्नप्रथमाश्रम: परे ब्रह्मणि निष्णातमतिरुपासितगुरुकुल: सम्यगविद्यायामधीती कौमारवयोलंकुर्वन् क्षत्रपुत्रो भवति ब्रह्मा" नीति वाक्यामृत
अर्थात-ब्रह्मचर्याश्रम प्रविष्ट, ईश्वर भक्त, ब्रह्मचारी, गुरुकुल का उपासक, सकल राजविद्याकुशल, युवराज, क्षत्रिय पुत्र राजा ब्रह्मा के समान गौरवशाली कहा जाता है। यदि शासक की आत्मा में धर्म तत्त्व और राष्ट्रीय तत्त्व की समीकरण रुप भावना है तो प्रजा में भी यही महत्वपूर्ण भावना रहती है जिससे राष्ट्र में और अन्तर्राष्ट्र में शान्ति तथा न्याय का शासन जीवित रहता है। धर्म मूलक शासन ही राम राज्य के नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान में राष्ट्र के नेताओं को इधर ध्यान देना चाहिए।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव कर्मयुग के प्रथम समन्वयवादी शासक थे। इस विषय में महर्षि समन्त भद्राचार्य का कथन है -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रजापतिर्य: प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्व: पुनरद्भुतोदयो, ममत्वतो निर्विवदे विदांवर: ॥2॥
बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, श्लोक 2 अर्थात्- प्राणि जीवन के संरक्षक जिन ऋषभदेव ने प्रजा के लिये कृषि आदि षट्कर्म का उपदेश दिया, पश्चात् विवेकबुद्धि से विश्व के तत्त्वों का परिज्ञान प्राप्त कर क्षणिक वैभव से मोह का त्याग कर दिया था। सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ का समन्वयवाद इस भाँति है।
चक्रेण य: शत्रुभयंकरेण जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । समाधिचक्रेण पुनर्जिगाय महोदयो दुर्जयमोहचक्रम् ।।770
बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, श्लो0 77 सारांश- भगवान् शान्तिनाथ ने शत्रुओं को भयप्रद शासन चक्र से विरोधी राज समूह को जीतने के पश्चात् आत्म ध्यान रुपी चक्र से साधारण जनों के लिये अजेय मोह रूप चक्र को जीत लिया था।
इस प्रकार चौबीसों तीर्थंकरों के जीवन में धर्मतत्त्व और राष्ट्रीय तत्त्व का, जीवन और मुक्ति का या प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय चमत्कारप्रद सिद्ध होता है।
जैन साहित्य में गृहस्थ के लिए जो मंगल कामना या शान्ति प्रार्थना करना आवश्यक कहा गया है उसके कुछ श्लोकों पर दृष्टिपात कीजिये -
सम्पूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्र : ॥
__ शान्तिपाठ श्लोक, अर्थात- परमात्मा के आराधकों को, नेताओं, शासकों, संरक्षकों को, आचार्य एवं साधुजनों को, जीवन में शान्ति प्राप्त हो तथा राष्ट्र देश, नगर को एवं इनके राजा को सुख-शान्ति प्राप्त हो।
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान्धार्मिको भूमिपाल: काले काले च सम्यक् विकिरतु मधवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्म भूज्जीवलोके
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ॥7॥ शा0 पा0 जिनेन्द्र अर्चा के प्रभाव से विश्व के मानवों का कल्याण हो, शासक वर्ग न्यायी, धार्मिक एवं प्रबल हो, समय पर उचित जलवृष्टि हो, रोगों का नाश हो, राष्ट्रों में दुर्भिक्ष चोरी डकैती कभी न हो, संक्रामक रोग प्लेग, कालरा आदि का प्रसार न हो और विश्व में शान्तिप्रद अहिंसा सत्य आदि सिद्धान्तों का चक्र सदैव चलता रहे।
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प्रध्वस्तघातिकर्माणः केवलज्ञानभास्करा : ।
कुर्वन्तु जगत: शांतिं वृषभाद्या जिनेश्वरा: ॥ 8 ॥ शा० पा०
अर्थात् कर्म मल रहित, केवल ज्ञान से तेजस्वी, ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकर विश्व को शान्ति प्रदान करें । धार्मिकता और राष्ट्रीयता के सामंजस्य के विषय में वैदिक ग्रन्थों का समर्थन निम्न प्रकार है - प्रहृष्टमुदितो लोकस्तुष्टः पुष्टः सुधार्मिकः । निरामयो ह्यरोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जितः ॥ नगराणि च राष्ट्राणि धनधान्ययुतानि च । नित्यं प्रमुदिताः सर्वे यथा कृतयुगे तथा ॥
मूल रामायण श्लो० 90-93
सारांश - श्री रामचन्द्र के राज्य में मानव हृष्ट पुष्ट सन्तुष्ट धर्मात्मा मानसिक तथा शारीरिक रोगों से रहित और अकाल के भय से रहित थे । ग्राम, नगर और राष्ट्र धन धान्य आदि से परिपूर्ण थे । सब प्राणी सत्य युग के समान त्रेतायुग में भी आनन्दित थे ।
शीलेन हि त्रयो लोका: शक्या जेतुं न संशयः । न हि किंचिदसाध्यं वै, लोके शीलवतां भवेत् ॥ 15 ॥ एकरात्रेण मान्धाता, त्र्यहेण जनमेजय: । सप्तरात्रेण नाभागः पृथिवीं प्रतिपेदिरे ।। 16|| एते हि पार्थिवास्सर्वे, शीलवन्तो दयान्विता । अस्तेषां गुणक्रीता वसुधा स्वयमागता ||17 ॥
महाभारत, शीलनिरुपणाध्याय
भावार्थ- शील (श्रेष्ठ स्वभाव, अहिंसा, आदि) से तीन लोक के राज्य पर भी विजय प्राप्त हो सकती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । शीलवान् पुरुषों को लोक में कोई वस्तु या कार्य असाध्य नहीं हैं । राजा मान्धाता ने एक दिन में, जनमेजय राजा ने तीन दिन में और नाभाग नृप ने सात दिन में पृथिवी का राज्य प्राप्त कर लिया था। ये सब राजा शीलवान् और दयालु थे इसलिये अपने गुणों के द्वारा उन्होंने पृथिवी का राज्य विशेष प्रयत्न के बिना ही प्राप्त कर लिया था ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
प्रजानां विनयाधानाद् रक्षणाद् भरणादपि । स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः ॥ स्थित्यैर्दण्डयतो दण्ड्यान् परिणेतुः प्रसूतये । अप्यर्थकामौ तस्यास्तां धर्म एव मनीषिण: ॥ रघुवंश प्र० स० श्लो0 24-25
अर्थात् - प्रजा को नम्रता सदाचार आदि की शिक्षा देने से, आपत्तियों से रक्षा करने से और अन्नजल आदि के द्वारा पालन करने से राजा दिलीप ही वास्तव में प्रजा का पिता था । प्रजा के पिता तो केवल जन्मदाता ही थे।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मानव धर्म की रक्षा के लिये अपराधियों को अनुकुल दण्ड देने वाले, तथा केवल कुल परम्परा के लिये विवाह करने वाले, विद्वान् राजा दिलीप के अर्थ और काम पुरुषार्थ धर्म मूलक ही हुए थे अर्थात् महाराज दिलीप का राज्य धर्म मूलक था । यह ही राम राज्य का परम ध्येय है ।
राष्ट्रपिता म. गान्धी के जीवन में धार्मिकता और राष्ट्रीयता का गहरा समंवय था । देखिये उस महात्मा के महान् विचार - "अगर मुझमें स्वदेशी भावना है तो धर्म के विषय में मैं अपने पूर्वजों के धर्म पर ही दृढ़ रहूंगा। इससे मैं अपनी परवर्ती धार्मिक परिस्थिति का उपयोग करता हूं। अगर मुझे उसमें कोई खामी दिखाई दे तो उसे दूर करके मुझे अपने धर्म की सेवा करनी चाहिये । राजनैतिक बातों में भी मुझे देशी संस्थाओं का ही उपयोग करना चाहिये | अगर आदमी स्वदेशी भावना के अनुसार आचरण करे तो दुनियां में सत्ययुग जल्दी आ जायगा ।"
I
आत्म कथा, परिशिष्ट ख
राजनीति ने म. गांधी को अहिंसा के अभ्यास एवं प्रयोग के लिये ही प्रबल और व्यापक अवसर प्रदान किये है अत: उन्होंने अपने प्रधान आदर्श अहिंसा की सिद्धि के लिये ही राजनीति में प्रवेश किया था। इसमें अन्य कोई मुख्य कारण नहीं था ।
"जब तक शान्ति सेना का संगठन नहीं होता तब तक देश का विकास, आन्तरिक रक्षा एवं निर्भयता नहीं हो सकती। राष्ट्र में शान्ति सेना का निर्माण आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । "
विनोवा भावे, प्रार्थना प्रवचन, ईडर, दि० 8-1-59 "संसार के अन्य देशों की शिक्षा का अन्य उद्देश्य हो सकता है किन्तु युवक-युवतियों को आध्यात्मिकता की ओर ले आना ही यहां की शिक्षा का प्रधान उद्देश्य रहा है और यही होना चाहिये । "
डा. सर राधाकृष्णन, भाषण, कलकत्ता 30-9-58 "मतभेदों को दूर करने के लिये युद्ध करना या खून बहाना मानवता के हित में नहीं । आज देश के बीच का अन्तर समाप्त हो गया है और युद्ध रहित संसार में ही आज के राष्ट्र की सुरक्षा है।" अमरीकी राष्ट्रपति आईजन हावर, देहली दिसम्बर सन् 59
धार्मिक तत्त्वों की राष्ट्रीय क्षेत्र में उपयोगिता
जिन उपयोगी धार्मिक तत्त्वों ने भारतीय राष्ट्रीयता को उन्नत करने में तथा भारतीय स्वतन्त्रताको प्राप्त कराने में सहयोग और आत्म बल प्रदान किया वे इस प्रकार हैं- (1) अहिंसा (2) क्षमा ( 3 ) त्याग ( 4 ) मांस त्याग ( 5 ) मादक वस्तु त्याग ( 6 ) स्वावलम्बन ( 7 ) ब्रह्मचर्य ( 8 ) अचौर्य ( 9 ) निर्भयता ( 10 ) विश्व प्रेम ( 11 ) हिंसा जनित विदेशी वस्तु का त्याग ( 12 ) अनशन (13) कायक्लेश ( 14 ) संयम ( 15 ) सत्याचरण ( 16 ) सेवा, ( 17 ) साम्यवाद ( 18 ) न्याय ( 19 ) नैतिक शिक्षा ( 20 ) अपरिग्रह ( 21 ) स्याद्वाद (22) विनय (23) वस्तुविज्ञान (24) आत्म विश्वास (25) निष्कपटता (26) पंच अणुव्रत अथवा पंचशील ।
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समन्वयशील शासक परम्परा
पुराण और इतिहास कहते हैं कि इस वसुन्धरा पर दश बीस नहीं किन्तु सैकड़ों राजा, सम्राट, चक्रवती आदि शासक अपना धवल यश छोड़ गये हैं जिन्होंने धार्मिकता और राजनीति का मनोज्ञ सामंजस्य कर राम राज्य का आदर्श उपस्थित किया था। उनमें कुछ चमकते हुए हीरे इस प्रकार हैं।
श्री ऋषभनाथ से श्री महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर, भरत आदि 12 चक्रवती, रामचन्द्र आदि नव बलभद्र, लक्ष्मण आदि नव नारायण, श्री बाहुवली आदि 24 कामदेव प्रभृति महापुरुष । भ. महावीर तथा महात्मा बुद्ध के समय से प्रवाहित शासक परम्परा के कुछ देदीप्यमान भूमण्डल के सितारे :
-
लिच्छवि क्षत्रिय जैन वीर राजा चेटक, सेनापति सिंह । इक्ष्वाकुवंशी कौशाम्बी नरेश । सूर्यवंशीराजा दशरथ आदि । शिशुनागवंशी - श्रेणिक, विम्बसार, अभयकुमार, कुणिक आदि । मौर्यवंशी - सम्राट चन्द्रगुप्त, अशोक सम्प्रति आदि । चेदीवंशी सम्राट् ऐलखारवेल, सम्राट् महामेघवाहन । आन्ध्रवंशी - सम्राट् विक्रमादित्य, शतकर्णी, हल्ल चालुक्य वंशी - कीर्ति वर्मा, विजयादित्य आदि 16 महाराजा | राठौर वंशी - सम्राट् - अमोघवर्ष, साहसतुंग, कृष्णराज आदि 6 नृप । सोलंकी वीर - भीम, कर्ण, सिद्धराज, कुमारपाल आदि । परिहारवंशी - राजा भोज, तोमर कीर्ति सिंह, ग्वालियर । परमारवंशी - राजा भोज, शुभचन्द्र, यशोवर्मा। बुन्देल वीर - महाराज छत्रसाल आदि । बह्मक्षत्रवंशी महाराज चामुण्डराय आदि । राजस्थान के वीर- दानवीर 1 भामाशाह, विमलशाह तोलाशाह, कर्माशाह, आशाशाह, दयालदास करमचन्द्र आदि । (वीर जैन बीरांक वर्ष 11 ) आधुनिक समस्याओं का समन्वयात्मक समाधान
वर्तमान राष्ट्रों के समक्ष आज कुछ जटिल समस्याएँ हैं जिनका पूर्ण समाधान करने में सभी राष्ट्र झे हुए हैं। अभी तक उनका कोई समुचित समाधान नहीं प्राप्त हो रहा है। विश्व की और विशेषतया भारतीय समस्याओं का समाधान धर्म-तत्त्वों और राष्ट्रीय तत्त्वों के उचित समन्वय से ही सम्भव है । किन्तु इस तथ्य को भुलाया जा रहा है। आधुनिक लोग विज्ञान को वरदान मानकर उसी के सहारे इन समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करते है। किन्तु जिस विज्ञान ने समस्याओं को उलझाया है वही कैसे सुलझा सकता है ? हम यहां कुछ समस्याएं और उनका समन्वयात्मक समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे हमारा आशय अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है -
क्रम
1.
2.
3.
4.
राष्ट्रीय समस्याएं
जनसंख्या वृद्वि निरोध
अन्नोत्पादन
देश रक्षा सुवर्ण नियंत्रण
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
समन्वयात्मक समाधान
ब्रह्मचर्य व्रत, संयम, श्रृंगार त्याग, परिवार नियोजन । शाकाहार, शुद्धाहार, एकाशन, उपवास, कृषिकला, यन्त्रप्रयोग, वनस्पति उत्पादन, पशुरक्षण आदि । पराक्रम, मैत्रीभाव, पंचशील, शान्तिसेना, सैनिक शिक्षा | परिग्रह परिमाण, सन्तोष, आभूषण श्रृंगार त्याग आदि ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 5. विश्व युद्ध शांति अहिंसा, सत्य, नि:शस्त्रीकरण, मद, लोभ त्याग आदि
साम्प्रदायिकता निरोध अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, समता, क्षमा, सहयोग । समाज सुधार साम्यभाव, सर्वोदय, धार्मिक शिक्षा, मित्रता, सेवा । दहेज प्रथा निरोध आदर्श धार्मिक विवाह, सामूहिक विवाह सहयोग आदि । चोरी डकैती निरोध अचौर्याणुव्रत, शिक्षा, उद्योग, सन्तोष, समाजवाद |
भ्रष्टाचार, घूसखोरी निरोध सदाचार, सत्य, संतोष, सेवा, अनुशासन, न्यायादि । 11. गुण्डाशाही निरोध सदाचार, मूल गुण सेवा, व्यसन त्याग,दया, शासन सहयोग। 12. मांसाहार-मद्यनिषेध शाकाहार, मूल गुण सेवा, व्यसन त्याग, उच्च विचार, दया । 13. बेकारी,गरीबी निरोध अर्थशिक्षण, कुटीर उद्योग, हस्त कला, क्राफ्ट, समयोपयोग,
मितव्ययिता। उपसंहार
कला बहत्तर पुरुष की तामें दो सरदार । एक जीव की जीविका दूजे जीव उद्वार ॥1॥
कविवर द्यानतराय आत्मा की उन्नति धार्मिक तत्त्वों से और जीवन की उन्नति राष्ट्रीय तत्त्वों से होती है । ये दोनों विद्याएं सब कलाओं में श्रेष्ठ हैं । धार्मिकता और राष्ट्रीयता की उन्नति एकांगी पुरुषार्थ से सम्भव नहीं है। उक्त दोनों तत्त्वों का समन्वय रुप पौरुष ही उन्नति का प्रबल साधन है। उसी की जीवन में आवश्यकता है। वह सर्वांगीण पुरुषार्थ ही व्यक्ति,समाज और विश्व के विकास, तथा उत्कर्ष का नेता है ।
-
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भारतीय साहित्य संस्कृति एवं इतिहास के आलोक में
कर्नाटक प्रदेश और श्रवणबेलगोल तीर्थ
भारत राष्ट्र का कर्नाटक वह प्राचीन प्रदेश है कि जिसने राज्यों के संघर्षकाल में और अकाल (दुर्भिक्ष काल) में भी भारतीय सहित्य, संस्कृति, दार्शनिक ग्रन्थों और सिद्धांत ग्रन्थों की सुरक्षा का आदर्श विश्व में उपस्थित किया है। वर्तमान में इतिहास एवं पुरातत्व इसका साक्षी है ।
धर्मस्थलों के निर्माण, प्रसार, प्रचार और प्रभाव पर पुरातत्ववेत्ता, इतिहासज्ञों और अन्वेषकों ने गहन अध्ययन एवं अन्वेषण किया है और उनके महत्वपूर्ण विचारों को तीर्थ, कला एवं संस्कृति की दृष्टि से वास्तविक तथा प्रभावक माना गया है। कर्नाटक प्रदेश के जैनतीर्थ, धर्मस्थल और इतिहास पर मनीषी महोदयों के अधोलिखित विचार ज्ञातव्य है :1. सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता श्री सी. शिवराम मूर्ति ने लिखा है "दक्षिण भारत दिगम्बर जैन धर्म का एक
बड़ा केन्द्र रहा है." 2. श्री शिवरोममूर्ति विरचित पुस्तक की भूमिका में स्व.श्रीमती इन्दिरा गाँधी (भारतीय पूर्व प्रधानमंत्री)
ने लिखा है :
"जैन धर्म में सत् की प्रकृति का गंभीर अन्वेषण निहित है। उसने हमें अहिंसा का सन्देश दिया है, उसका उदय भारत के हृदय प्रदेश में हुआ था, किन्तु उसका प्रभाव देश के समस्त भागों में फैल गया। तमिल प्रदेश के बहुत प्राचीन साहित्य के बहुत कुछ अंश का मूल जैनतत्व है । कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के सुन्दर जैनमंदिर और मूर्तियों संबंधी स्मारक तो विश्व प्रसिद्ध है। "(भारत के दिग. जैन तीर्थ पंचम भाग) ऐतिहासिक महत्व :
जैन धर्मावलम्बी राष्ट्रकूट राजाओं ने मलखेड (प्राचीन मान्यखेट) में ई. सन् 753 से लगभग 200 वर्षों तक राज्य किया था। दक्षिण के इस राज्य ने अपने उत्कर्षकाल में इस प्रदेश के इतिहास में वैसी ही महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया गया था जैसा कि 17वीं सदी में मरहठों ने निर्वाह किया। इस वंश का सब से प्रभावशाली नरेश अमोध वर्ष सन् 814 से 878 तक शासक रहा। उसने इस राजधानी का विस्तार करते हुए अनेक महल, उद्यान एवं दुर्ग इन सबका निर्माण कराया। भग्न किले इस समय भी दृष्टिगत होते हैं। इन 200 वर्षों की अवधि में मान्यखेट जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। उस युग की पाषाण और कांस्ययुग निर्मित मूर्तियाँ आज भी यहाँ दृष्टिगत हो सकती है। क्षेत्रदर्शन :मलखेड ग्राम में 'नेमिनाथ' बसदि नामक एक जैन मंदिर नवमी शताब्दी का मान्य किया जाता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इसमें 9वीं शती से 11वीं शती तक की अनेक मूर्तियाँ विराजमान हैं। इस मंदिर के अंतर्गत एक कांस्य का मंदिर है जिसमें चारों दिशाओं में तीर्थकर आदि की 96 मूर्तियाँ विद्यमान हैं।
जैन साहित्य का केन्द्र :
संस्कृत प्राकृत और कन्नड़ साहित्य की दृष्टि से मलखेड (मान्यखेड) अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। राजा अमोधवर्ष (प्रथम) का द्वितीयनाम नृपतुंग ने स्वयं संस्कृत में 'प्रश्नोत्तर मालिका' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। जिसका विषय नैतिक आचार विचार था । यह ग्रन्थ दूर दूर तक बहुत लोकप्रिय हो गया । यह प्रसिद्ध है कि इस ग्रन्थका अनुवाद तिब्बती भाषा में भी हो गया था। इसी कारण से इस राजा की विद्वत्ता, लोकप्रियता एवं प्रभुत्व का अनुमान लगाया जा सकता है। इस ग्रन्थ के अंतिम छन्द से ज्ञात होता है कि अमोघ वर्ष ने राजपाट को त्यागकर दिगम्बर मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली थी।
नृप
प्रसिद्ध “शाकटायन व्याकरण' ग्रन्थ पर भी आपने अमोघवृत्ति नामक टीका लिखी थी ऐसा विषय एक टीका के नाम से प्रकट होता है। अतएव यह टीका इनके नाम से ही प्रसिद्ध हुई है।
अमोध वर्ष के शासन काल में ही महावीराचार्य ने स्वयं 'गणितसार' ग्रन्थ की रचना की थी । कन्नड़ भाषा में अमोधवर्ष ने 'कविराज' नामक अलंकार । छन्दशास्त्र विषयक ग्रन्थ का प्रणयन किया था । यह ग्रन्थ आज भी उपलब्ध है। इसमें गोदावरी नदी से लेकर कावेरी नदी तक विस्तृत कानड़ी प्रदेश का प्रसंगोपात्त सुन्दर वर्णन है। इससे इस प्रदेश की तत्कालीन संस्कृति का भी सुन्दर परिचय प्राप्त होता है।
राष्ट्रकूट नरेशों के शासन काल में जैन साहित्य की प्रशंसनीय उन्नति निरन्तर होती रही । इस समय जो ग्रन्थ निर्माण इस प्रान्त में हुआ, उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार ज्ञातव्य है :
ग्रन्थनाम
भाषा
क्रम 1. 2. 3. 4. 5.
उत्तरपुराणादि यशस्तिलकचम्पू 3 ग्रन्थ शान्तिपुराण आदिपुराण अजितपुराण
रचयिता आचार्य जिनसेन (द्वि) आ. सोमदेव पोन्नमहाकवि पम्पकवि रतनकवि महाकवि पुष्पदन्त
संस्कृत संस्कृत कन्नड़
कन्नड़
14
6.
महापुराण
अपभ्रंश
7.
नागकुमार चरित
8.
यशोधर चरित
9.
प्रश्नोत्तर रत्नमालिका
अमोघवर्ष
33
10.
शाकटायन अमोघवृत्ति
11.
गणितसार
आचार्य महावीर
12. कविराजमान
अमोघवर्ष
304
संस्कृत
संस्कृत
"
समय
8 वीं सदी ई. 959
सन् 950
सन् 941
सन् 993
अज्ञात
अज्ञात
अज्ञात
अज्ञात
अज्ञात
अज्ञात
अज्ञात
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ बीजापुर (दक्षिण का आगरा) का परिचय एवं इतिहास :
गुलवर्गा से रोडमार्ग द्वारा बीजापुर का यात्राक्रम इस प्रकार है - गुलवर्गा से जेवर्गी 39 कि.मी. जेबर्गी से सिन्दगी से हिप्परगी 23 कि. मी. और यहाँ से बीजापुर से 37 कि.मी. की दूरी पर, राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 13 पर अवस्थित है । बंगलोर - हुबली - शोलापुर छोटीलाइन (मीटरगेज) पर बीजापुर दक्षिणमध्य रेलवे का एक प्रमुख रेलवे स्टेशन है भारत सरकार और कर्नाटक सरकार द्वारा बहुविज्ञापित बीजापुर अपनी गोल गुम्बद के लिये एक अत्यंत आकर्षक एवं आश्चर्यप्रद पर्यटककेन्द्र घोषित किया गया है। बीजापुर का प्राचीन नाम विजयपुर था। जिसका उल्लेख सप्तमशती के एक स्तंभ में एवं 11वीं सदी के मल्लिनाथ पुराण में उपलब्ध होता है। कन्नड़ भाषा में वर्तमान में भी इसको बीजापुर ही कहा जाता है।
बीजापुर का सुन्दर एवं विशाल दि. जैन मंदिर एक मस्जिद के रूप में 15 वीं सदी में परिवर्तित कर दिया गया है उसका नवीन नाम करीमुद्दीन या पुरानी मस्जिद है जो कि आरकिला में स्थित है। उसके एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि वह एक जैन मंदिर था, उसको एक यादव नृप ने भूमि का दान दिया था। यह मस्जिद आनन्दमहल से प्राय: 200 गज की दूरी पर है । इसके स्तंभ तथा छत के पाषाण संशिलष्ट नहीं हैं। दिगम्बर जैन मंदिर :
वर्तमान में बीजापुर में दो दिगम्बर जैन मंदिर हैं (1) प्राचीन दि. जैन आदिनाथ मंदिर । इसमें 11वीं सदी से लेकर 20 वीं सदी तक की प्रतिमाएं विराजमान हैं। (2) दरगा के सहस्रफणी पार्श्वनाथ का मंदिर :
इस मंदिर का नाम नागरीलिपि में लिखा है "श्री १००८ सहस्रफणी पार्श्वनाथ दि. जैन मंदिर दरगाबीजापुर"। कट्टर पन्थी धर्मद्वेषी पुरुषों के आक्रमण के भय से सुरक्षा के लिये इस प्रतिमा को भूमि के अन्दर सुरक्षित रख दिया गया था।
वर्तमान में कुछ वर्षों पूर्व ही इस मूर्ति को निकाला गया था। इसकी रचना से ही इस मूर्ति का प्राचीनत्व सिद्ध होता है । 'दरगा' नामक ग्राम से अनुमानत: तीन कि.मी. दूर एक स्थान से इस मंदिर का अन्वेषण किया गया है।
इस मंदिर में कृष्णपाषाण निर्मित आनुमानिक पाँचफीट उन्नत एक सहस्रफणी भ. पार्श्वनाथ की अतिशय पूर्ण प्रतिमा विराजमान है। उसकी विशेषता यह भी है कि एक सर्पफण में दुग्ध डालने से सभी कणों में से दुग्ध वह निकलता है। यह मूर्ति जमीन से निकाली गई है। इसी मूर्ति वाले कोष्ठ में संगमरमर निर्मित ,तीन फीट उन्नत एक चौबीसी प्रतिमा भी विराजमान है । द्वितीय कोष्ठ में कृष्णपाषाण निर्मित पद्मासन भ. पार्श्वनाथ की और भ. महावीर की पाँच फीट उन्नत पद्मासन प्रतिमा सुशोभित है। इस मंदिर के मूलनायक खड्गासन तीर्थंकर पार्श्वनाथ है ये सभी प्रतिमाएँ 10वीं, 14वीं और 15वीं सदी की निश्चित की जाती हैं। अवस्थिति :कुन्दाद्रि का मार्गदर्शन -नरसिंहराजपुर - कोप्पातीर्थहल्ली - गुड्डकेरी से कुन्दाद्रि को संभवत:
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आठ कि.मी. बस, ट्रेन से या पद यात्रा से प्राप्त किया जाता है । कुन्दाद्रि वर्तमान में कर्नाटक प्रान्त के चिक्कमंगलूरु जिले के तीर्थहल्ली तहसील के अन्तर्गत, आदिवासी क्षेत्र की, तीन हजार फीट से भी उन्नत एक पहाड़ी है । कुन्दकुन्दाचार्य नाम के कारण यह प्राचीनकाल से ही तीर्थ के रूप में मान्य हैं।
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी ।
मंगलं कुन्द कुन्दार्यो, जैनधर्मोस्तु मंगलम् ॥ यह मंगल मन्त्र प्राय: सर्वत्र प्रसिद्ध है और इसमें नमस्कृत कुन्दकुन्दाचार्य से ही इस पहाड़ी का संबंध है इसी पर उन्होंने घोर तपस्या की थी। इसी पहाड़ी से वे विदेह क्षेत्र गये थे। इसी पर उन महान् आचार्य के पवित्र चरण, 13 कलियों वाले कमल में विराजमान हैं। आचार्यकुन्दकुन्द :
आचार्य कुन्दकुन्द का जन्म दक्षिण भारत के पेदथनाडु जिले के अन्तर्गत कौण्डकुन्दपुर नामक ग्राम में, तथा एक अन्य विचार के अनुसार गुन्तकल के समीप कुण्डकुण्डी ग्राम में, ईशा की प्रथम सदी में हुआ था। अपने जन्मग्राम के नाम से ही ये आचार्य कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध हो गये हैं। इनका वास्तविक नाम आचार्य पद्मनन्दी दर्शाया जाता है। इनके पंचनाम निमित्तवश अन्य भी प्रसिद्ध हो गये हैं -
आचार्य: कुन्दकुन्दाख्यो, वक्र गीवो महामतिः । एलाचार्यो गृद्धपिच्छ: पद्मनंदी वितन्यते ॥ अनेकांतपत्रिका किरण-2 देहली
ये आचार्य भद्रबाहु द्वितीय के अथवा श्रुतकेवली भद्रबाहु के पारम्परिक शिष्य माने जाते हैं। दिगम्बर जैन समाज में अति प्रसिद्ध होने के कारण ही उसी समय से यह समाज मूलसंघ एवं कुन्दकुन्दान्वय का माना जाता है। ये तमिल निवासी थे । दक्षिण भारत के शिलालेख में आपका नाम 'कोण्डकुन्द'प्राप्त होता है। इन महान् आचार्य ने जैन दर्शन के आध्यात्मिक ग्रन्थों की जो प्रामाणिक रचना की है वह अद्वितीय है। आपने प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों की रचना तथा पाहुडग्रन्थ, भक्तिग्रन्थ, वारस अणुपेक्खा, मूलाचार आदि 84 ग्रन्थों की रचना सौरसेनी प्राकृत भाषा में करके जैनदर्शन की महती ख्याति विश्व में अमर की है। आपने षट्खण्डागम के त्रिखण्डों पर परिकर्म नामक करुणानुयोग के ग्रन्थ का प्रणयन भी किया है।
इससे सिद्ध होता है कि आ. कुन्दकुन्द, दिगम्बर जैनाचार्यों में आद्यग्रन्थकर्ता हैं एवं श्रुतयुग संस्थापक महान् आचार्य हैं। संभवत: इनको इसी परमश्रेय के कारण मंगलश्लोक में श्री गौतम गणधर के पश्चात् नमस्कार किया गया है। क्षेत्रदर्शन :
कुन्दाद्रि शिखर एक प्राकृतिक कुण्ड है जो कि पादुकाश्रय के निकट ही हैं। इसको पापनाशिनी सरोवरी भी कहते हैं ।इसका जल पेय एवं मधुर है। यहाँ पर दो गुफाएं भी है । कुण्ड के किनारे एक प्राचीन
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पार्श्वनाथ दि. जैन मंदिर है । इसके समक्ष एक मानस्तंभ सुशोभित है। गर्भगृह में भ. पार्श्वनाथ की एक अद्भुत रम्य प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है। तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति को एक बड़ा सर्प लपेटे हुए हैं और अपने सप्तकणों की छाया पार्श्वनाथ पर कर रहा है । सर्प कुण्डली पादमूल तक विस्तृत है। घुटनों के पास एक यक्ष सुशोभित है । इस प्रकार की प्रतिमा संभवतः अन्यत्र नहीं है। मंदिर के द्वार और मण्डप में भी सुन्दर कलाकारी प्रभावक है । कुन्दाद्रि पर जैनमंदिरों के ध्वंसावशेष मूर्तियों एवं कलापूर्ण शिलाखण्ड यत्र तत्र बिखरे हुए है। इससे प्रतीत होता है कि यह पर्वत अतिप्रसिद्ध तीर्थस्थान रहा होगा। वर्तमान में इसका प्रबंध हुमचा के भट्टारक द्वारा किया जाता है कुन्दाद्रि का प्राकृतिक सौन्दर्य अति दर्शनीय है । यहाँ सूर्यास्त का दृश्य अत्यंत सुन्दर दिखाई देता है। (भारत के दि. जैन तीर्थ: पंचमभाग: डॉ. राजमल जैन ) अतिशय क्षेत्र मूडविद्री का परिचय एवं इतिहास :
मूडविद्री की प्रसिद्धि के मुख्य कारण :
1.
मूडविद्री का जैनमठ श्रवण वेलगोल की ही प्रधान शाखा है अतः भक्तमानव श्रवण वेलगोल के समान ही गौरवपूर्ण इस क्षेत्र की वन्दना करते हैं।
2.
3.
4.
विद्वानों एवं अनुसन्धान कर्ताओं के लिये यह एक प्रमुख स्थान है। इसी प्राचीन क्षेत्र से ही जैनदर्शन के कन्नड़ षट्खण्डागम जैसे (धवल, जयधवल महाधवल) मूलप्राकृत संस्कृत ग्रन्थ ताडपत्रों पर लिखित एवं सुरक्षित उपलब्ध हुए थे । यहाँ पर अनेक ताडपत्रीय मौलिक जैनग्रन्थ विद्यमान है। इ लेखनकला एवं रंगीन चित्रकारी आश्चर्य जनक तथा दर्शनीय है । इसी क्षेत्र पर स्व. श्रीमान् साहू शान्तिप्रसाद जी द्वारा स्थापित "रमारानी जैनशोध संस्थान " आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण है । कलाविदों एवं तीर्थ भक्तों के लिये यह क्षेत्र विशेष आकर्षक है कारण कि यहाँ का अद्वितीय सहस्रस्तंभों से सुशोभित त्रिभुवन - तिलक चूड़ामणि मंदिर (चन्द्रनाथमंदिर) स्थानीय मंदिरो में विराजमान, पक्की मिट्टी आदि की निर्मित प्राचीन प्रतिमाऐं, तथा कुछ हीरा, मोती आदि की अमूल्य दुर्लभ प्रतिमाऐं दर्शनीय हैं।
कतिपय पाश्चात्य इतिहासज्ञ कलाविदों ने यह लिखा है कि यहाँ की मंदिर निर्माण कला नेपाल और तिब्बत की भवन निर्माण कला से तुलना रखती है । दोनों देशी कलाओं के साथ कलाओं का साम्य आश्चर्य प्रद एवं संस्कृति साम्य का द्योतक है।
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क्षेत्र का इतिहास :
मूडविद्री क्षेत्र का इतिहास भी अत्यंत प्राचीन ज्ञात होता है । भ. पार्श्वनाथ ने अपने मुनिजीवन के 70 वर्ष प्रमाण विहार कर जैनधर्म के सिद्धांतों का प्रचार प्रसार किया। उनका विहार दक्षिण भारत में भी हुआ था । वे नागजाति की एक शाखा उरगवंश के आभूषण थे । डा. ज्योतिप्रसाद जी जैन का मत है कि "पार्श्वनाथ
समय में पूर्व, पश्चिम और दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में अनेक प्रबल नागसत्ताऐं, राजतंत्रों अथवा गणतंत्रों के रूप में उदित हो गई थी और इन मानवों के इष्ट देवता भ. पार्श्वनाथ ही प्रतीत होते हैं" ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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ईसा की द्वितीय सदी में करहाटक (महाराष्ट्र) में एक कदम्ब नामक राजवंश की स्थापना हुई। उसके उत्तराधिकारी मयूरवर्मन् (चतुर्थ सदी) ने अपनी राजधानी वनवासी (कर्नाटक) में स्थानांतरित की । उसका एक उत्तराधिकारी काकुत्स्थ वर्मन् जैनधर्म का पोषक था । उसका पुत्र मृशेवर्मन् ( 450 478 ई.) भी जैन धर्मका अनुयायी और गुरुओं का सम्मान करने वाला शासक था । संभवत: इन ही शासकों के समय में अर्थात् ईसा की पाँचवी सदी में तुमुलनाडु पर इस जिन भक्त वंश का आधिपत्य हो गया था ।
दसवीं सदी में तुलुनाडु का शासन अलुप या अलुब वंशी सामंतों के अधिकार में आ गया था वे भी श्री जिनेन्द्र देव के भक्त थे । इसी वंश के राजा कुलशेखर अलुपेन्द्र प्रथम (12 वीं सदी) के शासनकाल में तुलनाडु में जैनधर्म को राजकीय प्रश्रय प्राप्त था । मूडविद्री के एक शिलालेख में उल्लेख है कि कुलशेखर नृप तृतीय (सन् 1355-1590) ने मूडविद्री की गुरुवसदि (पार्श्वनाथ मंदिर ) को दान दिया था।
इस लेख में कुलशेखर को भट्टारक चारुकीर्ति के प्रति 'श्रीपाद पद्माराधक' कहा गया है । यह राजा महान् वैभवशाली, रत्नजड़ित सिंहासन पर आसीन रहता था ।
तुलुदेश, बंगवाडि के बंगवंश के भी आधीन रहा। यह वंश सन् 1100 से 1600 तक पृथक् अस्तित्व विद्यमान था । इसके सभी राजा जैनधर्म के अनुयायी थे । प्रथम यह वंश होय्सल शासकों का सामंतरूप में रहा । वीरनरसिंह बंगनरेन्द्र (सन् 1245-1275) में एक कुशल और विद्याव्यसनी शासक था। उसके गुरु आचार्य अजित सेन थे । 16 वीं सदी में यह वंश विवाह संस्कार द्वारा कारकल के भैररसकुल से संयुक्त हो गया। वह वंश जिनदत्तराय (हुमचा में सान्तरवंश के संस्थापक एक जैनराजा ) की कुलपरम्परा के अंतर्गत था। इस क्षेत्र के शिलालेखों में तोलहार जैनशासकों (सन् 1169) का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
कालान्तर में सामंतगण, होय्सल राज वंश की अधीनता से स्वतंत्र हो गये। इनमें चौटरवंशीय राजा भी थे जिनका उल्लेख, 1690 ई. के एक शिलालेख में उपलब्ध होता है। इन राजाओं ने मूडविद्री को अपनी राजधानी बनाया था | इतिहास से ज्ञात होता है कि इन नरेशों ने संभवत: 700 वर्षो तक मूडविद्री में राज्य किया। ये नरेश जैनधर्म के प्रतिपालक थे । इनके वंशज आज भी मूडविद्री में अपने जीर्णशीर्ण महलों में निवास करते हैं और शासन से पेंशन प्राप्त करते है ।
साल्वराजवंश का तथा हाडुबल्लिवंश का महामण्डलेश्वर परम जिनभक्त था, किसी समय मूडविद्री क्षेत्र उसके आधीन था ऐसा उल्लेख यहाँ के शिलालेख से प्राप्त होता है,
मूवी विजयनगर साम्राज्य के पतन के पश्चात् टीपूसुलतान के अधिकार में आ गया। उसके पश्चात् यहाँ पर ब्रिटिश शासन चलता रहा। इसी समय सन् 1956 में मूडविद्री, मैसूरराज्य वर्तमान कर्नाटक में सम्मिलित कर दिया गया। भ. महावीर के अनुयायी जैन नरेशों में, हेमांगद (कर्नाटक में स्थित ) देश के जीवन्धर नरेश और मालवदेश के नरेशों का भी नाम उल्लेखनीय है । इसके संबंध में डॉ. नेमिचंद्र जी ज्योतिषाचार्य ने कहा है :
"दक्षिणभारत के नरेशों में सालुब नामक एक राजवंश का उल्लेख प्राप्त होता है। साल्व मल्ल
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जिनदास नरेश, तुलुबदेश पर शासन करते थे। स्वयं भ. महावीर ने दक्षिण भारत में विहार किया था।" (भ. महावीर और उनकी आचार्य परम्परा प्र. भाग : पृ.279) । डॉ. नेमिचंद्र ज्योतिषाचार्य
श्रुतकेवली भद्रबाहु और चंद्र गुप्त मौर्य का श्रवणबेलगोल के चंद्रगिरि पर्वत पर आगमन और तपस्या संबंधी वृत्तान्तों एवं शिलालेखों से ज्ञात होता है कि यहाँ पर विद्यमान 12000 मुनियों (दिगम्बर) के संघ में से केवल आचार्य भद्रबाहु और चंद्रगुप्त मौर्य ही इस चंद्रगिरि पर तपस्या हेतु स्थिर हो गये थे और शेष मुनिराजों को दक्षिण की ओर भेज दिया गया था। संभवत: कतिपय मुनिराजों को मूडविद्री की ओर भी विहार करने का अवसर प्राप्त हुआ हो। यह घटना ईसापूर्व 365से पूर्व की है, जब कि आचार्य भद्रबाहु ने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया था। निषधियाँ या समाधियाँ :
___ मूडविद्री में समाधियों की अद्भुत रचना दर्शनीय है ऐसी रचना भारत में संभवत: अन्यत्र नहीं है। ये समाधियाँ 18 मठाधिपतियों तथा दो व्रती श्रावकों की ज्ञात होती हैं। किन्तु लेख केवल दो ही समाधियों पर अंकित हैं। समाधियाँ तीन से लेकर आठ तल (खण्ड) तक की बनी हैं। इनका एक तल दूसरे तल की ढलवाछत के द्वारा विभक्त होता है। इस कारण ये समाधियाँ काठमाण्डू या तिब्बत के पैगोडा जैसी आकृति वाली दिखाई देती हैं। इनकी प्रत्येक मंजिल की छत ढलावदार है यह भारत में विचित्र शैली की ही रचना दर्शनीय है । मूडविद्री क्षेत्र में 18 प्राचीन दि. जैन मंदिर, चार चौबीसी मंदिर, पाँच मानस्तंभ और सैकड़ों प्राचीन मूर्तियाँ विराजमान है। अनेकों विशाल एवं सुन्दर मूर्तियाँ अपने परिकरों के साथ शोभित है सहस्रकूट चैत्यालय भी दशर्नीय है।
मूडविद्री न केवल एक प्रमुख जैनकेन्द्र, तीर्थ, अमूल्य प्रतिमा, संग्रहालय, तथा अपूर्व शास्त्र संग्रह का आयतन है, अपितु महाकवि रत्नाकार की जन्मभूमि का भी श्रेष्ठ स्थान हैं। महाकवि की अमरकृतियाँ भी प्रसिद्ध हैं। जैसे भरतेशवैभव, रत्नाकरशतक आदि। उनकी स्मृति में यहाँ पर रत्नाकर नगर ' नाम की एक कालोनी भी बसाई गई है। उक्त कारण विशेषों से यह मूडविद्री क्षेत्र श्रद्धा के साथ पूजा, वन्दना एवं कीर्तन के योग्य है। (भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ: पंचमभाग पृ. 172)
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" मार्गणा”
जिनमें अथवा जिनके द्वारा जीवों की मार्गणा - खोज की जावे उन्हें मार्गणा कहते हैं । 343 राजू प्रमाण लोकाकाश में अक्षय अनन्त जीव राशि भरी हुई है उसे खोजने अथवा उस पर विचार करने के साधनों में मार्गणा का स्थान सर्वोपरि है । यह मार्गणाएं चौदह प्रकार की होती हैं :
1 गति 2 इन्द्रिय 3 काय 4 योग 5 वेद 6 कषाय 7 ज्ञान 8 संयम 9 दर्शन 10 लेश्या 11 भव्यत्व 12 सम्यक्त्व 13संज्ञित्व और 14 आहार ।
सान्तरमार्गणा
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
सामान्य रूप से सभी मार्गणाएं सदा विद्यमान रहती हैं परन्तु मार्गणाओं के प्रभेद रूप उत्तर मार्गणाओं की अपेक्षा विचार करने पर 1 उपशम सम्यक्त्व, 2 सूक्ष्मसांपराय संयम, 3 आहारक-काययोग, 4 आहारक मिश्र काययोग, 5 वैक्रियिक मिश्र काययोग, 6 अपर्याप्तक मनुष्य, 7 सासादन सम्यक्त्व और 8 मिश्रसम्यङ मिथ्यात्व """ 'इन आठ मार्गणाओं का कदाचित् कुछ समय तक अभाव भी हो जाता है इसलिये इन्हें सान्तर मार्गणाएं कहते है । इनमें उपसमसम्यक्त्व का उत्कृष्ट अन्तर काल सात दिन, सूक्ष्म सांपराय का छह माह, आहारक काययोग का पृथक्त्व वर्ष, आहारक मिश्र काययोग का पृथक्त्व वर्ष, वैक्रियिक मिश्र का योग का बारह मुहूर्त, अपर्याप्त मनुष्य का पल्य के असंख्यातवें भाग तथा सासादन और मिश्रका भी उत्कृ अन्तरकाल पल्य के असंख्यातवें भाग है अर्थात् इतने समय के बीतने पर कोई न कोई जीव इन मार्गणाओं का धारक नियम से होता है। उपर्युक्त आठों सान्तर मार्गणाओं का जघन्य अन्तर काल एक समय ही है। इस संदर्भ में इतनी विशेषता और ध्यान में रखना चाहिये कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व से सहित पञ्चम गुणस्थान का उत्कृष्ट विरह काल चौदह दिन का तथा छठवें और सातवें गुणस्थान का पन्द्रह दिन है । मार्गणाओं का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार हैं :
गतिमार्गणा
5- गति,
नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई जीव की अवस्था विशेष को गति कहते हैं । इसके नरक- तियञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति ये चार भेद हैं।
नरकगति
नरकगति नाम कर्म के उदय से जो अवस्था होती है उसे नरकगति कहते हैं । इस गति के जीव निरन्तर दुःखी रहते हैं, रञ्चमात्र के लिये भी इन्हें रत - सुख की प्राप्ति नहीं होती इसलिये इन्हें नरत भी कहते हैं। इन जीवों का निवास रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुका प्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और महातमः प्रभा इन सात भूमियों में हैं । इन भूमियों में क्रम से 30 लाख, 25 लाख, 15 लाख, 10 लाख, 3 लाख, पांच कम एक लाख और 5 बिल है । उन्ही विलों में नारकियों का निवास है ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रथम नरक की अपर्याप्तक अवस्था में पहला और चौथा गुणस्थान होता है तथा पर्याप्तक अवस्था में प्रारंभ के चार गुणस्थान होते हैं । द्वितीय को आदि लेकर नीचे की छह पृथिवियों में अपर्याप्तक अवस्था में मात्र मिथ्यादृष्टि नामक पहला गुणस्थान होता है और पर्याप्तक अवस्था में प्रारंभ के चार गुणस्थान होते हैं। नरकगति की अपर्याप्तक दशा में सासादन और मिश्र गुणस्थान नहीं होते। क्योंकि सासादन गुणास्थान में मरा हुआ जीव नरकगति में उत्पन्न नहीं होता और मिश्र गुणस्थान में किसी का मरण होता ही नहीं है, इसलिए यह नरकगति ही क्यों सभी गतियों की अपर्याप्तक अवस्था में नहीं होता। नरकगति के विविध दुःखों का दिग्दर्शन -
उपर्युक्त नरकों में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण ओर शब्द अत्यन्त भयावह हैं। वहां की भूमि का स्पर्श होते ही उतना दु:ख होता है जितना कि एक हजार बिच्छुओं के एक साथ काटने पर भी नहीं होता । यही दशा वहां के रस आदि की है। नरकों में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ लेश्याएं होती हैं। पहली और दूसरी भूमि में कापोती लेश्या है, तीसरी भूमि में ऊपर के पटलों में कापोती लेश्या और नीचे के पटलों में नील लेश्या है। चौथी भूमि में नील लेश्या है, पांचवी भूमि में ऊपर के पटलों में नील लेश्या है, और नीचे के पटलों में कृष्ण लेश्या है। छठवी पृथिवी में कृष्ण लेश्या है और सातवीं में परम कृष्ण लेश्या है। इन नारकियों का शरीर अत्यन्त विरूप आकृति तथा हुण्डक संस्थान से युक्त होता है। प्रथम भूमि के नारकियों का शरीर सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल ऊंचा है। द्वितीयादि भूमियों में दूना - दूना होता जाता है।
पहली, दूसरी तीसरी और चौथी भूमि में उष्ण वेदना है, पाँचवी भूमि में ऊपर के दो लाख विलों में उष्ण वेदना और नीचे के एक लाख विलों में तथा छठवीं और सातवीं भूमि में शीत वेदना है। जिन नरकों में उष्ण वेदना है उनमें मेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला यदि पहुँच सके तो वह क्षण मात्र में गलकर पानी हो जावेगा और जिनमें शीत वेदना है उनमें फटकर क्षार क्षार हो जावेगा । वहाँ की विक्रिया भी अत्यन्त अशुभ होती है। नारकियों के अपृथक् विक्रिया होती है अर्थात् वे अपने शरीर में ही परिणमन कर सकते हैं पृथक् नहीं। वे अच्छी विक्रिया करना चाहते हैं पर अशुभ विक्रिया ही होती है। इन उपर्युक्त दु:खों से ही उनका दु:ख शान्त नहीं होता किन्तु तीसरी पृथ्वी तक असुर कुमार जाति के देव जाकर उन्हें परस्पर लड़ाते है। उन नरकों में क्रम से एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागर की उत्कृष्ट आयु होती है। कौन जीव नरक में कहां तक जाते हैं ?
असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पहली पृथ्वी तक, सरीसृप दूसरी पृथ्वी तक, पक्षी तीसरी पृथ्वी तक, सर्प चौथी पृथ्वी तक, सिंह पाँचवीं पृथ्वी तक, स्त्रियाँ छठवीं पृथ्वी तक, पापी मनुष्य तथा महामच्छ सातवीं पृथ्वी तक जाते है । एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव नरकों में उत्पन्न नहीं होते । नारकी मरकर नारकी नहीं होता तथा देव भी मरकर नरक गति में नहीं जाता। नरकों से निकले हुए जीव क्या - क्या होते हैं ? सातवीं पृथ्वी से निकले हुए नारकी मनुष्य नहीं होते, किन्तु तिर्यञ्चों में उत्पन्न होकर फिर से नरक
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जाते हैं। छठवीं से निकले हुए नारकी मनुष्य तो होते है पर संयम धारण नहीं कर सकते। पाँचवी पृथ्वी से निकले हुए नारकी मुनिव्रत तो धारण कर लेते है परन्तु मोक्ष नहीं जाते । चौथी पृथ्वी से निकले हुए नारकी मोक्ष प्राप्त कर सकते है परन्तु तीर्थंकर पद प्राप्त नहीं कर सकते। पहली, दूसरी और तीसरी पृथ्वी से निकले हुए नारकी तीर्थंकर भी हो सकते हैं। तिर्यञ्चगति -
तिर्यञ्च गति नाम कर्म के उदय से जीव की जो दशा होती है उसे तिर्यञ्च गति कहते है। तिर्यञ्च कुटिल भाव से युक्त होते हैं। उनकी आहार आदि संज्ञाएँ अत्यन्त प्रकट हैं, अत्यंत अज्ञानी हैं और तीव्र पाप से युक्त हैं। जो जीव पूर्वपर्याय में मायाचार रूप प्रवृत्ति करते हैं उन्हीं के तिर्यञ्च आयु का बन्ध होकर तिर्यच गति प्राप्त होती है। इनका गर्भ और संमूर्छन जन्म होता है । एकेन्द्रिय से लेकर पाँचों इन्द्रियाँ इनके होती हैं। तीनों लोकों में सर्वत्र व्याप्त हैं । आगम में इनके सामान्य तिर्यच, पञ्चेन्द्रिय तिर्यच, पर्याप्तक तिर्यच, अपर्याप्तक तिर्यच और योनिमती तिर्यच के भेद से पाँच भेद कहे गये हैं।
संक्षेप से इनके कर्मभूमिज और भोगभूमिज की अपेक्षा दो भेद हैं । जिन जीवों ने पहले तिर्यच आयु का बंध कर लिया, पीछे सम्यग्दर्शन प्राप्त किया, ऐसे जीव भोगभूमिज तिर्यचों में उत्पन्न हो सकते हैं परन्तु कर्म भूमिज तिर्यचों में नहीं । तिर्यचगति के वध बन्धन आदि से होने वाले दुःख प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, इसलिए निरंतऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि जिससे तिर्यच आयु का बंध न हो सके। तिर्यक गति में चौदह जीव समास होते हैं। विस्तार से विचार किया जावे तो 98 जीव समासों में 85 जीव समास तिर्यच गति में होते हैं और चौरासी लाख योनियों में बासठ लाख योनियां तिर्यच गति में होती हैं। इसमें एक से लेकर पाँच तक गुणस्थान हो सकते हैं अर्थात् संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यच सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं और कर्म भूमि में उत्पन्न हुए कोई - कोई पंचेन्द्रिय तिर्यच एकदेश व्रत भी धारण कर सकते हैं । आगम में बताया है कि स्वयंभूरमण समुद्र के बाद जो पृथ्वी के कोण हैं उनमें असंख्यात पंचेन्द्रिय तिर्यच व्रती होते हैं और मरकर वे वैमानिक देवों में उत्पन्न होते है।
तिर्यच गति में जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य की होती है । मनुष्यगति -
मनुष्यगति नाम कर्म के उदय से जो अवस्था प्राप्त होती है उसे मनुष्यगति कहते हैं । यतश्च ये तत्व अतत्व - धर्म अधर्म का विचार करते हैं, मन से गुण दोष आदि का विचार करने में निपुण हैं अथवा कर्म भूमि के प्रारंभ में चौदह मनुओं - कुलकरों से उत्पन्न हुए हैं इसलिए मनुष्य कहलाते हैं। आगम में मनुष्यों के सामान्य, पर्याप्तक, अपर्याप्तक और योनिमती के भेद से चार भेद बताये गये हैं। वैसे तिर्यंचों के समान इनके भी कर्म भूमिज और भोगभूमिज की अपेक्षा दो भेद हैं। तत्वार्थ सूत्रकार ने इनके आर्य और म्लेच्छ इस प्रकार दो भेद कहे हैं। मानुषोत्तर पर्वत के पूर्व पूर्वतक अर्थात् अढाई द्वीप और दो समुद्रों में इनका निवास है। इनमें संज्ञी
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक ये दो जीव समास होते है। भोगभूमिज मनुष्य के प्रारंभ के चार गुणस्थान तक हो सकते हैं और कर्म भूमिज मनुष्य के चौदहों गुणस्थान हो सकते हैं। संसार सन्तति छेद कर मोक्ष प्राप्त कराने की योग्यता इसी गति में है इसलिए इसका महत्व सर्वोपरि है। मनुष्य की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य की होती है। कर्म भूमिज मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति एक करोड़ वर्ष पूर्व की होती है। देवगति -
देवगति नाम कर्म के उदय से जो अवस्था प्राप्त होती है उसे देवगति कहते हैं । 'दीव्यन्ति यथेच्छं क्रीडन्ति द्वीप समुद्रादिषु ये ते देवाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो इच्छानुसार द्वीप समुद्र आदि में क्रीड़ा करते हैं वे देव कहलाते हैं यह देव शब्द का निरुक्त अर्थ है । देवों के चार निकाय हैं - 1. भवनवासी,2. व्यन्तर,3. ज्योतिष्क और 4. वैमानिक । भवनवासियों के असुर कुमार आदि दश, व्यन्तरों के किन्नर आदि आठ, ज्योतिष्कों के सूर्य आदि पाँच और वैमानिकों के बारह इन्द्रों की अपेक्षा बारह भेद हैं। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क ये तीन देव भवनत्रिक के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें सम्यग्दृष्टि जीव की उत्पत्ति नहीं होती। वैमानिक देवों के कल्पवासी और कल्पातीत की अपेक्षा दो भेद भी हैं । सोलहवें स्वर्ग तक के देव कल्पवासी और उसके आगे नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश तथा पाँच अनुत्तरवासी देव कल्पातीत कहलाते हैं। जिनमें इन्द्र सामानिक आदि दश भेदों की कल्पना होती है वे कल्पवासी कहलाते हैं और जिनमें यह कल्पना नहीं होती वे कल्पातीत कहे जाते हैं।
देवों के संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक ये दो जीव समास होते हैं । इनके प्रारंभ के चार गुणस्थान होते हैं। हंस, परम हंस आदि मन्द कषायी अन्य मतावलम्बियों की उत्पत्ति बारहवें स्वर्ग तक होती है। पाँच अणुव्रतों को धारण करने वाले गृहस्थ सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। द्रव्यलिंगी - मिथ्यादृष्टि मुनियों की उत्पत्ति नौवें ग्रैवेयक तक हो सकती है उसके आगे सम्यग्दृष्टि मुनियों की ही उत्पत्ति होती है । अनुदिश तथा अनुत्तरवासी देव अधिक से अधिक मनुष्य के दो भव लेकर मोक्ष चले जाते हैं । अनुत्तरों में सर्वार्थसिद्धि के देव, पाँचवें स्वर्ग के अंत में रहने वाले लौकान्तिक देव, सौधर्मेन्द्र, उसकी शची नामक इन्द्राणी और दक्षिण दिशा के लोकपाल ये सब एक भवावतारी होते हैं।
मिथ्यादृष्टि देव स्वर्ग की विभूति पाकर उसमें तन्मय हो जाते हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि देव अन्तरंग से विरक्त रहकर कर्म भूमिज मनुष्य पर्याय की वांछा करते हैं और यह भावना रखते हैं कि हम सब मनुष्य होकर तपश्चरण करें तथा अष्ट कर्मो का नाशकर मोक्ष प्राप्त करें। चारों निकाय के देवों की आयु विभिन्न प्रकार की है। संक्षेप में सामान्य रूप से देवगति की जघन्य आयु दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तेतीस सागर की है। इन्द्रिय मार्गणा -
इन्द्र आत्मा की जिनसे पहिचान हो उसे इन्द्रिय कहते हैं । अथवा जो अपने स्पर्शादि विषयों को ग्रहण करने के लिए इन्द्र के समान स्वतंत्र हैं किसी दूसरी इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रखती उन्हें इन्द्रिय कहते हैं।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इन इन्द्रियों के सामान्य रूप से द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय की अपेक्षा दो भेद हैं । निर्वृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय तथा लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। निर्वृत्ति रचना को कहते हैं। इसके बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो भेद हैं। तत् तद् इन्द्रियों के स्थान पर पुद्गल परमाणुओं की जो इन्द्रियाकार रचना है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। और आत्म प्रदेशों का तद् तद् इन्द्रियाकार परिणमन होना आभ्यन्तर निर्वृत्ति है। उपकरण के भी बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो भेद है। पलक विरूनि आदि बाह्य उपकरण हैं और कृष्ण शुक्ल मंडल आदि आभ्यन्तर उपकरण हैं। तत् तद् इन्द्रियावरण के क्षयोपशम से पदार्थ के ग्रहण करने की जो योग्यता है उसे लब्धि कहते हैं और उस योग्यता के अनुसार कार्य होना उपयोग है । वीरसेन स्वामी के उल्लेखानुसार इन्द्रियावरण कर्मका क्षयोपशम समस्त आत्म प्रदेशों में होता है न केवल इन्द्रियाकार परिणत आत्मप्रेदशों में विशेष रूप से स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच भेद है। इन्हीं इन्द्रियों की अपेक्षा जीवों की एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये पाँच जातियाँ होती है।
आगम में एकेन्द्रिय जीवों की स्पर्शनादि इन्द्रियों का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र इस प्रकार बताया गया है -
एकेन्द्रिय जीव की स्पर्शन इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र चार सौ धनुष है, द्वीन्द्रिय जीव की रसना इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय चौसठ धनुष प्रमाण है, त्रि-इन्द्रिय जीव की घ्राणेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय सौ धनुष प्रमाण है, चतुरिन्द्रिय जीव की चक्षुरिद्रिय का उत्कृष्ट विषय दो हजार नौ सौ चौवन योजन है और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव की कर्णेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय आठ हजार धनुष प्रमाण है। द्वीन्द्रियादिक जीवों का यह विषय असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक दूना - दूना होता जाता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव की स्पर्शनादि इन्द्रियों का उत्कृष्ट विषय इस प्रकार है - स्पर्शन, रसना और घ्राण इन तीन में प्रत्येक का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र नौ नौ योजन है । श्रोत्रेन्द्रिय का बारह योजन तथा चक्षुरिंन्द्रिय का सैंतालीस हजार दो सौ त्रेशठ से कुछ अधिक है । उत्कृष्ट विषय क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि ये इन्द्रियां इतने दूरवर्ती विषय को ग्रहण कर सकती हैं।
चक्षुरिन्द्रिय का आकार मसूर के समान, श्रोत्र का आकार जौ की नली के समान, घ्राण का आकार तिल के फूल के समान और रसना का आकार खुरपा के समान है । स्पर्शन का आकार अनेक प्रकार का होता है।
आत्म प्रदेशों की अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय का अवगाहन घनांगुल के असंख्यातवें भाग हैं, इससे संख्यातगुणा श्रोत्रेन्द्रिय का है, इससे पल्य के असंख्यातवें भाग अधिक घ्राणेन्द्रिय का और उससे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणित रसनेन्द्रिय का अवगाहन है। स्पर्शनेन्द्रिय का जघन्य अवगाहन घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो कि सूक्ष्म निगोदिया जीव के उत्पन्न होने के तृतीय समय में होता है और उत्कृष्ट अवगाहन महामच्छ के होता है जो कि संख्यात घनांगुल रूप होता है।
___ एकेन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय तक एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है और संज्ञी पंचेन्द्रियके चौदह गुणस्थान होते हैं।
यह इन्द्रियों का क्रम संसारी जीवों के ही होता है मुक्त जीव इससे रहित हैं। संसारी जीवों में भी, भावेन्द्रियां बारहवें गुणस्थान तक ही क्रियाशील रहती है उसके आगे नहीं । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में द्रव्येन्द्रियों के रहने से ही पंचेन्द्रियपने का व्यवहार होता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ काय मार्गणा
____जाति नाम कर्म से अविनाभावी त्रस और स्थावर नाम कर्म के उदय से जो शरीर प्राप्त होता है उसे काय कहते हैं। एकेन्द्रिय जाति तथा स्थावर नाम कर्म के उदय से जो शरीर मिलता है उसकी स्थावर काय संज्ञा है और वह पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के भेद से पांच प्रकार का होता है तथा द्वीन्द्रियादि जाति और त्रस नाम कर्म के उदय से जो शरीर प्राप्त होता है उसे त्रसकाय कहते है। कायमार्गणा में उसका एक ही भेद लिया जाता है।
पृथिवी, जल, अग्नि और वायु कर्म के उदय से पृथिवी काय आदि की उत्पत्ति होती है इन सभी के वादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के शरीर होते है।
वनस्पति नाम कर्म के उदय से वनस्पति काय उत्पन्न होता है। इसके प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति के भेद से दो भेद हैं। प्रत्येक उसे कहते है जिसमें एक शरीर का एक ही जीव स्वामी होता है और साधारण उसे कहते है जहां एक शरीर के अनेक जीव स्वामी होते हैं। प्रत्येक वनस्पति के भी दो भेद हैं, 1 सप्रतिष्ठित प्रत्येक और 2 अप्रतिष्ठित प्रत्येक । जिनके आश्रय अनेक निगोदिया जीव रहते हैं उन्हें सप्रतिष्ठित प्रत्येक और जिनके आश्रय अनेक निगोदिया नहीं रहते उन्हें अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं।
जिनकी शिरा, सन्धि और पर्व अप्रकट हो, जिसका भंग करने पर समान भंग हो, और दोनों भंगों में तन्तु न लगे रहें तथा भेदन करने पर भी जिसकी पुन: वृद्धि हो जावे वह सप्रतिष्ठित कहा जाता है और इससे भिन्न अप्रतिष्ठित प्रत्येक है।
जिनका आहार तथा श्वासोच्छवास साधारण-समान होता है अर्थात् एक के आहार से सबका आहार और एक के श्वासोच्छवास से सबका श्वासोच्छवास हो जाता है, एक के जन्म लेने से सबकाजन्म और एक के मरण से सबका मरण हो जाता है,वह साधारण कहा जाता है वादर निगोदिया जीवों के स्कन्ध, अंडर, आवास, पुलवि और देह इस प्रकार पांच भेद होते हैं और ये उत्तरोत्तर असंख्यात लोक गुणित होते जाते है। एक निगोदिया जीव के शरीर में द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा सिद्ध राशि तथा समस्त अतीत काल के समयों से अनन्त गुणे जीव रहते हैं। साधारण का दूसरा प्रचलित नाम निगोद है । यह निगोद, नित्यनिगोद और इतरनिगोद की अपेक्षा दो प्रकार का होता है। नित्य निगोद में दो विकल्प हैं-एक विकल्प तो यह है कि जिसने त्रसपर्याय आज तक कभी न प्राप्त की है और न कभी प्राप्त करेगा, उसी पर्याय में जन्ममरण करता रहता है। तथा दूसरा विकल्प यह है कि जिसने आज तक त्रसपर्याय पाई तो नहीं है परन्तु आगे पा सकता है। इतरनिगोद वह कहलाता है जो निगोद से निकल कर अन्य पर्यायों में घूमकर फिर निगोद में उत्पन्न होता है।
द्वीन्द्रियादिक जीवों को त्रस कहते हैं। स्थावर काय में एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है और त्रसजीवों के चौदहों गुणस्थान होते हैं । त्रसजीवों का निवास त्रसनाड़ी में ही है जब कि स्थावर जीवों का निवास तीन लोक में सर्वत्र है । त्रस नाड़ी के बाहर त्रस जीवों का सद्भाव यदि होता है तो उपपाद, मारणान्तिकसमुद्घात और लोकपूरणसमुद्घात के समय ही होता है अन्य समय नहीं । सूक्ष्म निगोदिया तो
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं परन्तु बादरनिगोदिया, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, केवली का परमौदारिक शरीर, आहारक शरीर, देवोंका शरीर तथा नारकियों का शरीर इन आठ स्थानों में नहीं होते हैं।
पृथिवीकायिक का शरीर मसूर के समान, जलकायिक का जल की बूंद के समान, अग्निकायिक का खड़ी सुइयों के समूह के समान और वायु कायिक का ध्वजा के समान होता हे । वनस्पतिकायिक तथा त्रसों का शरीर अनेक प्रकार का होता है।
काय के प्रपञ्च का वर्णन करते हुए आचार्यों ने कहा है कि जिस प्रकार बोझा ढोने वाला मनुष्य काँवर के द्वारा बोझा ढोता है उसी प्रकार संसारी जीव काय रूपी कांवर के द्वारा कर्म रूपी बोझे को ढोता है। एक जगह यह भी लिखा है कि जिस प्रकार लोहे की संगति से अग्नि घनों से पिटती हे उसी प्रकार शरीर की संगति से यह जीव चतुर्गति के दुःख सहन करता है। तात्पर्य यह है कि जब तक शरीर का सम्बन्ध है तभी तक संसार भ्रमण है । सिद्ध भगवन्त काय के सम्बन्ध से रहित हैं। योग मार्गणा
पुद्गलविपाकी शरीर नाम कर्म के उदय से, मन वचन काय से युक्त जीव की कर्म-नोकर्म के ग्रहण में कारणभूत जो शक्ति है उसे योग कहते हैं। यह भावयोग का लक्षण है इसके रहते हुए आत्म प्रदेशों का जो परिस्पन्द हलन चलन होता है उसे द्रव्ययोग कहते हैं।
मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के आलम्बन की अपेक्षा योग के तीन भेद होते हैं - मनोयोग, वचनयोग और काययोग । सत्य, असत्य, उभय और अनुभय इन चार पदार्थो को विषय करने की अपेक्षा मनोयोग और वचन योग के सत्य मनोयोग और सत्य वचन योग आदि चार चार भेद होते हैं। सम्यग्ज्ञान के विषयभूत पदार्थ को सत्य कहते हैं जैसे 'यह जल ' है । मिथ्याज्ञान के विषयभूत पदार्थ को असत्य कहते हैं जैसे मृगमरीचिका में 'यह जल' है । दोनों के विषयभूत पदार्थ को उभय कहते हैं जैसे कमण्डलु में यह घट है । कमण्डलु घट का काम देता है इसलिए सत्य है और घटाकार न होने से असत्य है। जो दोनों ही प्रकार के ज्ञान का विषय न हो उसे अनुभय कहते हैं जैसे सामान्य रूप से प्रतिभास होना कि यह कुछ है ।' काययोग के सात भेद हैं - 1. औदारिक काययोग 2. औदारिक मिश्रकाय योग, 3. वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग, 5. आहारक काययोग, 6.आहारक मिश्र काययोग और, 7. कार्मण काययोग।
विग्रहगति में जो योग होता है उसे कार्मण काययोग कहते हैं। यह एक, दो अथवा तीन समय तक रहता है इसमें खास कर कार्मण शरीर निमित्तरूप पड़ता है । विग्रहगति के बाद जो जीव मनुष्य अथवा तिर्यञ्चगति में जाता है उसके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में अपर्याप्तक अवस्था के काल में औदारिक मिश्र काययोग होता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद जीवन पर्यन्त औदारिक काययोग होता है । विग्रहगति के बाद जो जीव देवों अथवा नारकियों में जन्म लेता है उसके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में अपर्याप्तक के काल में वैक्रियिक मिश्र काययोग होता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद जीवन पर्यन्त वैक्रियिककाययोग होता है। छठवें गुणस्थान में रहने वाले जिन मुनि के आहारक शरीर की रचना होने वाली है उनके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में आहारकमिश्रकाययोग होता है और
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उसके बाद आहारक काययोग होता है। तैजस शरीर के निमित्त में आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द नहीं होता इसलिए तैजसयोग नहीं माना जाता है। परमार्थ से मनोयोग का सम्बंध बारहवें गुणस्थान तक ही होता है परन्तु द्रव्यमन की स्थिरता के लिए मनोवर्गणा के परमाणुओं का आगमन होते रहने से उपचार से मनोयोग तेरहवें गुणस्थान तक होता है। वचनयोग और काययोग का सम्बंध सामान्य रूप से तेरहवें गुणस्थान तक है। विशेष रूप से विचार करने पर सत्यवचनयोग और अनुभयवचनयोग तेरहवें तक होते है और असत्य तथा उभय वचन बारहवें तक होते हैं । केवलज्ञान होने के पहले अज्ञान दशा रहने से अज्ञान निमित्तक असत्य वचन की संभावना बारहवें गुणस्थान तक रहती है इसलिए असत्य और उभय का सद्भाव आगम में बारहवें गुणस्थान तक बताया है। ऐसा ही मनोयोग के विषय में समझना चाहिए ।
कार्मणकाययोग प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और केवलिसमुद्घात की अपेक्षा तेरहवें गुणस्थान (प्रतर ओर लोक पूरण भेद) में होता है अन्य गुणस्थानों में नहीं । औदारिकमिश्रकाययोग प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और कपाट तथा लोकपूरणसमुद्घात के भेद की अपेक्षा तेरहवें गुणस्थान में होता है। औदारिककाययोग प्रारंभ से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक रहता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोग प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थान में रहता है तथा वैक्रियिककाययोग प्रारंभ के चार गुणस्थानों में होता है । आहारकमिश्र और आहारक काययोग मात्र गुणस्थान में होते हैं ।
औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की, वैक्रियिक शरीर की तेतीस सागर, आहारक शरीर की अन्तर्मुहूर्त, तैजस शरीर की छ्यासठ सागर और कार्मण शरीर की सामान्यतया सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर की है। औदारिक शरीर का उत्कृष्ट संचय देव कुरु और उत्तर कुरु में उत्पन्न होने वाले तीन पल्य की स्थिति से युक्त मनुष्य और तिर्यंच के उपान्त तथा अंतिम समय में होती है। वैक्रियिक शरीर का उत्कृष्ट संचय बाईस सागर की आयु वाले आरण अच्युत स्वर्ग के उपरितन विमान में रहने वाले देवों के होता है। तैजस शरीर का उत्कृष्ट संचय सातवें नरक में दूसरी बार उत्पन्न होने वाले जीव के होता है। कार्मण शरीर का उत्कृष्ट संचय, अनेक बार नरकों में भ्रमण करके पुन: सातवी पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले नारकी के होता है और आहारक शरीर का उत्कृष्ट संचय उसका उत्थापन करने वाले छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि के होता है ।
चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोग केवली भगवान् और सिद्ध भगवान् योगों के सम्बंध से सर्वथा रहित है । वेद मार्गणा -
भाववेद और द्रव्यवेद की अपेक्षा वेद के दो भेद हैं। स्त्री वेद, पुंवेद और नपुंसकवेद नामक नोकषाय उदय से आत्मा में जो रमण की अभिलाषा उत्पन्न होती है उसे भाव वेद कहते हैं और अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से शरीर के अङ्गों की जो रचना होती है उसे द्रव्य वेद कहते है । भाव वेद और द्रव्य वेद में प्राय: समानता रहती है परन्तु कर्म भूमिज मनुष्य और तिर्यच के कहीं विषमता भी पाई जाती है अर्थात् द्रव्य वेद कुछ हो और भाव वेद कुछ हो । नारकियों के नपुंसक वेद, देवों और भोगभूमिज मनुष्य तिर्यचों के स्त्रीवेद तथा पुंवेद होता है और कर्म भूमिज मनुष्य तथा तिर्यचों के नाना जीवों की अपेक्षा तीनों वेद होते है। संमूर्च्छन जन्म वाले जीवों के नपुंसक वेद ही होता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जो उत्कृष्ट गुण अथवा उत्कृष्ट भोगों का स्वामी हो उसे पुरूष कहते हैं। जो स्वयं अपने आपको तथा अपने चातुर्य से दूसरों की भी दोषों से आच्छादित करे उसे स्त्री कहते हैं तथा जो न स्त्री है और न पुरूष ही है उसे नपुंसक कहते हैं।
आगम में पुरूष वेद की वेदना तृण की आग के समान, स्त्री वेद की वेदना करीष की आग के समान और नपुंसक वेद की वेदना ईंट पकाने के अवा की आग के समान बतलाई है। भाव वेद की अपेक्षा तीनों वेदों का सद्भाव नौवें गुणस्थान के सवेदभाव तक रहता है । द्रव्य वेद की अपेक्षा स्त्री वेद और नपुंसक वेद का सद्भाव पञ्चम गुणस्थान तक तथा 'वेद का सद्भाव चौदहवें गुणस्थान तक रहता है । जो जीव वेद की बाधा से रहित हैं वे आत्मीय सुख का अनुभव करते है। कषाय मार्गणा -
___ कषाय शब्द की निष्पत्ति प्राकृत में कृष और कष इन दो धातुओं से की गई है । कृष का अर्थ जोतना होता है। जो जीव के उस कर्म रूपी खेत को जोते जिसमें कि सुख दु:ख रूपी बहुत प्रकार का अनाज उत्पन्न होता है तथा संसार की जिसकी बड़ी लम्बी सीमा है, उसे कषाय कहते हैं अथवा जो जीव के सम्यक्त्व, एकदेश चारित्र, सकल चारित्र और यथाख्यात चारित्र रूप परिणामों को कषै-घाते. उसे कषाय कहते है।
इस कषाय के शक्ति की अपेक्षा चार, सोलह अथवा असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते हैं। शिलाभेद, पृथिवीभेद, धूलिभेद और जलराजि के समान क्रोध चार प्रकार का होता है । शैल, अस्थि, काष्ठ और वेंत के समान मान चार प्रकार का है । वेणुमूल-बांस की जड़, मेंढा का सींग, गोमूत्र और खुरपी केसमान माया के चार भेद हैं। इसी प्रकार कृमिराग, चक्रमल, शरीरमल और हरिद्रारङ्ग के समान लोभ भी चार प्रकार का है। यह चारों प्रकार की कषाय इस जीव को नरक, तिर्यच, मनुष्य ओर देवगति में उत्पन्न कराने वाली है।
___अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन चतुष्क की अपेक्षा कषाय के सोलह भेद होते हैं । इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क जीव के सम्यक्त्व रूप परिणामों को, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क एकदेशचारित्र को, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क सकलचारित्र को और संज्वलन चतुष्क यथाख्यात संयम का घात करता है | अनन्तानुबन्धी दूसरे गुणस्थान तक, अप्रत्याख्यानावरण चतुर्थ-गुणस्थान तक, प्रत्याख्यानावरण पञ्चमगुणस्थान तक और संज्वलन दशम गुणस्थान तक क्रियाशील रहती है। उसके आगे किसी भी कषाय का उदय नहीं रहता है।
नेमिचन्द्राचार्य ने कषायों के स्थानों का वर्णन शक्ति लेश्या और आयु बन्धाबन्ध की अपेक्षा भी किया है। इनमें शक्ति की अपेक्षा, पाषाण भेद, पाषाण, वेणुमूल और चक्रमल को आदि लेकर क्रोधादि कषायों के चार-चार स्थान कहे हैं। लेश्या की अपेक्षा चौदह स्थान इस प्रकार बतलाये हैं -शिला समान क्रोध में केवल कृष्ण लेश्या, भूमिभेद क्रोध में कृष्ण, कृष्ण नील, कृष्णनीलकापोत, कृष्ण नील कापोत पीत, कृष्णनीलकापोतपीतपद्म, और कृष्णादि छहों लेश्याओंवाला, इस प्रकार छह स्थान, धूलिभेद में छह लेश्यावाला
और उसके बाद कृष्ण आदि एक-एक लेष्या को कम करते हुये छह स्थान और जलभेद में एक शुक्ल लेश्या, इस तरह सब मिलाकर १+६+६+१+१४ स्थान होते हैं।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शिलाभेदगत कृष्ण लेश्या में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता तथा कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें नरकायु का बन्ध होता है । पृथ्वी भेद के पहले और दूसरे स्थान में नरकायु क बन्ध होता है। इसके बाद कृष्ण नील कापोत लेश्या वाले तीसरे स्थान में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें नरकायु का, कुछ स्थानों में नरकायु और तिर्यच आयु का और कुछ स्थानों में नरक, तिर्यच और मनुष्यायु का तथा शेष तीन स्थानों में चारों आयु का बन्ध होता है। धूलिभेद सम्बन्धी छह लेश्या वाले प्रथम स्थान में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें चारों आयु का बन्ध होता है। इसके अनन्तर कुछ स्थानों में नरकायु को छोड़कर शेष तीन आयु का
और कुछ स्थानों में नरक तथा तिर्यंच को छोड़कर शेष दो आयु का बन्ध होता है । कृष्ण लेश्या को छोड़कर शेष पांचलेश्या वाले दूसरे स्थान में तथा कृष्ण और नील को छोड़कर शेष चार लेश्या वाले तीसरे स्थान में केवल देवायु का बन्ध होता है ।अन्त की तीन लेश्या वाले चौथे भेद के कुछ स्थानों में देवायु का बन्ध होता है और कुछ स्थान ऐसे है जिनमें किसी भी आयु का बंध नहीं होता, पद्म और शुक्ल लेश्या वाले पाँचवें स्थान में तथा मात्र शुक्ल लेश्या वाले छठवें स्थान में किसी आयु का बन्ध नहीं होता । जल भेद सम्बन्धी शुक्ल लेश्या वाले एक स्थान में किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता तात्पर्य यह है कि अत्यन्त अशुभ लेश्या और शुभ लेश्या के समय किसी आयु का बन्ध नहीं होता। ज्ञान मार्गणा
आत्मा जिसके द्वारा त्रिकाल विषयक नाना द्रव्य, गुण और पर्यायों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानता हो उसे ज्ञान कहते हैं। मति, श्रुत अवधि,मन:पर्यय और केवल के भेद से ज्ञान के पांच भेद हैं, इनमें प्रारम्भ के चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं तथा अन्त का केवलज्ञान क्षायिक है । मति और श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष हैं तथा शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं उनमें भी अवधि और मन:पर्यय देश प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है।
स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है । इसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से मूल में चार भेद हैं। ये चार भेद बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त और अध्रुव तथा इससे विपरीत एक, एकविध, अक्षिप्र नि:सृत उक्त और ध्रुव इन बारह प्रकार के पदार्थो के होते हैं अत: बारह में अवग्रहादि चार भेदों का गुणा करने पर ४८ भेद होते हैं। ये ४८ भेद पांच इन्द्रियों और मन की सहायता से होते हैं अत: ४८ में ६ का गुणा करने से २८८ भेद हैं। इनमें व्यञ्जनावग्रह के १२४४-४८ भेद मिलाने से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं। व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता इसलिये उसके ४८ ही भेद होते हैं।
___मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ को विशिष्ट रूप से जानना श्रुतज्ञान कहलाता है। इसके पर्याय पर्याय समास आदि बीस भेद होते है। पर्याय नाम का श्रुतज्ञान उस सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्य-पर्याप्तक जीव के होता है जो कि छहहजार बारह क्षुद्र भवों में भ्रमण कर अन्तिम भव में स्थित है और तीन मोड़ाओं वाली विग्रह गति में गमन करता हुआ प्रथम मोड़ा में स्थित है। इसका यह ज्ञान लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान कहलाता है । इतना ज्ञान निगोदिया जीव के रहता ही है उसका अभाव नहीं होता ।पुन: क्रम से वृद्धि को प्राप्त होता हुआ अन्तिम भेद को प्राप्त करता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दूसरी पद्धति में श्रुतज्ञान के अङ्ग प्रविष्ट और अङ्ग बाहय के भेद से दो भेद हैं। अङ्ग प्रविष्ट के आचाराङ्ग आदि बारह भेद हैं और अङ्ग बाहय के सामायिक आदि चौदह भेद हैं। बारहवें दृष्टिवाद अङ्गका बहुत विस्तार है।
इन्द्रियों की सहायता के बिना मात्र अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। यह भवप्रत्यय अवधि तथा गुण प्रत्यय अवधि के भेद से दो प्रकार का होता है। भव प्रत्यय अवधिज्ञान, देव नारकियों तथा तीर्थकरों के होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य तथा तिर्यचों को होता है । गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के अनुगामी अननुगामी, बर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित के भेद से छह भेद हैं। दूसरी पद्धति से अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद हैं। इनमें मति, श्रुत एवं देशावधि ज्ञान मिथ्यादृष्टि और सम्यक्दृष्टि दोनों के हो सकते हैं परन्तु परमावधि और सर्वावधि ये दो भेद मात्र सम्यग्दृष्टि के होते हैं और सम्यग्दृष्टि में भी चरम:शरीरी मुनि के ही होते हैं साधारण मुनि के नहीं। देशावधि और परमावधि के जघन्य से लेकर उत्कृष्ट भेद तक अनेक विकल्प हैं परन्तु सर्वावधिज्ञान का एक ही विकल्प होता है।
जघन्य देशावधि ज्ञान, द्रव्य की अपेक्षा मध्यम योग के द्वारा संचित विस्रसोपचयसहित नोकर्म - औदारिक वर्गणा के संचय में लोक का (343 राज प्रमाण लोक के जितने प्रदेश हैं उतने का) भाग देने से जो लब्ध आवे उतने द्रव्य को जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा सूक्ष्मनिगोदिया जीव की उत्पन्न होने के तीसरे समय में जितनी अवगाहना होती है उतने क्षेत्र को जानता है। काल की अपेक्षा आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण द्रव्य की व्यंजन पर्याय को ग्रहण करता है और भाव की अपेक्षा उसके असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्तमान की पर्यायों को जानता है। आगे के भेदों में द्रव्य सूक्ष्म होता जाता है और क्षेत्र तथा काल आदि का विषय विस्तृतहोता जाता है । कार्मण वर्गणा में एकवार ध्रुवहार का भाग देने से जो लब्ध आता है उतना द्रव्य, देशावधि ज्ञान के उत्कृष्टभेद का विषय है । क्षेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट देशावधि-सर्वलोक को जानता है । काल की अपेक्षा एक समय कम एक पल्य की बात जानता है और भाव की अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण द्रव्य की पर्याय को ग्रहण करता है। परमावधि और सर्वावधि का विषय आगम से जानना चाहिये।
दूसरे के मन में स्थित चिन्तित, अचिन्तित अथवा अर्धचिन्तित अर्थ को जो ग्रहण करता है उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते है इसके ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो भेद हैं। जो सरल मन वचन काय से चिन्तित परकीय मन में स्थित रूपी पदार्थ को जानता है उसे ऋजुमति कहते हैं तथा जो सरल और कुटिल मन वच काय से चिन्तित परकीय मन में स्थित रूपी पदार्थ को जानता है उसे विपुलमति कहते हैं। मनःपर्ययज्ञान मुनियों के ही होता है गृहस्थों के नहीं। इनमें भी विपुलमति मन:पर्ययज्ञान, मात्र तद्भवमोक्षगामी जीवों के होता है सबके नहीं और तद्भव मोक्षगामियों में भी उन्हीं के होता है जो ऊपर के गुणस्थानों से पतित नहीं होते। ऋजुमति के जघन्य द्रव्य का प्रमाण औदारिक शरीर के निर्जीर्ण समय प्रबद्ध बराबर है और उत्कृष्ट द्रव्य का प्रमाण चक्षुरिन्द्रिय के निर्जरा द्रव्य प्रमाण है अर्थात् समूचे औदारिक शरीर से जितने परमाणुओं का प्रचय प्रत्येक समय खिरता है उसे जघन्य ऋजुमति ज्ञान जानता है और चक्षुरिन्द्रिय के जितने परमाणुओं का प्रचय प्रत्येक समय खिरता है उसे उत्कृष्ट ऋजुमति ज्ञान जानता है। ऋजुमति के उत्कृष्ट द्रव्य में मनोद्रव्य वर्गणा के
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनन्तवें भाग का भाग देने पर जो द्रव्य बचता है उसे जघन्य विपुलमति जानता है। विस्रसोपचय रहित आठ कर्मो के समयप्रबद्ध का जो प्रमाण है उसमें एक उसमें एक बार ध्रुवहार का भाग देने पर जो लब्ध आता है उतना विपुलमतिके द्वितीय द्रव्य का प्रमाण है उस द्वितीय द्रव्य के प्रमाण में असंख्यात कल्पों के जितने समय हैं उतनी वार ध्रुवहार का भाग देने से जो शेष रहता है वह विपुलमति का उत्कृष्ट द्रव्य है । क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य ऋजुमतिज्ञान दो तीन कोश और उत्कृष्ट ऋजुमतिज्ञान सात आठ योजन की बात जानता है । जघन्य विपुलमति मन:पर्ययज्ञान आठ नौ योजन और उत्कृष्ट विपुलमति ज्ञान पैंतालीस लाख योजन विस्तृत क्षेत्र की बात को जानता है। काल की अपेक्षा जघन्य ऋजुमतिज्ञान दो तीन भव और उत्कृष्ट ऋजुमति ज्ञान सात आठ भव की बात जानता है । जघन्य विपुलमतिज्ञान आठ नौ भव और उत्कृष्ट विपुलमति ज्ञान पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल की बात जानता है। भाव की अपेक्षा यद्यपि ऋजुमति का जघन्य और उत्कृष्ट विषय आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण है तो भी जघन्य प्रमाण से उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यातगुणा है। विपुलमतिका जघन्य प्रमाण ऋजुमति के उत्कृष्ट विषयसे असंख्यातगुणा है, और उत्कृष्ट विषय असंख्यात लोक प्रमाण है।
जो समस्त लोकालोक और तीन काल की बात को स्पष्ट जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं। यह केवलज्ञान, ज्ञानगुण की सर्वोत्कृष्ट पर्याय है । उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि ज्ञानमार्गणा के कुम कुश्रुत, कुअवधि, सुमति, सुश्रुत, सुअवधि, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इस प्रकार आठ भेद हैं। कुमति, कुश्रुत और कुअवधि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं। सुमति, सुश्रुत और सुअवधि चतुर्थ से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते हैं । मन:पर्यय ज्ञान छठवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक तथा केवलज्ञान तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होता है ।
संयम मार्गणा - अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का धारण करना, ईर्या आदि पाँच समितियों का पालन करना, क्रोधादि कषायों का निग्रह करना, मन वचन काय की प्रवृत्तिरूप दण्डों का त्याग करना और स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों का वश करना संयम है। संयम शब्द की निष्पत्ति सम् उपसर्ग पूर्वक 'यम उपरमे ' धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है अच्छी तरह से रोकना । कषाय से इच्छा होती है और इच्छा से मन वचन काय तथा इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति होती है। विषयों की तीव्र लालसा के कारण प्रमाद होता है और उनकी प्राप्ति में बाधक कारण उपस्थित होने पर क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं इसलिए सर्वप्रथम कषाय पर विजय प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए ।
संयम मार्गणा के निम्नलिखित सात भेद हैं
(1) सामायिक (2) छेदोपस्थापना (3) परिहारविशुद्धि ( 4 ) सूक्ष्मसाम्पराय, (5) यथाख्यात (6) देशसंयम ( 7 ) असंयम ।
करणानुयोग में मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, और प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव होने पर तथा संज्वलन का उदय रहने पर संयम की प्राप्ति बतलाई गई है। सामान्यरूप से संग्रह नय की अपेक्षा 'मैं' समस्त पापकार्यो का त्यागी हूँ' इस प्रकार की प्रतिज्ञा पूर्वक जो समस्त पापों का त्याग किया जाता है उसे सामायिक कहते हैं। यह संयम अनुपम तथा अत्यन्त दुष्कर है । 'छेदेन उपस्थापना छेदोपस्थापना' इस व्युत्पत्ति के अनुसार हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों का पृथक् पृथक् विकल्प
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उठाकर त्याग करना छेदोपस्थापना है अथवा 'छेदे सति उपस्थापना छेदोपस्थापना' इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रमाद के निमित्त से सामायिकादि से च्युत होकर सावद्य सपापकार्य के प्रति जो भाव होता है उसे दूर कर पुन: सामायिकादि में उपस्थित होना छेदोपस्थापना है। सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, छठवें गुणस्थान से लेकर नौवें गुणस्थान तक रहते हैं । पाँच समितियों तथा तीन गुप्तियों से युक्त होकर जो सावद्य कार्य का सदा परिहार करना है उसे परिहार विशुद्धि संयम कहते हैं। जो जन्म से तीस वर्ष तक सुखी रहकर दीक्षा धारण करता है और तीर्थकर के पादमूल में आठवर्ष तक रहकर प्रत्याख्यान पूर्व का अध्ययन करता है उस मुनि के तपस्या के प्रभाव से यह संयम प्रकट होता है इस संयम का धारक मुनि तीनों संध्याकालों को छोड़कर दो कोस प्रमाण प्रतिदिन गमन करता है वर्षाकाल में गमन का नियम नहीं है । यह संयम छठवें और सातवें गुणस्थान में ही होता है। उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी वाले जीव के जब संज्वलन लोभ का सूक्ष्म उदय रह जाता है तब सूक्ष्म साम्पराय संयम प्रकट होता है । यह संयम मात्र दशम गुणस्थान में होता है । चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय होने पर जो संयम प्रकट होता है उसे यथाख्यात संयम कहते हैं। आत्मा का जैसा वीतराग स्वभाव कहा गया है वैसा स्वभाव इस संयम में प्रकट होता है इसलिये इसका यथाख्यात नाम सार्थक है। औपशमिक यथाख्यात ग्यारहवेंगुणस्थान में और क्षायिक यथाख्यात बारहवें आदि गुणस्थानों में प्रकट होता है।
अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय और प्रत्याख्यानावरण कषाय की उदय सम्बन्धी तरतमता से जो एक देश संयम प्रकट होता है उसे संयमासंयम कहते हैं। इसके दर्शन, व्रत आदि ग्यारह भेद होते हैं। यह संयमसंयमी मात्र पञ्चम गुणस्थान में होता है। चारित्रमोह के उदय से जो संयम का अभाव अर्थात् अविरति रूप परिणाम होते है उन्हें असंयम कहते हैं। यह असंयम प्रारम्भ के चार गुणस्थानों में होता है। दर्शन मार्गणा
क्षायोपशमिक ज्ञान के पूर्व और क्षायिक ज्ञान के साथ केवलियो में जो पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते है । दर्शन के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार भेद हैं। चक्षु से देखने के पूर्व जो सामान्य ग्रहण होता है से चक्षुदर्शन कहते हैं चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान के पूर्व जो सामान्य ग्रहण होता है वह अचक्षुदर्शन कहलाता है। अवधिज्ञान के पूर्व जो सामान्य ग्रहण होता है उसे अवधिदर्शन कहते है और केवलज्ञान के साथ जो सामान्य ग्रहण होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं। वीरसेन स्वामी ने सामान्य का अर्थ आत्मा किया है अत: उनके मत से आत्मावलोकन को दर्शन कहते हैं।
और पदार्थावलोकन को ज्ञान कहते हैं। मन:पर्यय ज्ञान ईहा मतिज्ञान पर्वक होता है अत: मनः पर्यय: स्थापना नहीं की गई। मति और श्रुतज्ञान चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन पूर्वक होते हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवेंगुणस्थान तक तथा अवधि दर्शन चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुण स्थान तक होता है । केवलदर्शन, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान तथा सिद्ध अवस्था में विद्यमान रहता है। लेश्या मार्गणा -
जिसके द्वारा जीव अपने आपको पुण्य पाप से लिप्त करे उसे लेश्या कहते हैं यह लेश्या शब्दका निरुक्तार्थ है और कषाय के उदय से अनुरञ्जित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं, यह लेश्या शब्द का वाच्यार्थ है। लेश्या के द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो भेद हैं। वर्ण नामकर्म के उदय से जो शरीर का रूप रंग
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ होता है वह द्रव्य लेश्या और क्रोधादि कषायों के निमित्त से परिणामों में जो कलुषितपने की हीनाधिकता है वह भाव लेश्या है। द्रव्य लेश्या के कृष्ण नील, कापोत, पीत,पद्म और शुक्ल ये छह भेद स्पष्ट ही प्रतीत होते हैं। परन्तु भाव लेश्या के तारतम्य को भी आचार्यो ने इन्हीं कृष्ण, नील कापोत, पोत, पद्म, शुक्ल नामों के द्वारा व्यहृत किया है । वैसे आत्मा के भावों में कृष्ण नील आदि रंग नहीं पाया जाता है। मात्र उनकी तरतमता बतलाने के लिये इन शब्दों का प्रयोग किया गया है । परिणामों की तरतमता इस दृष्टान्त से सरलता पूर्वक समझी जा सकती है।
भूख से पीड़ित छह मनुष्य जंगल में भटककर एक फैले हुए वृक्ष के नीचे पहुंचते हैं। उनमें से एक मनुष्य तो वृक्षको जड़ से काटना चाहता है, दूसरा तने से , तीसरा शाखाओं से, चौथा टहनियों से, और पांचवां फलों से, छठवां मनुष्य वृक्ष के नीचे पड़े हुए फलों से अपनी भूख दूर करना चाहता है नवीन फल तोड़ना नहीं चाहता।
जो अत्यन्त क्रोधी हो, भंडनशील हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट प्रकृति का हो, वैरभाव को नहीं छोड़ता हो तथा किसी के वश में नहीं आता हो वह कृष्ण लेश्यावाला है।
जो मन्द हो, निबुर्द्धि हो, विषय लोलुप हो, मानी, मायावी, आलसी अधिक निद्रालु और धनधान्य में तीव्र आसक्ति रखने वाला हो वह नील लेश्या वाला है।
जो शीघ्र ही रुष्ट हो जाता है, दूसरे की निन्दा करता है, बहुत द्वेष रखता है, शोक और भय अधिक करता है, दूसरे से ईर्ष्या करता है, अपनी प्रशंसा करता है, युद्ध में मरण चाहता है, हानि लाभ को नहीं समझता है तथा कार्य अकार्य का विचार नहीं करता है वह कापोत लेश्या का धारक है।
जो कार्य, अकार्य को समझता है, सेव्य और असेव्य का विचार रखता है, दया और दान में तत्पर रहता है तथा स्वभाव का मृदु होता है वह पीत लेश्या वाला है।
जो त्यागी, भद्र, क्षमासील और साधु तथा गुरुओं की पूजा में रत रहता है वह पद्म लेश्या वाला है।
जो पक्षपात नहीं करता, निदान नहीं करता हैं, सबके साथ समान व्यवहार करता है जिसके राग नहीं है, द्वेष नहीं है और स्नेह भी नहीं है वह शुक्ल लेश्या वाला है।
प्रारंभ से चतुर्थ गुणस्थान तक छहों लेश्याएं होती हैं, पाँचवें से सातवें तक पीत पद्म और शुक्ल ये तीन लेश्याएं होती है आगे उसके तेरहवें गुणस्थान तक शुक्ल लेश्या होती है । यद्यपि ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक कषाय का अभाव है तो भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा वहाँ लेश्या का व्यवहार होता है। चौदहवें गुणस्थान में योग प्रवृत्ति का भी अभाव हो जाता है अत: वहाँ कोई लेश्या नहीं होती। भव्यत्व मार्गणा
जो सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त होगा उसे भव्य कहते है और जो उनसे युक्त नहीं होगा उसे अभव्य कहते हैं । भव्य, कभी अभव्य नहीं होता और अभव्य कभी भव्य नहीं होता। अभव्य जीव के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है और भव्य जीव के चौदहों गुणस्थान होते हैं। सिद्ध होने पर भव्यत्व भाव का अभाव हो जाता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सम्यक्त्व मार्गणा -
सात तत्व अथवा नव पदार्थ के यथार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं । इसके औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से तीन भेद हैं । मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति तथा अनन्तानुबंधी चतुष्क इन सात प्रकृतियों के उपशम से जो होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। उपर्युक्त सात प्रकृतियों के क्षय से जो होता है उसे क्षायिक कहते हैं और मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी चतुष्क इन छह सर्वघाति प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय तथा सद्वस्था रूप उपशम तथा सम्यक्त्व प्रकृति नामक देशघाति प्रकृति के उदय से जो होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है।
औपशमिक सम्यक्त्व के प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम की अपेक्षा दो भेद हैं। प्रथमोपशम का लक्षण ऊपर लिखे अनुसार है । द्वितीयोपशम में अनन्तानुबंधी की विसंयोजना अधिक होती है।
उपर्युक्त तीन सम्यक्त्वों के अतिरिक्त सम्यक्त्व मार्गणा के मिश्र, सासादन और मिथ्यात्व इस प्रकार तीन भेद और होते हैं । मिथ्यात्व प्रथम गुणस्थान में, सासादन, द्वितीय गुणस्थान में, मिश्र, तृतीय गुणस्थान में, प्रथमोपशम सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान से सातवें तक द्वितीयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थ से ग्यारहवें तक और क्षायिक सम्यक्त्व, चतुर्थ से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक तथा उसके बाद सिद्ध पर्याय में भी अनन्त काल तक विद्यमान रहता है । औपशमिक और क्षायोशमिक ये दो सम्यक्त्व असंख्यात बार होते हैं और छूटते हैं परन्तु क्षायिक सम्यक्त्व होकर कभी नहीं छूटता है । क्षायिक सम्यक्त्व का धारक जीव पहले भव में, तीसरे भव में अथवा चौथे भव में नियम से मोक्ष चला जाता है। संज्ञित्व मार्गणा -
जो मन सहित हो उसे संज्ञी कहते हैं। संज्ञी जीव मन की सहायता से शिक्षा आलाप आदि के ग्रहण करने में समर्थ होता है । जो मन रहित होता है उसे असंज्ञी कहते हैं । असंज्ञी जीव के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है परन्तु संज्ञी जीव के चौदहों गुणस्थान होते हैं। आहार मार्गणा -
शरीर रचना के योग्य नोकर्म वर्गणाओं के ग्रहण करने को आहार कहते हैं। जो आहार को ग्रहण करता है उसे आहारक कहते हैं । इसके विपरीत जो आहार को ग्रहण नहीं करता है उसे अनाहारक कहते हैं । विग्रहगति में स्थित जीव, केवली समुद्घात के प्रतर और लोकपूरण भेद में स्थित केवली अयोग केवली और सिद्ध परमेष्ठी अनाहारक हैं, शेष आहारक हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा अनाहारक अवस्था प्रथम, द्वितीय,चतुर्थ समुद्घातकेवली और अयोगकेवली नामक तेरहवें चौदहवें गुणस्थानों में होती है । इस प्रकार गति आदि चौदह मार्गणाओं में यह जीव अनादि काल से परिभ्रमण कर रहा है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ षट् खण्डागम के बन्ध प्रकरण का सामञ्जस्य
षट् खण्डागम के वर्गणा खण्ड सम्बन्धी पृष्ठ 30 से 33 तक सदृश (समान जातीय) पुद्गलों के बन्ध को प्रचलित पद्धति के अनुसार ही प्रतिपादित किया है अर्थात् उनमें जघन्य गुण वालों का एवं समान गुणांश वालों का बन्ध नहीं होता, द्वयधिक गुणांश वालों के साथ ही बन्ध होता है किन्तु असमान जातीय (स्निग्ध रूक्ष) पुद्गलों का जघन्य गुण वालों के सिवाय सबके साथ बन्ध होता है उनमें द्वयधिकता का नियम नहीं है, यही बात तत्वार्थ सूत्र के निम्नलिखित मूल सूत्रों से भी प्रकट होती है___न जघन्य गुणानाम्" (5-34) “गुण साम्ये सदृशानाम्" (5-35) "द्वयधिकादि गुणानाम् तु"(5-36) अर्थात् जघन्य गुण वालों का बन्ध नहीं होता, समान जातीय (स्निग्ध-स्निग्ध, और रूक्ष रूक्ष)पुद्गलों का गुणों की समानता में बन्ध नहीं होता उनका (समान जातीय पुद्गलों का) द्वयधिक गुण होने पर ही बन्ध होता है ऐसा अर्थ करने में सूत्रस्थ सदृशानाम् शब्द की विशेष सार्थकता सिद्ध होती है और प्राचीन सिद्धांत ग्रन्थ की मान्यता के साथ सामञ्जस्य बन जाता है, यहाँ सदृशानाम् शब्द की अनुवृत्ति आगामी 36 वें सूत्र में जाती है जो कि आगमानुकूल है।
वास्तव में वर्गणा खण्ड के 32 वें से 36 वें सूत्र तक का, तत्वार्थ सूत्र (पञ्चमोध्याय) के 33 वें से 36 वें सूत्र तक पूर्ण प्रकाश पाया जाता है।
प्रवचनसार के ज्ञेयाधिकार में भी उक्त प्रकरण है “णिद्धा व लक्खा वा अणु परिणामासमा व विसमा वा। समतो दुराधि या जदि बज्झन्ति हि आदि परिहीणा" (73) इसमें भी समान जाति वालों का ही द्वयधिकता में बन्ध का नियम बताया है, असमान जाति वालों का नहीं, असमान जाति वालों के बंध में जघन्य गुणता के सिवाय और कोई बाधक नहीं बताया है इसी विषय के उदाहरण रूप में 74 वीं गाथा निम्न प्रकार है।
"णिद्धत्तणेण दुगुणोचदु गुण णिद्धेण बन्ध मणुभवदि। लुक्खेण वाति गुणिदो अणुबज्झदि पंचगुणजुत्तो" इस गाथा में समान जाति वालों का द्वयधिकता में बन्ध होता है इस विषय को उदाहरण द्वारा समझाया गया है असमान जाति वालों का बन्ध अनियमित होने से उसका कोई उदाहरण नहीं दिया है। इसी गाथा की टीका में निम्नलिखित वर्गणा खण्ड का 36 वाँ सूत्र उदधृत किया गया है।
णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण ।
णिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बन्धो जहण्ण वज्जे विसमे समे वा ॥ इस पद्यात्मक सूत्र से भी उक्त अर्थ सिद्ध होता है । अर्थात् समान जाति वालों का द्वयधिकता में ही बन्ध होता है असमान जाति वालों के बन्ध में कोई नियम नहीं है वहाँ बन्ध की बाधक सिर्फ जघन्य गुणता ही है, इस पद्यात्मक सूत्र में दुराहिएण का अन्वय पद्य के पूर्वार्ध में ही है उत्तरार्ध में नहीं, इस सूत्र की धवला
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
टीका में स्पष्टतया इस प्रकार निरूपित किया गया है, उक्त रीति से प्राचीन आर्ष ग्रन्थों के बन्ध प्रकरण में पूर्ण रूप से सामञ्जस्य है ।
टीका ग्रन्थों में अवश्य समान जाति वालों के समान असमान जाति वालों में भी द्वयधिकता का नियम वर्णित है जो कि विचारणीय है ।
इतना लिखने के पश्यात् गोम्मटसार जीवकाण्ड की ओर दृष्टि गई उसमें भी उक्त आगमानुमोदित अर्थ की ही स्पष्ट झलक मिली, उक्त ग्रन्थ का 611 वाँ पद्य वर्गणा खण्ड के 34 वें पद्यात्मक सूत्र रूप ही है ऐसी अवस्था में इसकी व्याख्या धवला टीका के अनुसार की जाना ही उचित होगी, इस पद्यात्मक सूत्र द्वारा असमान जातीय पुद्गलों में रूपी (समान गुण वालों) एवं अरूपी (असमान गुण वालों) का बंध स्वीकृत किया गया है।
"णिद्धि दऐली मज्झे विसरिस जादिस्स सयगुणं एक्कं रूवित्ति होदि सण्णा सेसाणंता अरूवित्ति" (6 12) “दो गुण णिद्धाणुस्सय दो गुण लुक्खाणुगंहवे रूवी इगि ति गुणादि अरूवी रुक्खस्सवितंव इदि जाणे” (6 13) इन दो गाथाओं में रूपी और अरूपी का लक्षण और उदाहरण प्रकट किया गया है तदनुसार- असमान जातीय समानगुण वाले को रूपी, और असमान गुण वालों को अरूपी कहा गया है, इस तरह असमान जाति वालों के बन्ध में द्वयधिकता आवश्यक नहीं रहती है जीवकाण्ड की 614 वीं गाथा (पद्य) प्रवचनसार की टीका में उद्घृत पद्य के समान वर्गणा खण्ड के 36 वें पद्यात्मक सूत्र रूप ही है ।
“दोत्तिग पभव दुउत्तर गदे सणंतरदुगाण बन्धोदु । णिद्धे लुक्खे वि तहा विजहण्णुभये वि सव्वत्थ” (616) इस गाथा के प्रारंभिक 3/4 भाग में समान जाति वालों का द्वयधिकता में बन्ध प्रतिपादन कर, अंतिम 1/4 भाग में स्पष्ट उल्लेख किया है कि विजहण्णु भयेसव्वत्थविबन्धो, अर्थात् उभये - असमान जाति वालों में जघन्य गुण वालों को छोड़कर सबके साथ बन्ध होता है, यहाँ द्वयधिकता आवश्यक नहीं है।
इस प्रकार उक्त मूल ग्रन्थों में कोई मत भेद ज्ञात नहीं होता ।
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"पुरुषार्थसिद्धयुपाय"
दिनांक 3-11-1994 गुरुवार तिथि कार्तिक कृष्णा अमावश्या वीर निर्माण सं. 2521 को जिनका 2551 वाँ निर्वाण पर्व अखिल विश्व में मनाया गया है, उन चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर की आचार्य परम्परा के महान् आध्यात्मिक आचार्य अमृतचन्द्र जी ने विक्रम संवत् की 10 वीं शताब्दी में भारत को अलंकृत किया था। आपने संस्कृत में आध्यात्मिक ग्रन्थों का सृजन कर भारतीय संस्कृत साहित्य के विकास में पूर्ण सहयोग दिया। उन ग्रन्थों में एक ग्रन्थ "पुरुषार्थसिद्धयुपाय"है, जो सदगृहस्थों को गृहस्थ धर्म में दीक्षित करने के लिए लिखा गया है। इसमें तीन अध्यायों के अंतर्गत 226 पद्य आर्या छन्द में निबद्ध है । प्रथम आठ पद्यों में आवश्यक कथन के रूप में मंगलाचरण, ग्रन्थ रचना का उद्देश्य और निश्चय - नय और व्यवहार - नय का लक्षणपूर्वक स्याद्वाद शैली से ग्रन्थ रचना को आवश्यक उपादेय दर्शाया गया है । पश्चात् प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन द्वितीय में सम्यग्ज्ञान और तृतीय में सम्यक् चारित्र का व्याख्यान किया गया है।
श्री पं. मुन्नालाल जी न्यायतीर्थ जैन - सिद्धांत के तलस्पर्शी विद्वान थे। आपने संक्षिप्त एवं रम्यशैलीपूर्ण इस "पुरुषार्थसिद्धयुपाय" ग्रन्थ का अनुभवपूर्ण अध्ययन किया । इस ग्रन्थ के यथानाम तथा गुण पर भी विचार किया कि पुरुष अर्थात् आत्मा का अर्थ अर्थात् प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ के पश्चात् मोक्ष - पुरुषार्थ की सिद्धि के उपाय (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) की व्याख्या इस ग्रन्थ में की गई है। इस कारण इस ग्रन्थ का नाम “पुरुषार्थसिद्धयुपाय" निश्चित किया गया है। इसका द्वितीय नाम "जिनप्रवचन - रहस्यकोष" भी प्रसिद्ध है। इसकी भी सार्थकता सिद्ध है कि जैन सिद्धांत के रहस्य (मर्म) का खजाना इस ग्रन्थ में विद्यमान है । इस ग्रन्थ की विषय - महत्ता का अनुभव कर रांधेलीय जी अपने हृदयस्थल में न समा सके। इसके तत्व को, इसलिए आपने अन्तस्तत्व को एक विशाल ग्रन्थ के रूप में बाह्य में उड़ेल दिया । इस ग्रन्थ में मूल संस्कृत श्लोकों का हिन्दी पद्यानुवाद किया गया है। इस रचना से आप की कवित्व शक्ति का भी परिचय हो जाता है यथा - मूल संस्कृत श्लोक -
व्यवहार निश्चयौ य: प्रबुध्य तत्वेन भवति मध्यस्थ: । प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्यः ॥४॥
हिन्दी पद्यानुवाद
जिस जीव ने व्यवहार, निश्चय,ज्ञान सम्यक् कर लिया है, वह त्याग दोनों पक्ष को "मध्यस्थ" मानो हो गया । वह ही महती जिन - देशना का लाभ पूरा प्राप्त कर नर, वह तत्वज्ञानी जैन - वाणी समझकर होता अमर ॥४॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उक्त पद्य हरिगीतिका छन्द की ध्वनि में रचित है । इसका भाव है कि निश्चय व्यवहार - नय का परिज्ञान प्राप्त कर दोनों के यथायोग्य प्रयोग से ही सफलतापूर्ण ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है । शब्दों का प्रयोग भावानुकूल एवं उत्प्रेक्षाकार और रूपकालंकार से पद्य अलंकृत किया गया है। द्वितीय उदाहरण
(पुरुषार्थ पृ. 35) चारित्र की परिभाषा एवं भेद
हिंसातोनृतवचनात्, स्तेयादब्रह्मत: परिग्रहतः ।
कातस्न्यैकदेशविरते: चारित्रंजायते द्विविधम्॥40 हिन्दी पद्यानुवाद
हिंसा, झूठ, चौर्य, अरु परिग्रह, पर नारी सेवन है पाप । इनका सीमित त्याग करे से, एक देश - व्रत होता माप । पूरण सब का त्याग करे से, सकल - महाव्रत पलता आप ।
यही मार्ग है सुख का कारण, यथाशक्ति होओ निष्पाप 140 कथित पद्य हरिगीतिका छन्द की ध्वनि में निबद्ध है। इसका तात्पर्य है कि हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार और परिग्रह (लोभ - तृष्णा) इन पाँच पाप कार्यो से एक देश (आंशिक) विरक्त होना गृहस्थों का अणुव्रत कहा जाता है और इन पाप कार्यों से पूर्णत: विरक्त होना साधु महात्माओं का महाव्रत कहा जाता है । इस प्रकार चारित्र दो कक्षाओं में विभक्त है । इस पद्य में भावों के अनुसार शब्दों का प्रयोग किया गया है। साथ ही मानव जीवन में सुख - शान्ति का मार्ग दर्शाया गया है। इस सम्पूर्ण मूलग्रन्थ संस्कृत का हिन्दी पद्यानुवाद श्री वर्णी जी द्वारा भावपूर्ण दक्षता के साथ किया गया है। (पुरुषार्थ पृ. 152)
इसके अतिरिक्त इस श्रेष्ठ ग्रन्थ की "भावप्रकाशिनी भाषा - टीका" का निर्माण भी सूक्ष्मता के साथ सप्रमाण किया गया है। जो भाषा टीका दो प्रकार से की गई है, प्रथम अन्वय और अर्थ तथा द्वितीय भावार्थ प्रत्येक संस्कृत श्लोक का स्पष्टतया निर्दिष्ट किया गया है । जो भाषा टीका छात्रों को तथा प्रत्येक स्वाध्यायी व्यक्तियों को ज्ञान विकासार्थ अध्ययन करने के योग्य है। यह भी एक विशेषता ज्ञातव्य है कि प्रत्येक संस्कृत श्लोक के ऊपर शीर्षक (हेडिंग) का उल्लेख है जिससे श्लोक का प्रतिपाद्य विषय जानने में सुविधा प्राप्त होती है। इस भाषा टीका के कुछ उदाहरण प्रस्तत किये जाते है :नयों की अपेक्षा आत्मा का लक्षण
अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जित: स्पर्श गन्धरस वर्णे: ।
गुणपर्ययसमवेत: समाहित: समुदयव्यय ध्रौव्यैः ।। अन्वय अर्थ - आचार्य 'निश्चय - नय' से आत्मद्रव्य का लक्षण कहते हैं कि (पुरुषः) आत्मद्रव्य (चिदात्मा) चैतन्य - ज्ञान, दर्शन - स्वरूप और (स्पर्शगन्धरसवर्णे: विवर्जितः) स्पर्श, गन्ध, रस, वर्ण इन
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पुद्गल के गुणों से रहित है। व्यवहार नय' से (गुण पर्ययसमवेत:) गुण एवं पर्यायों से सहित तथा (समुदयव्यय ध्रौव्यैः समाहित:) उत्पाद, नाश एवं नित्यता से समाहित है।
भावार्थ - लक्षण या स्वरूप दो तरह का होता है - (1) निश्चय रूप अर्थात् असली (भूतार्थ) । (2) व्यवहार रूप (अभूतार्थ)। तदनुसार इस श्लोक द्वारा जीवद्रव्य का लक्षण दो नयों की अपेक्षा कहा गया है, जो अन्य अजीव (जड़) द्रव्यों में नहीं पाया जाता - आदि 91 लाइनों में विस्तृत भावार्थ सप्रमाण लिखा गया है - यह है श्री वर्णी जी की विशेष ज्ञान की प्रतिभा । अन्य उद्धरण - मदिरा के सेवन से द्रव्य - भाव दोनों हिंसाएं "संभव मद्यं मोहयति मन: मोहिताचित्तसु विस्मृतधर्मा जीवो, हियविशंकामाचिरति।"62 । अन्वय - अर्थ: - आचार्य कहते हैं कि (मद्यं मन: मोहयति) मदिरा के पीने से इन्द्रियाधीन मन या ज्ञान बेहोश या विवेक रहित पागल जैसा मूर्च्छित हो जाता है। (तुमोहिताचत्ति: धर्म निस्मरति) और मूच्छित या विवेकहीन जीव धर्म या कर्त्तव्य को भूल जाना है। पश्चात् (विस्मृत धर्म: जीव: अविशंक हिंसा आचरति) धर्म को भूल जाने वाला जीवन निर्भय और निरंकुश (स्वच्छन्द) होकर हिंसा पाप को करने लगता है। नतीजा यह होता है कि मद्यपायी मानव, द्रव्य और भाव दोनों हिंसा पाप को करने लगता है। ___भावार्थ - परिणाम (चित्त या भाव) खराब होने से भाव - हिंसा होती है और उन मदिरा आदि नशीले पदार्थो में अनगिनत जीवों का घात होने से द्रव्य हिंसा भरपूर होती है तथा बड़े - बड़े लोक निन्द्यकार्य और पारस्परिक द्रोह होते हैं आदि आठ लाइनों में इस पद्य का भावार्थ समाप्त होता है। (पुरुषार्थ पृ. 199)
अनेक आचार्यों ने अपने अपने दृष्टिकोणों से मानव जीवन को पवित्र बनाने के लिए आठ मूलगुणों का प्रतिपादन अनेक प्रकारों से किया है। उनमें से सिद्धांतशास्त्री जी ने पाँच आचार्यो के मूलगुणों का दिग्दर्शन कराया है। उनमें से भी पण्डित प्रवर श्री आशाधर जी के मत से आठ मूलगुणों का उल्लेख किया जाता है - (1) मद्य - त्याग (2) मांस - त्याग (3) मधु (शहद) त्याग, (4) बड़, पीपल आदि पाँच उदम्बर फलों का त्याग, (5) रात्रि भोजन त्याग, (6) परमात्मा का दर्शन पूजन, (7) जीवरक्षा करना, (8) वस्त्र से जल छानकर उपयोग करना । इन मूलगुणों को आचरण करना प्रत्येक सद्गृहस्थ का कर्त्तव्य हैं। (पुरुषार्थ पृ. 198) इस समय आत्मपरिणाम के अनुसार हिंसा-अहिंसा के फल की विचित्रता को दर्शाते हैं :
अविधायापि हि हिंसा, हिंसाफल भाजनं भवत्येक :।
कृत्वाषपरो हिंसा, हिंसा फल भाजनं न स्यात् ।।5।। (पुरुषार्थसिद्ध सिद्ध युणायश्यों. 51) अन्वय अर्थ :- आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि (एकोहिहिंसा अविधायापि हिंसाफलभाजनं भवति) निश्चय से एक पुरुष जीव-हिंसा को नहीं करने पर भी हिंसा के फल को भोगता है और दूसरा व्यक्ति (अपर:हिंसा कृत्वा अपि हिंसाफ़लभाजनं न स्यात्) हिंसाको करके भी हिंसा के फल को प्राप्त नहीं होता है क्योंकि उसके भाव (चित्तके विचार) जीव-हिंसा के नहीं है, किन्तु सुरक्षा के थे।
प्रथम पक्ष का उदाहरण - जो धीवर मछलियों को मारने का संकल्प कर चुका है, परन्तु कारण वश वह मछलियां नहीं मार पाया, तो भी वह हिंसा के फल को प्राप्त होता है हिंसा भावों के कारण । तथा एक डॉक्टर
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रोगी को स्वस्थ बनाने के लिये आपरेशन करना पड़ा, वह रोगी अकस्मात् मरण को प्राप्त हो गया। यहां पर डाक्टर महोदय के द्वारा जीव-वध होने पर भी डॉक्टर हिंसा फल का भागी नहीं है, कारण कि डॉक्टर के विचार रोगी-वध के नहीं थे, अपितु रोगी की सुरक्षा के विचार थे। ____भवार्थ- इस श्लोक का भावार्थ श्री वर्णी जी द्वारा 35 लाइनों में दृष्टान्त सहित अंकित किया गया है जो पठनीय है। (पुरूषार्थ सिद्धयुपाय - पृ. 176-77)
न्यायतीर्थ उपाधि प्राप्त वर्णी जी ने इस ग्रन्थ की स्वरचित भाव-प्रकाशिनी भाषा-टीका को दश अध्यायों में विभक्त किया है। इसलिये इस का बाह्य कलेवर स्थूल हो गया है । इस ग्रन्थ का बाह्य रूप स्थूल होने पर भी, पद्यानुवाद, भाव-प्रकाशिनी टीका, भावार्थ, विशदार्थ, शंका-समाधान, प्रश्नोत्तर आदि ज्ञेय सामग्री के द्वारा इस ग्रन्थ की रमणीयता, उपादेयता और सरलता-अधिक से अधिक प्रसिद्ध हो गई है । अध्यायों का परिचय अधोलिखित ज्ञातव्य है :-पीठिका पृ. 1 से 40 तक - मंगलाचरण, ग्रन्थ - रचना का मुख्य लक्ष्य और निश्चय, व्यवहार नय की उपयोगिता।
(1) अध्याय पृ. 41 से 72 तक - जीव-तत्व का लक्षण कर्मबन्ध की परम्परा । पुरुषार्थसिद्धि का उपाय। सम्यग्दर्शन के प्राप्त करने की सामग्री आदि । (2) अध्याय - पृ. 73 से 151 तक- निश्चिय व्यवहार रत्नत्रय की उपयोगिता, सम्यग्दर्शन का लक्षण-भेद। सम्यक्-दर्शन के 63 गुण, आठ अंगों की व्याख्या, सम्यग्ज्ञान की व्याख्या आदि। (3) अध्याय पृ. 152 से 195 तक श्रावक धर्म का कथन, अन्य दर्शन की अपेक्षा हिंसा, अहिंसा की व्याख्या, आदि। (4) अध्याय - पृ. 196 से पृ. 213 तक विभिन्न आचार्यों के मत से मूल गुणों का प्रदर्शन। हिंसा एवं अहिंसा के विषय में शंका-समाधान, उत्सर्ग-अपवाद मार्ग का स्पष्टीकरण । (5) अध्याय पृ. 214 से 298 तक :- अहिंसात्मक व्रतों के संसाधन के उपाय धर्म एवं अधर्म की साधना के परिणाम । असत्य, चौर्य, कुशील और परिग्रह की परिभाषा एवं भेद । पंच अणुव्रतों के व्याख्यान । रात्रि भोजन से हानि और उसका त्याग ।(6) अध्याय- पृ. 299 से 357 तक :- सात शीलव्रत (3 गुणव्रत, 4 शिक्षाव्रत) की परिभाषा । श्रावक के 17 नियम और शंका समाधान । दाता के सात गण। सपात्रों के भेद। 12 व्रतो से 11 प्रतिमाओं का निर्माण । (8) अध्याय- पृ. 358 से पृ. 365 तक सल्लेखना का व्याख्यान । सल्लेखना में आत्मघात का सप्रमाण निराकरण । (7) अध्याय- पृ. 366 से पृ. 388 तक:- बारह व्रतों के 60 अतिचार, सम्यग्दर्शन के 5 अतिचार, समाधि-मरण के 5 अतिचारों का निर्देश । (9) अध्याय- पृ. 389 से पृ. 423 तक :- सकल-चरित्र का व्याख्यान । शंका-समाधान तप के भेद प्रभेद। सम्यग्दर्शन की विशेषता । 6 आवश्यक, 3 गुप्ति, 5 समिति, 10 धर्म, 12 अनुप्रेक्षा 22 पीरषह जय इन सबकी परिषाभा (10) अध्याय पृ. 414 से पृ. 437 तक ग्रन्थ का सामान्य सारांश । रत्नत्रयके विषय पर शंका समाधान । स्याद्वाद-नय से तत्वों की सिद्धि । टीकाकार की प्रशस्ति ।
: ग्रन्थकार की नम्रता : वर्णैः कृतानिचित्र: पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि । वाक्यैः कृतं पवित्रं, शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥226।।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अमृतचन्द्र आचार्य कहते है कि लिपि के अनेक अक्षरों के द्वारा पद-रचना, पद-रचना से वाक्य-रचना, और वाक्य-रचना से यह लघु शास्त्र रचना हो गई, इसमें हमने कुछ भी नहीं किया है। भाषाटीकाकार श्री वर्णी जी की नम्रता :
तरह-तरह के वर्षों से ही, पद बनते हैं नाना रूप, नाना रूप पदों से बनते, वाक्य अनेक प्रकार सरूप । वाक्यों से ही शास्त्र बनते, हैं नहीं बनाने वाले हम, यह सत्यारथ बात कहीं है, कर्ता हमें न मानो तुम ॥226॥
(पुरुषार्थ पृ. 435-436) उपसंहार
अध्यात्म गगन के प्रतिभाशाली आचार्य अमृतचन्द्र ने 'जिन-प्रवचन रहस्यकोष' (पुरुषार्थ सिद्धियुपाय) ग्रन्थ की रचना कर गागर में सागर ही मानों भर दिया है । इस ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली और शब्द-रचना शैली आश्चर्यजनक है । सिद्धान्तसार यह ग्रन्थ अनेकान्तवाद और स्याद्वाद वाचक के सम्बन्ध से परिपूर्ण है । इसका रांधेलीय जी ने अनुशीलन किया है। स्वानुभव के आधार पर आपने इस ग्रन्थ का हिन्दी पद्यानुवाद एवं भाव-प्रकाशिनी टीका का निर्माण किया है। ग्रन्थ के अनुसार शास्त्री जी अनेकान्त सिद्धान्त के उपासक थे। प्रारंभ में आत्म निवेदन प्रकरण में आपने लिखा है :- "मानव के उद्धार के लिये प्रारंभ से ही निश्चय और व्यवहार का ज्ञान तथा दोनों की संगति और हेय-उपादेयता बतलाई गई है अर्थात् भूमिका की शुद्धिपूर्वक तत्वों का निर्णय होने से ही प्राणी का उद्धार हो सकता है अन्यथा नहीं, चाहे वह कितना ही उपाय क्यों न करें, सब व्यर्थ हैं।" (आत्म निवेदन पृ. 4) ___ इसी प्रकार प्रस्तावना में भी शास्त्री जी ने दर्शाया हैं
"इस ग्रन्थ में निश्चय-व्यवहार में भेद-लक्षण तथा व्यवहार की कथंचित् उपादेयता की सीमा, दोनों का ज्ञान हो जाने पर समता भाव (मध्यस्थता) तथा उससे होने वाला लाभ बताया गया है उत्थानपतन का निदानपूर्वक क्रमश: वर्णन हैं।" (प्रस्तावना पृ. 6)
सिद्धान्तशास्त्री जी ने 26 सन्दर्भ ग्रन्थों के अनुशीलन से इस भाव प्रकाशिनी टीका का निर्माण किया है । अत: पूजनीय पंडित जी के चरणों में विनयपूर्वक नमन करता हुआ, मैं सम्यक परिवेक्षण (टीका) का समापन कर रहा हूँ।
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कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
भारत में जैन तीर्थक्षेत्रों का मूल्यांकन
भारतीय संस्कृति, पुरातत्व और इतिहास में तीर्थक्षेत्रों का महत्वपूर्ण स्थान है । ये परम पावन तीर्थ महापुरुषों, तीर्थंकरों, महर्षियों और शलाका-पुरुषों के ज्वलंत स्मारक हैं। जो आज भी तीर्थंकरों आदि दिव्यपुरुषों के लोक कल्याणकारी संदेशों को मौन आकृति से कह रहे हैं। इन पूज्यतीर्थों ने प्राचीन संस्कृति, पुरातत्व, इतिहास, एवं दर्शन, समाज और धर्म के विकास में स्वयं को समर्पित कर दिया है।
संस्कृत - व्याकरण के अनुसार तीर्थ शब्द की व्याख्या इस प्रकार है- "तीर्थते संसार सागरः येन निमित्तेन तत्तीर्थमिति' अर्थात् जिस पवित्र साधन से संसार सागर को पार किया जाये वह तीर्थ कहा जाता है । तीर्थ शब्द विभिन्न अर्थो की अपेक्षा भी व्यापक रूप से प्रसिद्ध है। संस्कृत कोष - विज्ञों ने तीर्थ शब्द के अनेक अर्थ दर्शायें है, यथा शास्त्र, अवतार, जलाशय का घाट, महापात्र, पुण्यक्षेत्र, उपाध्याय, दर्शन, यज्ञ, तपोभूमि | इससे सिद्ध होता है कि तीर्थक्षेत्र परम कल्याणकारी हैं और उसकी उपासना विश्व के प्राणियों का हित करने वाली है ।
तीर्थो पर तीर्थंकरों ने, आचार्यों ने और महापुरुषों ने अंतर और बाह्य तपों द्वारा आत्म- विशुद्धि को किया, और धर्म, साहित्य, दर्शन, कला, गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष नीति आदि विषयों पर शास्त्रों का सृजन करते हुए लोक कल्याण एवं आध्यात्मिक ज्योति का विकास किया । इसी कारण ये तीर्थं विश्व वंदनीय देवता माने जाते है । यह विषय तीर्थों के इतिहास एवं ग्रन्थों से ज्ञात होता है। अनेक तीर्थों ने स्वयं साहित्य
विकास और पुनरुद्धार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । श्रवणबेलगोल तीर्थ, गिरनार पर्वत और अजंता के शिलालेख, पुरातत्व, एवं गुफाएँ इस वृत्त में ज्वलंत प्रमाण है। इस विषय में जैन शिलालेख संग्रह भाग- 12 का पठन करना आवश्यक है।
तीर्थ - शब्द की अन्य व्याख्या:
तीर्थंकरोतीत तीर्थंकर : अर्थात् जो महात्मा धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं उनको तीर्थंकर कहते है ।
‘आदिपुराण' में हस्तिनापुर के महाराज श्रेयांस को दान कर्तव्य का सर्वप्रथम प्रवर्तन करने के कारण दानतीर्थं प्रवर्तक कहा गया है। इसी प्रकार मुक्ति प्राप्ति का कारण रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र) को 'रत्नत्रयतीर्थ' कहा गया है । (आदिपुराण अ. 2, श्लोक 39 )
तीर्थक्षेत्रों का मूल्यांकन :
सिद्धक्षेत्रे महातीर्थ, पुराणपुरुषाश्रिते ।
कल्याणकलिते पुण्ये, ध्यानसिद्धिः प्रजायते ॥
तात्पर्य - शलाका महापुरुषों से प्रभावित, कल्याण का स्थान, पवित्र सिद्धक्षेत्र रूप महान् तीर्थ पर ध्यान करने से परमात्म पद तथा स्वर्ग आदि वैभव की सिद्धि होती है (शुभचन्द्राचार्य: ज्ञानार्णव: पृ. 263) तीर्थमार्ग की धूलि के सेवन से मानव रजरहित (पापरहित) होते हैं। तीर्थक्षेत्रों पर भ्रमण से मानव
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भव-भ्रमण नहीं करते है। तीर्थयात्रा के लिए सम्पदा का व्यय करने से उभय लोक में मानव सम्पदा से शोभित होते है। परमात्मा के मार्ग की अथवा तीर्थक्षेत्रों की वास्तविक उपासना करने से मानव पूज्य हो जाते है 'पावनानि हि जायन्ते, स्थानान्यपि सदाश्रयात्।' (भारत के दि.जैनतीर्थ: प्रथम भाग प्रस्तावना पृ. 13) तात्पर्य - महापुरुषों की संगति से साधारण स्थान भी पवित्र हो जाते हैं। जहाँ महापुरुषों का निवास हो, तो वह भूमि पूज्यतम अवश्य हो जाती है अर्थात् वह स्थान तीर्थ बन जाता है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है, जैसे कि रसायन अथवा पारस के संयोग से लोहा सुवर्ण हो जाता है।
__ भारत वर्ष अनेक धर्म, दर्शन एवं संस्कृतियों का संगम है। इस देश में वैदिक, जैन, बौद्ध, इन प्रमुख संस्कृतियों का विकास हुआ है और वर्तमान में हो रहा है। इसलिए भारत में मुख्यत: वैदिक, जैन एवं बौद्ध संस्कृति के अमर स्मारक के रूप में तीर्थक्षेत्र अपना ज्वलंत अस्तित्व दिखला रहे हैं। जैन तीर्थो के प्रकार -
__प्राकृत में जैन दर्शन की दृष्टि से जैन तीर्थ तीन प्रकार के दृष्टिगोचर हो रहे है। 1. निर्वाण क्षेत्र, 2. सिद्ध क्षेत्र, 3. अतिशय क्षेत्र । निर्वाण क्षेत्र की परिभाषा -
जिस स्थान से श्री ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों ने परम ध्यान-साधना के माध्यम से निर्वाणपद (मुक्तिपद) को प्राप्त किया, अतएव जहाँ पर देवों तथा मानवों द्वारा निर्वाण कल्याणक महोत्सव किया गया हो वे निर्वाण तीर्थ कहे जाते हैं, जैसे भगवान श्री ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत से, नेमिनाथ ने गिरनार पर्वत से, वासुपूज्य तीर्थंकर ने चम्पापुर क्षेत्र से, महावीर तीर्थंकर ने पावापुर क्षेत्र और शेष बीस तीर्थंकरों ने सम्मेदशिखर महातीर्थ क्षेत्र से निर्वाण पद को प्राप्त किया है, इसलिए ये तीर्थ निर्वाण क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है। सिद्ध क्षेत्र की परिभाषा -
जिस स्थान से तीर्थंकरों से भिन्न शलाका महापुरुषों ने, मुनीश्वरों, आचार्यो एवं उपाध्यायों ने शुक्ल ध्यान के द्वारा मुक्ति (परमात्मपद) को प्राप्त किया है, वे सिद्ध क्षेत्र कहे जाते हैं जैसे चूलगिरि (बड़वानी), तुंगीगिरि,सिद्धवरकूट, द्रोणगिरि,रेशन्दीगिरि, कुन्थलगिरि आदि । यद्यपि निर्वाण क्षेत्रों से भी बाहुबली आदि मुनीश्वरों ने परमात्मपद को प्राप्त किया है तथापि उन तीर्थक्षेत्रों में तीर्थंकरों के निर्वाण क्षेत्र की ही मुख्यता है तथापि तीर्थंकरों के तीर्थ में उन मुनीश्वरों की भी गणना की जाती है। अतिशय क्षेत्र की परिभाषा -
जिन स्थानों में 24 तीर्थंकरों के गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक, दीक्षाकल्याणक एवं ज्ञानकल्याणक के महोत्सव हुए हो, शलाका महापुरुषों ने ध्यान साधना की हो, शास्त्रों का निर्माण महोत्सव किया गया हो, अथवा आत्म साधना के कारण अन्य कोई देवकृत अतिशय या चमत्कार हुए हो, अथवा धार्मिक विशिष्ट पुरुषों मन्दिरों एवं उपासना गृहों आदि का निर्माण हुआ हो, वे अतिशय क्षेत्र कहे जाते है जैसे हस्तिनापुर, अयोध्या, ऋषभदेव,ईश्वरवारा, बजरंगढ़ महावीरजी, तिजारा, पदमपुरी, पिसनहारी-मढ़िया श्रवणवेलगोल, मूडबिद्री (दक्षिणकाशी), धर्मस्थल आदि ।
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्राचीन जैन तीर्थो ने भारतीय संस्कृति के प्रत्येक अंग को प्रभावित किया है, अध्ययन की दृष्टि से . उस योगदान का विभाजन निम्न शीर्षकों में संभाव्य है -
1.
शैक्षणिक योगदान
2.
3.
साहित्यिक योगदान
4.
5.
कला एवं पुरातत्त्व विषयक योगदान
6.
वैज्ञानिक योगदान
( भारतीय संस्कृति में जैनतीर्थां का योगदान पृ. 3)
डॉ सर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर म.प्र. के पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी स्वयं विहार प्रांत के पारसनाथ किले का निरीक्षण कर वहाँ अनेक जैन मूर्तियाँ तथा शिलालेख प्राप्त किये हैं । प्राप्त सामग्री के आधार पर उनका कथन है कि दशवीं तथा ग्यारहवीं शती में वह किला जैनधर्म का अवश्य महत्वपूर्ण केन्द्र रहा होगा। उन्होंने वहाँ पर्यवेक्षण और खुदाई की महती आवश्यकता प्रदर्शित की है। (उक्त पुस्तक पृ.20)
भारत के प्रांतश: कतिपय तीर्थक्षेत्रों के नाम :
-
उत्तरप्रदेश 1. मथुरा, 2. हस्तिनापुर, 3. अयोध्या, 4. अहिच्छत्र, 5. प्रयाग, 6. काकन्दीपुर, 7. कौशाम्बी, 7. चन्द्रपुरी, 8. चांदपुर, 9. देवगढ़, 10. पवाजी, 11. रत्नपुरी 12. सिंहपुर, 13. श्रमणा, 14. सोनागिर आदि । मध्यप्रदेश - 1. द्रोणगिरि, 2. अचलपुर - मुक्तागिरि, 3. अहारजी, 4. कुण्डलपुर, 5. कोनी - पाटन, आदि । 1. अजमेर, 2. अर्बुद पर्वत, 3. चमत्कारीजी, 4. ऋषभदेवजी, 5. चांदखेड़ी, 6. महावीरजी, 7. चौवलेश्वर, 8. जयपुर, 9. बिजौलिया 10. केशोराय - पाटन आदि ।
राजस्थान -
बंगाल-बिहार- उत्कलप्रांत - 1. गुणावा, 2. चम्पापुर - मन्दारगिरि, 3. पाटली - पुत्र, 4. पावापुर, 5. राजगृह, 6. सम्मेदशिखर, 7. कुण्डपुर, 8. आरा आदि ।
दार्शनिक तथा चारित्रिक योगदान धार्मिक-साधना योगदान
बम्बई प्रांत - 1. कुन्थलगिरि, 2. गजपंथगिरि, 3. गिरिनार, 4. तारवरनगर, 5. पावागिरि, 6. तुंगीगिरि, 7. शत्रुंजय, 8. अजंतागुफा मंदिर, 9. कचनेर, कुम्भोज, 10. विघ्नहर - पार्श्वनाथ आदि । मद्रास प्रांत - 1. श्रवणबेलगोल, 2. कारकल, 3. बेणूर, 4. तिरुमलय, 5. पोन्नूर, 6. मूड बिद्री, 7. विजयनगर, आदि ।
कतिपय अन्य तीर्थक्षेत्र - 1. अंतरिक्ष, 2. कारंजा, 3. कुण्डनपुर, 4. भातुकुली, 5. रामटेक, 6. बड़वानी - चूलगिरि, 7. पावागिरि, 8. सिद्धवरकूट, 9. उज्जयिनी, आदि ।
उपसंहार -
तीर्थक्षेत्र, भारतीय संस्कृति और पुरातत्व के अमर कीर्ति स्तंभ है । इतिहास से सिद्ध होता है कि भारतीय सिद्धांतों को जीवित एवं विकसित करने में तीर्थक्षेत्रों ने अपार योगदान दिया है । तीर्थक्षेत्रों की भावपूर्वक वंदना एवं उपासना करने से मानव का कल्याण होता है और यह मानव संसार सागर से पार होकर परमात्मा हो जाता है ।
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पंचस्तोत्रसंग्रह: एक समीक्षात्मक परिशीलन
भारत में उपासना की विभिन्न पद्धतियाँ प्रचलित है और वर्तमान में हो रही है। अपने - अपने सिद्धांत तथा परम्परा के अनुसार उपासना पद्धति अपना स्वयं स्थान सुरक्षित रखती है। वैदिक परम्परा में यज्ञ का प्रमुख स्थान है और श्रमण परम्परा में देवपूजा का प्रमुख स्थान है। वैदिक क्रियाकाण्ड का प्रयोजन यज्ञ के माध्यम से अग्नि आदि देवों को प्रसन्न करना है और श्रमण देवपूजा का प्रयोजन आत्मशुद्धि, पुण्योपार्जन, स्वर्गप्राप्ति और मोक्ष की प्राप्ति है । देवपूजा का प्रसार द्रविडदेश में अधिक था, कारण कि दक्षिणभारत में श्रमण संस्कृति का व्यापक प्रसार था। अत: दक्षिणभारत श्रमण संस्कृति का केन्द्र कहा जाता है।
इतिहास कहता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त के शासनकाल में बारहवर्षीय अकाल के समय श्री भद्रबाहु आचार्य अपने संघस्थ बारह सौ मुनियों के साथ, धार्मिक प्रभावना, स्वात्मसाधना और उपसर्ग के निवारणार्थ विहार करते हुए दक्षिणभारत में गये थे। वहाँ उन्होंने अपने परम मुनिधर्म की साधना की। इससे सिद्ध होता है कि दक्षिणभारत जैनधर्म एवं संस्कृति का महान् केन्द्र था। अन्यथा इतने विशाल मुनिसंघ का निर्वाह होना कठिन था।
जैन साहित्य में पूजन विधान का वर्णन प्रतिष्ठापाठों, श्रावकाचारों और आराधनाग्रन्थों में पाया जाता है। श्रमण परम्परा में उपासना या पूजा की पद्धति अनेक प्रकार की होती है, जैसे कि अष्टद्रव्यों से पूजन करना, द्रव्यों के बिना भावपूजन करना, स्तवनों या स्तोत्रों से गुणों के अर्चन, गुणों के स्मरण से भावपूजन और नमस्कार करने से पूजन करना, प्रत्यक्ष और परोक्ष पूजन करना, द्रव्यपूजन और भावपूजन करना, जाप के द्वारा पूजन करना आदि इसी विषय को संस्कृतज्ञ महाकवि धनञ्जय ने विषापहार स्तोत्र में कहा है -
स्तुत्यापरं नाभिमतं हि भक्त्या, स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि ।
स्मरामि देवं प्रणमामि नित्यं, केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम् ॥ सारांश - भगवान की स्तुति द्वारा ही इच्छित फल की सिद्धि नहीं होती, किन्तु भक्ति (आठ द्रव्यों द्वारा पूजन) से, स्मरण, ध्यान जाप और नमस्कार से भी इच्छित फल की सिद्धि होती है, इसलिये मैं परमेष्ठीदेव की भक्ति (पूजा) करता हूँ, आपका ध्यान एवं स्मरण करता हूँ और आपको प्रणाम करता हूँ। कारण कि इच्छित मनोरथ की प्राप्ति रूप फल को किसी भी उपाय से प्राप्त कर लेना चाहिये । इस पद्य में कविवर ने पूजा के अनेक प्रकार दर्शाये हैं। पद्मपुराण में भी अनेक प्रकार से जिनेन्द्र पूजा का विधान है :
जिनबिम्बं जिनाकारं जिनपूजां जिनस्तुतिम् । य: करोति जनस्तस्य, न किचिद् दुर्लभं भवेत् ॥
(पद्मपुराण, अ. 14. श्लोक 213) -335
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सारांश - जो मानव जिनबिम्ब प्रतिष्ठा को, जिनेन्द्र देव के ध्यान को, अष्टद्रव्य से जिनेन्द्रपूजा को और जिनेन्द्रदेव की स्तुतियाँ स्तोत्र को शुद्धभाव से करता है उस मानव को जगत् में कोई भी श्रेष्ठ फल दुर्लभ नहीं है। इन प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि जैन संस्कृति में पूजा के अनेक प्रकार हैं। उनमें भी प्राचीन काल में तथा भोगभूमि के पश्चात् कर्मभूमि में सर्वप्रथम गुणस्मरण और स्तोत्र एवं विनयपूर्वक नमस्कार करने से ही पूजाकर्म किया जाता था। इस विषय में स्व. श्री पं. नेमिचंद्रजी ज्योतिषाचार्य ने भी कहा है -
"सिद्ध है कि आरंभ में गुणस्मरण और स्तवन के रूप में भक्तिभावना प्रचलित थी । अष्टद्रव्य रूप पूजन का प्रचार उसके पश्चात् ही हुआ है।"
स्तोत्रभक्ति के विषय में एक अन्य प्रमाण और श्री दिया गया है जिसको आचार्य समंतभद्र ने श्री नमिनाथ तीर्थंकर के स्तवन में श्री बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र के अंतर्गत कहा है -
स्तुति: स्तोतुः साधो: कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः। किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे
स्तुयान्नत्वा विद्वान्सततमपिपूज्यं नमिजिनम्॥ अर्थात् स्तुति के समय स्तुत्य वर्तमान रहे अथवा न रहे फलप्राप्ति उसके द्वारा होती हो अथवा न होती हो, पर भक्तिभाव पूर्वक स्तुति करने वाले को, शुभोपयोग के कारण पुण्य की प्राप्ति होती ही है। स्तुति करने से श्रेयोमार्ग सुलभ हो जाता है । इसलिये विद्वान् सर्वदा शुद्धभाव पूर्वक पूज्य नमितीर्थकर का स्तवन करें।
श्रमण संस्कृति में मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक, आचार्य एवं उपाध्याय, भक्तिपाठों के माध्यम से भावात्मक देवपूजा करते हैं और गृहस्थ या श्रावक स्तोत्र तथा अष्टद्रव्यों के माध्यम से द्रव्यात्मक देवपूजा का कर्तव्यपूर्ण करते हैं। परन्तु श्रावकों को शुद्धभावपूर्वक द्रव्य पूजा करना आवश्यक है। मुनि आदि रत्नत्रय की साधना करने वाले महाव्रती धर्मात्मा, भक्तिपाठों के द्वारा ही बिना द्रव्य के अपने भावों को विशुद्ध करने की क्षमता रखते हैं । इसलिये श्री कुंदकुंदाचार्य ने प्राकृत में दश भक्तिपाठों की और पूज्यपादाचार्य ने संस्कृत में दश भक्तिपाठों की रचना कर श्रेयोमार्ग की साधना को प्रशस्त किया है। इन भक्तिपाठों में वीतरागदेव, शास्त्र, गुरु का, पंचपरमेष्ठी देवों का और चतुर्विशति तीर्थंकरों का यथायोग्य गुण कीर्तन किया गया है।
भक्तिपाठों के पश्चात् स्तवन तथा स्तोत्र का क्रम वर्णित किया जाता है । भक्तिपाठों के समान स्तवन का भी अतिमहत्व एवं उपयोग देखा जाता है। स्तवन, स्तव, स्तुति, नुति इन शब्दों का सामान्य रूप से एक ही गुणकीर्तन अर्थ जाना जाता है। विशेष रूप से इनका विचार करने पर स्तवन आदि शब्दों में विशेषता ज्ञात होती है वह इस प्रकार है - संस्कृत व्याकरण के कृदन्त प्रकरण में स्तुति अर्थ वाली 'स्तु'धातु से भाव में अप प्रत्यय संयुक्त करने पर स्तव शब्द सिद्ध होता है । 'स्तु'धातु से ल्युट् (यु-अन) प्रत्यय युक्त करने पर स्तवन शब्द सिद्ध होता है। 'स्तु'धातु से ति प्रत्यय जोड़ने पर स्तुति शब्द और 'स्तु'धातु से त्र प्रत्यय
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संयुक्त करने से स्तोत्र यह शब्द सिद्ध होता है। णू स्तवने - धातु से ति प्रत्यय जोड़ने पर नुति यह शब्द सिद्ध होता है । इन सब शब्दों का सामान्य अर्थ गुणकीर्तन होता है । धर्मशास्त्रों की अपेक्षा विचार करने पर विशेषता यह है - अनेक पूज्य आत्मा के गुणों की प्रशंसा,संक्षेप या विस्तार से करना स्तव तथा स्तवन कहा जाता है और व्यक्ति विशेष पूज्य आत्मा या एक महात्मा के गुणों का संक्षेप या विस्तार से गुणकीर्तन करना स्तुति या स्तोत्र कहा जाता है, नुति भी उसी को कहते हैं । इन सभी स्तवन और स्तोत्रों की जैन दर्शन में न्यूनता नहीं है, सैकड़ों पाये जाते हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती, मराठी, कन्नड़, हिन्दी आदि भाषाओं में स्तोत्र बहुसंख्यक हैं उनमें संस्कृत के स्तोत्र प्राचीन भक्तिरस पूर्ण, सरस, आकर्षक और मधुर छन्दों में उपलब्ध होते हैं। खोज करने पर संस्कृत के प्राय: 60-65 स्तोत्र उपलब्ध हुए हैं। सभी स्तोत्र भावपूर्ण सुन्दर छन्दों में निर्मित सुन्दर रचना से परिपूर्ण हैं। उनमें भी पाँच स्तोत्र अधिक प्रसिद्ध, सरस, चमत्कारपूर्ण, अलंकारों से अलंकृत और आकर्षक छन्दों में निर्मित हैं। जैन संस्कृतिक के उपासक अधिक संख्या में इन पंच स्तोत्रों का यथासंभव निरंतर पाठ करते रहे हैं, परन्तु उन उपासकों को अर्थ का बोध न होने से भक्तिरस के साथ वीतराग जिनेन्द्र देव के गुणों का स्मरण कर वास्तविक आत्मानन्द नहीं मिल पाता था, केवल शब्दात्मक, प्राय: अशुद्धपाठ करके ही अपने कर्त्तव्य को पूर्ण कर लेते थे। एवं सार्थ व्यवस्थित मुद्रित पुस्तक उपलब्ध न होने से भी अधिकांश पाठ ही नहीं करते है।
श्रीमान् पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य की विवेकपूर्ण दृष्टि इस महत्वपूर्ण विषय की ओर गई। आपने इस कमी की पूर्ति के लिए 'पञ्चस्तोत्र संग्रह' नाम की पुस्तक का सम्पादन कर अपना कर्त्तव्यपूर्ण किया है। इस पुस्तक में प्रसिद्ध पाँच स्तोत्रों का संग्रह किया गया है : 1. भक्तामर स्तोत्र, 2.कल्याणमंदिर स्तोत्र, 3. एकीभाव स्तोत्र, 4. विषापहार स्तोत्र, 5. जिनचतुर्विशतिका स्तोत्र । इन स्तोत्रों के प्रत्येक श्लोक का क्रमश:अन्वय अर्थ तथा भावार्थ, रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है, जिसको पढ़कर कोई भी साक्षर व्यक्ति इन स्तोत्रों का तात्पर्य अच्छी तरह समझ सकता है और नित्य तथा शुद्ध पाठ से आत्मा की विशुद्धि प्राप्त कर सकता है।
श्री पं. पन्नालाल जी ने इस पुस्तक की भूमिका में अपने विचार व्यक्त किये हैं जो ध्यान देने योग्य हैं - "ये पाँचों स्तोत्र संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं इसलिए इनके मूलपाठ में भक्तिरस का पूर्ण अनुभव तो उन्हीं को हो सकता है जो संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं। जैसे कि मेघ के शुद्धस्वादिष्ट पानी का अनुभव चातक ही कर सकता है अन्य साधारण प्राणी नहीं।" अपि च -
__"यद्यपि जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र को छोड़कर शेष चार स्तोत्रों का हिन्दी पद्यों में भावानुवाद हो चुका है तथापि जो संस्कृत शब्द का अर्थ जानते हुए पद्य का भावगाम्भीर्य जानना चाहते हैं उन उपासकों को इस स्तोत्रों का अन्वयपूर्वक शब्दार्थ बतलानेवाली टीका की आवश्यकता का अनुभव होता रहता था । भक्तामर स्तोत्र और कल्याण मंदिर स्तोत्र की हिन्दी टीकायें अन्वय अर्थपूर्वक प्रकाशित हो चुकी हैं परन्तु
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ एकीभाव, विषापहार और चतुर्विशतिका और स्तोत्र की हिन्दी टीका अभी तक अप्रकाशित हैं। मेरी इच्छा पंचस्तोत्रों की संग्रह रूप से टीका लिखने की थी और अनेक महाशयों ने कई बार इस विषय की प्रेरणा भी की। अब अवकाश प्राप्तकर मैंने इन स्तोत्रों की टीका लिखने का प्रयत्न किया है"।
पंचस्तोत्रसंग्रह में पाँच स्तोत्रों की सरल तथा संक्षिप्त टीका की गई है, ये स्तोत्रकाव्य के रूप में एक धार्मिक ग्रन्थ हैं जो भक्तिरस से परिपूर्ण हैं । प्रत्येक श्रद्धालु मानव को इन स्तोत्रों का सार्थ नित्यपाठ करना चाहिये।
इन स्तोत्रों की टीका में जो विशेषता है उनके कुछ महत्त्वपूर्ण अंश क्रमश: इस प्रकार हैं -
(1) भक्तामर स्तोत्र के प्रणेता श्री मानुतंग आचार्य प्रसिद्ध हैं। अपने मालवदेश की राजधानी द्वारा नगरी के कृष्णमंदिर में भक्तामर स्तोत्र की मौलिक रचना कर भक्ति मंत्रों का प्रभाव दर्शाया । इस स्तोत्र का द्वितीय नाम श्री आदिनाथ स्तोत्र है कारण है कि इस स्तोत्र में भगवान् ऋषभदेव । (आदिनाथ) का स्तवन किया गया है । इस स्तोत्र को दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्परा में पूज्यता की दृष्टि से देखा जाता है । इसकी रचना छठवीं तथा सातवीं शती के मध्य भाग में हुई है। इस स्तोत्र के नित्यशुद्धपाठ सार्थ करने से परमार्थिक फल मुक्ति लक्ष्मी की प्राप्ति और लौकिकफल स्वर्ग, राज्य आदि की लक्ष्मी की प्राप्ति होती है प्रत्येक काव्य के दोनों फल सिद्ध होते हैं। उदाहरणार्थ अंतिम काव्य इस प्रकार है -
स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्रगुणै र्निबद्धां, भक्त्या मया रूचिरवर्ण - विचित्र पुष्याम् । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजसं, तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मी: 148
अन्वयार्थ - (जिनेन्द्र !) हे जिनेन्द्र देव । (इह) इस संसार में (य: जन:) जो मनुष्य (मया) मेरे द्वारा (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (गुणैः) माधुर्य आदि काव्यगुणों से अथवा जिनेन्द्रदेव के गुणों से (माला के पक्ष में - धागे से) (निबद्धां) रची गई (माला के पक्ष में गूंथी गई), (रूचिरवर्ण विचित्र पुष्पों) भक्तामर पक्ष में - मनोहर अक्षर ही हैं विचित्र फूल जिसमें ऐसा स्तोत्र, (मालापक्ष में सुन्दररंगवाले विविध फूलों से सहित), (तव) आपकी (स्तोत्रस्त्रज) स्तुतिरूप माला को (अजस्त्रं) हमेशा (कण्ठगतां धत्ते) भक्तामर पक्ष में याद करता है (माला पक्ष में गले में पहिनता है ) (तम्) उस (मानतङ्ग) सम्मान से उन्नत पुरूष को (अथवा - स्तोत्र को रचनेवाले मानतुंग आचार्य को) (लक्ष्मी:) स्वर्गमोक्ष आदि की विभूति (मालापक्ष में लौकिक सम्पत्ति) (अवशा सती) स्वतंत्र होती हुई (समुपैति) प्राप्त होती है।
___ भावार्थ - हे जिनेन्द्र आदिनाथ भगवान् ! जो मनुष्य निरंतर आपके इस भक्तामर स्तोत्र का शुद्धपाठ करता है, उसे हर एक तरह की (अंतरंग तथा बहिरंग) लक्ष्मी प्राप्त होती है इस पद्य में श्लेष -रूपक - स्वभावोक्ति अलंकार है।
(2) उत्तरभारत के दि. जैन आचार्य श्रीवृद्धिवादि मुनिराज ने श्री कुमुदचंद्र विद्वान से शारीरिक शुद्धि - अशुद्धि के विषय में तीन शास्त्रार्थ किये थे, उन तीनों शास्त्रार्थो में श्री कुमुदचंद्र ने पराजय प्राप्त की और शास्त्रार्थ के प्रसंग में ही स्वानुभव से अपनी भूल समझकर उसे दूर किया और श्रीवृद्धवादिसूरि से मुनि दीक्षा
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लेकर ही आचार्य पद पर आत्मसाधना करने लगे। इसी प्रसंग में श्री कुमुदचंद्र आचार्य ने कल्याणमंदिर स्तोत्र की रचना करते हुए भ. पार्श्वनाथ का स्तवन किया हैं। इस स्तोत्र में अर्थगाम्भीर्य और अलंकारों की छटा से भक्तिरस की अनुपम एवं आनंदपद धारा प्रवाहित की गयी है। उदाहरणार्थ एक मनोहर पद्य को अन्वयार्थ तथा भावार्थ सहित प्रस्तुत किया जाता है -
विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वं किं वाक्षरप्रकृति रप्यलिपिस्त्वमीश ! अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतु ॥30॥ अन्वयार्थ - (जनपालक !) हे जीवो के रक्षक ! (त्वं) आप (विश्वेश्वर: अपि दुर्गत:) तीनलोक के स्वामी होकर भी दरिद्र हैं। (किंवा) और (अक्षर प्रकृति: अपि त्वं अलिपिः) अक्षर स्वभाव होकर भी लेखन क्रिया से रहित हैं (ईश) हे स्वामिन् ! (कथंचित्) किसी प्रकार से (अज्ञानवति अपि त्वयि) अज्ञानवान होने पर भी आप में विश्व विकास हेतु (ज्ञानं सदा एवं स्फुरति) सब पदार्थो को प्रकाशित करने वाला ज्ञानहमेशा स्फुरायमान रहता है।
भावार्थ - इस श्लोक में विरोधाभास अलंकार है, विरोधाभास अलंकार में शब्द के सुनते समय तो विरोध मालूम होता है पर अर्थ विचारने पर बाद में उसका परिहार हो जाता है । जहाँ इस अलंकार का मूल कारण श्लेष होता है, वहाँ बहुत ही अधिक चमत्कार पैदा होता है। देखिये विरोध का परिहार इस प्रकार है - भगवान् ! आप विश्वेश्वर होकर भी दुर्गत (दरिद्र) हैं, यह पूरा विरोध है भला जो जगत् का ईश्वर है वह दरिद्र कैसे हो सकता है। इसका निराकरण है कि आप विश्वेश्वर होकर भी दुर्गत हैं अर्थात् कठिनाई से जाने जा सकते हैं। इसी प्रकार आप अक्षर प्रकृति अर्थात अक्षर स्वभाव वाले होकर भी, अलिपि हैं अर्थात लिखे नहीं जा सकते हैं यह विरोध है परन्तु दोनों शब्दों का श्लेष विरोध को दूर कर देता है कि आप अक्षर प्रकृति अर्थात अविनाशीस्वभाव वाले होकर भी अलिपि अर्थात आकार रहित (निराकार) हैं। इसी प्रकार अज्ञानति अपि अर्थात् अज्ञानयुक्त होने पर भी आपमें विश्वविकास हेतु ज्ञानं स्फुरति अर्थात संसार प्रकाशक ज्ञान स्फुरायमान होता है । यह विरोध है कि जो अज्ञानयुक्त है उसमें पदार्थो का ज्ञान कैसे हो सकता है। पर इसका भी नीचे लिखे अनुसार परिहार हो जाता है कि अज्ञान अवति अपि त्वयि अर्थात् अज्ञानी मनुष्यों की रक्षा करने वाले आपमें हमेशा केवल ज्ञान जगमगाता रहता है।
(3) एकीभाव स्तोत्र के प्रणेता श्री वादिराज मुनिराज हैं। आप संस्कृत व्याकरण न्याय और साहित्य के परमवेत्ता होने के साथ अध्यात्म विषय के भी पारगामी बिद्वान् थे । स्तोत्र के नाम से अध्यात्म रस झलकता है। तपस्या करते हुए आपको कुष्ठ की बाधा हो गई थी। इसी समय में एकीभाव स्तोत्र रचना करते समय भावों की विशुद्धि के कारण पुण्ययोग से कुष्ठ की बाधा नष्ट होकर सुन्दर शरीर हो गया था। इसी तात्पर्य का प्रतिपादक एक पद्य उदाहरणार्थ -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात् पृथ्वीचक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम् । ध्यानद्वारं मम रूचिकर स्वान्तगेहं प्रविष्ट:
तत्किं चित्रं जिन! वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि । अन्वयार्थ - (देव) हे जिनेन्द्र ! (भव्य पुण्यात्) भव्य जीवों के पुण्य के हेतु (त्रिदिवभवनात्) स्वर्गलोक से (इह) इस धरातल पर (एष्यता) आने वाले (त्वया) आपके द्वारा (प्राग् एवं) छह माह पहले से ही जब (इदं पृथ्वी चक्रं) यह भूमण्डल (कनकमयतां) सुवर्ण रूपता को (निन्ये) प्राप्त कराया गया था अर्थात् सोने का बना दिया गया था, तब फिर (जिन) हे जिनेन्द्र ! (ध्यानद्वार) ध्यानरूप दरवाजे से सहित और (रूचिकर) प्रेम उत्पन्न करने वाले (मम) हमारे (स्वान्तगेहं) मनरूप घर में (प्रविष्टः) प्रविष्ट हुए आप (इदं वपुः) इस शरीर को (यत्)जो (सुवर्णीकरोषि) सुन्दर अथवा सुवर्णमय कर रहे हो (तत् किं चित्रं) वह क्या आश्चर्य है ! अर्थात् कुछ भी नहीं॥
___ भावार्थ - हे जिनेन्द्रदेव ! जब आपके स्वर्गलोक से भूलोक पर आने के लिए छह माह बाकी थे तभी आपके प्रभाव से यह समस्त पृथ्वी सोने जैसी सुन्दर हो गई थी, फिर अब तो आप हमारे मनमंदिर में प्रविष्ट हो चुके हैं इसलिए यदि यह शरीर सुन्दर अथवा सुवर्ण जैसा हो जावे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ।(यहाँ सुवर्ण शब्द के दो अर्थ हैं एक सुन्दर और दूसरा सुवर्ण/सोना) । इस पद्य में मन्दाक्रान्ता छन्द और श्लेष, संभावना एवं आश्चर्य अलंकारों की छटा से शान्तरस प्रवाहित हो रहा है। यह स्तोत्र 26 पद्यों में पर्ण होता है।
(4) संस्कृत भाषा में द्विसन्धान महाकाव्य के प्रणेता महाकवि धनंजय विषापहार स्तोत्र के रचयिता है। इसमें उपजाति छन्द में निबद्ध कुल चालीस पद्य हैं। इन पद्यों में अलंकारों की छटा, शब्दविन्यास, अर्थ की गंभीर कल्पना और भक्तिरस का प्रवाह विचित्र एवं अपूर्व है । भगवत्पूजन के पश्चात् इस स्तोत्र की रचना के कारण होने वाली आत्मविशुद्धि के प्रभाव से इनके इकलौते पुत्र का सर्पविषशान्त हो गया था, इसलिये इस स्तोत्र का नाम 'विषापहार' लोक प्रसिद्ध हो गया है। उदाहरणार्थ इस स्तोत्र का प्रथम पद्य प्रस्तुत है -
स्वात्मस्थित: सर्वगतः समस्त-व्यापार-वेदी-विनिवृत्त संग : । प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्यः, पायादपायात्पुरुष: पुराण : ॥1॥
अन्वयार्थ - (स्वात्मस्थित: अपि सर्वगतः) आत्मस्वरूप में स्थित होकर भी सर्वव्यापक, (समस्त व्यापार वेदी अपि) सब व्यापारों के जानकार होकर भी, (विनिवृत्त संगः) परिग्रह से रहित , (प्रवृद्धकालः अपि अजरः) दीर्घ आयु वाले होकर भी बुढ़ापे से रहित तथा (वरेण्यः) श्रेष्ठ (पुराण: पुरुष:) प्राचीन पुरुष =भ0 आदिनाथ, (न:) हम सब को (अपायात्) विनाश या विघ्र से, (पायात्)रक्षित करें।
__ भावार्थ - इस पद्य में विरोधाभास अलंकार है । इस अलंकार में सुनते समय विरोध मालूम होता है पर बाद में अर्थ का विचार करने से विरोध का परिहार हो जाता है। देखिये - जो अपने स्परूप में स्थित होगा
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वह सर्वव्यापक कैसे होगा । यह विरोध है, पर उसका परिहार यह है - कि पुराणपुरुष (भ0 आदिनाथ आत्म - प्रदेशों की अपेक्षा अपने स्वरूप में ही स्थित हैं पर उनका ज्ञान सर्वलोक के पदार्थो को जानता है, इसलिये ज्ञान की अपेक्षा सर्वगत (व्यापक) है। जो सम्पूर्ण व्यापारों का जाननेवाला है वह परिग्रहरहित कैसे हो सकता है, यह विरोध है, उसका परिहार है कि आप सर्व पदार्थो के स्वाभाविक अथवा वैभाविक परिवर्तनों को जानते हुए भी कर्मो के सम्बन्ध से रहित हैं। इसी तरह दीर्घायु से सहित होकर भी बुढ़ापे से रहित हैं, यह विरोध है, उसका परिहार यह है - महापुरुषों के शरीर में वृद्धावस्था का विकार नहीं होता अथवा आत्मस्वरूप की शुद्धता की अपेक्षा से कभी भी जीर्ण (वृद्ध) नहीं होते।इस प्रकार के श्री आदिनाथ भगवान इस लोक में विघ्न बाधाओं से हम सबकी रक्षा करें। यह प्रार्थना की गई। इस पद्य में विरोधाभास अलंकार तीन प्रकार में दर्शाया गया है। इसी स्तोत्र के पद्य नं. 13 का चित्र-आकर्षक-भाव सौन्दर्य इस प्रकार है -
सुखाय दुःखानिगुणाय दोषान्, धर्माय पापानि समाचरन्ति ।
तैलाय बाला: सिकतासमूह, निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीया: ।। अन्वयार्थ - जिस प्रकार (बाला) बालक या मूर्ख, (तैलाय)तैल के लिये (सिकतासमूह)बालु के समूह को (निपीडयन्ति )पेलते हैं। (स्फुटं) स्पष्ट रूप से उसी प्रकार (अत्वदीयाः) आपके प्रतिकूल चलने वाले पुरुष (सुखाय) सुख के लिये,(दुःखानि)दुःखों को, (गुणाय) गुण के लिये, (दोषान्) दोषों को और (धर्माय)धर्म पालन के लिये, (पापानि) पापकर्मों को (समाचरन्ति)आचरण में लाते है।
(5) जिन चतुर्विशतिका स्तोत्र श्री भूपाल कवि द्वारा प्रणीत है इसमें छब्बीस पद्य विविध छन्दों में निबद्ध हैं, चौबीस तीर्थकरों की स्तुति होने से यह स्तवन काव्य है। कविवर साहित्य के उच्च कोटि के विद्वान् थे। इसलिये इस स्तोत्र में विविध रुचिर छन्द, अलंकार, गुण, रस और काव्य की रीतियों का सुन्दर समावेश चित्त को आकर्षित करता है। उदाहरणार्थ द्वितीय पद्य प्रस्तुत किया जाता है -
शान्तं वपुः श्रवणहारि वचश्चरित्रं, सर्वोपकारि तव देव ततः श्रुतज्ञाः ।
संसार मारव महास्थल रुद्र सान्द्रच्छायामहीरुह ! भवन्तमुपाश्रयन्ते ॥2॥
अन्वयार्थ - (देव:) हे जिनेन्द्र देव ! (तव) आपका (वपुः) शरीर (शान्तं) शान्त है (वचः) वचन (श्रवणहारि) कानों को प्रिय हैं और (चरित्र) चारित्र अथवा आचरण, (सर्वोपकारि) सबका भला करने वाला है । (तत:) इसलिए (संसार मारव महा स्थल रुद्र सान्द्रच्छाया महीरुह !) हे संसाररूप मरुस्थल में विस्तृत सघन छाया वृक्ष ! (श्रुतज्ञाः) शास्त्रों के जानने वाले विद्वान् पुरुष, (भवन्तं उपाश्रयन्ते) आपका आश्रय लेते हैं।
भावार्थ - मरुस्थल प्रदेशों में छायावाले वृक्ष बहुत कम होते हैं इसलिए मार्ग में रास्तागीरों को बहुत तकलीफ होती है। वे थके हुए रास्तागीर जब किसी छायादार वृक्ष को पाते हैं तब बड़े खुश होते हैं और उसकी सघन शीतल छाया में बैठकर अपना सब परिश्रम भूल जाते हैं। इसी तरह संसाररूप मरुस्थल में आप जैसे शीतल छायादार वृक्षों की बहुत कमी है, इसलिए मोक्षनगर को जाने वाले पथिक रास्ते में बहुत तकलीफ
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उठाते हैं, पर जब उन्हें आप जैसे छायादार शीतल वृक्ष की प्राप्ति हो जाती है तब वे बहुत ही खुश होते हैं और आपके आश्रय में बैठकर अपने सब दुःख को भूल जाते हैं । एक अन्य भक्तामर स्तोत्र नाम की पुस्तक काश्री पं. पन्नालाल जी सा.ने सम्पादन किया है। जिसमें श्रीचन्द्रकीर्ति कृत संस्कृत टीका, श्री गिरिधर शर्माकृत हिन्दी पद्यानुवाद, स्वकृत अन्वयार्थ तथा भावार्थ का समावेश है। इस पुस्तक का प्रकाशन श्रीसन्मति कुटीर, चन्दावाड़ी सी.पी. टेंक, बम्बई नं. 4 से हुआ है।
__ पंचस्तोत्रसंग्रह का प्रकाशन स्व. सेठ किशनदास पूनमचन्द्रजी कापड़िया (सूरत) स्मारक ग्रंथमाला नं. 3 के द्वारा हुआ हैं।
भक्तामर स्तोत्र इतना प्रिय और मनोहर है कि इसके प्रत्येक पद्य के चतुर्थ चरण को समस्या की पूर्ति के रूप में लेकर, संस्कृत कवि श्री मुनिरत्न सिंह जी ने संस्कृत में 'प्राणप्रिय काव्य' की रचना कर दी है। श्रीनेमिनाथ और श्री राजुलमती के विरह को इस प्राणप्रिय काव्य का वर्णनीय विषय बनाया गया है और मास्टर छोटेलाल जैन ने इसका हिन्दी पद्यानुवाद किया है । उदाहरणार्थ, एक नवम पद्य प्रस्तुत है -
नेत्रामृते सुहृदिनाथ निरीक्षतेऽपि, हृष्यन्ति यद्भुवि विशोऽत्र किमद्भुतं तत् । मित्रोदयेऽपि च भवन्ति विचेतनानि, “पद्माकरेषु जलजानि विकासभाजि ॥१॥ स्वामी सुधानयन के तुम हो स्नेही, तो क्यों नहीं मुदित हो नर देखके ही । सूखे हुए कमल ही जल - आशयों के, होते प्रफुल्ल लखि ज्यों रविमित्र को वे ॥10॥"
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
समीक्षा
सर्वतोभद्र विधान का अनुशीलन
श्री पूज्य ज्ञानमती माता जी द्वारा प्रणीत इस विधान का नाम 'सर्वतोभद्र विधान' प्रसिद्ध है। इस विधान का नाम इस कारण सार्थक है कि इसमें तीन लोकों के सम्पूर्ण अकृत्रिम एवं कृत्रिम चैत्यालयों का विस्तृत पूजन लिखा गया है। इस विधान के अनुशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि पूज्य माताजी ने स्वकीय श्रुतज्ञान के द्वारा तीनों लोकों के सम्पूर्ण चैत्यालयों के भावपूर्वक दर्शन कर लिये है अतएव आप लोकत्रय के सम्पूर्ण चैत्यालयों के विस्तृत वर्णन, दर्शन, पूजन एवं लेखन करने में समक्ष हो सकी हैं, यह वृत्त दुर्लभ और स्मरणीय है। शास्त्रों में इस विधान का एक नाम 'चतुर्मुखयज्ञ' भी प्रसिद्ध है इसको महामुकुट नरपतियों द्वारा बड़ी योजना एवं समारोह के साथ किया जाता है।
__इस महाविधान के प्रारंभ में हिन्दी मंगलाचरण,संस्कृतस्वस्तिस्तव, मंगलस्तव (प्राकृत) सामायिकदण्डक, धोस्सामिस्तव और संस्कृत चैत्यभक्ति का पाठ दर्शाया गया है। इस विधान में सम्पूर्ण 101 पूजाएँ, उनमें 1811 अर्ध्य और 190 पूर्णायं इस सर्व सामग्री के द्वारा तीन लोकों के सम्पूर्ण 85697481 अकृत्रिम चैत्यालयों का अर्चन किया गया है। 797 पृष्ठों में समाप्त हुए इस महाविधान में 37 प्रकार के छंदों में विरचित 4230 सुन्दर पद्य त्रिलोक के चैत्य एवं चैत्यालयों की महत्ता एवं पूज्यता को घोषित कर अंतिम परमात्मपद की प्राप्तिरूप फल को दर्शाते है। इस महा पूजा में सविधि प्रयुक्त महाध्वजाएँ एवं 108 लघुध्वजाएँ अमूल्य सिद्धांतों को, समर्पित 108 स्वस्तिक विश्वकल्याण को घोषित करते है। जिस प्रकार लोकोक्तिरूप में विधाता ने जगत्त्रय की रचना कर तीन लोक में अपना अधिकार स्थापित कर लिया है। उसी प्रकार विधान की विधात्री ने वृहत् तीन लोक विधान की रचना कर जगत् के विधान (राजनीतिशास्त्र अथवा पूजा विधानशास्त्र) में अपना अधिकार चिरस्थायी कर लिया है यह आश्चर्य है । माताजी ने वी.नि.सं.2513 में यह त्रिलोक विधान समाप्त कर स्वकीय मानव जीवन को उच्च श्रेणी में उज्जीवित किया है।
विधान की विशेषता के कतिपय उद्धरण इस प्रकार हैं - पूजाक्रमांक 1 त्रैलोक्यपूजा के जल अर्पण करने का पद्य -
भर जावे पूरा त्रिभुवन भी, प्रभु इतना नीर पिया मैंने, फिर भी नहीं प्यास बुझी अब तक, इसलिए नीर से पूँजू मैं । त्रैलोक्य जिनालय जिनप्रतिमा कृत्रिम अकृत्रिम अगणित है, अर्हन्त सिद्ध साधु आदिक, इन सब की पूजा शिवप्रद है ॥1॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शुभ एवं भावसौन्दर्य से पूर्ण इस पद्य पर विचार किया जाये तो गंभीर अर्थ ज्ञात होता है - जैसे कोई रोगी रोगविनाशार्थ डॉक्टर के पास जाता है, डॉक्टर दवा देता है,दवा सेवन से जब लाभ नहीं तब रोगी पुनः ऊँचे डॉक्टर के पास जाता है। और कहता है कि 7 दिनों में दवा से कोई लाभ नहीं। आप इससे ऊँची दवा दीजिये। डॉक्टर ने ऊँची दवा दे दी। रोगी ने ऊँची दवा के सेवन से अपना रोगनाश किया और स्वस्थ हो गया। उसी प्रकार इस जगत् के प्राणी ने तृषारोग की दवा जल किसी डॉक्टर से ली, जब रोगी ने बहुत जल पिया और प्यास शांत नहीं हुई तो वह ऊँचे डॉक्टर परम गुरु के पास गया और जल सामने रखकर कहा - गुरुदेव ! इस जल से प्यास शांत नहीं हुई, दूसरी कोई ऊँची दवा कहिये , तब गुरुदेव ने समतारूपी जल दिया और उससे वह स्वस्थ हो गया। इसी प्रकार इस पद्य में भी यही भाव दर्शाया गया है।
शम्भू छंद से शोभित यह पद्य विशेषालंकार समाधि गुण वैदर्भी रीति, सिद्ध लक्षण और भारती वृत्ति से अनुप्राणित होकर भक्ति रस की सरिता को प्रवाहित कर रहा है। पूजा नं. 91 की जय माला का 14 वाँ पद्य पृ. 799 का भावसौन्दर्य -
जिन भक्ति गंगा महानदी, सब कर्ममलों को धो देती, मुनिगण का मन पवित्र करके तत्क्षण शिवसुख भी दे देती। सुरनर के लिए कामधेनु, सब इच्छित फल को फलती है,
मेरे भी ज्ञानमती सुख को पूरण में समरथ बनती है ॥ भावसौन्दर्य -
__जिनेन्द्र भक्ति रूपी गंगानदी, द्रव्यकर्म,भावकर्म नोकर्मरूपी मल का प्रक्षालन करती है । आचार्य, उपाध्याय, मुनि एवं आर्यिकाओं के मन को पवित्र कर सहसा मुक्ति सुख को प्रदान करती है, देवों और मानवों के लिए इच्छित श्रेष्ठफल को प्रदान करती है। और ज्ञानमती आर्यिका के क्षायोपशमिक ज्ञान एवं सुख को क्षायिक सुख एवं ज्ञान को करने में समर्थ है । इससे सिद्ध होता है कि वास्तविक जिनेन्द्र भक्ति से विश्व की भव्य आत्मा ही परमात्मपद को प्राप्त करती है।
इस पद्य में रूपकालंकार, तद्गुणालंकार के प्रभाव से शांतरस की शीतलता प्रवाहित होती है उदारता गुण, पांचालीरीति सिद्धि लक्षण, भारतीवृत्ति की पुट से शांतरस का फब्बारा धुंआधार चल रहा है । पूजा नं. 87 ग्रह जिनालय पूजा पृ. 761 का 7 वाँ पद्य -
जिन भक्ति अकेली ही जन के, सब ग्रह अनुकूल बना देती, जिन भक्ति अकेली ही जन को दुर्गति से शीघ्र बचा लेती । जिन भक्ति अकेली ही जन के, तीर्थकर आदि पुण्य पूरे,
जिन भक्ति अकेली ही जन को शिवसुख देकर भवदुख चूरे ॥ शंभुछंद में चिरचित इस पद्य का यह चमत्कार पूर्ण अर्थ द्योतित होता है कि कारण एक मात्र जिन
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भक्ति है और उसके कार्य चार है - 1. ग्रहों की शांति, 2. दुर्गति से सुरक्षा, 3.तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि उच्च पद प्राप्ति, 4. भक्तिपद की सम्प्राप्ति । विशेष यह की जिनेन्द्र भक्ति इतना प्रबल एक कारण है कि उससे अनेक महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध होते है। द्वितीय चमत्कार यह प्राप्त होता है कि जिन भक्ति रूप श्रेष्ठ कारण किसी स्थान पर विद्यमान है और कार्य किन्हीं अन्य स्थानों पर होते हैं यह चमत्कार साहित्य के असंगति अलंकार से अलंकृत होता है। इस विशिष्ट अर्थ से भक्ति रस और शांतरस का समंवय सिद्ध होता है। काव्य की अन्य सामग्री का भी इसमें समावेश हो जाता है। पूजा नं. 48 मंदरमेरूपूजा, जयमाला, पद्य नं. 7 पृ. 433 का उद्धरण -
गुणगण मणिमाला, परमरसाला, जो भविजन निजकण्ठ धरें।
वे भवदावानल शीघ्र शमनकर, मुक्तिरमा को स्वयं वरें। घत्ताछंद में निबद्ध इस पद्य में रूपकालंकार, परिकरालंकार की संसृष्टि से अन्य सामग्री के सहयोगपूर्वक शांतरस की वर्षा हो रही है। अनुप्रास नाम अलंकार भी शब्दों में अपना चमत्कार प्रदर्शित कर रहा है।
तीन लोक विधान का समीक्षात्मक परिशीलन
इस विधान का प्रथम नाम 'तीन लोक विधान' प्रसिद्ध है इसका द्वितीय अभिधान 'मध्यम तीन लोक विधान' निश्चित किया गया। यह विषय तो पौराणिक, सैद्धांतिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से प्रसिद्ध है कि यह लोक अत्यंत विशाल है। परिमाण से 343 राजू घनाकार है। इतने विशाल लोक का श्रुतज्ञान से अवलोकन कर उसके चैत्य एवं चैत्यालयों का वर्णन, पूजन, भजन, वृहत्-मध्यम-लघु रूप में कर देना अर्थात् तीन विधानों का सृजन करना यह विधात्री माताजी के ज्ञान की विलक्षण प्रतिभा समझना महान् आश्चर्य का विषय है, यह तो दीपक के द्वारा सूर्य की पूजा करना है। वी.नि.सं. 2513 में इसकी रचना पूर्ण होकर 2514 में यह प्रकाशित हो गया। इस विधान में कुल 64 पूजाएँ, 884 अर्ध्य एवं 140 पूर्णायं लोकत्रय के चैत्य-चैत्यालयों का अर्चन करते हैं, 65 जयमालाएँ परमात्मा के श्रेष्ठगुणों का चिंतन करने में संलग्न है ।इस विधान का द्रव्य शरीर 35 प्रकार के छंदों में निबद्ध 2448 पद्य प्रमाण हैं, जो पद्य संगीत की रम्य स्वरलहरी लहराते हए जनता द्वारा ज्ञेय एवं ध्येय है, नियमत: पद्य भक्त भव्यों के स्वांत सरोज को प्रफुल्लित करते है।
इस विधान के कतिपय रम्प पद्यों का उद्धरण - मंगलाचरण का आठवाँ पद्य :
मैं यही परोक्ष भावपूर्वक कर जोड़ शीश नावू वन्दूं, जिनमंदिर जिनप्रतिमाओं को मैं वन्दू कोटि कोटि वन्दूं । जिनवर की भक्तिगंगा में अवगाहन कर मल धो डालूँ ॥ निज आत्मसुधारस को पीकर चिन्मय चिन्तामणि को पालूँ ॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
शंभु छन्द में निबद्ध इस पद्य में विधानविधात्री माता जी ने ग्रन्थरचना का कारण ओर कारण का कारण भी स्पष्ट लिख दिया है । अर्थात् प्रथम अंतरंग कारण है अकृत्रिम एवं कृत्रिम चैत्य - चैत्यालयों का विशुद्धभावपूर्वक दर्शन-वंदन - पूजन - नमन है । वीतराग परमात्मा की भक्तिगंगा में कर्ममल का प्रक्षालन शुद्धात्मसुधारस का पान और शुद्ध चैतन्य चिंतामणि को प्राप्त करना । द्वितीय बहिरंग कारण ग्रन्थ की रचना कर प्राणियों का कल्याण करना ।
इस पद्य में कारणमाला एवं रूपकालंकार की संसृष्टि से और प्रसाद गुण, पांचलीरीति, सिद्धिलक्षण, भारतीवृत्ति इस काव्य की सामग्री से शांत सुधारस का शीतल प्रवाह भक्तजनों को आनंदित करता है । पूजा नं. 1 - णमोकार महामंत्रपूजा की जयमाला का 9 वाँ पद्य :
,
इस मंत्र के प्रभाव श्वान देव हो गया इस मंत्र से अनंत का उद्धार हो गया । इस मंत्र की महिमा को कोई गा नहीं सके,
इसमें अनंत शक्ति पार पा नहीं सके |
दीनबंधु की चाल में निबद्ध इस पद्य में महामंत्र की महिमा का वर्णन किया गया है । उदात्तालंकार ने - इसकी महिला को उदात्त रमणीय बना दिया है। भारतीवृत्ति, वैदर्भीरीति कार्यलक्षण, प्रसादगुण के आलोक में शांतरस की शीतल वृष्टि इस पद्य उद्यान में की गई है ।
पूजा नं. 61, नव अनुदिश जिनालय पूजा, जयमाला पद्य - · 6 वाँ :सोहं शुद्धोहं सिद्धोहं, चिन्मय चिंतामणि रूपोहं, नित्योहं ज्ञानस्वरूपोहं, आनंत्यचतुष्टय रूपोहं । मैं नित्य निरंजन परमात्मा का ध्यान करूं गुणगान करूं, सोहं सोहं रटते रटते, परमात्म अवस्था प्राप्त करूं ॥
यह पद्य शंभुछन्द में निबद्ध होकर भी शुद्धात्मा का अबद्धरूप से आख्यान करता है । आत्मा से परमात्मा बन जाने का यह सहज ही मार्ग दर्शाता है।
स्वभावोक्ति अलंकार आत्मा को स्वभाव से ही अलंकृत करता है। समता और समाधिगुण शब्दार्थ चमत्कार है। लाटी या रीति शब्दों की क्लिष्टता को दर्शाती है । निरूक्त लक्षण शब्दों की निरुक्ति का कथन करती है और भारतीवृत्ति भारत में भारतीयों को शांत एवं वीररस का संदेश दे रही है। इन उद्धरणों से यह प्रतीत होता है कि माताजी की काव्य शक्ति प्रतिभा सम्पन्न है । वस्तुतः वे विधान काव्य की विधात्री स्मरणीय है ।
प्रत्येक पूजा के अंत में आशीर्वाद पद्य, पुष्पांजलि पद्य और शांतिधारा पद्य सप्रयोजन कथित है। आप संस्कृत साहित्य की भी विदुषी होकर संस्कृतकाव्य का सृजन करती है। इस विधान में प्रारंभ मंगलरूप में संस्कृत मंगलाष्टक स्तोत्र और चैत्यभक्ति का दर्शन आप ने कराया है। अन्य पूजा विधानों में भी आर्यिका जननी ने भाषा जननी में काव्यों एवं स्तोत्रों की रचना कर विद्वानों का मानस प्रमुदित किया है।
तीनों विधानों के अंत में कु. माधुरी शास्त्री द्वारा (वर्तमान में श्री आ. चंदनामती) आरती एवं भजन माध्यम से स्वकी मधुर भक्तिभाव दर्शाया गया है ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ त्रैलोक्य तिलक विधान का समीक्षात्मक अनुशीलन
(ज्ञानमति माता जी अभिनंदन ग्रंथ देखिये)
"मूक माटी समीक्षा" पं. मुन्ना लाल रांधेलिया स्मृति ग्रन्थ देखिये
आचार्य कुन्दकुन्द की विशेषतायें
अभियान पंचक आचार्य: कुन्दकुन्दाख्यो वक्र गीवो महामति: । एलाचार्यों गृद्धपिच्छ. , पद्मनन्दी वितन्यते ॥1॥
अनेकान्तपत्रिका - किरण 2 - देहली जैन सिद्धांत भास्कर भाग 1, किरण - 4 में शक सं. 1307 का, विजयानगर का एक अभिलेखांश प्रकाशित हुआ है। जिसमें लिखा है -
आचार्य: कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः ।
एलाचार्यो गृद्धपिच्छ: इतितन्नाम पंचधा ।। पद्यनन्दी, 2 कुन्दकुन्द, 3 वक्रगीव, 4 एलाचार्य, 5 गृद्धपिच्छा ये 5नाम आचार्य कुन्दकुन्द के दर्शायें है परन्तु पद्मनन्दि - यह नाम उक्त श्लोक में नहीं है। महामुनि यह पद उनके विशेषण के रूप में निर्दिष्ट है इससे पद्मनन्दि का ग्रहण नहीं हो सकता।
___ कुन्दकुन्द रचित षट् प्राभृतों के टीकाकार श्रुतसागर आचार्य ने प्रत्येक प्राभृत के अन्त में जो पुष्पिका अंकित की है उसमें आप के 5 नामों का निर्देश है - 1 पद्मनन्दि, 2 कुन्दकुन्द, 3 वक्रग्रीव, 4 एलाचार्य, 5 गृद्धपिच्छ ।
___ 'डा. हार्न ले' ने दिगम्बर पट्टावलियों के विषय में एक निबंध लिखा है जिसमें उन्होंने कुन्दकुन्द के पाँच नाम दर्शाये हैं अतः इतना स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द के दो नामों की प्रवृत्ति तो नि:संदेह रहीं है पर शेष 3 नामों के विषय में विवाद है 1 वक्रग्रीव, 2 एलाचार्य , 3 गृद्धपिच्छ।।
यद्यपि शिलालेखों में ये 3 नाम आते हैं परन्तु ये कुन्दकुन्द के ही नामानार हैं यह सिद्ध नहीं होता। पद्यनन्दि नाम का निर्देश - इन्द्रनन्दि आचार्य ने अपनी श्रुतावतारकथा में किया है -
तस्यान्वये भूविदिते वभूव, यः, पद्मनन्दि प्रथमाभिधान :। श्री कोण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यः, सत्संयमादुद्गत-चारणर्द्धि: ।।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ___ इस पद्य से स्पष्ट है, कि आपका प्रथमनाम - पद्मनन्दि । द्वितीयनाम - ‘कुन्दकुन्द' जन्मस्थान के नाम पर प्रसिद्ध हुआ। प्रसिद्धि के कारण - ज्ञान प्रबोधग्रन्थ के आधार पर -
मालव देश के बारांपुर नगर में कुमुदचंद्र नृपराज्य करता, रानी का नाम कुमुदचन्द्रिका । इसी राज्य में श्रेष्ठीकुन्द अपनी पलीकुन्दलता के साथ निवास करता था । इनका पुत्र - कुन्दकुन्द शैशव से ही गंभीर, चिन्तनशील प्रतिभाशाली, नगर के एक उद्यान में दिगम्बर मुनिराज का धर्मोपदेश सुन कर 11 वर्षीय कुन्दकुन्द श्री जिनचंद्र से दीक्षा लेकर दि. मुनि हो गया। 33 वर्ष की दशा में आचार्य पद प्राप्त दिया। माता का सम्बोधन
शुद्धोसि बुद्धोऽसि दिगम्बरो ऽसि, संसार माया परिवर्जितोऽसि ।
संसारमायां त्यज मोहनिद्रां, श्री कुन्दकुन्दं जननी दमूचे ॥ द्वितीयघटना -
एकदा श्री कुन्दकुन्द आचार्य आगमग्रन्थों का स्वाध्याय कर रहे थे, इसी समय उनके हृदय में एक तत्त्वविषया शंका उत्पन्न हुई। उन्होंने पूर्वविदेह क्षेत्र में विराजमान सीमन्धर स्वामी के प्रति ध्यान लगाया। सीमन्धर स्वामी ने आशीर्वाद दिया - ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु' । यह सुनकर समवशरण में स्थित व्यक्ति आश्चर्यान्वित । उन्होंने प्रश्न किया - कि आपने किसको आशीर्वाद दिया है ! सीमन्धर स्वामी - भरतक्षेत्र में स्थित कुन्दकुन्द मुनि को आशीर्वाद दिया है। वहाँ पर विद्वान कुन्द कुन्द के पूर्वजन्म के चारणऋद्धि धारी दो मित्रमुनि वार्ता सुनकर वारांपुर गये और वहाँ से आकाशमार्ग द्वारा वे कुन्दकुन्द को विदेह में सीमंधर स्वामी के निकट ले आये।
आकाशमार्ग से जाते समय उनकी मयूरपिच्छी नीचे - गिर गई, अत: गृद्धपिच्छी से अपना निर्वाह किया । कुन्द कुन्द वहाँ एक सप्ताह रहे । उपदेश श्रवण कर शंका समाधान किया । लौटते समय वे एक मंत्रतंत्र का ग्रन्थ भी अपने साथ लाये, परन्तु वह मार्ग में (लवण समुद्रे) गिर गया।
कुछ समय उपरान्त आ. कुन्दकुन्द का गिरिनार पर्वत पर श्वेताम्बर जैनों के साथविवाद हो गया । वहाँ की ब्राह्मी देवी के मुख से यह घोषित कराया गया कि दिगम्बर निग्रंथ मार्ग ही प्राचीन यथार्थ है विजय प्राप्त हुई।
अन्त में उन्होंने स्व. आचार्य पद स्वशिष्य उमास्वाति को प्रदान किया और समाधिपूर्वक शरीर त्याग किया।
कुन्दकुन्द के जीवन परिचय के संबंध में इतिहासज्ञों ने सर्वसम्मति से जो निर्णय किया है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है, कि आप दक्षिण भारत के निवासी, पिता का नाम कर्मण्डु, माता का नाम
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्रीमती, स्थान जन्म 'कोण्डकुन्दपुर', इस ग्राम का इतर नाम 'कुरुमरई', जिले का नाम पेदथनाडु । इनदम्पती के बहुत दिनों तक कोई सन्तान नहीं हुई। कुछ समय पश्चात् एक तपस्वी मुनि को दान देने के प्रभाव से पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका कुन्दकुन्द नाम रखा गया - जन्मस्थान के नामानुसार । बाल्यावस्था से ही कुन्दकुन्द प्रतिभाशाली और विद्वान थे। ग्रन्थस्वाध्याय में इनका समय अधिक व्यतीत होता था । युवावस्था में आपने मुनिदीक्षा ग्रहण कर आचार्य पद को प्राप्त किया था। आ. कुन्दकुन्द स्याद्वादी थे -
इदि णिच्छय - ववहारं जं भणियं कुन्दकुन्द मुणिणाहे ।
जो भावई सुद्धमणो, सो पावई परमणिव्वाणं । इस प्रकार कुन्दकुन्द आचार्य ने निश्चय और व्यवहार का अवलम्बन लेकर जो कथन किया है। उसकी शुद्धहृदय से जो भावना करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। देव सेन ने भी दर्शनसार में आचार्य पद्मनन्दि की (कुन्दकुन्द की) प्रशंसा करते हुए लिखा है,
जइ पढमणंदिणाहो, सीमंधर सामि दिव्वणाणेण ।
ण विबोहड़ तो समणा, कहं सुमग्गं पयाणंति ॥ भावसौन्दर्य - पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द) स्वामी ने विदेह के सीमंधर स्वामी से दिव्यज्ञान प्राप्तकर अन्य मुनियों को प्रबोधित किया। यदि वे इस मुनिसंबोधन कार्य को न करते तो श्रमण किस प्रकार सुमार्ग को प्राप्त करते। समयसार में पीठिका के 14 गाथाओं का सार - 1. मंगलाचरण एवं ग्रन्थारंभ की प्रतिज्ञा -1 2. स्वसमय और परसमय में भेद 2-5
शुद्ध और अशुद्धनय के ज्ञाता - 6-7 उपदेश में व्यवहारनय की उपादेयता -8 व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक है - 9-10 दर्शन - ज्ञान चारित्र से आत्मा का अभेद और - आत्मभावना से निर्वाण की प्राप्ति 11-12 व्यवहार अमूतार्थ एवं निश्चयनय भूतार्थ - 13 उपदेश में निश्चय एवं व्यवहारनय की सीमा 14
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सेवा का महत्त्व
सेवा शब्द के कहने या सुनने से सहसा मानव चौंक पड़ते हैं कि अरे "गुलामी " ? नौकरी ? जब कोई व्यक्ति किसी से यह कहता है कि तुम सेवा करो, तो वह उसको कड़े शब्दों में कहता है - "हम एक इज्जतदार मी आदमी हैं, हम से गुलामी की कहते हो ? सेवा करके हम अपनी इज्जत धूल में नहीं मिला सकते।” एक समय किसी युवक ने अपने पड़ोसी से कहा कि तुम बड़े अच्छे सेवक हो, तो वह आग बबूला हो गया और बोला कि “तुम गुलाम और तुम्हारे बाप गुलाम, हमसे ऐसी बातें न किया करो।" उस व्यक्ति को इस बात का दुख हुआ कि इसने सेवा और सेवक के अर्थ को नहीं समझा है, इसलिए इतना उखड़ता है | जब उसने उस व्यक्ति को सेवा का अर्थ और महत्व समझाया ।
सेवा शब्द सुनकर इतना उखड़ने तथा ताव कसने की जरूरत नहीं है। पर उसको बुद्धि से समझने की जरूरत है । साहित्यग्रन्थों में या अन्यग्रन्थों में सेवा शब्द के अनेक अर्थ विवक्षावश क्यों न दर्शाये गये हों पर सेवा शब्द का प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण अर्थ उपकार, उपग्रह या भलाई ही प्रसिद्ध है। दूसरे शब्दों में संगति करना, अच्छे कर्तव्यों का मनसा वाचाकर्मणा आचरण करना, भक्ति करना, गुणों का स्मरण करना, प्रशंसा करना आदि कर्त्तव्य सेवा के विशाल क्षेत्र में अन्तर्गत हो जाते है । व्याकरण में भज् धातु का अर्थ सेवा कहा गया है जिसके प्रयोग अनेक अर्थो में मिलते है। जैसे 'हरि भजति' अर्थात ईश्वर की भक्ति करता है ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
‘त्रिवर्ग भजन्‘= धर्म अर्थ काम पुरुषार्थ का आचरण करने वाला । 'ईश्वरं गुरुं च भजस्व' = ईश्वर की उपासना करो। और गुरू की सेवा तथा विनय करो । श्रावक के अतिथि संविभाग या वैयावृत्य नामक व्रत भी सेवा का अर्थ ध्वनित होता है। श्री आचार्य समन्तभद्रजी ने कहा है -
व्यापत्ति व्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योपि संयमि नाम् ॥1॥
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक 112) अर्थ- भक्ति पूर्वक संयमी पुरूषों की विपत्तियों को दूर करना, शारीरिक सेवा करना, रक्षा करन आदि उपकार करना वैयावृत्त्य है ।
सेवा शब्द से दान अर्थ भी ध्वनित होता है इसका प्रमाण भी देखिये -
दानं वैयावृत्त्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोप चारो पक्रियमगृहाय विभवैन ॥ 2 ॥
( रत्नकाण्ड श्रा. श्लोक 11) भावार्थ - गुणी धर्मात्मा व्यक्तियों को स्वार्थ की भावना के बिना भक्तिपूर्वक भोजन आदि वस्तुओं को प्रदान करना वैयावृत्त्य है ।
जैन धर्म में चार दत्ति का विधान भी सेवा के लिये ही है इनसे गृहस्थों का और महात्माओं का भला
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ होता है। चार दत्ति इस प्रकार हैं। 1. पात्रदत्ति- सत्पात्रों की सहायता करना । 2. समक्रियदत्ति- यथाशक्ति परस्पर कन्या, धन वस्त्र भूमि आदि का उपकार वुद्धि से प्रदान करना । 3. अन्वयदत्ति- योग्यपुत्र, दत्तकपुत्र. भाई आदि का यथायोग्य वंश एवं सम्पत्ति का उत्तराधिकार प्रदान
करना। दयादत्ति- दया भाव से अकालपीड़ित, आकस्मिक उपद्रवों से पीड़ित युद्धपीड़ित, रोग पीड़ित अनाथ, धनहीन विधवा आदि को तथा पशु पक्षियों को भोजन, वस्त्र, औषधि आदि का प्रदान करना दत्ति का चौथा प्रकार है । ये सब कर्त्तव्य सेवा के अन्दर आ जाते है।
सेवा का अर्थ किसी विवज्ञा से नौकरी या गुलामी भी होता है पर उसका यहां कोई आदर नहीं। उसका जीवन में कोई महत्त्व नहीं है। सेवा और गुलामी में बहुत बड़ा अन्तर है - सेवा स्वतंत्र धर्म है उससे अपना तथा अन्य का हित होता है और गुलामी एक पराधीन विडम्बना है उसे हितकारी नहीं कह सकते हैं। सेवा का लक्ष्य और क्षेत्र विशाल है। गुलामी का लक्ष्य और क्षेत्र संकुचित है। इससे सिद्ध होता है कि कल्याण की भावना से जो कार्य किया जाता है वह उपकार, सेवा या उपग्रह है। जो कार्य कल्याण की भावना से हीन है वह गुलामी, नौकरी या स्वार्थसिद्धि है।
मानव जीवन में सेवा धर्म की महती आवश्यकता है, कारण यह है कि संसार में या देश में कोई भी मानव सर्वगुण और सर्व वस्तुओं से सम्पन्न नहीं है । उसको हर समय और हर क्षेत्र में यथायोग्य किसी न किसी वस्तु की आवश्यकता बनी रहती है। उसकी पूर्ति के लिये सेवा धर्म ही बड़ा निमित्त है जिसके बल से आवश्यकता की पूर्ति होती है। जैसे भूखे को भोजन की, मूर्ख को ज्ञान की गृहहीन को घर की, वस्त्रहीन को वस्त्रों की, रोगी को दवा की, निर्धन को धन की, निर्बल को बल की, और पतित को उत्थान की , आवश्यकता होती है । इसलिये इन सब की पूर्ति सेवा द्वारा होती है, इसलिये प्रत्येक मानव को अनेकों उपायों से सेवाधर्म प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये । बिना सेवा व्रत के मनुष्य स्वपर कल्याण नहीं कर सकता है अत: आचार्यो ने सेवा का अंग दान को गृहस्थों का दैनिक कर्त्तव्य कहा है। भगवत्पूजन करना भी एक प्रकार की सेवा है जो वैयावृत्त्य या अतिथि संविभागवत में अपना स्थान रखती है।
पदार्थो की विवक्षा से सेवा के अनेक भेद हैं जैसे आत्म सेवा, गृह सेवा, कुटुम्ब सेवा, ग्राम सेवा, देश सेवा, विश्व सेवा, समाज सेवा,प्राणि सेवा, आदि। प्रथम मानव को सत्यविश्वास, ज्ञान और आचरण द्वारा आत्म सेवा करना चाहिये और अपने को शक्तिशाली बनाकर सेवा का क्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ाते जाना चाहिये । श्री महात्मा गांधी की यही शैली थी। उन्होंने प्रथम आत्म बल प्राप्त कर आत्म सेवा की, पश्चात् बढ़ते हुए विश्व सेवा का व्रत ले लिया ।'वसुधैव कुटुम्बकम् तथा सत्त्वेषु मैत्री ' की भावना ने ही उनको महात्मा बना दिया।
सेवा धर्म महान् है नीतिकारों ने कहा भी है - "सेवा धर्म: परमगहनो योगिनामप्यगम्य:" अर्थात्सेवा धर्म श्रेष्ठ और महान है जो मुनियों को भी प्राप्त करने के लिये कठिन है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सेवा है जग में सुखभूल ।
इसे न जाना मानव भूल ॥ समाज सेवा देश सेवा और धर्म सेवा से ही तीर्थंकरों ने, ऋषियों ने और शासकों ने लोक कल्याण किया था । पौराणिक कथाएँ और भारतीय इतिहास इसके प्रमाण है।
आप यह न विचारें कि सेवा से कोई लाभ नहीं है। देखिये सेवा से अनेक फल दिखाई देते हैं । सेवा से जीवन पवित्र और महान् होता है देश में यश फैलता है । अन्याय दूर होते हैं। जीवन के कार्य अच्छे ढंग से होते हैं , आवश्यकता की पूर्ति होती है। देश-समाज धर्म की उन्नति होती है। बिना सेवा के मनुष्य महान् नहीं बन सकता । कहा भी है -
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥1॥ आज के युग में समस्त नर-नारियों को देश और समाज की सेवा के लिये सदा तैयार रहना चाहिये। हमारी अनेक समस्याएँ सेवा भावी व्यक्तियों से ही सुलझ सकती हैं। स्थान-स्थान पर सेवादल, व्यायामशाला
और पुस्तकालय स्थापित होना जरूरी है। अब वह समय आ गया है कि आलस और आपसी फूट को दूर कर रक्षा के कार्यो में हम सब दिनरात खड़े रहें। राष्ट्रीय क्षेत्रों में जी जान से भाग लेना चाहिये । सेवा को बढ़ाने के लिये राजनीति भी एक उपयोगी साधन है। इस समय हम सबको क्या चाहिये ?
जिसके हों ऊंचे विचार पक्के मन सूबे । जो होवे गम्भीर भीर के परे न ऊबे ॥ हमें चाहिये आत्मत्यागरत ऐसा नेता । रहें लोकहित में जिसके रोये तक डूबे ॥1॥
नैतिक शिक्षा अत्यावश्यक
मानव के अन्तर और बाह्य जीवन को पवित्र बनाने के लिए नैतिक (धार्मिक) शिक्षा की अति आवश्यकता है । यह शिक्षा सुयोग्य गुरू के बिना होना असंभव है। इसलिए योग्य गुरू के निकट मानव को विद्याभ्यास करना चाहिए। मानव का सर्वप्रथम गुरू माता है जो कि बालक को गर्भ की अवस्था से ही शिक्षा प्रदान करती है। माता जैसा भोजन करे, बालक पर भी वैसा प्रभाव होता है। अतिगर्म, मिर्च आदि से चटपटे, प्रकृति के प्रतिकूल और मादक भोजन से गर्भस्थ शिशु को कष्ट होता है। इसलिए माता को शुद्ध, ताजा, अनुकूल सात्त्विक भोजन करना आवश्यक है। माता के भोजनांश से शिशु का शरीर पुष्ट होता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ___ माता के विचारों का प्रभाव भी गर्भस्थ शिशु पर अवश्य होता है, इसलिए माता को धार्मिक ग्रन्थों का, वीरपुरुषों के जीवन चरित्रों का, प्रथमनुयोग के शास्त्रों, नैतिक ग्रन्थों का अध्ययन करना जरूरी है। अभिमन्यु जब गर्भ में था तब माता वीरों के चरित्रों का, युद्ध कला का अध्ययन करती थी। एक समय युद्ध कला के दृश्य में माता ने चक्रव्यूह की रचना और उसमें प्रवेश का दृश्य जागृत दशा में तो देख लिया था परन्तु चक्रव्यूह से निकलने के समय उस कला को, नींद लग जाने के कारण माता ने नहीं देख पाया, इसका प्रभाव भी गर्भस्थ अभिमन्यु पर स्थिर हो गया, अत: वह चक्रव्यूह से न निकल सका और मारा गया |
माता के वचनों का प्रभाव भी गर्भस्थ शिशु पर अवश्य स्थिर होता है । माता यदि अच्छे नैतिक सत्य, शिव, सुन्दर वचन कहती है तो बालक भी अच्छे वचनों का प्रयोग करता है । यदि माता क्रोध भरे कठोर वचन कहती है, गालियाँ बहुत देती है, तो गर्भस्थ शिशु पर भी यह प्रभाव पड़ता है और वे बालक बड़े होने पर क्रोधपूर्ण कठोर वचन कहते हुए स्वाभाविक बहुत गालियाँ बकते हैं।
माता की स्वाभाविक भाषा का प्रभाव भी गर्भस्थ शिशु पर अवश्य होता है। इसलिए योग्य होने पर वे बालक उसी भाषा को बिना पढ़ाये ही बोलने लगते हैं, जैसे अंग्रेजों के बालक अंग्रेजी भाषा को, हिन्दी के बालक हिन्दी भाषा को स्वाभाविक बोलते देखे जाते हैं, इसी प्रकार सभी भाषाओं के बालक अपनी-अपनी जन्म जात भाषाओं का प्रयोग करते हुए प्रत्यक्ष देखे जाते हैं अतएव इस जन्मजात भाषा को मातृभाषा कहते हैं कारण कि इस भाषा को माता ने गर्भ से ही सिखलाई है। इसको पितृभाषा नहीं कहते।
तीर्थंकरों की माता के सभी प्रकार के श्रेष्ठ संस्कार पूर्व जन्म से तथा तत्काल देवियों द्वारा सम्पन्न कराये जाते हैं इसलिये तीर्थंकर जैसे महापुण्यशाली व्यक्ति जन्म लेते हैं। जो गर्भ कल्याणक आदि से विश्व का कल्याण करते हैं। माताओं को वीरपुरुषों के प्रभाव का चित्र देखना जरूरी है, परन्तु टी.वी. सिनेमा आदि के गन्दे चित्र कभी नहीं देखना चाहिए, उन चित्रों का बालकों पर अनैतिक प्रभाव स्थिर होता है।
मानव का दूसरा गुरू पिताजी के रूप में विद्यमान है जो जन्मत: अपने मनसा, वाचा, कर्मणा आचरण से तथा षोडश संस्कारों से अपने पुत्र को सुसंस्कृत करते हैं। संस्कृत ग्रन्थों में प्रमाण है
"जन्मना जायते शूद्रः संस्कारैः द्विन उच्यये"। अर्थात्- विश्वरूप खानि में यह मानव अशुद्ध, अज्ञानी तथा आचार-विचारहीन उत्पन्न होता है, उसका कोई गौरव नहीं होता। परन्तु माता-पिता के शुद्ध आचरण से तथा गर्भाधान आदि षोडश संस्कारों से पवित्र ज्ञानी एवं शुद्ध आचार-विचारवान यह बालक सुसंस्कृत किया जाता है। उसका देश में तथा समाज में सम्मान होता है, जिस प्रकार कि मणि पृथिवी में तथा समुद्र में कालिमा सहित, कान्तिहीन, कुरुप उत्पन्न होता है परन्तु योग्य मशीनों के द्वारा वह मणि संस्कारित प्रभावयुक्त सुन्दर आकृति से सुशोभित होता है तब जौहरी द्वारा बाजार में उसका मूल्यांकन सही हो जाता है। विद्यारंभ संस्कार में कहा गया है- "प्राप्ते तु पंचमे वर्षे विद्यारम्भं-समाचरेत्" । अर्थात् पंचम वर्ष में बालक का विद्यारंभ संस्कार करना चाहिए जो कि प्रतिष्ठाचार्य द्वारा कराया जाता है । पश्चात् बालकेन्द्र में तथा गुरूकुल या विद्यालय में प्रवेश करा कर योग्य
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शिक्षा से सुशिक्षित करना जरूरी है। इन संस्थाओं में सौभाग्य से बालक के तृतीय गुरू शिक्षा प्रदान के लिए मिल जाते हैं। उनमें छात्र श्रम से अभ्यास करें। नीतिज्ञों ने कहा है
__"माता शत्रु: पिता बैरी, येन बालो न पाठित: ।
न शोभते सभामध्ये, हंसमध्ये वको यथा ॥" तात्पर्य यह है कि जिसने बालक को सुशिक्षित नहीं किया या कराया, उस बालक की माता शत्रु है, और पिता बैरी हैं। जैसे कि हंसों के मध्य में बगुला शोभित नहीं होता, उसी प्रकार उस अशिक्षित बालक का देश, समाज और परिवार में कोई सम्मान नहीं होता, किन्तु कुसंगति में असभ्य होने से उसका सर्वत्र तिरस्कार ही होता है । उसको माता-पिता भी नहीं चाहते हैं। नीतिज्ञों का नीतिवचन है
यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य, तिर्यंचोपि सहायताम् ।
अपन्थानं तु गच्छन्तं, सोदरोपि विमुंचति ॥ सारांश- विनयी सदाचारी न्यायी मनुष्य की पशु भी रक्षा करते हैं जैसे सदाचारी ग्वाला की हाथी ने रक्षा की थी । दुराचारी पापी मनुष्य को भाई भी छोड़ देता है जैसे रावण को विभीषण ने छोड़ दिया था और लंका का राज्य प्राप्त कर लिया था। इसलिए मनुष्य को न्याय नीति का मार्ग ग्रहण करना आवश्यक है।
देश के शिक्षालयों में लौकिक विद्याभ्यास का स्तर तो उच्च और उच्चस्तर है, परन्तु नैतिक शिक्षा का स्तर अल्प एवं अल्पतर है, इसलिए उच्च डिग्री प्राप्त करने पर भी छात्रों का धार्मिक एवं नैतिक ज्ञान नहीं के समान है, वे जीवन में अपने कर्त्तव्य के ज्ञान से शून्य होते हैं। इसलिए द्यूत आदि व्यसनों, अन्याय अनीति के मार्गों में प्रवृत्ति कर वे अपने जीवन को भ्रष्टाचारी बना देते हैं। नैतिक शिक्षा
विद्या ददाति विनयं, विनयाददाति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्म तत: सुखम् ॥ सारांश- विद्या विनय को देती है और विनय से विद्या (ज्ञान) प्राप्त होती है । विद्या एवं विनय से मानव सुयोग्य सदाचारी होता है, सुयोग्य होने से धन की प्राप्ति होती है, निर्दोष विद्यावान पुरुष को लक्ष्मी चारों ओर से प्राप्त होती है। परोपकार में तथा ज्ञान दान आदि में धन खर्च करने से धर्म की प्रभावना होती है, समाज का कल्याण हाता है, और धार्मिक प्रभावना तथा समाज कल्याण से जीवन सुख शान्तिपूर्ण होता है। अपरंच - “सा विद्या या विमुक्तये"।
वह ज्ञान सत्य है जो जीवन्मुक्ति या मुक्ति का मार्ग व्यक्त करे अथवा यथार्थ ज्ञान वह है जो दोषों का बहिष्कार कर गुणों को ग्रहण कराने में समर्थ हो।
न चोरहार्यं न च राजहार्य, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं, विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥ सारांश- लौकिक धन को चोर चुरा सकता है परन्तु विद्याधन को चोर चुराने में असमर्थ है । लौकिक धन को राजा टेक्स के रूप में ले सकता है परन्तु ज्ञान धन को राजा टैक्स आदि के रूप में नहीं ले
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सकता । लौकिक धन का भाईयों में बँटवारा हो सकता है, परन्तु ज्ञान-धन का नहीं। लौकिक धन का बोझ हो सकता है परन्तु ज्ञान धन का नहीं, उससे तो आत्मा स्वतंत्र होता है। लौकिक धन खर्च करने पर घटता है परन्तु ज्ञान-धन खर्च करने पर अर्थात् पढ़ाने-लिखाने पर, बढ़ता है नित्य ही। इन सब कारणों से यह सिद्ध होता है कि विद्याधन विश्व के समस्त धनों में प्रधान कहा गया है। छात्रों को इस अक्षय विद्याधन का नित्य अर्जन करना आवश्यक है।
जैन समाज के अन्तर्गत श्री पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी महाराज आदि ने संस्कृत विद्यालय स्थापित किये। उनमें बहुत वर्षों तक संस्कृत, साहित्य-धर्म आदि का उच्च अध्ययन-अध्यापन चलता रहा है । अब वह अध्ययन उच्च स्तर पर नहीं चल रहा है। कुछ विद्यालय इन्टर कॉलेज, हाईस्कूल, मिडिल स्कूल आदि के रूप में परिवर्तित हो गये हैं। कुछ विद्यालयों में छात्र संस्कृत पढ़ना नहीं चाहते हैं अत: संस्कृत एवं धर्म का उच्च अध्ययन पतित होता जा रहा है यह विचारणीय विषय है। जैन हाई स्कूलों में भी प्राय: धर्म का अध्ययन नकारात्मक होता जा रहा है। इस विषय में भी उपेक्षा हो रही है। अत: भगवान महावीर के सिद्धान्तों के प्रचारप्रसार के लिए नैतिक शिक्षा का होना हाईस्कूलों आदि संस्थाओं में अत्यावश्यक है। समाज के कर्णधारों को इस विषय में ध्यान देना जरूरी है।
छात्रों में धार्मिक शिक्षा से ही संस्कार अच्छे हो सकते हैं जो जीवनपर्यन्त जीवन को पवित्र उज्जवल बनाने में समर्थ होते हैं।
"यिन्नवे भाजने लग्न; संस्कारो नान्यथा भवेत्"।
जयोदय महाकाव्य - एक पर्यवेक्षण
श्रमणशिरोमणि, आचार्य प्रवर श्री 108 ज्ञान सागर जी महाराज ने वि.सं. 1983 में 'जयोदय महाकाव्य' अपरनाम 'सुलोचनास्वयंवर' की रचना कर भारतीय साहित्य अथवा संस्कृत साहित्य के निधान को वृद्धिंगत किया है । यह संस्कृतग्रन्थ सामान्य दृष्टि से काव्य भी कहा जा सकता है । और साहित्यग्रन्थ भी कहा जा सकता है। तथाहि 'कवे- भावः कर्तव्यकर्म वेति काव्यम्' अर्थात् जो कवि का भाव है अथवा कर्तव्य कर्म है उसे काव्य कहते है। यह जयोदय महाकाव्य एक विद्वान कवि के हृदय के श्रेष्ठ विचारों का समूह है अथवा एक पौराणिक महापुरूष के कर्तव्य कर्म का निर्देश कारक है । अथवा 'कविना प्रोक्तं इति काव्यम्' अर्थात् विज्ञ कवि के द्वारा जो कहा गया है। वह काव्य है।
इस महाकाव्य को साहित्य ग्रन्थ भी कहा जा सकता है तथाहि 'हितं शब्दार्थ समुदाय: हितकार कत्वात् हितेन सहित: इति सहितः, सहितस्य भावः इति साहित्यं अर्थात् शब्दार्थ समुदाय को हित कहते है क्योंकि वह लोकहितऔर आत्महित करने वाला है, हित से जो युक्त है वह सहित कहा जाता है और सहित के भाव को साहित्य कहते है । इस अपेक्षा से जयोदय महाकाव्य यथार्थ में साहित्य है कारण कि वह साहित्य
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ग्रन्थ लोकहित और आत्महित करने वाला है इसमें वीर पुरूष का चरित्र एक प्रबल प्रमाण है।
अथवा 'साहित्य सम्मेलनम्' अर्थात् रस,छन्द, अलंकार गुण रीति आदि के माध्यम से जहाँ पर शब्दार्थो का उचित सम्मेलन है उसे साहित्य कहते है। इस महाकाव्य में छन्द रस अलंकार आदि के माध्यम से शब्दार्थो का श्रेष्ठ सम्मेलन है अत: यह साहित्यग्रन्थ है।
अथवा परस्पर सापेक्षाणां तुल्यरूपाणां युगपदेक क्रियान्वयित्वं साहित्यं इति श्राद्धविवेकः । अर्थात् परस्पर सापेक्ष तुल्यमेक वाले शब्दार्थो का एक साथ योग्य क्रियाओं के साथ संबंध जिस ग्रन्थ में होता है उसे साहित्य कहते है। इस महाकाव्य में भी साहित्य का उक्त लक्षण अक्षरशः संघटित होता है इसलिए यह साहित्यग्रन्थ कहने के योग्य है।
अथवा - 'विज्ञमनुष्य कृत श्लोकमयग्रन्थ विशेष: साहित्यं - इति शब्दकल्पदुमः ।' अर्थात् जिस ग्रन्थ में विद्वान मानव द्वारा श्लोकों (पद्यों) का सृजन किया गया हो उसे साहित्य कहते है । इस दृष्टि से जयोदय में संस्कृत विज्ञ पं. भूरालाल साहित्यशास्त्री द्वारा जय कुमार सुलोचना के जीवन चरित्र के वर्णन में सुन्दर श्लोकों का प्रणयन किया गया है । अत: यह साहित्यग्रन्थ है।
अथवा - ‘हितेन सह वर्तमानं इति सहितं, तस्य भावः इति साहित्यं ' । अर्थात् जो समस्त प्राणियों के हितकारी गुणकारी जो समस्त भाव हैं, पदार्थ हैं और शब्दार्थ हैं वे सभी साहित्य हैं । इस विशाल दृष्टि से जयोदय महाकाव्य तो साहित्य कोटि में अंतर्गत हो ही जाता है, परन्तु न्याय व्याकरण दर्शन, वेद, पुराण, काव्य, आयुर्वेद, ज्योतिष, छन्दशास्त्र, इतिहास, भूगोल, धर्म, गणित, अर्थशास्त्र आदि द्वादशांग श्रुतज्ञान के सर्व ही विषय साहित्य शब्द के अंतर्गत हो जाते है। अनेक स्थानों पर इसी अर्थ में साहित्य शब्द का प्रयोग किया गया है, जैसे भारत का प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य बहुत विशाल है। अमेरिका में साहित्य का बहुत विकास हुआ है इत्यादि।
अथवा - सहितस्य भावः इति साहित्यम् 'अर्थात् साधारणत: युगपत् (एक साथ), संयुक्त, संहत, मिलित, परस्परापेक्षित, और सहगामी का जो भाव है उसे साहित्य कहते है । इस दृष्टि से भी जयोदय महाकाव्य साहित्य है कारण कि वह कर्तव्य कर्म का उचित समंवय करता है। और सभा आदि कार्यो में मानव समाज को संगठित करता है।
__ साहित्य की उक्त व्याख्याओं से यह सिद्ध हो जाता है कि जयोदय श्रेष्ठ साहित्य ग्रन्थ है और सामान्य दृष्टि से श्रेष्ठ काव्य ग्रन्थ है। दोनों विषयों का भाव (तात्पर्य)समान है। किन्तु शब्दों की दृष्टि से भेद है, इसी कारण से ग्रन्थ रचनाकारों ने लक्षण रूप काव्य ग्रन्थ होते हुए भी साहित्य दर्पण को काव्य दर्पण न कहकर साहित्य दर्पण कहा है और जयोदय महाकाव्य एवं रघुवंश महाकाव्य को साहित्य होते हुए भी साहित्य - जयोदय, न कहकर जयोदय महाकाव्य एवं रघुवंश महाकाव्य कहा है। इस प्रत्यक्ष प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि सामान्यत: साहित्य और काव्य का एक ही प्रयोजन है।
जयोदय महाकाव्य में सामान्यत: काव्य की सिद्धि :- विवेक मानवों के हृदय में आत्मानन्द को . उत्पन्न करने वाले वाक्य या शब्द समूह को काव्य कहते है। इसका प्रमाण: -
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वाक्यंरसात्मकं काव्यं, दोषास्तस्पापकर्षकाः । उत्कर्ष हेतवः प्रोक्ताः गुणालंकाररीतयः । ।
तात्पर्य - सहृदयजनों के मानस में अनुभूत आनंद के जनक वाक्य या शब्दार्थ समूह को काव्य कह है। इसके विरूद्ध दोष काव्य के विध्वंसक होते है और गुण, अलंकार, रस, रीति आदि काव्य के साधन काव्य की उन्नति के कारक होते हैं।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
इस काव्य लक्षण के अनुसार जयोदय शिक्षित मानवों के मानस में आत्मानुभूतिकारक होने से काव्य के योग्य है ।
काव्य है।
(विश्वनाथ कविराज : साहित्य दर्पण : 1/3)
“तददोसो शब्दार्थो सगुणावन लांकृती पुन: क्वापि " (काव्याचार्य मम्मट: काव्यप्रकाशः प्र.उ. पृ. 10 ) तात्पर्य - दोषरहित गुणसहित एवं अलंकार शोभित शब्दार्थ - रचना काव्य का लक्षण है परन्तु कहीं - कहीं अलंकार रहित शब्दार्थ रचना भी काव्य माना गया है। जयोदय में यह अर्थ घटित होने से वह काव्य की श्रेणी में मान्य करने योग्य है ।
" रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यम् " । (पण्डितराज जगन्नाथः ध्वन्यालोक ) भाव:- रमणीय अर्थ का प्रतियादक शब्द काव्य का लक्षण है यह अर्थ घटित होने से 'जयोदय' सार्थक
'शब्दार्थो सहितौ काव्यं, गद्यं पद्यं च तद्विधा'
(काव्यविज्ञ भामह)
अर्थात् सम्मिलित शब्दार्थ अथवा हितकारी शब्दार्थ काव्य का लक्षण कहा गया है। इस लक्षण की दृष्टि से 'जयोदय' एक सफल एवं यथार्थ काव्य ग्रन्थ है । वह पद्य काव्य है । 'शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली' ।
( महाकवि - दण्डी)
भावसौन्दर्य - मानव के लिए हितकारी अर्थ से परिपूर्ण पद समूह काव्य रूप शरीर कहा जाता है । दण्डी कृत काव्य की यह परिभाषा 'जयोदय काव्य' में अक्षरश: परिपूर्ण व्याप्त है अत: 'जयोदय' श्रेष्ठ काव्य है। "काव्य शब्दोऽयं गुणालंकार संस्कृतयोः शब्दार्थयोः वर्तते
(वामनाचार्यकृतं)
अर्थात् - काव्य के गुण और अलंकारों से सुसंस्कृत शब्द एवं अर्थ में काव्य शब्द का व्यवहार होता है । काव्य की यह परिभाषा 'जयोदय काव्य' में पूर्णतया घटित होती है।
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“काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बधै: य: समाम्नातपूर्व : "।
""
(काव्याचार्य आनंद वर्धन कृत)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तात्पर्य - शब्दार्थ से निर्गत अलौकिक ध्वनि को विज्ञों ने काव्य की आत्मा कहा है यह पूर्व परम्परा से समागत सिद्धांत है। पुराण के आधार पर निर्मित यह जयोदय काव्य यह ध्वनि देता है कि लौकिक धर्म - अर्थ काम पुरूषार्थ की सिद्धि के अनंतर मोक्ष पुरूषार्थ की सिद्धि करना अंतिम पारमार्थिक लक्ष्य है। "अदोषौ सगुणौ सालंकारौ च शब्दार्थों काव्यम्"
___ (आचार्य हेमचंद्र कृत) अर्थ स्पष्ट है। काव्य की यह परिभाषा भी जयोदय काव्य में पूर्ण रूपेण व्याप्त है अत: यह ग्रन्थ काव्य है। "शब्दार्थी निदोषौ सगुणौ प्राय: सालंकारौ च काव्यम्"।
(महाकवि वाग्भट) भावार्थ स्पष्ट है । काव्य की इस परिभाषा की दृष्टि से भी जयोदय में काव्यत्व सिद्ध होता है। "गुणालंकारसहितौ शब्दार्थो दोषविवर्जितौ काव्यम् ।
(महाकवि विद्यानाथ) इस परिभाषा की अपेक्षा से भी जयोदय काव्य है । तात्पर्य - शब्दार्थ काव्य का शरीर है विद्वानों ने शब्दार्थ रूप काव्य की आत्मा को ध्वनि कहा है। "शब्दार्थ वपुरस्य तत्र विवुधैरात्माभ्यधायि ध्वनिः"
(महाकवि विद्याधर) तात्पर्य - शब्दार्थ काव्य का शरीर है विद्वानों ने शब्दार्थ रूप काव्य की आत्मा को ध्वनि कहा है । इस काव्य की परिभाषा से सिद्ध है कि 'जयोदय' शब्दात्मक द्रव्यश्रुत ज्ञान है और भावात्मक भाव श्रुत ज्ञान है जिसको ध्वनि कहते हैं जो ध्वनि शब्दों द्वारा अवाच्य है। “शब्दार्थो काव्यम्"।
(काव्यकार रूद्रट) भाव स्पष्ट है । इस संक्षिप्त परिभाषा की दृष्टि से भी जयोदय में काव्यत्व सिद्ध होता है।
निर्दोषा लक्षणवती, सरीति: गुणभूषणा । सालंकार रसानेकवृत्ति:, वाक् काव्यनाम भाक् ॥
(श्रीजयदेवकवि: चन्द्रालोकः पद्य 7) तात्पर्य - काव्य के दोषों से हीन, काव्यलक्षणों से युक्त, काव्यरीतियों से विभूषित, अलंकारों से चमत्कृत, शब्द वृत्तियों से संबद्ध वाक्य को काव्य कहते है । इस परिभाषा के अनुसार 'जयोदय' में सम्पूर्ण विशेषण संघटित होने से काव्यत्व प्रमाणित होता है। 'शब्दार्थालंकृतीद्धं, नवरसकलितं, रीतिभाषाभिरामम्' इत्यादि ।
(काव्याचार्य अजितसेन: अलंकार चिन्तामणि प्र.प.पद्या) भावसौन्दर्य - अक्षय सुख का इच्छुक, अनेकशास्त्रज्ञाता, अत्यंत प्रतिभा शाली कवि, शब्दार्था
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
लंकारों से भूषित, नवरसकलित, रीतियों के प्रयोग से सुन्दर, व्यंगय आदि अर्थो से सहित, दोषहीन, माधुर्य आदि गुणों से सम्पन्न, उत्तमनायक के चरितवर्णन से सुशोभित, उभयलोकहितकारी एवं सुस्पष्ट काव्य का सृजन करें। इस परिभाषा की दृष्टि से जयोदय काव्य, प्रणेता कवि और उत्तमनायक की श्रेष्ठता सिद्ध होती है। साहित्य और काव्य में अंतर -
विशेषरूप से विचार करने पर साहित्य और काव्य में अंतर सिद्ध होता है। काव्य के अंगों को जिसमें लक्षण कहे गये हो उसे काव्य कहते हैं । काव्य के अंग अनेक प्रकार के होते हैं जैसे - रस, अलंकार, गुण, लक्षण (चिन्ह), रीति, वृत्ति, अर्थ, शब्द आदि । काव्य के इन अंगो का किसी महापुरूष के जीवन चरित्र के वर्णन में प्रयोग किया गया हो या किसी वस्तु के वर्णन में प्रयोग किया गया हो उसे साहित्य कहते हैं । काव्य लक्षण ग्रन्थ है और साहित्य लक्ष्य अथवा वर्णनीय ग्रन्थ है । काव्यग्रन्थ जैसे साहित्य दर्पण, काव्य प्रकाश, अलंकार चिंतामणि आदि । साहित्य ग्रन्थ जैसे जयोदय महाकाव्य, रघुवंश महाकाव्य, नेषधमहाकाव्य, वीरोदयमहाकाव्य आदि । शब्दों की अपेक्षा दोनों (काव्य साहित्य) में अंतर स्पष्ट है । काव्य के प्रयोजन :
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चतुर्वर्गफलप्राप्ति:, सुखादल्पधियामपि । काव्यादेव यतस्तेन, तत्स्वरूपं निरूप्यते ॥
(साहित्य दर्पण: प्र परि. पद्य - 2)
तात्पर्य - काव्य एक ऐसा तत्व है जिससे अल्पबुद्धि मानवों को भी बिना किसी कष्ट साधना के धर्म अर्थ काम और मोक्ष रूप पुरूषार्थ की प्राप्ति होती है इसलिए काव्य का स्वरूप कथनीय है । महाकवि मामट ने भी काव्यालंकार में यही प्रयोजन कहा है ।
योदय काव्य के प्रणेता श्री पं. भूरामलजी सिद्धांत शास्त्री ने स्वकीय महाकाव्य में काव्य का यही प्रयोजन दर्शाया है।
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कथाप्यथामुष्य यदि श्रुतारात्तथा वृथा सार्य सुधासुधारा । कामैकदेशरिणी सुधा सा, कथा चतुर्वर्गनिसर्गवासा ॥
(जयोदय: प्र. स. पद्य - 3)
हे भव्य इस जयकुमार राजा की कथा यदि एक बार भी सुन ली जाये तो फिर उसके सामने अमृत की इच्छा भी व्यर्थ हो जायेगी । क्योंकि अमृत तो चार पुरूषार्थो में से काम रूप एक ही पुरूषार्थ को प्रदान करता है किन्तु इस जय कुमार राजा की कथा तो चारों पुरूषार्थो को प्रदान करती है। यह छन्द व्यतिरेकालंकार तथा अनुप्रास अलंकार से सुशोभित है ।
काव्य के कारण :
अब काव्य रचना के कारणों पर विचार किया जाता है बिना कारणों के काव्य रचना संभव नहीं है । काव्य रचना के कारण मुख्यत: तीन प्रसिद्ध है ( 1 ) व्युत्पत्ति (2) प्रज्ञा (3) प्रतिभा ।
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कृतित्व/हिन्दी उद्धरण :
गया है.
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( अलंकार चिन्तामणि: प्र. परि. पद्य 9)
तात्पर्य - न्याय व्याकरण साहित्य दर्शन धर्मशास्त्र अलंकार छन्द आदि के अध्ययन अध्यापन से उत्पन्न निपुणता को व्युत्पत्ति कहते है । गद्य पद्य सहित शब्दार्थ रचना की क्षमता को प्रज्ञा और प्रतिक्षण नवीन - नवीन विषयों के अन्वेषण तथा कल्पना शक्ति को प्रतिभा कहते हैं । सभी साहित्यकारों ने काव्य सृजन के कारणों का निर्देश करते हुए प्राय: प्रतिभा को अवश्य कहा है इसको विशेष कारणों से दुर्लभ कहा
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
व्युत्पत्त्यभ्यास संस्कार्या, शब्दार्थ घटना घटा । प्रज्ञा नवनवोल्लेख शालिनी प्रतिभास्य धीः ॥
नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा । कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ॥
(साहित्यदर्पण: पृष्ठ - 4)
प्रथम तो संसार में मानव जन्म दुर्लभ है, इससे भी दुर्लभ श्रेष्ठ विद्यालाभ, इससे भी दुर्लभ कवित्व बुद्धि और इससे भी महा दुर्लभ प्रतिभा गुण है।
जयोदय काव्य का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इस काव्य के प्रणेता में इन तीन कारणों के होने पर ही जयोदय महाकाव्य की रचना हो सकी । इस महा कवि में काव्य शास्त्र कथितप्रज्ञ आदि सर्वगुण विद्यमान थे | काव्य के भेद प्रभेद का वर्णन :
दृश्य श्रव्यत्वभेदेन पुनः काव्यंद्विधामतम् ।
काव्य के मुख्य दो भेद होते है (1) दृश्य (2) श्रव्य ।
जिस काव्य का स्टेज पर पात्रों द्वारा अभिनय किया जाये उसे दृश्य काव्य कहते है। इसको रूपक या नाटक भी कहते हैं । नाट्य शास्त्रों में इसके दशभेद कहे गये हैं ।
श्रव्य काव्य की रूपरेखा तथा उसके भेद -
'श्रव्यं श्रोतव्यमात्रं तत्पद्यगद्यमयं द्विधा' ।
रसात्मक वाक्य को श्रव्यकाव्य कहते हैं जो केवल श्रवण योग्य अथवा कहने योग्य होता है, अभिनय योग्य नहीं, इसके दो भेद होते हैं (1) पद्यमयकाव्य ( 2 ) गद्यमयकाव्य | छन्दो बद्ध काव्य पद्यकाव्य कहा जाता है यह अनेक प्रकार का होता है, यथा (1) मुक्तक (अन्यपद्य के सम्बंध से रहित एवं स्वतंत्र अर्थ से शोभित), (2) युग्मक (दो पद्यों के शब्दार्थ से युक्त एक क्रियावाला), (3) सांदानितक (तीन पद्यों में रचना एक क्रिया से संयुक्त), (4) कलापक (जिसकी रचना चार पद्यों में एक क्रिया से पूर्ण हो) । (5) कुलक (जिसकी रचना में एक क्रिया द्वारा पूर्ण हो) । जयोदय महाकाव्य में सभी तरह के पद्य काव्य विद्यमान है । जयोदय महाकाव्य प्रसिद्ध है । अत: महाकाव्य के स्वरूप पर विचार किया जाता है।
सर्गबन्धो महाकाव्यं, तत्रैको नायक: सुरः ।
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सवंशः क्षत्रियो वापि, धीरोदात्तगुणान्वित: ॥
(साहित्य दर्पण: परि.6. पद्य 16) व्याख्या - सर्गों की रचना के क्रम से जिस पद्यकाव्य की रचना हो उसको महाकाव्य कहते हैं , इस महाकाव्य में एक ही श्रेष्ठ नायक का चरित चित्रण किया जाता है, वह नायक देव विशेष अथवा प्रसिद्ध राजवंश का राजा होता है जिसमें धीरोदात्त' नायक के गुण विद्यमान रहते हैं। किसी महाकाव्य में अनेक कुलीन नृपों के चरित्र का वर्णन भी रहता है। श्रृंगार वीर और शान्त रसों में से कोई एक प्रधान रस, अन्य रसों के वर्णन से पुष्ट किया जाता है। अर्थात् एक रस प्रमुख होता है अन्य रस गौण होते हुए भी उस प्रमुख रस को वलिष्ठ करते है विरोधी नहीं होते है।
कोई ऐतिहासिक अथवा पौराणिक महापुरूष के जीवन से संबद्ध श्रेष्ठ लोक प्रसिद्ध वृत्त या चरित्र इसमें वर्णित किया जाता है। सामान्य रूप से महाकाव्य में पुरूषार्थ चतुष्टय का काव्यात्मक निरूपण किया जाता है परन्तु श्रेष्ठ फल के रूप में मोक्ष पुरूषार्थ का ही सर्वतो भद्र वर्णन युक्तियुक्त माना गया है, शेष पुरूषार्थ त्रय उसके कारण बन जाते है । महाकाव्य का आरंभ मंगलात्मक होता है,
किसी किसी महाकाव्य में दुष्टनिन्दा और सज्जन प्रशंसा भी उपनिबद्ध होती है। प्रत्येक सर्ग में कोई एक छन्द में निबद्ध पद्य होते हैं और अंत में कोई अन्य छन्द में पद्य निबद्ध होता है, जैसे लम्बी दौड़ में प्रवृत्त मानव रूकने के पूर्व दोड़ बदल देता है।आठ सर्ग से कम सर्ग महाकाव्य में नहीं होते और न अत्याधिकसर्ग होते है । किसी किसी महाकाव्य में अनेक छन्दों में निबद्ध पद्यों से विभूषित सर्ग होते है।
महाकाव्य में यथा स्थान यथा संभव निम्न लिखित विषयों का वर्णन होता है - सूर्य चन्द्र संध्या रात्रि दिन प्रदोष अंधकार प्रभात समुद्र मुनि स्वर्ग मध्याह्न पर्वत ऋतु वन उपवन समुद्र नगर यज्ञ संग्राम यात्रा विवाह नायक नायिका राजा राज्ञी राज्य आदि ।
काव्य या महाकाव्य के कुछ विषय से विभूषित पद्य प्रबन्ध को खण्डकाव्य कहते है। जैसे पवनदूत, मेघदूत रामवनगमन आदि।
उपरिकथित काव्य महाकाव्य के लक्षण या विषय जयोदय महाकाव्य में यथायोग्य सुशोभित होते हैं।
प्राचीनकाल में पुराण प्रसिद्ध आचार्यों में प्रधान जिन सेन ने ऋषभ देव के समय व्रती ज्ञानी के रूप में जिस की प्रशंसा की ऐसे अपूर्व गुणों से सम्पन्न वे महाराजा जय कुमार हस्तिनापुर का शासन कर रहे थे अर्थात् हस्तिनापुर के नरेश थे और 14 विद्याओं में निपुण थे।
इस महाकाव्य में पौराणिक महापुरूष जय कुमार और सुलोचना सती का वर्णन (जीवन चरित) 28 सर्गों में समाप्त होता है। इन सर्गो में 2865 पद्य 63 प्रकार के छन्दों में निबद्ध किये गये है। इनमें कुछ लौकिक हिन्दी छन्दों में भी संस्कृत पद्य विरचित हैं, उदाहरणसदा हे साधो प्रभवति वसुमति कर्म (स्थायी टेक)
कः खलुहर्ता को मुनि भर्ता कस्य विना निजकर्म । सदाहे उक्त मिवोक्तं फलतीह तु यो विलसत्यपशर्म । सदा हे.
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दुरिताद् दुर्गतिमेति जनोऽसौ शुभतो विलसति नर्म । सदा हे. भूरामल यदि नैवरोचते संवर मुपसर धर्म । सदा हे.
__ (सर्ग 23, पद्य - 76, जयोदय) तात्पर्य - हे सज्जन ! इस जगत में प्राणी पर कर्म ही निज प्रभाव दिखाता है। पृथ्वी पर स्वकृत कर्म के बिना कौन हर्ता है और कौन भर्ता है । इस प्राणी ने जैसा बीज बोया है। उसी के अनुसार फल देता है भले ही वह सुख हो या दुख हो । यह जीव पाप से दुर्गति को प्राप्त होता है और पुण्य से सुख का अनुभव करता है। हे आत्मन ! यदि तुझे जन्म मरण के हेतु अच्छे नहीं लगते है। तो दोनों का त्याग कर संवर को स्वीकृत करो। यह दसंवर, धर्म रूप कवच है।
जयोदय महाकाव्य में काव्य के नवरसों में से प्रशस्त शान्तरस आदि से अंत तक आत्मिक शान्ति प्रदान करता है प्रथम सर्ग के 100 वे तथा 101 वे पद्य से शान्तरस झलकता है एवं दिगम्बर मुनि राज के उपदेश से तथा उनकी चर्या से शान्तरस उछलता है । महाराज जयकुमार ने मुनि दीक्षा को अंगीकार कर तपस्या एवं महाव्रतों की साधना को प्रारंभ कर दिया
स मोहं पातयामास, समोहं जिनपैरिति । ___ अनुभूतात्मसमोऽप्यनुभूतदयाश्रयः । सर्ग 28, पद्य 19॥ भावसौन्दर्य - प्राणिमात्र पर दया करने वाले, तपस्यारत मुनिराज, जयकुमार ने, मैं जिनेन्द्र भगवान के तुल्य हूँ अर्थात आत्मशक्ति की अपेक्षा परमात्मा के समान ज्ञाता, दृष्टा समता स्वभाववाला हूँ। इस प्रकार अपूर्व आत्मशक्ति का अनुभव करते हुए सम्पूर्ण मोह कर्म का क्षय कर दिया । इस प्रकार महाकाव्य के अंत में भी प्रधान शान्तरस अपना प्रभाव दर्शाता है। वीररस, करूणरस और श्रृंगार रस अपना यथायोग्य रूप से प्रभाव दर्शाते हुए शान्तरस के ही अंग (अंश) बन जाते है।
अनंतर महाकाव्य जयोदय में अलंकार पर चिंतन किया जाता है । जिस प्रकार शरीर की शोभा हार कुण्डल आदि से और आत्मा की शोभा शक्ति विनय ज्ञान आदि गुणों से होती है उसी प्रकार शब्दों की शोभा अनुप्रास यमक आदि से और अर्थ की शोभा उपमा उत्प्रेक्षा आदि से होती है। इसलिए इनको अलंकार की तरह अलंकार कहते है। अलंकार के 3 प्रकार होते है (1) शब्दालंकार (2) अर्थालंकार (3)उभयालंकार।
प्रकृत जयोदय काव्य में सभी तरह के अलंकारों का बाजार भरा हुआ है। जिस काव्यरसिक को जिस अलंकार की इच्छा हो वह उसको ग्रहण कर सकता है । यथा विरोधाभासालंकार का चमत्कार -
सदाचार विहीनोऽपि, सदाचार परायणः । संजाये तामिहेदानीं, रूजाहीनो नर: सरूक् ॥
(जयोदय सर्ग 19 : पद्य 94) काव्य सौन्दर्य - इस भारत वर्ष में इस समय मनुष्य सत्य आचरण से रहित होकर भी सत्य आचरण से सहित है यह विरोध है परिहार सदा (नित्य ही) परिभ्रमण से रहित होता हुआ भी समीचीन आचरण से सहित है तथा रोग से रहित होकर भी रोग से सहित है । यह विरोध होता है परिहार रोग से रहित होकर भी
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कृतित्व / हिन्दी
कान्ति से सहित है।
श्लेष उपमालंकार का प्रभाव गंगातटे उद्यानवर्णन -
संदेह - अर्थातरन्यास अलंकार की चमक पान गोष्ठी वर्णन
बहुकल्पपादपैरपि, रम्यं सुमनः समूहतो भुवि रम्यम् । नंदनं वनमिवाति मनोज्ञं पुण्यपुरूषैः बभूव भोग्यम् ॥
यमकालंकार का चमत्कार - काशीगमन का वर्णन -
जगाम मैरेयभृते त्वमत्र आद्यातुमात्तप्रतिमेऽलिरत्र । वध्वा स वध्वानयने ऽब्जबुद्धिं, स्याल्लोलुपानांतु कुतः प्रबुद्धि : ॥
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
समुदंग: समुदगाद्, मार्गलं मार्गलक्षणम् । नरराट् परराड्वैरी, सत्त्वरं सत्त्वरंजितः ॥
अनुप्रास अलंकार की छटा - हस्तिनापुर राजधानी का वर्णन - वापीतटाकतटिनीतट निष्कुटेसु, हेमांगदप्रभृति बन्धु समाजराजम् । चिक्षेप सोऽथ रमयन् समयंनरेन्द्रः, केन्द्रेरिवृद्धिकनिदानभिदामधीशः ॥ (जयोदय: सर्ग 21 : पद्य 88 )
(जयोदय: सर्ग 14 : पद्य 5 )
इस प्रकार जयोदय महाकाव्य में ग्रन्थप्रणेता ने अलंकारों की कल्पना, रसाभिव्यक्ति, भावव्यंजना, लोकोक्ति, नीति और सुभाषित वचनों का विचित्र प्रयोग किया है। जयोदय, महाकाव्य ग्रन्थ होते हुए भी इसमें प्रशस्त शान्त रस के अंतर्गत अध्यात्म का दिग्दर्शन कराया गया है। क्षत्रिय वीर जयकुमार ने ओं ह्रीं अर्ह नम: इस मंत्र के जाप से आत्मा को विशुद्ध किया था । इसलिए ग्रन्थ कार ने 19वें सर्ग में ओं ह्रीं अहं की सिद्धि करते हुए ऋद्धि धारी मुनीश्वरों की वंदना हेतु 64 ऋद्धि मंत्रों का व्याख्यान किया है । इस कारण श्री पं. भूरामल शास्त्री वाणी भूषण की विशिष्ट ज्ञान प्रतिभा का अनुमान किया जाता है ।
उपसंहार - श्री वाणी भूषण ब्र. पं. भूरा मल जी शास्त्री ने वि.सं. 1983 में जयोदय महाकाव्य का सृजन कर भारतीय संस्कृत साहित्य को समृद्धि शाली बनाया है। सामान्यतया यह ग्रन्थ काव्य एवं साहित्य रूप उभय विषय से सम्पन्न है। विशेष दृष्टि से यह साहित्य ग्रन्थ है क्योंकि इसमें पौराणिक कथाओं के आधार पर काव्य के लक्षणों का प्रयोग किया गया है। काव्य के भेद प्रभेदों के अंतर्गत यह महाकाव्य है कारण कि इसमें महाकाव्य के लक्षण विद्यमान है इसमें अलंकार रस रीति नीति गुण लोकोक्ति और मंत्रों का सार्थक वर्णन किया गया है। प्रशस्त शान्त रस प्रधान यह ग्रन्थ लोक कल्याणकारी प्रसिद्ध है ।
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(जयोदय: सर्ग 16 : पद्य 48 )
अपारे काव्य संसारे, कविरेव प्रजापतिः । यथा स्मैरोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते ॥
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
जीवतत्त्व
जीवतत्त्व पर प्रकाश डालते हुए पं. दयाचन्द्रजी शास्त्री, प्राचार्य गणेश दि. जैन विद्यालय सागर ने कहा
तस्य भावस्तत्त्व इस व्युत्पत्ति के अनुसार पदार्थ का जो यथार्थ स्वरूप है वह तत्त्व कहताता है। जीवन का यथार्थ रूप जीवतत्त्व है, अजीव का यथार्थ रूप अजीवतत्त्व है। इसी तरह आस्रव, बंध संवर, निर्जरा और मोक्षका जो यथार्थरूप है वह आस्रवादितत्त्व हैं। मूल में तत्त्व दो ही हैं एक जीव और दूसरा अजीव । इन दो तत्त्वों का सम्बन्ध जिस कारण से होता है वह आसत्व कहताता है। दोनों के सम्बन्ध को बन्ध कहते है। । आस्रत्व के अभाव को संवर कहते हैं । पूर्वबद्ध अजीव अर्थात् कर्म समूह के एकदेश क्षय को निर्जरा कहते हैं और सर्वदेश क्षय को मोक्ष कहते हैं। कुन्दकुन्द स्वामी ने पुण्य और पाप को शामिल कर नौ पदार्थो का वर्णन किया है परन्तु उमा स्वामी ने इन्हें आस्रव और बन्ध में समाविष्ट कर तत्त्वों की सात संख्या ही स्वीकृत की है। इन सात तत्त्वों में आस्रव और बन्ध तो संसार के कारण हैं और संवर तथा निर्जरा मोक्ष के कारण हैं । आज जीवतत्त्व के ऊपर विचार करना है । सात तत्त्वों में जीव ही प्रमुख तत्त्व है क्योंकि वही स्वपरावभासी है। दीपक के समान निज और पर का प्रकाशक है। 'चेतना लक्षणों जीव: चेतना जीव का लक्षण है। यह चेतना ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार की है। विशेष रूप से पदार्थ को जानना सो ज्ञान
चेतना है। निर्विकल्प-सामान्य रूप से पदार्थ को जानना सो दर्शन चेतना है। इसी द्विविध चेतना से सम्बन्ध रखनेवाला जीव का जो परिणाम है वह उपयोग कहलाता है । उपयोग भी ज्ञानोपयोग और दर्शननोपयोग के भेद से दो प्रकार का है। इस तरह जानना देखना ही जीव का स्परूप है ।यही इसका विशिष्ट-असाधारण स्वरूप है । यद्यपि अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरू लद्युत्व और प्रदेशत्त्व गुण भी जीव में रहते हैं पर वे साधारण गुण होने से जीव के सिवाय अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते है अत: उनसे जीव का निर्धार नहीं हो सकता । निर्धार तो विशिष्ट असाधारण गुणों से ही हो सकता है।
यह जीव अमूर्त्तिक है अर्थात् इनद्रियों के द्वारा इसका ग्रहण नहीं होता। स्वकीय शरीर में स्थित जीव का बोध स्वसंवेदन ज्ञान से होता है। मैं सुखी हूँ मैं दुखी हूँ, मैंने अमुक कार्य किया हैं, और अमुक कार्य मुझे करना है ‘इस प्रकार जो 'मैं' नामकी वस्तु अनुभव में आती है वही जीव तथा परकीय शरीर में उसकी चेष्टाओं के द्वारा जीव का अस्तित्व अनुभव में आता है।
आचार्यों ने जीव के तीन भेद बताये हैं - 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा और 3. परमात्मा । जो शरीर को ही आत्मा मानता है वह बहिरात्मा है, वह मूदों में मुखिया अर्थात् महामूर्ख कहलाता है, इसी को मिथ्यादृष्टि कहते हैं । इसका विस्तार प्रारम्भ से लेकर तृतीय गुण स्थान तक है । जो शरीर और आत्मा को पृथक-पृथक
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनुभव करता है वह अन्तरात्मा कहलाता है ।यह अन्तरात्मा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ।इसका विस्तार चतुर्थ से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहता है । जिसने चार धातिया अथवा आठों कर्म नष्ट कर दिये हैं वह परमात्मा कहलाता है । चार घातिया कर्मो को नष्ट करने वाले सकल परमात्मा कहलाते है।। इन्हें ही अरहंत कहते हैं। यह तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान की अवस्था है। और आठों कर्मो को नष्ट करने वाले सिद्ध परमेष्ठी निकल परमात्मा मुक्त कहलाते है।। सकल परामात्मा को जीवन मुक्त कहते हैं । इन तीन प्रकार की परिणतियों में बहिरात्मा को हेय जानकर छोड़ना चाहिये और अन्तरात्मा बनकर उसके माध्यम से परमात्मा का ध्यान कर परमात्मा बनने का पुरूषार्थ करना चाहिये।
यह जीव अनादि काल से कर्म ओर नोकर्म के संसर्ग में पड़कर दुखी हो रहा है। इन्हीं कर्मो के संसर्ग से आत्मा में रागादिक भाव कर्म उत्पन्न होते हैं जो कि नवीन कर्मबन्ध के कारण हैं। मनुष्य भव पाया है तो परसंग छोड़ने का पुरूषार्थ करो, यह पुरूषार्थ इसी मनुष्य पर्याय में पूर्ण हो सकता है ,अन्यत्र नहीं। ज्ञाता-द्रष्टा आत्मा का स्वरूप है इसलिये उसी ओर निरन्तर लक्ष्य रखना चाहिये । किसी पदार्थ को देखकर यदि राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं तो उस समय ऐसा विचार करना चाहिये कि मेरा स्वभाव तो पदार्थ को मात्र जानना-देखना है। राग-द्वेष करना नहीं। यह तो विकारी भाव हैं। इन्हें नष्ट करने से ही जीव अपने स्वभाव में सुस्थिर हो सकता है।
जैनधर्म के सार्वभौम सिद्धान्त
__व्याख्यान-माला के अन्तर्गत “जैनधर्म के सार्वभौम सिद्धांत पर प्रकाश डालते हुए पं. दयाचन्द्रजी साहित्याचार्य ने कहा है कि जैन धर्म के सार्वभौम सिद्धान्तों में अहिंसा सबसे प्रमुख सार्वभौम सिद्धान्त हैसमस्त भूमिका कल्याण करनेवाला सिद्धान्त है। इसका सूक्ष्म से सूक्ष्म वर्णन जैन धर्म में हैं । यहाँ रागादिक भावों की उत्पत्ति को हिंसा और उनकी अनुत्पत्ति को अहिंसा कहा गया है ।आचार्यों ने इस अहिंसा को परब्रह्म कहा है, इस परब्रह्म के समान यह प्रत्येक प्राणी का कल्याण करनेवाली है। इस अहिंसा की साधना, भावों के ऊपर अधिक निर्भर रहती है। डाकू, डाक्टर और ड्रायवर ये तीन डकार हैं। तीनों से हिंसा होती है पर तीनों के भावों में अन्तर होने से उनके फल में भी अन्तर होता है। डाकू जानबूझकर हिंसा करता है इसलिये उसका फल सरकार की ओर से फाँसी, मृत्युदण्ड प्राप्त करता है । दवा या आप्रेशन करते हुए डाक्टर से यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसके फलस्वरूप उस डाक्टर का कुछ भी नहीं होता, क्योंकि उसका भाव रोगी को अच्छा करने का था, मारने का नहीं। ड्रायवर से यदि किसी मनुष्य की हिंसा होती है तो उसे प्रमाद का दण्ड तो मिलता है परन्तु मनुष्य के घात करने का नहीं। वह सौ पचास रूपये के जुर्माने से ही छुट्टी पा जाता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ड्रायवर का यह भाव नहीं रहता कि मैं किसी को मारूं परन्तु असावधानी अवश्य की । हम लोग चलते हैं परन्तु चलते समय किसी जीव को मारने का भाव नहीं रखते, मात्र असावधानी करते हैं और उसी का फल प्राप्त करते हैं ।
'म्रियतां जीवो मा वा' जीव मरे अथवा न मरे, परन्तु प्रमाद से चलनेवाले जीव के हिंसा अवश्य आगे दौड़कर आती है। हम लोग जानबूझकर तो किसी की हिंसा नहीं करते परन्तु प्रमादवश अपने द्वारा जीवों की हिंसा हो जाती है। ऐसी हिंसा से भी हमें बचना चाहिये । अहिंसा, जैनधर्म का सर्वप्रमुख सिद्धान्त है, सत्यभाषण आदि धर्म । इसकी साधना करनेवाले हैं। अहिंसा के सिवाय अनेकान्त, अपरिग्रह, तथा स्वतन्त्रता आदि अनेक सिद्धान्त भी सार्वभौम सिद्धांतों में आते हैं।
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रईस और सईस
धार्मिक बातों पर प्रकाश डालते हुए पं. दयाचन्द्रजी साहित्याचार्य ने कहा कि जिस प्रकार कडुवी तँबड़ी किसी काम की नहीं, उसमें यदि कोई चीज रखी जाती है तो वह कडुवी हो जाती है । परन्तु वही कडुवी बड़ी सूख जाने पर नदी से पार होने में सहायक हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य का शरीर यद्यपि किसी काम
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नहीं, मल-मूत्र से भरा हुआ अशुचिका पिण्ड है तथापि वह संसार सागर से पार होने में परम सहायक है। मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य के शरीर से ही होती है। देवों के वैक्रियक शरीर में यह क्षमता नहीं है कि वह किसी देव को मोक्ष प्राप्त करा सकें । यहाँ यह व्याप्ति नहीं है कि जो जो मनुष्य हैं वे सब मोक्ष को प्राप्त होते है। परन्तु यह व्याप्ति है कि जिनको मोक्ष प्राप्त होता है वे मनुष्य शरीर से ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। संसार के समस्त प्राणी सुख चाहते है और दुःख से डरते हैं । आत्मानुशासन में सुखप्राप्तिका उपाय बतलाते हुए गुणभद्रस्वामी एक बहुत सुन्दर श्लोक कहा है। वह यह है -
सर्व: प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरात्सा सर्वकर्मक्षयात् सद्वृत्तात्स च तच्च बोधनियतं सोऽप्यागमात्स श्रुतेः । सा चाप्तात् स च सर्वदोषरहितो रागादयस्तेऽप्यत
स्तं युक्त्या सुविचार्य सर्वसुखदं संतः श्रयन्तु श्रियै ॥
संसार के सभी प्राणी शीघ्र ही सुख प्राप्तियों की इच्छा करते हैं। वह सुख प्राप्ति समस्त कर्मो के क्षय से होती है, समस्त कर्मो का क्षय सम्यक्चारित्र से होता है, सम्यक्चरित्र तत्त्व ज्ञानपर अवलम्बित है, तत्त्व ज्ञान आगम से प्राप्त होता है, आगम की उत्पत्ति श्रुति- दिव्य ध्वनि से होती है, दिव्यध्वनि आप्त से
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ होती है, आप्त सर्व दोषों से रहित होता है और सर्व दोष रागादिक कहलाते हैइसलिये सर्व सुखदायक आप्त का युक्तिपूर्वक अच्छी तरह विचारकर सत्पुरूष श्री अर्थात् अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए उस आप्त का आश्रय लेवे । आप्त का आश्रय लिये बिना यह जीव अनादि काल से किन-किन पर्यायों में भटका है इसका स्मरण आते ही शरीर में रोमांच हो आता है। कहा जाता है -
कित निगोद कित नारकी कित तिर्यंच अज्ञान ।
आज धन्य मनुष्य भयो पायो जिनवर थान ॥ इस जीव ने निगोद में, नारकी में और अज्ञानी तिर्यंच अवस्था में कितना काल बिताया है, इसे कौन कह सकता है? आज धन्य भाग्य समझना चाहिये कि मनुष्य पर्याय मिली है और उसमें भी जिनेन्द्र भगवान् की शरण प्राप्त हुई हैं। इस मनुष्य पर्याय का जो सबसे प्रमुख कार्य है उसे अवश्य करना चाहिये। मनुष्य का सबसे प्रमुख कार्य संयम प्राप्त करना है क्योंकि यह मनुष्य को छोड़कर अन्य गतियों में नहीं हो सकता है।
दो आदमी हैं - एक घोड़ा की सेवा करता है उसे सईस कहते हैं। सईस घोड़ा का स्वामी नहीं है। उसे घोड़ा पर बैठने का अधिकार नहीं है। किन्तु दूसरा आदमी जो घोड़ा की सेवा नहीं करता किन्तु स्वामी होने से उस पर सवारी करता है उसे रईस कहते है। इसी प्रकार एक आदमी शरीर की सेवा करता हुआ सईस बना रहता है और दूसरा आदमी शरीर से तपस्या कर उस पर सवारी करता है वह साधु रईस कहलाता है। बताओ- आप सईस बनना चाहते हैं या रईस ?
आस्रवतत्त्व आस्रवतत्त्व का वर्णन करते हुए श्रीमान पं. दयाचन्द्रजी साहित्याचार्य ने कहा - आत्मा में कर्मप्रदेशों का आस्रवण-आगमन होना आस्रव कहलाता है। कुन्दकुन्दस्वामी ने इसके मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग ये चार प्रत्यय- कारण बतलाये हैं तथा उमास्वामी ने प्रमादको भी शामिल कर पाँच कारण बतलाये हैं। आस्रव के कारणों में योगों की प्रमुखता है इसलिये उमास्वामी ने 'कायवाड्मन:कर्म योगः' और 'स आस्रव:' इन सूत्रों में योग का लक्षण लिखकर उसे ही आस्रव कहा है। यह योग पहले से लेकर तेरहवें गुण स्थान तक चलता है । पं. दौलतरात जी ने कहा है -
जो जोगन की चपलाई तातें है, आस्रव भाई।
आस्रव दुखकार घनेरे बुधिवंत तिन्हे निरवरे ॥ जो योगों की चपलता है उसी से आस्रव होता है- ये आस्रव अत्यन्त दुःखदायक है इसलिये बुद्धिमान जीव उन्हें दूर करते हैं। जिस प्रकार सछिद्र नौका में बैठनेवाला मनुष्य अपने इच्छित स्थान पर सकुशल नहीं पहुँच सकता उसी प्रकार आस्रव से युक्त मनुष्य अपने इच्छित स्थान- मोक्षतक सकुशल नहीं पहुंच सकता। सकुशल क्या, बिल्कुल ही नहीं पहुंच सकता।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ यह योग शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का माना गया है। इनकी परिभाषा लिखते हुए आचार्यो ने कहा है कि शुभ परिणामनिर्वृतो योगः शुभयोग: और अशुभ परिणामनिर्वृतो योग: अशुभयोग: अर्थात् शुभ परिणामों से रचा हुआ योग शुभयोग है और अशुभ परिणामों से रचा हुआ योग अशुभयोग है। मात्र मन वचन काय की शुभ अशुभ प्रवृत्तियों से योगों में शुभ अशुभपना नहीं आता है और न पुण्य पाप प्रकृतियों के बन्ध से ही योगों में शुभ अशुभ का व्यवहार होता है क्योंकि दशमगुणस्थान में बंधनेवाली सत्रह प्रकृतियों में पाँच ज्ञानावरण की, पाँच अन्तराय की और चार दर्शनावरणी की ये चौदह घातिया कर्मो की प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ हैं । शुभयोग से पुण्यकर्म का अशुभयोग से पाप कर्म का आस्रव होता है यह सामान्य कथन है। इस योग के साथ जब कषाय का रंग रहता है तब वह साम्परायिक आस्रव का कारण होता है । साम्पराय का अर्थ संसार है जिस आस्रव का फल साम्पराय है वह साम्परायिक आस्रव कहलाता है । यह सांपरायिक आस्रव प्रारम्भ से लेकर दशम गुणस्थान तक होता है। ईर्या पथ आस्रव कषाय रहित जीवों के होता है । यह ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुण स्थान तक होता है। ईर्यापथ आस्रव के बाद स्थिति और अनुभाग बन्ध नहीं होता।
जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति ।
अपरिणदुच्छिण्णेसु य बंधट्टिदिकारणं णत्थि ॥ योग के निमित्त से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं और स्थिति तथा अनुभाग बन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं । अपरिणत उपशान्त दशा और उच्छिन्न-क्षीणदशा में स्थिति बन्ध के कारण नहीं है।
जिनेन्द्र भगवान् के वचनरूपी औषध, विषय सुख का विरेचन करने वाली है अत: उसका स्वाध्याय कर, ज्ञानको परिपक्व बनाना चाहिये और चरित्र धारणकर उसे सफल करना चाहिये। क्योंकि चारित्रहीन ज्ञान कागज का गुलदस्ता है जिसमें गन्ध का नाम भी नहीं है । सम्यग्दर्शन से मोक्षमार्ग शुरू हो जाता है और सम्यक्चारित्र से उसकी पूर्णता होती है। सम्यक्चारित्र संवर निर्जरा और मोक्षका कारण है।
मनुष्य बड़े-बड़े मनसूबे बनाता है - 'मैं यह करूँगा, वह करूँगा' इन्हीं संकल्पों के जाल में फँसा हुआ एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। 'तृणं लुनाति दात्रेण सुमेरूं याति चेतसा कोई मनुष्य हँसिया से घास काटता है पर चित्त से सुमेरू पर चढ़ता है । अर्थात् परिस्थिति तो साधारण होती है पर संकल्प विकल्प ऐसे करता है जिनकी पूर्ति होना जीवन में कठिन होता है।
आसव और बन्ध तत्त्व के निर्धार में बड़े-बड़े ज्ञानी जीव चूक जाते हैं। जिन भावों से होता तो आस्रव और बन्ध है उन भावों को यह जीव संवर और निर्जरा का कारण मान बैठता है। पर स्वयं मान बैठने से आस्रव और बन्ध रूकते नहीं हैं। अत: इन भावों का निर्धार ठीक-ठीक करना चाहिये ।
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मुनियों की अलौकिक वृत्ति अनुसरतां पदमेतत्करम्विताचार नित्यनिरभिमुखा ।
एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्ति: ॥ पुरूषार्थ सिद्धयुपाय के इस प्रकरण पर प्रकाश डालते हुए पं. दयाचन्द्र जी साहित्याचार्य ने कहा कि इस संसार सागर से पार होने के लिये मुनियों की वृत्ति धारण करना अत्यन्त आवश्यक है। मुनियों की यह वृत्ति समस्त पापाचारों से परांगमुख रहती है। जिन्हें यह वृत्ति प्राप्त हो गई वे नियम से मोक्षगामी होते हैं। आगम में लिखा है कि भावलिंग मुनिपद अधिक से अधिक बत्तीस बार धारण करना पड़ता है इसके भीतर ही यह जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है। परन्तु द्रव्य लिंगी मुनियों के पद की कोई संख्या आगम में नहीं बताई गई है। उनके लिये तो लिखा है कि यह जीव अनन्त बार मुनि पद धारण कर नौवें ग्रैवेयक तक उत्पन्न होता है। परन्तु संसार पार नहीं हो पाता । प्रत्येक मानव को इसका लक्ष्य रखना चाहिये कि हमारे जीवन में वह अवसर कब आवे, जब मैं भावलिंगी मुनि बन कर संसार सागर से पार होने का प्रयत्न करूँगा। द्रव्य लिंगी और भाव लिंगी की पहिचान करना साधारण मनुष्यों की शक्ति से बाहर है क्योंकि द्रव्य लिंगी मुनि भी चरणानुयोग के अनुसार अट्ठाईस मूल गुणों का निर्दोष पालन करता है, यहीं नहीं शुक्ल लेश्या का धारक भी हो सकता है, तभी तो नौवें ग्रैवेयक 31 सागर की आयु का बंध करता है। चरणानुयोग का अपलाप करने वाले पाखण्डी मुनि, भाव लिंगी मुनि नहीं कहलाते, और न वे देवायुका ही बन्ध करते है ऐसे जीव तो सीधे निगोद के पात्र होते हैं।
अमृतचन्द्र स्वामी ने लिखा है कि वक्ता को चाहिये कि वह शिष्य के लिये सर्व प्रथम मुनि धर्म का ही उपदेश देवे ।पश्चात् जब वह मुनि धर्म धारण करने में असमर्थता बतलावें तब गृहस्थ धर्म का उपदेश देवे। जो वक्ता मुनि धर्म का उपदेश न देकर पहले से ही गृहस्थ धर्म का उपदेश देता है उसे जिनागम में निग्रहदण्ड का पात्र बताया गया है। उसका कारण यह है कि जो शिष्य मुनि धर्म का उपदेश सुनकर मुनि बन सकता था वह पहले ही गृहस्थ धर्म का उपदेश सुनकर उसी से संतुष्ट रह जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता। इस तरह वह दुर्बुद्धि वक्ता के द्वारा ठगा जाता है।
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रजातन्त्र के युग में समाज-व्यवस्था
उक्त विषय पर प्रकाश डालते हुए पं. दयाचन्द्र जी साहित्याचार्य ने लिखा है कि -
मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज के बिना उसका निर्वाह नहीं हो सकता । व्यक्तियों का समूह समाज कहलाता है। यदि एक-एक व्यक्ति अपना सुधार कर ले तो समाज का सुधार अनायास हो सकता है। आज के प्रजातन्त्र युग में समाज की उपेक्षा नहीं की जा सकती। 'कलौ संघे शक्ति: के अनुसार हमे संघ की आवश्यकता है। हमारी बिखरी हुई शक्ति हमें दुनिया में नगण्य सिद्ध करती है ।हमारे बीच में ऐसे अनेक कार्य चल पड़े हैं जिनसे परस्पर में मतभेद बढ़ा है और हम संगठित दशा से असंगठित दशा में आ गये हैं। कोई किसी की परवाह नहीं रखता। बड़ा आदमी कहता है कि हमें किसी की क्या आवश्यकता ? हम अपने पैसे के बल पर अकेले ही निर्वाह कर सकते हैं और जिनके पास पैसा नहीं हैं उनके मुख से निकलता है कि आप पैसे वाले हैं तो अपने घर के हैं हमारा आप क्या कर सकते हैं? इस प्रकार सधन और निर्धन दोनों वर्ग के लोग एक दूसरे की उपेक्षा करने लगे हैं। पर ऐसी उपेक्षा से क्या समाज जीवित रह सकेगी ? परस्पर का सहयोग, परस्पर का वात्सल्य भाव ही हमें एक सूत्र में बांध कर रख सकता है। देखा जाता है कि एक गांव में यदि दश घर जैनियों के हैं तो उनमें पाँच पटी है। दश घर के लोग भी एक पटी में नही रह सकते। किसी की लड़की का सम्बन्ध कहीं चलता है तो दूसरी पटी का कोई आदमी झूठा गुमनाम पत्र लिखकर वातावरण गंदा कर देता है। किसी कन्या के विषय में झूठा प्रचार करना जीव हिंसा से कम पाप नहीं है।
आज दहेज का दानव सुलसा के समान मुँह को फैलाता हुआ समाज के भीतर आ घुसा है। पच्चीसपच्चीस वर्ष की कुंवारी लड़कियाँ घरों में बैठी हैं, पर मन चाहे दहेज की व्यवस्था न हो सकने से उन्हें कोई पूछता भी नहीं है। जब कि वे सुन्दर हैं और सुशिक्षित भी। यदि ऐसी लड़कियाँ क्रान्ति कर दें तो समाज की क्या दशा होगी ? कन्या पक्ष को सताकर पैसा प्राप्त करना और उनसे अपनी शान-शौकत बताना लज्जा की बात है । इस ओर समाज को अविलम्ब ध्यान देने की आवश्यकता है। जो युवक वर्ग, देश में समाजवाद और अपरिग्रहवाद के समर्थक हैं, इनके समर्थन के लिये लम्बी-लम्बी बातें करते हैं वे चुप क्यों हैं ? उन्हें आगे आकर अपने लोभी परिवार को समझाना चाहिये । हमारा युवक वर्ग इतना अकर्मण्य क्यों होता जा रहा है जिससे उसे स्त्री धन की आवश्यकता महसूस होने लगी है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय एक हों, यह दूर की बात है। पर हम दिगम्बर भी अपनीअपनी उपजातियों के पक्ष व्यामोह में मस्त हैं, एक दूसरे को काट करने में लगे रहते हैं । यदि हम समाज को सुरक्षित रख सकें तो संस्थाओं ,मंदिरों और तीर्थ स्थानों को सुरक्षित रख सकेंगे। एक व्यक्ति में इन सबकी रक्षा करने की सामर्थ्य नहीं हैं। संस्थाएँ , समाज के उत्कर्ष के लिये अत्यंत आवश्यक हैं। यदि इस वाणिक्
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कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ समाज में आज कुछ जागृति आई है तो इन संस्थाओं के माध्यम से ही आई है। पूर्वजों के द्वारा संस्थापित इन संस्था रूप वृक्षों को यदि हम हरा भरा न रख सके तो पश्चात्ताप की तपन में झुलसे बिना न रहेंगे ।
आज हमें साहित्य की भी बड़ी आवश्यकता है। "जहाँ नहीं साहित्य वहाँ आदित्य नहीं है"- जहां साहित्य नहीं है वहाँ अंधेरा ही अंधेरा है। जिन समाजों में कोई दार्शनिक, कोई सुदृढ़ मान्यताएँ और सिद्धांत नहीं हैं वे भी अपना थोथा साहित्य प्रकाशित कर दुनियाँ में अपना स्थान बना चुकी हैं, पर जिस जैन धर्म का दार्शनिक तत्त्व अजेय है, आचार पक्ष प्रशस्त है तथा विश्व कल्याण की भावना जिनमें प्रकट की गई है। उसका, विदेशों की बात जाने दो देश में भी पूरा प्रचार नहीं है। हम मन्दिरों का निर्माण तो करते है, प्रति वर्ष सैकड़ों प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराते हैं पर भगवान् के सिद्धान्तों के प्रसार की ओर हमारा लक्ष्य नहीं जाता । यह एक ऐसा स्वर्ण युग है जिसमें लोगों का धर्म सम्बन्धी संघर्ष कम हुआ है। एक जमाना तो वह था जब एक धर्म वाले दूसरे धर्म वाले की बात सुनने के लिये तैयार नहीं थे। पर आज जनता में इतनी उदातरता आई है कि वह एक दूसरे के धर्म की बात को बड़ी श्रद्धा और प्रेम के साथ सुनने को तैयार है। खेत की भूमि इस समय प्रशस्त है उसमें बीज डालने की आवश्यकता है । यदि समय पर हम अच्छा बीज डाल सके तो उसका फल हम भोगेंगे और हमारी संतान भोगेगी।
आजकल समाज में एकांकी विचारधारा का प्रचार होता जा रहा है जो समाज की उन्नति तथा संगठन में बाधक है। कोई पुण्य को सर्वथा हेय समझ बैठे हैं जिसके कारण वे संस्थाओं को दान देना, परोपकार करना, पूजा करना, सहयोग देना आदि आवश्यक कर्त्तव्यों को छोड़ते जाते हैं। इससे समाज के संगठन में बाधा आने लगी है। इस एकांगी विचारधारा के कारण ही मानव अनुचित प्रवृत्ति करते हुए भी अपने को धर्मात्मा और महात्मा मानने लगे हैं। अत: एकान्त विचारधारा को छोड़कर स्याद्वादी विचारधारा का प्रयत्न किया जाय तो समाज का कल्याण हो ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पाप के बाप का प्रभाव और उसकी चिकित्सा की खोज
कुछ दिन हुये राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने देश में बढ़ती हुई धन भोग-प्रवृत्ति की लिप्सा के प्रसंग पर दुःख प्रकट किया था। वर्तमान में भारत के नारी-नर, बालक, युवा, वृद्ध अपना जीवन स्तर उन्नत करने की आड़ में धन-संग्रह और उसका निज देह हित उपयोग करने की प्रेरणा पाश्चात्य सामाजिक जीवन से प्राप्त करते हुए अपने पारस्परिक जीवन-दर्शन को तिलाज्जलि देकर नवीन दर्शन की अखंड धारा में बहे चले जा रहे हैं । राष्ट्रपति परम-दार्शनिक हैं। द्वारका में ज्योतिर्मठ की यात्रा के अवसर पर उनने अन्तर्मुख तत्व, आत्मा को सदैव स्मरण रखने की कल्याणकारिणी प्रेरणा अपने देश वासियों को दी थी। यह ध्यान रखने कीआवश्यकता है कि यह नर-देह तभी तक चमत्कारी और आर्कषक है, जब कि इसमें जीवात्मा विलास करता है। आत्मा के बिना वह नि: सार और अमंगल-रूप है। इसी कारण भारतीय विचारकों ने देह के स्थान में आत्मा की ओर विचार-शील सामाजिकों का ध्यान बहुधा आकृष्ट किया है। इसके अंतर में कारण यह है कि देह तो जीव अनेक बार समय समय पर नवीन नवीन धारण कर चुका है, अतएव त्रिकाल स्थायी वस्तु की
और लक्ष्य का केन्द्र बिन्दु स्थापित करना उचित है । कहा कि देश में यादनीय केवल आत्मा ही है, वही ब्रह्म है और देह में आसक्त होना आदि अब्रह्म है।
कविवर दौलतराम जी ने मनुष्य को संबोधते हुये इसी हेतु गाया है कि “झुकै मत भोगन ओरी, मान लै या सिख मोरी" और नर मेरी यह शिक्षा हृदयंगम कर कि भोगों की ओर प्रवृत्ति न कर। फिर आगे कहते हैं कि “भोग-भुजंग-भोग सम जानो जिन इन सो रति जोरी । ते अनन्त भव भीम भरे दुःख परे अधोगति पोरी, सहे भव व्याधि कठोरी।" भुजंग भोग जिस प्रकार जीवन नष्ट कर देता है और बड़ी कठिनता से सर्प द्वारा डसे हुए व्यक्ति का प्राणान्त कष्ट सह सह कर होता है, उसी भाँति विषयों को भोगने के फल-स्वरूप संसार परिभ्रमण के घोर कष्टों को जीवात्मा उपलब्ध करता है, और नीच-गति रूप पोल में प्रवेश करके भव कारागृह में कठोर यातनाएँ ही प्राप्त करता है, जहाँ से कि छूटना अत्यन्त कठिन है ।विषय भोग अब्रह्म सेवन ही जो है। कारावास में सुख नहीं है ,सुख तो स्वाधीनता में है । इसी कारण पर दुःख कातर महामना डा. राधाकृष्णन अपने देशवासियों की बढ़ती हुई भोग लिप्सा का विचार कर दुःखी हुये। उनके देश के लोग यदि अध्यात्म की
ओर ब्रह्म के प्रति त्याग की तरफ झुकते दिखाई देते तो उन्हें स्वाधीन निराकुल निजानन्द रूप अमृत का पान करते हुये जानकर उन्हें संतोष एवं आनन्द होता।
इन्द्रियों द्वारा विषयों का भोग होता है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और मधुर शब्द अनात्म उद्भूत तत्व है। धन-संग्रह बिना प्राप्य नहीं और धन की अभिलाषा अथवा भोगाकांक्षा जब एक बार जीव पर छा जाती है तो वह घटने का नाम नहीं लेती, दिन दूनी और रात चौगनी होती जाती है। निन्यानवे का फेर जग प्रसिद्ध है। समाजवाद अथवा साम्यवाद का Utopia सिद्धांत मनुष्य की धन लिप्सा और भोग प्रवृत्ति का परिवर्द्धन करने वाला है। समाजवादी किं वा साम्यवादी अपने सिद्धांत का प्रतिपादन और प्रचार करते हुए समझते हैं कि वे
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लोक कल्याण कारिणी सुख वाहिनी समान शैली का प्रचार कर रहे हैं। एवं उनकी पद्धति से सुखी समाज का सर्जन होगा। प्रतीत होता है मानो भारतीय दर्शन सार से रहित दु:खावह और लोगों को पतन की ओर ले जाने वाला है और रहा। अनेकों बार यह तर्क दिया गया और दिया जाता है कि भारतीय दर्शन की परलोक दृष्टाप्रवृत्ति में ही देश को अवनति के गर्त में ढकेला था। तथापि यह शान्त चित्त से सोचने की आवश्यकता है कि धन की लिप्सा और भोगाकांक्षा निरन्तर वृद्धिंगत ही होती है क्या मानव को दानव न बना कर बीच में विराम ले लेगी।
___ कविवर दौलतराम जी ने यह भी गाया कि "भोगन की अभिलाष हरन को त्रिजग संपदा थोरी"। "भोगकांक्षा का परिणाम नित्य-प्रति अधिकाधिक होता जाता है और उसकी सीमा समान तीन लोक की सम्पदा से कम नही । यदि सभी मनुष्यों के पास घातक साधन एक जैसे हों तो भोग लिप्सा चरम अवधि तक पहुँच जाने की अवस्था में दुनियाँ किस प्रकार की शान्ति का आगार बनेंगी ? इस प्रश्न का उत्तर भयावह है। इसी कारण विचारवानों ने भोग-त्याग अथवा गृहस्थों को परिग्रह परिमाण का उपदेश देकर जगत में शान्ति स्थापित करने का महान उपक्रम किया था। आज भी राज्य सरकारें कतिपय आवश्यक वस्तुओं के वितरण सम्बन्धी Control Order जारी करके सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने की कार्यवाही की नीति अपना रही है। संग्रह की बढ़ती हुई सामाजिक प्रवृत्ति का आतंक कारी रूप गत वर्ष तब सामने आया जब कि इन भोगाकाक्षियों ने सभी व्यक्तियों की अतीव आवश्यकता की वस्तु अनाज को अपनी लालसा की तृप्ति का साधन बनाया। इस वर्ष का दुष्काल मानो देशवासियों की ज्ञान-चक्षु उन्मूलन करने के लिए ही प्रकट हुआ है
और लोगों को सीख दे रहा है कि धन संग्रह की प्रवृत्ति सुखोत्पादक कभी नहीं हो सकती, यह गाँठ बाँध लो। देश के अर्थ व्यवस्थापकों एवं धारा शास्त्रियों तक ने इन संग्रहकों को असामाजिक तत्व और उनकी प्रवृत्ति को black marketting अर्थात निशाचरी क्रिया कहा है। महाकवि तुलसीदास ने रजनी-चरों और निशाचरों के नाम से उन लोगों की ओर संकेत किया है जिन्हें वे दुरात्मा और पापी कहते हैं एवं हरि विमुख नारकी जीव बतलाते हैं। धनिकों के विषय में Bible कहा है "It is easy for a Camel to pass though a needle's eye rather than for a rich man to enter the portals of heaven"
आचार्य-वर्य भगवान उमास्वामी ने सूत्र कहा है "बहारंभ परिग्रहत्वं नारकस्यायुषः । "बहुत आरंभ करके और अनावश्यक अपरिमेय परिग्रह जुटा कर मनुष्य घोर नरक भूमि प्राप्त करने का पात्र होता है और अधिकाधिक भोग-सामग्री अन्य जीवों का भाग छल-बल द्वारा अपहरण किये बिना संग्रह हो नहीं सकता। कोट्याधीशों को हम उनकी सम्पत्ति की चकाचौंध और जीवनोपयोगी वस्तुओं की सुलभता देखकर पुण्यवान कह दिया करते हैं यह उलटी समझ है। भोगियों के जगत् में सर्वाधिक भोगी विशेषता रखता है। और साधारणतया संसारी जन अपनी लोभ-वृत्ति के अभिभूत दशा में धनाढ्यों की प्रशंसा में चार चाँद लगा देते हैं। तथा यह कहते हुए भी नहीं सकुचाते कि 'सर्वेगुणा: कांचनमाश्रयंति। ' वस्तुत: तो सत्य यह है,जैसा कि महाभारत में वेद व्यास ने कहा है कि स्वर्ण में कलि का वास है ।अर्थात् जहाँ स्वर्ण है वहाँ पाप रुप निविड़ अंधकार है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अधुना जैन समाज अधिकांश व्यापारी वर्ग है । क्षत्रिय इन दिनों जैन समाज में नगण्य है। ब्रह्म लीन ब्राह्मण तो इने गिने ही होते है । जैन तीर्थकर सब क्षत्रिय ही हुये हैं। मोक्षगामी वैश्य पुत्र का उदाहरण एक जंबूस्वामी का सारे आगम में अकेला ही प्रगटता है। तो बाइबिल का कथन सत्य होना सरलता से समझ में आता है एवं इस्लाम में सूद-खोरी को त्याग का उपदेश भी भगवान उमा स्वामी के वाक्यों का अनुयायी जान पड़ता है। तब यह जैन समाज किस बल बूते पर स्वर्ग प्राप्ति का टिकट अपने सदस्यों को दे सकने की दम भरेगा हमारे सचमुच गम्भीरता से विचरने का स्थान है ।यदि पाँच पापों को त्याग का उपदेश जैन आगम और पुराण सिद्धांत का न होता तो अवश्य ही जेलें वणिकों से भरी मिलतीं। अभी तक यह अभिमान व्यापारी वर्ग को रहा है। कि व्यापारी जेल यातना का अधिकारी नहीं बन सकता। किन्तु सच पूछिए तो जैन धर्म रूपी पतवार का सहारा पाकर ही उनकी नैया संकट समुद्र में डूबने से बची चली आ रही है , जहाँ कि परिग्रह त्याग एवं परिग्रह परिमाण की प्रेरणा बलवती है। आचार्यवर्य गुणभद्र स्वामी का कथन है :
"शुद्धैर्धनै विवर्धन्ते सतामपि न संपदः ।
नहि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णा: कदाचिदपि सिन्धवः ॥" सिन्धु में अपार जलराशि है तथापि वह मधुर स्वादिष्ट नहीं. अपितु क्षार और अपेय है । मीठे पानी के जलाशय तो छोटे ही प्राय: होते हैं। नदियों में जब बाढ़ आती है तो वह पानी मलिन ही होता है ।सूक्ति इस बात की ओर संकेत करती है कि धनोपार्जन न्याय से किया जाना चाहिये।
अधिकांश देखने में आता है कि हमारे विपणक बन्धु अपने द्वारा वितरणीय वस्तु का विक्रय भाव बम्बई के भाव समाचार जानकर बदलते रहते हैं। यह वृत्ति उचित है या अनुचित इस विषय में व्यावहारिक मत भेद चलता है। किन्तु वह न तो धार्मिक है और न ही नैतिक तथा न्यायिक और सामाजिक भी सर्वथा नहीं है। व्यापारिक लाभ की मात्रा सीमित एवं निश्चित ही होना चाहिए । धन संग्रह की प्रवृत्ति की धारा में यदा कदा अपने पास रखी वस्तु का मूल्य बढ़ाते रहना प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता-ही नहीं, यह पाप के दायरे से बाहर नहीं है । लोभ पाप का बाप कहा गया है। और एक चोर बाजारी अपनी लोभ प्रवृत्ति के पोषण और रक्षण के लिये सारे वातावरण को कलुषित कर देता है । वह केवल अपने सम- व्यावसायियों को फोड़ कर अपनी रक्षा के लिए संघ बनाता है और उन्हें अपने ही पथ पर चलने के लिए लुभाता तथा प्रेरित करता है किन्तु साथ ही शिथिल चरित्र राज्यधिकारियों और राज-कर्मियों को अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिए उत्कोच प्रदान कर उनके मार्ग से पतित करता है।
भ्रष्टाचार बढ़ जाने की चर्चा बड़े सबल रूप से वर्तमान गृहमंत्री श्री गुलजारी लाल जी नन्दा के स्वराष्ट्र विभाग का खरीता सँभालने के उपरांत चली थी और परिणाम स्वरूप किन्हीं किन्हीं राज्यों में इसके विषय में पृथक विभाग खोला गया तथा उत्कोच लेने तथा उत्कोच देने वाले नागरिकों को समुचित पथ पर लाने एवं अपराधियों को दण्ड देने के लिए भारतीय संसद ने भ्रष्ट्राचार निरोधक अधिनियम भी पारित कराकर
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ देश में लागू किया। श्री नन्दा ने नीति मार्ग को त्याग कर अनीति पथ पर विहार करने वालों को सुधारने के लिए एक विशेष कार्यक्रम भी अपनाया था। संत श्री तुकडोजी पर उन पर गृहमंत्री की श्रद्धा विशेष है।आवश्यकता से अधिक निर्भर रहने की भावना उनमें सहसा जगी, देश ने भी उनका साथ दिया किंवा श्री तुकड़ो के सभापतित्व में साधु समाज की स्थापना हुई। समझा जाने लगा कि साधु समाज के पास काम काज तो न कुछ है ही उनका प्रभाव भी भारतीय समाज पर है अतएव अपने प्रभाव और चरित्र के बल पर वह समाज को बदल देगा। कई साधु समाज सदस्यों में अपने नये कार्य के लिए चेतना भी जगी। साधुओं के उदर भरण का दायित्व राज्य को अपने ऊपर ले लेने का आश्वासन दिया। और साधु वर्ग ने जन साधारण की नैतिकता को ऊँचा उठाने का ठोस संकल्प करना आरम्भ कर दिया । तथापि आज इतना समय व्यतीत हो जाने पर भी उस दिशा में अणु भर भी काम न हुआ। श्री तुकड़ों जी का आज नाम भी सुनने में नहीं आता न साधु समाज ही है। और न कोई कार्य क्रम एवं न ही भारतीय जनता का नैतिक उत्थान ही हुआ। श्वेताम्बर जैन समाज के आचार्य तुलसी ने अणुव्रती आंदोलन भी जारी किया। वह कुछ चला, किन्तु जनता का नैतिक स्तर न उठा। संभवत: श्री नंदा ने उपयुक्त व्यक्ति को खोजा ही नहीं।
जहां परलोक में भी भोगों के लिए लालसा की जाती हो वहां से नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने की दिशा में प्रयत्न की आशा न केवल दुराशा है परन्तु मृग तृष्णा है । वीतराग साधु से ही जो कि पर वस्तु से सर्वथा उदासीन हो जन-समूह का चरित्र सुधारने के कार्यक्रम को चलाने की आशा वस्तुत: की जा सकती है। वे ही अपने मुख से उच्चारित कर सकते है "विषय-कषाय दुखद दोनों ये इनसे तोड़नेह की डोरी।“अरे सुखाभिलाषी प्राणी यदि तू सुख चाहता है तो इन्द्रियों के विषयों को छोड़ उनके विषय में रति अरति को अपने मानस पटल से दूर कर दे, फिर देख तू स्वाधीन होकर कैसे अतिन्द्रिय निराकुल सुखको आस्वादन कर सकेगा। जब तक तेरे पास रति अरति है पंचेन्द्रियों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषय में तू राग और द्वेष करेगा, तब तक सुख कहाँ? अंग्रेजी कवि Shelley ने कहा है
"We look before and after and pine for what is not, Our sweetest song are those that are
full of saddest thought " सांसरिक सुखों की मधुरिमा का आस्वादन परिपाक में कटु-फल ही फलता है।
तब फिर इस समारोह की अवधि कहाँ है और क्या है ? उत्तर ढूंढना सरल भी है और कठिन भी, डॉ. राधाकृष्णन का संकेत है कि धन की तृष्णा और भोगों की लिप्सा समाज में घटे। पाश्चात्य राजनीति दर्शन उस दिशा में उपयोगी नहीं है । भारतीय दर्शन ही सुख शान्ति की कुन्जी है। उनमें प्राण प्रतिष्ठा की जावे तो काम बन सकता है। चारित्र का सुधार और नैतिक स्तर का उत्थान तभी संभव है। वीतराग के अनुयायियों का इस दिशा में सर्व प्रथम दायित्व है ।पथ प्रदर्शन की यदि क्षमता कहीं है तो उन्हीं में हैं , क्योंकि इस मार्ग पर
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ चलने का उनमें ही सुचारू अभ्यास है। अपने आराध्य देव की अभ्यर्थना के उपरांत प्रसाद के रूप में मिलने मिठाई के टुकड़े को जो तत्काल खा जाते हैं। और जिनके दर्शन में आत्मलीनता को सुख नहीं बताया उनके वश से यह बाहर की बात है ।
परिणाम में अनुरोध किया जाता है कि जिनेन्द्र के अनुयायियों से कि आप युग धारा में न बह जाइये अपने उच्च आदर्शो को न केवल न भूल जाइये अपितु उन्हें प्राप्त करने में दृढ़ता पूर्वक लोभ के परिणाम नियमन करके औरों के लिए अनुकरणीय बनिये | अपने व्यवहार और आचार में नियत रहित पाप के बाप के समक्ष अपना मस्तक न झुकाइये और कठिनाईयाँ सहन करके अपने नियत परसेंटेज से जो अधिक लाभ कभी न प्राप्त करिए तथा अपने जो बन्धु इस मार्ग में चलायमान हो गये हों या हो रहे हों उन्हें समझाकर सही मार्ग पर स्थिर कर दीजिए यह तो हुई करणी की बात । दूसरा उपाय है कथनी का, तत्सम्बन्ध में वीतराग गुरूओं से नम्र निवेदन है कि उपेक्षा भाव दूर रख कर आप भारत का नैतिक स्तर ऊँचा करें। आपका उपदेश प्रभावशाली होगा, जन साधारण को मुक्त रूप से आप त्याग मार्ग पर योजित करें। जिस काल रोगी को औषधि की आवश्यकता है उसी काल चिकित्सा होना आवश्यक है न कि रोग के असाध्य हो जाने पर । तदर्थ आप आम सभाएँ लगावें ।
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जीव अजीव आश्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष इन सात तत्वों में बंध और मोक्ष का कथन किया गया है। ये परस्पर विरोधी दो दशायें हैं जिनमें बंधदशा दो द्रव्यों के संयोग से होती हुई क्षणिक (अनित्य) होती है। और मोक्षदशा संयोग का नाश होने पर स्वतंत्र द्रव्य की नित्य होती है । जहाँ संयोग (बंध) होता है । वहाँ वियोग (मुक्ति) अवश्य होती है। यदि चोर कारागार या जंजीर के बंधन में पड़ा है तो समयपूर्ण होने पर उसकी मुक्ति अवश्य होती है। इसी प्रकार आत्मा और कर्मपुद्गल का दूध पानी की तरह बंधन (मेल) अवश्य है परन्तु समय (स्थिति) पूर्ण होने पर आत्मा की मुक्ति भी अवश्य हो जाती है। वह स्वतंत्र हो जाता है अतः मुक्ति के विषय में जैनदर्शन की मान्यता तथा अन्य दर्शनों की मान्यता का ज्ञानकर लेना अत्यावश्यक है ।
जैनदर्शन - "बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः”
हुए कर्मो को रोक देने से तथा बद्ध कर्म परमाणुओं को क्रमशः दूर करते रहने से आत्मा के समस्त कर्मों का सम्पूर्ण रूप से क्षय (नाश) हो जाना और आत्मा का पूर्णशुद्ध (स्वतंत्र) दशा को प्राप्त हो जाना मोक्ष है।
न्यायदर्शन -
विभिन्न धर्मो में मुक्ति की मान्यता
न्यायदर्शन के जन्मदाता गौतम ऋषि है। उनका मत है कि संसार दुःखमय है। दुःख के कारण राग, द्वेष, मोह हैं । तत्त्वज्ञान से जब राग द्वेष आदि दोष नष्ट हो जाते हैं तब आत्मा का मोक्ष होता है। "दुःख जन्म प्रवृत्ति दोषमिथ्याज्ञानानां उत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्ग:” (न्यायसूत्र 1-1-21 )
वैशेषिकदर्शन -
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद है उनका मत है कि संसार दुःखमय है मोक्ष की प्राप्ति तत्त्वज्ञान से होती है बुद्धि सुख-दुख आदि नव विशेष गुणों का विनाश हो जाना आत्मा का मोक्ष है । "बुद्धयादिवैशेषिक गुणोच्छेदः पुरुषस्य मोक्षः " ।
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सांख्यदर्शन -
इस दर्शन के जन्मदाता महर्षि कपिल हैं । 'ज्ञानान्मुक्तिः' अर्थात् ज्ञान से ही मुक्ति होती है। प्रकृति और पुरुष (आत्मा) का संयोग ही संसार है । और प्रकृति का पुरुष से अलग हो जाना ही मोक्ष है। योगदर्शन
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इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि पातंजलि है । समाधि (परमध्यान) से अपने ज्ञानस्वरूप में लीन हो जाना आत्मा का मोक्ष है ।
" तस्मिन्निवृत्तेः पुरुषः स्वरूपप्रतिष्ठः अतः शुद्धो मुक्तः इत्युच्ये" (योगसूत्र - 1-5 )
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पूर्वमीमांसादर्शन
इस दर्शन के प्रणेता महर्षि जैमिनी हैं। दान पूजा यज्ञ आदि कर्तव्यों के द्वारा स्वर्ग को प्राप्त करना आत्मा का मोक्ष है । इस दर्शन में स्वर्ग को ही मोक्ष माना गया है। उत्तरमीमांसा वेदांत दर्शन -
वेदांतदर्शन के प्रवर्तक महर्षि बादरायण है । इस दर्शन का सिद्धांत है कि - "जीवो ब्रह्मैव नापर:,नित्यं शुद्ध बुद्ध मुक्तसत्यस्वभावं प्रत्यक् चैतन्यमेकं आत्मतत्त्वम्"
अर्थ - जीव ब्रह्मा ही है, दूसरा कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं। नित्य, शुद्ध बुद्ध मुक्त सत्यस्वभावी वीतराग चैतन्यरूप ही आत्मतत्त्व है। ब्रह्मरूप जीव ब्रह्म की माया से ही संसारी जीव बन जाता है और शरीर आदि वस्तुओं में मोह करता है । मुक्त जीवों के सब गुण ईश्वर के समान हो जाते है । परन्तु सब जगत् का कर्तव्य गुण ईश्वर में ही रहता है, मुक्तात्माओं का संबंध जगत् की रचना से नहीं है। बौद्धदर्शन
इस दर्शन के जन्मदाता महात्मा बुद्ध है। इस दर्शन का मुक्तिसिद्धांत है कि जैसे जलता हुआ दीपक दशों दिशाओं में नहीं जाता है किन्तु तेल के अभाव में अपने स्थान में शान्त (नष्ट) हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा की दशों दिशाओं में न जाकर अपने स्थान में ही, मोह क्लेश आदि दोषों के नष्ट हो जाने से शांत (नष्ट) हो जाता है यही आत्मा का मोक्ष है। चार्वाक दर्शन
इस दर्शन का सिद्धांत है कि आत्मा और शरीर दो स्वतंत्र द्रव्ये नहीं है किन्तु पृथ्वी आदि पंच भूतो से बना हुआ एक विचित्र पिण्ड है जो जन्म के पहले नहीं होता और मरण के बाद भी नहीं रहता है मरण होने पर आत्मा का उच्छेद (नाश) हो जाना ही मोक्ष है। खार्पटिकमत
__ श्री अमृतचंद्र आचार्य के समय भारत में खारपटिकमत प्रचलित था । मोक्ष के विषय में उसकी मान्यता है कि जैसे घड़े में कैद की हुई चिड़िया घड़े के फूट जाने से मुक्त हो जाती है । वैसे ही शरीर के नष्ट हो जाने से, शरीर में रूका हुआ आत्मा भी मुक्त हो जाता है यही मोक्ष है। थियोसोफीमत -
यह हिन्दु धर्म के अंतर्गत मान लिया गया है। इसका सिद्धांत है कि इस जगत् में एक अतिविशाल जड़ द्रव्य है जो बहुत उष्ण है। उसका करोड़ों मील का विस्तार है, वह मेघ के समान शक्तियों का समूह है। वह घूमते-घूमते सूर्य का मण्डल बन जाता है। उसी से हाइड्रोजन वायु, लोहा आदि पदार्थ बन जाते हैं। कुछ संयोग से जीवनशक्ति प्रगट हो जाती है। इसी से क्रमश: वनस्पति पशु पक्षी तथा मनुष्य बन जाते हैं । ज्ञान प्राप्त करके वह मानव अंत में मुक्त हो जाता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आर्यसमाज -
इस सम्प्रदाय के जन्मदाता ऋषि दयानंद सरस्वती है। इसकी मान्यता है कि परमात्मा, जीव और प्रकृति ये तीन पदार्थ अनादि काल से है। "मुक्ति में जीव विद्यमान रहता है। विश्वव्यापी ब्रह्म में वह मुक्त जीव बिना रूकावट के विज्ञान-आनंद पूर्वक स्वतंत्र विचरता है।" "जीव मुक्ति पाकर पुन: संसार में आता है।"
"परमात्मा हमें मुक्ति में आनंद भुगाकर फिर पृथ्वी पर माता-पिता के दर्शन कराता है।" (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास पृ. 252) ईसाईमत -
इस मत के जन्मदाता महात्मा ईशा हैं। इस मत के धर्मग्रन्थों से सिद्ध होता है कि यह जीव स्वयं अपने पुरुषार्थ से पूर्ण शुद्ध परमात्मा बनने की शक्ति रखता है और एक दिन परमात्मा बन सकता है। (न्यू टेस्टामेन्ट)
इच्छा करो और तुम प्राप्त कर लोगे। खोजो और तुमको मिल जायेगा। खटखटाओं और तुम्हारे लिए दरवाजा खुल जायेगा । क्योंकि जो चाहता है वह पा सकता है । जो खोजता है वह ले सकता है। जो खटखटायेगा उसके लिए द्वार खुल जायेगा। इसका भाव ही है कि मुक्ति तुम्हारे ही पास है जो पुरुषार्थ करता है वह पाता है। (सैन्ट मैथ्यू)
जब परमात्मा रूप आत्मा होता है वही मुक्ति है स्वाधीनता है। (कोरनिथियन्स) पारसी धर्म
हे परमात्मा मेरी अंतरंग विवेक बुद्धि मुझे वह सत्य बतावे जो मेरी रक्षार्थ व शांति के लाभार्थ सर्व सिद्धांतों में उत्तम सिद्धांत है । इसी से मैं आत्मा को इष्ट जो स्वानुभव है उसे प्राप्त करूंगा । वह स्वानुभव परमज्योतिमय है, परम पवित्र है, बलिष्ठ है, सदा ही आनंदमय है और आश्चर्यकारक लाभकारी है । वही मुक्ति है। (विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा पृ. 233) मुस्लिम धर्म -
मुस्लिम धर्म के प्रवर्तक मौलवी मोहम्मद है। इस धर्म की मान्यता है कि "जो कोई अपने को पवित्र रखेगा वह अपने ही को पवित्र करता है। परमात्मा के पास अंतिम सबको एकत्र होना होगा। वास्तव में जो परमात्मा की पुस्तक पढेंगे, प्रार्थना करेंगे, सर्वसाधारण को गुप्तरीति से दान करेंगे, उन को ऐसा सौदा मिलेगा जो कभी नष्ट नहीं होगा।" अर्थात् मुक्ति प्राप्त होगी।
उपरिकथित विभिन्न दर्शनों और धर्मो की मान्यता एवं सिद्धांतों से सिद्ध हो जाता है, कि आत्मा की यदि बंधन दशा है तो उसकी विरोधी मुक्ति अवस्था भी अवश्य होती है । इसलिए प्रत्येक दर्शन या धर्म ने किसी न किसी रूप में मुक्ति मोक्ष (पूर्णस्वतंत्रता) को अवश्य स्वीकार किया है उस की सत्ता का लोप, अतीन्द्रिय होने पर भी कदापि नहीं हो सकता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वैदिक धर्म और जैनधर्म का समन्वय
वर्तमान विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं उन में से एक वैदिक धर्म और एक जैनधर्म अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ता रखते हैं। वैदिक धर्म का मूलाधार वेद है, वेद में कथित संस्कार, क्रियाकाण्ड, नियम, भक्तिमार्ग, साहित्य आदि वैदिक धर्म की रूपरेखा है । जैनधर्म का मूलाधार कर्मशत्रुओं को जीतने वाले जिन हैं, उनके द्वारा कहा गया वस्तुत्त्व, आचार,विचार,संस्कार आदि जैनधर्म की रूपरेखा है। दोनों धर्मो में क्या समानता है और क्या असमानता है। इस पर विचार कर लेना आवश्यक है। जैनधर्म में अहिंसा
अहिंसापरमो धर्म: यतो धर्मस्ततो जयः __अर्थात् - अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है और हिंसा सबसे बड़ा पाप है। जहाँ अहिंसा धर्म अच्छी तरह पालन होता है वहाँ सब प्रकार से मानव की विजय होती है। वैदिक धर्म -
अहिंसा परमो धर्मः, तथाऽहिंसा परोदम: ।
अहिंसा परमंज्ञानं, अहिंसा परमं तपः ॥ अर्थात् - अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है, इन्द्रियों के विषयों का दमन करना अहिंसा है, सत्य ज्ञान प्राप्त करना अहिंसा है, परमतप का आचरण करना अहिंसा है। जैनधर्म में दसधर्म -
धर्म:सेव्य: क्षान्ति मृदुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् ।
आकिं चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ॥ अर्थ - (1) क्षमा (क्रोध न करना), (2) मार्दव (अभिमान न करना), (3) आर्जव (छल कपट न करना), (4) शौच (लोभ न करना), (5) सत्य, (6) संयम (इन्द्रियवशीकरण तथा जीव रक्षण), (7) तप (इच्छा का रोकना, उपवास आदि करना), (8) त्याग (परोपकार अथवा दान करना), (9) आकिंचन्य (वस्तुओं से मोह का त्याग) (10) ब्रह्मचर्य । वैदिक धर्म में दस धर्म - . धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ (मनुस्मृति) अर्थ- 1. धैर्य , 2 क्षमा, 3 पापों का दमन, 4 अस्तेय (चोरी न करना), 5 शौच (लोभ न करना), 6 इन्द्रियों के विषयों का त्याग, 7 निर्दोष बुद्धि, 8 ज्ञान, 9 सत्य, 10 क्रोध मान आदि का त्याग ये दस धर्म के लक्षण हैं।
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैनधर्म सत् और जगत्
जगत् की प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति विनाश ओर नित्यता ये तीन क्रिया एक साथ पाई जाती है इसलिए वस्तु सत् रूप है ।जो वस्तु (मौजूद) है उसका मूलत: विनाश कभी नहीं होता और उसकी दशायें अवश्य उत्पन्न तथा नष्ट होती रहती है । इसी प्रकार जो वस्तु असत् (नहीं) है उसकी कभी उत्पत्ति नहीं हो सकती है जैसे आकाश का फूल, खरगोश का सींग इत्यादि । इस जगत् की मुख्य द्रव्य दोनों जीव-अजीव सत् रूप होने से अनादि अनंत सिद्ध हो जाती हैं अतएव द्रव्य का समूह रूप जगत् भी अनादि अनंत है। यह सिद्ध होता है कि ईश्वर जगत का कर्ता धर्ता नहीं है। वैदिक दर्शन में सत् और जगत् -
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: ।
उभयोरपि दृष्टान्तस्त्व नयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ गीता 16-2॥ अर्थ- असत् वस्तु (जो नहीं है) कभी पैदा नहीं हो सकती और सत् (जो है) वस्तु का कभी नाश नहीं हो सकता। तत्त्वदर्शियों ने इन दोनों के धर्म को जाना है इससे सिद्ध है कि वस्तु या द्रव्य का समूह रूप जगत् भी सत् है उसका कभी नाश नहीं हो सकता। परन्तु वस्तु की दशा में परिवर्तन अवश्य होता रहता है अत: जगत् अनादि और अनंत है पूर्व मीमांसा वैदिक दर्शन भी यही कहता है कि ईश्वर जगत् का कर्ता धर्ता नहीं है। जैनदर्शन में आत्मा की रूपरेखा -
निजानन्दमयं शुद्धं निराकारं निरामयम् ।
अनंतसुख सम्पन्नं सर्वसङ्ग विवर्जितम् ॥ यह आत्मा आनंदमय, शुद्ध निराकार, निरोग, अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति से सहित, जन्म जरा मरण, राग द्वेष , मोह आदि 18 दोषों से रहित निर्मल हैं। वैदिक दर्शन में आत्मा -
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा वा न भूयः ।
अजोनित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ यह आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है, न यह नष्ट होता है, न पैदा होता है। यह आत्मा नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी वह नाश नहीं होता। जैनदर्शन में ईश्वर कर्तृत्वाभाव -
__ जैनदर्शन की मान्यता है कि परमात्मा, शुद्ध कृतकृत्य, अनंतज्ञानी, अनंतशक्तिमान, परमानंद सम्पन्न और विश्वदर्शक है । वह जगत् को नहीं बनाता है, न संरक्षक है और न विनाशक है। जगत् के पदार्थो की उत्पत्ति तथा विनाश स्वभाव (प्रकृति) से होता है।
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कृतित्व / हिन्दी
पूर्व मीमांसावैदिक दर्शन की मान्यता -
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफल संयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ (गीता)
अर्थ - ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है न जगत् के कार्यो का (जल, वर्षा, ऋतु आदि का) कर्ता है, न प्राणियों के कर्मफल संयोग का कर्ता है किन्तु जगत् और उसके कार्य स्वाभाविक ही होते रहते है। जैसे जल वृष्टि, शीत आदि । कुछ कार्य प्राणी अपनी इच्छा से करते हैं जैसे घर रोटी आदि ।
जैन दर्शन की मान्यता है कि संसारी प्राणी मन-वचन - शरीर की क्रिया से तथा रागद्वेष अज्ञान भावों कर्मपरमाणुओं का आत्मा में बंध करते है। और उन पुण्यपाप कर्मो का फल सुख, दुख को स्वयं भोगते हैं। गीता में वैदिक दर्शन की भी मान्यता है -
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
"
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः ||15-511
अर्थ - ईश्वर न किसी प्राणी के पुण्य पाप को बनाता है और न ग्रहण करके उनको सुखदुख फल देता है । अज्ञान से प्राणियों का ज्ञान या विवेक, दूषित हो रहा है इससे प्राणी सुखदुख फल को भोगते हैं, जन्म मरण करते हैं ।
जैनदर्शन में परमात्मा की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा जल चंदन आदि आठ द्रव्यों से की जाती है और हिन्दू धर्म में ईश्वर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा जल फूल आदि द्रव्यों से की जाती है।
जैनदर्शन में वेद स्मृति और ब्राह्मण ग्रन्थों को प्रमाण नहीं माना गया है और हिन्दु धर्म में प्रमाण माना गया है। ये ग्रन्थ ही हिन्दू धर्म के मुख्य आधार हैं।
जैनदर्शन के धार्मिक सिद्धांत, तत्त्व और उनके मार्ग निश्चित हैं परन्तु हिन्दू धर्म में परस्पर विरोधी अनेक सिद्धांत और उनके मार्ग हैं।
वैदिक दर्शन में युग-युग में जगत् की सृष्टि ओर प्रलय माना गया है और जैनदर्शन में स्वयं परिवर्तनशील होते हुए जगत् को परम्परा से अनादि अनंत माना गया है।
हिन्दूदर्शन में सनातन वैदिक धर्म को ईश्वर की प्रेरणा से ब्रह्मा द्वारा कथित माना गया है और जैनदर्शन में उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणीकाल में होने वाले तीर्थङ्करों द्वारा सत्यधर्म का विकास माना गया है। हिन्दू धर्म में देवताओं द्वारा मोक्ष प्राप्त करना माना गया है और जैनदर्शन में किसी भी भव्य मानव द्वारा रत्नत्रय की साधना से मोक्ष प्राप्त करना माना गया है।
हिन्दूधर्म में ईश्वर द्वारा प्रदत्त पुण्यपाप की क्रिया को कर्म और उसका फल सुख-दुख माना गया है। धर्म में माना गया है कि जीव के भाव एवं क्रिया द्वारा प्राप्त किये गये कर्मरूप सूक्ष्म परमाणुओं का संयोग जीव के साथ होता है और उन कर्म परमाणुओं का फल सुख-दुख, जीव स्वयं प्राप्त करता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हिन्दूधर्म में माना गया है कि मुक्त हुआ जीव ब्रह्म में लीन होता हुआ वैकुण्ठ में बहुत समय तक सुख भोगता है। जैनदर्शन की मान्यता है कि स्वतंत्र मुक्त जीव लोक के अग्रभाग में नित्य विराजमान रहकर लोक का ज्ञाता, दृष्टा, सुखी और शक्तिशाली बना रहता है।
वैदिक दर्शन में धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, स्याद्वाद और कर्मवाद नहीं माने गये है और जैनदर्शन में ये सभी माने गये हैं।
__ जैनदर्शन में सुषम-सुषमा, सुषमा,सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुःषमा और दुःषम दु:षमा ये छह युग माने गये हैं और हिन्दूधर्म में सतयुग, त्रेतायुग द्वापरयुग और कलियुग ये 4 युग माने गये हैं।
जैनदर्शन में परमात्मा (ईश्वर) अनंत माने गये हैं और वे संसारी भव्य जीव ही बन जाते हैं। वैदिक दर्शन में अनादि निधन एक ही परमात्मा माना गया है। संसारी जीव उसी के अंग है और मुक्त होने पर उसी में लीन हो जाते हैं। कोई भी जीव स्वतंत्र परमात्मा नहीं होता है।
जैनधर्म में चार वेद (शास्त्र) माने गये हैं। 1. प्रथमानुयोग, 2. करणानुयोग, 3. चरणानुयोग, 4. द्रव्यानुयोग । इनको अनुयोग भी कहते हैं।
हिन्दूधर्म में भी चार वेद माने गये हैं -1. ऋग्वेद, 2. यजुर्वेद, 3. सामवेद, 4. अथर्व वेद । ___ इस जैनदर्शन में चौबीस तीर्थंकर माने गये हैं, ये संसारी भव्यप्राणी ही अपने सच्चे पुरुषार्थ से तीर्थंकर बनकर आगे मुक्त बनजाते है। वे फिर कभी इस विश्व में आकर अवतार नहीं लेते।
वैदिक दर्शन में माना गया है कि वह अनादि निधन एक ईश्वर ही चौबीस अवतार ग्रहण करता है और वे अवतार फिर ईश्वर रूप हो जाते हैं ।
इस प्रकार जैनधर्म और हिन्दूधर्म में मौलिक भेद होते हुए भी सभ्यता, लौकिकव्यवहार और राष्ट्रीय दृष्टि से समानता दृष्टिगोचर होती है। इसलिए दोनों धर्म के उपासकों को मैत्रीभाव धारण करते हुए सत्य की उपासना करना आवश्यक है। जिससे कि राष्ट्र एवं समाज में सुख शांति का राज्य होवे।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैनधर्म के अंतर्गत विश्वकल्याण एवं अखण्ड राष्ट्रसेवा
24 तीर्थंकरों और उनकी आचार्य परम्परा द्वारा जैनग्रन्थों में विश्वकल्याण एवं अखण्ड राष्ट्र सेवा के लिए मानव समाज को शत्शत् उद्बोधन दिये गये हैं। उनमें से कतिपय प्रमुख उद्बोधन प्रस्तुत किये जाते है जो राष्ट्र के लिए हितकर और मानव समाज के आवश्यक कर्तव्य हैं - 1. विक्रम सं. 308 में श्री पूज्यपाद आचार्य द्वारा अखण्डराष्ट्र सेवा के लिए उद्बोधन :
क्षेमं सर्वप्रजानां, प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल: काले काले च सम्यक्, विकिरतु मघवा, व्याधयोयान्तुनाशम्। दुर्भिक्षं चौरमारी, क्षणमपि जगतां, भास्मभूज्जीव लोके जैनेन्द्रं धर्मचक्रं, प्रभवतु सततं, सर्वसौख्यप्रदापि ॥ सम्पूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्र सामान्य तपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्यराज्ञः, करोतु शांतिं भगवान् जिनेन्द्रः ॥ मुनि श्री अजितसागर महाराज द्वारा संग्रहीत - प्रजानां क्षेमाय, प्रभवतु महीश: प्रतिदिनम् सुवृष्टिः संभूयाद, भजतुशमनं व्याधिनिचयः। विधत्तां वाग्देव्या, सह परिचयं श्रीरनदिनं मतंजैनं जीयात्, विलसतु च भक्ति र्जिनपतौ॥ सन् 1955 - जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' देहली - हो सबका कल्याण भावना ऐसी रहे हमेशा दया लोकसेवारत चित हो, और न कुछ आदेश ॥1॥ इस पर चलने से ही होगा, विकसित भारत देश । आत्मज्योति जागेगी ऐसे, जैसे उदित दिनेश ॥2॥ यही है महावीर संदेश। अखण्डमानवता से ही अखण्ड राष्ट्र का निर्माण - श्री जिनसेन आचार्य - मनुष्य जाति रेकैव, जाति कर्मोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिवाद् भेदात्, चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥1॥
तात्पर्य - वस्तुतः सब मनुष्यों की एक ही मानव जाति इस धर्म को अभीष्ट है जो मनुष्य जाति नामक नामकर्म के उदय से होती है । इस दृष्टि से सब मानव समान हैं। अर्थात् आपस में भाई-भाई हैं और उनको जैनधर्म के द्वारा अपने विकास का पूर्ण अधिकार है। इसलिए मानवता की एकता से राष्ट्र की एकता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 6. विक्रम की 11 वीं शताब्दी - गुणभद्राचार्य का अभिमत -
नास्ति जातिकृतो भेदो, मनुष्याणां गवाश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्यते ॥1॥
तात्पर्य - जैसा घोड़ा तथा गाय आदि जानवरों में भेद है, उस प्रकार आकृति की अपेक्षा मानवों में भेद नहीं है। परन्तु संस्कार के भेद से मानव समाज में भेद पाया जाता है अत: राष्ट्र की एकता से मानवों में एकता होना आवश्यक है। 7. आचार्य जिनसेन- आदिपुराण भाग-2 पृ. 331
मध्येसम मथान्येयुः निविष्टो हरीविष्टरे। क्षात्रं वृत्तमुपादिक्षत्, संहितान्पार्थिवान्प्रति ॥1॥ तत्त्राणे च नियुक्तानां, वृत्तं व: पंचधोदितम् । तन्निशम्य यथाम्नायं, प्रवर्तध्वं प्रजाहिते ॥2॥ तच्चेदं कुलमत्यात्म प्रजानामनुपालनम्। समंजसत्वं चेत्येव युद्दिष्टं पंचभेदभाक् ॥3॥
भाव - राष्ट्र की सुरक्षार्थ 6 कर्तव्य- 1. परिवार की सुरक्षा, 2. सद् बुद्धि की सुरक्षा, 3. अपने राज्य की सुरक्षा, 4. प्रजा की सुरक्षा, 5. भ्रातृभाव (मैत्रीभाव)।
आचार्य अमित गति का अखण्डराष्ट्र के लिए संदेश - सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थभावं विपरीत वृतौ। सद्य ममात्मा विदधातु देव ॥1॥ वि.सं. 101 (द्वितीय शताब्दी) आचार्य उमास्वामी की घोषणापरस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ तत्त्वार्थसूत्र ॥
मैत्री प्रमोद कारूण्य माध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक - क्लिश्यमानाविनयेषु ॥त.सू.॥ 10. आचार्य समन्त भ्रद - विक्रम की चतुर्थ शताब्दी - पारस्परिक भ्रातृभाव का उद्बोधन -
स्वयूत्थ्यान्प्रति सद्भाव सनाथाऽपेत कैतवा। प्रतिपत्ति: यथायोग्य, वात्सल्यमभिलप्यते ॥॥ 'अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्' बहवो यत्र नेतारः, सर्वे पण्डित मानिनः । सर्वे महत्वमिच्छन्ति, तत् राष्ट्रमवसीदति ॥1॥
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जैनधर्म में भक्तिमार्ग
किसी भी व्यक्ति को असत्यविचारों के विवाद और संदेह के झूले में झूलने की आवश्यकता नहीं है किन्तु उसे शुद्ध हृदय में निम्नलिखित श्री नेमिचन्द्र आचार्य की वाणी पर विचार करना चाहिए । ववहारा सुहदुक्खं, पुग्गलकम्मप्फलं पभुंजेदि । आदा पिच्चयणयदो, चेदणभावं खु आदस्स ॥१॥
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
अर्थात् - स्वाभाविक दृष्टि से यह आत्मा शुद्ध ज्ञान दर्शन, सुख, शक्ति आदि अपने अक्षय गुणों में मग्न रहता है उसे बाहरी विकार, मोह द्वेष, माया, क्रोध आदि दूषित कर क्षणिक सुख एवं दुख के जाल में फसा नहीं सकते हैं।
व्यापार कृषि भोजन आदि अनेकों गृह कर्मों से उत्पन्न दोष या भ्रष्टाचार आदि पापों को दूर करने के लिए मानव को परमात्मा की भक्ति, पूजन आदि करना आवश्यक है ।
गृहस्थाश्रम के अशांत वातावरण से व्याकुल हुए गृहस्थ को शांत वातावरण का निर्माण करने के लिए मंदिर आदि एकांत स्थानों में जाकर परमात्मा गुरु एवं धर्म की उपासना (भक्ति), दर्शन आदि करने की अति आवश्यकता है।
गृहस्थाश्रम के द्रव्य-क्षेत्र काल एवं परिस्थितियाँ सदैव मानव को अशांति एवं हिंसा आदि पाप और क्रोधादि कषायें उत्पन्न करती रहती है अतः सुयोग्य हितकारी द्रव्य, क्षेत्र काल एवं दशा का निर्माण करने के लिए परमदेवों की आराधना, स्तुति आदि करना मानव को अत्यावश्यक है।
समैश्च समतामेति, विशिष्टैश्च विशिष्टताम् ॥
अर्थात् - मूर्ख की संगति से बुद्धि घट जाती है समान व्यक्तियों की संगति से बुद्धि समान और महागुणवान् की संगति से मानव की बुद्धि या विचार महान् हो जाते हैं अत: मानव को महान् गुणी होने के लिए महान् परमात्मा, गुरु आदि गुणवानों की भक्ति तथा संगति की सदैव आवश्यकता होती है।
परन्तु व्यवहार दृष्टि से जड़ कर्म रज से सम्बद्ध होकर कर्मजनित सुख तथा दुख का अनुभव करता है और क्रोध, तृष्णा, हिंसा, मदआदि से दूषित होता है। इन दोषों के प्रभाव से ही मानव अपने गुणों को तथा गुणवान् महापुरुषों को न जानता है और न उन पर विश्वास करता है। अतएव गुणवानों की संगति या उपदेश से, वह दूषित मानव, दया, समता, नम्रता, सत्य संयम आदि अनेक गुणों के विकास का कभी प्रयास भी नहीं करता है । गुणवानों की संगति एवं उपदेश के बिना गुणों का विकास संभव नहीं है । नम्रता के बिना मानव में गुणवान् महात्मा के प्रति भक्ति का स्थान नहीं होता है। घमण्डी पुरुष न गुणवान् का आदर करना चाहता है और न अपने गुणों का विकास ही । उसके समस्त व्यवहार छलपूर्ण और षड्यन्त्रों से भरपूर रहते हैं ।
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अतः गुणवानों की संगति या भक्ति से मानव को श्रद्धापूर्वक, निर्दयता, असत्य, मद, लालच, छल
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आदि दोषों को दूर करने के लिए नम्रता,दया,क्षमा, निष्कपटता आदि गुणों के विकास की आवश्यकता है। उद्देश्य - "वन्दे तद्गुण लब्धये" आचार्य उमास्वामी का कथन है कि मैं सच्चे परमात्मा के गुणों की प्राप्ति के लिए उनको नमस्कार करता हूँ। यह भक्ति का एक अंग है।
__"योयस्य गुणलब्ध्यर्थी स तं वन्दमानो दृष्ट:" इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि जो व्यक्ति जिसके गुणों को ग्रहण करना चाहता है कि वह उस गुणवान् . को प्रणाम करता है तथा योग्य व्यवहार द्वारा उसकी संगति और यथायोग्य स्तुति करता है। जैनधर्म में भक्ति या पूजा का उद्देश्य इतना परमश्रेष्ठ है कि भक्तमानव सच्ची भक्ति करते करते एक दिन भगवान् बन जाता है, नर के नारायण और पारस से पार्श्वनाथ बन जाता है कविता का एक छंद कहता है
भिखारी से होते भगवान, उन्नति करते करते मानव हो जाते भगवान, भिखारी से होते भगवान् ।
यदि विद्यार्थी विद्वान की भक्ति करते हुए विद्वान नहीं बन पाया तो विद्वान या शिक्षक की भक्ति करने से क्या लाभ ?
यदि पुजारी भगवान की पूजा करते-करते जीवन पर्यन्त पुजारी ही बना रहा, भगवान की तरह उन्नति नहीं कर सका तो पूजा करने से क्या लाभ ? इससे सिद्ध होता है कि अपने योग्य गुणों की प्राप्ति के लिए ही मूर्खव्यक्ति विद्वान की, निर्धन धनी की, निर्बल बलवान की, सेवक स्वामी की, दरिद्र व्यापारी की, पतित महात्मा की और दुखी सुखी की भक्ति अथवा आदर करना चाहता है। लोक में यह व्यवहार स्पष्ट रूप से देखा जाता है । लोक में यह व्यवहार स्पष्ट रूप से देखा जाता है । इसी प्रकार भक्त भी अपनी उन्नति के लिए भगवान की उपासना करता है।
एक अशुद्ध मानव आत्मशुद्धि के लिए जब भगवान के निकट जाता है तो वह कहता है कि हे भगवन "दासोऽहं" अर्थात् मैं आप का सेवक हूँ। यह प्रथम भक्ति मार्ग का कर्तव्य है कि वह अपनी उन्नति के लिए पहले गुणवान की श्रद्धापूर्वक पूजा करता है। आगे बढ़ते हुए जब वह व्यक्ति दूसरे ज्ञानमार्ग पर आता है तो वह “दासोऽहं" के स्थान पर “सोऽहं" का पाठ पढ़ने लगता है। इस मार्ग में दा पृथक हो जाता है ।अर्थात् हे भगवान, जैसी गुणवान आत्मा आप की है वैसी हमारी भी है उस में कोई अंतर नहीं है । उन्नति करते हुए जब वह मानव तीसरे वैराग्य मार्गपर आता है तो वह “स:" को पृथक करके अहं का पाठ पढ़ने लगता है । अर्थात् स्वयं भगवान बन जाता है, वहाँ भक्त-भगवान का पूजक-पूज्य का कोई भेद नहीं रहता है। प्रथम मार्ग में ऊँ च नीच का भेद, द्वितीय में समानता, तृतीय मार्ग में पूर्ण उद्देश्य की प्राप्ति हो जाती है। यह जैन धर्म में भक्ति की महती विशेषता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विक्रम की प्रथम शताब्दी के आचार्य श्री कुमुदचंद्र ने कल्याण मंदिर स्तोत्र के एक श्लोक में परमात्मा के प्रति भक्तिपूर्ण भाव दर्शाया है -
ध्यानाज्जिनेश भवतो भविन: क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानला दुपलभावमपास्य लोके
चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदा: । तात्पर्य - यह है कि जैसे - धातुशोधक व्यक्ति अग्नि के तीव्रताप से सुवर्ण के मेल को दूर कर उसे शुद्ध बना देता है ।वैसे ही हे परमात्मन् ! आपके परम ध्यान से विश्व के मानव अपने दुखद शरीर को छोड़कर शीघ्र ही परमात्मदशा को प्राप्त हो जाते हैं। विज्ञवर, इस श्लोक में भक्ति का उद्देश्य स्पष्टतया व्यक्त किया गया है ।भक्ति का इतना श्रेष्ठ लक्ष्य अन्य दर्शनों या साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता है।
आवश्यक कर्म - जैन साहित्य में गृहस्थ और साधु को जीवन शुद्धि या आत्मशुद्धि के लिए छह आवश्यक कर्म कहे गये हैं जिनका कि आचरण करना बहुत जरूरी है अतएव इनका नाम भी आवश्यक कर्म कहा गया है । वे इस प्रकार है -
समताधर वंदन करे नानास्तुति बनाये ।
प्रतिक्रमण स्वाध्याययुत, कायोत्सर्ग लगाये ॥ 1. समताभाव, 2. वंदना, 3. स्तुति, 4. प्रतिक्रमण. 5.ग्रन्थों का अध्ययन करना, 6. कायोत्सर्ग (एक आसन से ध्यान लगाना) इन छह कर्तव्यों में वंदना तथा स्तुति भी आवश्यक कर्म है जो भक्ति के एक रूपान्तर है। वंदना और स्तुति का स्पष्टीकरण निम्न श्लोक में है -
त्रिसंध्यं वंदने युंज्यात् चैत्यपंचगुरुस्तुतिम् ।
प्रियभक्तिं वृहद् भक्तिष्वन्ते दोषविशुद्धये ॥1॥ अर्थात् - तीनों संध्या संबंधी वंदना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति तथा अन्य वृहद् भक्ति के अंत में दोषो की विशुद्धि के लिए मानव को प्रियभक्ति (समाधि भक्ति) करना चाहिए। देववंदना में भी छह कृतिकर्म आवश्यक हैं -
स्वाधीनता परीतिस्त्रयी निषद्या त्रिवार मावर्ताः। __ द्वादशचत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोटेष्टम् ॥2॥ (वंदनादि संग्रह पृ. 1) __ अर्थात् 1. वंदनाकर्ता की स्वाधीनता, 2. प्रदक्षिणा, 3. कायोत्सर्ग, 4. निषद्या, 5. चारशिरोनति, 6. द्वादश आवर्त-ये छह कृति कर्म है।
भक्तिमार्ग का अस्तित्व - आवश्यकता या आवश्यक कर्म के अनुसार जैन दर्शन में मानव को परमात्मा, साधु महात्माओं की भक्ति, पूजन अथवा स्तुति करने का दैनिक विधान है, गृहस्थ के छह दैनिक कर्तव्य इस प्रकार हैं -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ देवपूजा गुरु पास्ति:, स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां: षट् कर्माणि दिने दिने ।
___इसमें 1. देवपूजा और 2. गुरु उपासना ये दो भक्ति अथवा उपासना के ही प्रकार है। जो प्रत्येक मानव का दैनिक कर्तव्य है।
यथा शक्ति यजेतार्हदेवं नित्यमहादिभिः ॥ (सागारधर्मामृत अ. 2 श्लोक. 24) अर्थात् - गृहस्थ शक्ति के अनुसार परमेष्ठी देवों का नित्य अर्चन करें। विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के महान दार्शनिक श्री समंतभद्राचार्य का इस विषय में स्पष्ट मत हैदेवाधिदेव चरणे, परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम् । कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुयादाढतो नित्यम् ॥ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक 116)
समस्त पापों के नाश का कारण होने से जिनेन्द्र पूजा अतिथिसंविभाग व्रत का ही एक अंग है अत: आत्मशुद्धि के लिए गृहस्थ भगवत्पूजा को सादर सदैव करें । जैन दर्शन में नव देव पूजन का अस्तित्व महत्वपूर्ण है -
अरिहंत सिद्धसाधुत्रितयं जिनधर्म बिम्बवचनानि ।
जिननिलयान्नवदेवान, संस्थापये भावतो नित्यम् ॥ ___1. अरिहंत, 2. सिद्ध, 3. आचार्य, 4. उपाध्याय, 5. साधु, 6. जिनधर्म, 7. जिनागम, 8 जिनप्रतिमा, 9 जिनमंदिर, इन नव देवों का पूजन मानव प्रतिदिन शुद्ध भावसे करे ।
जैनदर्शन में भगवत्पूजन का विधान प्राचीन, मौलिक एवं महत्वपूर्ण है कारण कि इसका अंतरंगरूप शुद्ध आत्मपरिणाम, बहिरंगरूप निर्दोष अष्ट द्रव्य, वीतराग प्रतिमा आदि तदनुकूल साधन और उद्देश्य जन्ममरण आदि दुःखों का क्षयकर परमात्मपद की प्राप्ति करना है । जैनदर्शन में भगवत्पूजन का साहित्य भी महान है जिसकी भाषाएँ प्राकृत संस्कृत ब्रजभाषा हिन्दी प्रमुखरूप से कहीं जा सकती है इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि जैन दर्शन में पूजन का अनुष्ठान प्राचीन और मौलिक है। मूलत: पूजन दो प्रकार की होती है 1. भावपूजन, 2. द्रव्यपूजन । अष्टद्रव्य आदि बाह्य वस्तुओं के बिना शुद्ध भावों से पूज्य आत्मा के गुणों का स्मरण करना भावपूजन है ।और भावपूजन पूर्वक अष्ट द्रव्य आदि का आश्रय प्राप्त करना द्रव्य पूजन है।
पूजक के भेद से पूजन पाँच प्रकार की भी कही गई है - 1. नित्यमह पूजन, 2. आष्टाह्निक पूजा, 3. सर्वतोभद्रपूजा, 4. कल्पद्रुमपूजा,5. इन्द्र ध्वजपूजा।
1. नित्यमह - प्रतिदिन अष्ट द्रव्य से मंदिर में जाकर शुद्ध भाव पूर्वक पंचपरमदेवों का पूजनकरना, अपने द्रव्य से जिन मंदिर, प्रतिमा, पुस्तकालय आदि का यथायोग्य निर्माण कराना, मंदिर आदि की सुरक्षा एवं व्यवस्था के लिए गृह सम्पत्ति आदि का दान करना।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 2. आष्टाह्निकपूजन - नन्दीश्वर पर्व में देवों एवं मानवों द्वारा भक्तिभाव से अष्टद्रव्यपूर्वक परमात्मा पूजन किया जाना |
3. सर्वतोभद्रपूजन - मानवसमाज के कल्याण के लिए महामण्डलेश्वर आदि राजाओं द्वारा एवं शासकों द्वारा उत्सव के साथ परमात्मा का पूजन किया जाना ।
4. कल्पद्रुमपूजन - विश्व के प्राणियों की सुरक्षा एवं कल्याण के लिए इच्छानुसार दानपूर्वक चक्रवर्तियों द्वारा महोत्सव के साथ परमात्मा का पूजन किया जाना ।
5. इन्द्रध्वज पूजन - इन्द्र प्रतीन्द्र आदि देवों के द्वारा महोत्सव पूर्वक परमात्मा का पूजन किया जाना। स्तोत्रभक्ति
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भक्ति का दूसरा प्रकार स्तोत्र है। अर्थात् पूज्य के गुणों की स्तुति द्वारा भक्ति करना । श्री जिनसेनाचार्य द्वारा स्तोत्र के विषय में रचित एक श्लोक है -
स्तुति: पुण्यगुणोत्कीर्ति:, स्तोता भव्य: प्रसन्नधीः ।
निष्ठितार्थो भवांस्तुत्य:, फलं नैश्रेयसं सुखम् ॥1॥ (सहस्रनाम स्तोत्र)
“गुणस्तोकं सदुल्लङ्घ्य, तद्बहुत्वकथा स्तुति:" (वृहत्स्वयम्भूस्तोत्र)
अर्थात् - पूज्यात्माओं के पवित्रगुणों का कीर्तन करना अथवा श्रेष्ठ अल्पगुणों को भी विस्तार से हा स्तुति है । स्तुति करने वाला भक्त कल्याण का इच्छुक और पवित्र बुद्धि वाला होता है । सर्वज्ञ, वीतराग (निर्दोष) और हितोपदेशी परमात्मा ही पूज्य होता है। स्तोत्रभक्ति का अंतिमफल कर्मों से मुक्ति प्राप्त करना है। जैन दर्शन में स्तोत्रसाहित्य भी महान है जो संस्कृत हिन्दी प्राकृत आदि भाषाओं में उपलब्ध है। जैसे - भक्तामर स्तोत्र, सहस्रनाम स्तोत्र, स्वयंभूस्तोत्र आदि ।
इस स्तोत्रमाला से भिन्न अनेक पूज्य ऋषिराजों द्वारा संस्कृत तथा प्राकृत में भक्तिपाठों का निर्माण किया गया है, जो मुनियों और श्रावकों द्वारा आराधना करने योग्य है । वे भक्ति पाठ इस प्रकार हैं -
1. सिद्धभक्ति, 2. श्रुतुभक्ति, 3. चारित्रभक्ति, 4. योगभक्ति, 5. आचार्य भक्ति, 6. पंचगुरुभक्ति, 7. तीर्थंकर भक्ति, 8. शांति भक्ति, 9. समाधि भक्ति, 10. निर्वाण भक्ति, 11 नंदीश्वर भक्ति, 12. चैत्यभक्ति। इस प्रकार अनेक प्रकार की भक्ति संसार की संतति का छेदन करने वाली है अत: श्रावक का परम आवश्यक कर्तव्य है । कि भक्ति मार्ग से संसार सागर पार करें।
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जैनधर्म की वैज्ञानिकता
जिन महात्मा या विज्ञान वेत्ताओं ने आत्मबल से अज्ञान अविश्वास भय हिंसा, क्रोध आदि दोषों पर विजय प्राप्त कर ली है । तथा जो सम्पूर्ण विज्ञान, दर्शन, शक्ति, आनंद आदि अक्षय गुणों से शोभित है उनको जिन अर्हन्त या जीवन्मुक्त कहते हैं। ऐसे जिन तीर्थंकर द्वारा कहा गया वस्तुस्वभावमय स्वयंसिद्ध धर्म जैन धर्म कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि धर्म वस्तु का स्वभाव स्वयं सिद्ध है उसको जिनदेव ने या अन्य किसी ने बनाया नहीं है । न बनाया जा सकता है। किन्तु कहा अवश्य जा सकता है। जैसे- अग्नि की उष्णता बनाई नहीं जा सकती है। कही अवश्य जा सकती है। सदैव महात्माओं ने धर्म नहीं बनाया है किन्तु धर्म ने महात्मा बनाये हैं यह बात विशेषतापूर्ण है ।
अव विचार करना है कि जैन धर्म वैज्ञानिक है या नहीं ? इस विषय पर विचार करने के पूर्व विज्ञान की व्याख्या पर विचार करना आवश्यक है। विकसित एवं निर्दोष विशिष्ट ज्ञान विज्ञान कहलाता है । अथवा वस्तु के विभिन्न स्वभाव या तत्वों की खोज करने वाला, जानने वाला ज्ञान विज्ञान कहलाता है। विज्ञान दो प्रकार का होता है । एक आध्यात्मिक दूसरा भौतिक । जो आत्मा की मान्यता या सत्ता को सिद्ध करता है । वह आध्यात्मिक विज्ञान है और जो आत्मा से भिन्न, अजीव (जड़) तत्वों की मान्यता या सत्ता सिद्ध करता है। वह भौतिक विज्ञान है ।
जैनधर्म आध्यात्मिक विज्ञान से परिपूर्ण है ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
“अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितस्पर्शगन्धरस वर्णै: । गुणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः ॥
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अर्थात् - इस जगत् में आत्मा या जीव नाम का एक द्रव्य है जो जानने देखने वाला है, जो शीत आदि स्पर्श, गंध, मधुर रस और काला आदि वर्णों से रहित है अरूपी, सूक्ष्म, अनेक गुणों तथा पर्यायों से सहित जो उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप दशाओं से सहित और इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य है तथापि अनुमान, श्रद्धा तर्क और स्वानुभव (निजज्ञान) द्वारा जानने योग्य है । इसको साहित्य एवं दर्शन के वेत्ताओं ने पुरुष भी कहा है। इस विश्व में आत्मा नाम के द्रव्य अनंत हैं जो शरीरधारी प्राणियों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। यह संक्षेप में जैनधर्म का आत्मिक विज्ञान कहा गया है।
आध्यात्मिक विज्ञान की तरह जैनधर्म भौतिक विज्ञान से भी भरा हुआ है। यद्यपि धर्म और विज्ञान शब्द के कहने से अथवा अर्थ के भेद से दोनों में भिन्नता दिखाई देती है । तथापि दोनों में ज्ञेय - ज्ञायक रूप सम्बंध अवश्य है । अर्थात् विज्ञान ज्ञायक ( जानने वाला) है। और धर्म ज्ञेय (जानने योग्य) है । यदि विज्ञान हो तो धर्म अंधकार में ही पड़ा रहेगा । अत: दोनों का सम्बंध मानना आवश्यक है।
जैनधर्म - इस विश्व में आत्मा एक द्रव्य है जो स्वभाव से ज्ञान दर्शन, आनंद और शक्ति से सम्पन्न
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
हैं जो अजर, अमर, सूक्ष्म अरूपी अदृश्य और निर्मल निर्दोष है परन्तु वर्तमान में अपने कर्मदोषों से शारीरिक कष्ट उठा रहा है।
विज्ञान -
"हम इस बात के मानने के लिए बाध्य हैं कि मानसिक चेष्टाओं का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। वरन् ये एक ही पदार्थ या मूलतत्व की अवस्थाएँ विशेष है। हमको यह पदार्थ अमूर्तिक मानना होगा । क्योंकि यही पदार्थ मनुष्य के सम्पूर्ण ज्ञान का आधार है । इसलिए इस पदार्थ को मनुष्य की आत्मा कह सकते है । (वैज्ञानिक मैकडूगल)”
मानव शरीर में कुछ अज्ञात शक्ति काम कर रही है हम नहीं जानते वह क्या है ? मैं चेतना को मुख्य मानता हूँ, भौतिक पदार्थ को गौण । पुराना नास्तिकवाद चला गया है। धर्म आत्मा और मन का विषय है। और वह किसी प्रकार भी हिलाया नहीं जा सकता । (सर ए. एम. एडिस्टन)
“सत्य यह है कि विश्व का मौलिकतत्व जड़, बल या भौतिक पदार्थ नहीं है किन्तु मन व चेतन व्यक्तित्व है " ( जे. बी. एम.हेल्डन )
" जैसे मनुष्य दो दिन के बीच रात्रि में स्वप्न देखता है उसी प्रकार मनुष्य की आत्मा इस जगत् में मृत्यु व पुनर्जन्म के बीच विहार करती है । " ( सर आलीवर लाज)
"मेरी राय में केवल एक ही मुख्य तत्त्व है जो देखता है, अनुभव करता है, प्रेम करता है, विचार करता है, याद करता है आदि । परन्तु इस तत्त्व को अपने भिन्न-भिन्न कार्य करने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के भौतिक साधनों की आवश्यकता पड़ती है।" (डॉ. गाल )
"जड़वाद के जितने भी मत गत बीस वर्षों में रखे गये है वे सब आत्मावाद पर आधारित हैं, यही विज्ञान का अंतिम विश्वास है।" (साइंस एण्ड रिलीजन)
मनोविज्ञान -
‘पाश्चात्यदेशों में स्थापित 'मनोविज्ञान अनुसंधान समिति" के अनुसंधानों से निश्चय हो गया है कि मनुष्य शरीर में अदृश्य आत्मा है और यह आत्मा मृत्यु के पश्चात् भी जीवित रहता है। ज्ञान की अद्भुत शक्तियों से भरपूर है । मनोवैज्ञानिक श्री एफ. डब्ल्यू. एच मेयर्स ने (जो उपरोक्त समिति के संस्थापकों में से हैं और जिनके प्रयत्न व अनुसंधान से मनोविज्ञान सम्बंधी विषय को आधुनिक वैज्ञानिक युग में उचित स्थान मिला हैं) अपनी पुस्तक 'मानुषिक व्यक्तित्व एवं मृत्य के पश्चात् उसका अस्तित्व' में बहुत से अनुसंधान दिये हैं, जिनके अध्ययन से आत्मा के अस्तित्व व उसकी मानसिक शक्तियों के सम्बंध में बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त हो जाता है (आत्मरहस्य पृ. 33 )
जैनधर्म की मान्यता -
आत्मा एक अखण्ड अमूर्तिक द्रव्य है जिसमें निमित्त कारण से प्रकाश की तरह संकोच और विस्तार होता रहता है जो न मनुष्य आदि के शरीर से बाहर व्याप्त है और न शरीर के किसी विशेष भाग में
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सीमित है। किन्तु यह आत्मा प्राणी के सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहता है उसका आकार किसी भी प्राणी के शरीर के आकार मात्र है। विज्ञान वेत्ताओं की मान्यता -
आत्मा के आकार व रहने के स्थान विशेष के सम्बंध में मनोवैज्ञानिकों ने कितने ही अनुसंधान किये हैं जिनमें से श्री मेहर अपनी मनोविज्ञान सम्बंधी पुस्तक में लिखते हैं - "आत्मा एक अभौतिक शक्ति है, विद्वानों के शब्दों में कहा जाता है कि आत्मा, जिससे शरीर में स्फूर्ति आती है, सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। यह शरीर को आवृत किये हुए नहीं है वरन् शरीर में सीमित है।"
___ "आत्मा के आकार के विषय में प्राचीन यूनान व रोमवासियों का भी यही मत था कि आत्मा शरीर के आकार मात्र है और शरीर की वृद्धि व संकोच के साथ-साथ आत्मा का आकार भी विस्तरित या संकुचित होता रहता है।" कर्म सिद्धांत की वैज्ञानिक व्याख्या -
"विज्ञान की पुस्तकों से यह भलीभाँति जाना जा सकता है कि भौतिक दो पदार्थो के परस्पर संघर्षण से उष्णता शक्ति उत्पन्न हो जाती है, डायनमो आदि यंत्रो के द्वारा विद्युत आदि शक्तियाँ उत्पन्न की जाती हैं। जो कुछ समय तक स्थिर रहकर आकाश में लुप्त हो जाती है, अथवा जैसे सिर के केशों में सेलूलायड का कंघा करने से कंघे में आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण वह कंघा रूई के बारीक तंतुओं को या बारीक कागज आदि को खींचने लगता है, यह शक्ति कुछ समय तक ही रहती है। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति मन, वचन या शरीर से कोई कार्य करता है तो उसके समीपवर्ती चारों ओर के सूक्ष्म परमाणुओं में हलनचलन किया उत्पन्न हो जाती है । विज्ञान के आविष्कार वेतार के तार, रेडियो आदि के कार्य से निर्विवाद सिद्ध है कि जब कोई कार्य करता है तो उसके समीपवर्ती वायु मण्डल में हलन-चलन क्रिया उत्पन्न हो जाती है और उससे उत्पन्न लहरें चारों ओर को बहुत दूर तक फैल जाती हैं। इन्हीं लहरों के पहुंचने से शब्द, बिना तार के रेडियो द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच जाते है । इसी प्रकार समीपवर्ती परमाणु आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं। उनमें उस व्यक्ति के कर्मानुसार फल देने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है । इन कर्मशक्ति युक्त परमाणुओं का, दध पानी की तरह एक क्षेत्र में रहने वाला सम्बंध आत्मा के साथ हो जाता है एवं ये कर्म शक्ति युक्त परमाणु पूर्वकाल में विद्यमान सूक्ष्म कार्माण शरीर में सम्मिलित हो जाते हैं। कुछ समय पश्चात् जब ये कर्म परमाणु कार्यान्वित होते हैं तो उनका प्रभाव उस व्यक्ति पर पड़ने लगता है।" (आत्मरहस्य पृ. 95-96) विज्ञान के इस नियम से सिद्ध होता है कि जगत् को कोई व्यक्ति न रचता है ओर न नष्ट करता है किन्तु सब वस्तुओं में स्वयमेव परिवर्तन अवश्य होता है, इस विश्व की परम्परा का आदि अंत नहीं।
न्याय और वैशेषिक दर्शन में शब्द को आकाश का अमूर्तिक गुण कहा गया है जो युक्ति एवं विज्ञान से सिद्ध नहीं होता। जैनदर्शन में शब्द को एक जाति के पुद्गल (जड़) की दशा कहा गया है जो मूर्तिक तथा कर्ण (कान) इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है। जिसकी तरंगे सब ओर फैलती है।
विज्ञान के आविष्कार ग्रामो फोन, रेडियो, टेलीग्राफ, टेलीफोन,कर्णयंत्र आदि यंत्रों द्वारा शब्द सुने
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जाते हैं, ग्रहण किये जाते है, भेजे जाते है, लिखे जाते हैं, जिससे शब्दों का जड़पना और मूर्तित्व सिद्ध होता है। कारण कि मूर्तिक जड़ यंत्र अपने सजातीय मूर्तिक जड़ को ही पकड़ सकते हैं। अमूर्तिक सूक्ष्म तत्वों को नहीं। जैनदर्शन में पृथ्वी, जल,वायु, अग्नि और वनस्पति को पृथक् मूल द्रव्य नहीं माने गये हैं किन्तु पुद्गल द्रव्य की ही हालत रूप माने गये हैं तो परिवर्तित होते रहते है।
विज्ञान ने हाईड्रोजन और आक्सीजन नामक वायुओं का उचित मात्रा में मेल कर जल बनाया और जल का पृथक्करण करके हवाओं को बना दिया, जल को भाप बनाकर अनेक पदार्थो के आविष्कार किये । जल आदि वस्तुओं के संयोग से बिजली का आविष्कार किया। इसी प्रकार पृथ्वी के परमाणुओं से जल और वायु को बना दिया ।कपूर, पिपरमेन्ट तथा अजवान के फूल के संयोग से अमृत धारा नामक तरल पदार्थ बन जाता है। इन प्रयोगों से सिद्ध होता है कि पृथ्वी जलादि मूलद्रव्य पृथक् सिद्ध नहीं हैं किन्तु पुद्गल नामक एक मूल द्रव्य की ही अवस्था विशेष है।
जैनदर्शन में जीव और अजीव ये दो मूलद्रव्य कहे गये हैं उनमें अजीव द्रव्य के पाँच प्रकार हैं-1. पुद्गल, 2. धर्म, 3. अधर्म, 4. आकाश, 5. काल । इस प्रकार भेद दृष्टि से विश्व में कुछ छह द्रव्य विद्यमान है।
वैज्ञानिकों ने भी छह द्रव्यों की सत्ता को मान्यता दी है - 1. आत्मा (Soul), 2.पुद्गल (Matter & Energy) 3. धर्मद्रव्य (Eather), 4.अधर्म द्रव्य (Non eather), 5. आकाश (Space), 6. काल (ime Substance) | इनमें से आत्मद्रव्य की वैज्ञानिक मान्यता का वर्णन पहले हो चुका है। जैनदर्शन में पुद्गल की व्याख्या - जिसमें उष्ण आदि आठ स्पर्श, मधुर आदि 5 रस, दो गंध, काला आदि 5 वर्ण ये गुण यथासंभव जिसमें पाये जावें वह पुद्गल है अथवा जिसमें संयोग वियोग रूप क्रिया होती रहे वह पुद्गल है।
वैज्ञानिकों की मान्यता है कि एक स्कंध (परमाणुओं का समूह), दूसरे स्कंध या परमाणु समूह से मिल सकता है और पृथक् भी हो सकता है । चाहे वह स्निग्ध या रूक्ष गुण वाला क्यों न हो । संयोग होने पर अधिक शक्ति युक्त परमाणु, अल्पशक्तियुक्त परमाणुओं पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। इस क्रिया के होने पर अनेक नवीन वस्तुओं की रचना हो जाती है और पहले की हालत का विनाश हो जाता है इस प्रकार पुद्गल में सदैव परिवर्तन होता रहता है।
"ईशा की 19 वीं सदी तक वैज्ञानिकों का मत था कि तत्व अपरिवर्तनीय हैं, एक तत्व दूसरे तत्व में परिवर्तित नहीं हो सकता । किन्तु अब तेजोद्गरण आदि के अनुसंधानों से यह सिद्ध हो गया है कि तत्व परिवर्तित भी हो सकता है।" (दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य पृ.4)
रेडियो, वेतार का तार,टेलीविजन आदि के आविष्कार में हजारों मील दूर तक शब्दों के आने जाने में माध्यम रूप से एक अदृश्य सर्वव्यापक तत्व की कल्पना करनी पड़ी है जिसको ईथर नाम वैज्ञानिकों ने दिया हैं और शब्दों के ठहरने में या अंकित करने में माध्यम रूप से 'नॉन ईथर' तत्व की कल्पना करनी पड़ी। जिसको जैन दर्शन में क्रमश: धर्म, अधर्म द्रव्य कहा गया है।
जैनदर्शन में पानी को जलकायिक नाम का स्थावर जीव कहा गया है उसमें सदैव असंख त्रस (चर
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्राणी) उत्पन्न होते रहते हैं । उन जीवों की हिंसा को रोकने के लिए वस्त्र से पानी को छानकर उपयोग में लाना आवश्यक कहा गया है।
विज्ञान का प्रयोग है कि - बिना छने पानी को सूर्य की किरणों में रखकर देखने से बहुत से त्रसजीव चलते फिरते दिखाई देते हैं । और जो बहुत सूक्ष्म जीव हैं जो खुर्दवीन से दिखाई देते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक कैप्टेन स्क्वोर्सवी ने अणु वीक्षणयंत्र से देखकर पानी की एक बूंद का फोटो खींचा और उसमें 36450 जीव (कीटाणु) सिद्ध किये हैं। इसका फोटो गवर्नमेंट प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित “सिद्ध पदार्थ विज्ञान" पुस्तक में प्रकाशित हुआ है। उस बूंद में कुछ जीव इतने सूक्ष्म हैं कि जो यंत्र से भी दिखाई नहीं देते। अतः शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए तथा अनेक रोगों से बचने के लिए वैज्ञानिक दृष्टि से भी जल छानना आवश्यक है।
जैनदर्शन में अहिंसा धर्म की रक्षा के लिए एवं स्वास्थ्य की रक्षा के लिए रात्रि भोजन त्याग की महत्वपूर्ण शिक्षा दी गई है -
"विज्ञान कहता है कि दिन के समान, रात्रि में सूर्य का प्रकाश न होने से वायु निर्दोष नहीं चलती है। दिन में वृक्ष आक्सीजन छोड़ते हैं किन्तु रात को वे वृक्ष आक्सीजन बाहर नहीं निकालते, जहरीली वायु निकालते हैं इसी कारण दिन में रोग कम फैलते हैं तथा रोगों का प्रकोप भी रात में अधिक बढ़ता है। मृत्युएँ भी इसी कारण रात को अधिक होती है। उस जहरीली वायु का सम्पर्क भोजन के पदार्थो से भी होता है।" (जैनधर्म का परिचय पृ. 145)
"विज्ञान ने सूर्य के प्रकाश को जीवन शक्ति प्रदायक तत्व सिरजने का मुख्य कारण माना है। सेव आदि फलों के छिलके को स्वस्थ और सुन्दर सूर्य का प्रकाश ही बनाता है इसी लिए डॉक्टर लोक छिलके सहित फलों को खाने की शिक्षा देते हैं।" (डॉ. कामता प्रसाद)
वैज्ञानिक दल भी शुद्ध स्वच्छ शाकाहारी भोजन का ही समर्थन करता है और अशुद्ध गंदा-मांसाहारी भोजन का विरोध करता है। इस विषय के कुछ प्रमाणों का भी विचार कीजिए -
"सन् 1918 में पेरिस (फ्रांस) में" इन्टर अलाइड कान्फ्रेस हुई थी, जिसमें सब देशों के बड़े-बड़े डॉक्टरों ने घोषित किया था कि मानव को किंचित् भी मांस भोजन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि शरीर को उसकी जरूरत नहीं है । (मानव जीवन में अहिंसा का महत्व - पृ.42)
___ "आजकल तो यूरोप और अमेरिका में भी कितनी ही ऐसी समितियाँ स्थापित हो गई है जो मांसाहार का पूर्ण रूप से डटकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से निषेध करती हैं और शाकाहार का प्रचार करती है।" उपसंहार -
जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धांत और साधारण मान्यताएँ यथायोग्य विज्ञान के आविष्यकारों और सिद्धांतों के साथ समानता रखकर अपना विशेष महत्व प्रगट करती है कारण है कि विज्ञान जहाँ समाप्त होता है वहाँ से जैनदर्शन का प्रारंभ होता है जिसमें भौतिक विज्ञान, आत्मिक विज्ञान के आश्रित है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भारतीय दर्शनों में आत्मद्रव्य की मान्यता
इस विश्व में मूलत: दो द्रव्ये सत्ता रखती हैं 1. जीव, 2. अजीव,। उनमें अजीव द्रव्य पाँच प्रकार का होता है - पुद्गल,धर्म,अधर्म, आकाश एवं काल । जीव या आत्मा एक मौलिक तत्व है जो अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है । आत्मद्रव्य को प्रायः सभी भारतीय दर्शनों मे विभिन्न लक्षण रूप से स्वीकृत किया गया है, कारण कि इसकी सत्ता स्वीकृत किये बिना विश्व की व्यवस्था तथा प्राणियों की गतिविधि व्यवस्थित नहीं हो सकती है । भारतीय दर्शनों में आत्मा की रूप रेखाएँ इस प्रकार है :सांख्यदर्शन -
. इस दर्शन ने विश्व में कुल दो ही मूल पदार्थ माने हैं, आत्मा एवं प्रकृति । आत्मा अज्ञानी होने से संसार में भ्रमण करता है । ज्ञान होने पर आत्मा कर्मबंधन से छूट जाता है । कुछ समय अर्हत रहकर मुक्त हो जाता है। इस दर्शन ने सुख आदि गुणों का अभाव माना है। आत्मा सदैव शुद्ध कर्म विकार रहित और पर्याय रहित माना है ज्ञाता दृष्टा है क्रोधादि विकार प्रकृति के कारण होते है। योगदर्शन -
इस दर्शन ने विश्व में तीन मूल पदार्थ माने हैं - आत्मा, प्रकृति एवं ईश्वर । आत्म के विषय की मान्यता सांख्य दर्शन के समान है। ईश्वर कर्ता नहीं है और न प्राणियों को सुख-दुख फल देता है । मात्र वह ईश्वर ज्ञान को देने वाला गुरु है ज्ञाता दृष्टा है। न्यायदर्शन और वैशेषिक दर्शन
___ विश्व में द्रव्य आदि सात पदार्थ और आत्मा आदि 9 द्रव्यों की मान्यता इन दर्शनों में है आत्मा अनंत है। ये पूर्व कर्म के कारण जन्म मरण करती हैं । न्याय दर्शन ने राग द्वेष आदि आत्मा के छह गुण माने है । वैशेषिक दर्शन ने राग द्वेष आदि के 14 गुण माने है। ज्ञान मन शरीर आदि का नष्ट हो जाना आत्मा का मोक्ष है। मुक्तात्मा के गुणों का वर्णन नहीं है। वेदांत या उत्तरमीमांसा -
___इस दर्शन में मात्र ब्रह्मतत्व ही एक माना गया है जो साच्चिदानंद, सर्वव्यापी है । संसारी अनंत आत्माएँ एक ब्रह्म का ही अंश है । आत्मा पूर्व संस्कार के कारण जन्ममरण करती हैं। अपनी अज्ञानता से सुख-दुख प्राप्त करती है । ज्ञान होने पर आत्मा मुक्त होता हुआ उक्त ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। आत्मा की स्वतंत्र मान्यता नहीं है। पूर्वमीमांसा दर्शन
जैमिनि आचार्य ने वेद कथित कर्मकाण्ड का उपदेश दिया है इसके अनुसार मनुष्य को देवी देवताओं
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ की पूजा, यज्ञ तथा बलि देनी चाहिए । इन कर्मो से मनुष्य की आत्मा को सुख तथा स्वर्ग की संम्पदा प्राप्त होती है। मानव को अपने कर्मो का फल स्वयं भोगना पड़ता है। कर्मफलदाता ईश्वर नहीं है। न कोई ईश्वर इस विश्व का व्यवस्थापक है। पिछले बौद्धाचार्यों के अनुसार जीव पुद्गल स्कंधों का एक पुंज है जो अपने पूर्व चारित्र सम्बंधी संस्कारों से संयुक्त रहता है । इस संस्कार से मुक्त होना ही बौद्ध धर्म में आत्मा का निर्वाण है। बौद्धदर्शन -
आत्मा एक द्रव्य है वह संसार में जन्म मरण करता है। इस दर्शन में पर्यायार्थिक नय ही मुख्य माना गया है आत्मा क्षणिक है अर्थात् प्रतिसमय नई-नई पर्याय धारण करता है । आत्मा के वर्तमान कष्टों को दूर करने के लिए मध्यम मार्ग का उपदेश दिया है। मनुष्य की मृत्यु के बाद चरित्र सम्बंधी संस्कारों का समूह उससे पृथक् हो जाता है और नवीन शरीर धारण करता है। जैनदर्शन
इस दर्शन के प्रवर्तक भ. ऋषभदेव हैं इनके बाद 23 तीर्थंकरों ने भी इस दर्शन का प्रसार तथा प्रचार किया है। इसके अंतिम उद्वारक भ. महावीर थे। विश्व के मूल पदार्थ दो हैं, आत्मा एवं अजीव । जैनदर्शन के अनुसार - निश्चयनय से आत्मा, पूर्ण शुद्ध पूर्ण हैं । द्वितीय व्यवहारनय से - कर्म विकार से अशुद्ध, एकदेश ज्ञान सहित, इन्द्रिय सुख-दुख से सहित, अपने कर्मो का कर्ता, कर्मफल का स्वयं भोक्ता और मूर्तिक है।
इस विश्व में आत्मा अनंत है वे दो प्रकार की हैं:- एक संसारी (कर्म सहित), दूसरा मुक्त (कर्म रहित) । मुक्तात्मा अनंत हैं । संसारी आत्मा ही अपने कर्मविकार को दूर कर अनंत ज्ञान आदि से सहित होते हुए परमात्मा हो जाता है। इस संसार का कर्ताधर्ता हर्ता और फल देने वाला परमात्मा नहीं है। लोक अनादि अनंत काल वाला है, स्वयमेव इसका परिणमन होता है। ईसाइ दर्शन -
इस दर्शन के प्रवर्तक ईसा मसीह है । इस दर्शन में आत्मा और परमात्मा का स्वरूप स्प्ष्ट रूप से नहीं कहा गया है। परन्तु कथा कहानी के द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि इस दर्शन में आत्मा का स्वरूप प्राय: जैन दर्शन के समान है। ईसाइ धर्म के प्रमाण इस प्रकार है :___“तुम भी इतनी ही शुद्धता एवं पूर्णता को प्राप्त करो, जितनी शुद्धता एवं पूर्णता तुम्हारे पिता ईश्वर में है। (मैथ्यू अध्याय 5, पृ. 48)"
"मैंने कहा है कि तुम स्वयं ईश्वर हो" (जान अ. 10-34)
"देखो ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे अंदर है।" यदि तुम ईश्वर को जान लोगे तो तुम ईश्वर सदृश्य हो जाओंगे । इसलिए तुम अपने आप को जान लो।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इस्लाम धर्म -
इस धर्म के प्रवर्तक हजरत मोहम्मद साहब पैगम्बर है उन्होंने ईमान ग्रहण करने पर जोर दिया। ईश्वर न्याय दिवस पर व पैगम्बर पर विशेष श्रृद्धा रखना चाहिए। परोपकार करना चाहिए। आत्मशुद्धि के लिए चार कर्तव्य दर्शायें हैं - नमाज पढ़ना, रोजा,हज एवं जकात । सूफीसम्प्रदाय -
आत्मा ज्ञान तथा आनंदमय है। आत्मा ईश्वर के समान शुद्ध है हलाज के मंसूर नामी विख्यात सूफी ने - साधारण जनता से कह दिया कि “मैं ईश्वर हूँ" इस कथन से उसे प्राण दण्ड दिया गया। इससे सिद्ध होता है कि पात्र को उपदेश दिया जाये अपात्र को नहीं।
कुरान की आयतों (पदों) से स्पष्ट है कि ईश्वर किसी के साथ अन्याय नहीं करता मनुष्य जैसे कर्म करता है उसी के अनुसार वह फल देता है।
मनुष्य के अतिरिक्त पशु-पक्षियों में भी आत्मा मानी है । कुरान अध्याय 24 में कहा है कि "क्या तू नहीं देखता कि पृथ्वी व स्वर्ग के समस्त प्राणी ईश्वर की स्तुति करते है और पक्षी भी अपने पैर फैलाकर स्तुति करते है।"
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पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी का शिक्षा - जगत् में योगदान
पूज्य वर्णी जी अपने प्रवचनों एवं उपदेशों में घोषित करते रहते थे । कि "आत्मतत्त्व पर श्रद्धा करो, वह परमज्ञानवान् पदार्थो का दृष्टा, आनन्दमयी और अत्यन्त शक्तिशाली, अतीन्द्रिय और अरुपी एक विचित्र पदार्थ है, जो सभी प्राणियों एवं मानवों के शरीर में विद्यमान है । 'पंचाध्यायी' ग्रन्थ में युक्ति से सिद्ध किया गया है।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
अहं प्रत्ययवेद्यत्वात्, जीवस्यास्तित्वमन्ववात् ।
एको दरिद्र एकच, श्रीमानिति च कर्मणः ॥
अर्थात् इस जगत में आत्मतत्त्व का अस्तित्व 'अहंप्रत्यय' (मैं ऐसा ज्ञान) के द्वारा जानने योग्य है, जो अनेक गुणों से समपन्न है । कोई प्राणी दरिद्र है, कोई श्रीमान है कोई सुखी है, कोई दुःखी है - ये सब दशायें अपने- अपने कर्म के उदय से होती है। इसी विषय को वैदेशिक वैज्ञानिक हैकेब ने भी कहा है कि - "मैं आत्मा
कहते हैं, जड़ को नहीं, अतएव व्यक्ति अपने को " मैं बोलता है । "
उस आत्मा का अभिन्न, एक प्रधान ज्ञानगुण है। उस ज्ञान की प्रभावना दो प्रकार से होती है - (1) स्वाध्याय से, (2) शिक्षा से । वर्णा जी ने अपने ज्ञान का विकास सबसे प्रथम प्राथमिक शाला, माध्यमिक शाला, उच्चतर, माध्यमिक शाला, स्नातक कक्षाओं और स्नातकोत्तर कक्षाओं में गुरू के माध्यम से किया है । 'न्यायाचार्य' उपाधि को वाराणसी में प्राप्त करने के पश्चात् स्वाध्याय एवं प्रवचनों से अपने ज्ञान को उच्चश्रेणी पर वृद्धिंगत किया है। यह भी कथन था - "अनवद्या हि विद्या स्यात् लोकद्वय - सुखावहा । "
स्वयं शिक्षित है, वही विज्ञ - व्यक्ति अन्य मानवों को शिक्षा के माध्यम से विद्वान् बना सकता है। श्री वर्णी जी का शिक्षा का लक्ष्य " आध्यात्मिक विकास के साथ समाज कल्याण का पुरुषार्थ " यह निश्चित था । यह सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है ।
दिनांक 20.11.98 को कलकत्ता में 'भा. वैज्ञानिक जगदीश बोस जन्म शताब्दी महोत्सव' के समय भारत के उपराष्ट्रपति डॉ. सर राधाकृष्णन ने स्वकीय भाषण में कहा था- "संसार के अन्यदेशों की शिक्षापद्धति का अन्य उद्देश्य हो सकता है, किन्तु भारतवर्ष के युवक-युवतियों का आध्यात्मिक तत्त्व की ओर ले ही यहाँ की शिक्षा का प्रधान उद्देश्य रहा है । और यही होना भी चाहिये । यही हमारा राष्ट्रीय आचरण है । भारतवर्ष की यही विशेषता है कि वह दूसरों पर अपना विचार लादता नहीं, बल्कि अन्य मान्यतावाले मानवों को लक्ष्यप्राप्ति में सहायक होता है ।" (अहिंसावाणी, वर्ष 8, अंक 9 दिसम्बर 1958)। “महात्मा गाँधी बारम्बार कहा करते थे कि बाहरी शक्तियों से मत डरो, अपनी आत्मा को सुदृढ़ बनाओ। आन्तरिक शक्ति का संचय करो।" - ( जवाहरलाल नेहरू, उक्त पत्रिका)
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पूज्य वर्णी जी इस कारण कुछ खिन्न रहे कि समाज या देश, संस्कृत, प्राकृत, नैतिक और सैद्धान्तिक शिक्षा से प्राय: शून्य है, इसलिये सागर (म.प्र.) में एक समय आपने स्वभाषण में कहा था"कोई भी देश या समाज की अपनी सर्वांगीण उन्नति चाहता है तो उसको आवश्यक है कि वह अपने बालकों को पढ़ाये लिखाये ।"(वर्णी जी, पृ. 51)
विश्व के अन्य शिक्षा शास्त्रियों के शिक्षा पर विचार -"बालक में अनेक अवयव एवं शक्तियाँ होती है । 'रूसों शिक्षा के द्वारा इन विभिन्न अवयवों एवं शक्तियों का सम्पूर्ण विकास चाहता है । यह विकास प्रकृति के अनुरूप होना चाहिये । शिक्षा हमें प्रकृति, मानव समाज और वस्तुओं से मिलती है।''-(जांजैक रूसो, जन्म- जिनेवा नगर इटली, 25 जून 1712)
__ "शिक्षा का सम्पूर्ण उद्देश्य एक ही शब्द 'सद्गुण में निहित है। नैतिकता ही शिक्षा की एक और केवल एक समस्या है। शिक्षा के एकमात्र एवं सम्पूर्ण कार्य का सार नैतिकता में निहित है । "(यहाँ नैतिकता का अर्थ है आध्यात्मवाद ) । (मनोविज्ञान का जन्मदाता हरबार्ट, जन्मस्थान- जर्मन, सन् 4 मई 1776)
"शिक्षा मस्तिष्क को अन्तिम सत्य के पाने योग्य बनाती है। वह हमें भूल के बन्धन से मुक्ति दिलाती है और हमें वस्तुनिधि अथवा शक्तिनिधि की अपेक्षा आन्तरिक ज्योति एवं प्रेम प्रदान करती है। वह सत्य को अपना बनाती है और इसे अभिव्यक्ति देती है। “ (गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, समय सन् 1861- 1941, जन्म कलकत्ता, भारत)।
"मैंने आज तक हिन्दुस्तान को बहुत सी चीजे दी हैं, उन सबमें बुनियादी शिक्षा की यह योजना और पद्धति सबसे बड़ी चीज है तथा मैं नहीं मानता कि इससे अधिक अच्छी चीज मैं देश को दे सकूँगा।" (बुनियादी शिक्षा के प्रणेता महात्मा गाँधी, सन् 1869-1948, कठियावाड़, भारत)।
"बुनियादी शिक्षा केवल यांत्रिक शिक्षा नहीं है , न यह केवल गृह-उद्योगों की शिक्षा है । यह तो सर्वांगीण-बौद्धिक विकास तथा सांस्कृतिक समन्वय की शिक्षा है । बौद्धिक विकास तथा संस्कृति के उच्च आदर्श तक पहुँचना इसका उद्देश्य है । "(काका कालेलकर )
'साक्षर बनो' इस समय यह योजना जो भारत में चल रही है, उसके प्रणेता भी महात्मा गाँधी हैं। इसका लक्ष्य वही है, जो बुनियादी शिक्षा में ऊपर कहा गया है।
उपरिकथित शिक्षाशासत्रियों के शिक्षा-सम्बन्धी विचार, लक्ष्य और शैली, शिक्षा शास्त्री पूज्य वर्णी जी के शिक्षा, विचार और लक्ष्यों के साथ समन्वय रखती है। "सादा जीवन उच्च विचार, ये दोनों उन्नति के द्वार"यह श्री गांधी जी का नैतिक वाक्यार्थ भी श्री वर्णी जी के जीवन में साकार झलकता था।
जिस प्रकार सदाचारी, नैतिक एवं बुद्धिमान पिता और पुत्र से श्रेष्ठ कुल की परम्परा चलती है और उससे धर्म एवं अर्थ पुरुषार्थ की परम्परा अक्षुण्ण रहती है, उसी प्रकार सुयोग्य गुरू और शिष्य के माध्यम से
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ज्ञान एवं संस्कृति की परम्परा प्रवाहित होती है। गुरू के लक्षण इस प्रकार हैं -
"श्रुतमविकलं शुद्धा-वृत्ति: पर- प्रतिबोधने ।
परिणति-सदुद्योगो, मार्गप्रवर्तन-सद्विद्यौ ॥" सारांश - जो समस्त सिद्धान्त का ज्ञाता हो, मन, वचन, काय की पवित्र प्रवृत्ति वाला, शिष्य को सम्बोधित करने में प्रवीण, धार्मिक, नैतिक शिक्षा देने में अति प्रयत्नशील, अन्य विद्धान के द्वारा प्रशंसनीय, अन्य विद्धानों की प्रशंसा विनय करने में दक्ष, अभिमान से रहित, लोकव्यवहार का ज्ञाता, सरल, परिणामी, लोकपूज्यता से हीन, परोपकार आदि श्रेष्ठ गुणवाला, हेयोपादेय के विवेक से परिपूर्ण ,प्रश्नों का शान्ति के साथ उत्तर देनेवाला हो; वह गुरू के योग्य है। योग्य शिष्य के गुण
"शुश्रुषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा ।
स्मृत्यूहापोहनिर्णीति:श्रोतुरष्टौ गुणान् विदुः ॥" सारांश - शिष्य के आठ गुण होते हैं - (1) सुश्रुषा (विनय), (2) श्रवण (चित्त से सुनना), (3) ग्रहण करना, (4) धारण (याद करना), (5) स्मरण करना, (6) प्रश्नोत्तर करना, (7)सत्यासत्य का निर्णय करना, (8) हठाग्रह का त्याग । - इन गुणों से सम्पन्न गुरू और शिष्य के द्वारा ही श्रद्धा-ज्ञान-आचरण की परम्परा सतत् अक्षुण्ण रहती है। -(आचार्य गुणभद्रः आत्मानुशासन, पृ. 5-6)
पूज्य वर्णी जी ने उपरिकथित गुरू-शिष्य-परम्परा का ही निर्वाह किया है, जैनदर्शन पर अटल श्रद्धा के साथ न्यायाचार्य जी ने अपने परीक्षाप्रधानत्व गुण के कारण ही भारतीय चार्वाक, बौद्ध, न्याय,वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, जैनदर्शनों का अध्ययन कर युक्ति एवं प्रमाण से निर्णीत जैनदर्शन पर ही स्वकीय आस्था को सुदृढ़ किया था। इस परीक्षाप्रधानता की प्रेरणा वर्णी जी ने श्री हरिभद्रसूरि के इस श्लोक से प्राप्त की थी।
"पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादिषु ।
युक्तिमवचनं यस्य, तस्य कार्य: परिग्रह : ॥ तात्पर्य - आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि हमारे हृदय में न महावीर में प्रेम है और न कपिल, कणाद, बुद्ध आदि के प्रति द्वेष है, परन्तु परीक्षाप्रधानी प्रबुद्ध मानव को या हमारे द्वारा प्रमाण एवं युक्तिपूर्ण सिद्धान्त ही ग्राह्य है। न्यायाचार्य जी ने समाज के उत्थान के लिये मानव शिक्षा के समान स्त्री-शिक्षा को भी महत्व प्रदान किया । आपने सामाजिक विकास के लिये विभिन्न स्थानों में महाविद्यालय, विद्यालय, पाठशाला, इन्टर कॉलेज और गुरूकुलों तथा उदासीन आश्रमों की स्थापना कर शिक्षा का प्रसार किया । हम पूज्य वर्णी जी के प्रति अतिकृतज्ञता से विन्रम है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विश्व के कतिपय महान् शिक्षाशास्त्रियों के विचार
"जीव का उद्देश्य आनन्द प्राप्ति है, बालक अपने अंगों, ज्ञानेन्द्रियों तथा शक्तियों के संचालन में आनन्द पाता है, अत: शिक्षा का यह लक्ष्य नहीं है कि बालक को पढ़ने-लिखने में लगा दिया जाय, अपितु उसके सभी प्राकृतिक कार्यो में सहयोग देकर उसकी विभिन्न शक्तियों का विकास किया जाना चाहिये ।'(महान् प्रकृतिवादी रूसो)
"शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य न तो विद्यालयों की प्राप्तियों को पूर्णता पर पहुंचाना है और न अन्धी आज्ञाकारिता एवं मेहनत की आदतों को अर्जित करना है। अपितु जीवन की उपयुक्तता व स्वाध्यायी कार्यो की तैयारी है ।'' (हेनरिक पेस्टालॉजी, देश- स्विट्जरलैण्ड, जन्म सन् 174)
"मानवता अपनी समस्याओं को, जिनमें शान्ति और एकता प्रमुख है, उसी समय हल कर सकती है जब उसका ध्यान और समस्त शक्तियाँ 'बालक की खोज' और मानवीय व्यक्तित्व की असीम संभावनाओं के विकास में लग जायेंगी।"
"वास्तव में हमारी पाठशालायें आजन्म दण्ड प्राप्त बालकों के लिये क्रूरतापूर्ण बालसुधार बन्दीगृहों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।" (महान् शिक्षाशास्त्री मारिया-माण्टेसरी, देश इटली, समय 1870-1952)
इन सम्पूर्ण शिक्षाशास्त्रियों के अभिप्राय आध्यात्मिक शिक्षाप्रणाली के अन्तर्गत हो जाते हैं, जो वर्णी जी का लक्ष्य था :
"सबसे प्रथम कर्तव्य है शिक्षा बढ़ाना देश में । शिक्षा बिना ही पड़ रहे हैं आज हम सब क्लेश में ॥ शिक्षा बिना कोई कभी बनता नहीं सत्यपात्र है । शिक्षा बिना कल्याण की आशा दुराशामात्र है ॥"
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
वर्णीजी के शिक्षा प्रद कुछ संस्मरण
1.
सन् 1945 में नेताजी सुभाष द्वारा संगठित आजादहिंद सेना की प्रगति एवं सहायता के निमित् जबलपुर नगर में श्री पं० द्वारिका प्रसादजी मिश्र (तत्कालीन मन्त्री - मध्यप्रान्तीय स्वायत्त शासन विभाग) की अध्यक्षता में एक विशाल सार्वजनिक सभा हुई, जिसमें सन्त वर्णी जी का महत्वपूर्ण भाषण हुआ, जिसका सारांश निम्न प्रकार है ।
"अन्धेर नहीं, केवल थोडी सी देर है । वे दिन नजदीक है जब स्वतंत्र भारत के लालकिले पर विश्वविजयी प्यारा तिरंगा फहरा जायगा । अतीत के गौरव और यश के आलोक से लालकिला जग-मगा उठेगा । जिनकी रक्षा के लिए चालीस करोड़ मानव प्रयत्नशील हैं उन्हें कोई शक्ति फांसी के तख्ते पर नहीं चढ़ा सकती, आप विश्वास रखिए, यह मेरी अन्तरात्मा कहती है कि आजाद हिंद सैनिकों का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। मैं उन वीरों की सहायतार्थ और क्या दे सकता हूँ मेरी शुभाकांक्षा उनके साथ है । मैं अपने ओढ़ने की दो चादरों में से एक चादर उनकी सहायतार्थ समर्पित करता हूँ “। सन्त के इस राष्ट्रीय दान और भविष्यवाणी से जनता अति प्रभावित हुई । पश्चात् अध्यक्षमहोदय ने अपने विचार व्यक्त किये :- "सन्त वर्णी ने यह चादर केवल दान में ही नहीं दी, कहना चाहिये उन वीर बहादुरों की रक्षा के लिए क्षत्रच्छाया स्वरूप चादर तान दी है। अब तक वर्णी जी जैनों के ही पूज्य थे किन्तु आज से जबलपुर के ही नहीं अपितु हमारे प्रान्त भर के पूज्य हो गए हैं। उन्होंने हमारे ऊपर जो चादर तानी है वह अवश्य ही हमारे फौजी भाईयों की रक्षा करेगी । अनन्तर चादर की धुआँधार बोलियाँ आने लगी। तीन हजार रुपये की घोषणा से वह चादर एक भाई ने स्वीकृत कर ली । सन्त की भविष्यवार्णी के अनुसार केवल दो वर्ष बाद आजाद हिंद सेना के बन्दी वीर मुक्त हो गए । सन् १९४७ के १५ अगस्त को भारत स्वतंत्र हो गया । सचमुच देर अवश्य हुई पर अन्धेर नहीं हुआ ।
2. गया में श्रावण कृष्णा १० सं० २०१० प्रात: पांच बजे सन्त विनोवा जी वर्णी से मिलने के लिए पधारे। पन्द्रह मिनट तक दोनों सन्तों के मध्य धार्मिक- राष्ट्रीयचर्चा होती रही, पश्चात् विनोवा जी चले गये। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को विनोवा जी की जयंती के उपलक्ष्य में टाउनहाल में हुई सार्वजनिक सभा में वर्णी जी भाषण हुआ, जिसका कुछ सारांश निम्न प्रकार हैं
"बन्धुवर ! आज एक महापुरुष की जयन्ती है । विचार करके देखो - उनकी यह महापुरुषता क्या भूमिदान दिला देने से है ? नहीं अरे जब भूमि तुम्हारी चीज ही नहीं, तब दिलाने का प्रश्न ही नहीं आता । उन्होंने एक पुस्तक में लिखा है- भूमि तो भगवान की है, तो तुम्हारी कैसे हुई ? और जो तुम्हारी नहीं, उसका दान कैसा ? सबसे भारी बात तो यह है कि मैं उनके गुणों से मोहित हूँ । मेरे ध्यान में यह बात आई कि उन्होंने पंचेन्द्रियों के विषयों को लात मारकर अपनी ओर ध्यान दिया यह भूमिदान तो आनुसंगिक है संसार के भोगों को जिसने छोड़ दिया वही महापुरुष है। आदि"
3.
सन् १९५५ अप्रैल के अंतिम सप्ताह में ईसरी में विहार राज्य ग्राम पंचायत के चतुर्थ अधिवेशन के उद्घाटन के लिए, भारत के राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद जी पधारे थे। जैन हाई स्कूल के मैदान में आपका
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भाषण हुआ । वर्णी जी के साथ मिलने पर आपने हार्दिक हर्ष व्यक्त किया । सन्त वर्णी ने राष्ट्रपति महोदय से
कहा :
" जिस विहार प्रान्त में भगवान महावीर तथा महात्मा बुद्ध जैसे अहिंसा के पुजारियों ने जन्म लिया वही विहार आपका प्रान्त है । और इसी प्रांत में मांस तथा मद्य की प्रचुरता देखी जाती है इस मांस-मद्य सेवन से गरीबों की ग्रहस्थी उजड़ रही है। उनके बालबच्चों को पर्याप्त अन्न और वस्त्र नहीं मिल पाता । निर्धन अवस्था के कारण शिक्षा की और भी उनकी प्रगति नहीं हो पाती। इसलिए ऐसा प्रयत्न कीजिए कि जिससे यहाँ के निवासी इन दुर्व्यसनों से बचकर अपना भला कर सके। आप जैसे आस्थावान राष्ट्रपति को पाकर भारतवर्ष गौरव को प्राप्त हुआ"।
उत्तर में राष्ट्रपति महोदय ने कहा कि "हमें भी यही इष्ट है । हम ऐसा प्रयत्न कर रहे हैं कि विहार ही क्यों भारत के किसी भी प्रदेश में मद्यपान आदि न हो । पूज्य गान्धी जी ने मद्यनिषेध को प्रारंभ किया है और हम उनके पदानुगामी हैं परन्तु खेद इस बात का है कि हम द्रतुगति से उनके पीछे नहीं चल पाते ।
4.
सं० १९८० में काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में शास्त्रीय परीक्षा के कोर्स का अध्ययन करते हुए परीक्षा का प्रवेश फार्म भर तो दिया । परन्तु धार्मिक उत्सवों में सम्मिलित होने के कारण विशेष अध्ययन नहीं कर पाया, अतः शास्त्री जी आप से रुष्ट रहते थे । परीक्षा के 20 दिन शेष रह गए थे। कई ग्रन्थ तो ज्यों के त्यों सन्दूक में ही रखे रहे । तथापि परीक्षा देने का साहस किया। उस सन्त की दैनिकचर्या थी कि प्रात: नित्य स्नान के बाद भ० पार्श्वनाथ के दर्शन करना, महामन्त्र की जाप करना, सहस्रनाम का पाठ करना पश्चात् पाठ्य पुस्तकों का अध्ययन, सायंकाल भी महामन्त्र की जाप, सहस्रनाम का पाठ करने के बाद ग्रन्थों का अध्ययन करना। इस प्रकार 20 दिन पूर्ण हुए ।
परीक्षा के दिन प्रातः स्नान- देवदर्शन - सहस्त्र नाम पाठ के पश्चात् पुस्तक लेकर परीक्षा देने के लिए चल दिया । मार्ग में पाठग्रन्थ के 5-6 स्थल पढ़ लिए थे । विश्वविद्यालय में प्रात: 8 बजे प्रश्न पत्र दिया गया । श्री महामन्त्र एवं सहस्रनाम के प्रभाव से ग्रन्थों के जो प्रकरण मार्ग में देखे थे वे ही प्रश्नपत्र में दृष्टि गत हुए। महान आनन्द के साथ उन प्रश्नों का उत्तर लिखा । इसी प्रकार आठदिन के प्रश्नपत्र भी अनुभव से अच्छे लिखे गये । परीक्षा समाप्त हुई । सात सप्ताह बाद परीक्षा फल श्रेणी प्रथम तथा 800 पूर्णाकों में से 640 लब्धाडक् रूप में घोषित हुआ । शास्त्रीजी को बहुत प्रसन्नता हुई। 25 ) मा0 छात्रवृति की व्यवस्था होने लगी | आगे आचार्य परीक्षा की तैयारी होने लगी ।
5.
हरदी (सागर) के पंचकल्याणक महोत्सव में बड़गांव से श्री रघुनाथ जी मोदी उन सन्त वर्णी की शरण में आए और अपनी करूण कथा कहने लगे -
"महाराज ! हम एक कुटुम्ब के करीब 200 भाई अनुमानत: 50 वर्ष से अब तक जैन समाज से बहिष्कृत हैं । बहिष्कार का कारण कोई पाप या अपराध नहीं, किन्तु अन्तर्जातीय विवाह ही एक कारण है। हम सब बहुत परेशान हो रहे है। हमारी प्रार्थना है कि आपके प्रयत्न से हम सबका उद्धार हो जाय ।'
1
वे सन्त बाबा गोकुलचन्द्र जी के साथ उमंग लिए बड़गांव पहुँचे । वहाँ की सामाजिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त किया । शास्त्र प्रवचन में उपस्थित समाज के सामने एक कुटुम्ब के स्थितीकरण के विषय को उपस्थित किया। परन्तु सफलता नहीं मिली। दूसरी बार भी इस विषय को उपस्थित किया पर विवाद ही होता
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रहा सफलता दूर रही। तीसरी बार वर्णी जी ने वहाँ एक धार्मिक उत्सव कराया । सभा में जैन एवं जैनेतर प्रमुख व्यक्तियों को समाज संगठन-अनुशासन और स्थितिकरण तथा सुधार के विषय में प्रभाव पूर्ण सम्बोधित किया। उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर विरोधी कट्टर पन्थी मुखियों के भी हृदय द्रवित हो गए। वे सचेत हुए और शीघ्र ही अपने निर्णय के विचार वर्णी जी के समक्ष रखने लगे। महाराज की सम्मति से मोदी जी ने तत्काल मन्दिर तीर्थक्षेत्र और विद्यालय के लिए ग्यारह हजार के दान की घोषणा की। समाज ने उन बहिष्कृत बन्धुओं को हार्दिक स्नेह प्रदान कर, सम्मानित किया। सभी ने मिलकर भगवत्पूजन किया । दूसरे दिन ही समाज को प्रीतिभोज श्री मोदी जी की ओर से दिया गया, सहर्ष जयध्वनि की गई । इसी प्रकार जतारा, नीमटोरिया, हलवानी, शाहपुर आदि स्थानों के बहिष्कृत कुटुम्ब व्यक्ति तथा विधवा नारियों का सरलता के साथ स्थितिकरण उन सन्त की प्रेरणा से किया गया। 6. सन्त वर्णी जी की हार्दिक कामना थी कि काशी जैसी विद्याप्रधान नगरी में एक दि0 जैन संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना अवश्य हो । इस विषय के विचार आप, बाबा भागीरथ जी वर्णी आदि निकट वर्ती सन्तों के प्रति सदैव व्यक्त किया करते थे। पुन: पुन: इन विचारों को सुनकर श्री झम्मनलाल जी कामावालों ने एक रुपया विद्यालय की स्थापना के लिए प्रदान किया। वर्णी जी ने सहर्ष वह रुपया ले लिया और पोस्ट आफिस से उस एक रुपया के द्वारा 64 पो0 कार्ड खरीद लिए। रात्रि में ही 64 पो0 कार्ड लिखकर 64 स्थानों (कलकत्ता, आरा, बम्बई आदि) के दानी श्रीमानों को भेज दिए । पत्र में लिखा था कि “वाराणसी जैसी विशाल नगरी में जहाँ हजारों छात्र संस्कृतविद्या का अध्ययन कर अपने अज्ञानान्धकार का नाश कर रहे हों वहाँ पर छात्रों के उच्चकोटि के अध्ययन के लिए एक दि0 जैन संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना अत्यावश्यक है। छात्रावास में संस्कृतपाठी छात्रों को पूर्णसुविधा आवश्यक है। आशा है आप महानुभाव हमारी वेदना का प्रतिकार करेंगे । यह मेरी एक की ही वेदना नहीं है किन्तु अखिल समाज के छात्रों की वेदना है।
___ एक मास के अन्दर बहुत से श्रीमानों के आशाजनक उत्तर आ गये, दान में रुपये आने लगे और अनेक नेता भी पधारने लगे। पत्रों में समाचार प्रकाशित हुए । मुहूर्त निश्चित किया गया।
वि0सं0 1962, वी0 नि0 सं0 2432 ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी (श्रुतपंचमी) को प्रातः काल मैदागिनी में श्री पार्श्वनाथ अर्चन आदि कृत्यों के साथ श्रीमान् दानवीर सेठ माणिकचन्द्र जी बम्बई के कर कमलों द्वारा स्याद्वादमहाविद्यालय का उद्घाटन किया गया, जिसके प्रथम छात्र स्वयं वर्णी जी म0 ही बने । जिसमें संस्कृत का अध्ययन अध्यापन प्रारम्भ से अब तक चल रहा है। 7. सन् 1905 में वैसाख शुक्ल 3 (अक्षय तृतीया) के शुभ मुहूर्त में सागर म0प्र0 के प्रार्गण में "श्री गणेश दि0 जैन संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना कर उन सन्त ने मध्य प्रदेश में एवं बुन्देल खण्ड में संस्कृत साहित्य के प्रचार का श्री गणेश किया।
इस प्रकार उन सन्त वर्णी के सैकड़ों शिक्षाप्रद संस्मरण हैं परन्तु यहाँ संक्षेप में ही कुछ संस्मरणों का विवेचन 'आत्मकथा' 'वर्णी जी और उनका दिव्य दान आदि पुस्तकों के आधार से किया गया है। विशेष जीवन परिचय तथा संस्मरण जानने के लिए उनसे सम्बोधित "आत्मकथा" आदि ग्रन्थों का अनुशीलन करना आवश्यक है । उनका दैनिक प्रवचन नित्य प्रात: सायं अध्यात्मविषय पर होता था जो छात्र-छात्रा बालक बृद्ध नरनारी सभी को प्रिय होता था।
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व्यक्तित्व के सागर - वर्णी जी
किसी भी संत या महात्मा की जन्म जयंती को उदीयमान करने का मुख्य प्रयोजन है कि महात्मा के गुण का स्मरण एवं उनके आचरण जैसा आचरण करना और उन महात्मा के समान कल्याणमार्ग का मार्गण करना | हिन्दी कवि की नैतिक उक्ति है.
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
हमें महापुरुषों के जीवन ये ही बात बताते हैं । जो करते हैं सतत आचरण वे महान बन जाते हैं |
वर्तमान में हम सब न्यायाचार्य, पूज्य, अध्यात्मवेत्ता पं. श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी महात्मा की 120 वीं जन्म जयंती के परिप्रेक्ष्य में उल्लास के साथ उनके गुणगण का स्मरण और उनके पवित्र आचरण जैसा स्वयं आचरण करते हुए अपने जीवन को भी महान उज्ज्वल करने का पुरुषार्थ कर रहे हैं।
आदर्श जीवनकाल :
उन वर्णी महाभाग का सम्पूर्ण जीवन अठासी वर्ष प्रमाण था जिसमें 42 वर्ष प्रमाण छात्र जीवन, 40 वर्ष प्रमाण त्यागवृत्ति, आत्मसाधना और धर्मप्रभावना से ओतप्रोत जीवन व्यतीत हुआ। छह वर्षीय बाल्यकाल पूर्व सुसंस्कारों और गुणीजनों की संगति में व्यतीत हुआ ।
यदि किसी मानव का जीवन शुष्क वृक्ष के समान निरर्थक चल रहा हो तो उस मानव को वर्णी जी का आदर्श जीवन देखकर अपने जीवन को शीघ्र परिवर्तित कर देना ही चाहिए, यह प्रेरणा प्राप्त होती है - श्रीवर्णी जी के जीवन से ।
सिद्धांत परीक्षा :
श्री वर्णी जी के अंतस्तल में यह विकल्प चल रहा था कि किस दर्शन एवं सिद्धांत को अंगीकृत करना चाहिए | विचार करते-करते वर्णी जी को एक न्यायपूर्ण आध्यात्मिक न्यायालय का निर्णय मिल गया जिसको प्राप्त कर वे अति प्रसन्न हुए । निर्णय ज्ञातव्य है :
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष : कपिलादिषु ।
युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रह | (हरिभद्रसूरि )
तात्पर्य - हरिभद्रसूरि कहते हैं कि हमारा, महावीर में कोई पक्षपात नहीं और न कपिल आदि ऋषियों द्वेष है। परन्तु युक्ति, प्रमाण और न्यायपूर्ण जिसके वचन सिद्ध हो, उनको स्वीकृत कर लेना चाहिए । अष्टादश दोष रहित उस आप्त के वचन ही निर्दोष युक्तिपूर्ण और न्यायपूर्ण सिद्ध हो सकते है। कारण कि यह नीति विज्ञान पूर्णलोक में प्रसिद्ध है कि वक्ता की प्रमाणता से वचनों में प्रमाणता सिद्ध होती है ।
इस न्यायालय के परीक्षा प्रधान निर्णय से न्यायाचार्य जी ने अपनी श्रद्धा को यथार्थ सर्वज्ञ, निर्दोष, हितोपदेशी आप्त द्वारा प्रणीत अहिंसा, अपरिग्रहवाद, स्यादवाद (अनेकांतवाद ) अध्यात्मवाद, कर्मवाद और मुक्तिवाद में सुदृढ़ करने का आदर्श उपस्थित किया ।
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ __ यदि किसी प्रबुद्ध मानव के जीवन में सिद्धांत या दार्शनिक तत्व को अपनाने में विवाद उपस्थित हो जाये तो पूज्य वर्णी जी के समान आध्यात्मिक न्यायलय के युक्तिपूर्ण सिद्धांत को अंगीकृत कर लेना चाहिए।
__ आध्यत्मिक विचारधारा :- विक्रम सं. 962 में अध्यात्मवेत्ता श्री अमृतचंद्र आचार्य ने जिन "प्रवचन रहस्य कोष" ग्रन्थ में आत्मतत्व की जो व्याख्या की है उस तत्व पर न्यायाचार्य जी ने अपने विचार स्थिर किये और उस पर गंभीर चिंतन किया । आत्मतत्व की व्याख्या -
अस्तिपुरुषश्चिदात्मा, विवर्जित: स्पर्शगन्धरसवर्णैः ।
गुण पर्ययसमवेत: समाहित: समुदयव्यय ध्रौव्यैः ॥ (जिनप्रवचन रहस्यकोष पद्य-9) तात्पर्य - निश्चयनय से आत्मा चैतन्य (ज्ञानदर्शनादि) स्वरूप एवं स्पर्शरसगंधवर्ण से रहित अमूर्तिक है। व्यवहारनय से आत्मा गुण एवं पर्याय से सम्पन्न और उत्पाद-व्यय तथा नित्यत्व से सहित है।
एक दूसरे ग्रन्थ के प्रमाण से श्री वर्णी जी ने स्वकीय आध्यात्मिक विचारधारा को विकसित किया, जो प्रमाण इस प्रकार है -
अहंप्रत्ययवेद्यत्वात्, जीवसयास्तित्वमन्वयात् । एकोदरिद्र एको हि, श्रीमानिति च कर्मणा: ॥
(कविवर महापण्डित राजमल्ल: पंचाध्यायी: द्वि.अ. : पद्य 50) तात्पर्य - अहंप्रत्यय (मैं हूँ इस प्रकार का अनुभव) होने से आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है और एक पुरुष दरिद्र है, एक श्रीमान् है, एक पुरुष सुखी है, एक पुरुष दुखी है, इस प्रकार के अनुभव से कर्म सिद्धांत का अस्तित्व जाना जाता है । इस श्लोक को श्री वर्णी जी अपने प्रवचनों में तथा भाषणों में समयसमय पर कहा करते थे। जिससे समाज, आत्मा एवं कर्म सिद्धांत से प्रभावित होती थी। उनके मुख से इस पद्य को हमने अनेक बार प्रत्यक्ष सुना है यह उनकी आत्मिक श्रद्धा है।
___ यदि मानव को मानस पटल में कभी यह विभ्रम दर्शनमोह के प्रभाव से हो जाये कि आत्मा का अस्तित्व है या नहीं ! भौतिक पदार्थो से आत्मा की सृष्टि होती है या नहीं ! शरीर ही आत्मा है ! इस प्रकार की श्रद्धा न होने पर उस व्यक्ति को वर्णी जी की इस आध्यात्मिक विचारधारा का अनुशीलन करना चाहिए। इससे उसकी श्रद्धा आत्मा पर सुदृढ़ हो जायेगी।
__ परमात्मा की समुपासना :-प्रबुद्ध न्यायाचार्य जी के अंत:करण में यह प्रश्न उदित हुआ कि किस देव की उपासना करना उपयोगी है। इस प्रश्न के समाधान के लिए आपने दर्शन न्याय और सिद्धांत शास्त्रों का अध्ययन किया और अपने प्रश्न का समाधान खोज लिया।
भववीजांकुरजलदा:, रागाद्या: क्षयमुपागता यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । जगत् बीज रूपी अंकुर को पुष्ट करने वाले मेघ के समान राग, द्वेष, मोह, माया, तृष्णा आदि दोष जिसके क्षय को प्राप्त हो गये हो, ऐसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश बुद्ध और जिनके नाम से प्रसिद्ध उस आप्त (परमात्मा) को हम प्रणाम करते हैं अथवा
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जिसने राग द्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया, सब जीवों को मोक्ष मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया । बुद्धवीर जिन हरिहर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो, भक्ति भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो ॥
इन प्रमाणों के अनुभव से न्यायाचार्य जी ने यह अवधारण किया कि आत्मकल्याण के अर्थ अर्हन्तसिद्ध श्रेष्ठनाम से प्रसिद्ध जिन देव की उपासना करना श्रेष्ठ है ।
कृतित्व / हिन्दी
यदि किसी मानव के स्वान्त में यह उलझन उपस्थित हो जाये कि किन देवी देवताओं की उपासना करना हितकर है तो उसको वर्णी जी के निर्णीत सिद्धांत, निःशंक आस्था एवं आचरण के योग्य हैं। ऐसा निर्णय कर परमेष्ट देव की भक्ति करना श्रेष्ठ है ।
कर्मवाद की मान्यता :
प्राचीन भारत के षट्दर्शनशास्त्रों का अध्ययन करने से न्यायाचार्य जी के अंतःकरण में पारस्परिक विचारों का संघर्ष या विवाद उदित हो गया कि ब्रह्माद्वैतवाद, एकेश्वरवाद, अवतारवाद, निरीश्वरवाद, क्षणिकवाद और कर्मवाद आदि वादों में से किस वाद की आराधना जीवन में कल्याकारी हो सकती है | दर्शनशास्त्रों का गहन चिंतन कर जैनदर्शन शास्त्र के न्यायालय में एक अपूर्व निर्णय उपलब्ध हो गया, वह यह कि .
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स्वयंकृतं कर्मयदात्मना पुरा, फलं, तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥
( आचार्य अमितगति: सामायिक पाठ: पद्य 30) आचार्य अमितगति कर्म सिद्धांत की घोषणा करते हैं कि पूर्वकाल में इस जीव ने जो स्वयं पुण्य पाप कर्म किये है वह जीव उत्तरकाल में उन पुण्य पाप कर्मों का शुभ और अशुभ फल प्राप्त करता है नियम से । यदि कोई प्रश्न करें कि स्पष्ट देखा जाता है कि जीव के पुण्य पाप का फल दूसरे ईश्वर राजा आदि प्रदान करते है! तब आचार्य उत्तर देते है कि जीव के द्वारा किया गया पुण्य पाप कर्म व्यर्थ हो जायेगा । परन्तु कृत पुण्य पाप कर्म व्यर्थ नहीं होता कारण कि प्राणी पूर्वकृत पुण्य पाप कर्म का फल सुख-दुख स्वयं अनुभव करते हुए. प्रत्यक्ष देखे जाते है ।
लोक में पुण्य पाप कर्म के फलानुभवन के उदाहरण अनेक है परन्तु वर्णी जी की जीवन यात्रा में एक घटना प्रत्यक्ष देखी गई है जो इस प्रकार है
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जब श्री वर्णी जी महाराज बरुआसागर (झाँसी) में विराजमान थे, उस समय मंदिर में नित्य प्रवचन करते थे। उनके प्रवचन को सुनने के लिए एक धीवर की कन्या नित्य उपस्थित होती थी। एक दिन प्रवचन
में पुण्य कर्म पाप कर्म का प्रकरण चल रहा था । उस प्रकरण को धीवर कन्या अच्छी तरह सुन रही थी । और उसको पुण्य पाप का विषय समझ में आ गया था। दुर्भाग्य से उस नगर में एक दिन तीव्र ओले - वर्षा हवा का प्रकोप हुआ। उसके प्रभाव से उस धीवर के घर का छप्पर गिर गया। घर का सब सामान जल प्लावित हो गया। भोजन बनाने का भी कोई ठिकाना नहीं रहा । तब विपत्ति ग्रस्त वह धीवर रोने लगा । पिता को रोते देखकर,
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वर्णी जी का प्रवचन सुनने वाली उस लड़की ने पिताजी को समझाया कि पिताजी ! इस संसार में सुख दुख दाता न राम है न रहीम है किन्तु सब प्राणी पूर्व में किये गये कर्मों के फल सुख दुख को भोगते हैं। अपन सबने भी पहले जीव हिंसा मांस खाना आदि जो पाप किये हैं उनका यह सुख दुख फल भोगना पड़ रहा है देखों, अपने पड़ोस में जो राम स्वरूप सराफ जी रहते है वे कभी भी मांस मछली नहीं खाते, शराब नहीं पीते । प्रतिदिन भगवान का भजन करते है इसलिए उनके सुख साता के दिन निकल रहे हैं इसलिए आप घबड़ावें नहीं धीरज रखें।
अपनी लड़की के इस प्रकार के अच्छे वचन सुनकर धीवर पूंछने लगा, कि बेटी ! तुमने ये अच्छी बातें कैसे जानी, लड़की ने कहा, कि पिताजी! अपने पड़ोस में सराफ जी के घर काशी के एक बड़े पण्डित
आये है। उनकी कथा को सुनने के लिए हम रोज जाते है, उनके उपदेश से हमनें ये सब बातें जानी हैं जो सच है धीवर ने साहस के साथ कहा कि हम भी कल से उन पण्डित जी के उपदेश सुनने के लिए तुम्हारे साथ चलेंगे ।
दूसरे दिन वह धीवर अपनी पुत्री के साथ वर्णी जी के प्रवचन को श्रवणार्थ गया । सुनकर प्रभावित हुआ । तत्पश्चात् धीवर ने जन्म पर्यंत मांस भक्षण एवं मदिरापान का त्याग कर दिया, यह है श्री वर्णी जी के समयोचित प्रवचनों का प्रभाव ।
अनेकांतवाद (स्यादवाद) एक न्यायालय :
न्यायदर्शन, वैशेषिकदर्शन, सांख्यदर्शन, मीमांसादर्शन, बौद्धदर्शन आदि भारतीय प्राचीन एवं अर्वाचीन दर्शनों में एकांततत्व की मान्यता से परस्पर विरोध देखा जाता है। एकातंपक्ष के हठ से पारस्परिक द्वेष या संघर्ष भी देखा जाता है। वर्णीजी ने न्यायशास्त्रों का पठनकर यह निर्णय किया कि अनेकांत (स्यादवाद) एक ऐसा न्यायालय है जो सब दर्शनों का समन्वय कर मैत्री भाव जागृत करता है। उन्होंने आचार्य अमृतचंद्र का एक न्यायालय भी खोज लिया, जो दर्शनीय है :
परमागमस्य जीवं निषिध्य जात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां, विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
आ. अमृतचंद्र पु. सि. पद्य - 2
satara आगम का मूल कारण है, जात्यन्ध पुरुषों के हस्तिविषयक विवाद का निर्णायक है, नयों की अपेक्षा सकल दर्शनों के विरोध का नाशकर मैत्रीभाव जागृत करता है, ऐसे अनेकांत को मैं, प्रणाम करता हूँ। यह निर्णय देखकर वर्णी जी की अनेकांत पर आस्था हो गई। अन्य प्रबुद्ध मानवों को भी दार्शनिक विरोध देखकर, वर्णीजी के समान मैत्रीभाव को जागृत कर लेना चाहिए ।
आदर्श देशभक्ति :
सन् 1945 में - सुभाषचंद्र बोस द्वारा स्थापित आजादहिन्द सेना के रक्षार्थ जबलपुर में हुई आमसभा के मध्य वर्णी जी ने भाषण देते हुए अपनी चादर को समर्पित कर दिया । बोली द्वारा उस चादर से 3000/रुपये की आमद हुई। उस समय करतलध्वनि, जयध्वनि हुई । अनुसंधान पान 113 पर
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विश्व जैन मिशन का अधिवेशन- एक दृष्टि
अखिल जैन विश्व मिशन हमारी समाज की एक शुद्ध प्रचारक संस्था है। यह संस्था अपने पवित्र उद्देश्य की पूर्ति में सतत प्रयत्नशील रहती है। अब तक इसने जैन साहित्य प्रचार व प्रसार द्वारा देश विदेश में जैनधर्म का पर्याप्त प्रचार भी किया है । 'अहिंसा वाणी के पाठक इसकी समस्त गतिविधियों व प्रचार कार्यो से पूर्ण सुपरिचित है। सच बात तो यह है कि मिशन के संचालक श्री बाबू कामताप्रसाद जी का जीवन ही संस्था का जीवन है जिन्होंने इसके माध्यम से धर्म प्रचार के लिये अपना जीवन उत्सर्ग किया है।
यद्यपि इस संस्था से मेरा प्रत्यक्ष सम्बन्ध कुछ भी नहीं है तथापि इसके प्रति हृदय में गहरी आस्था अवश्य है । जीवन के मंगल-पथ पर चलने के लिये सूरदास को आखें देना जिस संस्था का उदात्त जीवन व्रत हो,जिससे किसी भी धर्म प्रेमी व्यक्तिका प्रेम होना स्वाभाविक ही है। फिर आज के भयाक्रान्त भौतिक युग में विश्व की संभ्रान्त एवं संत्रस्त मानवता को अहिंसा की वाणी से सुख और शांति के सुपथ का दिशा ज्ञान कराना जिन संस्थाओं का पवित्र जीवनोद्देश्य हो ऐसी संस्थाओं की तो आज के युग में सब से बड़ी आवश्यकता है और मिशन इस पवित्र लक्ष्य की पूर्ति में सदैव प्रयत्नशील रहता है यही इसके जीवन की महर्घता है।
जैन मिशन अपने ऐसे ही विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिये प्रति वर्ष धार्मिक उत्सवों पर किसी नये क्षेत्र में अपना अधिवेशन करता है। इस वर्ष भी मिशन ने जैन संस्कृति की पुरातन गौरव स्थली उज्जयिनी में हो रहे पंच कल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर अपने अधिवेशन का शुभ निश्चय किया है। यह इस प्रान्त की जनता रम सौभाग्य है कि उसे आज के भौतिक युग में अध्यात्म प्रधान जैन संस्कृति के आधार भूत अहिंसा अपरिग्रह आदि महा सिद्धान्तों की सुसंगति बैठालने की समन्वय पूर्ण भूमिका तैयार करने का स्वर्ण अवसर हाथ लगा है। विश्वास है कि इस प्रान्त की धर्म प्राण सम्पन्न जनता अपने पुरातन गौरव के अनुकूल ही इस संस्था के पुनीत कार्यो को बल प्रदान करने की दिशा में अग्रणी रहेगी। हमारा यह भी विश्वास है कि मिशन का यह अधिवेशन उपस्थित पिपासु जनता के जीवन में धर्म प्रेरणा की एक प्रभावपूर्ण स्मृति अंकित करके ही रहेगा।
राष्ट्रीय जागरण के मंगल प्रभात में जब भौतिक उन्नति के नाना प्रयत्नों में समूची मानव शक्ति संलग्न है इस स्थिति में धर्म सर्वथा तिरस्कृत और अपेक्षित ही है। संयम और त्याग की महत्ता नष्ट होने से मनुष्य का नैतिक और आध्यात्मिक स्तर उत्तरोत्तर गिरता जा रहा है ।ऐसी स्थिति में मानवता की संरक्षा करने के लिये धर्म और संस्कृति का संरक्षण भी नितान्त आवश्यक है। धर्म के नाम पर राष्ट्रीयता की क्षति हुई है इस बहाने धर्म की महत्ता और उपयोगिता से मुंह फेर लिया जावे इसमें कौन सी बुद्धिमानी है। सत्यार्थ धर्म की इस उपेक्षा से अगर मानव की मानवता ही समाप्त हो जाती है और उसमें अशुभ वृत्तियाँ जागृत हो जाती हैं तो सोचिये राष्ट्र की क्या स्थिति होगी। एक बुराई का परिहार करने के लिये दूसरी उससे भी भयंकर बुराईयाँ उत्पन्न करने में भी राष्ट्र का कौन सा हित संभव है। वर्तमान में धर्म की इस उपेक्षा से जो राष्ट्रीय चरित्र और नैतिकता का पतन हुआ है वह हमारे अनुभवगम्य है । इसलिये देश के बड़े -बड़े कर्णधार अब इस बात की
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आवश्यकता अनुभव करने लगे हैं कि धार्मिक शिक्षा की आज के राष्ट्रीय जीवन में सबसे बड़ी आवश्यकता है। देश की एकांगी प्रगति कभी हितकर नहीं हो सकती। हमारे महामहिम राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति और संत विनोवा जैसे राष्ट्र के महापुरूष अब बार बार यही बात कहते हैं कि अध्यात्म ज्ञान के बिना कोरा विज्ञान मानव जाति की समृद्धि के बजाय विनाश का ही कारण बनेगा । इसलिये राष्ट्रीय भौतिक समृद्धि के लिये विज्ञान की उन्नति जितनी अपेक्षित है उससे भी कहीं अधिक राष्ट्रीय चरित्र को उज्जवल बनाये रखने के लिए धर्म की भी आवश्यकता है।
फिर इतिहास इस बात का साक्षी है कि जैन समाज ने कभी भी धार्मिक हितों के लिए राष्ट्रीय हितों को खतरे में डालने का प्रयत्न नहीं किया। प्रत्युत राष्ट्रीय हित में ही अपने धार्मिक हितों का संरक्षण माना है। इसलिए धर्म निरपेक्ष राजनीति की गलत व्याख्या मानकर हमारी समाज का जो शिक्षित वर्ग प्रायः धर्म के प्रति उदासीन बनता जा रहा है उसे अपनी मिथ्याधारणाओं को हटाकर धार्मिक हितों को भी उतना ही महत्व देना चाहिये जितना राष्ट्रीय हितों को दिया जाता है। यदि इसमें हमने भूल की तो निश्चित ही हमारी संस्कृति और धर्म का लोप होकर सामाजिक पतन होकर रहेगा | अत: यह समझने की जरूरत है कि राजनीति भले ही धर्म निरपेक्ष हो पर हमारा जीवन धर्म निरपेक्ष नहीं होना चाहिये। धर्म तो जीवन को उज्जवल और उच्चतम बनाने का सर्वश्रेष्ठ तत्व है।
आज हमारे सामने विशेष चिंता का विषय यही है कि हमारी समाज और विशेषत: नई पीढ़ी धर्म के महत्व को भूलती जा रही है। नास्तिकता धीरे-धीरे सामाजिक जीवन का एक अंग बनती जा रही है । अत: समय रहते हमें अपने सामाजिक जीवन में धर्म की जागृति का वातावरण निर्मित करना है और समाज के इस नये महत्व पूर्ण अंग को पतनावस्था से बचाना है । वर्तमान में हमारी समाज में जो भी धार्मिक प्रवृतियाँ दृष्टिगत हो रही है वे भी निष्प्रभ और निष्प्राण सी हैं। जहां चरित्र है वहां ज्ञान की न्यूनता है। और जहां ज्ञान है वहां चरित्र की हीनता है। और जहां दोनों है वहा कदाग्रह दृष्टिगत हो रहा है। इस तरह धार्मिक दृष्टि से हमारा सामाजिक जीवन बड़ा अस्त व्यस्त दिखाई पड़ता है। साधु संस्थायें धर्म का प्रमुख अंग होती हैं पर उनका अस्तित्व न के बराबर है। और जो हैं भी उनसे इस प्रकार चमत्कृति की कल्पना करना दुराशा मात्र है।
अत: मिशन के इस अधिवेशन में धर्म के सम्बन्ध में हमें मुख्य दो बातों पर ही विचार करना आवश्यक होगा। प्रथम यह कि धार्मिक दृष्टि से हमारे सामाजिक जीवन का किस तरह से कायाकल्प किया जावे ताकि समाज का चारित्रिक और नैतिक स्तर ऊंचा उठे । और दूसरा यह कि लोक जीवन में किस प्रकार जैन साहित्य के प्रति अभिरूचि उत्पन्न हो जिससे लोग जैन धर्म की महत्ता समझकर उसके प्रति निष्ठावान बनें। ___ इस सम्बन्ध में मेरा अपना विचार यह है कि समय की मांग को ध्यान में रखते हुये हमें अपने धर्म
प्रचार और धर्म प्रभावना के साधनों में बहुत जल्दी परिवर्तन कर देना चाहिये । और इसके लिये यह जरूरी है कि हमारी समाज का जो विपुल द्रव्य अनावश्यक मूर्तियों , मंदिरों और उपकरणादि विभिन्न जड़ प्रसाधनों में व्यय किया जाता है उसके स्थान पर उसे सम्यज्ञान के आधारभूत प्रसाधनों में (पाठशालायें, विद्यालय, कॉलेज, छात्रालय, पुस्कालय, साहित्य निर्माण व साहित्य का अधिकाधिक
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विकास व प्रकाशन आदि) व्यय करना चाहिए। और समाज के जो धनीमानी व्यक्ति ऐसे कार्यो में अपने द्रव्य का सदुपयोग करें उन्हें उनके त्याग और धर्म प्रेम के अनुकूल सामाजिक संस्थाओं द्वारा सामाजिक सम्मान एवं धर्मवत्सलता की सूचक पदवियों से सम्मानित किया जाना चाहिये । इस व्यवस्था से उन्हें ऐसे समाजोपयोगी धर्म कार्यो के प्रति प्रेरणा मिलेगी और समाज में धर्म की सच्चे अर्थो में प्राणप्रतिष्ठा भी होगी । धर्मज्ञान से ही मनुष्य में धर्म वत्सलता आ सकती है। उसके बिना मात्र जड़ प्रसाधन स्वपर कल्याण में सहायक भी नहीं बन सकता । धर्म प्रचार की सभी बातें इस बात पर ही तो अवलम्बित हैं कि समाज में धर्म के ज्ञाता अधिक से अधिक
व्यक्ति व विद्वान हो। (2) दूसरी बात यह कि जैन धर्म के लोक कल्याणकारी सिद्धान्त और उसके तत्व ज्ञान की देश विदेश में
प्रतिष्ठा बढे । लोक जीवन उससे अधिक से अधिक प्रभावित हो, इसके लिये जैन साहित्य का आधुनिक शैली से उच्च कोटि के विद्वानों द्वारा सृजन कराया जावे और उसे अल्प मूल्य में या संभव हो तो अमूल्य ही विद्वानों, शिक्षा संस्थाओं, साहित्य परिषदों पुस्तकालयों एवं वाचनालयों को समर्पित किया जावे। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए विद्वानों को सम्मानित व पुरस्कृत किया जावे । स्कूल कॉलेज की जैन धर्म सम्बन्धी पाठ्य पुस्तकें भी इस प्रकार लिखाई जावे जो धर्म ज्ञान के साथ ही साथ विद्यार्थियों की धर्म विषयक अनुभूतियों में प्रेरक दृष्टि विकासक हो। यह भी एक अत्यंत जरूरी बात है कि जैन शिक्षा संस्थाओं में जैनधर्म की पढ़ाई को विशेष महत्व दिया जावे । और जैन विद्वानों का सामाजिक स्तर ऊंचा हो, वे अधिक से अधिक धर्म प्रचार के उपयोगी अंग बन सकें इसके लिये उन्हें आवश्यक आर्थिक सुविधायें प्रदान की जावें। संस्कृत विद्यालयों से जो छात्र उच्च उपाधियाँ प्राप्त कर सामाजिक क्षेत्र में आवें इसके पूर्व उन्हें छात्रवृत्तियाँ देकर कम से कम एक वर्ष तक प्रशिक्षित किया जावे। वे भाषाकला, लेखनकला, शास्त्र प्रवचन, पत्र सम्पादन, अनुसंधान और धर्म प्रचार आदि समस्त या किसी विशिष्ट विषयक योग्यताओं में दक्ष व प्रभावशाली विद्वान बनें इसके लिए उक्त व्यवस्था की विशेष आवश्यकता है। इन्दौर और बनारस के विद्यालय इसके लिये उपयुक्त केन्द्र हैं जहां सब प्रकार के विद्वानों का समागम एवं पुस्तकालय आदि के उपयुक्त साधन उपलब्ध हैं।
इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी बातें हैं जो धर्म प्रचार के लिये अत्यंत उपयोगी हो सकती है। मैंने तो सुझाव रूप से थोड़ी सी बातें यहाँ उपस्थित की हैं। समाज के विद्वान त्यागी एवं अन्य सभी हित चिंतक महानुभाव इस सम्बन्ध में सचेष्ट हो उत्साह और तत्परता से काम करें तो धर्म प्रचार का बड़ा भारी काम किया जा सकता है। आशा हे मिशन बिखरी हुई सामाजिक शक्ति को संगठित कर इस दिशा में अधिक से अधिक प्रयत्नशील बना रहेगा।
सर्व श्रेष्ठ है मंगल जग का, धर्म अहिंसा तप संयम । वह वंदित सुरगण से भी है, जो कि धर्म में रहता रम ॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संस्कृत साहित्यसागर के मन्थन द्वारा आध्यात्मिक रत्न विशेषों के अन्वेषक
भारतीय संस्कृत साहित्य प्राचीन विशाल एवं लोकोपयोगी है । भारतीय प्राचीन आचार्यों द्वारा प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य की रचना विविध विषयों में सम्पन्न की गई है। वे विषय जैसे अध्यात्म, संस्कृत साहित्य, व्याकरण न्याय, काव्य, ज्योतिष, आयुर्वेद पुराण चम्पूकाव्य, चरित्र काव्य, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग द्रव्यानुयोग, वेद, शिक्षा कल्प, छन्द शास्त्र आदि । विक्रमादित्य के समय से संस्कृत साहित्य आदि का प्रचार-प्रसार तीव्र गति से होने लगा | समयानुसार सन् 1921 में श्री पं. पन्नालाल जी की प्रारंभिक शिक्षा प्रायमरी हिन्दी स्कूल सागर में हुई। पश्चात् 1922 में पूज्य पं. गणेश प्रसाद जी न्यायाचार्य की सत्कृपा से श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में प्रवेश प्राप्त कर संस्कृत व्याकरण धर्म साहित्य कोष आदि विषयों का अध्ययन प्रारंभ कर दिया । दानवीर माणिकचन्द्र दि. जैन परीक्षा बोर्ड बम्बई की सिद्धान्त शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् आप की सर्वतोमुखी प्रतिभा का दिग्दर्शन करते हुए पूज्य वर्णी जी ने आपको श्रीगणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में ही आवश्यकतानुसार अध्यापक नियुक्त कर दिया। काव्य तीर्थोत्तीर्ण, सन् 1931 में, आपकी दृष्टि में अपना अध्ययन नगण्य था, अत: अध्यापन के साथ ही स्वाध्ययन में निष्ठा के साथ पुरूषार्थ की प्रगति को किया । फलस्वरूप आपने 1936 में साहित्याचार्य का सागर पार किया। अनन्तर ही साहित्याचार्य के पद पर आपकी प्रसिद्धि हो गई।
संस्कृत साहित्य और न्याय सिद्धान्त की उच्च परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर, अध्यापन मनन चिन्तन और अध्यापन में आपने समय का सदुपयोग कर प्रगति हेतु महान् विचार किया कि
यदि नो संस्कृता दृष्टि:, यदि जो संस्कृत: मनः। यदि नो संस्कृता वाणी, संस्कृताध्ययनेन किम् ।
अथवा करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निशान ॥ संस्कृत पद्य का तात्पर्य - यदि हमारी संस्कृत साहित्य में दृष्टि या आस्था नहीं है, मन अनुरक्त नहीं हैं, वाणी साहित्य सृजन करने में, बोलने में नहीं है तो संस्कृत के अध्ययन से क्या प्रयोजन ? ऐसा विचार कर आप साहित्य सृजन में समर्पित हुए।
श्रीपरम पूज्य वर्णी जी महाराज की सत्प्रेरणा से सन् 1973 में डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर (म.प्र.) ने, स्वरचित शोध प्रबन्ध महाकवि हरिश्चन्द्र- एक अनुशीलन" पर " डाक्टर ऑफ फिलासफी" की उपाधि से साहित्याचार्य जी को अलंकृत किया । पश्चात् आपने स्वकार्यकाल में ही संस्कृत वाङ्मय का विकास करने हेतु संस्कृत ग्रन्थों का
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनुवाद, सम्पादन, मौलिक रचना, टीका आदि करना प्रारभ कर दिया । कलकत्ता में सन् 1946 में "अ.भा. दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्' की स्थापना के दो वर्ष पश्चात् सन् 1948 में संयुक्त मंत्री का और कुछ समय पश्चात् मंत्री पद का कार्य भार मेरे कन्धों पर रख दिया गया। प्राय: 30 वर्षों तक विद्वत्परिषद् की सतत् सेवा करते हुए प्राचीन संस्कृत-प्राकृत-हिन्दी साहित्य का प्रकाशन कराना । हमारे द्वारा विरचित एवं प्रकाशित साहित्य अधोलिखित प्रकार है (1) प्रथमानुयोग के ग्रन्थ :
आदिपुराण प्रथम द्वितीय भाग का अनुवाद, उत्तरपुराण का हिन्दी अनुवाद, पद्यपुराण प्र.द्वि.तृ. भाग का हिन्दी अनुवाद, हरिवंशपुराण का हिन्दी अनुवाद, गद्यचिन्तामणि ग्रन्थ की हिन्दी संस्कृत टीका, पुरूदेव चम्पू - हिन्दी - संस्कृत टीका, वर्धमानपुराण - हिन्दी टीका, चौबीसीपुराण (मौलिक), पार्श्वनाथ चरित - हिन्दी टीका, वर्धमान चरित - हिन्दी टीका, शान्तिनाथ चरित्र - हिन्दी टीका, महाकवि हरिचन्द्र - एक अनुशीलन - (शोध प्रबन्ध), जीबन्धर चम्पू - संस्कृत हिन्दी टीका, धर्म शर्माभ्युदय हिन्दी-संस्कृत टीका, इत्यादि 25 ग्रन्थ। (2) करणानुयोग शास्त्र :
धर्मकुसुमोद्यान सानुवाद (मौलिक), कुन्द कुन्द भारती- सानुवाद, करणानुयोग दीपक - प्र.द्वि. भाग । त्रिलोकसार की प्रस्तावना, कर्मकाण्ड की प्रस्तावना । जीवकाण्ड की प्रस्तावना । चैतन्य कर्मचरित्र आदि। (3) चरणानुयोग शास्त्र तथा स्तोत्र आदि जैन काव्य
रत्नकरण्डक श्रावकाचार हिन्दी टीका । अशोकरोहिणी व्रतोद्यापन (मौलिक) । सहस्र नामांकित वृषभजिन पूजा (मौलिक)। पंचस्तोत्र संग्रह सानुवाद। मन्दिर वेदी प्रतिष्ठा और कलशारोहण विधि। स्वयंभूस्त्रोत (सटीक) । सुभाषित मंजरी भाग 1-2 । क्रियाकोष सानुवाद सम्पादन आदि 19 ग्रन्थ । (4) द्रव्यानुयोग शास्त्र -
मोक्षशास्त्र सटीक | आराधना सार सटीक । तत्त्वार्थ सार सटीक । समय सार सटीक । अष्टपाहुड़ सटीक । द्रव्यानुयोग प्रवेशिका | अध्यात्मामृत तरंगिणी । लघुतत्वस्फोट सटीक । सम्यक्त्व चिन्तामणि (मौलिक)। सज्ज्ञानचन्द्रिका (मौलिक)। सम्यक चारित्र चिन्तामणि (मौलिक) मूलाचार भाग 1-2 सटीक । समयसार सम्पादन आदि 22 ग्रन्थ । अ.भा. विद्वत्परिषद् के माध्यम से अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन कराया एवं अनेक अभिनंदन ग्रन्थ । स्मृति ग्रन्थ । समीक्षा ग्रन्थ । स्त्रोत साहित्य । पूजन अर्चन साहित्य । प्रकीर्णक अभिलेख आदि।
___ इस प्रकार डॉ. पन्नालाल जी ने ज्ञानपूर्ण योग बल से संस्कृत साहित्य के विभिन्न अंगों का सृजन कर जैन संस्कृत साहित्य के साथ ही भारतीय संस्कृत साहित्य को पल्लवित किया है और प्रफुल्लित किया है। इसी विशेष कारण से आपके करकमलों में राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है।
सम्यक् शास्त्र ज्ञान का मंथन कर वस्तुतत्व का सारभाग आविष्कृत करना प्राचीन आचार्यों की एक
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परम्परा सिद्ध होती है यह स्यादवाद यन्त्र से सिद्ध होती है तथाहि
एकेनाकर्षन्ती, श्लथयन्ती वस्तु तत्त्व मितरेण । अन्तेन जयति जैनी, नीति: मन्थान नेत्र मित्र गोपी ॥
(आ. अमृतचन्द्रः पुरूषार्थ सिद्धयुपाप: पद्य 225) भाव सौन्दर्य - जिस प्रकार दही को मथने वाली ग्वालिन मथानी की रस्सी को एक हाथ से खींचती और दूसरे हाथ को ढीली कर देती है और दोनों की प्रक्रिया से दही से मक्खन का आविष्कार करती है, उसी प्रकार जिनवाणी रूप ग्वालिन द्रव्यार्थिकनय से वस्तु तत्त्व को मुख्य करती और पर्यायार्थिकनय से दूसरे तत्त्व वस्तु तत्त्व का सार ग्रहण करती है ऐसा स्यादवाद यंत्र लोक में विजयशील हो ।
आदरणीय डॉ. पन्नालाल जी ने आचार्यों की इसी नीति का अनुकरण किया था । रूपकालंकारकाचमत्कार
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
श्री साहित्याचार्य जी के स्वानुभव ने स्यादवादरूप मन्थन दण्डको, नयरूप रस्सी से, संस्कृत साहित्य सागर का गंभीरता के साथ मन्थन कर उस सागर में से तीन आध्यात्मिक मणियों का अन्वेषण कर आत्मा को अलंकृत किया । प्रथममणि सम्यक्त्वचिन्तामणि, द्विमणि- सत्ज्ञानचन्द्रिका, तृतीय मणि - सम्यक्चारित्र चूड़ामणि । सत्ज्ञानचन्द्रिका का द्वितीय नाम- सम्यक् ज्ञान चिन्तामणि है ।
(1) सम्यक्त्व चिन्तामणि की चमत्कृति
सम्यक् दृष्टिरयं तावद बद्धायुष्क बन्धनः । तिरश्चां नारकाणां च, योनिं दुष्कर्मसाधिताम् ॥ १५९ ॥ क्लीबत्वं ललनात्वं वा, दुष्कुलत्वं च दुःस्थितिम् । अल्पजीवित वत्त्वं च भवनत्रिक वासिताम् ॥१६०|| दारिद्रयं विकलांगत्वं, कुक्षेत्रं च कुकालकम् । प्रतिष्ठा श्रय वत्त्वं च प्राप्नोत्येव न जातुचित् ॥१६१॥
तात्पर्य - जिसने आयु का बंध नहीं किया है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव दूसरे भव में पापोदय से प्राप्त तिर्यचगति, नरकगति, नपुंसकवेद, स्त्री वेद, नीचकुल, कष्टमयजीवन, अल्पायु, भवनवासि, व्यन्तर ज्योतिष देवों में जन्म, दरिद्रता, विकलांगता, कुक्षेत्र, दुष्काल में जन्म को एवं सप्त भय सहित जीवन और मान हानि को प्राप्त नहीं होते है यह सब सम्यग्दर्शन का महत्व है वह सदैव अच्छी पर्यायों को प्राप्त करता है । आगे श्लोकों का तात्पर्य है कि ज्ञान और चारित्र से सम्यग्दर्शन ही प्रबल कहा गया है क्योंकि वह मोक्षमार्ग में कर्णधार या ड्राईवर के समान है जो मुक्तिनगरी को जाता है। सम्यक् दर्शन हृदय की वह रसायन है जो पुण्यात्मा पुरुष को स्वस्थ्य कर सर्वकल्याण का पात्र करती है । मिथ्यात्व गुण स्थानवर्ती मुनि के भी एक प्रकृति का भी संवर नहीं है, जब कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती गृहस्थ के इकतालीस प्रकृतियों का संवर हो जाता है यह करणानुयोग सम्यग्दर्शन का प्रभाव है। तीन लोक और तीनकाल में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन चिन्तामणि के समान हितकारी है।
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (२) सम्यग्ज्ञान चिन्तामणि का चमत्कार - सम्यग्ज्ञान कपरिभाषा -
अन्यून मनतिरिक्तं, याथातथ्यं विना च विपरीतात् । नि:संदेहं वेद, यदाहुस्तज् ज्ञानमा गमिनः ॥
(समन्तमद्राचार्य: रत्नकरण्डश्रावकाचार) जो गुण वस्तु के सर्वांश को निर्दोष नि:संदेह दर्पण की तरह झलकाता है और प्रकाश के समान प्रकाशित करता है वह सत्यार्थ ज्ञान है पंच प्रकार है -
मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं, अवधिज्ञानमेव च।
मन: पर्यय संज्ञानं, केवलज्ञान नाम च ॥ ज्ञानसूर्य की पंच किरणें प्रकाशित होती हैं (1) मतिज्ञान (2) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान (4) मनःपर्ययज्ञान, , (5) केवलज्ञान । ये ज्ञान सूर्य चंद्र अग्नि, बिजली और दीपक से भी अधिक पदार्थो को स्वतंत्र प्रकाशित करने वाले हैं । इस ज्ञान चिन्तामणि की दश किरणें स्वस्व पदार्थ को आलोकित करती हैं | (१) किरण - पंच परमेष्ठीस्तवन, चार अनुयोग तथा सम्यग्ज्ञान के आठ अंगो को प्रकाशित करती है। (२) किरण - मतिज्ञान के ३३६ भेदों को सूक्ष्मरीति से प्रकाशित करती है (३) किरण - श्रुतज्ञान के द्वादश अंगो को, एवं अंगबाह्य भेदों को आलोकित करती
किरण - उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र के आश्रय नयों को प्रकाशित करती है
किरण - गोम्मटसार जीवकाण्ड, राजवार्तिक के आधार से अवधि ज्ञान के भेद प्रमेद. (६) किरण - मन:पर्ययज्ञान का विस्तृत विवेचन प्रकाशित करती है। (७) किरण - केवलज्ञान काव्याख्यान एवं सर्वज्ञसिद्धि को प्रकाशित करती. (८) किरण - धवलाटीका के अनुसार चौसठ ऋद्धियों को सम्यक् प्रकाशित करती है। (९) किरण - धर्मध्यान संबंधी विवेचन के साथ शुक्ल ध्यान के भेदप्रमेदों को आ.शुभचंद्र एवं आ.
कार्तिकेय के ग्रन्थाधार पर प्रकाशित करना। (१०) किरण - शुक्ल ध्यान के भेदों को सकलविवेचन के साथ प्रकाशित करना ।
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान चिन्तामणि ने दश किरणों के द्वारा द्रव्यों को प्रकाशित कर प्राणियों को प्रमोद प्रदान किया है । यह चिन्तामणि दोनों के मध्य में शोभित होकर सम्यक्दर्शन को तथा सम्यक्चारित्र को प्रबल करता है। लोकोक्ति प्रसिद्ध है -
नमस्तस्यै सरस्वत्यै, विमलज्ञानमूर्तये । विचित्रालोकयात्रेयं, यत्प्रसादात्प्रवर्तते ॥ ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण । इह परमामृत जन्मजरामृत रोग निवारण ।
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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (३) सम्यक् चारित्र चिन्तामणिका आलोकः - प्रबुद्ध आविष्कर्ता ने तृतीय चिन्तामणि का अन्वेषण कर तेरह किरणों के द्वारा विश्व के हितार्थ विषयों को प्रकाशित किया - (१) किरण - चारित्र का लक्षण -
हिंसानृतचौर्येम्यो मैथुन सेवा परिग्रहाभ्याम् च । पाप प्रणालि काभ्यो, विरति: संज्ञस्य चारित्रम् ।
(समंत भद्राचार्य) चारित्र के भेदप्रमेद, श्रावकधर्म का कथन, श्रमणधर्म का कथन, निश्चय मोक्षमार्ग एवं व्यवहार मोक्षमार्ग का प्रकाशन। (२) किरण - सम्यक् चारित्र लब्धि से सम्पन्न चार प्रकार के साधुओं को प्रणाम किया है । एवं उनकी
चारित्रसाधना का व्याख्यान है। (३) किरण ने श्रीनेमिनाथ के श्रेष्ठ वैराग्य को दर्शाते हुए मोक्षलक्ष्मी को वरण करने का परम आदर्श
प्रकाशित किया है। (४) किरण - दर्शाती है कि भ. महावीर ने ध्यानरूपी तलवार के द्वारा कर्मरूपी सेना को विध्वस्त कर
मुक्ति नगरी का साम्राज्य प्राप्त किया है। किरण - इन्द्रियसंयम और प्राणीसंयम का सप्रमाण वर्णन कर संयम की साधना में निष्ठ आचार्य उपाध्याय साधुसंघ को प्रणाम किया गया है। किरण - सिद्धपरमात्मा को सविनय प्रणाम कर षट् आवश्यक कर्तव्यों को प्रकाशित किया गया है। किरण - श्रमणधर्म के सर्वस्व पाँच आचारविशेषों की व्याख्या को प्रकाशित किया गया - (१) दर्शनाचार, (२) ज्ञानाचार, (३) चारित्राचार, (४) तपाचार, (५) वीर्याचार । श्रमणों की यही आध्यात्मिक सम्पत्ति है। किरण - वैराग्य विकास का प्रबल आधार द्वादश भावनाओं का विशद व्याख्यान किया गया है ।
वैराग्य उपावन माई चिन्तो अनप्रेक्षा भाई (छहढाला) (९) किरण - मुक्ति कान्ता को वशीभूत करने का परम्परया कारण धर्मध्यान और साक्षात्कारण शुक्लध्यान
को सप्रमाण आलोकित किया गया है। (१०) किरण - मुनिधर्म के अंतर्गत आर्यिका माताओं के मूलगुणों का वर्णन द्रव्य क्षेत्र भाव की अपेक्षा
आगमानुकूल किया गया है।
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कृतित्वं/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (११) किरण - ने श्रमण सल्लेखना और श्रावकसल्लेखना का सांगो पांग विवेचन कर साधुओं के आदर्श
महाव्रतों को आलोकित किया है। (१२किरण - भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए आठ मूलगुण
और बारह व्रतों का एवं सामान्य एवं विशेष पर्वो के व्रतों का सातिचार वर्णन किया गया है (११
प्रतिमायुक्त) (१३) किरण - निर्ग्रथगुरुवरों को प्रणाम -
गुरवः पान्तु नो नित्यं, ज्ञानदर्शननायकाः ।
चारित्रार्णवगंभीराः मोक्षमार्गोपदेशकाः ॥ इस प्रकार डॉ. पन्नालाल जी ने अपने पुरुषार्थ से साहित्य सागर का मंथन कर “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इस सूत्र के अनुसार - अध्यात्मरत्नत्रय के विकास से स्वपर कल्याण का मार्ग सरल किया है। आपकी मौलिक रचना "चिन्तामणित्रय" साहित्यलोक में जयवंत हो ।
न चोरहार्यं न च राजहार्य, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि । व्यये कृते वर्धत एव नित्यं, रत्नत्रयं सर्वधन प्रधानम्॥
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कृतित्व / संस्कृत
डा. दयाचंद्र साहित्याचार्य - प्राचार्य
पंडित जी की संस्कृत अभिरूचि - संस्कृत निबंध कृतित्व - संस्कृत
विश्वतत्त्वप्रकाशक : स्याद्वाद:
विश्वदर्शनेषु प्राचीनभारतीयस्य जैनदर्शनस्यास्तित्त्वं पूर्वेतिहासपुराणपुरातत्त्वै: प्रसिद्धमिति भारतीयै वैदेशिकैन साहित्यिकैः स्वीकृतं यो द्रव्यभावकर्मशत्रून् जयति स जिन जिनेन प्रणीतो धर्म इति जैनधर्मः । अथवा जिनो देवता येषामिति जैना:, जैनानां धर्म इति जैनधर्मों जैनदर्शनं वा । अहिंसा, स्याद्वाद:, कर्मवादो द्रव्यवादोऽध्यात्मावाद इति जैनदर्शनस्य मौलिकसिद्धांत: । तेषु द्योतते स्याद्वाददिवाकरो जैनदर्शनस्य नैत्रात्मकोऽद्वितीयो विश्वतत्त्वप्रकाशको वस्तुतत्त्वप्रदर्शक प्रधान: सिद्धांत: । अयं खलु जैनदर्शन भवनस्याधारशिक्षारूपत्वेन स्वसत्तां स्थापयति । विश्वशान्तिप्रदस्याहिं साधर्मस्य प्रतिष्ठायै दार्शनिकलोके जैनदर्शनेन प्रदत्तोऽयमपूर्वः स्याद्वादो विद्यते सर्वलोकाय महती दत्तिः । सत्यासत्यानिर्णायकः समन्वय (विश्वसन्धिमैत्री वा) विधायकोऽयं हि मिथ्याज्ञानतिमिरं दिवाकर इव सापेक्षनयप्रमाणकिरणैः स्वभावत्वेनैव निवारयति । न च भवति तेन विना लोके विश्वतत्त्वालोकः ।
स्याद्वादस्योदय:
विद्यते खलु जैनदर्शनस्य मान्यता - यत्स्कन्धाणुरूपं लघुदीर्घकायं स्थूलं सूक्ष्ममपि वस्तु (द्रव्यं) स्वमर्यादायामनन्तधर्मविशिष्टं युक्तिप्रमाणैः स्वानुभवेन च सिद्धम् । यथा कदलीफले रूपं रसो गन्धः स्पर्शः स्थूलाकृतिर्गुरुत्वम् अस्तित्वं वस्तुत्वं द्रव्यत्वं प्रमेयत्वमगुरुलघुत्वं प्रदेशवत्त्वं क्षुधातृषापित्तशान्तिकरत्वमित्यादयो गुणा:, रुग्णस्य बाधावर्धकत्वं कासकफवर्धकत्वमित्यादयो दोषाश्च सन्ति । एकं हि विशुद्धज्ञानं तान् विविधधर्मान् युगपत् ज्ञातुं शक्नोति, परमेकस्मिन् काल एकः शब्दो वस्तुन एकमेव धर्मं गुणं वैकदेशत्वेन वक्तुं समर्थो न तु सर्वधर्मान् यथा नारिङ्गफले मधुरत्वकथनं गन्धत्वादिकथनं वा क्रमशः । दृश्यते च लोके यद् वक्तारः समये समये स्वस्वदृष्टिकोणैर्विवक्षितवस्तुगुणकथनाय शब्दप्रयोगं कुर्वन्ति । न तु ते वस्तुनां विविधगुणवर्णने युगपत्समर्थाः, यतश्च नेदृशी शक्तिः शब्देषु । अतः क्रमशो विवक्षितवस्तुगुणकथने वक्तुः, तद्गुणपरिज्ञाने च श्रोतुः समीहितकार्यसिद्धये स्याद्वादपद्धतेर्भवत्येव महत्यावश्यकता ।
किञ्च - स्याद्वादेनानेकान्तसिद्धिर्भवति । सदसदादिरूपस्य द्रव्यस्य परस्परविरूद्धधर्म द्वयस्य विवक्षावशात् परस्परसापेक्षकथनं स्याद्वादमाध्यमेनैव लोके कार्यकारि भवति, तेनैव च द्रव्यस्य क्रमशः पूर्णतया तत्त्वज्ञानं भवति । अतएव स्याद्वादस्योपयोगः परमावश्यकः ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ किञ्च- वस्तुतत्त्वज्ञानमंतरेण मानसिकवाचनिककायिकरूपाया अहिंसाया: सिद्धिर्न भवति । वस्तुतत्त्वज्ञानं च सकल भवत्यनेकान्तदर्शनेन । अनेकान्तस्य प्रयोगः सिद्धिश्च स्याद्वादशैल्या जायते, अनेन कारणेनापि स्याद्वादशैली महत्त्वपूर्णा सिद्धा । आवश्यकताऽऽविष्कारस्य जननी भवति" इति न्यायेन तीर्थङ्करमहापुरुषैस्तत्पूर्तये स्याद्वादस्याविष्कारो विहितः, अर्थात् क्रमिकस्वदिव्योपदेशेन प्रकटीकृतः । स्याद्वादस्य रूपरेखा -
कथंचित्कथनरूप: स्याद्वाद: । अर्थात् अनन्तगुणात्मके द्रव्ये स्यात् = अपेक्षावशात् स्वमर्यादायां कस्यचिदेकगुणस्य मुख्यकथनमितगुणानां च गौणत्वध्वनिः स्याद्वादोऽनेकान्तवादो वा । जैनदार्शनिकैः स्याद्वादस्य व्याख्या विविधशब्दरीत्या विहिता । तथा हि - "अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः'इति (लघीयस्त्रये भट्टाकलङ्कदेव:)।
विधेयमीप्सितार्थाङ्गं प्रतिषेध्याविरोधि यत् ।
तथैवादेयहेयत्वमिति स्याद्वादसंस्थिति: ॥ (आप्तमीमांसा का 113) अर्थात् - अनेकान्तात्मनि वस्तुनि विधेयप्रतिषेध्यरूपस्य परस्परविरोधिधर्मद्वयस्यापेक्षाभेदात् कथनम्, सिद्धि:, आदेयहेयत्वम्, मुख्यगौणत्वव्यवस्था वा स्याद्वादः । यथा चैकः पुरुषः स्वजनकापेक्षया पुत्रः, स्वपुत्रापेक्षया पिता, स्वमातुलापेक्षातो भागिने य: स्वभागिने यापेक्षातश्च मातुल इति प्रयोजनवशादनेधर्मविशिष्टः, तथैव ग्रन्थनामक एकस्मिन् वस्तुनि द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्यत्वम्, पर्यायार्थिकनयापेक्षया चानित्यत्वमिति धर्मद्वयसिद्धि: । किञ्च - स्वपुद्गलत्वादिगुणापेक्षया वस्त्रस्य नित्यता, पर्यायपरिवर्तनापेक्षया च तस्यैवानित्यतेति धर्मद्वयसिद्धि: । किञ्च - पर्यायस्योत्पादविनाशाभ्यां कलशस्य क्षणिकत्वम्, अस्तित्व पुद्गलत्वाद्यपेक्षया च ध्रौव्यमिति सत्स्वरूपस्य द्रव्यस्य विरुद्धानन्तधर्माणां सत्ता सिद्धा, “सद्रव्यलक्षणम्, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” इति वचनात्। (तत्त्वार्थसूत्रे अ. 5 सूत्रम् 29-30)
विधिनिषेघश्च कथञ्चिदिष्टौ विवक्षया मुख्यगुणव्यवस्था । इति प्रणीति: सुमतेस्तवेयं मतिप्रवेक: स्तुवतोऽस्तु नाथ ॥
(बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रे समन्तभद्राचार्य: श्लोक 25) "ननु इदमेव विरुद्धं तदेव नित्यं तदेवानित्यमिति ? नैतद्विरुद्धम्, कुत: 'अर्पितानार्पितसिद्धे' (अ. 5 सूत्रम् 32) । अनेकान्तात्मकस्य वस्तुन: प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विविक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितम्, तद्विपरीतमनर्पितम्, ताभ्यां वस्तुनोऽनेकगुणत्वसिद्धेर्नास्ति विरोधः" इति। (सर्वार्थसिद्धौ पूज्यपादाचार्य: पृ. 194)
__एवं हि द्रव्यस्य स्याद्वादेन नित्यानित्य एकत्वाने कत्व सामान्यविशेष सदसत् मूर्तत्वामूर्तत्वभिन्नत्वाभिन्नत्त्वेत्यादिधर्मां अनन्ता: सिद्धा: । किञ्चनेकान्तस्य सिद्धि: प्रमाणनयाम्यां भवति, अतोऽनेकान्तोऽप्यनेकप्रकारो भवति, नत्वेकप्रकारः, यथा सप्तभङ्गरूपः, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकः, गुणपर्ययद्रूपः, सद्रूपः, सामान्यविशेषरूपो वा । तदुक्तं समंतभद्राचार्येण -
अनेकान्तोऽप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधन: । अनेकान्त: प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपिँतान्नयात्॥
(वृ. स्वयंभूस्तोत्रे श्लोक103) (420)
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अतः प्रमाणापेक्षया अनेकान्त: , नयापेक्षया चैकान्त: सिद्धयतीति भावः । अनेकान्तवाद: स्याद्वादो वा
जैनदर्शनग्रन्थेषु स्याद्वादोऽनेकान्तवाद इति शब्दद्वयं दृश्यते । तयोरर्थभेदोऽस्ति न वेति विचार्यतेसामान्यसिद्धांतापेक्षया द्रव्यानन्तशक्तिसिद्धिरूपलक्ष्यत्वेन वा स्याद्वादानेकान्तवादयोर्नास्ति वाच्यभेदः, ताभ्यामेव द्रव्यस्यानेकधर्माणां व्यक्ति: सिद्धिश्च भवति । दर्शनग्रन्थेषु धर्मग्रन्थेषु वा प्रायोऽनेकान्तपदेन स्याद्वादस्य, स्याद्वादपदेनानेकान्तस्य च ग्रहणं स्वीकृतम् । तथाहि पुरुषार्थसिद्धये श्रीमदमृतचन्द्रसूरिणा प्रोक्तम् -
"सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्' इत्यत्रानेकान्तपदेन टीकायां स्याद्वादस्यापि कथनम् । अपि च -
बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतुर्बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्त: । स्याद्वादिनो नाथ तथैव युक्तं नैकान्तदृष्टेस्त्वमतोऽसि शास्ता ॥
(वृहत्स्वयम्भूस्तोत्रे श्लोकः 14) अत्रापि स्याद्वादिनस्तीर्थकरस्यैकान्तदृष्टि निषेधादनेकान्तदृष्टे: समर्थनम् अभेदेन कृतम् । शब्दार्थविशेषापेक्षया तयो दो दृश्यते। तथाहि - अनेक + अन्तः = धर्म: तस्य वादः = कथनमित्यनेकान्तवाद: -अनन्तशक्तिमान्यता परस्परविरोधिधर्मद्वयस्य मान्यता वा। स्यात् = कथंचित्, वादः = कथनमिति स्याद्वादः। अर्थात् कथंचित् क्रमशो वस्तुनो विविधगुणकथनं शब्दप्रयोगशैली वा । अत्रानेकान्त - स्याद्वादयोर्वाच्यवाचकसम्बंध: । अपि च अनेकान्तवाद: साध्यो लक्ष्यो वाच्यो विधेयस्तत्त्वरूप: प्रमाणात्मको विज्ञानरूपो निश्चयरूपश्च कथ्यते । स्याद्वादस्तु साधको निर्देशको वाचकः साधको नयरूपः प्रयोगात्मको वचनात्मको व्यवहाररूपश्च निगद्यते । किञ्च अनेकान्तवादेन मानसिकविचारशुद्धिः, स्याद्वादेन च वाचनिकशुद्धिर्नियमेन भवतीति द्वयोरन्तरं सिद्धम् । अत्र तु स्याद्वादानेकान्तवादयोर भेदविवक्षा ज्ञातव्या । सप्तभङ्गात्मक: स्याद्वादः
सोऽयं स्याद्वादः सप्तविधप्रक्रियामाध्यमे नानेकान्तात्मकं द्रव्यस्वरूपं निरूपयति । आपेक्षिकधर्मकथनाय, वचने सत्यान्वेषणाय विश्वसमता (समन्वय) विधानाय च स्याद्वादशैली प्रशस्ता, सा च सप्तविधा, या सप्तभङ्गीति भाष्यते (Seven aspects)तस्याः रूपरेखा दार्शनिकाचार्य: कथिता"प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधविकल्पना सप्तभङ्गी' इति । (तत्त्वार्थराजवार्तिके अ. 1 सूत्रम् 6)
___अर्थात् - एकस्य द्रव्यस्याविरोधेनैकस्य धर्मस्य विधिप्रतिषेधात्मकं वर्णनं सप्त प्रकारै र्जायते । यथा मधुराम्लतिक्तानां त्रयाणां रसानां सप्तप्रकारा आस्वादा भवन्ति (1-1-1-2-2-2-3), तथैव अस्तित्व धर्मापेक्षया अस्ति - नास्ति अवक्तव्यमिति मूलभङ्गत्रयेण सप्तभङ्गा भवन्ति । एवमेकस्य द्रव्यस्यानन्तधर्माणां कथनं विधिप्रतिषेधावक्तव्यरूपत्वेन सप्तविधं भवति । अतएव द्रव्यमनन्तधर्माधारं सिद्धं विद्यते । तथाहि - (1) स्यादस्ति पुस्तकम् - स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया । (2) स्यान्नास्ति पुस्तकम्-परवस्तुनो
(421)
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ घटप्रदीपादिकस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया । (3) स्यादस्ति नास्ति पुस्तकम् - स्वद्रव्यपरद्रव्यक्षेत्रादीनां क्रमिक विवक्षयोभयात्मकम् (4) स्यादवक्तव्यं पुस्तकम् - पुस्तकस्यानन्तधर्माणामस्तिनास्तिरूपधर्मयोर्वा युगपत् शब्दैः कथनायोग्यत्वादवक्तव्यम् । (5) स्यादस्ति पुस्तकं वक्तव्यम् - यद्यपि स्वद्रव्ययाद्यपेक्षया तदस्ति तथापि तस्यानन्तगुणानां युगपत् शब्दैवर्णनं न भवितुमर्हति, अथवा पूर्णकथनमेकगुणस्यापि न वक्तुं शक्यम्। (6) स्यान्नास्ति पुस्तकंवक्तव्यम् - यद्यपि भिन्नद्रव्याद्यपेक्षया नास्ति तत्, तथापि पुस्तकस्य निषेधरूपधर्माणामेकधर्मस्य वा शब्दैर्युगपद् वर्णनमशक्यम् । (7) स्यादस्ति नास्ति पुस्तकं वक्तव्यम् - यद्यपि स्वपरद्रव्याद्यपेक्षातो वस्तुपुस्तकमुभयरूपम्, तथापि क्रमिकविवक्षया पुस्तकस्यानेकगुणानां द्वयेर्वा युगपद् स्पष्टत्व वक्तुमशक्यमिति सप्त प्रकारैः सर्वेषां वस्तूनामनन्तधर्माणां वर्णनं विवक्षितगुणव्यवहारश्च भवति । वस्तुस्वरूपे ज्ञानिनां जिज्ञासा सप्तविधा संजायते, अतस्तत्समाधानाय भङ्गा अपि सप्तसंख्यका नाधिका न न्यूना: । किञ्च - अस्ति - नास्ति - अवक्तव्यमिति मूलभङ्गत्रयस्य सप्तैव प्रकारा अपुनरुक्ता भवन्ति, स्वभावतो न ततो न्यूनाधिका: । अत: स्याद्वादस्य शैली सप्तविधैव निर्दोषेति । उक्तं च -
स्याबाद: सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधि: । सप्तभङ्गनयापेक्षा हे या देयविशेषक:।।
(आप्तमीमांसा, श्लोक 104) स्यान्निपातस्य व्याख्या
संस्कृ तव्याकरणे तिङन्तप्रतिरूपकः स्यादिति निपात: क्रि यारूपो ऽव्ययरूपश्च स निश्चितविवक्षावाचकः, तस्य कथंचिदिति पर्याय: । तस्यार्थः - निश्चितविवक्षा - अपेक्षा, दृष्टिकोणः नयरूपो लक्ष्यांशरूपो गुणांशरूपो वा । स्या-त्पदत्य संभव - कदाचित् - संदेह अनुमान अनिश्चय इति शायद इति च लोकप्रचलितार्था उपयुक्ता न भवन्ति, निश्चयज्ञानोत्पादकत्वाभावात् । प्राकृतभाषायां पालिभाषायां च 'स्यात्' निपातस्य सिया' इति प्रयोगो भवति। यो वस्तुनो निश्चितविवक्षितभेदस्य वाचकः, अविवक्षितभेदस्य च द्योतकः प्रसिद्धः । यथा बौद्धग्रन्थस्य मज्झिमनिकायस्य महाराहुलोवादसुत्ते कथितम् - “कतमा च राहुलआपो धातु ? आपो धातु सिया अज्झत्तिकासिया बाहिरा"
___ अर्थात् - जलधातु कतिविधं ? उत्तरं - जलधातु स्यादभ्यन्तरं स्याद्वाह्यमिति द्विविधं । अत्र खलुस्यादभ्यन्तर मित्यत्र स्यात्पदं निश्चित भेदस्याभ्यन्तस्य वाचकं द्वितीयस्य च बाह्यभेदस्य द्योतकम्। एवं हिस्यात्पुस्तकमस्तीत्यत्र स्यात्पदं निश्चितसापेक्षगुणस्यास्तित्वस्य वाचकम्, द्वितीयादिनिरपेक्षगुणानां च द्योतकं (सूचकं) भवति । “द्योतकाश्च भवन्ति निपाता:' इत्यत्र च 'शब्दाद् वाचकाश्च" इति व्याख्यानात् (सप्तभङ्गी - तरङ्गिणी पृ. 23)। अतो निश्चितविवक्षितगुणांशस्य वाचकत्वात् सिद्धं सार्थक्यं स्यात्पदस्य । एतेन सुनिश्चितमिदं यद्वस्तुनोऽनन्तगुणानां कथनं शब्दैर्युगपद् न जायते, अपितु क्रमिकतया विवक्षितकाले विवक्षितगुणस्यैव कथनं स्यान्निपातेन सूचितं भवति । उक्तं च -
स्याच्छब्दादप्यनेकान्तसामान्यस्याबोधने । शब्दान्तर प्रयोगोऽत्र विशेष प्रतिपत्तये ॥
(सप्तभङ्गी तरङ्गिणी, पृ. 30)
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दर्शनानां समन्वये स्याद्वादः
लोके हि दर्शनस्याविष्कार: सिद्धान्तानां प्रतिष्ठायै भवति । सिद्धान्तैश्र लोककल्याणं संजायते । अतो दर्शनानां परमलक्ष्यमति लोककल्याणं प्रसिद्धम्। लोके राष्ट्रेषु वा दर्शनानां सिद्धान्तानां विविधविचाराणां च विवादो द्रोह, तत्समर्थकानां मानवानां च पारस्परिकप्रतिक्रिया प्रायोऽभूत्, भवति च । अनेन दूषितवातावरणेन दर्शनानां लोकहितात्मकलक्ष्यपूर्तिर्न भवितुमर्हति । अतो दर्शनानां विचाराणां च समन्वयस्यावश्यकता । यथार्थवस्तुतत्त्वज्ञानमन्तरेण दर्शनसमन्वयो दुःसाध्य: । यथार्थवस्तुविज्ञानं च स्याद्वादशैलीमाध्यमेन व्यक्तं भवति । अत: स्याद्वादो दर्शनसमन्वयस्य मूलहेतुः ।
एकान्तवादेन दुराग्रहेण च पारस्परिकविवाद: प्रतिक्रिया च भवति । यथा नित्यैकान्तवादिनः संख्या: क्षणिकैकान्तवादिनो बौद्धान् तिरस्कुर्वन्ति, बौद्धाश्च नित्यैकान्तवादिनस्तिरस्कुर्वन्ति । स्याद्वादिनस्तु नयवलेन विवक्षाबलेन वा उभयो: स्थितिकरणं मित्रतां व कुर्वन्ति । तथाहि - द्रव्यापेक्षयाद्रव्यार्थिकनयेन वा वस्तुनो नित्यत्वम् , उत्पादव्ययापेक्षया चानित्यत्वं सुवर्णकुण्डलवत् । मानसिकसाम्यभावाय मतावेशतापनिवारकाय चानेकान्तात्मकं वस्तुविज्ञानं शीतलं भैषज्यं विद्यते ।
किञ्च - सत्यानेकान्तविज्ञानेन सिद्धांतानां विचाराणां वा क्षणिकं समीकरणं शिथिलश्रद्धानं वा न संजायते। अपि तु वस्तुस्वरूपाश्रयेण सत्यविज्ञानहेतुकः स्थायी समन्वयो मैत्री वा प्रभवति । स्याद्वादशैलीतो वचनशुद्धिः, अनेकान्तदर्शनतो विचारनैर्मल्यं, ताभ्यां च साम्प्रदायिक द्वेषाभावरूपस्य समीकरणस्य भावना जागृता भवति ।
अपि च - ऋषभदेवादितीर्थङ्करैः प्राचीनाचार्यैश्च स्याद्वादमाध्यमेन भाषाशक्तित्वं भाषासौन्दर्य च दर्शयित्वा, अनेकान्तमाध्येन च निष्पक्षतां (वीतरागतां) समुपदिश्य मतान्तराणां समन्वयः, समस्यानां समाधानं विचाराणां संशोधनं, हिंसाहिदुष्कृतानां बहिष्कारः, समाजानां सुधारश्च विहितः । स्याद्वादस्य शैल्या विविधदर्शनानां समन्वयसाधकः श्लोक: -
कथञ्चित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत्। तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥
(आप्तमीमांसा, श्लोक 14) कतिपयदर्शनानां समन्वयो दृष्टव्य: अत्र - (1) सांख्यदर्शने सदेकान्तवादस्य प्रथमभङ्गे समन्वयः। (2) माध्यमिकदर्शनस्यासदेकान्तवादस्य द्वितीयभङ्गे, (3) वैशेषिकदर्शनस्य सदसदै - कान्तवादस्य तृतीयभङ्गे, (4) बौद्धदर्शनस्य अवक्तव्यैकान्तवादस्य चतुर्थभंङ्गे, (5) शङ्कराचार्यस्यानिर्वचनीयवादस्य पञ्चमभङ्गे, (6) बौद्धाना मन्यापोहवादस्य षष्ठभङ्गे, (7) यौगस्य पदार्थवादस्य सप्तमभङ्गे समीकरणं भवति। (जैनधर्म पृ. 71-72)
__ अत: स्याद्वादेन दर्शनानां विचाराणां च विवादस्य समाप्तिर्भवति । यथाविज्ञजनेन । यथा विज्ञजनेन गजविषये सप्तजात्यन्धपुरुषविवादसमाप्तिर्भवति ।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दार्शनिकक्षेत्रे स्याद्वादस्य प्रभाव:
पक्षपातरहितत्वात् स्याद्वादेन परस्परविरुद्धदर्शनानां सम्प्रदायानां च समन्वये सति तस्य तेषु दर्शनेषु प्रभाव: स्वयमेव सिद्धो भवति। लोकस्य संयोग - वियोगपरिवर्तनरूपविधानं सापेक्षम्, लोकस्य व्यवहारोऽपि सापेक्षः । अन्यथा लोकस्य सम्यस्थितिर्व्यवस्था च न भवेत् । तद्विधानं व्यवहारो वा सापेक्षनयवादेन स्याद्वादेन वा संजायते । अतएव लोकस्य सम्यक् स्थिति दृष्ट्वा "दुनिया" (द्विनय:) इति संज्ञा निगद्यते । जैनदार्शनिकानां मतम् - सर्वदर्शनानि नयवाद एवान्तर्भूतानि । अत एव तानि सर्वाणि नयवादेन प्रभावितानि दृश्यन्ते । तथाहि - ऋजुसूत्रनयेन बौद्धदर्शनम् , संग्रहनयेन वेदान्तदर्शनम्, नैगमनयापेक्षया न्यायदर्शनं वैशेषिकदर्शनं च, शब्दनयेन शब्दब्रह्मदर्शनं व्यवहारनयेन च चार्वाकदर्शनं प्रभावितम् किञ्च - महावीरतीर्थङ्करसमये स्याद्वादेन क्रियावादिप्रभृतय: 363 सम्प्रदाया: प्रभाविता आसन् । (अहिंसा दर्शनस्य पृ. 299-300)
अपि च - इन्द्रभूतिप्रभृत्ये कादशदार्शनिका नित्यै कान्तवादिनः, उच्छे दवादिनश्च अजितकेशकम्बलिप्रभृतयो दार्शनिका महावीरस्य स्याद्वाद दर्शनेन प्रभाविता: । इन्द्रभूतिप्रभृतयस्तु दार्शनिका एकादशसंख्यकाः साक्षान्महावीरसमवशरण एव दीक्षिता: सन्तो गणधरपदे विभूषिता अभूवन् । (जैनदर्शनस्य पृ. 59)
भारतीयदर्शनशास्त्रेषु वेदोपनिषदादिषु विश्वस्य आदितत्त्वविषये सद् - असद् - उभय - अनुभयेति भेदचतुष्टयेन निर्णयः कृतः । तत्रापि विवक्षाबलेनैन (स्याद्वादेनेव) परस्परविरूद्धधर्माणां पदार्थे निर्णयों ज्ञातव्यः, अन्यथा धमैकान्तवादेन पारस्परिकविरोधाद् वस्तुतत्त्वस्य निश्चयोऽशक्यः । तथाहि - “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" (ऋग्वेदे 1/164/46)
“सदेव सौभ्येदमग्र आसीत् एकमेवाद्वितीयम् ।
तद्वैक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् ॥" तस्मादसत: संजायत ...............'' (छान्दोग्योपनिषद् 6121) "आपोधातु सिया अज्झत्तिका सिया बाहिरा (जलं स्यादभ्यन्तरं स्याद् बाह्यम्)"
(मज्झिमनिकाय - महाराहुलोवादसुत्त) एवं कठोपनिषद्, प्रश्नोपनिषद्, ईशावास्येत्यादि ग्रन्थेष्वपि वस्तूनां विरुद्ध - धर्माणां वर्णनं विवक्षावशादेव ज्ञातव्यम्।
किञ्च - “सामान्यं द्विविधं प्रोक्तं परं चापरमेच च । सकलजात्यपेक्षयाऽधिकदेशवृत्तित्वात् सत्तायाः परत्वम् , तदपेक्षया चान्यासां जातीनामपरत्वमिति"।
(कारिकावली कारिका 8 टीका - पृ. 19) अपि च - "द्रव्यत्वादिक जातिस्तु परापरतयोच्यते ॥9॥ पृथ्वीत्वाद्यपेक्षया व्यापकत्वादधिकदेशवृत्तित्वाद् द्रव्यत्वादेः परत्वम्, सत्तापेक्षया व्याप्तत्वादल्पदेशवृत्तित्वाच्च
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ द्रव्यत्वस्यापरत्वम् । तथा च धर्मद्वयसमावेशादुभयमविरुद्धमिति ''।
(कारिकावली का. १ पृ. 20-21) "तत्र गन्धवती पृथिवी । सा द्विविधा, नित्याऽनित्या च । नित्या परमाणुरूपा, अनित्या कार्यरूपा" इति पृथिव्याः नित्यानित्यत्वम् । (तर्कसंग्रहे प्रत्यक्षप्रकरणे सूत्रम् - 9 पृ. 3)
अपि च - आचार्यमलयगिरिमहोदयेन प्रमाणवाक्य एव स्यान्निपातस्य प्रयोगः स्वीकृतः, न तु नयवाक्ये । (जैनदर्शने पृ. 548)
श्रीबुद्धस्याव्याकृतवादे चतुर्भङ्गापेक्षया परामर्शो व्याख्यात: । संजयवेलट्ठिपुत्तस्यानिश्चितवादेऽपि सत् - असत् - उभय- अनुभयेति चतुर्भङ्गापेक्षया विचारो विहितः। अतस्तस्य चतुर्भङ्गात्मकोऽनेकान्तवाद: स्याद्वादेन प्रभावित: । (जैनदर्शने पृ. 535)
इत्थं विविधदर्शनशास्त्राणां प्रोक्ताप्रकरणेषु वस्तुतत्त्वनिर्णये परस्परविरुद्धधर्मसिद्धत्वं विवक्षाबलादेव । यद्यपि तत्प्रकरणेषु स्यान्निपातस्य प्रयोगो न दृश्यते साक्षात् तथापि प्रकरणवशात्स्यात्पदमन्तर्हितं विद्यत एव अथवा तस्याध्याहारो भवत्येव । वैज्ञानिकलोके स्याद्वादः
___ यथा खलु दार्शनिकक्षेत्रे स्याद्वादस्याविष्कारो महत्त्वं च विद्यते । तथैव विज्ञानलोकेऽपि तस्य सत्त्वं महत्त्वं च दृश्येते ! न हि स्याद्वादविज्ञानयोः कश्चिद् विरोधः, तयोः द्रव्यशक्तिपरीक्षकत्वात् कार्यकारित्वाच्च । विज्ञानेऽपि वैज्ञानिकैः पदार्थानामनन्तशक्तिगुणात्मकत्वम्, गुणपर्ययरूपत्वम्, उत्पादव्ययध्रौव्यं संयोगवियोगरूपत्वं च व्यपेक्षाबलात्स्वीकृतम् । विविधवस्तूनामाविष्कारे स्याद्वादरीत्या संयोगत्वपृथक्त्वात्मकप्रयोगो भवति, अतएव पदार्थशक्ति विकासश्चन्द्रकलावत्संजायते । अनेन स्याद्वादः सिद्धश्रमत्कारोत्पाद कानामाविष्काराणामाधारभूमि: साम्प्रतम् ।
अमेरिकाराष्ट्रस्य प्रसिद्धेन वैज्ञानिकेन प्रो. डा. आर्चीब्रह्म पी.एच.डी. महोदयेन स्याद्वादस्योपयोगित्वं महत्त्वं च स्वीकृतम्। "The Anekanta is an impartant principle of jain Logic, not commonly asserted by the Western or Hindu logician, which promises much for world - peace through metaphysical hormony".
(The Voice of Ahimsa Val I.P.3.) जर्मनदेशस्य विज्ञानयोगी सर अलवर्ट आईन्टाईनमहोदय: (EINSTEIN) स्वयुगे स्याद्वादविज्ञानयोः समन्वये महाप्रयतमकरोत् । अथ च 1905 ईशवीयाब्दे तेनैव सापेक्षवादसिद्धांतम् (The theory of Relatival) आविष्कृत विविधसमस्याया: समाधाने जीवनव्यवहारे च तस्योपयोग: कृत: ।
(धर्मयुगे 22 अप्रैल 1956) तेनैव सापेक्षवाद सिद्धांतेन (He theory of Relativity) स्याद्वादस्य समर्थनम् अस्तित्वं च सिद्धयति । आंग्लभाषायां तस्य सद्विचारोऽयम् -
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कृतित्व / संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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"We can know only the relative truth, the real truth is known to the University observer" इति । तात्पर्यम् - यद वयं केवलं सापेक्षसत्यमेव ज्ञातुं समर्थाः, अल्पशब्दज्ञानसहितत्वात्। वस्तूनां निश्चयपूर्णसत्यं (Absolute truth) तु केवलं विश्वद्रष्टाविज्ञातुं समर्थः । ( अनेकान्ते वर्षे 11 किरणे 3 पृ. 243) अपि च - पाश्चात्यदार्शनिकस्य विलियमजेम्समहोदयस्य Pragmatism सिद्धान्तस्य स्याद्वादेन सहानेकदृष्टिषु तुलना साध्या । ग्रीकदेशे हि स्थापितस्य इलियाटिक ( ELEACTIC) सम्प्रदायस्य "जगत् मान्यताऽऽसीत् । परिवर्तनहीनं नित्यमस्तीति" तद्विरुद्धस्य हिराक्लीटियन ( Hereclition) सम्प्रदायस्य मान्यता आसीत् - यत् "जगत सर्वथा परिवर्तनशीलमनित्यमिति । अनयोः परस्परविरुद्धयोर्मतयो: समन्वयं कुर्वताम्, एंपीडोक्लीज (Empedocles), एटोमिस्ट्स (Atomists), इनैक्सागोरस (Anaxagoras) इत्येषां दार्शनिकानां मान्यताऽऽसीत् - 'पदार्था नित्याः सन्तोऽपि आपेक्षिकपरिवर्तनशीला: (अनित्या:) सन्ति' इति । किञ्च - जर्मनदेशीयस्य तत्त्ववेत्तुः हेगलमहोदयस्य (Hegel) मान्यता विद्यते - यद् विरुद्ध धर्मात्मकत्वमेव संसारस्य मूलमस्ति । कस्यचिद् वस्तुनस्तत्त्ववर्णन समये तस्य वास्तविकतायास्तु वर्णनं कर्तव्यमेव परं तेन सह तयोर्विरुद्धधर्मयोः समन्वयोऽपि प्रदर्शनीयः । विद्यते विश्वासो ब्रैडलेमहोदयस्य प्रत्येकं वस्तु तदितरवस्तुतुलनायामावश्यकमपि तुच्छं चापि । (अहिंसादर्शने पृ. 302-303) । अपि च प्रो. हरिसत्यभट्टाचार्य महोदयो जैनदर्शने नयानामध्ययनं यूरोपीयस्यार्वाचीनस्य तर्कशास्त्रस्य सिद्धान्तं निरूपयति । यूरोपीयतर्कशास्त्रस्य सिद्धांत: - यथा यथा वस्तुनो विश्लेषणं क्रियते तथा तथा तस्य स्वरूपं सूक्ष्मं ज्ञायते, तत् सामान्यतो विशिष्टं भवति । ( अनेकान्ते वर्षे 11 किरणे 3 पृ. 245 डा. सम्पूर्णानन्दमहोदय:
"जैनदर्शनेन दर्शनशब्दस्य काल्पनिक भूमिं परित्यज्य वस्तुमर्यादायां वस्तुस्थित्याधारेण संवादस्य समीकरणस्य यथार्थतत्त्वज्ञानस्य च विषयेऽनेकान्तदृष्टिः स्याद्वादभाषा च लोकाय प्रदत्ता" । (जैन दर्शने पृ. 560 )
इत्थं प्रोक्तप्रमाणैः स्याद्वादोऽनेकान्तवादो वा स्वतन्त्रत्वेन दार्शनिको वैज्ञानिकश्च सिद्धांत:
सिद्धः ।
राष्ट्रिय क्षेत्रे स्याद्वाद:
यथा चैकस्मिन् पदार्थे विविधधर्माणामपेक्षाबलात् परस्पराविरोधपूर्वकं समन्वयं कृत्वा वस्तुव्यवस्थां सम्पादयति स्याद्वादस्तथैव महाद्वीपेषु राष्ट्रेषु च निवासिनां मानवानां विविधविचारेषु धर्मेषु सम्प्रदायेषु चापेक्षाप्रयोगात्पारस्परिकविरोधं दूरीकृत्य, बन्धुत्वम् मैत्रीं च विधाय तेषु सहास्तित्वं स्थापयितुं समर्थः स्याद्वादः । अपि च- साम्प्रदायिकद्वेषस्य समाज वर्णन गतद्वेषस्य, शरीर वर्णद्वेषस्य भाषाविरोधस्य प्रान्तविरोधस्य पदाधिकारविरोधस्य चापेक्षाबलाद् विध्वंसं कृत्वा राष्ट्रियक्षेत्रेऽपि शान्तिप्रदाने । प्रबलः सः। तथा ह्यखण्डराष्ट्रव्यवस्थापेक्षया राष्ट्रस्य प्राधानत्वम् प्रान्तस्य च गौणत्वम् प्रांतीय व्यवस्था पक्षया प्रान्तस्य
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्राधान्यम राष्टस्य चा प्राधान्यम्, तथापि राष्ट्रवस्तुव्यवस्थायै सुरक्षायै वा राष्ट्रप्रान्तयोः पारस्परिकाविरोधेन सहास्तित्वमावश्यकमिति ।
किञ्च विश्वमैत्रीमुखेन राष्ट्रविरोधं दूरीकृत्यान्ताराष्ट्रिय शान्तिसम्पादने, भारतचीनयोर्मर्यादाविवादस्य कश्मीरविवादस्य च सत्समाधानेऽपि प्रभुः स स्याद्वादः । यथाहि चीनराष्ट्रस्य स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया स्वराष्ट्रत्वम्, भारताद्यपेक्षया च परराष्ट्रत्वम् । एवं भारतस्य स्वद्रव्यचतुष्टयापेक्षया स्वराष्टत्वम्, चीनाद्यपेक्षया च परराष्टत्वम् । अंतर्राष्ट्रीय शांति विधाने विश्वमैत्री विधाने च द्वयोर्राष्ट्रयोः सहास्तित्वमावश्यकम । अत: स्वराष्ट्र एव संतोषभावेन शासनं कर्तव्यम्, परराष्ट्रे तृष्णाद्रेकात् सैन्यादिशक्ति मदाद्वा नैव विधेयमाक्रमण् । एव सर्वत्र विज्ञेयम् । अपि च हठवादं दुर्भावनां मदं च निराकृत्य सत्याहिंसास्वरूपं श्रेष्ठ धर्मं गाँधीवादं वा लोकहिताय प्रदर्शयति स स्याद्वादः । राष्ट्रनेता पंडित जवाहरलाल नेहरू महोदयेन वाडुङ्गसम्मेलने राष्ट्र शांति करणाय पंचशीलस्य घोषणा कृता, या सर्वलोकमतमान्या भूत तस्य पञ्चशीलस्य प्रयोगः स्याद्वादशैल्यैव भवति निर्विरोधम् । यतश्च सा शैली स्वार्थभावना विरोधभावनां च निष्कास्य सहयोगं प्रदर्शयति ।
लोकव्यवहारे स्याद्वादः
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लोकस्य समस्तव्यवहारो वातावरणं वाऽपेक्षासमाश्रितं विद्यते । मानवानां सकलव्यवहार : पदार्थेषु सापेक्षः, प्रकृतिपरिवर्तनमपि सापेक्षम् । निरपेक्षत्वे क्षणमात्रमपि लोकस्य व्यवस्था व्यवहारश्च कार्यकारी न भवितुमर्हति । अपेक्षावादेन सत्यमार्गस्यान्वेषणं संजायते । सत्यान्वेषणे च मानवानां स्वाभाविक प्रवृत्तिः सदैव प्रवाहिता भवति । सत्य व्यवहारे समुपस्थितविरोधानाम्, विध्नानां समन्वयं शान्तिं च करोति स्याद्वादः । स एव लोकव्यवहारस्य नेता जैनदर्शन प्रोक्त:
जेण विणा लोगस्सति विवहारो सव्वाहन निव्वडइ । तस्य भुवणेक्क गुरुणो णमो अणोगंत वायस्स ॥
( सन्मतितर्क प्रकरण - 3 / 68 ) विद्यते हि लोके मानवो बुद्धिसम्पन्नः प्राणभृत् । स स्वविवेकेन कस्मिन्नपि विषये परामर्श कृत्वा सत्यासत्यनिर्णये हेयोपादेयविधाने वस्तुतत्त्वनिरीक्षणे च समर्थः । वस्तु तावदनन्तधर्मात्मकम्, मानवस्य मतिस्तु क्षायोपशमिकत्वादपूर्णा, अतो मानव एकस्मिनन्समये वस्तुन एकमेव गुणं विचार्य वक्तुं समर्थः । न हि पदार्थस्य सर्वांशविचारे स युगपद् दक्षः । अतः कस्यचिन्मानवस्य वार्तां श्रुत्वा स्याद्वादशैलीतो विचार्यैव तस्य विचारस्य हेयोपादेयस्प निश्चयो विधातव्यः । अन्यथा पक्षपातरीत्या विचारे निश्चवे वा कलहोऽग्रे धावत्येव । कस्यचिद् विज्ञस्योपदेशं श्रुत्वा, ग्रन्थकारस्स वा रचनां पठित्वा विवक्षात एव विचार: कर्त्तव्यः । यतो विवक्षातो विषयप्रतिपादनं निर्विरोधं भवति, अन्यथा पदे पदे विरोधः । स्वकथनं सत्यमेव, परकथनं तु मृषैवेति हदवादो न कार्यकारी । अनया स्याद्वादशैल्या लोके जीवनस्य विकास :, मैत्रीभावः, पारस्परिक सहयोग: सामाजिकसुधारश्च सम्पद्यते । विद्वेषभावं विरोधं स्वार्थवृत्तिं च निरस्य विवाहकार्ये दहेजप्रथायां मरणभोजे सामाजिकव्यवहारे धार्मिकोत्सवे गृहस्थाश्रमनिर्माणे व्यापारे विषयसेवने
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ परोपकारे भोजनादिदानेषु चिकित्सायां व्यायामे विद्याध्ययने सर्वकार्येषु च द्रव्यक्षेत्रसमयभावबलापेक्षपा विवेकेन च कृत: परिश्रम: सफलतां जनयति ।
अपि च मानवचित्तस्योदारतां विचारसाम्यं सहिष्णुतां जनसेवां च समुत्पादयति सोऽनेकान्तवाद: । लोकविधाने ऋतुवर्षमासपरिवर्तने च सोऽपेक्षावादः शान्तिप्रदं कार्यक्रमं प्रदर्शयति ।
किञ्चलोके हि विविधमान्यतानां विचाराणां चाविर्भाव: सदैव भवति व्यक्ते : मानसे, तदनन्तरं प्रचारकार्येण व्यक्तिगतमान्यता विचारो वा क्रमश: सामाजिकमान्यता विचारो वा सञ्जायते। कषायभावेन स्वार्थभावेन पक्षव्यामोहेन च व्यक्तिगतद्रोहात् सामाजिकद्रोहो विवादश्च भवति, ततश्चाशान्तिर्भयप्रदसंघर्षो जातिपरिवर्तनं धर्मपरिवर्तनं देशपरिवर्तनं च नियमेन मानवानां जायते । भारतीयोतिहासे नाना घटना: साम्प्रदायिकद्रोहपूर्णा जातिधर्मपरिवर्तनपूर्णा: दृश्यन्ते । लौकिकक्षेत्रे विचाराणां मान्यतानां च समीकरणम्, मैत्री, सामाजिकशान्ति:, सत्यधर्मनिष्ठा च स्याद्वादप्रयोगेन नियमेन भवति । स एव धर्मान्धतां मृषावादं च निराकर्तुं समर्थ:।
अपि च निमित्तोपादानरूपो निश्चयव्यवहारात्मक: क्रमाक्रमबद्धपर्यायरूप: पुरूषार्थदैवविषयक: पुण्यपापधर्मविषयकश्च सामाजिकविवादो व्यक्तिगतो वा स्याद्वादपद्धत्यैव दूरीभवति ।
किञ्च राष्ट्रेषु राजनैतिकदलेषु परिषत्सु च विचार वैषम्यात्तीव्रविरोध: प्रतिक्रिया संग्रामो वा दृश्यते। विश्वेतिहासेऽनेकविशालघटना: श्रूयन्ते । तेषां सर्वेषां समाधानं समन्वयो वा स्याद्वादप्रयोगतः संपत्तुमर्हति । इतिहासे यत्रापेक्षाप्रयोगात् समन्वयो जनितस्तत्र देशे दलेषु च शान्तिरप्यभूत् । अहिंसाक्षेत्रे स्याद्वादः
जैनदर्शनेन स्याद्वादशैलीत: सर्वहितप्रदमहिंसानुष्ठानं प्रदर्शितम्। या अहिंसा प्राणिनां जीवनसंरक्षणे जन्ममरणादिदुःखनिवारणे च परममातृका प्रसिद्धा । या चा हिंसा न केवलं शस्त्रेषु शब्देषु च विद्यते, परन्तु जीवने सम्यगाचरितुं प्रधानलक्ष्यरूपा प्रकथिता।
लोकस्य पदार्थानां तत्त्वज्ञानेनानेकान्तात्मकेन पदार्थस्वरूपस्यात्मनश्च निश्चय आस्था च भवति, मानसशुद्धिरपि, सैव मानसिकाऽहिंसा कथ्यते । स्याद्वादत्मकनिर्दोषभाषाशैल्या वस्तुतत्त्वप्रतिपादकस्य वचनस्य मानसविचारशुद्धिमूलकः प्रयोगा भवति, स एव वाचनिकाऽहिंसा । मानसिक वाचनिकशुद्धिजन्या शारीरिकाऽहिंसा, अहिंसात्मकप्रवृत्तिर्वा संजायते। इत्थमनेकान्तमयविज्ञानेन स्याद्वादशैल्या चाहिंसात्रयस्य प्रतिष्ठा भवति, ततश्च लोककल्याणं सम्पद्यते । अत: सम्पूर्णाऽहिंसाविकासे स्याद्वादस्यानेकान्तवादस्य चोपयोग: सार्थकः । न्यायाधिपतिः स्याद्वाद:
अनेकान्तदर्शनेन मानसिकविचाराणां शुद्धिर्यदा संजायते, तदा निसर्गत एव वचन प्रयोगे निर्दोषता नम्रता च भवति, अतएव स्याद्वादी विज्ञः पारस्परिकविरुद्धविचाराणां निश्चायकः, विवादानां निर्णायकः, विद्रोहाणां विघातकः, दर्शनानां समन्वयविधायको भवति । सस्याद्वादी एवकारेण (स्वपक्षहठेन) कस्यचिद् बहिष्कारं न करोति, अपि तु स अपिकारेण तस्य समर्थनं करोति । नयवादेन सर्वेषां विचारकाणां बचनानि
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कृतित्व/ संस्कृत
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्रुत्वा निर्णयात्मकसमताभावं स्थापयति वात्सल्यं चापि । किं च प्रमाणनयहेतुभिर्वितर्कं विधाय वस्तुनों ऽशज्ञानेन सम्पूर्णज्ञानं प्रति पादयति सोऽनेकान्तवादः | अतः सकलवस्तुतत्त्वनिर्णये न्यायं करो न्यायाधिपतिः स्याद्वादः । इदमपि वैशिष्ट्यं यत् स्याद्वादः सत्यताया असत्यतया सह समीकरणं नैव करोति, नासत्यपक्षं गृहणाति । किन्तु स वस्तुनि भाषणे वा सत्यान्वेषणस्य कुशलनिरीक्षकत्वं दधाति । दैनिकजीवने स्याद्वादः
स्याद्वाद सिद्धांत: केवलं शास्त्रलिखित: शब्दवाच्यो वा न ज्ञातव्यः । तस्योपयोगोऽपिसाम्प्रतं वादविवादे जयपराजये हठवादेऽसत्ये दुरभिप्राये वा न विधेय:, अपि तु परीक्षाप्रधानो मानवो दैनिककार्येषु गम्भीरविचारेषु व्यवहारे वस्तुनिर्णये वार्तालापे च विधेयः । येनावश्यकतापूर्तिः समस्यानां समाधानं दैनिकनिर्वाहश्च कुशलता भवेत् । तथाहि - गृहकार्येषु, भोजने, यात्रायां, व्यापारे, व्यवहारे, कार्यालये, दाने, सेवायां व्यायामे च यथाकाले यथास्थाने स्वभावता एव भवत्यपेक्षावादस्योपयोगः कर्त्तव्यश्च । यद्यपि तत्तत्कार्येषु 'स्यात्' (अपेक्षा) शब्दस्य कथनं नैव भवति तथापि गुप्तत्वेन तस्य सम्बंधो ज्ञातव्य:, सर्वत्र तस्याध्याहारो जायते: यथा कश्चित्पुरुषः स्वपुत्रं प्रति वदति, हे पुत्र ! इति । यद्यपि, विवक्षाकथनमत्र नास्त्येव तथापि तस्या अन्तर्हितत्वेन सम्बन्धो विद्यत एव यतश्च स एव पुत्रः स्वपुत्रा पेक्षया जनकोपि प्रसिद्धः अन्यथा व्यवहारा भाव इष्टापत्तिश्च स्यात् । एवं सर्वकार्येषु विज्ञेयम् ।
किञ्च सुयोग्ययुवकापेक्षया पाणिग्रहणं वरम्, बालकवृद्धापेक्षया तदवरम् । स्वस्थजनाय स्नानं हितकरम्, रुग्णजनायाहितकरम् । शक्तिमतेऽन्नं शीतजलं च बलप्रदम् सन्निपातदिरोगिणे तदुभयं मरणकारणम् । मात्रापेक्षात औषधं जीवनकारणम्, मात्राधिक्यापेक्षया तन्मरणकारणम् । न्यायेन धनोपार्जनं युक्तमन्यायेन तदयुक्तम् । संयमेन वस्तुभोगो वर:, न वरोऽसंयमेन । योग्यसमये कार्य वरम्, असमये न वरम् क्षेत्रकालापेक्षया वार्ता सम्यक्, तदनपेक्षया चासम्यक् । समये निद्रा सम्यक् अकाले न सम्यक् । मात्रायां व्यायामः समीचीनः, अमात्रायामसमीचीन इत्यादि ।
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एकदा अकबरनृपेण विनोद प्रसङ्गे श्यामपट्टे (Black board) आयत (दीर्घ) रेखां कृत्वा वीरबलं प्रति कथितम् - “इमां रेखाममार्जयित्वा हस्वां कुरुषे चेत्त्वमसि बुद्धिमान" इति । मन्दहास्येन वीरबलेन तस्या रेखाया अधोभागे तदपेक्षया दीर्घरेखा बिलिखिता, इति स्याद्वादशैलीमाश्रित्योत्तरप्रदाने अकबरनृपः प्रसन्न सन् वीरबलाय पारितोषिकं प्रदत्तवान् । अतो मनोविनोदेऽपि स्याद्वादस्योपयोगः फलप्रदो भवति ।
कस्मिंश्चित्समये कक्षायां शिक्षकमहोदयश्छात्रं प्रति प्रश्नं पृच्छति अ-ब-स इति श्रेण्यां स्थि वर्णत्रये 'ब' कस्मिन्भागे स्थितः ? छात्रः कथयति 'स'अपेक्षया 'ब' दक्षिणभागे 'अ' इत्यपेक्षया 'ब' वामभागे विद्यते । अतो 'ब' इति वर्णोः दक्षिणेऽपि वर्तते वामेऽपि च - इति स्याद्वादपद्धत्या छात्रस्योत्तरं श्रुत्वा प्रमुदितः सञ्जातः शिक्षकमहोदयः ।
इत्थं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया दैनिकजीवनस्य व्यवहारेऽपि कुशलत्वेन च सम्पद्यते । न तेन बिना पदमपि गन्तुं समर्थो मानव:, यथा दधिमन्थनं न भवितुर्महति प्रधानगौण क्रियामन्तरेण ।
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कृतित्व / संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
किं स्याद्वादाणुवीक्षण यन्त्रेण दैनिक भोग्यवस्तूनां भोगोपभोगे सम्यक् निरीक्षणं परीक्षणं च संजायते । अविवेकेन गतानुगतित्वेनान्ध विश्वासेन चेष्ट कार्याणां मनोरथस्य च निर्विघ्नत्वेन सिद्धिर सम्भवेति । उपसंहार :
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अतः प्रमाणसिद्धः स्वानुभवनिष्पन्नः सप्तशैलीसमन्वितः समन्वयविधायक प्रभावको विज्ञान सिद्धो राष्ट्रियतासम्पादको लोकव्यवहारसाधको ऽहिंसा प्रतिष्ठापको दैनिकजीवननिर्वाहको न्यायाधीशः स्याद्वादः (अनेकान्तवाद:, दृष्टिवाद:, नयवाद:, अपेक्षावाद:, he theory of Relativity. सप्तभङ्गवादः) हठवादं संकीर्णमनोवृत्तिम् अहङ्कारं च तिरस्कृत्य, दिवाकर इव कुज्ञानतिमिरं दूरीकृत्य, विश्वद्रव्यतत्त्वं च प्रकाश्य जगति सर्वोदयं, करोति । अत एव कथ्यते - "स्याद्वादमयं जगत्" इति ।
तीर्थं सर्वपदार्थतत्त्वविषयस्याद्वादपुण्योदधे भव्यानामकलङ्कभावकृतये प्राभावि काले कलौ । येनाचार्य समन्तभद्रयतिना तस्मै नमः सन्ततं
कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपतिं वीरं प्रणौमि स्फुटम् ॥
( अनेकान्त वर्षे 11 किरणे 3 मुखपृष्ठे )
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संस्कृत भाषाया: महत्त्वम् व्यापकत्वं च
हृदयस्य विचाराणां प्रकाशनाय भवति खलु भाषायाः आवश्यकता । लोकव्यवहारे मानवा: प्रतिदिनं भाषामाध्यमेन स्वविचारान् यथासमयं प्रकटयन्ति । लोके प्रान्तभेदेन देश मेदेन वा प्रचुराः भाषाः प्रचलिताः सन्ति । कदाचित् आवश्यकतानुसारेण नवीन भाषाया: उदयः भवति, कदाचित् प्राचीनभाषाया: विनाशोऽपि भवति ।
तासां लोकभाषाणां मध्ये प्रसिद्धा संस्कृत भाषा प्राचीन भाषा तथा देववाणी अमरभारती कथ्यते प्राकृतभाषायाः अनूजा इयं संस्कृतभाषा खलु सर्वभाषासु श्रेष्ठा अस्ति । अतएव सर्वासां भाषाणां जननी इयं (एषा) संस्कृतभाषा प्रसिद्धा । केनचित् कविना हिन्दीभाषायां कथितम् -
संस्कृतभाषा ही इस जग में सबकी माँ कहलाती है । इसको भलीभांति पढ़ने से सब विद्या आ जाती है ॥1 ॥
संस्कृतभाषायामपि केनचित् कविना कथितम् - शान्तिक्षमामार्दव सद्गुणौधान्,
सदा स्वभक्तान् बहु शिक्षयन्ती ।
महर्षि वृन्दैरपि वन्दनीया ॥2 ॥
संस्कृतभाषायाः गौरवगाथां न केवलं भारतीयाः विज्ञाः अपितु वैदेशिका: विद्वांसः अपि मुक्तकण्ठेन वदन्ति, मुक्त - हस्तेन लिखन्ति, मुक्त हृदयेन च पठन्ति । तथाहि -
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ___ एकोनविंशशतके (1900 शतक) पेरिसनगरे श्री हेमिल्टन महोदय: संस्कृतभाषाया: महान् विज्ञ: अभूत् । 1814 ईशाब्दे पेरिसविश्वविद्यालये संस्कृत साहित्यस्य पठनं प्रारब्धम् ।
फ्रांसदेशीय: श्रीवर्गेन्यमहोदय: आजीवनं ऋग्वेदस्य सम्यक् अध्ययनं विधाय स्वकीयं विशिष्ट समालोचनं प्रकाशितवान्।
जर्मनीदेशे संस्कृताध्ययन परम्परा 1900 शतकस्य प्रथमचरणे एव प्रारब्धा संजाता । जर्मनदेशीय: मैक्समूलरमहोदय: महता परिश्रमेण ऋग्वेदस्य संस्करणं प्रकाशयामास । अत: जर्मनदेशे अयं खलु पितामहः कथ्यते।
इटलीदेशे संस्कृताध्ययन परम्परा षोडशशतके एव समारब्धा ।
हालैण्डदेशे श्रीभर्तृहरि विरचितयो: वैराग्यशतक नीतिशतकयो: उक्त भाषायां प्रकाशनं 17000 तमे शतके एव अभूत्। इंग्लैंड देशीय: वंगप्रांतस्य भूतपूर्व राज्यपालः वारेन हेस्टिंग्समहोदय: संस्कृतसाहित्याध्ययनं भृशं वर्धतेस्म।
अमरीका देशे संस्कृताध्ययनं सर्वप्रथमं 1841 ईशाब्दे येलविश्वविद्यालये प्रादुर्बभूव ।
सर्वे विद्वांसः कथयन्ति 5 यथानाम तथागुणं विद्यते। तात्पर्य - संस्कृतभाषा व्याकरणनियमै: संस्कृता - निर्मिता, अत: संस्कृत इति कथ्यते। देववाणी अतिरमणीया भाषा विद्यते । कस्यचिद् वस्तुनः प्रदेशस्य वा वर्णनं संस्कृतवाण्यां यावत्सुंदरं भवति, तावत् अन्यभाषासु न भवति । संस्कृतभाषायां न्याय - साहित्य व्याकरण - धर्म - ज्योतिष - आयुर्वेद प्रभृतिशास्त्राणां रचना गद्य पद्य रीत्या शोभतेतराम। वेद - उपनिषद् - रामायण- महाभारत प्रभृति प्राचीन शास्त्राणां व्याख्यानं देववाण्या महत्त्वपूर्ण कल्याणकरं च विद्यते।
सुंदरच्छन्दसां अलंकार - गुण - लक्षण - रीति ध्वनीनां च प्रयोगः यादृशः संस्कृतवाण्यां दृश्यते, तादृशः विविधभाषासु दृष्टिगोचरो न भवति ।
अतएव सर्वभाषाणां साहित्येषु संस्कृत साहित्यस्य महती प्रतिष्ठा प्राचीनता च विद्यते।
संस्कृतभाषाया: ज्येष्ठ पुत्री हिन्दी भाषा साम्प्रातं भारतवर्षस्य राष्ट्रभाषापदेन शोभते । भारते तस्याः सर्वदा व्यापक प्रयोग: भवति । अतएव ज्येष्ठपुत्रीमहत्त्वेन मातुः संस्कृत भाषायाः महत्त्वं स्वयमेव अधिकं शोभते । अस्या:भाषाया: विशाल शब्दकोष: विद्यते, अत: इयं भाषा समृद्धा भाषा, न दरिद्रा, नापि निर्बला । अतएव लोके संस्कृतभाषायाः अतिमहत्त्वं प्रसिद्धम् । किञ्च - संस्कृतभाषाया: विशेषता1. देववाणी विश्वस्य प्राचीनतमा वैभवशालिनी च भाषा | 2. भारतीयसंस्कृते: साहित्यस्य च परम्पराया: गंगोत्री। 3. अमरभारती लोकस्य समस्तभाषायां जननी विद्यते। 4. इयंखलु राष्ट्रभाषाः प्रान्तीय भाषाणां च उन्नतिकारिणी । 5. संस्कृतवाणी भारतस्य अखण्डताया: प्रमुखं साधनं विद्यते ।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
संस्कृतभाषाया: महत्वम्
विषयप्रवेश:
लोके शब्दो द्विविध: प्रसिद्धः, भाषात्मक: अभाषात्मकश्च । तत्र: मेघादिजनितशब्दोऽभाषात्मकः । भाषात्मकशब्दोऽपि द्विविध: अक्षरात्मकः अनक्षरात्मकश्च । तत्रानक्षरात्मक: पशुखगमुखोत्पन्नो लोके सर्वे: श्रूयते।
__ अक्षरात्मकः शब्दो भवति प्राकृतसंस्कृतभाषादिरूपः । हृदयोत्पन्नानां विविधविचाराणां व्यक्तये । तावद्भाषाया आवश्यकता भवति। न हि भाषामन्तरेण कश्चिज्जनः प्राणी वास्वविचार प्रकटनाय समर्थोऽस्ति। साच भाषा देशभेदात् कालभेदा द्वाबहुप्रकारा । प्राकृत संस्कृत व्रज बङ्गाली, गुजराती, गन्धारी, प्रभृतिमहाभाषासु अष्टादशसंख्यकासु, सप्तदशक (700) लघुभाषासु, आधुनिकविश्वप्रचलितासु चांग्लफारसी जर्मन प्रभृतिभाषासु संस्कृत भाषैव अतिप्राचीनाऽतिश्रेष्ठा शोभते।
प्राकृतभाषासु मानवानां स्वभाविकी भावव्यक्तिकारिणी भाषा, अत: प्रकृतिजन्या (स्वभावजन्या) प्राकृतभाषा कथ्यते, तस्या: प्राचीनत्वं पूर्ववर्तित्वं च स्वत: सिद्धमेव विद्यते। प्राचीनता
तत: विकसितासु भाषासु संस्कृतभाषाया एव प्राचीनत्वं, संस्कृतभाषायाः उदयः कदा कुत्र कोदृशोऽभूदित्यस्य निर्णय: सप्रमाणं वक्तुमशक्य: तथापि साहित्यान्वेषकैः संस्कृत साहित्य ग्रन्थैः प्राप्तेतिहास ग्रन्थैश्चास्या प्राचीनत्वं श्रेष्ठतमत्वश्च प्रसिद्धम् उक्तं च “संसार की समग्र परिष्कृत तथा उपलब्ध भाषाओं में संस्कृत भाषा सब से प्राचीन है" "इस भाषा का प्राचीन स्वरूप पाश्चात्यों की प्राचीनतम भाषाओं से और पारसीकों की जेन्द, अवेस्ताग्रन्थों की भाषा से बहुत कुछ सादृश्य रखता है" इति - संस्कृतसाहित्यस्य संक्षिप्तेतिहासे द्वितीय पृष्ठे
किञ्च - जैन बौद्धवैदिकसंस्कृतिदर्शनसिद्धांत प्रदर्शकं प्राचीनसाहित्यं प्राय: संस्कृतभाषायामेव तत्तदाचार्यवरै विनिर्मितम् । अतो देववाण्या: प्राचीनत्वं सर्वभाषाभ्यः दृढ़तरं सिद्धयति। किञ्च प्राचीनशिलालेखास्ताम्रपत्राणि धातुमुद्राश्च संस्कृतभाषायां प्राप्ताः पुरातत्वान्वेषकैः । एवं प्राचीनत्वेन तस्या महत्वं लोके व्यज्यते। कविवर श्रीमथुरानाथ साहित्याचार्य महोदयेन स्वलेखेकथितं? "संस्कृतभाषायाः गौरवमुपरित: कदाचिन्न मन्येरन्नवसभ्यमहाभागाः, परं साम्प्रतमपि सेवाविषये प्राचीनता गौरवदृष्टयाऽवलोक्यते । यस्य हि अधिकारिणः सेवाकार्यं यावत प्राचीनं सिद्धयति तावदेव तस्याधिकार महत्वमभिमन्यते । ततश्च साधारणविषयेष्वपि प्राचीनताया एवं गौरवमधुनापि स्वीक्रियते भवद्भिः, तर्हि भगवत्याः सुरसरस्वत्या एतावत्प्राचीनतां स्वीकृत्यापि तत्कृतं महत्वं कथं नाङ्गीकरिष्यते " नामकरणवैशिष्टयम्
यथा लोके प्रचलित विविधभाषाणां देशभेदेन कालभेदेन वा नामकरणं दृश्यते जर्मनदेशेन
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कृतित्व / संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जर्मन भाषावत् इत्यादि, न तथा देशकाल भेदेन संस्कृतभाषायाः नामकरणं, किन्तु लोक व्यवहारे प्रचलनार्थं महत्वद्योतनार्थं च श्री उमास्वामि व्यास वाल्मीकि शाकटायन पाणिनिकुमार दासप्रभृतिभिः पूर्वाचार्यै: 'संस्कृत भाषा' इति नामप्रयोगः कृतः । व्याकरणे अस्य व्युत्पत्तिः- समुपसर्गपूर्वक कृ धातोः क्त प्रत्यये सति संस्कृत मिति, अर्थात् संस्कृत भाषैव नियमादिभिः संस्कृता निष्पन्ना, परिष्कृता सुसंगता, इति नाम सार्थकयं दृश्यते । न खलु विविध भाषा वदस्या अनियामकत्वं, अतएव देशकालभेदेन बहुशताब्दीतः साम्प्रतमति भाषायामस्यां प्रायः किंचिदपि परिवर्तनं न जातं, किन्तु यथापूर्वं स्थिरत्वं परिष्कृतत्वं च दृश्यते । यथाऽन्यभाषाणां लोके देशकाल भेदेन बहुकाले गते परिवर्तनं भवति, न तथा संस्कृत भाषायाः परिवर्तनं जायते सर्वाङ्गीणात्वात्सुसंस्कृतत्वात्सुसंगतत्वाच्च । इयं च भाषा "देव वाणी अमर भारती” इति कथ्यते नान्यभाषा।
उक्तं च
“संस्कृतं नामदेवी वागन्याख्याता महर्षिभिः" इति काव्यादर्शे एव मुक्ताभिधानप्रसिद्धत्वे नान्यभाषातो महत्वं वैशिष्टयंच संस्कृतभाषाया: सिद्धम ।
भाषाजननी
शताब्दीकालानन्तरं देशकालप्रभावेण समये - समये मानवसंततिवत्संस्कृत भाषात: प्रादेशिक देशीय वैदेशिक सर्वभाषाणां प्राय उदयो जातः । यूरोपमहाद्वीपस्य लैटिन ग्रीकादिप्राचीन भाषा अपि देववाण्याः समुत्पन्नाः । प्रोक्तंच
“अतएव संस्कृतभाषायाः सकाशादेव पुरातनीनां भाषाणामुत्पत्तिर भवत् । सुदूरेषु यूरोपादिदेशेषु पूर्वं या: खलु लैटिन ग्रीकादयो भाषाः प्रचलिताः आसन या: खलु "क्लासिकल " संज्ञार्हास्ताः सर्वा अपि अस्याः एव देवभाषाया: समुत्पन्नाः । न केवलं वयमेव परं सुयोग्याः पाश्चात्यविद्वांसो मोनियरविलियम्स - प्रोफेसर मैक्समूलरप्रभृतयोऽपि स्पष्टमिदं संमन्यन्ते" इति काशी सुप्रभातेऽष्टमे वर्षे प्रथमेऽङ्के दशमे पृष्ठे।
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एशिया महाद्वीपस्य भाषा अपि संस्कृतभाषातः समुत्पन्नाः । संस्कृत व्याकरणतः सर्वभाषाव्याकरणस्योत्पत्तिः, व्याकरणं च भाषानियामकं प्राणसदृशं भवति । अपि च संस्कृतशब्दानामपि विविधभाषासु समतत्समतद्भवापभ्रंश रूपेण बाहुल्यं दृश्यते, एतत्सर्वं तत्तद्भाषाक्षेत्रे धातुशब्दकारक प्रत्यय लिङ्ग वचनकाल समासादि प्रयोगेण सम्यक् ज्ञायते ।
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अफगानिस्तानस्य राष्ट्रभाषा “पश्तो इति नाम्रा प्रसिद्धा, तत्र संस्कृतभाषाया रूपत्वमेव विद्यते । अतएव काबुल विश्वविद्यालये संस्कृत भाषा शिक्षणं अनिवार्य संजातम । विषयेऽस्मिन् 1948 थिष्टाब्दे 16 दिसम्बर मासस्याङ्के अमर भारत पत्रे विशेषवृत्तं प्रकाशितमभूत्, तस्य संस्कृतानुवादेऽयं लिख्यते -
"अफगानिस्तानस्य काबुल विश्वविद्यालये कृतानिवार्य संस्कृत शिक्षण विषये भारतस्थितेन अफगानिस्तानराजदूतेन मि. गुलाम मोहम्मद खान महोदयेन पत्रमेकं मध्य प्रान्तीय धारा सभाध्यक्ष महोदयं श्रीघनश्याम सिंह गुप्तं प्रति प्रेषितम् । तद्वृत्तं विज्ञाय श्रीघनश्याम सिंह गुप्तेन स राजदूतः पृष्ठः, यत्काबुल विश्वविद्यालये संस्कृत शिक्षणं अनिवार्य कथं विहितं ! राजदूतेन पत्र द्वारा प्रेषितं तस्योत्तरं यदफगानिस्तानस्य 'पश्तो' भाषायां संस्कृतभाषाया बाहुल्यं विद्यते । पश्तो भाषा वर्तमाने ऽधिक वैज्ञानिका परिष्कृताच भवेदिति
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हेतो: संस्कृत शिक्षणं पाठयक्रमेऽनिवार्यं विहितमष्माभिः।" एतेन ज्ञायते यत्संस्कृत भाषातः एव पश्तोभाषायाः समुत्पत्ति:।
सिन्धीभाषायामपि संस्कृत बाहुल्यं तत्प्रयोगेण तत्साहित्येन तच्छवणेन वा परिज्ञायते। हिन्दी भाषा तु 'संस्कृत पुत्री' एव कथ्यते भाषाविज्ञैः यत: हिन्दीभाषया स्वजनन्या: संस्कृतभाषाया: लिपि: (नागरी) व्याकरणं शब्दकोषः अलङ्कार रसगुणरीतिध्वन्यादिकं सर्वस्वंगृहीतम् परं देववाणी दरिद्रा कुपिता च न जाता, प्रत्युत स्वपुत्री हिन्दी भाषाया: सर्वत: समुन्नतिं दृष्ट्वा प्रफुल्लिता भवति समृद्धिशालिनी च भवति । स्वसन्ततिम्प्रति मातुः कर्त्तव्यमिदम् । आधुनिक हिन्दी भाषाया देवभाषयैव परिष्कृता सुसंगता रमणीया संस्कृत शब्द बहुला च शोभते । यस्याः पुत्री समुन्नता दृश्यते, तस्य महत्वं वैचित्र्यंअक्षयत्वं च स्वयमेव सिद्धम् । एव मन्या भाषा वैदेशिका: प्रान्तिका अपि संस्कृत भाषात: प्राय: समुत्पन्ना: । अतएव संस्कृतभाषा सर्वभाषा जननी कथ्यते। किंच - आध्यात्मिकनीति काव्य कलाज्योतिषायुर्वेद प्रभृति शास्त्रेषु कल्याण सामग्री संस्कृत भाषायामेव प्राय उपनिबद्धा, अत: संस्कृत भाषा जननीवत्कल्याण कारिणी लोकसंरक्षका च, नान्यभाषासु इयती कल्याणसामग्री बाहुल्येन मौलिकतया च विद्यते- इति हेतोरपि देवभारती जननीपदयोग्या नान्यभाषा उक्तंच -
शान्तिक्षमामार्दव सदगुणोधान, सदास्वभक्तान्बहुशिक्षयन्ती ।
समस्त भाषा जननी त्वमेव, महर्षिवृन्दै रतिवन्दनीया ॥॥ देववाणी वैशिष्टयम्
प्रचलितान्य भाषात: संस्कृतवाण्यां महवैशिष्टयं विद्यते। अस्या: नागरी लिपि: प्रत्यक्ष दर्शने सौन्दर्य, लेखने सरलत्वं, भाषणे स्पष्टतां श्रवणे च माधुर्यं धत्ते । यदेव कथ्यते तदेव लिख्यते: यदेव लिख्यते, - तदेव कथ्यते । यथा - इंग्लिशभाषायां Light इति लिख्यते, 'लाईट' इति च कथ्यते इति, न तथा संस्कृतभाषायाम्।
आंग्लहिन्दी प्रभृतिभाषासु अ इ उ ऋ ल इत्येषां स्वराणां प्रत्येकं भेदद्वयमेव कथितं, परं अस्यां अइ उ इत्येषां 18 भेदा: । ऋ लु इत्यनयो: 30 भेदा: । ए ओ ऐ औ इत्येषां 12 भेदा: प्रोक्ताः। व्यंजनवर्णानामपि स्वरभेदेन द्वादशाक्षरी भवति । स्वरव्यंजनवर्णानां उच्चारणस्थानानि कण्ठादीनि तथा उत्पत्तिप्रयत्नेषु पंचाभ्यन्तरप्रयत्ना:, एकादशबाह्यप्रयत्नाश्च संस्कृतव्याकरणे सूक्ष्मरीत्या कथिता:, अत: संस्कृतवर्णाना मुच्चारणं सावधानतया नियतरूपेण च भवति । केचिद् वैदेशिका भारतीयाश्चापि कथयन्तियत्
आंग्लभाषायामेव उर्दू भाषायामेव वा शब्दोच्चारणकाठिन्यं वैशिष्ट्यं च विद्यते, अतएवानयोः प्रभावकत्वं क्रांतिकारित्वं च दृश्यते इति, ते तु संस्कृतास्वादशून्या: स्वपक्षपोषकाः।
__ आंग्ल- उर्दू भाषापेक्षया संस्कृत भाषायां वर्णोच्चारणकाठिन्यं, प्रभावकत्वं क्रांतिकारित्वं च प्रचुरतया विद्यते ।पठन्तु अनुभवन्तु च आंग्ल उर्दू भाषाभाषिणो वैदेशिका: संस्कृत ग्रन्थान् ।
किंच देववाण्यां संज्ञाशब्दस्य 24 रूपाणि नियत रूपेण प्रायो भवन्ति । विकल्पतश्चातोऽष्यधिक रूपाणिजायन्ते । धातूना मपि प्रत्येकपदस्य 90 रूपाणि, उभयपदस्य 180 रूपाणि नित्यतया भवन्ति । वैकल्पिकरूपेण तु अतोऽप्यधिकरूपाणि भवन्ति । तेषां सर्वेषां शब्दधातुरूपाणां नियमविधायकैः सूत्र: सिद्धिाकरणशास्त्रे भवति, इति सूक्ष्मतरविषयः । नान्यभाषासु रूपाधिक्यं रूप सिद्धिर्वा इयती।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आंग्लहिन्दी प्रभृति भाषासु एकवचनं - बहुवचनमेव किन्तु देववाण्यां ततोऽपि द्विवचन मधिकं विद्यत इति सूक्ष्मविषयत्वाद् वैशिष्टयम् ।
___किंचान्यभाषासु स्थूलकालत्रये (भूते-वर्तमाने भविष्ये) एव क्रिया प्रयोगः, परं सुरभारत्यां देशकालभेदेषु क्रिया प्रयोगः इति सूक्ष्म विषयत्वाद् वैशिष्ट्यम्।
किंचान्यभाषासु वाच्यद्वयं विद्यते, देववाण्यां तु वाच्यत्रयं (कर्तृ-कर्म भावभेदात्) दृश्यते। अस्यां खलु कर्म कर्तृ प्रयोगोऽपि जायते । अस्यां हि संज्ञाशब्दतोऽपि क्रियारचना भवति यथा- कृष्ण इवाचरतीति कृष्णति।
देववाण्यां कृदंतप्रकरणे धातुप्रत्यय द्वारा संज्ञाशब्द रचना - यथा करोतीति कारक: कर्ता इति । एकैकस्माच्च धातो: विविधशब्दाना मुद्भवो भवति, यथा गमधातो:, गौः, गन्ता, गति: गमनं, गत:, गामी, गन्तुं गमकः, गम: इत्यादि । शब्द रचना प्रसिद्धा ।
संस्कृतव्याकरणस्य तद्धितप्रकरणे संज्ञाशब्दत: सहस्त्रसंख्यका: संज्ञाशब्दा: भिन्नार्थे एकार्थे वा सिद्धाः भवन्ति । एकेन संज्ञाशब्देन भिन्नार्थे बहुसंज्ञाशब्द रचना यथा - गर्गाणां छात्रा गार्गीया: हितेऽर्थे गर्गीयम्, आगतेऽर्थे गर्गरूष्यं गार्ग वा गार्ग्य: संघोऽङ्कों घोषो वा गार्ग : गार्गम् वा, अपत्ये-गाायणः गार्योवा, मृते-गायें: गार्यो जाल्म: । गोत्रापत्ये- गाायण: गार्यो वा युवापत्ये-गाायण: गार्या अपत्यं गार्गो गार्गिको वा जाल्मः, गार्गीपुत्रकायणिः, गार्गीपुत्राणिः, गार्गीपुत्रि: इत्यादि । एकेन शब्देनैकार्थे शब्द रचना यथा - अनुकम्पितो देवदत्तो - देविक: देविय:, देविल: देवदत्तकः,देवकः दत्तिकः, दत्तिय: दत्तिल:, दत्तकः, देवदत्त:, दत्तः, देव: ।अन्यार्थे - दैवदत्तः, देवदत्तीय: आगते - देवदत्तरूष्यं. देवदत्तीयम्, दैवदत्तं, देवदत्तमयमित्यादि बहुसंज्ञाशब्दसिद्धि: नान्यभाषासुवैशिष्टयमिदं दृश्यते।।
संस्कृतभारत्यां शब्दसमासरचनापि विचित्रा भवति । मूलत्वेन समासभेदा: पंच तेषामपि दीर्घमध्यमजघन्यादिभेदेन बहुभेदा: भवन्ति । यादृशीशब्द संक्षेपक्रिया संस्कृते, न तादृशी क्रिया अन्यभाषासु। अल्प समास रचना यथा - भूतपूर्व: अध्यात्मम्, राजपुरुषः, दिगम्बर:, पितरौ इत्यादि।
दीर्घसमास रचना यथा - "मनसिजविजय सहकार चतुर सहकार पल्लवतल्लजपरिचर्वणगर्वायमारण कलकण्ठयुव कण्ठोक्तपथिक जनसंदोहजीवित संदेहा:" इति ।
किंच - काव्यकलाया यद् गम्भीरवर्णनं, सूक्ष्मवर्णनं, सरसवर्णनदेवभारत्यां विद्यते न तादृशवर्णनं, उर्दू हिन्दी वैदेशिकभाषासु । श्रृङ्गारादिनवरसवर्णनं, ध्वन्यादिकाव्यभेदवर्णनं, माधुर्यादिगुणवर्णनं, गौडी प्रभृतिरीतिवर्णनं, अलङ्गारवर्णनं, काव्यदोषवर्णनं, छन्दोभेदवर्णनं, उपनागरिकादिवृत्तिवर्णनं, साङ्गोपाङ्गमपूर्वं विज्ञानोत्पादकं विस्मयकारकं देववाणी एव दर्शयति।
किंच उपसर्गवशाद् धातुनामनेकार्थोऽस्या वैशिष्टयम्, यथा प्रहार- आहार-संहार-परिहार विहार इत्यादि । शब्दानामपि विविधार्थ: पर्यायनामानि संयुक्तनामानि च भवन्ति । संस्कृते धातुसंज्ञाशब्दानामपार राशि: भाषाविस्तारतां लोके प्रवदति । अतएव स्तोकाक्षर पद वाक्य श्लोक प्रयोगेण गम्भीर सरसमहदर्थ प्रतिपादनं सिद्धयति । अल्पाक्षरै: महदर्थवर्णनं, सुरभारत्या एव वैशिष्टयं नान्यभाषाणाम् ।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आंग्ल-उर्दू-अरवी - फारसी प्रभृति भाषाभाषिणो वैदेशिका: केचिद् भारतीयाश्चापि कथयन्त्येवं, यत्संस्कृत भाषा मातृभाषा, सानार्थकरी, न व्यवहारोपयोगिनी च नवचेतनाकारिणीति तेषां प्रलापमात्रमस्ति। ये संस्कृत भाषां मृतभाषां वदन्ति ते स्वयं मृताः, न तेऽस्या रहस्यं जानन्ति अस्यां भाषायां खलु करूणवीर वीर रौद्र श्रृङ्गारहास्य वीभत्साद्भुतादिरसेषु यथायोग्यं देशकालवस्तु वृत्तापेक्षयाराजवर्णनं, राष्ट्रवर्णनं, दिग्विजयवर्णनं, युद्धवर्णनं, ऋतुवर्णनं, नगरवर्णनं, वैभववर्णनं, प्रकृतिवर्णन,नीतिवर्णनं,वीर नायकचरित्रादिकं च नव चेतनाकरं व्यवहारचातुर्यकरं प्रमोदकार कंच अवलोक्यते ।अस्याः खलु पतनं वैदेशिक शासन संस्कृति प्रभावाज्जातम् । राज्याश्रयो वैज्ञानिक साधनंचानया न प्राप्तं येन देशे तस्याः समुन्नतिभवेत् । एतेनास्यां मृतभापात्वं न सिद्धयति। साहित्यरचना
अमर भारत्यां खलु विपुलसाहित्यरचना पूर्वाचार्यवरैः कृता । अत्र साहित्यशब्दो व्यापकार्थ: । एतेन ज्ञायते न केवलं काव्यकलायां साहित्यसृजनं किन्तु सिद्धांतदर्शनाध्यात्मिक न्यायव्याकरण साहित्यकोषनीति ज्योतिषायुर्वेद धनुर्वेदादिविषयेषु ग्रन्थसृजनं विहितं । येन संस्कृत साहित्येन विश्वकल्याण मभूत् - भवति भविष्यति च । अतएव भारतवर्षो जगदगुरु विश्वचूडामणि: निगद्यते ।
दि. 11 दिसम्बर मासे 1948 ईशवीयाब्दे पेरिसविश्वविद्यालयस्य संस्कृत प्राचार्य (प्रोफेसर) महोदयेन 'लुईरेनू' नाम केन अन्नामलाई विश्वविद्यालये स्वभाषणावसरे संस्कृत भाषाया महत्त्वं जगदे। “यत भारतस्य संसारे महदगौरवत्वमरित, यत: अत्रत्यमहीतले सुदीर्धकालात्प्रशस्तनैतिक परम्परा प्रशस्ताध्यात्मिक परम्परा च सम्प्राप्ता विद्यते । सा श्रेष्ठपरम्परा संस्कृत साहित्यकोषे सुरक्षिताऽस्ति| अग्रे भवता प्रोक्त यद्भारते तु तामिल बंगला मराठी प्रभृतिप्रादेशिका भाषाणां साहित्यमत्युन्नतमस्ति परं भारते एकत्वकारिणी भारतीयसंस्कृति । निर्माणकारिणी च संस्कृत भाषैव विद्यते ।
__ अन्यं च - भारते संस्कृतभाषैव तस्या अखिल धार्मिक दार्शनिक वैज्ञानिक परम्पराया आधार भूमि:, यथा भारत उन्न्तसिंहासने समासीनोऽस्मिन् । स्पष्टशब्देषु भारते भुवनस्य सर्वोत्तमाद्वितीय संस्कृतिरस्ति । " साहित्यसागर पारंगतैर्महर्षिभिः षड्दर्शन कर्मकाण्ड धर्मस्तोत्रकाव्यालङ्कार सुभाषित नाटक नीति संगीत पाकशिल्पकला विषयेषु सहस्त्र लक्ष्यसंख्यका ग्रन्थाः संस्कृत भाषायां विनिर्मिता: वैदेशिक वैज्ञानिकै: भारतीय साहित्यं सम्प्राप्यैव विज्ञान समुन्नतिः कृता । हन्त साम्प्रतं सम्पूर्ण साहित्यं समुपलब्धं नास्ति। राष्ट्रभाषायोग्यत्वम्
केचित्कथयन्ति यदेववाणी राष्ट्रेऽव्यवहार्या, ते न सम्यग्वादिन: । यस्या: पुत्री हिन्दी राष्ट्रभाषायोग्या, सा माता संस्कृतवाणी कथं न राष्ट्रभाषायोग्या, अपितु सम्यक्रूपेणास्ति यस्याः शब्दकोष: कारूँ देशीय धनागार तोऽपि विशाल: यश्च कोष: हिन्दी भाषया व्ययीकृतस्तथापि अक्षयराशि: दृश्यते । प्राचीनकाले सुरभारती जनसाधारण परिचिताऽऽसीत् । राष्ट्रेसाधार प्रचारोऽभूत ।
एकदा शिबिकारूढो भोजराज: क्वचिद् गमनसमये शिबिकाबाहकान्धीवरान्प्रति जगादभूरिभारभराक्रांतो बाधति स्कंध एषते ! धीवरा: कथयामासुः - न तथा बाधते स्कंधों यथा बाधति बाधते॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ किंच - पूर्वकाले कश्चित् विद्वान मैथिलदेशे पण्डित मण्डन मिश्र मिलनार्थं गतवान् । मिश्र गृहान्वेषणार्थ बाह्यप्रदेशस्थित कूपस्य निकटे गत्वा जलाकर्षण यत्नशीलां कांचिद् नारीम्प्रति हिन्दी भाषायां तेन विदुषा पृष्टमिदं, यत् “बाई जी ! (श्री पं. मण्डनमिश्र का घर कहाँ पर है !) इति तया तत्काले एकोत्तरं संस्कृतभाषायां प्रदत्तम् -"
स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं, कीराङ्गना यत्र गिरो वदन्ति !
शिष्योपशिष्यैरुपगीयमान, मवेहि, तन्मण्डन मिश्र गेहम ॥ उक्तश्लोकं श्रुत्वा स लज्जित: सन्पण्डितमण्डन मिश्रगेहं जगाम ॥
किंच - एकेन पंचवर्षीय बालकेन भोजराज सभायां घोषणानुसारं “क्वयाम: किंकुर्म: हरिणशिशुरेवं प्रलपति " इत्यस्य समस्यापूर्ति कृत्वा महत्पारितोषकं प्राप्तम्।
एवं भोजराजेन विरचितश्लोकस्य पादत्रयं श्रुत्वा चतुर्थ चरणरचनायां बिलम्बे सति कश्चित्तस्करस्तत्समये स्वयमेव चतुर्थ चरणपूर्ति मकरोत् 'सम्मीलेन नयनयोन हि किंचिदस्ति' इति । भोजसमये कवि सम्मेलनं सभाकार्य शास्त्रार्थं नाटकप्रदर्शनं राज्यकार्य प्राय: संस्कृत भाषाया मेव बभूव। एतेन सुरभारत्या राष्ट्रभाषात्वं सिद्धअति।।
___किंच - श्री पाणिनिप्रभृतिसूरि विरचित वैयाकरण सिद्धान्तकौमुद्या: कृदन्त तद्धितकारक प्रकरण पठनेन विज्ञायते यत्पूर्वकाले सुरवाणी राष्ट्रभाषा जनसाधारण प्रचलिता आऽसीत्। या भाषा पूर्व प्रकृष्टोन्नतशीला आसीत् सा कथं साम्प्रतं राष्ट्रभाषायोग्या न, अपितु विद्यते एव ।
अद्यापि बहवो राष्ट्रनेतार: शामनाधिकारिणश्च वदन्तीदंयत हिन्दीभाषा यदि राष्ट्रभाषा न भवेत्तर्हि संस्कृतभाषा राष्ट्रभाषा भवेत् ।यत्श्च सा समस्तभाषा जननी विद्यते ।
___ अधुना गणतंत्रशासन विधानस्य नवनिर्मितस्य संस्कृत भाषाया नुवाद: संजातः। वैज्ञानिकैराविष्कृतनव्यवस्तूनां संस्कृतनामानि रचितानि भाषाविज्ञैः यथा वाष्पयानं = रेलगाड़ी । मसीगर्भा-फा. पेन इत्यादि ।नवपारिभाषिकशब्द निर्माणं च विहितम्।
भारतस्य गणतंत्रशासनाधिकारिण: उर्दू आंग्ल प्रभृतिभाषा स्थाने संस्कृतभाषाया उत्थानार्थं प्रयासं कुर्वन्ति, अतएवोत्तर प्रदेशे मैट्रिक परीक्षायां संस्कृत पत्र मनिवार्य, इंग्लिशपत्रं च वैकल्पिकं विहितम् अन्यप्रान्तेष्वपि शनैः - शनै: संस्कृतपत्रस्यानिवार्यतासंभविष्यति ।अत: संस्कृत विद्यालयेभ्योद्रव्यादि साहाय्यं प्रदीयते । राजकीय शिक्षाविभागेन । एवं संस्कृत भाषा राष्ट्रभाषायोग्या व्यवहारयोग्या च सिद्धा। उपसंहार
__ एवं प्रोक्तेन प्राचीनत्वेन नामश्रेष्ठवेन विश्वभाषा जननीत्वेन भाषावैशिष्टयेन साहित्य सृजेन राष्ट्रभाषायोग्यत्वेन भाषास्तवेन च देव भारत्या महत्वं लोके प्रसिद्धम्। अतो निखिल भारतीयैः संस्कृतभाषाया अध्ययनं विधेयमिति।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ गुरु पूर्णिमा वीर शासन जयंती च भारतीय पर्व श्रेण्यां आषाढ शुक्ल पूर्णिमादिवसे 'गुरु पूर्णिमा' इति नाम्ना प्रसिद्ध पर्व विद्यते । अस्मिन्दिवसे बहुसंख्यक भारतीया: गुरुविषये विशेषानुष्ठानं कुर्वन्ति । वैदिक परम्परायां श्रमण परम्परायां चास्य पर्वण: विशेष मान्यता दृश्यते । गुरु शिष्य सम्बंधस्य स्मृतिदायकं नित्यता द्योतकं चेदं पर्व महन्निमित्तं । अस्य समयविशेषाच्च प्रमोद: भवति । कृत्यविशेषाच्च प्रेरणा लभ्यते । अनेन गुरुशिष्यपरम्परापि ज्ञायते ।
पिता पुत्र सम्बंधवत् गुरुशिष्य सम्बंधोपि विद्यते महान् । यथा पिता पुत्र योगेन कुल परम्परा तथा गुरूशिष्ययोगेन साहित्यपरम्परा धार्मिक परम्पराच संचालिता भवति । यदि पिता पुत्रस्य जन्मदाता तर्हि गुरुः शिक्षया जीवनसाफल्यस्य कर्ता विद्यते । अथ च पिता मानवदेहस्यनिर्माता गुरुश्च मानवताया: निर्माता प्रसिद्ध: । पिता खलु वर्तमान जीवनस्य संरक्षकः, गुरुश्च उभयजीवनस्य संरक्षकः। प्रदीयते च पित्रा भौतिकसम्पत्ति:, गुरुणा गुण सम्पत्ति: । अनेन मातापितृयोगापेक्षया शिक्षकयोगः श्रेष्ठतर: विद्यते।मानवजीवने पिता पुत्रवत् शिक्षकशिष्ययोगस्य महती आवश्यकताऽनेन पर्वणा तत्त्वदृष्टया च ज्ञायते । वर्तमानकाले शिक्षकशिष्यसंगते: हास: संजात: तेन तयोः विकार: दोषोत्पत्तिश्च दृश्यते । शिक्षकेशिष्ये च नाध्यात्मिक योग: किन्तु तयोः महती परिखा दृश्यते । अतएव शिक्षक शिष्ययो: द्रोह: द्रोहेण विद्यालयानाभवति: शिक्षायां च न्यूनता भवति ।शिक्षाहानौ राष्ट्रस्याध: पतनं मानवतायाश्च पतनं भवति । साम्प्रतं शिक्षासंस्थासु शिक्षकशिष्ययो: योग्यकर्तव्याभावात् अनुशासनस्य राष्ट्र महती समस्या समुत्पन्ना, तन्निवारकाय राष्ट्रस्य नेतार: चिन्तिता: सन्ति।
___ तस्या:समस्या: समाधानं हि उपाध्यायच्छात्रयो: मध्ये साक्षात्सम्बंधेनैव भविष्यति । अत: तयोः मध्ये साक्षात्सम्बंधस्यैवावश्यकता विद्यते । पूर्वकाले शिक्षासंस्थासु शिविरेषु वा शिक्षकशिष्ययो साक्षात्सम्बंध: आसीत् । कर्तव्य वृत्ति विवेकात्तदा अनुशासनं सदाचरणं, तेन च सम्यक्त्व ठनं बभूव | साम्प्रतं तु वैदेशिक पद्धत्याऽन्य कारणेन वा गत: प्राय: तयोः साक्षात्संबंध: । तयो:मध्ये शासक समिति प्रबंधकादीनां व्यवधानं विद्यते । नैतिकशिक्षयाः अभावात् अशिक्षित प्रभावात् संस्कारशून्यत्वाद्वा पक्षपातावेशाद्वा छात्राणां अनुशासनहीनता दृश्यते । इति कारण व्यवधानात्तयोः साक्षायोग: विनष्टः अधुना व्यवधान निराकरणात्तयोः साक्षाव्यवहारस्यावश्यकता विद्यते ।
___ न हि सर्वा वेदेशिक पद्धति: वैज्ञानिकपद्धति:वाऽ समीचीना - इति वदामि, परं देशकालानुपूर्वकंतस्याः परिवर्तनं प्राचीनार्वाचीन पद्धति समन्वय: अन्यो वा कश्चिदुपायो विवेकेनान्वेषणीयः । येन शिक्षक शिष्ययोः साक्षाव्यवहारो भवेत्।
साम्प्रतं गुरुशब्दस्य व्याख्या विचार्यते, संस्कृत शब्दकोषे हलायुधनामधेये गुरुशब्दस्यार्थाः कथिता:
"गुरुस्तु गीष्यतौ श्रेष्ठे गुरौ पितरि दुर्भरे" इति गुरुशब्दस्य प्रथमार्थ: गीष्यति: अर्थात् लोकानां गुरुः तीर्थकर: गौतम गणधर: देवानां वा गुरु: वृहस्पति: । वैदिक परम्परायांश्री वृहस्पति: देवानां कृते हितोपदेःशक:
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कथित: लोकानां च कृते मनुष्यासादय: ।जैन परम्परायां श्री महावीर तीर्थङ्करस्य द्वादशसभानां हितोपदेशक: द्वादशाङ्ग विद्यापारङ्गत: गौतमगणेश: (महर्षि: गणधर:) पुराणेषु कथित: तस्य लोकगुरोः शुभागमनं अद्यैव श्री महावीर तीर्थंकरस्य विशालेसभास्थले षष्टिदिवसानन्तरं समभूत् अभूच्च महागुरोः गौतमस्य संप्राप्तौ सत्यां श्रीवर्धमानतीर्थङ्करस्य दिव्योपदेशस्य श्रीगणेश: विहार प्रांतीय राजगृहनगरस्य प्रथमपर्वते विपुलाचले, श्रावण कृष्ण प्रतिपदायां तिथौ । अतएव दिवसोऽयं (श्रावणस्य प्रथमदिवस:) “वीरशासनजयंती" इति नाम्ना पर्वपरम्परायां प्रसिद्ध: अत: गौतमगुरो: शुभागमनात्, बृहस्पतेश्चोपदेशप्रदानात् इयं गुरु पूर्णिमा कथ्यते ।
गुरु शब्दस्य द्वितीयोऽर्थ: श्रेष्ठ: अर्थात् मानव धर्मस्य शिक्षाकारितात्वाद् गुरुः श्रेष्ठः, गुरुशिष्य योग: श्रेष्ठ: । आष्टाह्निक पर्वण: अन्तिम दिवसेऽद्यैव देवा: नराश्च परमगुरोः परमात्मन: प्रकृष्टेन भक्ति (गुणाभिवादन) कुर्वन्ति । अत: इयं पूर्णिमा श्रेष्ठ पूर्णिमापि कथ्यते ।
गुरुशब्दस्य तृतीयोऽर्थः - प्रथम: धर्मगुरु: द्वितीय: विद्यागुरुः । गुरु: शिक्षक : उपाध्यायो वा प्राचार्य: प्राध्यापक: यस्य विद्यालये व्याख्यानं विधीयते । धर्मगुरुः सदाचारस्य शिक्षां ददाति |
गुरु शब्दस्य चतुर्थोऽय: - माता पिता इति मानवस्य प्रथमगुरु: माता, द्वितीय: गुरु: पिता नीतिकारैः कथितः ।गर्भकालात्प्रारंभिकशिक्षा प्रदानात्संस्कार विधानाद्वा माता - पिता च गुरुः । पिता पुत्रयोरपि व्यवहार: समीचीनो भवेत्, येन वंशपरम्पराया: मानवता याश्च विकासो भवेत् । गुरु पूर्णिमा विषयेऽस्मिन्प्रेरणां करोति।
गुरु शब्दस्य पंचमोऽर्थ:- दुर्भरः = अति भारयुक्त: अर्थात् - शिक्षक शिष्य संबंधः, पितां पुत्रसम्बंध: परम गुरुभक्ति: श्रेष्ठयोगः श्रमसाध्य: गुरुतर: न हि अल्प श्रम साध्यः, गुणैः महानं दुर्भरोवा । अत: पूर्वोक्तार्थ व्याख्यानात् इयं गुरुपूर्णिमा गुरुतर पूर्णिमा दुर्भरा इति च कथ्यते ।
गुरुशब्दस्यान्या व्याख्या - एकादशतमशताब्दे: संस्कृत साहित्यकारणे महाकविना श्री वादीभ सिंहाचार्येण स्वरचिते क्षत्रचूडामणिनामके नीतिकाव्ये गुरोः लक्षणं कथितम् -
रत्नत्रयविशुद्ध: सन्पात्र स्नेही परार्थकृत् ।
परिपालित धर्मो हि, भवाब्धेस्तारको गुरु: ॥1॥ यस्य खलु सत्यधर्मेश्रद्धा, निर्दोषज्ञानं, सदाचरणं, विवेकशीलता, विश्वमैत्री, परोपकारकृत्यं, धर्मनिष्ठा, जीवनदुखापहार कत्वं विद्यते स एव गुरुपदवाच्यः नान्यः । शिष्यलक्षणमपि कथितम् -
यः खलु गुरुभक्त: अन्यायापहारकः, विनयशीलः, धार्मिकः, सुधी, शांत प्रकृति: जागरूकः सदाचारी विद्यते स एव शिष्य पदयोग्यः । श्लोकः - गुरुभक्तो भवाभीतो विनीतो धार्मिक: सुधी: ।
शान्तस्वान्तो ह्यतन्द्रालुः शिष्टः शिष्योऽयमिष्यते ॥2॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अन्य शास्त्र कारैरपि - निगदितम् -
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥1॥ परमगुरवे नमः, परम्पराचार्येभ्यो नमो नमः ॥
इतिहासेन पुरातत्वेन च गुरु शिष्य परम्पराया: सिद्धि: महत्त्वं च ज्ञायते । 2487 वी.नि.त: त्रिंशद्वर्षपूर्वं अर्थात् वर्तमानत: 2517 सम्वत्सरेभ्य: पूर्वं श्री महावीरतीर्थङ्करस्य विशाल सभायां अद्यैव रात्रौ श्री गौतम गणेशस्य इन्द्रभूतिनामकस्य शुभागमनं बभूव। तत्र गौतमस्य सहस्रशिष्या: आसन् । तेभ्य: गौतमेन हितोपदेशः चक्रे । शिशुनागवंशीय: सम्राट श्रेणिक विम्बसार: तेषु प्रधानशिष्यः आसीत् ।यस्य राजधानी राजगृह नगरं । तत्रैव विपुलाचले श्रावणकृष्ण प्रतिपत्तिथौ प्रात: सूर्योदयकाले श्री महावीरस्य दिव्योपदेश: प्रारब्धोऽभूत् ।पर्वतेऽस्मिन चत्वारि प्राचीनमंदिराणि चरणपादुकाद्वयं च विद्यन्ते । तत्रानेकाः मूर्तय: कीर्तिपत्राणि चोपलब्धानि सन्ति।
विहार प्रान्ते नवादा स्टेशनतः क्रोशानन्तरं गुणावास्थानं गौतमस्य साधनाभूमिः । अत्र तडागमध्ये सुन्दरमंदिरं तीर्थंकर पादाश्च सन्ति ।
दक्षिण भारते हासनमण्डलांतर्गतं श्रवण वेलगोल नामकं अति प्राचीनं पवित्रं स्थानं शोभते ।अत्रत्या जैनाचार्य शिष्यपरपरा प्रख्याता आसीत् । श्री नेमिचंदाचार्यस्य तत्वावधाने श्री चामुण्डराय महोदयेन दीक्षापूर्वकं तपस्या क्रियतेस्म । चन्द्रगिरि पर्वते श्री भद्राबाहु सूरितत्वावधाने श्री चन्द्रगुप्तमहोदयेन आत्मसाधना कृता । इन्द्रगिरि पर्वते श्री बाहुबलिस्वामिन: 58 फीट प्रमाण: विशालमूर्ति: श्रीचामुण्डराय महोदयेन प्रस्थापिता।
अत्र प्राचीनस्थाने आचार्य शिष्य मूर्ति शिलालेख कीर्तिपत्र मानस्तंभ प्रशस्ति वेदिकाचरण चिह्नादिरूपेण-प्रचुर पुरातत्त्वसामग्री प्राप्यते । अस्य स्थानस्य इतिहासोऽपि इतिहासकारैः विविध भाषासु विलिखितः।
प्राचीन गुरुकुलेषु नालन्दाविश्वविद्यालये तक्षशिला विश्वविद्यालये च गुरु शिष्य परम्पराया: वैदेशिकशिष्याणां व्हेनसांगादीनां च इतिहास: सम्प्राप्यते । अतिप्राचीन कालादारभ्य साम्प्रतं यावत् गुरु शिष्यपरम्पराया भारतीय साहित्यस्य तत्संस्कृतेश्च धारा सतत मेव प्रवाहिता ।
वर्तमान जगति इतिहासेन ज्ञायते - यत्सर्वदशेषु सर्वसमाजेषु सर्वधर्मेषु गुरु शिष्यपरम्परा प्रवाहिता विद्यते। आचार्य शिष्य परम्पराया: कृपयैव साम्प्रतं प्राचीनार्वाचीनं साहित्य संस्कृतिश्च लभ्यते। यस्याध्ययनं पाठनं च शिक्षालयेषु भवति । दक्षिण भारते प्राचीन शास्त्र भंडारेषु प्रचुर मात्रायां संस्कृत प्राकृत कन्नड़, तैलंग, प्रभृति भाषासु साहित्यं लभ्यते । यद्यपि गुरु पूर्णिमा पर्वण: मान्यता सर्व देशेषु सर्वधर्मेषु सर्वसमाजेषु न विद्यते तथापि गुरु शिष्यमान्यता सर्वत्र प्रचलिता विद्यते ।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ गुरुशिष्य सद्व्यवहारेण राष्ट्र प्रान्ते समाजे नगरे कुटुम्बे गृहे च मानवानां योग्यशिक्षा प्राप्तनोति । शिक्षया मानव जीवनस्योन्नति: भवति । अत: जीवने शिक्षकशिष्यसंगते: महत्वपूर्ण स्थानम् गुरुभक्ते: माहात्म्यं संस्कृत साहित्ये कथितम् -
गुरु भक्ति: सती मुक्त्यै क्षुद्रं किं वा न साधयेत्।
त्रिलोकी मूल्यरत्नेन दुर्लभः किं तुषोत्करः ॥1॥ गुरुद्रोहेण हानि: -
गुरुद्वहां गुण: को वा, कृतघ्नानां न नश्यति ।
विद्यापि विद्युदामा स्यादमूलस्य कुत: स्थिति: ॥2॥ गुरु द्वहां कृतघ्नानां वा छात्राणां को वा गुण: न नश्यति, विद्यापि नाशं प्राप्नोति । गुरुभक्तिमन्तरेण विद्याया: सत्ता (उपस्थिति:) कुत: भवितुमर्हति । उपसंहार :
गुरु पूर्णिमापर्व निमित्तेन शिक्षक शिष्य व्यवहारस्य परामर्श: प्रोत्साहश्च प्राप्यते । परम्परेयं प्राचीना अनयैव साहित्यं संस्कृतिश्च लभ्यते । अधुना तयोः सद्व्यवहारेणानुशासनं विद्याभ्यासश्च जायते । अत: शिक्षक शिष्ययो: साक्षात् समीचीन व्यवहार: अनुकर्तव्यः । प्राचीनार्वाचीन गुरुकृत मुपकारं स्मृतत्वा तान्प्रति विनत: कृतज्ञश्चास्मि ।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्री रक्षाबंधन पर्व विषये निबंध:
प्रस्तावना - पर्वण: तात्पर्यं विशेष दिवस: पवित्र (पावन) दिवसो वा विद्यते । यस्मिन्दिवसे धर्म सिद्धान्तस्य महापुरुषस्य वा स्मृतिं कृत्वा मानवा: विविधरीत्वा महोत्सवं कुर्वन्ति । भारतीयपर्व परम्परायां प्रसिद्धं रक्षा बंधननामकं धार्मिकं महापर्व । यस्य मान्यता भारते अधिकांश समाजेषु विदेशे च भारतीय समाजे वृद्धरूपेण दृश्यते । अस्य खलु पर्वण: काल: प्रतिवर्षे श्रावणी पूर्णिमायां निश्चित: । दिवसे ऽस्मिन्मानवा: श्री विष्णु महापुरुषं सुरक्षासिद्धांत वात्सल्यं भावं वा स्मरन्ति । पर्वणोऽस्य विषये सर्वेषां खलु बालवृद्धमहिला मानवच्छात्राणां हृदये समुत्साह: संभवति । वर्षाकाले हि प्रकृते: सुन्दरैः दृश्यैः पर्वणो ऽस्य रमणीयता विशेषेण ज्ञायते । साम्प्रतं अस्य पर्वण: विविधाङ्गानां विचार: परमावश्यकः, येन सर्वेषा पर्व विषयं विज्ञानं भवेत्।
पर्वोदयस्येतिहास: - श्री रक्षाबंधनपर्वण: उदय: पुराणैः इतिहासेन पुरातत्त्वेन च सिद्धयति । ऋग्वेद स्थित प्रमाणै: श्री प्रथमतीर्थङ्करादिनाथस्य सत्ता इतिहास: सिद्धा | ऋषभदेवस्यास्ति तत्त्वसिद्धेःसर्वेषां चतुर्विशंतितीर्थङ्कराणां सिद्धिः स्वभावतः एव भवति । वैदेशिक विज्ञेन प्रो. श्री डॉ. गुस्टॉफ रोठ पी.एच.डी पटना विश्वविद्यालय -महोदयेन इतिहासेन पुरातत्त्वेन च 24 तीर्थङ्कराणामस्तित्त्वं प्रसाधितं, तीर्थङ्करसत्ता सिद्धि: पर्वण: उदय: स्वत: एव निम्न प्रकारेण सिद्धयति । पर्वोदयस्याङ्कगणितं इतिहासेन पुराणेन वा ज्ञायते । अष्टादशस्य अरहनाथतीर्थङ्करस्य तीर्थकाले ऽस्य पर्वण: उदयो बभूव । तस्य वर्षप्रमाणं अंकै: निम्नप्रकारं विद्यते। क्रमांक तीर्थङ्कर
वर्षोन्तरालप्रमाणम् अरहनाथ:
100000000000 अरहमोक्षप्राप्ति गतवर्ष 504000 पीछे वर्ष विष्णु जन्म
99999496000 मल्लिनाथ: मुनिसुव्रतनाथ:
5400000 नमिनाथ:
6000000 नेमिनाथ:
500000 पार्श्वनाथ:
83750 महावीर:
250 महावीर मोक्षप्राप्तिगत वर्ष वर्षयोग :
110011482487
10000000000
2487
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनेन गणितेन 12 अंक प्रमितवषैः पर्वण: प्राचीनता ज्ञायते । इयद्वर्षेभ्यः पूर्वं श्रावणी पूणिमायां प्रात: नववादनावसरेऽस्य पर्वण: उदय: अभूत् । स: दिवसे वर्षेस्मिन्पुन: समायात: ।
श्री महावीरपार्श्वनाथ नेमिनाथ कृष्णराम चन्द्रादिभ्योऽपि प्राचीनतममिदं पर्व। जैन पुराणेषु इतिहासे चास्य पर्वण: कथा प्रसिद्धा । सामाजिक परम्परात: पर्वण: प्राचीनत्वं शिलालेख प्रभृतिभि रपि प्राचीनता द्योतते । वैदिक पुराणेषु अपि रक्षाबंधनकथा सद्भावात् प्राचीनत्वं ज्ञायते ।
___ पर्वण: रूपरेखा - प्राणिनां मानवानां वा परस्परं मैत्री भावस्य जाग्रति: , विश्वप्राणिनां सुरक्षाच पर्वण: समुद्देश्यम् । अस्य खलु नाम - "रक्षाबंधन"अर्थात् स्वपरसुरक्षाहेतो: मानसे प्रतिज्ञाग्रहणं, बाह्ये च सुत्रादिबंधनं यस्मिन्पर्वणि वात्सल्यपूर्वकं विधीयते तद् "रक्षाबंधन" पर्वं इति सार्थक नाम कथ्यते। अस्य खलु रूपत्रयं विद्यते -
__ 1. आध्यात्मिक रक्षाबंधनं, 2. व्यावहारिक रक्षाबंधनं, 3. व्यवहाराभास रक्षाबंधनं । यत्र द्वेष राग मोहकषायपाप व्यसनादि दुष्कर्मभ्य: ज्ञानावरणादिकर्मभ्यश्चात्मन: सुरक्षार्थं पौरुषं विधीयते अर्थात् आत्मपरिणाम शुद्धिः विधीयते तत्प्रशस्तं कल्याणकारकं प्रथमं आध्यात्मिक रक्षाबंधनं । आत्मनि मैत्रीभाव: वात्सल्य भावधारणं वा प्रथमं रक्षाबंधनम्।
आत्मभावविशुद्धये मैत्रीभावसमुत्पत्तये च श्रद्धापूर्वकं भगवत्पूजा प्रवचन भाषण कवितादिरूपं रक्षासूत्र बंधन तिलककरणोपहार प्रदानादिरूपं वा यद् बाह्यकर्म तथा परस्परं सद्व्यवहारः क्रियते तत्सर्वं निश्चयपूर्वकं व्यावहारिक रक्षाबंधनं पर्वणश्च, सांस्कृतिक रूपं विद्यते। मैत्रीभावोपयोगः, पारस्परिकसहयोग: समाजरक्षा, देशरक्षा, प्राणिरक्षा चापि अस्य व्यावहारिकरूपं विद्यते । द्वितीयमिदं रक्षाबंधनम्।।
___ यत्र क्रोधमोहमायाहिंसा व्यसन शत्रुभ्यः आत्मन: संरक्षणं तथा मैत्रीभावना, परोपकार भावश्च नास्ति श्रद्धापूर्वकं, केवल शब्दोच्चारणं, क्रियाकाण्डः, अंधविश्वासपूर्वकं पूर्वागत पराम्परानुकरणं व्यंजनादिभि: उदरपोषणमात्रं वा विधीयते तत्सर्वं लक्ष्यशून्यं निष्प्रयोजनं तृतीयं व्यवहाराभासरूपं रक्षाबंधनं विज्ञेयम् । रक्षाबंधनस्य रूपत्रयमध्ये प्रथम रूप द्वय मुपादेयं स्वपरहितकारकत्वात तृतीय रूपं तु प्रयोजन शून्यत्वात हेयं विद्यते। अनेन रूपेण राष्ट्रस्य समाजस्य त्यो पकारो न भवितुमर्हति । अनाथ विधवादीनामुद्धारश्च नो जायते ।
मानव जीवनस्य विवाहसंस्कारस्य पद्धतिः प्राचीनाचार्य: विरचिता | तत्र कङ्गणबंधनस्य रक्षाबंधनस्य नियोगोऽपि विधीयते । तस्यापि प्रयोजनं सूरिभिः कथितम् गृहस्थानां दैनिकषट्कर्मपालनम् जिनेन्द्र गुरुपूजनं श्रुतवचः सदाधारणम् ।
स्वशीलयमरक्षणं ददनसत्तपोवृंहणम् । इति प्रथितषक्रिया निरति चार मास्तां तवेत्पथ प्रथनकर्मणे विहित रक्षिकाबंधनं ॥ 6 ॥ अस्यां क्रियायामपि दैनिकषट्कर्मपालनेन मानव जीवनस्य रक्षाया:आत्म कल्याणस्य च प्रयोजनमिति सिद्धं रक्षाबंधनस्य समुद्देश्यं रूपरेखा वेति ।
जैन पुराणेषुरक्षाबंधनकथा मान्यता - अतिप्राचीनकाले भारते हस्तिनापुरे श्रीपद्म कुमारस्य नृपस्य
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कृतित्व / संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ राज्यमासीत्। एकदा हस्तिना पुरस्य उद्याने एकाधिकसप्तशतक योगिनां संगः समागतम् । प्रधानसचिवेन वलिनासप्तदिनपर्यन्तं राज्यं प्राप्य, हिंसात्मकं नरमेघयज्ञं रचयित्वा तेषु योगिषु घोरोपसर्गश्चक्रे । योगिनश्च निराहाराः ध्यानस्थाः आसन् । तदैव गगने श्रवणन क्षत्र प्रकम्पनं दृष्ट्वा मिथिलापुरी वनस्थेन सागर चन्द्रमुनिना अवधिज्ञाने न तद् घोरोपसर्गं विज्ञाय मुनि सुरक्षार्थं श्री पुष्पदन्त क्षुल्लक: धरणी भूषण पर्वतस्थिस्य श्री महर्षेः श्री विष्णु महापुरुषस्य निकटे प्रेषितः । विक्रियर्द्धिधारिणा वामनावतारेण 1 विष्णुमहायोगिना शीघ्रं हस्तिनापुरं गत्वा अहिंसात्मक पद्धत्या ते 701 योगिनोऽरक्षन्त । नरमेधादि हिंसाकृत्यानां च पूर्णतया बहिष्कारं विधाय बलि प्रभृति हिंसा कारिणां मानवानां चकृते अहिंसा सत्यपरोपकारादिकर्तव्यानां सभ्यगुपदेशं चकार श्री विष्णु महापुरुषः । सर्वै: अहिंसासत्य व्रतस्य प्रतिज्ञा कृता । प्रजाभि: महोत्सवः कृतः । पारस्परिकवात्सल्य द्योतकं रक्षासूत्रस्य बंधनं हस्तेषु विहितं । तत्समयादेवपर्वरूपेण लोके प्रसिद्धि: संजाता ।
श्री विष्णु महापुरुषेण मानव सुरक्षार्थं वात्सल्य भावस्य (मैत्रीभावस्य ) माहात्म्यं (आदर्श:) देशे विदेशे च प्रकटीकृतम् । श्री समंतभद्राचार्येणापि तस्य माहात्म्यं स्वरचित शास्त्रे कथितम् - I "विष्णुश्चबज्रनामा च शेषयोर्लक्ष्यतां गतौ” इति किञ्च -
श्री श्री.शु. 15 तिथौ श्री श्रेयांस नाथः प्रातः निर्वाणं सम्प्राप्तवान् । वैदिक पुराणेषु कथा वस्तु - रक्षाबंधनस्य वैदिक पुराणेष्वपि महत्त्वं वर्तते । अस्ति तावत्कथावस्तु तेषु पर्वविषये निम्नप्रकारं ।
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एकदा देव दैत्यानां मध्ये परस्परं द्वादशवर्षपर्यन्तं सात्येन घोरयुद्धं भवतिस्म । यस्मिन्देवाः इन्द्रश्च पराजिता अभवन् । इन्द्रस्य दुखशांत्त्यर्थं श्रावणीपूर्णिमायां इन्द्राणी विप्रैः मन्त्रपूर्णकं स्वस्ति वाचनं कारयित्वा शक्रस्य दक्षिण करे रक्षासूत्रंननाह । अनन्तरं पुनः तैः सह युद्धं कृत्वा शक्रेण विजय: प्राप्तः तत्समयादारभ्य संरक्षणोद्देश्यात् सर्वैः रक्षासूत्रस्य बंधनं विधीयते । अतएव 'रक्षाबंधनपर्व' इति सार्थक नाम व्यवहियते ।
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वैदिक पुराणेषु कथायाः रूपान्तरम् - यदा देवा: समुद्र मन्थनान्निर्गतं अमृतं पीत्वा अमराश्च भूत्वा दैत्येभ्य:लोकत्रयस्य राज्यमहरन् तदा दैत्या: अस्ताचले न्यवसन् । प्रदन्हादस्य पोता दैत्यनृपश्च बलिः दैत्यगुरुशुक्राचार्यमसेवत । प्रसन्नः शुक्र: बलिं विश्वजितं यज्ञमकारयत् । यज्ञान्ते यज्ञकुण्डात् एकः स्वर्णरथः, चत्वारः घोटकाः, शंखः ध्वजां, चाप:, तूणीर: दिव्यकवचश्चैते निर्गताः । बलिनृपः तुरंतमारुह्य चापादिभि: देवैः सह अयुध्यत् । पराजिताः देवा: मृग रुपाः सन्तः यत्र तत्र पलायिताः । बलिः लोकत्रयस्य राज्यमकरोत् । दैत्यराजदृढीकरणाय शुक्रः बलिं प्रति यज्ञशतविधानामादेशं चकार । तस्योपदेशेन बलिना प्रतिवर्षं यज्ञः प्रारब्धः । यज्ञान्ते प्रचुरदानमकरोत् । 99 याज्ञाः समाप्ता: । शततमयज्ञकरण काले देवमाता अदिति: अचिन्तयत्, अदितेः व्रत साधनया प्रसन्नः विष्णुः तस्यै वरं ददौ - आदिति: याचना कृता दैत्यराज्यविनाशः देवराज्यस्थापनं चेति । विष्णुना अदितिगर्भात् दशमेमासे पंचदशः वामनावतारः गृहीतः । वामनः ब्रह्मचारी भूत्वा (छात्रः) छलेन नर्मदातटे शततम यज्ञस्थले जगाम । बलिना सत्कारः कृतः । वामनेन पादत्रय भूमियाचनं
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कृतं, आश्चर्ययुक्तेन बलिना स्वीकृतं । व्यक्त जल धारात्रयेण संकल्पः कृतः । वामनः विराटरूपेण चरणद्वयेन लोकत्रयमधिकृतवान् । तृतीयपादः बलिमस्तके निहितः । बलिना क्षमाप्रार्थनां कृता, राज्यं च दत्तम् । विष्णुना (वामनेन) देवसंरक्षणं दैत्यबहिष्कार श्च कृतः।
जैनवैदिक पुराणेषु पर्वविषये तुलना -देवराज्यसुरक्षा - सत्यमानवराज्यरक्षा । दैत्य राज्यविनाश: - दुष्टजनराज्यविनाश: । मुनिविष्णु कुमार: विष्णुदेव: । वामनच्छात्र: - वामनावतारः । शत् तमयज्ञ: - नरमेघः। देवरक्षा-मुनिरक्षा । पादत्रयभूमि - याचना समाना। दैत्यबलि: - दुष्ट बलिनृपः । छलेन-वृद्धि बलेन। विराटरूपः ऋद्धि- दीर्घकाया: । लोकत्रयं- मनुष्य लोकः । रक्षाबंधनं समानमिति ।
___ भारतीयेतिहासे रक्षाबंधनम् -भारतस्येतिहासे ऽपि रक्षाबंधनस्य महत्त्वं दृश्यते । सेनापति संग्रामसिंहवीरेण मुगल सेनापतित: स्वस्य भगिनी रक्षिता: या बून्दीमहाराजस्य पुत्री यमुना सुरक्षाहेतो: संग्रामसिंगस्याधिकारे प्रदत्ता । तस्या: रक्षार्थं कारागारे एव स प्राणानत्यजत् ।
इतिहासे यवननृपाणामुपरि रक्षाबंधनस्य प्रभावो दृश्यते । तद्यथा - एकदामेवाडक्षेत्रे राज्या: कर्मवत्या: राज्ये सुल्तान बहादुरशाहनृप: आक्रमण: मकरोत् । आसीच्च कर्मवत्या: सेनाया: न्यूनता । अत: कर्मवत्या तत्समये श्रावणमासे स्वशत्रुबहिष्कारार्थं साहायां प्राप्तुं देहलीनगरस्य मुगलसम्राट बादशाह हुमायु महोदयं प्रति रक्षासूत्रं प्रेषितं स्वमन्त्रिभिः सह परामर्शपूर्वकम्।
हुमायुं बादशाहेन पत्रस्योत्तरं प्रेषितम् “यदहं अवश्यमेव रक्षासूत्रस्य गौरवं रक्षयिष्यामि'' हुमायूँ बादशाहेन तदनन्तरं स्वसेनाभिः सह मेवाड़ क्षेत्रं गत्वा महत् परिश्रमेण कर्मवतीरक्षिता । रक्षाबन्धाद् हेतोः एकेन यवन भ्राता विपत्समये हिन्दूभगिनी सुरक्षिता । इतिहासे विशेष घटनेयं स्वस्य विषयस्येति ।
वात्सल्यभावस्यादर्श: -अस्मिन् रक्षाबंधन पर्वणि वामनरूप धारिणा विष्णुना वात्सल्य भावेनैव दुर्जनेभ्य: प्राणिन: सन्मानवाश्च रक्षिता: । यतश्च वात्सल्यभावमन्तरेण प्राणिनां संरक्षणं परोपकारश्च न भवितुमर्हति अत: लोके वात्सल्यस्य किं वा प्राणिरक्षाया: सन्मानवरक्षायाश्चादर्शः प्रकटीभवति । श्रीसमंतभद्राचार्येण रत्नकरण्डश्रावका चारे वात्सल्य भावस्य लक्षणं प्रोक्तं -
___ स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनाथाऽपेत कैतवा ।
प्रतिपत्तिर्यथा योग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥1॥ स्वबन्धूनप्रति स्वपरोपकार भावेन निष्कपटरीत्वा यथायोग्यं आदरसत्कारभावः हितभावः सुरक्षा भावो वाऽन्योवा सद्विचार: वात्सल्यं कथ्यते । श्री मदमृत चन्द्राचार्येणापि पुरुषार्थसिद्धयुपायु ग्रन्थे प्रोक्तम्
अनवरतमहिंसानां शिवसुखलक्ष्मी निबंधने धर्म ।
सर्वेष्वपि च सधर्मिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ।।29।। गोवत्सवत् धार्मिक सिद्धांते धर्मनिष्ठ मानवेषु च उत्कृष्टवात्सल्यं मैत्रीभावो वा धारणीयः । वात्सल्यभावोऽयं सम्यग्दर्शनस्य सप्तमोऽङ्गः, अनेनबिना सम्यकत्वस्य पूर्णता सफलता वा न भवति । विशालस्य अहिंसा धर्मस्यायं वात्सल्य भावः प्रधानांग: कर्तव्यों वा विद्यते । अहिंसा धर्मेण विश्वप्राणिनां रक्षा निश्चयेन भवत्येन।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ धर्मो वसेन्मनसि यावदलं स तावत्, हन्ता न हन्तुरपि पश्य गतेऽथ तस्मिन् । दृष्टा परस्परहतिर्जन कात्मजजानां, रक्षा ततो ऽस्य जगतः खलु धर्मएव ॥1॥
(गुणभद्र आत्मानुशासने श्लोक 26) यत्र वात्सल्याभाव: विनयाभावश्च, तत्रा भिमानादि दोष वशीभूतो जनः अन्येषां तिरस्कारं करोति, स स्वस्यैवानिष्टं करोति । उक्तं च -
स्मयेन योन्यानत्येति धर्मस्थान्गर्विता शय: । सोत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकै बिना ॥
(रत्नकरण्डश्रावकाचोर श्लोक 26) वैदिकपुराणेषु रक्षाबंधनस्य प्रयोजनम् -
कास: क्षोभवस्त्र ; विचित्रमल वर्जितै : । पुरोधा नृपते रक्षां सम्यक वधनीतमानवै: ॥1॥ येन बद्धो वली राजा दानवेन्द्रो महाबल: । तेन त्वामभिवध्यामि रक्षे माचल माचल ॥2॥ ब्राह्मणै: क्षत्रिय वैश्यै: शुद्रैरन्यै श्च मानवै: ।
कर्तव्यो रक्षिकाबन्धो द्विजान्सम्पूज्य भक्तित: ॥ 3 ॥ अत्रापि मैत्रीपूर्वकं रक्षा प्रयोजनं सिद्धम्।
__ सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विद्धातु देव ॥1॥
(सामायिक पाठे अमिगति:) सामाजिक संस्कृति -प्राय: भारतीय समाजेषु अस्मिन्पर्वणि विविध पद्धति प्रचलिता विद्यते । तद्यथा - भ्रातुः करे भगिनीभि: रक्षासूत्रबंधनं, विप्रैः परिचितानाम् करेषु रक्षासूत्र बंधनं, मंदिरेषु स्वत: रक्षासूत्रबंधनं, हीनै: समर्थानां करेषु रक्षाबंधनं, गृहद्वारेषु रक्षासूत्र बंधनं, वृत्तिसाधनेषुरक्षाबंधनं, अर्थोपार्जन साधनेषु रक्षासूत्रबंधनं अन्येषु वा दैनिकोपयोगिसाधनेषु प्राय: सवै: रक्षासूत्रबंधनं विधीयते । परस्परं व्यवहारे निमंत्रणं, उपहारप्रदानं, श्रीफल प्रदानं, हरिद्रया तिलककरणं, मन्दिरेषु गृहेषु वा रक्षाबंधनकथावाचनं, भजनोपदेशः सभाया: कार्यक्रमः, कविसम्मेलनं, अर्चाविधानं, गृहस्य वस्त्राणां च स्वच्छता । देशनेतृभिः राष्ट्र संरक्षणस्य प्रतिज्ञा करणं । समाज संरक्षणस्य, ग्राम संरक्षणस्य कुटुम्ब संरक्षणस्य गृह रक्षाया:आत्मरक्षायाश्च प्रतिज्ञा क्रियते विद्वद्भिः साम्प्रतं पशुरक्षाया: प्राणिरक्षाया वा तथा वनस्पत्यादिरक्षाया: वा देशे आवश्यकता विद्यते । परन्तु साम्प्रतं रूढ़ि मार्गानुसारिभि: धर्मान्ध भक्तैर्वा गतानुगतिकतया पूर्वागत परम्परया वा पर्वण: मान्यता क्रियते। तस्यां मान्यतायामेव ते प्रमोदन्ते। व्यंजनास्वादनेनैवतुष्यन्ति, रूप्यकाणां लाभेन, वस्त्राणां वा परिधारणेनानन्दन्ति । तेषां हृदये राष्ट्र संरक्षणस्य समाजसंरक्षस्य न कापि चिन्ता न च
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कार्यक्रमः, नापि सद्व्यवहार: परन्तु प्रतिवर्षे पर्वण: मान्यता विधीयते एव, इति महदाश्चर्यम् । अत: भारतीयैः विवेके न रक्षाबंधनपर्वण: मान्यता, प्राणिसंरक्षणस्य देशरक्षायाः कुटुम्बरक्षायाश्च प्रतिज्ञा, महापुरुषपदचिन्हानुकरणं मैत्रीभावधारणं च कर्तव्यम् । अनेन मानवजीवनस्य सफलता नियमेन भविष्यति ।
रक्षाबंधनस्य महत्त्वम् -धार्मिक क्षेत्रे, राष्ट्रीय क्षेत्रे, सामाजिक क्षेत्रे, सेवा क्षेत्रे, जीवनं क्षेत्रे च क्षेत्रे रक्षाबंधनस्य परम महत्त्वं विद्यते । यतश्च सर्वक्षेत्रे सुरक्षाया: आवश्यकता । रक्षया च राष्ट्रस्य समाजस्य च समृद्धि: । बाह्याक्रमणेभ्य: सुरक्षा भवति । सुरक्षया देशोत्थानम् भवति ।
एवं प्रकोरण संस्कृत साहित्ये व्यवहारे च रक्षाबंधनस्य महत्त्वं देशे विदेशे च प्रसिद्धम ।
उपसंहार -भारतीय सांस्कृतिक पर्व परम्परायां रक्षाबंधनं महत्त्वपूर्ण श्रेष्ठं पर्व विद्यते । तस्य प्राचीनता इतिहासेन प्रसिद्धा कथावस्तु पुराणैः सिद्धम्। तस्य रूपरेखा धर्मशास्त्रैः प्रोक्ता । भारतीयेतिहासेन रक्षाबंधनस्य तात्पर्य सिद्धम् । अस्मिन पर्वणि मैत्रीभावस्यादर्श: तेन प्राणिरक्षा राष्ट्ररक्षा परोपकारश्च प्रकटी भवति।
__ आध्यात्मिक रक्षाबंधनेन आत्मन: क्रोधद्वेषहिं सा परिग्रहादि शत्रुभ्य: विमोक्ष: शान्तिश्च भवति । पर्वानुकूला सामाजिक पद्धति: भवेत्। रक्षासूत्रबंधनेन सह रक्षा प्रतिज्ञाबंधनं परमावश्यकम् । पर्व विषये मिथ्यावादस्य नाशो विधेयः । अस्य महत्त्वं सर्वक्षेत्रे संस्कृतसाहित्येन लौकिकसाहित्येन वा प्रसिद्धं
अत: रक्षाबंधन पर्वण: मनस: वाचा कर्मणा सम्यक मान्यता विधेया।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आत्मशान्ति: विश्वशान्तिश्च स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्ति:
आत्मनः शान्तिः इति आत्मशान्तिः इति विग्रहः । मानस शान्तिः इत्यपि तस्य पर्याय: । आकुलताया: अथवा चिन्ताया: अभावे आत्मशान्ति: भवति । काम क्रोधमाया दिविकारैः चित्ते अशान्ति: दुःखं च भवति। मानमायारहिता: जना: जीवने शान्तिं सुखं च अनुभवन्ति । धन लोलुपा: मानवा: सर्वदैव व्याकुला: सन्त: संतोषं न धारयन्ति । विषय तृष्णाभि: तेषां हृदयं सर्व दैव प्रज्वलति । उक्तं च -
सन्तोषामृततृप्तानां, यत्सुखं शान्तचेतसाम् ।
कुतस्तद्धनलुब्धानां, इतश्चेतश्च धावताम् ॥1॥ लोके सर्वेजना: जीवनसुखं इच्छन्ति । कोऽपि पुरुष: अल्पमपि कष्टं न वाञ्छति, सर्वदैव दुःखात् विभेति । दया अहिंसा धर्मस्य मूलं विद्यते । दयाभावेन प्राणिनां रक्षा भवति । दयाभावेनैव शत्रवः मित्राणि जायन्ते । यथा निजप्राणा: प्रिया: भवन्ति तथैव महात्मनां परमाणा: अपि प्रिया: भवन्ति । अत: ते महात्मान: निजप्राणवत् परेषामपि जीवानां प्राणरक्षां कुर्वन्ति । प्राणरक्षणे सति आत्मशान्ति: जायते । आत्मशान्ति भावेन समाजस्य देशस्य च शान्तिः भवति । तथाचोक्तम् -
प्राणा: यथात्मनोऽभीष्टाः, भूतानामपि ते तथा ।
आत्मौपम्येन भूतेषु, दयां कुर्वन्ति साधवः ॥2॥ आत्मशान्तिः सर्वेषां प्राणिनां श्रेष्ठा विभूति: वर्तते, यस्या: आकर्षणं स्वाभाविकमेव भवति । आ सृष्टेः प्रारम्भात् जना: शान्त्यर्थं चेष्टमाना: भवन्ति । तथापि शान्ति: अधुनापि मृगमरीचिका इव तान् सर्वान् न सन्तोषयति । किं च - प्रतिदिनं अस्माकं अशान्ति: वर्धते एव, न क्षीयते । अवश्यमेव काचित् त्रुटिरेव अस्माकं शान्ति प्रयत्नान विनश्यति । वयं तां त्रुटिं विज्ञजन सहयोगेन अवश्यमेव दूरीकुर्याम।
सर्वेषां महात्मनां अयमेव प्रयत्न: भवति, यत्ते न केवलं निजशान्तिं कुर्वन्ति, अपितु लोकशान्तिं राष्ट्रशान्तिं वा कर्तुमपि जीवनपर्यन्तं चेष्टन्ते । यथा प्रज्वलितेषु वनखण्डेषु एकोऽपि वृक्ष: हरित: न जीवति तथैव दु:खिते देशे समाजे वा व्यक्तेः शान्तिः जीवने न भवति । तथाहि -
परमदयालुः गौतमबुद्ध: स्वयंमेव आत्मशान्तिं प्राप्तवान् । तत: लोकशान्ति कार्येऽपि बहुप्रयत्न सदैव अकरोत् । तं प्रयत्नं ध्यानेन पश्यन्तु भवन्त: । महात्मा श्रीबुद्ध: जीवन दुःखस्य विनाशकं आष्टाङ्गिकं कल्याणमार्ग कथयति स्म -
___ 1. सत्यदृष्टि:, 2. संकल्प: (प्रतिज्ञा), 3. सत्यवाणी, 4. सत्कर्म, 5. सत्य व्यापार: (आजीविका), 6. व्यायाम:,7.स्मृति:, 8. समाधि: इति। बुद्धस्य अष्टविध: अयंकल्याण मार्ग:लोकशांतिकारकः अभवत्।साम्प्रतमपि सर्वे मानवाः तस्मिन् दुःखशांति मार्गे नित्यं प्रयत्नं कुर्वन्तु ।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कथितं च नीतिशास्त्र -
परोपदेशे पाण्डित्यं, सर्वेषा सुकरं नृणाम् ।
धर्म स्वीयमनुष्ठानं, कस्यचित्तु महात्मनः ॥3॥ अर्थात् - सर्वेजना: परोपदेशकरणे कुशला: भवन्ति किन्तु कथितस्य कर्तव्यस्य स्वयं पालने विरला: जना: भवन्ति । नहि सर्वेजना: महात्मानः भवन्ति । उपनिषद् ग्रन्थेऽपि मानवानां कृते ब्रह्मज्ञानेन कर्मयोगेन च परम शांतिमार्ग: प्रति पादितः।
____किं च - य: जन: परदारेषु मातृवत् भावं करोति, परधनेषु लोष्ठवत् विचारं करोति, सर्वप्राणिषु आत्मवत् दयां करोति, स: श्रेष्ठः पण्डित: महात्मा च । नीतिग्रन्थेषु उपदिष्टम् -
मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत् ।
आत्मवत्सर्व भूतेषु, यः पश्यति स पण्डित: ॥4॥ अपि च - सहस्रधर्म शास्त्राणां अयं हि सारभूत: उपदेशः दृश्यते - यत्कार्य आत्मन: प्रति विरुद्धं विद्यते, तत्कार्य परान्प्रति कदापि न कर्तव्यं । यद्वचनं निजंप्रति विरुद्धं, तत् अन्य प्रति न वदेत् नापि अनिष्टं विचारयेत् । प्रोक्तं च
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं, श्रुत्वा चैवाव धारयेत् ।
आत्मन: प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ॥5॥ श्रीगांधीमहोदयेन कथितं - यत् अहिंसा सत्यं च लोकशान्ते: आत्म शान्तेश्च मार्ग: श्रेष्ठः । श्रीगांधी महोदय: सदैव जीवने अहिंसा-सत्यं ब्रह्मचर्य इति व्रतत्रय पालनं अकरोत् । अयमेव गांधीवाद: प्रसिद्ध :। गांधीवादेन अथवा अहिंसा सत्य वलेन खलु भारतीय नेतार: भारतराष्टं स्वतंत्रं अकुर्वन् । अहिंसासत्य मूलकं हि स्वराज्यप्राप्ते : आंदोलनं गांधी नेहरु प्रभृतय: नेतार: अकुर्वन । युद्धं- विना भारतस्य स्वतंत्रता प्राप्ति: संजाता- इति विश्वस्य दशमं आश्चर्य वैदेशिकजना: कथयन्ति ।
आधुनिकेन भौतिकविज्ञानेनापि स्थायी लोक शांति मार्ग: आत्मशांति मार्गश्च सफल: न भवति । विज्ञानेन क्षणिकशांति: अवश्यं - भवति, सा लोकशांते: मार्ग: न भवति । यथा यथा विज्ञानं वर्धते, तथा तथा लोके सर्वत्र अशांतिः एव वर्धते । विविधवस्तूनां आविष्कारात् तत्प्राप्ते: अभिलाषा दिने दिने सर्व जनानां चित्ते वर्धते, तेन अशांति: अथवा आकुलता भवति । परमाणुवम - इत्यस्य आविष्कारात् विविधशस्त्राणां च निर्माणात् विश्व जनानां पशुप्राणिनां च जीवनं अशांतिमयं एव अथवा भयङ्करमेव दृश्यते ॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उद्योगिनं पुरुषसिंह मुपैति लक्ष्मी: (क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते अथवा विपत्ति रेवाभ्युदयस्य मूलम्)
कार्यसाधनाय परिश्रम: तप: उद्योग: पुरुषार्थ: इत्येवं कठोरश्रमस्य प्रयोजनं अभीष्टं विद्यते । कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति, कृतं सम्पद्यते चरन् ।।1।। कलिकाले जनाः शयनं कुर्वन्ति । द्वापरयुगे मानवा: जागृता: भवन्ति । त्रेतायुगे नरा: उत्तिष्ठन्ति अर्थात् कार्यकरणे उद्यता: भवन्ति । सतयुगे च मनुजा: मनसा वाचा कर्मणा श्रेष्ठकार्यं कुर्वन्ति।
लोके ऽस्मिन् सर्वे नराः प्रयत्नवन्तो वर्तन्ते । निजप्रयत्नेषु प्रकृत्या फलकांक्षिण: नरा: बहुविधैः क्लेशैः तत्पराः भवन्ति । नि:सन्देहं क्लेश पूर्ण इदं नरस्य जीवनम् । तथापि जीवनं सुखपूर्णं भवति । श्रमेण हि फल प्राप्तिः भवति, अत: मानवा: मनसा वाचा कर्मणा (श्रमेण) निजकार्य सम्पादयन्ति । फले प्राप्ते सति मानवा: अत्यंतं सुखं अनुभवन्ति नवचेतनायुक्ता: नवजीवनशोभिता इव भवन्ति । इदमेव परिश्रमस्य महत्त्वं मानव जीवने।
श्रमाद् विना आनंद प्रदं फलं मानव: कदापि न प्राप्नोति । क्लेशेन धनोपार्जनं कृत्वा जना: यथा सुखिनः भवन्ति, न तथा स्वयमेव प्राप्तं जलं वायुं भोजनंच गृहीत्वा, प्रसन्नाः भवन्ति ग्रीष्मदिवसेषु कृषका: फलाशयैव कृषिकार्ये श्रमं कुर्वन्ति, क्लेशं च तृणवन्मन्यन्ते । छात्रा: प्रति दिनं सोत्साहं पठन्त: प्रथम श्रेण्यां परीक्षां समुत्तीर्य अतिप्रसन्ना: जायन्ते । उक्तं च -
पठन्ति विद्यार्थिगणा: श्रमेण ग्रन्थं सहन्तः कठिनां विपत्तिम् ।
भजन्ति ते तत्फल मात्तसौख्या: विपत्तिरेवाभ्युदयस्य मूलम् ॥1॥ धनोपार्जनं धनरक्षणं च परिश्रमेणैव भवति । सुवर्ण धान्यादीनां लिप्सया जना: दिने रात्रौ च सततं क्लेशं सहन्ते, विविध सम्पत्तिं च प्राप्य अतीव प्रसन्नाः भवन्ति । तथा चोक्तं
उद्योगिनं पुरुष सिंह मुपैति लक्ष्मी दैवेन देयमिति का पुरुषाः वदन्ति ।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या यत्ने कृते यदि न सिद्ध यति कोऽत्रदोषः ।
भवेत् यदि फलप्राप्ति: श्रमं विना तर्हि मानव जीवनं निर्बलं दुःखितं च जायेत । श्रमरहिता जना: व्यर्थ समय व्यतीतं कुर्वन्ति, अलसा: च भवन्ति, अन्यायं द्यूतं च समाचरन्ति । केनचित कविना कथितं - "आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः” इति । कार्यभारेण एकवारं क्लेश युक्त: जन: फलं लब्ध्वा क्लेशं कष्टं न मन्यते, अपितु जीवने नवीनवातावरणं सम्प्राप्य प्रसन्ना भवन्ति । वानप्रस्था: सन्यासिनश्च प्रचुरकष्टं सहन्त: तपसा आत्मशुद्धिं कुर्वन्ति । अन्तसमये तप: फलं
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मुक्तिं स्वर्ग च प्राप्य नित्यानन्दयुक्ता: देवा: भवन्ति, तपस्याकाले कष्टे न सह इन्द्रिय विजयं कृत्वा प्रसन्ना: जायन्ते।
सत्यपौरुषं बिना मानव जीवनं निरर्थकं तथा अपूर्ण जागृति शून्यं भवति इति विचारं वदन्ति महात्मागांधी महोदया: टालस्टाय प्रमुखा: विद्वांसः । सुखं दुःखं च क्रमश: अस्माकं जीवने सततं यान्ति आयान्ति च , तै: जीवनस्य गौरवं दृश्यते । कथितं च "चक्रवत्परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च"।
लोके केचित् जना: पुरुषार्थेन जीवन जागृतिं लोकहितं च न पश्यन्ति, ते मत्कुणा: इव पर प्राणिनां जीवनस्य द्यनस्य कुण्टाका: भवन्ति । विवेकशून्या: ते देशस्य समाजस्य च उन्नति तत्परा: दृश्यन्ते न कदापि । कर्तव्य हीना: जना: पापानि अन्यायं च कुर्वन्त: चलचित्रे द्यूतक्रीडायां हास्यविनोदे च व्यर्थं कालं क्षपयन्ति नीति विशारदैः कथितम् -
काव्यशास्त्रविनोदेन: कालो गच्छति धीमताम् व्यसनेन च मूर्खाणां, निद्रया कलहेन वा ॥ इति
ज्ञान सहितेन उद्योगेन राष्ट्रस्य सुरक्षा समुन्नतिः स्वाधीनता च संजायते । पूर्वकाले अस्माकं भारत देश: वैदेशिकै: राजनीतिज्ञैः अतीव पराधीन: निर्बलश्च आसीत्। ते वैदेशिक भारतीयस्य सम्पत्ति धर्म संस्कृतीनां विनाशं कृत्वा राज्यं कुर्वन्ति स्म । संस्कृत हिन्दी भाषयो: क्षतिं विधाय आंग्लभाषायाः प्रचारं अकुर्वन् ।
भारतराष्ट्रस्य नीतिविज्ञा: नेतार: गांधी नेहरु मालवीय प्रमुखा: पंचशीलरूपं आन्दोलनं विधाय, कारागारेषु क्लेशान्प्रसह्य, स्व राष्ट्रस्य स्वतंत्रतां प्राप्नुवन्ति स्म । अनशनं सत्याग्रहं च कृत्वा स्वाधिकार प्राप्तवन्त:।
अयं सारांश :- यत् नीतिज्ञानां नेतृणां - वीराणां उद्योगेनैव भारतदेश: स्वतंत्र: अभूत् । ते नेतारः सत्याग्रहिणश्च अस्माकं मान्या: प्रशंसनीयाश्च सन्ति । अस्मिन् विषये श्री सुकरात महोदय: वैदेशिक: अपि उल्लेखनीयः। नीतिकाराणां सुमाषितम् -
जीवितात्तु पराधीना ज्जीवानां मरणं वरम् । मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्ण केन कानने ॥ सम्राट अशोकः श्रमस्य मनोरञ्जकं माहात्म्यं । निज राज्ये प्रकटीकृतवान् ॥ इति ॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सहसा विदधीत न क्रियाम्
या अविचार्य न कर्तव्यम्
इदं खलु मानवानां कर्तव्यं विद्यते यत् परिश्रमी जन: विचार्यैव कार्यं कुर्यात् कदापि विचारेण विना स्वकार्य न कुर्वीत । ये श्रमिण: जना: सम्यक् विचार्य शीघ्रं कार्यं कुर्वन्ति ते कार्यस्य श्रेष्ठ फलं प्राप्नु वन्ति ।
कच्छपगत्या अग्रे सरन्त: मन्द पुरुषा: अल्प जीवनकाले किंचित् उत्कर्ष लब्धवा लोके तारका: इव सन्ति, परन्तु शीघ्रकारिण: जना: विद्युदिव गगनमण्डलंप्रकाश्य लोके हृदयहारिणः भवन्ति । साहसिन: महापुरुषा: लोके स्मरणीयाः सन्ति।
अभिमन्यु प्रताप गांधी शंकराचार्य प्रमुखा: तेजस्विन: महापुरुषा: यत्र सुविचार्य शीघ्र मेव महत् साफल्यं लभन्ते, तत्र प्रमादिन: जना: हि जीवन पर्यन्तं कुविचारं कृत्वा एव न तुच्छ मपि कार्यं कर्तुं समर्थाः । केवलं सन्देहे एव विक्षिप्ता: भवन्ति । सुविचार्य कृतं कार्य तथा सुचिन्त्य कथितं वचनं बहुकालपर्यन्तं दूषितं न भवति, किन्तु सर्वत्र सर्वदा सफलतां करोति । तथा च कथितं नीतिज्ञैः
सुजीर्णमन्नं सुविचक्षण: सुत:, सुशासिता स्त्री नृपति: सुसेवित: ।
सुचिन्त्यचोक्तं सुविचार्य यत्कृतं, सुदीर्घकालेऽपि न याति विक्रियाम् ॥॥
सर्वत: विचार्य शीघ्रमेव कार्यं कुर्वन्तो जना: प्रशंसनीया: भवन्ति । दीर्घसूत्रिणः जनाः निजावसरं न ज्ञात्वा यावत्कालं विचारंपुन: पुन: कुर्वन्ति, तावत्कालं अपरे केचित्पुरूषा: शीघ्रं कार्यं कृत्वा सफलतां प्राप्नुवन्ति। ये जना: कण्टकानां अस्तित्वमपि विस्मृत्य, इतस्तत: परिधावन्त: उत्साहबलेन कार्यं कुर्वन्ति, ते विद्युल्लता इव लोकं अलङ् कुर्वन्ति । लक्ष्मी स्वामिनश्च ते सुतरां भवन्ति । कथितं च -
श्लोक - उत्साहसम्पन्न मदीर्घसूत्रं, क्रियाविधिज्ञव्यसनेष्वसक्तं शूरंकृतज्ञं दृढ़सौहृदं च, लक्ष्मी: स्वयं याति निवास हेतोः । “दीर्घ सूत्री विनश्यति" इत्यपि नीतिज्ञाः वदन्ति ।
__युद्धभूमौ सहसा योजनापूर्वकं आक्रमणकारिण: सफलतां लभन्ते । ते विचित्रगतिविधिना देशान् सहसैव जयन्ति । शत्रून्प्रति आक्रमणस्य सूचनामपि न प्रेषयन्ति । स्वस्य विजय प्राप्तौ हि साहसिन: मानवा: शीघ्रं योजनां रचयन्ति। नीतिज्ञा: श्लोकं वदन्ति -
आहवेषु च ये शूराः, स्वाम्यर्थे त्यक्तजीविताः ।
भर्तृभक्ताः कृत ज्ञाश्च, तेनरा: स्वर्गगामिन: ॥ केवलं द्विविधजनाः प्राय: जटिति कार्यं न कुर्वन्ति । प्रथमा: - परिश्रम विद्वेषिण: अलसा: जना:
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विचार्य शीघ्रं कार्यं न कुर्वन्ति । प्रात: कालेऽपि सूर्योदयात्पूर्वं शय्यां न त्यजन्ति । परमे श्वरस्य समये समये प्रार्थनां न कुर्वन्ति । समये दैनिककार्यं न सम्पादयन्ति। अनेन प्रकारेण बहुकालं ते यत्र तत्र गप्पाष्टके क्षपयन्ति। द्वितीयास्तु जना: एवं कथयन्ति -
"सर्व खलु ईश्वर: करोति" तथा "भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम्" - इति मन्यमाना: सदैव भाग्यस्य अपेक्षां कुर्वन्ति, कदापि कर्तव्येषु प्रयत्नं नैव समाचरन्ति । पुरा बहवो नृपा: शुभतिथिं हि प्रतीक्ष्य शत्रो: विरोधमपि न कुर्वन्त: परित: पराजिता: अभवन् । विचारदक्षा: वीरा: आगतं अनागतं वा विपत्तिसागरं साहसेनैव सन्तरन्ति॥
परीक्षाकाले विचार शून्या अलसा: छात्राः श्रमेण नैव पठन्ति, अत: प्राय: अनुत्तीर्णः भवन्ति । तृतीय श्रेण्यां वा सफलतां लभन्ते, अनुकरणं वाकृत्वा उत्तीर्णा: दृश्यन्ते । अत: छात्रा: मनसा वाचा कर्मणा स्वस्य विद्याभ्यासं कुर्युः ।
मानव जीवनस्य कालोऽपि दीर्घ: नास्ति । यत् किञ्चिदपि करणीयं विद्यते, शीघ्रमेव तत्कार्यं जनाः योग्यकाले कुर्युः । जीवने प्रत्येक क्षणस्य महती उपयोगिता वर्तते । आयुष: क्षण एकोपि न लक्ष्य: स्वर्ण कोटिभिः । प्रोक्तं च नीतिकारेण -
· श्वः कार्यमद्य कुर्वीत, पूर्वाह्ये चापराहिकम् ।
नहि प्रतीक्षते मृत्यु:, कृतमस्य न वा कृतम् ॥ यदि विचार्य श्रमेण कार्यं कुर्वन् जनः साफल्यं न लभेत, तर्हि पुन: पुन: उद्योगं कुर्यात् , कदापि हताशो न भवेत् । यत: असफलतैव ननु सफलताय: सोपानं भवति । “महाजनो येन गतः स पन्थाः” इति विचार्य जीवने यत: आवश्यकं परमकर्तव्यं विद्यते, तत् मानवः शीघ्रमेव कुर्यात् । हिंसा असत्यं चौर्य लोभः प्रभृति पापानि हेयानि सन्ति, अहिंसा - सत्यादि धर्माणि उपादेयानि सन्ति इति विवेकं कृत्वा मानवा: स्वजीवने श्रमेण आत्मकल्याणं लोककल्याणं च कुर्युः । युधिष्ठिरस्य भीमसेनं प्रति कथनं अस्ति -
सहसां विदधीत न क्रियां, अविवेकः परमापदां पदम् । वृणते हि विमृश्यकारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ॥
(किरातार्जुनीय श्लोक 30 द्वि.स.)
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उदारचरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम्
अथवा परोपकाराय सतां विभूतयः
अस्मिन् संसारे सर्वेप्राणिन: समये समये जन्म मरण परम्परां प्राप्नुवन्ति । रात्रिदिवस वत् जन्ममरणयो: सुख दुःख योश्च क्रमश: परिवर्तनं भवति । अस्यां जन्ममरणपरम्परायां तेषां नराणां जीवनं सफलं विद्यते, ये विद्याभ्यासं कृत्वा आत्मकल्याणं कुर्वन्ति । अन्यथा जीवनं व्यर्थ मेव । तथा चोक्तम् -
रूपयौवन सम्पन्ना:, विशालकुल सम्भवाः ।
विद्याहीना: न शोभन्ते, निर्गन्धा: इव किंशुकाः ॥ ज्ञानेन सदाचारेण च ये जना: आत्महितं कृत्वा निजवंशस्य कल्याणं तथा उन्नतिं कुर्वन्ति, तेषां जीवनं श्रेष्ठं अस्ति । जीवनमरण मात्रेण मानवजीवनं श्रेष्ठं न जायते । उक्तं च कविना -
सजातो येन जातेन याति वंश: समुन्नतिं ।
परिवर्तिनिसंसारे मृत: को वा न जायते ॥ श्लोकस्य सारांश :- अस्मिन् संसारे सर्वे प्राणिन: जन्म धृत्वा मरणं प्राप्नुवन्ति, परन्तु तेषां जन्म सफलं न विद्यते । तेषां मानवानां जन्म सफलं विद्यते ये जना: विविध ज्ञानं प्राप्य स्वस्य वंशस्य समाजस्य राष्ट्रस्य च कल्याणं कुर्वन्ति । ये च लोकहिताय निजजीवनस्य समर्पणं कुर्वन्ति ते धन्या:।
सत्य ज्ञानेन सदाचारस्य वृद्धिः भवति, सदाचरणेन हृदयस्य उदारता पवित्रता च सम्पद्यते । धर्म ग्रन्थेषु सदाचरणस्य महती व्याख्या दृश्यते । तथाहि - आत्मविश्वास:, अहिंसा पालनं, सत्य कथनं, चौर्यपरित्यागः, ब्रह्मचर्यसाधनं, लोभ परित्यागः, मद्यत्यागः, मांसत्यागः परमात्मभक्तिश्च सदाचार: सच्चारित्रं वा कथ्यते।
सदाचरणे नैव मानवानां हृदयं उदारं जायते उदार चित्ता: नराः सर्वलोकस्य संरक्षणं हितं च कुर्वन्ति। न हि तेषां मानसे सम्प्रदायस्य जाते: समाजस्य वंशस्य देशस्य च पक्षपात: मोहश्च भवति, अपितु सर्वेषां जनानां स्वकुटुम्बवत् ते परोपकारं कुर्वन्ति । यथा च सूर्य: चन्द्रश्च सर्वलोकस्य उपकारं करोति पक्षपातं विना, तथैव महात्मानः सर्वलोकं कुटुम्बकत् मन्यन्ते । सर्व लोकस्य महात्मानः, महात्मनां च सर्वलोकः इति उदारचरितानां मानवानां महान् सम्बंध विद्यते । अयं पुत्र: मम, अयं बालकः परस्य, अयं मम कुटुम्ब: अयं च परस्य कुटुम्बः इति विचार: क्षुद्र बुद्धीनां जनानां भवति, न तु महात्मनाम् । नीतिज्ञैः कथितं -
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसां ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥" इदं तु विचार्य ते - मिथ्याज्ञान हेतुना मोहेन च (अहंकारेण च ) दु:खानुभवो भवति । येषु येषु जनेषु वस्तुषु च संयोगः, तादृश: एव दुःख प्रकारः ।
प्रोक्तं च - "संयोगतो दुःखमनेक भेदं
___ यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी।" अर्थात - यावन्त: वस्तुसंयोगा: तावन्त: दुःखप्रकाराः संसारे प्राणिभि: अनुभूयन्ते सर्वदा । वस्तुसंयोगे सति सुखमुत्पद्यते, वस्तु वियोगे सति दुःख मुत्पद्यते । अत: संयोगे वियोगे सुखे दु:खे जनने मरणे वा समतागुणस्य ग्रहणं कुर्यात् मानवः । सन्यासिन: त्यागिन: -
महात्मानश्च सर्वदा सर्वत्र समता भावस्य साधनमेव कुर्वन्ति। समता (शान्ति) गुणेनैव तेषां तपस्या सफलीभूता भवति, अन्यथा ते एक क्षणमपि तपस्यां कर्तुं न शक्नुवन्ति। धर्मग्रन्थेषु कथितं च -
मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् ।
आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डित: ॥ अर्थात् - स जन: बुद्धिमान धर्मात्मा, य: मातृषु परस्त्रीषु च, परद्रव्येषु पाषाणेषु च, सर्वभूतेषु (प्राणिषु) आत्मनि च समतागुणं धारयति ।
किञ्च - लोके विद्यमानेषु विविध - द्रव्येषु साधवः त्यागिन: अहंकारं (मदं), ममकारं (मोह) च कदापि न कुर्युः । अहंकोरण ममकोरण च सत्यज्ञानस्य चारित्रस्य च नाशः भवति । मानवानां मदमोहौ (रागद्वेषौ) मुक्ति साधनायां विध्नं कुरुतः । उदारपरमेश्वरस्य ध्यानं विना हि मानवा: उदारा: न भवितुं अर्हन्ति। उक्तंच
यावत: कुरुते जन्तु: सम्बन्धान मनस: प्रियान्। तावन्तोऽपि विलिख्यन्ते, हृदये शोक शङ्कवः ॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सत्संगति: (सतां सद्भिः संग कथमपि हि पुण्येन भवति)
गुणानां ग्रहणाय दोषाणां च परित्यागाय सत्संगते: आवश्यकता भवति अथवा दुर्जनानां बहिष्काराय सज्जनानां च रक्षणाय सत्संगते: महती आवश्यकता मानवानां कृते सर्वदा भवति ।
सतां संगति: इति सत्संगति: अथवा सद्भिः = सज्जनै: सह संगति: इति सत्संगति: इति सत्संगति शब्दस्य तात्पर्यम् । सत्संग: नराणां कृते सर्वदैव स्वपरकल्याणं करोति । मानवा: धनार्जन प्रभृति लौकिक कार्येषु निमग्ना: सन्त: साधारणं जीवनं यापयन्ति, तत्र जीवनजागृति: विवेकः चातुर्यं धर्मप्राप्ति: सत्संगति प्रभावेणैव भवति । जीवनस्य समुन्नति: शुद्धिश्च सज्जनानां गुणैः संजायते । सज्जन प्रभावेण हीन वर्णोऽपि जन: महान्पूज्य: भवति उक्तं च यथोदयगिरे: द्रव्यं सान्निकर्षेण दीप्यते । तथा सत्सन्निधानेन हीनवर्णोऽपि दीप्यते॥
तत्वज्ञानशोभिता: सन्त: निजात् भिन्न किञ्चित् अपि वस्तु स्वार्थरूपेण न कामयन्ते, अपितु लोक हितायैव तस्योपयोगं कुर्वन्ति । स्वहस्त स्थितमपि वस्तु धनं वा आत्मीय न मन्यन्ते । एतादृशां सतां संगति: दर्शनं वा पुण्येन भवति । यदा कस्यचित् पुरुषस्य भाग्योदय: जायते तदा सज्जनानां दर्शनने तस्य मानसे काचिद् अपूर्वजिज्ञासा प्रभवति, कल्याण कामना वा उदेति। तत: परंस स्वयमेव पुरुषार्थेन संयमेन सत्याचरणेन ब्रह्मचर्येण वा समाचरन् लोक श्रेष्ठ: भवति । नीति कारेण कथितम् -
कीटोऽपि सुमन: सङ्गदारोहति सतां शिर:
अस्मापि याति देवत्वं, महद्गिः सुप्रतिष्ठित: ॥ यथा सूर्यप्रकाशः स्वभावत: लोकोपकाराय भवति, तथैव सत्पुरुषसङ्गेन, तेषां ज्ञानगुणेन वा, न पुन: एकस्य द्वयोः त्रयाणां वा कल्याणं भवति किन्तु सकलभुवनस्य कल्याणं भवति । तथाहि - श्रीगौतम बुद्ध: स्वजीवनकाले अधिकान धर्मसंघान्स्थापयित्वा बौद्धभिक्षूणां कल्याणं अकरोत् । श्री बुद्ध महोदस्य दैनिकेन धर्मोपदेशेन भारतस्य सर्वक्षेत्रेषु ज्ञान प्रकाशः अभूत ।
__ श्रीकृष्णस्य गीताधर्मोपदेशेन न केवलं श्री अर्जुनस्य मोह: विनष्ट: अपितु भारतदेशे विदेशेषु च लोककल्याणस्य सर्वश्रेष्ठमार्ग: प्रसारित:।
श्री शंकराचार्यस्य प्रभावकोपदेशेन देशे विदेशे च जनहिताय वेदान्त संस्कृते: धारा प्रवाहिता । स: शंकराचार्य: भारतं अखण्डं विधातुंभारतस्य चतुर्दिक्षु विश्वविद्यालय रूपान मठान् स्थापितवान्।
विवेकानंद गांधी प्रभृति नेतृणां ज्वलन्तप्रभावेण देशे विदेशे च अहिंसा सत्यं च मानवहिताय पशुरक्षणाय च प्रदर्शितम्।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सप्तर्षीणां संगत्या वाल्मीकि: मिथ्यामार्ग त्यक्त्वा स्वयमेव ऋषिदीक्षां स्वीकृतवान् । एभिः दृष्टान्तै: सत्संगति प्रभाव: प्रसिद्धः भवति । व्यासेनकथितम् -
यथा गंगा मनुष्याणां पापनाशस्य भाविनी ।
तथा मन्दसमुद्धारस्वभावा: साधवः स्मृताः ॥ सत्संगति प्रभावेण मूर्खजनोऽपि सदाचारी ज्ञानी च भवति । स स्वकर्तव्यपालने समर्थ: भवति । उक्तं च - काचः कांचन संसर्गाद्धत्ते मारकती द्युतिम् । तथा सत्सन्निधानेन मूों याति प्रवीणताम् ।
कुसंगति प्रभावेण सदाचारी शिक्षितोऽपि मानव: दुरचारी दुष्ट: भवति । तस्य बुद्धि: हित- कार्य परित्यज्य पापकार्य करोति । नीतिकारैः कथितम् -
मुखेनैकेन विध्यन्ति, पादमेकस्य कण्टका: ।
दूरान्मुखसहस्रण, सर्वप्राणहरा: खला: ॥ यथा च गुणिनां संगेन दोषयुक्तोऽपिजन: दोषं त्यक्त्वा गुणी भवति । तथैव गुणी जन: अपि दुष्ट - पुरुष संगत्या गुणं त्यक्त्वा दोषं युक्त: जायते, तस्यबुद्धि: भ्रष्टाभवति: । प्रोक्तं च - गुणा गुणज्ञेषु गुणा: भवन्ति, तेनिर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः । आस्वाद्यतोयाः प्रभवन्तिनद्यः, समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः।
मानवः यादृशानां पुरूषाणां संगतिं करोति स तादृश एव भवति । हृदयस्योपरि संगत्याः प्रबल प्रभावो भवति । बालकस्य कोमलं शरीरं मस्तकं च भवति, स: यादृशैः बालकै: सह पठिष्यति, क्रीडिष्यति, गमिष्यति स तादृश एव भविष्यति । दुष्टबालकै: सह अनेका: हानय: जायन्ते । दुराचारिणा सह दुराचारी, सदाचारिणा सह सदाचारी, द्यूतकारिणा सह द्यूतकारी, मदिरा सेवकेन सह मदिरासेवी भवति । दुर्जनसंगत्या मानवस्य शिक्षितस्यापि प्रशंसा न भवति । सर्वत्र अनादर एव दृश्यते । अत: गुण ग्रहणाय श्रेष्ठ मानवानां संगति: कर्तव्या । गुणिना सह नियमेन गुणा: प्रकटी भवन्ति । कविना प्रोक्तम् -
जाडयं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यम, मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेत: प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिम् , सत्संगति: कथय किं न करोति पुंसाम्॥
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कृतित्व/संस्कृ
काव्यस्य आत्मा ध्वनिः
शब्दार्थ शरीरस्य काव्यस्य अनुप्राणकेन केनचित् आत्मना भवितव्यमेव इति काव्य जीवनस्य अन्वेषणे कृते, वामनाचार्यः रीतिं, कुन्तकाचार्य: वक्तोक्तिं, क्षेमेन्द्राचार्य: औचित्यं, आनंद वर्धनाचार्यश्च ध्वनिं - कथितवान् । अथ कोऽयं ध्वनिः इति विचार: सर्वप्रथमं विज्ञानां मनसि समुदेति । श्री मम्मटाचार्येण स्वविरचिते काव्य प्रकाशग्रन्थे ध्वनिलक्षणं कथितम् -
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
“इदमुत्तममतिशायिनि व्यङ्ग्यवाच्याद्ध्वनिर्बुधैः कथितः”
भावार्थ:-काव्ये प्रायः द्वौ अर्थौ प्रसिद्धौ - वाच्यार्थ : व्यङ्ग्यार्थश्च । परं यत्र वाच्यार्था पेक्षया व्यंग्यार्थः चमत्कारी भवति तत्र व्यंग्यार्थस्य प्राधान्ये सति प्रधान व्यंग्यार्थस्य 'ध्वनि' इति नाम भवति ।
ध्वनि सिद्धांत प्रतिष्ठापकेन आनंद वर्धनाचार्येण स्वरचिते ध्वन्यालोके ग्रन्थे ध्वनिलक्षणं प्रोक्तम् - यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनी कृतस्वार्थौ ।
व्यङ्कतः काव्यविशेष: स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः ॥ 13 ॥
भावार्थ: - यत्र अर्थः स्वयं अथवा शब्द: स्वार्थं गुणीभूतं कृत्वा तं प्रतीयमानं अर्थं व्यक्तं करोति, तं काव्य - विशेषं 'ध्वनि' इत कथयन्ति विद्वांसः ।
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यद्यपि प्रतीयमाने व्यंग्ये अर्थे मनोहरत्वं सिद्धं तथापि काव्ये व्यंग्यार्थसद्भावेनैव न सर्वत्र ध्वनिव्यवहारः, परं यत्र वाच्यार्थापेक्षया व्यंग्यार्थस्य प्राधान्यं तत्रैव प्रधान व्यंग्यार्थस्य 'ध्वनिः' इति व्यवहारः प्रसिद्धः । स ध्वनि: उत्तम काव्यं कथितम्
यत्रच व्यंग्यार्थापेक्षया वाच्यार्थस्य प्राधान्यं न विद्यते व्यंग्यार्थस्य गौणता विद्यते न तत्र ध्वनि व्यवहार:, अपितु गुणीभूत व्यंग्यनामकं मध्यम काव्यं कथितम् ।
यत्र च काव्ये अलंकारस्य प्राधान्यं विद्यते, तत् अलंकार प्रधानं काव्यं जघन्यं काव्यं कथितं । एवं काव्यस्य त्रयः भेदा: उत्तमं मध्यमं, जघन्यं च । यद्यपि प्राचीनाचार्या : अलंकार गुणरीति - लक्षणानि ग्रन्थेषु जगदु:, तथापि तानि सर्वाणि प्रधान ध्वनि काव्यस्य साधन भूतानि सन्ति, सौन्दर्य कराणि च अङ्गानि शोभन्ते । ध्वनिकाव्यं त्रिविधं - 1 वस्तुरूपं, 2 अलंकाररूपं, 3 रसरूपं । क्रमशः तेषां लक्षणं कथ्यते
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रसालंकारादिभिन्नं अर्थं वस्तु, तस्य व्यंग्यत्वे प्राधान्ये च वस्तु ध्वनिः भवति । यथा गुञ्जन्ति मञ्जु परितो, गत्वा धावन्ति सम्मुखम् । आवर्तन्ते विवर्तन्ते सरसीषु मधुव्रताः ॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (2) उपमादीनां प्रसिद्धानां अलंकाराणां व्यंग्यत्वेन प्रतीतौ तत्प्राधान्ये च अलंकार ध्वनि: भवति। यथा -
दिशि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि ।
तस्यामेव रद्यो: पाण्ड्या : प्रतापं न विषेहिरे ॥ (3) शृंगार वीर प्रभृतीनां रसानां काव्ये सदा ध्वनिरेव भवति, न तु स्वशब्देन कथनं भवति । अतो रसाः व्यंग्या एव न वाच्या: । रसव्यंग्यत्वे सति यत्र काव्ये प्रधानत्वेन शृंगारादिरसप्रतीति: तत्र रस ध्वनिः । यथा -
ग्रामरुहास्मि ग्रामे वसामि नगर स्थितिं न जानामि ।
नागरिकाणां पतीन् हरामि या भवामि सा भवामि ॥ व्याकरणरीत्या ध्वनि पदस्य व्युत्पत्ति:ध्वनति इति कर्तृव्युत्पत्त्या ध्वनि: शब्द: अर्थो वा, शब्दार्थ युगलं काव्य रूपं वा।
ध्वननं इति भावव्युत्पत्त्या ध्वनि: शब्दार्थ व्यापार: ।
ध्वन्यते इति कर्मव्युत्पत्त्या व्यंग्य: अर्थ: ध्वनिः ॥ ध्वनिसंज्ञाया: पञ्चसु अर्थेषु प्रयोग: -
__ 1 शब्द ध्वनिः। 2 अर्थध्वनिः । 3 शब्दार्थ ध्वनि: । 4 व्यंग्यार्थ ध्वनि: । 5 शब्दार्थ समूह काव्य ध्वनि:॥ ध्वने: मूलभेदा: उत्तरभेदाश्च: - ध्वनेः मूलभेदी द्वौ - 1 अविवक्षितवाच्य -
2 विवक्षितान्य परवाच्य अविवक्षितवाच्यस्य द्वौ भेदौ - 1 अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य -
भेद 2 अत्यंन्ततिरस्कृत वाच्य - विवक्षितान्य परवाच्यस्य द्वौ भेदौ
1 असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य -
2 संलक्ष्यक्रमव्यंग्य - संलक्ष्यक्रमव्यंग्यस्य भेदा : त्रय: -
1 शब्द शक्ति समुत्पन्न ध्वनि - 2 भेद 2 अर्थशक्ति समुत्पन्न - 12 भेद
1 भेद
1 भेद
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 3 शब्दार्थ शक्ति समुत्पन्न - 1 भेद 15+3= 18 ध्वने: भेदाः।
15 भेद ध्वनि: काव्यस्य आत्मा प्रसिद्ध: । ध्वनि सम्प्रदायस्य जन्म भारते ध्वनि प्रतिष्ठापकेभ्य: श्री आनंद वर्धन प्रभृति विज्ञेभ्यः पूर्वं अभवत् । ध्वनि- सिद्धांत प्रतिपादक: ध्वन्यालोकग्रन्थः युगप्रवर्तकः आसीत् । सर्वकाव्यांगानां रसालंकार गुणादीनां हि ध्वनि सिद्धान्तेन सह सम्बंध: विद्यते। ध्वनि: काव्यस्य सर्वांगपूर्ण सिद्धांत: प्रसिद्धः । वैयाकरणानां स्फोट सिद्धान्तेन ध्वनिसिद्धांतस्य प्रसार: अभूत् । श्रीभर्तृहरिणा कथितम् -
य: संयोग वियोगाभ्यां करण रूप जन्यते ।
स स्फोट: शब्दज: शब्दो ध्वनिरित्युच्यते बुधैः ॥ - पश्चिम देशस्य प्रथम दर्शनाचार्य: श्री प्लेटो महोदया: अनुकृति रूपं काव्यं वदन्ति । इदं खलु काव्यं भौतिक पदार्थानां तद्घटनानां वा अनुकरणं (अनुरणन) करोति । अस्मिन्काव्य - लक्षणे अभिव्यक्तिवादस्य तथा स्फोटवादस्य आभासः प्राप्नोति । अनेन ध्वनिसिद्धांतस्य समर्थनं प्रेरणा च सम्प्राप्नोति । अत: ध्वनि - काव्यं लोके व्यापकं सिध्यति ॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
ब्रह्मचर्यस्य महत्त्वम्
दुराचारेण मानवजीवनस्य पतनं भवति । यत: पञ्चेन्द्रियाणां विषयाणां पोषणेन आत्मनः प्रवृत्तिः कल्याणमार्गे न जायते अपितु कुमार्गे एव जायते । पञ्चेन्द्रियविषयसेवनेन आत्मनः शुद्धिः कदापि न भवति। अत:आत्म शुद्धये दुराचारपरिहाराय च ब्रह्मचर्यस्य यतीनां गृहस्थानां च कृते महीतले महती भवति आवश्यकता
ब्रह्मणिचर्या प्रवृत्ति: यस्मिन्व्रते भवति तत् ब्रह्मचर्य व्रतं कथ्यते। व्यवहारे यत्र कषायपूर्वकं मैथुनत्याग: विषय सेवनत्यागो वा शरीरशक्ति संरक्षणं वा ब्रह्मचर्यमिति कथ्यते।
ब्रह्मचर्यव्रतस्य सामान्येन प्रकारद्वयं अस्ति । प्रथमं ब्रह्मचर्यमहाव्रतं, द्वितीयं तु ब्रह्मचर्याणुव्रतं । तत्र मनसा वाचा कर्मणा कृतेन कारितेन अनुमोदनेन च पञ्चेन्द्रिय विषयसेवनस्य त्यागं कृत्वा आत्मस्वभावस्य साधना संरक्षण वा ब्रह्मचर्यमहाव्रतं कथ्यते । दिगम्बर मुनयः खलु अस्य परिपालनं कुर्वन्ति ।
पञ्चेन्द्रियविषयाणां मनसा वाचा कर्मणा स्थूल रीत्या त्याग: शारीरिकवीर्यसंरक्षण वा द्वितीय ब्रह्मचर्याणुव्रतं कथ्यते। व्यवहारे च धर्मानुकूलं विवाहं कृत्वा स्वदारसंतोषः परस्त्रीत्यागश्च ब्रह्मचर्याणुव्रतमिति वदन्ति विद्वांस : । अस्य व्रतस्य पालनं गृहस्थ: कुर्वन्ति।
लोके शास्त्रे चास्य व्रतस्य दीर्घमहत्त्वं प्रसिद्धम् । भृगुकच्छनगरे प्राचीन काले श्रीमती नीलीसती श्रीजिनदत्तश्रेष्ठिन: पुत्री शीलवती बुद्धिमती सौन्दर्य सम्पन्ना चासीत् ॥
भाग्यवशात् तस्या: विवाहो अभूत् सागरदत्तवैश्यपुत्रेण बौद्ध धर्मधारिणा साकम् । स: सागर दत्त: सदा बौद्ध धर्मधारणाय नीलीसती प्रति प्रयासंचकार, तथापि नीलीसती दृढश्रद्धया जैनधर्मात्परिभ्रष्टा-नाभूत्। एकदा सागरदत्तस्य गृहे नीलीसती बौद्धसाधूनां परीक्षांकृतवती। यस्या परीक्षानां ते सर्वे लज्जिता: पराजिताश्च बभूवुः । धार्मिक द्वेषकारणात् तत्कुटुम्बिभि: नीलीसतीसम्बन्धे कुशीलकलङ्कः समारोपितः ।
एतस्य: विपत्ते: काले श्रीनीली श्रीजैन मंदिरे भावपूर्वकं जिनेन्द्रदेवस्य स्तुतिमकरोत् । तदा तत्प्रभावात् नगरदेव्या तस्यै सत्यै सान्त्वना प्रदत्ता । नगरदेवी रात्रौ एव नगरस्य मुख्यद्वारं कपाटै: आवृतं करोतिस्म । तया च राजा स्वप्न माध्यमेन संसूचित: यत् श्वः प्रात:काले कस्याश्चित् शीलवत्याः धर्मप्रभावेणैव नगरद्वारस्योद्घाटनं भविष्यति नान्यथेति । द्वितीयदिवसे प्रात:काले नगरस्य सर्वाभि: नारीभिः कृतप्रयत्नाभि: नगरद्वारस्य उद्धार नं नैवाभूत् सर्वेजना: आश्चर्य निमग्ना: तत्प्रतीक्षां कृतवन्त: । तदा श्रीमत्या: नीलीसत्या: स्व हस्तयो; स्पर्शमात्रेण नगरद्वारस्य शीघ्रमेव समुद्घाटनं सञ्जातम् । एतन्माहात्म्यं दृष्ट्वा सर्वे नागरिका: जिनेन्द्रदेवस्य जयध्वनि नीलीसत्याश्च जयध्वनि अकुर्वन्।
सर्वे कुटुम्बिनः श्रीनीलीसत्याः शीलप्रभावं दृष्टवा पश्चातापं कृतवन्त: । तै: सर्वे: बौद्धधर्म परित्यज्य जैनधर्मविषये दीक्षा गृहीता । एवत्सर्वो ब्रह्मचर्यस्यैव प्रभाव: लोके शास्त्रे च प्रसिद्ध: । अत: आत्मकल्याणाय जीवनशुद्धि विधानाय च सर्वैः मानवैः सदा ब्रह्मचर्यव्रतस्य यथाशक्ति साधनं कर्तव्यमिति । जैनशास्त्रैसु कथितं च - "ब्रह्मचर्य परं तीर्थं पालनीयं प्रयत्नतः' इति ।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आचार्य ज्ञानसागरस्य व्यक्तित्वं कृतित्वं च
गतसमवत्सरे जबलपुर सन्निकटे श्री पिसनहारी मदिया क्षेत्रे, ससंघस्य सूरिप्रवरस्य श्रीविद्यासागर महाभागस्य सन्निधाने, श्री श्रीषट्खण्डागमस्य स्वाध्याय शिविरस्य शुभावसरे, येषां गुरुवराणां अष्टोत्तरशत श्री विभूषितानां ज्ञानसागराचार्यवराणां समाधि दिवसस्य महोत्सवस्य सम्पन्नता समभूत, तेषामेव पूज्याचार्य प्रवराणां नवमसमाधि दिवसस्य महोत्सवः समवत्सरेऽस्मिन्नपि मध्यप्रान्तीय सागरस्य श्रीगणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालयस्य वर्णीभवनस्य प्राङ्गणे, 2508 श्री वीरनिर्वाणसंवत्सरे, श्रीविद्यासागर मुनिराजस्य सान्निध्ये, तृतीयस्य षट्खण्डागमस्वाध्याय शिविरस्य पुनीतवेलायां, समारोहेण विधीयते - इति परमप्रमोदः।
__ पञ्चेन्द्रियविषयरिक्तानां ज्ञानशीलानां गुरुवराणां संगतिः सदुपदेश: स्मरणं भक्ति:वैयावृत्यं प्रणामश्च सर्वेषां मानवानांकृते कल्याणकारकं भवति, अतएव श्रीविद्यासागरमहाभागस्य गुरुवराणां, अस्माकं सर्वेषां 'गुरुणां गुरुः' इति पदविभूषितानां स्वर्गीय ज्ञानसागर मुनिराजानां स्मरणं भक्ति: श्रद्धाञ्जलिश्च मानवानां हितायसाम्प्रतं परमावश्यकं भवति इति हेतो: समाधिदिवसस्य मान्यता विधीयते । भौतिकव्यक्तित्वम्
__1951 विक्रमाब्दे माघमासे येन बालके न स्वसार्थकजन्मना राजस्थान प्रदेशस्य सीकर मण्डलान्तर्गतराणोलीग्रामो विभूषायाञ्चक्रे । 'भूरामल' इति प्रथमाभिधानेन चतुर्भुजनामधेय: पितृमहोदय:, घृतवरीदेवी भारत जननी च प्रमोदवती विहिता, स्वशरीर सौन्दर्येण मधुरवचनेन च खण्डेलवालान्तर्गतं छावड़ागौत्रं अलंचक्रे । स्वप्रतिभाविशेषेण स्वकीयपंचसहोदरा: गौरवान्विता: कृता: । मानवसमाजस्यभूषण: स बालकः धन्यः आसीत्।
1959 विक्रमाब्दे अशुभकर्मोदयाद् भवत: पितृमहोदयस्यासमये एव निधनं सज्जातम् ग्रामस्य पाठशालायां प्रारंभिक पठनं विधाय, स: प्रतिभाशाली बालकः स्वज्येष्ठ मातृस्वीकृतिं सम्प्राप्य वाराणसीनगस्य भदैनीघट्टस्थिते श्रीस्याद्वाद जैन महाविद्यालये विशेषाध्ययन-हेतो: प्रवेशंसमप्राप्तवान्। निजकुटुम्बस्यार्थिक परिस्थिते: हीनत्वात् स छात्र: महाविद्यालयस्य पठनशुल्कप्रदानेऽभूदसमर्थः, अतएव स्वकीयमतिना गंगायाः विशालघट्टेषु वस्त्राणिविक्रीय तदुपार्जितवित्तेन संस्कृत पठनादिव्ययस्य यथायोग्यं पूर्तिमकरोत् एवं प्रतिभा सम्पन्न: स छात्र: संस्कृतसाहित्याध्ययनेऽभवदतीव श्रमेण संलग्न: छात्रव्यक्तित्वम् - नीतिज्ञानांमतम्
पठन्ति विद्यार्थिगणा: श्रमेण, ग्रन्थं सहन्त: कठिनां विपत्तिम् । भजन्ति ते तत्फलमात्तसौख्याः, विपत्तिरेवाभ्युदयस्य मूलम् ॥1॥ विशयर्थ
छात्रा:पूर्वं कष्टसहस्त्रं सहन्त: परिश्रमेण क्लिष्टग्रन्थान् पठन्ति, पश्चात् ते पठनफलं आत्मसौख्यं
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भजन्ति । अतएव नीतिः प्रसिद्धा जीवने विभिन्नकष्टानुभवनमेव समुन्नते: मूलकारणम् । इति नीत्यनुसारेण भूरामलनामधेयेन छात्रेण, मनसा वाचा कर्मणा आत्मश्रद्धापूर्वकं न्यायव्याकरणसाहित्य सिद्धांतादिविषयाणां सम्यगध्ययनं विधाय शास्त्रिपरीक्षा समुत्तीर्ण । यद्यपि विप्रपाठका: जैन दर्शनग्रन्थानां पाउने रुचिपूर्णा: नासन् तथापि अनेनैव भूरामलच्छात्रेण प्रेरणां प्राप्य जैनदर्शनपाठने श्रमशीला: उत्साहिनश्च भवन्तिस्म ।
एकदा खलु सहपाठिन: जैनेतरच्छात्राः केचिद् जैन दर्शनविषयेऽवर्णवादं चक्रुः, तदैव तान्प्रति जैनदर्शनस्य महत्त्वं प्रतिपाद्य कठोर प्रतिज्ञां अकरोत् - "यदहं जैनदर्शनस्यैव न्यायव्याकरणसाहित्यसिद्धान्तग्रन्थानधीत्य प्रशस्तसंस्कृत जैन साहित्यस्य निर्माणं विधास्यामि" | तत्समयादेव छात्रोऽयं तत्प्रतिज्ञाया: सफलीकरणे समुद्यतोऽभूत्।।
__ भवत: संस्कृतपठन समये सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयस्य (पूर्वनाम - गवर्नमेंट संस्कृत क्विन्स कालेज - इत्यस्य) नियतपाठ्यक्रमे तथैव बंगीय संस्कृत शिक्षा परिषद् कलकत्ता - इति शिक्षा संस्थायाः पाठ्यक्रमे जैनदर्शनस्य विविधविषय ग्रन्थानां नियुक्ति: अभावस्वरूपाऽसीत् इत्येवं विचारणीयां हीन परिस्थितिमवलोक्य, सहयोगिभि - साधं समुचितपुरुषार्थं कृत्वा प्रोक्तशिक्षासंस्थयो: पाठ्यक्रमेषु जैन दर्शनग्रन्थानां नियुक्तिं कारितवान् भवान् श्रीभूरामलस्नातकः । प्रतिज्ञा चाकार्षीत् जैनदर्शनग्रन्थानां विकासाय प्रसाराय प्रकाशनाय प्रचाराय च।
अध्ययनसमाप्तिसमनन्तरं वाराणसीत: स्वनिवासस्थानं राणोलीग्रामं सम्प्राप्य जीवन निर्वाहाय व्यापारं चकार श्री पं. भूरामलमहोदय: अकरोच्च स्थानीय जैन पाठशालायां जैनधर्मप्रसाराय धार्मिक शिक्षणं नि:शुल्करूपत्वेन । आध्यात्मिक व्यक्तित्वम्
आसीद् भवत: मानसे जैनदर्शनविषयाणामध्ययनस्य तीव्रभावना । अतएव स्याद्वाद्महाविद्यालये संस्कृतपठनवेलायामेव जैनदर्शनस्य न्यायव्याकरण साहित्यसिद्धान्तग्रन्थानां पठनं विद्वत्प्रवरात् श्री अम्बादासशास्त्रि महोदयात्समीचीनत्वेन सोत्साहत्वेन च भवता विहितम् । ये च अम्बादासशास्त्रिमहाभागाः, विप्रविद्वत्सु श्रेष्ठा: जैनदर्शनवेत्तार: संस्कृतादिभाषाविज्ञा: उदारचेतस: आसन् भारते प्रसिद्धाः। ते च श्रीगणेश प्रसाद वर्णिमहाभागस्यापि गुरुवरा: प्रसिद्धा: । तैश्च गुरुवरै: बहव: जैनच्छात्रा: सुशिक्षिता: जैनदर्शनविषये । पं. श्रीभूरामलशास्त्रिमहोदय: काशीत: स्वग्राम समागत्य जीवन निवहिण साकं जैनदर्शन शास्त्राध्ययनने सततं अभूत्संलग्न: । स्थानीय जैनपाठशालायां शिक्षणकार्येण सह संस्कृत साहित्य ग्रन्थरचनायामपि करोति स्म श्रीगणेशम् । समयेऽस्मिन् तरूणदशायां विवाह सम्बन्धिनी कुटुम्बिजनकृतां प्रेरणां इतराणि च निमित्तकारणानि बहिष्कृत्य जीवन पर्यन्तं प्रशस्तं ब्रह्मचर्य व्रतं प्रतिज्ञातवान्। द्रव्योपार्जनव्यापारमपि परित्यज्य स्वपरकल्याणे विध्धे समुन्नतिम् । जैनदर्शनस्य विशेषज्ञानं सम्प्राप्तं धवलादिप्रशस्त टीकाशोभितं श्रीषट्खण्डागर्म समधीत्य स्वात्मज्ञानवृद्धिं कृतवान् अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी अयंखलु पं. भूरामलशास्त्री महोदयः श्री समन्तभद्राचार्य विरचितं श्लोकम् आत्माभावना विषयं चक्रे
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मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान | रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥
अथवा नीतिश्लोकमिमं पुन: पुन: विचारितवान् - "ज्ञानं भारः क्रियां विना " । इत्येवं सर्वं तत्त्वं समप्रधार्य भवान् 2004 विक्रमाब्दे ब्रह्मचर्य प्रतिमारूपं नैष्ठिकव्रतं, 2012 विक्रमसम्वत्सरे क्षुल्लकदीक्षाव्रतमंगीचकार । तदनन्तरं 2014 विक्रमाब्दे, श्री 108 पूज्याचार्यवरात् शिवसागर मुनिराजसकाशात् जयपुरराजस्थानान्तर्गते खानियाक्षेत्रे दिगम्बर जैनयति दीक्षामंगीचक्रे, भवत: प्रचुरज्ञानं संवीक्ष्य तद्नुरूपं दीक्षागुरुघोषितं "ज्ञानसागर" इति प्रसिद्धमभूतद्भिधानम् । यतिधर्मानुष्ठानाय भवताऽष्टाविंशतिमूलगुणाः तदुत्तरगुणाश्च मनसा वाचा कर्मणा परिपालिताः । प्रजाहिताय स्याद्वादहिंसा सिद्धांतप्रचाराय च भवता भारतीय नगरेषु ग्रामेषु च पदयात्रां विधाय शास्त्रप्रवचनं सार्वजनिक - भाषणं च चक्रे । अजमेर - उदयपुरप्रभृतिनगरेषु चातुर्मासयोगं संधार्य धार्मिककर्त्तव्ये विविध समाजाः सम्बोधिताः ।
I
'नसीरावादनगरे (राजस्थान) 1969 ईशाब्दे श्रीविवेकसागरत्यागिने मुनिदीक्षाप्रदानानन्तरं जनसभायां आचार्यपदमलञ्चक्रे | भवतः अगाधपाण्डित्यप्रचण्ड तपस्या- वक्तृत्वकला - दैनिकचर्या इत्येषां गुणानां प्रभावः जनतासु, विद्वत्सु, त्यागिषु, छात्रेषु शिक्षकेषु चाभवद्व्यापकत्वेन ।
1968 ईशवीयाब्दे अजमेरनगरे दक्षिणवास्तव्येन ब्रह्मचारिणा श्रीविद्याधरमहोदयेन महापुण्योदयात्खलु श्री 108 आचार्यप्रवरस्य ज्ञानसागर महाराजस्य प्रथमदर्शनं प्रशस्तसान्निध्यं च सम्प्राप्तम् । पितृपुत्र तुल्यं उभयोरभूत् यथार्थ गुरुशिष्य संयोगः । श्री ब्र. विद्याधरेण मनसि भावना विहिता -
गुरवः पान्तु नो नित्यं ज्ञानदर्शननायकाः | चारित्रार्णवगम्भीरा मोक्षमार्गोपदेशकाः ॥1 ॥ इति
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
एवं विचार्य श्रीविद्याधर ब्रह्मचारिणा श्री 108 आ. ज्ञानसागरस्योपदेशत: शुभ-मुहूर्ते संसारसागरतारिणी दिगम्बरमुनिदीक्षाऽङ्गीकृता । तीक्ष्णबुद्धिशाकिनं सच्चरित्रं स्वस्थं योग्यशिष्यं सम्वीक्ष्य श्री गुरुमहामान्याः पञ्चवर्षेषु हिन्दी संस्कृत प्राकृत कन्नड प्रभृति भाषामाध्यमेन जैन सिद्धांत व्याकरणन्याय साहित्यविषयाणां अकारयन्सम्यग्ज्ञानमिति । यदा दीक्षाकाले श्री विद्यासागर महोदय: पट्टशिष्यः द्वाविंशतिवर्षवयस्क: दृष्टः तदा श्री ज्ञानसागराचार्यवरस्य वयः पञ्चसप्ततिवर्ष प्रमाणमासीत् । अस्यां वृद्धावस्थायामपि श्रीगुरुवरस्य अनुशासनं विद्यादानं दृढतरं परिलक्षितम् । सावधानतया श्री विद्यासागरप्रमुखशिष्येणापि श्री गुरुवरस्य वैयावृत्तिः प्रतिदिनं सम्पादिता ।
वृद्धावस्थायां आचार्य प्रवरस्य ज्ञानसागरस्य उत्तरोत्तर - शारारिक शैथिल्यानुभवात् जीवनान्ते समाधि साधनमभूदावश्यकम् । प्रोक्तं च समन्तभद्राचार्यैः
अन्तः क्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्यावद् विभवं, समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥
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कृतित्व / संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
अतएव नसीरावाद नगरे 22 नवम्बर मासे 1972 खिष्टाब्दे विशाल सभामध्ये श्री ज्ञानसागर मुनिराजेन आचार्यपद त्यागः, श्री विद्यासागर मुनिराजेन आचार्य पदग्रहणं इत्यनयो: पदपरिवर्तनयोः विचित्रदृश्यं समुपस्थितमानवैः साक्षात् समवलोकितम् । तथाहि - आचार्य ज्ञानसागरैः विनम्र - शब्देषु पट्टशिष्यं श्री विद्यासागरं प्रति सभामध्ये निवेदितमिंद वाक्यम् - "शरीरमिदं क्षणिकं शनै: शनै: हीयते, साम्प्रतहं निर्मोहं आचार्यपदं तुभ्यं समर्घ्यं कर्तुमिच्छामि सुरीत्या जीवनान्ते समाधि - साधनं आत्मकल्याण, जैनागमानुसारेण कर्त्तव्यमिदं परमावश्यकं समुचितं विद्यते" इति एवं कथयन्नाचार्य प्रवरः स्वासनादुदतिष्ठत् । अधस्तनासने उपविशन्तं श्री विद्यासागरं प्रधान शिष्यं, स्वस्य उच्चासने उपवेश्य संघाचार्यपद प्रदानस्य स्वाचार्य पद परित्यागस्य च विधिं जैन शास्त्रोक्तरीत्या सम्पाद्य तत्रैवाधस्तनासने समुपाविशत् । जैन शास्त्रानुसारेण गुरुशिष्यानुशासनं प्रकृष्ट विनयभावं चावलोक्य समुपस्थित विशाल जनसमाजस्य जयघोषैः ध्वनितः स प्रदेश: । तदनन्तरं श्री ज्ञानसागरमुनिराजेन, श्री 108 आचार्य विद्यासागर महाराज प्रति स्वासनादुत्थाय सविनयं निवेदितं - आचार्य श्रीः भवतां चरणसान्निध्ये विदधातुमिच्छामि जीवनान्ते समाधिग्रहणं अनुग्रहं कुर्वन्तु भवन्तः इति श्रुत्वा आचार्य विद्यासागर महाभागा: श्री ज्ञानसागरमुनिराजस्य समाधिविधाने समुद्यताः अभूवन् । गुरुशिष्य परम्पराया: आदर्शोऽयं प्रत्यक्षसम्पन्न: अपूर्वं सत्यरुपेण सर्वैः परिदृष्टः ।
श्री ज्ञानसागरस्य मुनिराजस्य अतिशारीरिक शौथिल्यं संवृत्तम् । तथापि समाधिसाधने सावधानत्वेनाभूत् समुद्यतः । आचार्य विद्यासागर महामान्या: श्री ज्ञानसागरस्य वैयावृत्तिं कुर्वन्तः विधिपूर्वकं जीवनान्तिमक्षणे पुण्यसमाधिं सम्पादितवन्तः । सः दिवस: शुक्रवासर: दि. 1 जून मासीय: 1979 ईशवीयाब्द: इति प्रसिद्धः लोके । नसीरावादनगरे समाधिस्थले भक्तिपूर्णसमाजेन निर्मापित: रमणीय: स्मारक: । ज्येष्ठकृष्णा 15 fafer: 1
कृतिवैशिष्टयम्
वाराणस्यां विद्यासम्प्राप्तिसमनन्तरकाले पूर्वकृत संकल्पानुसारं साहित्य निर्माणे स्वाध्ययने पराध्यापने चातीव संलग्नचित्तः अभूत्पण्डित भूरामल शास्त्री विज्ञः । साहित्य निर्माणे स्वप्रतिभाबलेन सम्यग्ज्ञानबलेन च सततपौरुषं कुर्वन्नयं खलु संस्कृतवाण्यां हिन्दी भाषायां च प्रायः चतुर्विंशतिग्रन्थान् रचयति स्म आध्यात्मिक साहित्यिकविषयमाश्रित्य ।
(श्री पं. भूरामल शास्त्री महोदयस्य) साहित्यिक संस्कृत रचना गाम्भीर्यं समवलोक्याधुनिकानां वाराणसेय विज्ञानामियं धारणा श्रूयते यत् कालेऽस्मिन्नपि श्रीकालिदासमाघप्रभृतिसदृशविद्वांसः दृश्यन्ते इति प्रचुरप्रमोदस्य विषयः ।
1978 ईशाब्दे सुश्री किरण टाइन नामधेयया जैनेतर छात्रया " मुनिज्ञानसागर व्यक्तित्व और कृतित्व" इत्यस्मिन्विषये शोधप्रबंधः विरचितः । तत्स्वीकृत्य श्री कुमायूं - विश्वविद्यालय समित्या तस्यै छात्रायै 'पी.एच.डी.' उपाधि प्रदानं विहितं । श्री 108 श्री ज्ञानसागरमुनिराजानां चरणेषु सविनयं श्रद्धामाल्यं समर्प्यते इति ॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भारतीयदर्शनेषु जैन दर्शनस्य विश्वकल्याण कारकत्वं साधनीयम्
आर
प्रमाणैः युक्तिभिश्च -
भगवता महावीर तीर्थंकरेण जैनदर्शने महत्वपूर्ण: सिद्धांता: लोककल्याण कारका: सर्वोदयाश्च प्रतिपादिताः । तथाहि - (1) अहिंसा (2) अनेकांतवाद: (स्याद्वाद:) (3) अध्यात्मवाद: (4) अपरिग्रहवाद: (5) मुक्तिवाद: (कर्मवादः) (6) भावनाचतुष्टयम् ।इति ।
अहिंसासिद्धांत: - लोके सकल धर्मेषु अहिंसा धर्म प्रधानं लोक पूजितं च विद्यते, हिंसा सर्वपापेषु प्रधानं लोक निन्दितं च कथ्यते ।धर्म शास्त्रे कथितम् -
अहिंसा परमोधर्मः, तथाऽहिंसा परोदम: ।
अहिंसा परमंदानं, अहिंसा परमं तप: ॥ तात्पर्य - जीवदयामूल: धर्मः, इन्द्रियविजय आहारदानं, ज्ञानदानं, औषधदानं, जीवनदानं, इच्छानिरोध: तपश्च अहिंसा शब्देन प्रोक्त: । अहिंसा परिभाषा: -
क्रोधमानादिकषाय भावैः स्वस्य परस्य च शरीरादि द्रव्यप्राणानां. ज्ञानादि भाव प्राणानां च हिंसायाः परित्याग: अहिंसा कथ्यते । अहिंसाया: मूलभेदद्वयं - (1) अहिंसा महाव्रतं, (2) अहिंसा अणुव्रतं । अहिंसा महाव्रतं पंच विधं (1) अहिंसा महाव्रतं, (2) सत्यमहाव्रतं, (3) अचौर्यमहाव्रतं, (4) ब्रह्मचर्यमहाव्रतं, (5) परिग्रहत्याग महाव्रतं । एतेषां मनसा वाचाकायेन च परिपालनं श्रेष्ठसाधुभिः क्रियते। अणुव्रतं पंचविध - (1) अहिंसा अणुव्रतं (2) सत्याणुव्रतं (3) अचौर्याणुव्रतं, (4) ब्रह्मचर्याणुव्रतं (5)परिग्रह परिमाणाणुव्रतं च एतेषां योगत्रयेण परिपालनं गृहस्थजनै: (श्रावकै:) विधीयते । अत: अहिंसा धर्मेण सर्वलोकस्य हितं, शांति: सुरक्षा च भवति ॥ (2) अनेकांतवाद: (स्याद्वाद:)
परमागमस्य जीवं, निषिद्ध जात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां, विरोध मथनं नमाम्यनेकांतम्॥
___ (पुरुषार्थ सि. श्लोक 2) तात्पर्यम् - जन्मान्ध पुरुषाणां गज विवाद विनाशकं, नयमाध्यमेन वस्तुधर्म विरोध निर्णायकं, परमागमस्य प्रधानभूतं, व्यवहार संचालकं, अनेकांतवादं अहं प्रणमामि, येन सकल लोकेजनानां हितं, शांति: सुरक्षा च जायते ।
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कृतित्व / संस्कृत
(3) अध्यात्मवादः
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आत्म परिभाषा -
अस्ति पुरुषश्चिदात्मा, विवर्जित: स्पर्शगंधरस वर्णै: । गुणपर्यय समवेतः, समाहितः समुदयव्यय ध्रौव्यैः ॥
( पुरुषार्थ सिद्धि श्लोक 9)
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तात्पर्यम् - लोकेप्रत्येक प्राणिनां शरीरेषु आत्मा ज्ञानदर्शन शक्ति सम्पन्न:, स्पर्श रसगंध वर्णरहितः निश्चयेन अजरामरः, किन्तु व्यवहारेण चतुर्गतिषु जीवन जन्ममरणैः परिवर्तनशील : विद्यते । आत्मनः त्रयो भेदा: - (1) बहिरात्मा - मिथ्यादर्शन ज्ञानचारित्र सहित: जन्ममरण परिवर्तन सहित: । (2) अंतरात्मा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र साधक: मोक्षमार्गी तत्त्वसंवेदक: । ( 3 ) परमात्मा - ( 1 ) घातिकर्म रहित:, अर्हन् सर्वज्ञ: वीतरागी, हितोपदेशी च । (2) परमसिद्ध परमात्मा - अष्टकर्महीन : अष्टप्रधानगुण सम्पन्नः । (4) अपरिग्रहवादः • यः पदार्थः परितः आत्मानं बध्नाति दुःखी करोति स परिग्रहः, अथवा मूर्च्छापदार्थेषु मोहभावः परिग्रहः । स द्विविध: ( 1 ) बहिरंग परिग्रह: - रजतसुवर्णादिकः दशप्रकार: । (2) अंतरंगपरिग्रहः - मिथ्यात्व क्रोधादि कषायादय: चर्तुदश प्रकारा: 10 +14 = 24 भेदसहितः परिग्रह पापः । योगत्रयेण परिग्रहस्य परित्यागेन आत्महितं लोक हितं सर्व प्रजानां कल्याणं भवति । (5) मुक्तिवादः (कर्मवादः) - संवरनिर्जराद्वारेण ध्यानेन च कर्मसहित भव्यस्य समस्त कर्मनाशः तथा अष्ट गुणोदय: मोक्षः कथ्यते । बद्धकर्मणां भव्यात्मनामेवमोक्षत्वात् जैनदर्शनस्य सर्वोदय सिद्धांत: सार्थकः सफलश्चसिद्ध: । जैनदर्शने पुद्गलकर्मपरमाणूनां सत्ता सुखदुःखयोः संवेदनेन, जन्ममरणेन च ज्ञायते उक्तं च- 'बन्ध हेत्वभावनिर्जराभ्यां सर्वकर्मविप्र - मोक्षो मोक्ष: ।' (तत्वार्थ सूत्र अ 10 सू - 6) भावना चतुष्टयम् (1) मैत्रीभावना - लोके सर्वप्राणिषु दया सुरक्षापरिणामः । ( 2 ) गुणसम्पन्न पुरुषेषु श्रद्धा भक्ति सुरक्षा भाव: । (3) दीनदुःखिनां प्राणिनां कृते अनुकम्पा, परोपकार भाव: । (4) विरोधिनां द्वेषिणां मानवानां च कृते माध्यस्थ भावः उपेक्षा भावश्च, एवं उपरिकथितैः सिद्धांतै: जैन दर्शन स्य लोक कल्याण कारित्वं, वर्तमान काले उपयोगिता, विविध समस्यानां समाधानां च सिद्धम् ।
I
कुर्वन्तु जगतः शांतिं वृषभाद्या: जिनेश्वराः ॥
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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कृतित्व/संस्कृ
जैन दर्शने सर्वज्ञ सिद्धि:
मीमांसकाः चार्वाकाश्च प्रतिवादिनः कथयन्तियत् अस्मिन् लोके कश्चित् आत्मा सर्वज्ञः नास्ति । अतः अर्हतोऽपि सर्वज्ञत्वं न विद्यते । यतः अप्रसिद्धस्य पदार्थस्य क्वचिदपि केनापि सिद्धिः न भवति । अस्मिन्विषये जैनदर्शनकाराः वदन्ति सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः कस्यचित् आत्मन: प्रत्यक्षाः, अनुमेयत्वात्, अग्न्यादिवत् इति अनुमानात् सर्वज्ञ-सिद्धिः भवति । श्रीसमंतभद्राचार्येण कथितम्सूक्ष्मान्तरितदूरार्था: प्रत्यक्षा: कस्यचिद् यथा ।
I
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ संस्थितिः ॥
नास्ति ।
अर्थ: - सूक्ष्मा: स्वभावविप्रकृष्टाः परमाण्वादयः, अंतरिताः = कालांतरयुक्ता: रामचंद्रादयः, दूरदेशांतरयुक्ताः मेरूपर्वतादयः एते पदार्थाः कस्यचिद् आत्मन: प्रत्यक्षज्ञानविषयाः इति साध्यं । अनुमान विषयत्वात् इति हेतुः । अग्न्यादिः दृष्टान्तः । अग्न्यादौ अनुमेयत्वं कस्यचित्प्रत्यक्षत्वेन सह दृष्टं सत् परमाण्वादौ अपि कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं साधयति ।
ननु परमाण्वाद अनुमेयत्वमसिद्धम् इति चेन्न, सर्वेषामपि वादिप्रतिवादिनां अनुमेयमात्रे विवादो
एवं सूक्ष्मादिपदार्थानां कस्यचित् प्रत्यक्षज्ञानं भवतु । तत्पुनः अतीन्द्रियं कथं ? इति प्रश्ने सि जैनाचार्या: प्रादु: - यदि परमाण्वादिज्ञानं इन्द्रिय विषयं स्यात्तर्हि सर्ववस्तु विषयं न स्यात् । इन्द्रियाणां स्वयोग्य पदार्थे एव ज्ञान जनकत्वसामर्थ्यात् परमाण्वादिपदार्थाः इन्द्रियैः न कदापि ज्ञायन्ते । तस्मात्सिद्धं सर्ववस्तुविज्ञानं अतीन्द्रियमेवास्ति ।
उक्तं च
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ननु सर्वज्ञत्वं अर्हतः एव कथं ? इतिचेत् जैना: प्रादुः - प्रकृतानुमानात्सामान्यत: सर्वज्ञत्वसिद्धि: प्रोक्ताः । अर्हतः पुनः सर्वज्ञत्वसिद्धिः अनुमानान्तराद् भवति । तथाहि - अर्हन् सर्वज्ञो भवितुमर्हति निर्दोषत्वात्। यस्तु न सर्वज्ञो नासौ निर्दोष: यथा पथिक पुरुषः इति । निर्दोषत्वं पुनः सर्वज्ञत्वं बिना न सिद्धयति, अज्ञस्य निर्दोषत्वाभावात् । ततो निर्दोषत्वं अर्हति सर्वज्ञत्वं साधयत्येव ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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स त्वमेवासि निर्दोष युक्ति शास्त्रा विरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते, प्रसिद्धेन न बाध्यते ||1|| त्वन्मतामृतबाह्मानां, सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥2॥
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܀
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
आदिकवि: वाल्मीकि:
संस्कृत साहित्ये महर्षि वाल्मीकि: आदि कविः इतिहास विज्ञैः कथित: । तद्विरचितं रामायण मपि आदि काव्यं लोके प्रसिद्धम् । यत: उत्पत्ति - कालक्रमानुसारेण श्रेष्ठानन्द प्रदेन च काव्यस्यैव पुराणापेक्षया प्राचीनता (प्राथम्यं) विद्यते । सर्वेषां मतेन प्रसिद्धमेव इदं यत् पुराणकर्तुः द्वैपायनात् मुनेः रामायण कवि: वाल्मीकि मुनि: पूर्वतर: इति।
वाल्मीकिः कवि: साहित्ये अनुष्टुप् (श्लोक) छन्दस: आविष्कारकः मन्यते । उपनिषदि अनुष्टुप छन्दः प्रसिद्ध विद्यते। परन्तु लौकिक संस्कृते स्वरचिते रामायणे अनुष्टप (श्लोक) छन्दसः सर्वप्रथमं प्रयोग: वाल्मीकि महोदयेन कृतः । यस्मिन् श्लोके गुरु लघु वर्ण प्रयोग: नियम बद्ध: विद्यते । अत: वेदशास्त्रानन्तरं साहित्ये वाल्मीकि रामायणस्य प्रथमस्थानं प्राप्तनोति साहित्ये विज्ञा: आदिकाव्यस्य वाल्मीकिरामायणस्य द्वितीयं नाम "चतुर्विशति साहस्रीसंहिता' इत्यापि वदन्ति, अर्थात् अस्मिन्रामायणे चतुर्विशतिवर्णसहितस्य गायत्री मन्त्रस्य 24 संख्या प्रमाणा: 24 सहस्रसंख्यका: श्लोकाः सन्ति । श्लोकसहस्रप्रति गायत्री मन्त्रस्य प्रथमाक्षरेण क्रमशः श्लोक प्रारंभ: भवति । अन्य छन्दांसि अपि श्लोकेभ्य: अस्मिन् रामायणे सन्ति, तेपि न्यूनतरा: श्लोका: सन्ति इति विद्वांस : बदन्ति। वाल्मीकि रामायणस्य रचनाविषये शास्त्रेषु कथा प्रसिद्धा -
पूर्व काले स प्रसिद्ध: देवर्षिनारदः वाल्मीकि मुने: आश्रमं उपजगाम । वाल्मीकि: समागतस्य नारदस्य उचितं अतिथिसत्कारं चकार । तदनन्तरं वाल्मीकिः नारदं प्रति लोकोत्तर पुरुष चरितं सविनयं अपृच्छत् ।
प्रश्न कोन्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान् ।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रत: ॥ उत्तर - (नारदमुनि: जगाद) -
इक्ष्वाकु वंशप्रभवो रामो नाम जनै: श्रुत: ।
नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान् धृतिमान् वशी ॥2॥ देवर्षिनारदः भगवत: श्रीराम चन्द्रस्य चरितं संक्षेपत: कथयित्वा यथेष्टं स्थानं जगाम ।
एकदा मध्याह्नकाले शिष्यैः सहित: वाल्मीकिः मुनि: स्नानं कर्तुं तमसानदीं गच्छति स्म । तस्मिन नदीतीरे श्री वाल्मीकि समक्षे विहरन्तं क्रौञ्चपक्षिणं कश्चिद्व्याध: वाणेन विव्याध । रुधिर पंके लुंठयन्तं तं दृष्ट्वा क्रौञ्ची दीनतरं रोदनं चकार । तस्या: रोदनं श्रुत्वा दयालो: वाल्मीकि मुनेः हृदयं अतिकरूणापूर्ण अभवत् । श्री वाल्मीकिः शोका वेश पूर्णां वाणी एकेन श्लोकेन व्याधं प्रति जगाद -
मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगम: शाश्वती समाः । यत् क्रौञ्चमिथुनादेक मवधी: काममोहितम् ॥
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ऋतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अर्थ: - हे निषाद ! (हे भील) त्वं काममोहितं अभुं नरक्रौञ्चपक्षिणं सर्वेषां प्रत्यक्षे अवधी: अत: त्वं सदा कदापि प्रशंसां गौरवं वा न प्राप्नुहि । इत्येवं श्लोकं दिवसपर्यन्तं पुन: पुन: करुणा पूर्ण चित्तेन समुनि अपठत् अत्रान्तरे वाल्मीकि मुनेः शोकपूर्णा वाणीं श्रुत्वा स- भगवान् ब्रह्मा तमुपकर्तुं समागतः । तस्य मुनेः दुःखकारणं विज्ञाय लोककल्याणाय ब्रह्मा अवदत् -
- रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम ।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः ॥
वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छुतम् । इति ब्रह्मण: आज्ञां शिरसास्वीकृत्य उदारदर्शन: वाल्मीकिः रम्यश्लोक शतै: यशस्विन: रामचंद्रस्य यशस्कर सरलं काव्यं चकार | यत्काव्यं आदिकाव्यं, वाल्मीकि - मुनिश्च आदिकवि: प्रसिद्ध लोके । अस्मिन् विषये न कस्यापि विज्ञस्य विवाद: दृश्यते।
आनंद वर्धन कालिदास भवभूति प्रभृत्यः महाकवय: संस्कृतज्ञा: वाल्मीकि रामायणं न केवलं काव्यं, अपितु महाकाव्यं - इति वदन्ति । तदा- प्रभृति अन्ये विद्वांस, महाकवयश्च, तत् वाल्मीकि रामायण काव्यं अनुसृत्यैव विविधग्रन्थ रूपेण श्री रामचंद्रस्य चरितं काव्यं वा रचितवंत: ।
अस्मिन् महाकाव्ये करूणरसस्य प्रधानता, उपमा रूपकोत्प्रेक्षादीनां अलंकाराणां प्रयोग: , कोमला पदरचना, प्रसादगुणः, वर्णन सम्भाषणादिषु औचित्यं, क्वचित् मधुरवक्रोक्तिः, क्वचित् व्यंग्यार्थ महिमा लक्षणार्थ: च यथायोग्यं शोभते।
श्री मम्मटभट्ट प्रणीतं काव्यप्रयोजनं अस्मिन् वाल्मीकि रामायण काव्ये सुरीत्या शोभते। येन प्रयोजनेन अस्य महाकाव्यत्वं हितकरत्वं च सिद्धयति । श्रीमम्मटप्रणीतं काव्य प्रयोजनम् -
काव्यं यशसेऽर्थकृते, व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये ।
सद्य: परिनिर्वृतये, कान्तासम्मिततयोपदेश युजे ॥१॥ वाल्मीकि रामायणस्य तथा वाल्मीकि मुने: समय: -
वाल्मीकि रामायणस्य निर्माण समय: बहिरंग प्रमाणैः अन्तरंगप्रमाणैश्च निश्चेतुं शक्यः अस्ति । वैदिक दर्शने जैनदर्शने बौद्धदर्शने च श्रीराम चंद्रस्य समभावेन मर्यादा पुरुषोत्तमरूपेण मान्यता विद्यते । तेषु दर्शनेषु प्राप्त प्रमाणाधारै: वाल्मीकिरामायणस्य रचनाकाल: ईशापूर्वं तृतीय शतकादपि पूर्व सिद्धिं प्राप्नोति । महाभारत शास्त्रस्य रचनाया: पूर्वं (ईशाब्दप्रारंभतः पूर्व) वाल्मीकि रामायणस्य रचना अभूत - इति प्राज्ञानं मान्यता विद्यते।
समीक्षा - मानवजीवनस्य संरक्षणं, दीन पतितोद्वारः, पारस्परिक सहानुभूतिः, सत्यानुसन्धानं, सदाचारस्य प्रतिष्ठा, रामराज्यं, भ्रातृ स्नेहः, धर्मवीरता, परमेश्वरस्य महत्त्वं - इमानि लक्षणानि वाल्मीकिरामायणे पदे पदे सम्यक् दृश्यन्ते । इति।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ महाकवि: श्रीकालिदास :
कालिदासो भारतस्य श्रेष्ठ: महाकविः । स न केवलं भारतस्य, प्रत्युत विश्वस्य प्रसिद्ध: महाकविः। अतएव स कविकुल गुरुः इति कथ्यते । तेन विरचिताः सप्त संस्कृतभाषा निबद्धा: ग्रन्था: अतीव प्रसिद्धाः। तेषु द्वे महाकाव्ये - रघुवंशं कुमार संभवं च । देखण्ड - काव्ये - ऋतुसंहारं मेघदूतं च । त्रीणि नाटकानि - मालविकाग्निमित्रं, विक्रमोर्वशीयं, अमिज्ञानशाकुन्तलं च
एषु मेघदूतस्य शाकुन्तलस्य च प्रचार : अन्य विदेशेषु अपि अधिकं वर्तते । विश्वस्य सर्वस्वपि प्रमुखासु भाषासु कालिदासस्य संस्कृत ग्रन्थानां अनुवादः प्राप्नोति । जर्मन देशीयः गेटेनामा कवि महोदयस्तु शाकुन्तलनाटकं पठित्वा सहर्षनृत्यतिस्म । कालिदासस्य नाटकानि अथापि न केवलं भारते प्रत्युत विश्वस्य प्रसिद्धेषु नगरेषु रंगभूमौ अभिनयं प्राप्नुवन्ति ।
कालिदासस्य जन्म कदा अभवत् इति सम्यक् न विज्ञातम् । ईशाब्दस्य चतुर्थ शताब्दी मध्ये स संजातः इति बहवो विद्वांन्स: मन्यन्ते । केचित् विद्वांस: श्रीकालिदासं विक्रमस्य प्रथम शताब्दीकाले विद्यमान स्वीकुर्वन्ति । परं तस्य निवास: मध्यप्रदेशे उज्जयिनीनगर्यां अभवत् - इति निश्चितम् । अतएव उज्जयिन्यां प्रतिवर्ष मेलापकं कालिदास जयन्ती महोत्सवश्च समारोहेण भवति ।
केचिक विज्ञा: कथयन्ति यत् उज्जयिनी नगरस्य नृपस्य भोज महाराजस्य राज सभाया: अयं कालिदास : सभासदः आसीत् । केचिद् विज्ञा: मन्यन्ते यत् अयं महाकवि: श्री विक्रमादित्यनृपस्य राजसभाया: नवविज्ञरनेषु एक: विज्ञरतकवि: आसीत् । कथितं च "काव्येषुमाघः , कवि - कालिदासः'।
श्रीकालिदासस्य उपमालंकारः अतीव प्रसिद्ध: स्वरचितकाव्यग्रन्थेषु । प्रोक्तं च प्राज्ञै: - "उपमा कालिदासस्य' इति । स्वकाव्येषु स: कवि: भारतस्य अति मनोरमं वर्णनं अकरोत् । तस्य काव्येषु नीतिवर्णनं प्रकृतिवर्णनं च शिक्षाप्रदं विद्यते ॥
भारतीयस्य कस्यचित् नृपस्य विद्योत्तमा नाम्नी कन्या आसीत् । सा कन्या प्रतिज्ञां अकरोत्, यत् “य: विद्वान् शास्त्रार्थे मां पराजितं करिष्यति तेन सह विवाहसंस्कारः भविष्यति"। बहुभि: विज्ञैः सह तस्याः शास्त्रार्थ: अभवत्, फलत: अनेके विशिष्ट विज्ञा: पराजिता: संजाता।
अनंतरं मन्दबुद्धि: कालिदास: तया सह शास्त्रार्थं कर्तुं समायात: । तस्मिन् दिवसे कालिदासस्य मौनव्रतं प्रतिज्ञारूपं आसीत्, अत: तयोः मौनं शास्त्रार्थ: अभवत् । तस्मिन् शास्त्रार्थे विद्योत्तमा पराजिता अभूत्, कालिदासस्य च विजय: । नियमानुसारेण कालिदासस्य विवाह: विद्योत्तमाकन्यया सह संजातः।
विवाहानन्तरं एकस्मिन् दिवसे वार्तालापप्रसंगे श्रीकालिदास: अशुद्ध शब्दस्य उच्चारणं अकरोत्। विद्योत्तमा भार्या प्रहस्य तस्य अशुद्ध शब्दस्य संशोधनं चकार । स्वपल्या अपमानित: कालिदासः श्री काली देवी मंदिरे प्रविश्य उपविष्टवान् । तत्र काली देव्या: शुद्ध योगेन महती भक्तिः कृता । अतिप्रशन्ना काली देवी श्री कालिदासाय विद्यारूपं वरं ददौ । अनेन वर दानेन श्री कालिदासः संस्कृतभाषाया: श्रेष्ट: विद्वान् अभूत्।
वरप्रदानेन संस्कृत साहित्यस्य विशेषज्ञानं सम्प्राप्य श्री कालिदास: निजगृहं आगच्छतिस्म ।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ गृहकपाट युगलस्य उद्घाटनाय स महाकवि: उच्चैः स्वरेण स्वपत्नी आहूतवान् - "अनावृतकपाटं - द्वारं देहि" । विद्योत्तमा शीघ्रं आगत्य कपाट द्वयस्य उद्घाटनं करोति स्म । श्रीकालिदासं च दृष्ट्वा सा कथयति स्म - "अस्ति कश्चिद वाविशेष: ।” अस्य प्रश्नस्य गम्भीरं अर्थं विचार्य कालिदास: अकथयत्, आर्ये ! अवश्यमेव अस्य प्रश्नस्य दीर्घ उत्तरं यथासमयं दास्यामि ।
श्रीकालिदासः प्रश्नस्य प्रथमपदं 'अस्ति' इति आदाय "कुमार सम्भवग्रन्थस्य" रचनां कृत्वा स्वपत्री प्रति वदतिस्म -
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराज: ।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्म, स्थित: पृथिव्या इव मान दण्ड: ॥1॥ इति प्रथम श्लोकं प्रारंभ्य पूर्ण कुमारसंभव ग्रन्थस्य वाचनं चकार ।
तस्य प्रश्नस्य द्वितीयपदं 'कश्चित्' इति पदं आदाय - मेघदूतग्रन्थस्य रचनां कृत्वा प्रथम श्लोकं जगाद
कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रभत्त: शापेना ऽस्तंगमितमहिमा वर्ष भोग्येण भर्तुः । यक्षश्चक्रे जनक तनयास्नान पुण्योदके षु
स्निग्धच्छायातरुष वसतिं रामगिर्याश्रमेष ॥1॥ इति प्रथमश्लोकं प्रारंभ्य पूर्णग्रन्थस्य वाचनं चकार।
तस्य प्रश्नस्य तृतीय पदं “वाविशेष :" इति आदाय रघुवंश महाकाव्यस्य रचनां कृत्वा प्रथम श्लोकं मंगलाचरणरूपं कथयतिस्म -
वागर्थाविव सम्पृक्ती, वागर्थ प्रतिपत्तये ।
जगत: पितरौ वन्दे, पार्वतीपरमेश्वरौ ॥1॥ इति प्रथम श्लोकं प्रारंभ्य पूर्ण ग्रन्थस्य वाचनं अकरोत् ।
श्रीकालिदासस्य स्वरचितग्रन्थै: ज्ञायते यत् स: जन्मत: ब्राह्मण: आसीत् शिवभक्तश्च । स: अन्यदेवानामपि आदरं अकरोत् । स महाकवि: भारतवर्षस्य विस्तृतं भ्रमणं करोति स्म । अत एव तस्य ग्रन्थेषु भौगोलिक वर्णनं अतिसुंदरं स्वाभाविकं च दृश्यते । स महाकवि: रामायण महाभारत वेद - पुराणज्योतिष - आयुर्वेद - संगीत प्रभृति शास्त्राणां ज्ञाता विशेषरूपेण आसीत् ।।
श्री कालिदासस्य साहित्यरचनासु काव्य कौशलं, प्रसादत्वं, माधुर्यं मौलिकता च विद्यते ।।
आंग्लभाषाया: महाकवि: शेक्सपियर महोदय: कालिदासस्य साहित्यं ज्ञात्वा, समालोचनंकृत्वा, साहित्यस्य मौलिक शिक्षा जग्राह । श्री कलिदासस्य विषये आलोचकानां विचारा: -
पुरा कवीनां गणना प्रसंगे, कनिष्ठिका धिष्ठित कालिदासः। अद्यापि तत्तुल्य कवेरभावादनामिका सार्थवती वभूव ॥1॥ कालिदासगिरां सारं, कालिदास: सरस्वती । चतुर्मुखोऽथवा ब्रह्मा, विदुर्नान्येतु मादृशाः ॥2॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
महात्मा तिलक महोदय:
भारतवर्षस्य महाराष्ट्र प्रांते रत्नागिरिमण्डले 1856 ईशवीयसंवत्सरस्य जुलाई मासस्य त्रयोविंशतितमे दिनाङ्के (23 जुलाई) लोकमान्यस्य बालङ्गाधर तिलक महोदयस्य महत् जन्म, स्वजनकं श्रीगङ्गाधर रामचंद्र तिलक महोदयं स्वमातरं श्रीमती पार्वती देवीं चाकरोत् लोके प्रसिद्धां । आसीच्चास्य जनकः गङ्गाधर राव: आंग्लभाषानभिज्ञोपि संस्कृत भाषायाः महान् विद्वान्।
बाल्यावस्थायामेव तिलक महोदय: निर्भय: कर्तव्यदृढः बुद्धि सम्पन्न: प्रतिभाशाली सत्यवादी च प्रसिद्ध: । प्राथमिक शिक्षण समये एकस्मिन्दिवसे पाठशालायां अस्य केनचित्सह पाठिना कक्षायामेव भूमिफलानां (मूंगफली) वल्कल समूह: पातित: । शिक्षक महोदयेन तं दृष्ट्वा तिलकविषये एव संदेहं कृत्वा क्रुध्यमानेन भर्त्सना कृता । तिलकेन प्रोक्तं - न पातितः मया बल्कल निकट: कक्षायाम। शारीरिकशक्ति सम्पादनाय तिलकेन व्यायामशालायां व्यायामस्याभ्यास: कृतः । तत्र सप्तशतप्रमाण बैठक क्रियापूर्णता मकरोत्स:।
एकदा तस्य वयस्या: नदीपारे सुन्दरोद्याने आम्रापहरणाय गता: । तिलकमहोदयस्तु न गतः जलतरण कलाशून्यत्वात्, विषयेऽअस्मिन्खेदः प्रकृटीकृत: । तत्समयादेव तिलकेन जल तरण कलायाः अभ्यासः कृतः ।
एकदा राजकीय गुप्तचर: तमनुगतः सन् क्वचित्सुप्तः, तत्रैव तिलकः स्थित: आसीत्। यदा तिलकेन गन्तुमारब्धं तदा स: गुप्तचर: तेन जागृत: यत: स दण्डितोन भवेत् । कथितमिदं- "भो भ्रात: उत्तिष्ठ, अहं गच्छामि" इति । सः प्रबुद्ध:, तद्वचनं श्रुत्वा आश्चर्ययुक्त: सन् तिलक चरणयो: पपात । सः अनुयायी जातः।
विवाह समये साहित्यग्रन्थानां उपहार: याचितोऽनेन, न तु स्वर्णादिकस्य | एकदा बम्बई नगरे प्लेग प्रसारोऽभूत, तदा अस्पतालस्थापनया जनताया: सेवा कृता | शिक्षकेण तिलकस्य वार्तायां विश्वासो न कृतः बिना अपराध: एवास्य प्रकटीकृत: । अनेन वातावरणेन खिन्नमनसा तिलकेन तत्समयादेव शाला परित्यक्ता गृहे पित्रा शिक्षक प्रति पुत्रविषये सत्य विश्वास: नैतिकता च व्यक्ता
अन्य शालायां एकदा शुद्धलेख समये अध्यापकेन 'संत', शब्दोपि कथितः। अनेन त्रिरीत्या संत,सन्त, सन्त, - इति लिखित: ।परीक्षकेण गुरुणा प्रथमं परित्यज्य अन्य शब्दद्वयं अशुद्धं कथितं अनेन निर्णयेन तिलकस्य नाभूत्संतोष: तेन स्वपाषाण पट्टिका श्री प्रधानाध्यापकाय दर्शिता । प्रधानाचार्येण लिखित: शब्दत्रय मेव शुद्धममन्यत । तदा तिलकः प्रसन्न: शिक्षकश्च लज्जित: संजात:। एक श्लोक स्मरणे एक पण पारितोषिकं पित्रा दीयते- इति संस्कृत पठने उत्साहः प्रदत्त: ।
तिलकमहोदय षोडशवर्षवयस्के संजाते जनक महोदयस्य निधनं अभूत् । तथापि विद्योपार्जने श्रमंकृत्वा पूनाविद्यालयत: मैट्रिक परीक्षा समुत्तीर्णा । गणितविषयोऽतिप्रियोऽस्यासीत्। तदनन्तरं बी.ए.परीक्षा प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्ण 1876 ख्रिष्टाब्दे एल.एल.बी. परीक्षा समुत्तीर्णा । पूनानगरे भवता न्यू इंग्लिश हाईस्कूल
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ एण्ड कॉलेज इत्यस्य स्थापना कृता नागपुरत: केशरीपत्रस्य मराठा पत्राणां च सम्पादनं विहितं । राष्ट्रीयक्षेत्रे शिवावीरोत्सवस्य धार्मिक क्षेत्रे च गणेशोत्सवस्य श्रीगणेशः कृत: । भारतस्य स्वतंत्रतायै राष्ट्रीय महासभासंचालिते आन्दोलने नेतृपदं स्वीकृत्य- “स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धाधिकारः" इत्यस्य ध्वने: घोषणा विहिता।
__ अधुना भारते कयोश्चित् अंग्रेज मेनयो: केनचिद् भारतीयेन विनाशः कृत: । अंग्रेज शासनेन अमुं दोषं श्रीतिलके एवारोप्यास्मै अष्टादशमासान्तं कारावासस्य दण्डः प्रदत्त: । एतदभियोगावसरे न्यायालये श्री तिलकेन यत्कथितं, तस्यानुवाद: हिन्दी कवितायां केनचित् कविना प्रोक्तम् - कृष्ण मंदिरे (कारागारे) 'ओरायन' ग्रन्थ: विरचित: । अनेन ग्रन्थेन योरोपीय: विद्वान् मैक्समूलरमहोदय: प्रभावित: । तत्पत्रप्रयासेन शासनाधिकारिभि: कारागारस्य दण्डे षण्मासानां दण्ड: न्यूनीकृतः।
___ अंग्रेज शासनेन विधीय मानस्य बंगालविभाजनस्य विरोधे आन्दोलनं कृतम्। द्रव्यसंग्रहाय पणदानस्य योजना रचिता |श्रीतिलकस्य हृदये अर्जुनकृष्ण प्रतापशिवा प्रभृति वीराणां नैतिकभावा: आसन् । राष्ट्रीय महासभाया: नम्रदल-उग्रदल इति दलद्वयं आसीत् । तत्रोग्रदलस्य नेता तिलकः प्रसिद्धः तस्य नीति: “शठे शाठयं समाचरेत्" इति।
शासकैः एकदा एतत्समाचारपत्र मुद्रित लेखेषु दोषा: आरोपिता: । अभियोगःसंचालित: न्यायालयस्य निर्णये षड्वर्षपर्यन्तं स्वदेशाद् बहिष्कार: सहस्र रूप्यकाणां च दण्ड: घोषिता । षड्वर्ष पर्यन्तं ब्रह्मदेशस्य कारागारे उषित्वा भवता “गीतारहस्य" नामकः ग्रन्थ: विरचितः ।
श्रीतिलकमहोदयस्य षष्टितम जयन्त्यवसरे अस्मै एकलक्षरूप्यकाणां उपहारः प्रदत्त: जनतया अयं हि नि:स्वार्थ भावेन तद् द्रव्यं देश सेवायां समप्य तत्पर आसीत्। कांग्रेसस्य लखनउ नगराधिवेशने जनतया महत्स्वागतं कृतं । भारतस्य स्वतंत्रता संग्रामस्य अयं सेनानी: अंग्रेज शासनेन सहाहिंसात्मक युद्धं-अकरोत्। 1920 ईशवीयाब्दे गीतायाः श्लोकान् बारम्बारं स्मरन् जुलाई मासस्यैक त्रिंशत्तमे दिनाङ्के रात्रौ मानवतिलक: तिलकः स्वर्गं जगाम । तत्समयादेव भारते अगस्तमासस्य प्रथम दिनाङ्के श्री तिलकश्राद्धदिवस: स्मृतिस्तम्भ: प्रसिद्धः।
श्री लोकमान्येन स्वरचितगीता रहस्यग्रन्थे कर्मयोगस्य व्याख्या कृता - लौकिकालौकिक कर्माणि कुर्वन् भक्तिभावेन अध्यात्मभावेन वा सर्वप्राणिषु साम्यबुद्धे : पूर्णतया प्राप्तिरेव कर्मयोगः । शास्त्रोक्तनीतिकर्मणा मानवस्यायं परमपुरुषार्थ:, मानव जीवनस्योद्धारस्य वायं श्रेष्ठमार्ग: विद्यते ।
बड़ोदा नगरे 1904 ख्रिष्टाब्दे 30 नवम्बरे इतिहास तिलक महोदयेन प्रदत्तस्य भाषणस्य सार: - श्रीमता बड़ोदा नरेशेन गायक वाड़ महोदयेन कान्फ्रेन्सस्य प्रथम दिवसे यथा कथितं तथैव “अहिंसा परमोधर्मः" उद्यरोऽयं सिद्धांत: ब्राह्मण धर्मे चिरस्मरणीयं प्रभावं स्थापितवान् । पूर्वकाले यज्ञार्थं अगणित पशूनां हिंसाया: प्रसार: आसीत्, मेघदूतादिग्रन्थेषु मिलन्त्यस्य प्रमाणानि । परन्तु वैदिक यज्ञात् प्रचण्ड प्राणिहिंसा बहिष्कारस्य श्रेय: जैनधर्मे एव विद्यते।
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कृतित्व / संस्कृत
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6.
1.
श्रीवर्धमान महावीरग्रन्थे श्रीतिलक महोदयस्याभिमतम् -
पशुबलिना पशुवधयज्ञेन वा जनाः स्वर्गंगच्छन्ति - इति मान्यताबलेन पूर्वकाले पशुयज्ञ प्रसारः आसीत्। रन्तिदेवराज्ञायज्ञ: कृत:, तस्मिन् एवं प्रचुरपशुवध: जात: यत् नद्याः जलं शोणितेन रक्तवर्णं अभूत् । तत्समयादेव तस्या: नाम 'चर्मवती' इति प्रसिद्धम् । अस्या: तीव्र हिंसायाः निराकरणं जैनधर्म: अकरोत् ।
2.
जैनधर्मेणैव वैदिक धर्मं अहिंसाधर्मं कृतं अस्ति ।
हिन्दूसमाजे धर्मेवा जैनधर्मस्य प्रतापेनैव मांस भक्षणस्य मदिरापानस्य निरोध: संजातः । 1904 ईशाब्दे केसरी पत्रस्य 13 दिसम्बर स्याङ्के जैनधर्मविषये लोकमान्येन सम्मतिः प्रदत्ता इतिहास ग्रन्थै: विद्वद्भाषणैश्चेदं ज्ञायते यत् जैनधर्मः अनादिः विद्यते । विषयोऽयं निर्विवादः, विषयेऽस्मिन् इतिहासस्य दृढ प्रमाणानि संति । ईशात: 526 वर्षेभ्यः पूर्वं महावीर तीर्थंकरस्य पुनः प्रकाशेन जैनधर्मस्यास्तित्वं सिद्धम् । बौद्ध धर्मस्य स्थापनाया: प्राक्जैनधर्मस्य प्रसारः आसीत् । जैनधर्मे 24 तीर्थंङ्कराणां मान्यता विद्यते । चरम तीर्थंङ्कर महावीर स्वामिन: पूर्व मपि जैन धर्मस्य स्वभावतः सत्ता ज्ञायते ।
3.
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
ब्राह्मण धर्मे जैनधर्मस्याक्षुण्णप्रभाव: । जैनधर्मे अहिंसा सिद्धांत: पूर्वकालादेवास्ति। अहिंसातत्त्वस्य सुरीत्या परिज्ञाना भावादेव मानवानां मद्यमांसाहार प्रवृत्तिः संजाता ।
पूर्वकाले अनेक विप्रपण्डिता: जैनधर्मस्य धुरन्धरविद्वांस: आसन्
जैनधर्म वैदिक धर्मयोः भारते निकट सम्बंधोऽभूत । अतएव भास्कराचार्येण ज्योतिषशास्त्रिणा स्वग्रन्थे दर्शनं ज्ञानं चारित्रं च धर्मस्य तत्त्वं कथितम् ।
"देव पूजायज्ञादि धर्मानुष्ठानस्याधिकारः विप्राणामेव नान्येषां नापि नारीणां" इति नियमस्य विरोधं कृत्वा सर्वेषा नराणां नारीणां च कृते जैनधर्मेण धर्मानुष्ठानस्य मार्ग: विशदीकृतः ।
जैनधर्मस्य प्राचीनत्वं इतिहासेन पुरातत्वेन च सिद्धयति ।
बृहत्तरे बम्बई नगरे सागर तीरे चौपाटी स्थाने तिलकस्य सुन्दर पाषाण मूर्ति: खङ्गासनस्था शोभते तस्या: वर्णनं परिवर्तननाटके कृतम् -
अम्मोधे र्निकटे सुचारु सिकताशैलस्थितो मूर्तिमान स्वातन्त्र्याद्भुतङ्गरे जयभृतामग्रे सर: के शरी । वीराणां तिलक : शिरोमणिरयं दुर्धर्षवृत्तिः परै: अद्याप्यत्र कठोरतीक्ष्ण नयनाक्षेपैः क्षिपत्याङ्गलान् ॥ श्रीलोक मान्य पुण्यस्मरण पद्यम्, लोकैः सम्मानितो नित्यं, बालो गङ्गाधरोद्भवः ।
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कृतित्व / संस्कृत
अन्वर्थो तिलको नाम, स्वातन्त्र्य तिलकान्वितः ॥1॥ संस्कृते शङ्कराचार्य: गणिते भाति 'भास्करः' । दत्त्वा पाठान्स छात्रेभ्यो जात: प्राचार्यपण्डितः ||2|| स्वातन्त्र्यध्येयसंयुक्तो बालोऽयं नरके सरी पत्रं सम्पादयामास के शरीति नरोत्तम: ॥3॥ पाठयामास मन्त्रं सः भारतीयान् जनान्सदा । जन्मनश्च क्षणादेव नरः स्वातंत्र्यमर्हति ||4|| लोक जागृतिलेखेन कारावासी फलागम: । मण्डलेस्थितकारायां लिलेखासौ सुपुस्तकम् ||5|| कर्मयोगपुरस्कर्ता कर्मयोगविशारदः गीतारहस्यं विख्यातं निर्ममौ कर्मसागरम् ||८|| महात्मा मोहनो गांधी मानं तस्मै प्रयच्छति । तिलको लोकमान्योऽयं सर्वश्रेयः समर्हति || 7 || शिवजन्मोत्सवस्तेन गणेशस्य महोत्सव: । समारब्धो हि तेनेव पुण्यदे पुण्यपत्तने ||8|| एकागस्त्तादिने बाल: स्वातंत्र्यस्य दिवाकरः । अस्तं गत्वापि तस्यैव कीर्तिस्तिष्ठबाधिता ||१||
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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श्री लोक मान्यं प्रति श्रद्धांजलि: ओं नमो बलवन्ताय राष्ट्र कल्मषनाशिने । लोकस्फूर्ति निधानस्य लोकमान्याय ते नमः ॥1॥ त्वं साक्षात् राष्ट्र चिच्छवती राष्टीयाणां महागुरुः । मानबिन्दुः स्वदेशस्य विस्मृतिं नाधि गच्छसि ॥2॥ त्वं तेज: पूर्व सूरीणां प्राग् जन्मार्जित मेव च । बालाख्यं गृहीत्वेदं दीप्यमानो यथा रवि: ॥3॥ सागरस्य च गाम्भीर्यं तेजस्वित्वं विवस्वतः ।
संस्कृतभवितव्यम् (2/8/52)
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्वभावे सन्निविष्ट ते जनानामादराय च ॥4॥ बोधक: कर्मयोगस्य ज्ञानमार्गस्य दीपक: । जिज्ञासुभक्तिमार्गस्य सुविख्यातो भवान् भुवि॥5॥ स्वीकृतं नु त्वया बाल्यात् कष्टप्रद्मसिव्रतम् । कारितं जनकोपेन जर्जरं राजशासनम् ॥6॥ अतस्त्वं कर्मयोगेश, सर्वेषां प्रीतिभाजनम् । लोकमान्य प्रदास्यामि श्रद्धया स्तोत्रसप्तकम् ॥7॥
संस्कृत भवितव्यम् (2/8/52)
गीताग्रन्थस्य गौरवनाथा यथा च लोके दघि मन्थनात्तस्मात्सारत्वेन जनै: नवनीतविशेषो गृह्यते, यथा च विपुलक्षीरसागरत: मन्थन क्रिया द्वारेण कौस्तुभोदय: सर्वप्रयोजन सिद्धिदः प्रसिद्धः, तथैव साहित्यसागरस्य परिशीलनेन तस्माद्बुधजनै: साहित्यसारत्वेन गीता - निखिलविषयज्ञानादिप्रयोजन सिद्धिप्रदा सर्वदा समुपादीयते । अस्याः खलु शब्दापेक्षया लघुकायत्वेपि अर्थापेक्षया महद्गाम्भीर्यं विद्यते।।
__ श्रीभगवद्गीतायां कर्मयोग: दार्शनिकाध्यात्मिक भक्तियोग सत्य ब्रह्मचर्य प्रकृति सन्यासध्यान राजनीति प्रभृति विषयाणां वर्णनं श्रीकृष्णार्जुनयो: सम्वादरूपेण सर्वश्रेष्ठ संस्कृत भाषायां मनोरञ्जकरीत्या सुलभरीत्या च विहितम् । इयं तावद्विषय प्रतिपादनस्य पौराणिक शैली लोकप्रिया अनुपमा च विद्यते।
___ सर्वगुणसम्पन्ने रामराज्यविभूषिते भारते प्राचीनकाले महापराक्रमिणा यशस्विना विविधज्ञान मण्डितेन क्षत्रियवीरेण श्रीकृष्णेनैकेन, धनुर्धारिणं - समरोद्यतं द्वितीयं क्षत्रियवीरं श्रीमदर्जुनम्प्रति स्वकार्यप्रवृत्तिविषये छात्र धर्मस्योपदेशः गीतारूपेण प्रदत्त:, तेन च संसारे ऽनागतशताब्दीषु मानवकल्याणप्रदो - धर्ममार्ग: समुद्धारित: । स एव हि धर्म यो जीवन कष्टपरम्पराया: उद्धृत्य विश्वप्रणिनः श्रेष्ठ सुख स्थाने संगमयति । उक्तञ्च -
"संसारदुःखत: सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे" ग्रन्थे ऽस्मिन् धर्मशब्दस्य व्यापकत्वं सिद्धं - भवति, न तु व्याप्यत्वं । अतएव ग्रन्थे विविधविषयाणां संग्रह : कृतः । अनेन विज्ञायते यद् धर्मस्य - सर्वविषयैः सह संसर्ग: । तथाहि -
___ समरकलाया: धर्मेण सह सम्बंध: । सैव समरकला: यस्यां धार्मिकत्वं (नैतिकत्वं) व्याप्तं, सैव कर्तव्यरूपा-शौर्यकिया। न हि युद्धकलामन्तरेण राज्यस्य संचालनं स्थिरत्वं संरक्षणं ना भवति, न भवति च सज्जनाना - मनुग्रह: दुर्जनानां च निग्रहः इति । अतएव युद्धकलायां धर्मनिर्णयार्थ नैतिक विज्ञानार्थं वा
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कृतित्व / संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वीरार्जुन: श्रीकृष्ण - महापुरुषशरणापन्नोऽभूत । श्रीकृष्णस्य परमोपदेशेन - वीरार्जुनेन विज्ञातं यद् न्यायनीतिपूर्णः संग्राम: श्रेष्ठ, स एव नृपाणां शासनकर्तव्यरूपः विद्यते । श्रीकृष्णेन वीरार्जुन समुत्तेजितः, स च वीरः समरविधाने उद्यतोऽभूत तस्य युद्धनिरोधस्य विचारः विषादश्च विलीनो बभूव । एतेन सिद्धं, यत्समरकलायाः धर्मेण सह संगति:, अन्यथा अन्यायपूर्ण समरेण लोके राज्यस्थितिः विनष्टा भवेत् । अतएव गीतायां क्षात्र धर्मानुसारेनैव राज्य धर्मादिसंरक्षणार्थं युद्धकलाविधानं, तस्यैवावश्यकता च व्यक्तिकृता ।
मीमांसक दर्शनापेक्षया सांख्यदर्शनानुसारेण वा कर्मयोगस्य व्याख्या ग्रन्थेऽस्मिन वर्णिता । स च कर्मयोगो धर्ममूलक एव श्रेष्ठः । न हि कर्मयोगस्यानुष्ठानं अधर्मानुकूलं क्वचिदाभिहितम्, नापि तस्य मानवजी वने आवश्यकता, न च तत्कार्यकारि ।
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ज्ञानयोगस्यापि धर्ममूलत्वं कथितं, तस्यैव कार्यकारित्वं सिद्धं । ज्ञानयोगस्य परब्रह्म पदार्थ स्थितिस्वभावानुकूल ज्ञप्तिक्रियाया: यथार्थ त्वमेव हि धर्ममूलत्वं ।
किञ्च - सन्यास योगस्य ध्यानयोगस्यापि स्वलक्षणं वास्तविक धर्ममूलकमेव । यतश्च निष्कषायत्वेन निष्कामत्वेन शुद्धात्मत्वेन चानुष्ठितः सन्यासयोगः ध्यानयोगश्च आत्मकल्याण साधक: प्रसिद्धः, तस्यैव धर्ममूलत्वं निगद्यते ।
किञ्च - अक्षरब्रह्मयोगस्यापि धर्मरूपत्व मेव न तयो: भिन्नत्वं । न हि अक्षरब्रह्मयोगे निरर्थकत्वं किन्तु सार्थकत्वमेव स्वाभाविकं सिद्धं परमात्म प्रकाश कत्वात्, विश्वपदार्थ स्वरूपप्रकाश कत्वात्, विश्वव्यवहार सम्यादकत्वाच्च ।
अपि च - राजविद्या - अर्थयोग इत्यानयो: योगयोरपि स्वधर्ममूलत्वं शास्त्र सम्मतम । - धर्मशून्या राजविद्या चेदस्ति तर्हि न सा राजविद्या, नापि सा प्रजाहितकारिणी । राजविद्यायां धर्ममूलकत्वमेव - विश्वशांति प्रदायकं प्रजाहित सम्पादकं श्रेष्ठम् । धर्ममूलक राजनीतिरेव प्राचीन राज्यस्या दर्शनीतिरासीत् । तस्यैवानुकरणमेव आधुनिकराज्ये निहितं । अतएव वर्तमानभारतीयशासनं अहिंसासत्यमूलकं स्थापितं | इदं हि प्राचीना दर्शराज्यस्य पूर्णतयानुकरणं न विद्यीयते तथापि शनै: शनै: राम राज्यस्यादर्शभरते रचनात्मकं परमावश्यकं विद्यते । इदमेवहि 'गाँधीवाद:' इति नाम्ना प्रसिद्ध लोके ।
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अर्थयोगस्य धर्मरूपत्वं चेत्तर्हि तस्यैव - पुरुषार्थता । धर्मशालिताभावे तु तस्यैव मूर्च्छापापत्वं अतः धर्ममूलकार्थ योगेनैव मानव जीवनस्य सार्थक्यं विद्येयं सर्वैः हितचिन्तकमानवैः ।
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किंच - भक्तियोगे ऽपि धर्माश्रयत्वं गीताग्रन्थे निगदितं । धर्मशून्या सकामा भक्तिः न मानवकल्याण साधिनी अपितु मायाजालजटिला इन्द्रजालविनोद क्रिया निरर्थका । अतः आत्मकल्याणेच्छुका: श्रद्धापूर्वकं विवेक पूर्वकं स्वकर्त्तव्यज्ञानत्वेन भक्तिमार्गस्य दैनिक साधनां कुर्युः । मुक्तिलाभस्य प्रथमो ऽयं मार्गो भक्तिमार्गः । ततो द्वितीयो विज्ञान मार्गः प्राप्यते । ततश्च तृतीयो वैराग्यमार्गः येन साक्षात् मुक्तिप्राप्तेः साधना विधीयते । तैः समुदितैः त्रिभिः मुक्ति मार्ग: सम्पद्यते । इति गीता ध्ययनेन विवेक: मनसि जागृति |
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्रीमदुमास्वामिसूरिमहोदयेनापितत्त्वार्थ सूत्रे एतद् भाषितम् -
"सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः" इति अपि च - परमात्मायोगस्य मोक्षयोग स्यापि व्याख्यानं गीताग्रन्थे विहितम् । तौ योगी धर्मस्वरूपौ शुद्धात्मसत्ताको प्रसिद्धौ । सर्वेषां संसारिणां आस्तिक्यमतीनां तौ योगौ धर्मसाधकौ विश्वकल्याणप्रदौ सर्वशास्त्रेषु व्याख्यातौ।
__एतेन ज्ञायते - यद धर्मस्य पूर्वोक्तसकलविषयैः सह व्याप्ति: । अत: धर्मस्थ व्यापकव्याख्या गीता शास्त्रे विहिता । तत्र सकलविषयाणां समावेश: तस्य विषयस्य प्रमाणं इति ।
अखिल राष्ट्रेषु - देशेषु च मानवा: आत्महित सम्पादनार्थं परमात्म विषयकश्रद्धां कुर्युः तथापि ते परावलम्बिन: कातरा: पौरुषशून्याः प्रमादिनः न भवन्तु न चापि व्यर्थजीवन यापनं कुर्वीरन्, अस्मात्कारणादेव गीतायां कर्मयोगस्य व्याख्यानं प्रचुरतया सप्रयोजनं निबद्धम् । अथ च यदि गीतायां कर्मयोगस्य व्याख्यानं विद्यते, तर्हि किं स्वरूपं कर्मयोगस्य - इति जिज्ञासा भावेन तस्य स्वरूपं प्रदर्शते -
योगस्थ: कुरु कर्माणि, संगं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धय सिद्धो: समो भूत्वा, समत्वं योग उच्यते ॥॥ तात्पर्य मिदम् - यत् कर्मसिद्धिविषये - तदसिद्धिविषये च रागद्वेषं परित्यज्य विषयेष्वना सक्तो योगस्थो भूत्वा कर्मकरणे पुरुषस्य समतापूर्णमनोवृत्तिविशेष: कर्मयोगः इति कथ्यते । बुद्धिसमतायोगः कर्मयोगः इति भावः । विविधलौकिक बाह्यकर्मापेक्षया बुद्धिसाम्यं श्रेष्ठं अतस्तद् बुद्धिसाम्यमाचरणीयम्। फल प्राप्तेरभिलाषां कृत्वा हितकर्मरता: नरा: स्वार्थिन: कृपणा: भवन्ति । साम्यभावविभूषिताः मानवाः पुण्यपापनिर्लिप्ता: भवन्ति । रागद्वेषरहितत्वेन साम्यभावश्रयत्वं, ऐहिलौकिक पारमार्थिकहित साधनदक्षत्वं च कर्मयोगत्वम् इति फलितम्।
भारतेऽस्मिन् जना: मन्दिरेषु परमात्मापूजा-विविधरीत्वा सांगीतभक्तिं, पुराणश्रवणं, जापं, स्वाध्याय, मौखिक पाठादिकं कुर्वन्ति, प्राय: ते सर्वे फलाभिलाषिण: सन्त: एव धार्मिकसाधनां कुर्वन्ति। सर्वेलौकिकार्थ सिद्धिं वांछन्ति, सिद्धाभावे परमात्मानंप्रति अपशब्दप्रयोगं विदधति । अतस्ते न धर्मसाधकाः किन्तु लौकिकव्यापारिण: ते धर्मवंचका: । निष्कामत्वेन धर्मसाधनस्यावश्यकता साम्प्रतं विद्यते । इति ।
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कृतित्व / संस्कृत
पंचदश: अगस्त दिवस : (स्वतंत्रता दिवस : )
भारतराष्ट्रं अस्माकं देशः विद्यते, य: अति प्राचीन: विशाल श्रेष्ठश्च प्रसिद्ध: । वयं अस्य देशस्य निवासिनः स्मः । देशोऽयं अस्माकं मातृभूमि । भारतेऽस्मिन् प्रतिवर्षं धार्मिक पर्वणां राष्ट्रीय पर्वणां च मान्यता समारोहेण भवति । अद्य पंचदश: दिवसः इत्येवं ऐतिहासिकं राष्ट्रीयं च पर्वलोके विद्यते प्रसिद्धम् ।
एक वर्षानन्तरंवयं सर्वे छात्राः अस्य राष्ट्रीयपर्वणः उत्सवं सोत्साहं कुर्मः । अस्मिन् पवित्र दिवसे 1947 तमे ईशा संवत्सरे भारतीय नेतृभिः संचालितेन अहिंसात्मकेन आन्दोलनेन भारत स्थितस्य ब्रिटिशराज्यस्य अवसान: अभूत् । अभूच्च भारतवर्षं पराधीनतायाः बन्धनं विच्छिद्य स्वतंत्रम् । दिवसे ऽस्मिन् सर्वत्र देशे राज धान्यां च त्रिरङ्गध्वजानां उत्तोलनं तथा राष्ट्रीय गानं अभवत् । तत्समये सर्वेषां भारतीयानां प्रमोदः दीर्घः आसीत् ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
तत्समया - दारभ्यं अस्य राष्ट्रीयपर्वणः मान्यता महता समारोहेण भारते भवति । सर्वासु शिक्षाशालासु छात्राः सोत्साहं कुर्वन्ति महोत्सवम् । अनेन महोत्सवेन छात्राणां युवकानां च हृदये राष्ट्रीय भावना जागृ भवति तथा च देश सेवायां प्रेरणा संजायते ।
मानवानां पराधीनं जीवनं मरणतुल्यं भवति परतन्त्रजीवनस्य लोके राष्ट्रे च किमपि मूल्यं न विद्यते । अतएव स्वतंत्रतायाः पूर्वं विदेशेषु भारतीयानां गौरव: नासीत् । परतंत्रजीवनं पशु समं भवति नीति कारेण कथितं च यधमपि विद्यते -
जीवितातु पराधीनात् जीवानां मरणं वरम् इति ।
मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्णं केन कानने ॥
स्वतंत्रता मानवजीवनस्य जन्मत: एव आवश्यक: अधिकारो विद्यते । पूर्वजानां बलिदानेन जनतायास्य कठोर परिश्रमेण अस्माभिः भारतस्य स्वतंत्रता सं प्राप्ता । अत: शहीदात्मनां सन्देशोऽयं विद्यते यत् सर्वे भारतीयाः अस्य देशस्य स्वतंत्रतां रक्षेयुः । छात्राः अपि शिक्षिता: बलिष्ठाः कर्तव्यपरायणाश्च नागरिका: भवेयुः इति ।
वन्दे मातरम्
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
वर्तमान मूल्यवृद्धि:
अद्य मानवजीवने दैनिक निर्वाहस्य वस्तूनां महामूल्यतायाः महती समस्या विद्यते । रूप्यकस्य मूल्यंन्यूनं संजातं वस्तूनां च मूल्यंदीर्घ भवति। निर्धनानां माध्यमिकानां जनानां च जीवनयापनं दुर्भरं संजायते। वस्तूनां अभावेन जनानां संतोष: नैव जायते, असंतोषेण दैनिक जीवने दुःखं भवति।
असन्तोष वशेनैव नरा: लुण्टाका: भवन्ति: । केचित्जना: चौर्यं कुर्वन्ति, केचित् धनस्य अप हरणं कुर्वन्ति, केचित् परेषां वंचनं विदधति।
स्वार्थसिद्धये जना: पापानि कुर्वते । स्वस्य जीवनस्य अध:पातं कृत्वा परलोकं दुःखमयं कुर्वन्ति । एतैः कारणैः राष्ट्रे अशान्ति: अवनतिश्च भवति।
____ अत: मूल्य वृद्धिसमस्याया: समाधानार्थं सदाचार: नैतिक विचार: सन्तोषभावश्च पालनीयः सर्वै मानवैः । किंच सर्वे मानवा: गृहोद्योगं अन्नोत्पादनं शाकफलोत्पादनं च कुर्युः ।
दिनांके 12 अप्रैल मास 71 ईशाब्दे एशिया महाद्वीपे बंगलादेशस्य नवोदय: अभवत् । यस्य बंगलादेशस्य राष्ट्रपतिः शेखमुजीबुर्रहमान महोदय: प्रधान मंत्री च श्री ताजुउद्दीन अहमद महोदय: निर्वाचित: अभूत।
___ दि. 6 दिसम्बरमासे 71 ईशाब्दे, भारतस्य प्रधानमंत्री इन्दिरागांधी नेत्री बंगलादेशस्य मान्यताप्रदाने सर्वप्रथम घोषणां अकरोत् ।
दि. 24 जनवरी मासे 72 ईशाब्दे रुसराष्ट्रस्य प्रधान सचिव महोदयेन बंगलादेशस्य मान्यतादाने घोषणा कृता । प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरागाँधी बंगलादेशवासिभि: निमंत्रिता सती दि. 18 मार्च 72 ईशाब्दे बंगलादेशस्य यात्रां अकरोत् । तै: इन्दिरा महोदयाया: सप्रमोदं बहुलं स्वागतं कृतम् । भारतदेश: बंगलादेशाय शरणं सहायतां च ददौ । बंगलादेशस्य भविष्य उज्जलं भवेत् । इति ।
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कृतित्व / संस्कृत
भारतीय संस्कृत साहित्यं अतिविशालं, अतिप्राचीनं, सार्वभौमं प्रागैतिहासिकं, सांस्कृतिकं, पुरातत्वसाक्षिकं, ऋणिप्रणीतं, प्रमाणितं च विद्यते । तच्च संस्कृतसाहित्यं षड्दर्शनेषु विभाजितम् - (1) मीमांसादर्शनं (वेदान्तदर्शन), (2) जैनदर्शनं, (3) सांख्यदर्शनं, (4) शैवदर्शन (वैशेषिकं - न्यायदर्शनं), (5) बौद्धदर्शनं, (6) चार्वाकदर्शनं च ।
संस्कृत साहित्ये स्तोत्रसाहित्यस्य महत्वम्
किंच-वेदांगानि - षट्संख्यकानि - ( 1 ) शिक्षा, (2) कल्पं, (3) निरूक्तं, (4) छन्द: (5) ज्यातिषं, (6) व्याकरणं च । वेदेषु वेदांगेषु च संस्कृतसाहित्यस्य, दर्शनेषु चापि सांस्कृतिनिधित्वं सुरक्षितं विधते । विषयेऽस्मिन् पेरिसस्यविश्वविद्यालयस्य संस्कृत विभागाध्यक्षेण "श्रीलुइरेनुमहोदयेन', अन्नामलाईविश्वविद्यालये भाषणं कुर्णता प्रोषतम्
“संस्कृतसाहित्ये एवं भारतराष्ट्रस्य उच्च साहित्यिक परम्पराः सुरक्षिताः सन्ति" (इति) (नवभारत 11 दिसम्बर 1955 )
दर्शनेषु वेदेषु वेदांगेषुच स्तोत्रसाहित्यस्य विद्यतेवरां महत्वपूर्ण संस्थानम् । संस्कृत साहित्ये सर्वत्र यथा योग्यं परमात्मनः, देवीना, देवानां, इन्द्रादीनां च सम्यक् स्तुति: विहिता । संस्कृतव्याकरणे स्तु - स्तवनेधातोः त्रप्रत्यमयोगे स्तोत्र शब्दस्य सिद्धिः तथा स्तु-धातो: विप्रत्यययोगे स्तुति शब्दस्य सिद्धिः भवति । अस्य विशदार्थः -यः शब्दविशेषेः पूज्यात्मनां परमात्मनां च सदगुणकीर्तनं क्रियते तत् स्तोत्रं, सा च स्तुतिः विधीयते । 1
अधजैनदर्शने संस्कृतस्तोत्रायां मूल्यांकनम्, भारतीय संस्कृत साहित्ये जैन संस्कृत साहित्यं महत्वपूर्ण पदं परिलभते, तत्राति संस्कृत स्तोत्रसाहित्यं प्रभावकं प्रसिद्धम् । अत: जैन संस्कृतस्तोत्राणां विधीयते संक्षेपेण समुल्लेखनम् । संस्कृतज्ञेन श्रीसुधर्मसागरमुनिराजिन प्रणीतं नवदेवस्तोत्रं दशपद्यशौभितं मंगलमयं तस्य तस्य दशमपद्यं प्रकाश्यते ।
प्रकाश्यते
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
शार्दूलविक्रीडित छन्द: इत्थं मंगलदायका : जिनवरा:, सिद्धाश्च चैत्यादयः
पूज्यास्ता नवदेवता अघहरास्तीर्योत्तमास्तारका: । चारित्रोज्जवलतां विशुद्धशमतां, बोधिं समाधिं तथा ।
श्रीजैनेन्द्र "सुधर्म" मात्मसुखदं कुर्वन्तु सन्मंगलम् ।। अज्ञातेन संस्कृत विज्ञाचार्येण प्रणीतं सुप्रभात स्तोत्रं षोडशपद्यात्मकं, यस्य प्रथमः श्लोकः
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शार्दूलविक्रीडित छन्दः यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेको त्सवे
यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिलज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: , पूजादभुतं तद्भवै :
संगीतस्तुतिमंगलैः प्रसरतां, मे सुप्रभातोत्सवः ।।
द्वितीयश्लोकः - अनुष्टुपृछन्दः सुप्रभातं सुनक्षत्रं, सुकल्याणं, सुमंगलम् ।
त्रैलोक्यहितकर्तृणां, जिनानामेव शासनम् ।। विक्रमस्य प्रथमशतीचरमें आचार्येण उमास्वामिना णमोकारमंत्र स्तोत्रं प्रणीतं 44 पद्यात्मकं, यस्मिन् नमस्कार मंत्रस्य माहात्म्यं वर्णितं, तस्य पद्यमेकं निगद्यते -
शार्दूलविक्रीडित छन्द: आकृष्टिं सुरसम्पदां विदधते, मुक्तिश्रियो वश्यताम्,
उच्चाटंविपदां चतुर्गतिभुवां, विद्वेषमात्मैनसाम् । स्तम्भं दुर्गमनं प्रति प्रयततो, मोहस्य सम्मोहनम्,
पायात्पंचनमस्क्रियाक्षरमयी, साराधना देवता ।। 32।। श्रीसमंतभद्रचार्येण द्वितीयशतीकाले, 144 पद्य शोभितं "वृहत्स्वयंभूस्तोत्रं" प्रणीतं । यस्मिन् चतुर्विंशतितीर्थकराणां विशिष्टगुणकीर्तिनंकृतं विभिन्न वृत्तेषु विविधालंकारालंकृतम् - यथा च - इन्द्रवज्राछन्द: संभवनाथस्तवनम्
त्वं संभवः संभवतर्षरोगैः, सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके ।
आसीरिहाकस्मिक एव वैद्यो, वैद्यो यथानाथ रुजां प्रशान्त्ये ।। शान्तिनाथस्तवनम्
चक्रेण यः शत्रुभयंकरेण, जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्र चक्रम् ।
समाधिचक्रेण पुनर्जिगाय, महोदयो दुर्जयमोहचक्रम ।। नवमशताब्दिकाले श्रीजिनसेनाचार्येण जिनसहस्रनाम स्तोत्रप्रणीतं । 71
पद्यात्मकं, जिन्नेद्रस्य अष्टाधिक सहस्रनामविभूषितम् ।
उदाहरणयथा
प्रसिद्धाष्टसहस्रद्ध, लक्षणं त्वा गिरांपतिम् ।
नान्मामष्टसहस्रेण, तोष्टुमोऽभीष्टसिद्धये ।। एवं स्तुत्वा जिनंदेवं, भक्त्या परमयासुधी।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पठेदष्ठोत्तरंनाम्नां, सहस्रं पापशान्तये ।। 2 ।। स्तुति: पुण्यगुणोत्कीर्तिः स्तोता भव्यः प्रसन्नधी:।।
___निष्टितार्थो भवांस्तुत्य:, फलं नैश्रेयसं सुखम् ।। 3 ।। ईशवीय ।। शतीमध्ये श्रीमानतुंगाचार्येण धारानगर्यां भक्तामरस्तोत्रं विरचितं, 48 पद्यात्मकं यस्मिन् श्रीऋषभतीर्थकरस्य गुणकीर्तनकृतम्। तस्य पद्यं यथा - वसंततिलकावृत्तम् - ___अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम् , त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरोति, तच्चाम्रचारूकलिकानिकरैकहेतुः ॥6॥ अपि च -
उद्भतभीषणजलोदर भार भग्ना:
शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशा: । त्वत्पादपंकजरजोऽमृत दिग्धदेहा:
मा भवन्ति मकरध्वज तुल्य रूपाः ।। 45 ।। कुमुदचंद्राचार्यप्रणीतं कल्याणमन्दिरस्तोत्रं, 44 पद्यात्मकं, यस्मिन् श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकरस्य गुण स्तुति: कृता । यथा - वसन्ततिलकावृत्तम्
हृवर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति
जन्तोः क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजंगम मया इव मध्यभाग
___मभ्यागते वनशिखण्डिनि चंदनस्य ।। 8 ।। अपि च - आकर्णितोऽपि महितोपि निरीक्षितोपि,
नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मितेन जन बान्धव ! दुःखपात्रं
यस्मात् क्रिया: प्रतिफलन्ति न भाव शून्या: ।। 38 ।। विक्रमाब्दे वादिराजचार्येण “एकीभावस्तोत्रं" कृतं 25 श्लोक युक्तं भक्तिरसोपेतं, यस्य पद्यमेकं प्रकाश्यते - मन्द्राकान्ताछन्दः
आहार्येभ्य: स्पृहयति परं, य: स्वभावादहयः ।
शास्त्रग्राही भवति सततं, वैरिणा यश्च शक्यः । सर्वांगेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषाम् तत् किं भूषावसनकुसुभैः, किं च शस्त्रैरुदस्त्रैः ।।। 9।।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अष्टमशती काले संस्कृत साहित्य कोविदेन धनंजयमहाकविना विषापहारस्तोत्रं निर्मितं 40 पद्यात्मकं, पद्यमेकंयथा - इन्द्रवज्रा छन्द: ___ सुखाय दुःखानि गुणाय दोषान , धर्माय पापानि समाचरन्ति ।
तैलाय बाला: सिकतासमूह, निपीऽयन्ति स्फुटमत्वदीयाः । । । 13 ।। अपि च
विषापहारं मणिमौषधानि, मंत्रं समुद्दिश्य रसायनं च।
भ्रामन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति, पयार्यनामानि तवैव तानि //14// ___भूपालकविप्रणीतं, 26 पद्यविभूषितं "जिनचतुविंशतिकास्तोत्रं" यस्मिन् तीर्थकराणां विशिष्टगुणवर्णनं विद्यते। तस्य पद्यमेकं यथा - वसन्ततिलकावृत्तम्
शान्तं वपु श्रवणहारि वचश्चरित्रं
सर्वोपकारि तव देव ! तत: श्रुतज्ञाः । संसारमारवमहास्थलरुन्द्रसान्द्र -
च्छायामहीरुह ! भवन्तमुपाश्रयन्ते //2// अज्ञातकर्तृकं दशपद्योपेतुं “चैत्यालयाष्टकस्तोत्रं" यस्मिन् चैत्यालयस्य (मन्दिरस्य) वर्णनं कृतं । पद्यमेकं तस्य यथा - वसन्ततिलकाछन्द:
दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि
भव्यात्मनां विभवसंभवभूरि हेतु । दुग्धाब्धिफेनधवलोज्जवल कूटकोटि -
नद्धध्वजप्रकरराजि विराजमानम् //1// अज्ञातकर्तृकं “परमानन्द स्तोत्रं" चतुर्विंशति पद्यात्मकं - अनुष्टुप छन्दः पाषाणेषु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथा धृतम्।
तिल मध्ये यथा तैलं, देहमध्ये तथा शिव: //23// काष्ठमध्ये यथा वह्निः, शक्तिरूपेण तिष्ठति ।
सोऽयमात्मा शरीरेषु, यो जानाति स पण्डित: //24// अमितगतिसूरिविरचितं वृहत्सामायिंकं स्तोत्रं, 33 पद्यात्मकं,
वैराग्यवर्णनोपेतं यथा इन्द्रवज्राछन्दः - सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, किलष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातुदेव !
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्वयं कृतं कर्म यदात्मनापुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्।।
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।। लघुसामायिकं स्तोत्रं, 19 पद्यात्मकं वैराग्यवर्णनम्, पद्यमेकं यथा - मन्द्राक्रान्ताछन्द:
शास्त्राभ्यासो, जिनपतिनुतिः, संगतिः सर्वदायें:
___ सवृतानां, गुणगणकथा, दोषवादे च मोनम् । सर्वस्यापि, प्रियहितवचो, भावना चात्मतत्वे,
सम्पद्यन्तां, मम भवभवे, यावदेतेऽपवर्ग: ।। कविवर भागचन्द्रप्रणीतं " महावीराष्टकं स्तोत्रं :शिखरिणी वृत्तम् यदीया वाग्गंगा, विविधनयकल्लोल विमला
वृहज्ज्ञानांभोभि जगति जनतां, या स्नपयति । इदानीमप्येषा, बुधजनमरालै: परिचिता
महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु न: //6// जैन संस्कृत स्तोत्रेषु यमकालंकाराणां चमत्कारा: श्रीपद्मप्रभमलधारि देवविरचितं श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रं (महालक्ष्मी स्तोत्रं) नवपद्यविभूषितं, यस्य प्रथम पद्यं कथ्यते - उपजातिवृत्तं, यमकालंकार:
लक्ष्मीर्महस्तुत्यसतीसतीसती, प्रवृद्ध कालो विरतोऽरतोऽरतो ।
जरारुजापन्महताहताऽहता, पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ।। भाषार्थ:- हे वीतराग साधो । तुम रामगिरि नामक पर्वत पर जाओ। और वहाँ विद्यमान उन पार्श्वनाथ भगवान् की वाणी द्वारा स्तुति करो, जिनकी अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी दोनों ही एक समान श्रेष्ठ, रमणीय एवं नित्य है । परन्तु आश्चर्य होता है कि जिनका सम्पूर्ण दीर्घ जीवन रागद्वेष रहित व्यतीत हुआ एवं अनिवार्य वृद्ध दशा रोग का कष्ट जिन पार्श्वनाथ के द्वारा नष्ट किया गया। उपसंहार -
__ भारतीय संस्कृतसाहित्यं षड्दर्शनग्रन्येषु वेदवेदांगेषु च विभक्तं विशालं सुरक्षितं विद्यते । तत्रापि संस्कृतस्तोत्र साहित्यं रमणीयं सांस्कृतिकं पठनीयं उपलब्धम् । प्रायः सर्वदर्शनेषु स्तोत्रसाहित्यस्य महत्त्वं दृश्यते । वैदिक साहित्य संस्कृतस्तोत्रसाहित्यं प्रचुरत्वेन समुपलब्धं पठनीयं विद्यते, येन पुण्यप्राप्ति: हिंसादिपापविनाशनं च परमदेवभक्ता: माध्यमेन संजायते। जैनदर्शने संस्कृतस्तोत्र साहित्यं प्राचीनं विशालं मनोहरं च विद्यते, यस्य परिशीलनेन परमात्मभक्ति: पुण्यप्रविकासनं, पापकर्म विनाशनं आत्मशुद्धिश्च विभाव्यते । बौद्धसाहित्येपि संस्कृतस्तोत्रस्य महत्वं विद्यते, परन्तु विस्तार भयान्नात्र प्रोक्तम् । मानवैः स्तोत्रसाहित्यं प्रतिदिनं पठनीयं स्मरणीयं चेति ॥
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कृतित्व / संस्कृत
1975 ईशवीयाब्दे जूनमासे 26 दिनाङ्के भारत देशे आन्तरिकायाः आपात स्थिते: घोषणा सञ्जाता । अत: पूर्व ब्राह्माक्रमणस्य आपातस्थितिः विद्यमाना आसीदेव । आभ्यां घोषणाभ्यां भारतीयाः वैदेशिक मानवाश्च विस्मय सागरे निमग्ना: । एकेयं आकस्मिक घटना, यस्या: कल्पना कस्यापि पुरुषस्य मानसे नासीत् ।
भारतस्य आपातस्थिति: भारतराष्ट्रस्य विंशतिसूत्र दर्शितः कार्यकम:
आखिलराष्ट्रस्य भारतस्य राजनैतिकाः गतिविधयः तया नियन्त्रिताः । समाचार पत्रेष्वपि प्रतिबंध: विहितः । समाजविरोधिनां तत्त्वानां प्रतिबंध: परिग्रहश्च प्रारब्ध: । उद्दण्डविटानां द्यूतकारिणां तस्करव्यापारिणां उपधा ग्राहकाणां च प्रवृत्तिषु निरतानां जनानां कारागारबंधनं स्वच्छन्दतानिरोधश्च सर्वदेशे बहुलतया अभवत्। आपातकालात्पूर्व भारते सर्वतः अराजकतायाः वातावरणं प्रचुरमासीत्। अनुशासनहीनतां व्यापकतां सम्प्राप्ता | राष्ट्रीयहिते कस्यापि मानवस्य ध्यानं नासीत् । भ्रष्टाचारस्य सर्वदेशे प्रसारः हड़ताल कार्यस्य च प्रबल प्रसारः सामूहिकशोभाप्रदर्शनं चासीत् । वस्तूनां परस्परं मिश्रीकरणं संग्रहः शोषकं च बहुलतया प्रचलितं बभूव ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
भारतीय संविधाने आन्तरिकाशान्तिसमये आपातकालस्य घोषणाया: व्यवस्था विद्यते । संविधानस्य 351 तमाधारानुसारेण देशे राष्ट्र पतिना संकटकालस्य घोषणाकृता । आपातकालस्य घोषणायाः देशे विदेशे च विरोधापेक्षया अधिक महास्वागत मभवत् । श्रीविनोवा भावे महोध्येन आपातकाल: “अनुशासन पर्व” इति नाना प्रकटीकृतः ।
अस्मिन्नेव प्रसङ्गे श्री इन्द्रादेव्या प्रधान सचिवपदात् विशति सूत्रीयस्य आर्थिक कार्यक्रमस्य घोषणा विहिता । अन्यारीत्या भारतस्य प्रगति: नियमेन भविष्यति। आपातदशाघोषणातः जीवनस्य सर्वक्षेत्रेषु जागृति: परिवर्तनं च दृश्यते । अयं काल : राष्ट्रस्यकृते वरदानत्वेन सिद्ध: संजातः इति ॥
1.
2.
3.
प्रधान सचिवपद विभूषितया इन्द्रादेव्या प्रजातन्त्रशासनस्य परिस्थितिः श्रमेण दृढीकृता विद्यते । अधुना प्रजातन्त्र पद्धत्या राजनीत्या सा भारतशासनस्य संचालनं सुरक्षणं च करोति । यदा भारते महार्थता - व्यापारशून्यता भ्रष्टाचारता शासनशिथिलता प्रभृतिसमस्यानां समाधानाय प्रजामध्ये संघर्ष: संजात: तत्समये समस्यानां समाधानाय प्रजातन्त्रस्य च सुरक्षणाय राष्ट्रनेतॄणां सहयोगेन इन्द्रादेवी विंशतिसूत्रदर्शिता योजना प्रदर्शिता । अस्यां योजनायां सर्वेषां जनानां प्रजातन्त्र शासनस्य च हितं विद्यते । अधस्तना विंशति सूत्रयोजना दृष्टव्या -
वर्धमानमूल्यस्य प्रतिबन्धे स्थिरीकरणे च शासनस्य प्रयासः ।
भूमिहीन जनानां कृते योग्यभूमिवितरणम् ।
ग्रामीणजनानां ऋणात् मुक्तिप्रयासः ।
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 4. गृह विहीनानां कृते आवाससमस्याया: समाधानम् । 5. आयकरस्य मर्यादायां योग्यवृद्धि :। 6. चौर्यस्य प्रतिबन्धः परित्यागश्च । 7. विविधोत्पादने बद्धौ च प्रयासः । 8. जनसंख्याया: परिवृद्धौ प्रतिबन्धः । 9. आर्थिकानां अपराधानां प्रतिबन्धः परित्यागश्च । 10. सामूहिककार्य निरोधे (हड़ताल) कार्यस्थगने च प्रतिबन्धः । 11. नगरभूमे: सामाजिकविधानम्। 12. अवनतजनानां विकासकार्ये प्रयासः | 13. छत्राणां कृते विद्याभ्यास साधनानां योग्य मूल्येन उपलब्धि: । 14. यातायातकार्ये राष्ट्रीयस्तरयोग्यस्य स्वीकृतिपत्रस्य (लाइसन्स) प्रदानम् । 15. महिलानां कृते पुरूषवत् समानाधिकारस्य प्रदाने प्रयास: । 16. निर्धनानां सम्बन्धे निर्मूल्यन्यायः । 17. श्रमिकाणां परिस्थिति सुधारे प्रयास: । 18. निर्यातवस्तुवर्धने प्रयत्नः । 19. प्रशासने सुधारः। 20. सार्वजनिक स्वास्थ्य रक्षणे पेय जले च व्यवस्था करणम् । 21. सिंचन साधनानां कृषिसाधनानां वृद्धौ प्रयास: ।
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कृतित्व/संस्कृत
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संस्कृत काव्य कृतित्व
वन्दे जिनवरम् अचलं विमलं नतशतमण्डलं । ज्ञानकुण्डलं जिनवरं । वन्दे । ज्ञानकिरणै: विकसितभास्करं। ध्यानधनुषा खलदलपरिहरं । विश्ववैद्यं ... गुणगणसुन्दरं। अजित महितं जिनवरं, वन्दे ॥1॥
सुललितभाषणं अतिशयभूषणं । शिवपथनायकं मङ्गलदायकं। उन्नतिकारकं प्रेमविधायकं ।
फलदं बलदं जिनवरं, वन्दे ॥2॥ . प्राणिसंघमुखजपित जिनेश ? शरणविहीनं प्राण ? सुरेश ? भवपरतन्त्रं रक्षतु माँ। ज्ञानप्रदायकं, पापप्रणाशकं। न्यायप्रकाशकं जिनवरं, वन्दे ॥३॥
पतितोद्धारक तापविदारकं । मिथ्यानाशकं चित्तविकाशकं। भारतभूषणं तर्जितदूषणं ।
वरदं सुखदं जिनवरं, वन्दे ॥4॥ दुर्नयवारिणं शतशठतारिणं। विक्रमधारिणं सुसमयकारिणं । कमलाशालिनं प्रतिभामालिनं । सुकलं सुफलं जिनवरं, वन्दे॥5॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वर्णी गणेशो जयताज्जगत्याम् यो ज्ञानपीयूषसुपानलीन:
यं भारती नेतृवरं विधत्ते येन प्रदत्ता जनतासु शिक्षा
"वर्णी गणेशो जयताज्जगत्याम्" ||1||
यस्मै समाजो ददते हृदास्थाम
यस्माद्विभुक्तो ननु दोषराशिः । येषां प्रवेशो नववत्सरेऽस्मिन्
"वर्णी गणेशो जयताज्जगत्याम्" ॥2॥
यस्मिन् क्षमात्यागगुणान्प्रवीक्ष्य
श्रीक्षुल्लकार्य प्रवदन्ति विज्ञा: । ब्रूमो यदद्योपकृतित्वनम्रा:
"वर्णी गणेशो जयताज्जगत्याम्"॥ 3 ॥
सरस्वती - वंदनाष्टकम्
श्रीशेन गीता शतवर्णरम्या
विज्ञानमूर्ति: लिपिभिर्विचित्रा। समस्तलोकव्यवहारधानी
सरस्वती सा जयताज्जगतम् ॥1॥
अबोधतापहारिणी प्रकाशमात्मर्शिनीम्
यशोधनं प्रदायनीं सुवाक्कलाविकासिनीं। प्रवासविघ्ननाशिनीम - साध्यसाध्यसाधिनी
स्तुमः सदा सरस्वती जनाय बोधकारिणीम् ॥ 2 ॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "संस्कृतवाणीमहत्त्वम"
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वदन्ति भाषासु सजीवभाषाम्
मृतां नरा: संमृतबोधप्राणा: । काठिन्यचित्ता: कठिनां वृथैव,
नव्या नवीनां, विरसा: विसाराम् ॥3॥
यस्या: सुपुत्री सुगुणापि हिन्दी
भाषासु विख्यात सुराष्ट्रभाषा । यस्या: सखी देशविदेशभाषा
सा संस्कृता केन भवेदनाथा ॥4॥
यस्या: सुराज्ये वरशब्दकोष:
विभात्यलंकारचयेन काय:। काव्यांगसेना सुरसै: रसात्मा
सा संस्कृता केन भवेद् दरिद्रा ॥ 5 ॥
मंगलकामना(उभयभाषायां)
प्रसेवतां सरस्वती - प्रशिष्यवृन्द भक्ति से
सदाचरन्तु जीवने - स्वतंत्रयोगशक्ति से स्वमातृभूमिरक्षणो - सुयोग्य साहसी बनें
परोपकारसाधने - सदा प्रसन्न भी रहे ॥6॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
संस्कृतवाण्या: व्यापकता
सुबुद्धिनीतिदा सदा विदेशदेशशिक्षिका ___ सुपत्र - पत्रिकाप्रकाशनेऽतिरम्यशब्ददा । सभासमाजबोधिनी सुराष्ट्रसाम्यकारिणी
प्रशिष्यशिष्य से बिता समस्तभाषमातृका ॥7॥
मंगलकामना
दद्यात्संस्कृतवाङ्मयाधुनिक संवादोऽयमाशोभितः,
छायां सर्वजनाय शान्तिसुखदां मत्यस्य सञ्जीविनीं । यस्यां विज्ञशतेन सागरपुरे श्रीविश्वविद्यालये
वाणीपर्वमहोत्सवो हि सफलीभूयात्सदा भारते ॥8॥
गङ्गा वर्णनम्
हिमाचलाद् विनिर्गता विशालदेशसंगता
मलाङ्गतापहारिणी पयःप्रवाहकारिणी । सुरम्यतीर्थचंदिरा तृषार्तचक्रचंद्रिका
त्रिमार्गगा गरीयसी नदीश्वरी नदीश्वरी ॥ 1 ॥
समस्यापूर्ति :
विपत्तिरेवाभ्युदयस्य मूलम्
स्वतंत्रता आंदोलन - भुक्त - कष्टा :
विदेशिराज्यस्य विनाशयत्नाः । भजन्ति सत्तां खलु भारतीया: "विपत्तिरेवाभ्युदयस्य मूलम्" ॥1॥
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पठन्ति छात्रा यतनेन ग्रन्थान्
___ तरन्ति कष्टै: सरिता परीक्षाम्। फलानि विद्याफलिनोऽनुयान्ति
"विपत्तिरेवाभ्युदयस्य मूलम्" ॥2॥
कासः सदा रोगसमूह - मूलम् ।
हास: सदा द्रोह सहस्त्रमूलम् । शिक्षा सदा देशसमृद्धि मूलम्
"विपत्तिरेवाभ्युदयस्य मूलम् ॥ 3 ॥"
समस्यापूर्ति :
नक्तन्दिनं दहति चित्तमिदं जनानाम्
आशां करोति परवित्तमुदीक्ष्य नित्यम
पञ्चेन्द्रियस्य विषयैतिदह्यमानम् । चिन्ताशतेन सहितं हि चितासमानं
"नक्तन्दिनं दहति चित्तामिदं जनानाम् ॥1॥
समस्यापूर्ति :
भाऽतुला भारतस्य
सकलजगति दत्ता नीतिसाहित्य धारा
समजनि जनचित्ते येन वीर्यातिरेकः । कुरुजनपढ़कीर्ति: साम्प्रतं यस्य, तस्य
विदितसकलराष्ट्रे 'भाऽतुला भारतस्य' ॥1॥
(493)
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कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ देश भूषणाष्टकम् श्रिया विभूषितं धीरं, साधुमूल गुणाश्रितम् ।
दिगम्बर मणिं रम्यं, वन्दे श्री देश भूषणम् ॥1॥ महाव्रतान्बितं शांतं, तत्त्व विज्ञान भूषणम् ।
धर्म संसाधने वीरं, वंदे श्री देशभूषणम् ॥2॥ सम्यक्त्वं भूषणं यस्य, देशना कण्ठ भूषणम्।
संयमो भूषणं शुद्धं, वंदे तं देश भूषणम् ।।3।। नैक भाषा कला तीर्थं, भक्तिसाहित्य तीर्थकम् ।
ब्रह्मचर्य व्रते तीर्थं, वंदे श्री देशभूषणम् ।।4।। जगत्पात्रं, सुधीपात्रं, पाणि पात्रं सुपात्रकम् ।
शक्ति पात्रं कला गात्रं, वंदे श्री देशभूषणम् ॥5॥ ज्ञान वृद्धं तपो वृद्धं, वयोवृद्धं सुबुद्धिदम् ।
कृति वृद्धं प्रजा वृद्धं, वंदे श्री देशभूषणम् ॥6॥ प्रतिभा प्रतिभा सन्तं, सूरि सन्तं वसंतवत्।
विलसन्तं हि सन्मार्गे, वंदे श्री देशभूषणम् ॥7॥ दर्शनं चोपदेशश्च, देशभूषण योगिनः ।
__ भारते भूषणम् नित्यं, भूषणै: किं प्रयोजनम् ।।४।। प्रजासु शान्ति दायकं, अनाथ वृद्धि कारणम्।
नवीन भव्य शिक्षकं, असेव्य रीति नाशकम् ।।9।। प्रशस्त मंत्र बोधकं, विदेश देशभूषणम्।।
प्रशस्ति कामना कृतं, हि देशभूषणाष्टम् ।।10।
जैनमित्रस्य स्वर्णजयंती महोत्सवे
शुभकामना
बसंततिलकावृत्तम् श्रीयात्सदा जनहिताय हि जैनमित्रम्, क्षीयात्कुरीतिनिवहं वरजैनमित्रम् । कुर्यात्समाजकुशलं भुविजैनमित्रम्, जीयात्तरां जनपदे प्रियजैनमित्रम् ॥1॥
मालिनीवृत्तम् सरलतरलकाव्यै नव्यवृत्तान्तलेखै: गमयतु नवशिक्षां भारते जैनमित्रम् । समयनियम निष्ठं जैनपत्रेषु वृद्धं विलसतु नववर्षे मित्रवज्जैनमित्रम् ॥2॥
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ANV
जैन पूजा-काव्य
एक चिन्तन
डॉ. दयाचन्द्र जैन, साहित्याचार्य
सन् 2003 में प्रकाशित
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अमर भारती
द्वितीयो भागः
(कक्षा ७)
१५ अगस्त १९६०
(स्वतन्त्रता दिवसः)
दयाचन्द्र साहित्याचार्यः
सागर म.प्र.
अप्रकाशित
JainEducal
rivate & Personal use only
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अमर भारती
तृतीयो भागः
(कक्षा ८)
१५ अगस्त १९६०
( स्वतन्त्रता दिवसः)
दयाचन्द्र साहित्याचार्यः
मागरमा
अप्रकाशित
www.ainelibano
Page #547
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श्री दि०जैन मात्र परिषद का पुष्प
भारतीय आचायों के द
भगवान महावीर (मुक्तक-स्तवन)
सम्पादक लेखक :
०द्र जैन साहित्याचार्य एम.ए. श्री जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर (म०प्र०)
प्रकाशक :
बाबूलाल जैन जमादार मंत्री, अ० भा० द० जैन शास्त्रपरिषद्
बड़ौत (मेरठ) उ० प्र०
बार]
प्रथम बार ११००
जेष्ठ सुदी ५ (थत पंचमी) मूल्य : स्वाध्याय २३-५-१६७७ ई०
सन् 1977 में प्रकाशित
पोस्टेज आदि २५ पैसा
.
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अमर भारती
प्रथमो भागः
(कक्षा ६)
१५ अगस्त १९६०
(स्वतन्त्रता दिवसः)
दयाचन्द्र साहित्याचार्यः
मागर म.प्र.
अप्रकाशित
atma
sunuseromy
Page #549
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वर्णी जी का
संक्षिप्त जीवन परिचय
पं. दयाचंद साहित्याचार्य
सन् 99 में प्रकाशित
Jain Educ
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विषय
1975
1975
बा
1978
कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ साहित्याचार्य जी का राष्ट्र स्तरीय संगोष्ठियों में योगदान क्र. सम्मेलन नाम
स्थान सन् 1. दर्शन संगोष्ठी संस्कृत साहित्य परिसंवाद संस्कृत निबंध पाठः सागर वि.वि. 1965 2. सेमीनार (परिसंगोष्ठी)
संस्कृत निबंध पाठः वाराणसी वि.वि. 1967 3. संस्कृत कवि संगोष्ठी
कविता पाठ सागर 1974 4. सेमीनार (भारतीय परिसंगोष्ठी) संस्कृत निबंध पाठः सागर वि.वि. 1975 5. वर्णी जयंती संगोष्ठी
निबंध लेख जबलपुर 6. भारतीय दिग. जैन विद्वत परिषद के द्वारा शिक्षण वक्तव्य मथुरा 7. संस्कृत सम्मेलन
संस्कृत वक्तव्य सागर आर्य समाज 1976 8. शास्त्री परिषद अधिवेशन
दर्शन निबंध
1976 9. प्रांतीय संस्कृत सम्मेलन
निबंध पाठः बाँदकपुर 1977 10. संगोष्ठी
जैन पं. परम्परा का योगदान इन्दौर 11. सर्व धर्म सम्मेलन
भाषण
सागर
1983 12. जैन दर्शन संगोष्ठी
लेख
कटनी 13. सर्व धर्म सम्मेलन
भाषण जैन दर्शन सागर
1984 14 शिक्षण शिविर
नैतिक शिक्षण ललितपुर 1984 15. जैन दर्शन संगोष्ठी
निबंध पाठ बनारस 1984 16. सेमीनार
स्याद्वाद का महत्व मुंगावली 1985 17. रोटरी क्लब सागर
नेत्र शिविर
1986 18. जैन समाज दर्शन
निबंध पाठ सागर वि.वि. 1987 19 अखिल भारतीय संगोष्ठी
जैन दर्शन
सागर वि.वि. 1987 20. सम्यज्ञान संगोष्ठी
सम्यज्ञान प्रचार 21. सर्वधर्म सम्मेलन
भाषण जैन दर्शन सागर 22. सर्व धर्म भाषण सम्मेलन
भाषण 23. संगोष्ठी विद्वत परिषद
जैन सिद्धांत वाचना गया
1983
सागर
सागर
1988
1989
सागर
1991
1991
(495)
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बीना
1993
कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 24. विद्वत संगोष्ठी
अंतर्राज्यीय चारित्र निर्माण हस्तिनापुर 1992 25. जैन दर्शन संगोष्ठी
निबंध पाठ 26. जैन इतिहास और संस्कृति (संगोष्ठी) निबंध
श्रवणवेलगोला 1993 27. जैन दर्शन संगोष्ठी
निबंध
धर्मस्थल (कर्ना.) 1994 28. प्राकृत साहित्य संगोष्ठी
निबंध
इन्दौर
1994 29. दि. जैन शास्त्री परिषद द्वारा संचालित शिक्षण वक्तव्य मथुरा
1994 30. संगोष्ठी
आ. ज्ञानसागर मदनगंज किशनगढ़ 1995
जयोदय महाकाव्य 31 षट् दर्शन में मोक्ष मीमांसा
सागर वि.वि. 1995 32. षट् दर्शन में प्रमाण मीमांसा
सागर वि.वि. 1996 33. अ. भारत वर्षीय दिग. जैन विद्वत परिषद संगोष्ठी समयसार दिल्ली
1999 34.. दिग. जैन शास्त्री परिषद
शिक्षण वक्तव्य
ग्वालियर 35. विद्वत संगोष्ठी पं. पन्नालाल जी व्यक्तित्व कृतित्व जबलपुर 2002
वक्तव्य
वक्तव्य
1999
-490
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________________
लं
कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दशलक्षण पर्व की सूची भाद्र पद मास में दशलक्षण महापर्व पर प्रवचनार्थ जैन धर्म प्रभावना हेतु - क्र. सन् प्रवचन माला
स्थान 1. 1953 प्रवचन
बुरहानपुर नोट -सन् 1954 से 1960 तक के स्थान प्राप्त नहीं हुए है। 1961 प्रवचन
श्रावस्ती 1962 प्रवचन
वहराइच 1963 प्रवचन
लखनऊ 1964 प्रवचन
सहारनपुर 1965 प्रवचन
सतना 1966
अज्ञात 1967 प्रवचन
बहादुरपुर 1968
अज्ञात 1969
अज्ञात 1970 प्रवचन
टी.टी.नगर भोपाल 1971 प्रवचन
देवेन्द्र नगर 1972 प्रवचन
इम्फाल (मणिपुर) 1973 प्रवचन
महेश्वर (इन्दौर) 1974 प्रवचन
मेरठ (उ.प्र.) 1975 प्रवचन
इन्दौर (संयोगितागंज) 1976 प्रवचन
इन्दौर (संयोगितागंज) 1977 प्रवचन
नागपुर (महाराष्ट्र) 1978 प्रवचन
इन्दौर (मल्हारगंज) 1979 प्रवचन
आगरा (नाईकी मंडी) 1980 प्रवचन
अजमेर 1981 प्रवचन
देहली (कूचासेठ मंदिर) 1982 प्रवचन
बम्बई (भूलेश्वर मंदिर) 1983 प्रवचन
उज्जैन (नमकमंडी) 1984 प्रवचन
दिल्ली
#
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________________
कृतित्व/संस्कृत
1985
प्रवचन
1986
प्रवचन
1987
प्रवचन
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
अजमेर दिल्ली कलकत्ता झूमरी तलैया कोटा (राजस्थान) जबलपुर
1988
प्रवचन
1989
प्रवचन
1990
प्रवचन
1991
प्रवचन
भिण्ड गोटेगाँव
1992
प्रवचन
1993
प्रवचन
1994
प्रवचन
1995
प्रवचन
1996
प्रवचन
1997 1998 1999
प्रवचन प्रवचन प्रवचन प्रवचन
अलीगढ़ दिल्ली सिवनी आगरा कन्नौज (उ.प्र.) नहटौर (दिल्ली) भोपाल (अरेरा कालोनी) रायपुर व्यावर (राजस्थान)
2000
2001
प्रवचन
1.
कुरवाई
पं. दयाचंद साहित्याचार्य जी की प्रतिषठागत सेवाओं की स्मरण सूची क्र. स्थान महोत्सव
नाम पंचकल्याणक गजरथ
सहायक प्रतिष्ठाचार्य 2. शाहपुर पंचकल्याणक गजरथ
सहायक प्रतिष्ठाचार्य 3. रजवांस सिद्ध चक्र महामण्डल विधान प्रतिष्ठाचार्य 4. पिड़रूआ सिद्ध चक्र महामण्डल विधान प्रतिष्ठाचार्य बाँदरी वेदी प्रतिष्ठा
प्रतिष्ठाचार्य हटा सिद्ध चक्र महामण्डल विधान
प्रतिष्ठाचार्य 7. बहेरिया सिद्ध चक्र महामण्डल विधान
प्रतिष्ठाचार्य आदि अनेक प्रतिष्ठायें भी कराई है सन् 1990 के बाद प्रतिष्ठाओं को कराने का भी त्याग कर दिया था।
498
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1967
1971
1977
1981
बीना
1981
1982
1984
1985
1985
कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ डॉ. साहित्याचार्य जी को समर्पित राष्ट्रीय समाजगत सम्मान क्र. महोत्सव का नाम
स्थान
सन् दसलक्षण पर्व
बहादुरपुर सिद्ध चक्र विधान
ललितपुर पंचकल्याणक महोत्सव
दलपतपुर तीर्थयात्रा (प्रवचन)
सोलापुर विद्यालय हीरक जयंती इन्द्रध्वज विधान
शाहपुर वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव
वर्णी कालोनी, सागर 1984 दशलक्षण पर्व
दिल्ली आगम वाचना शिविर
खुरई सिद्ध चक्र विधान महोत्सव सागर शिक्षण शिविर
सागर
1985 12. दशलक्षण पर्व
अजमेर
1985 स्यावाद शिक्षण शिविर
सागर
1986 वि.वि.सर्वधर्म सम्मेलन
1986 अध्ययन मंडल समिति मीटिंग 16. पंचकल्याणक प्रतिष्ठा
शाहपुर
1988 17. संस्कृत दिवस अध्यक्षता
सागर सिद्ध चक्र मंडल विधान
राहतगढ़
1989 पंचकल्याणक प्रतिष्ठा
मदनपुर दशलक्षण पर्व
जबलपुर
1990 21. हीरक जयंती विमलसागर जी सोनागिर
1990 दशलक्षण पर्व रजत प्रशस्ति पत्र दिल्ली
2507 वीर संवत् 23. दर्शन परिषद विश्वविद्यालय वाराणसी
2025 विक्रम संवत्
सागर
रीवा
1987
1988
1989
-499
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________________
-
३०.
३२.
कृतित्व/संस्कृत
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 24. शास्त्री परिषद अधिवेशन
ललितपुर
1976 25. स्यादवाद शिक्षण परिषद
ललितपुर
1984 26. पंचकल्याणक प्रतिष्ठा
सागर
1997 विद्वत संगोष्ठी
मदनगंज किशनगढ़ 1995 स्यादवाद शिक्षण परिषद
मुंगावली
1985 स्यादवाद शिक्षण परिषद
सागर
1988 दशलक्षण पर्व
सिवनी
वीर नि.सं. 2521 ३१. सिद्धचक्र मंडल विधान कठरनी वाई मंदिर सागर
1997 पंच कल्याणक
बीना
1993 ३३. रोटरी क्लब सेन्ट्रल
सागर
1986 ३४. पंच कल्याणक महायज्ञ
सागर
1993 ३५. चारित्र निर्माण संगोष्ठी
हस्तिनापुर
1992 ३६. नंदीश्वर महामंडल विधान कठरनी वाई मंदिर सागर
2002 ३७. वर्णी स्नातक परिषद्
सागर
1991 सर्वधर्म सम्मेलन
सागर
11 जून 1983 ३९. बुन्देलखण्ड स्याद्वाद परिषद्
मदनपुर
1989 ४०. शताब्दी समारोह संस्कृत वि.
सागर
2005 ऋषि मंडल विधान पठा मंदिर
सागर
1996 विद्वत् प्रशिक्षण शिविर कुलपति
सागर
1993 ४३. दि. जैन विद्वत परिषद् शि.शि.
सागर
1996 _कल्पद्रुम महामंडल विधान मोराजी सागर
1994 ४५. पंचकल्याणक महोत्सव भाग्योदय सागर
2003 श्रुत संवर्द्धन संस्थान
मेरठ (तिजारा) 2004 अ.भा.दि. जैन शास्त्री परिषद् द्वारा सागर
1992 ४८. सर्वधर्म सम्मेलन (नेहरु जयंती) सदर बाजार सागर
1983 ४९. वर्णी अवार्ड समिति कटरा बाजार सागर
2005 ५०. संस्था त्याग हेतु अभिनंदन पत्र सं. वि. सागर
2001
३८.
डॉ.पं.दयाचंद्र जी साहित्याचार्य की संस्थागत अविस्मरणीय सेवाओं का उल्लेख क्र. संस्था का नाम
स्थान
प्रारंभ एवं अंतिम सन् 1. श्री अकलंक विद्याभवन
बामोरा (सागर) 1937-1944 संस्कृत विद्यालय
बीना (सागर) 1944-1947 3. श्री वर्णी गुरुकुल
जबलपुर 1948-1950 4. श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर
1951-2006 जनवरी -500
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लागिसकी रणजी सामान्य
पील के लक्ष्य के निधरित होटल
माने ना दिन मनी बिना
रजत पत्र (दिल्ली)
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"जयोदय महाकाव्य राष्ट्रिय विद्वत संगोष्ठी
दि९९१५स -1
प्रशस्ति पत्र
किशनगढ़ (राजस्थान)
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पंडित जी के जीवन से संबंधित
छायाचित्र
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________________
H
पंडित जी के विभिन्न छायाचित्र
.
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चारों अनुयोगों और अध्यात्मशास्त्र के तत्त्ववेत्ता एवं संगीतरत्न
ब्र. पं. भगवानदास जी भाईजी
श्रीमती मथुराबाई पंडित जी के पिताश्री
पंडित जी की माताश्री ब्र. पं. भगवानदास जी भाईजी के पांचों सुपुत्र
पं. माणिकचंद जी न्यायतीर्थ
पं. श्रुतसागर जी शास्त्री
डॉ.पं. दयाचंद जी जैन, साहित्याचार्य
पं. धर्मचंद जी शास्त्री
पं. अमरचंद जी जैन प्रतिष्ठाचार्य
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डॉ. पं. दयाचंद जी जैन, साहित्याचार्य पंडित जी की पाँचों सुपुत्रियाँ
श्रीमती मनोरमा
श्रीमती राजेश्वरी
श्रीमती शकुनश्री
श्रीमती सोमाश्री
ब्र.किरण दीदी
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पंडित जी की प्रथम सुपुत्री, दामाद एव उनका परिवार
श्रीमती मनोरमा-श्री राजकुमार, सिरोंज
बड़े पुत्र-पुत्रवधु प्रदीप-रश्मि
छोटे पुत्र-पुत्रवधु पंकज-ऋतु
बड़ी पुत्री दामाद अरूणा-मुकेश
द्वितीय पुत्री = वर्षा-विजय दामाद
तृतीय पुत्री = रिमझिम-संजय दामाद
Jain Education Interational
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________________
पंडित जी की द्वितीय सुपुत्री, दामाद एवं उनका परिवार
श्रीमती राजेश्वरी-श्री कुन्दनलाल, रायसेन
बड़ी पुत्री = ज्योति-प्रदीप दामाद
द्वितीय पुत्री = प्रीति-संजय दामाद
तृतीय पुत्री = नीति-अजय दामाद
तृतीय चतुर्थ = मेघा - पियूष दामाद
Education Interna
www.jainelibrary.lg
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पंडित जी की तृतीय सुपुत्री, दामाद एवं उनका परिवार
श्रीमती शकुनश्री- श्री ऋषभ, भोपाल
बड़ी पुत्री = मोनिका-मोहन दामाद
द्वितीय पुत्री = सरिका-विवेक
साकेत- मोनिका
Education International
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पंडित जी की चतुर्थ सुपुत्री, दामाद एवं उनका परिवार
श्रीमती सोमाश्री- श्री अमृत, कोरबा
EAGUE
ARTRUES
बड़े पुत्र = नीरज-स्वाति
पुत्री = निमिषा-अमित
छोटा पुत्र = नितिन
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ان سے ان کی کراتای واری
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पंडित जी की बड़े माता एवं उनका परिवार
स्व. पं. श्री माणिकचंद-स्व.श्रीमती भागवती
पुत्र = नेमीचंद-कांता बहू
पुत्री = शशि
पुत्री = चंदा
नाती = मनीष-कविता बहू
नाती-पंकज
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पंडित जी की द्वितीय माता एवं उनका परिवार
स्व. पं. श्री श्रुतसागर - स्व. श्रीमती कस्तूरी
पुत्र = ईश्वरचंद - रविकांता बहू
पुत्री = रविकांता
पुत्री = विद्या
Jain Education Intematonal
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________________
पंडित जी की चतुर्थ भ्राता एवं उनका परिवार
स्व. पं. श्री धर्मचंद - स्व. श्रीमती फूलाबाई
400
बड़े पुत्र = अभय - अंगूरी बहू
द्वितीय पुत्र = स्व. भानू कुमार - ओमवती बहू
छोटे पुत्र = राजेन्द्र - निर्मला बहू
.
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पंडित जी की पंचम भाता एवं उनका परिवार
पं. श्री अमरचंद - श्रीमती कुसुम बहू
पुत्र = देवेन्द्र - कल्पना बहू
परस्ते
प्रथम पुत्री = चित्रा
द्वितीय पुत्री = कमला
तृतीय पुत्री = सुधा
चतुर्थ पुत्री = सुमन
,
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
पंडित जी द्वारा बनबाई गई चांदी की प्रतिमा को
वेदी की ओर ले जाते हुये
चांदी की प्रतिमा को वेदी पर विराजमान करते हुए पंडित जी
भगवान महावीर की प्रतिमा का चरण स्पर्श करते हए पंडित जी
For Private & Personal use only
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
चंद्रप्रभ भगवान की वेदी के सामने पूजन करते हुए पंडित जी
श्री सिद्धयंत्र की फोटो एवं मंगल कलश के साथ गृह की वेदी पर
अपनी दिनचर्या में सामायिक करते हुये पंडित जी
श्री सिद्धयंत्र की फोटो एवं मंगल कलश के साथ गृह की वेदी पर
अपनी दिनचर्या में स्वाध्याय करते हुये पंडित जी
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
श्री सिद्धयंत्र की फोटो एवं मंगल कलश के साथ गह की वेदी पर
अपनी दिनचर्या में लेखनकार्य करते हुये पंडित जी
स्वयं के द्वारा कराये सिद्धचक्र मंडल विधान में अभिषेक करते हुए पंडित जी
सिद्धचक्र मंडल विधान में अभिषेक के लिए उद्यत पंडित जी
For Private & Personal use only
,
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
सिद्धचक्र मंडल विधान में शांतिधारा को देखते हुए पंडित जी
सिद्धचक्र मंडल विधान में अभिषेक के बाद अर्ध्य चढ़ाते हुए पंडित जी
दीक्षा दिवस मंडल विधान करते हुए पंडित जी
.
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
सिद्धचक्र मंडल विधान में नृत्य करते हुए पंडित जी
सिद्धचक्र मंडल विधान में चमर लेकर नृत्य करते हुए पंडित जी
बात वदन
जय वि. जैन पंचाय
दीक्षा समारोह के अवसर पर अभिषेक के लिए कलशा लिये हुए पंडित जी
.
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
वर्णी भवन स्मारक में शांति विधान करते हुए पंडित जी
श्री सम्मेद शिखर जी की टोंकों पर कलशा चढ़ाते हए पंडित जी
श्री सम्मेद शिखर जी की टोंकों पर कलशा चढ़ाते हुए पंडित जी
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
श्री सम्मेद शिखर जी के नंदीश्वर जिनालय में कलशा चढ़ाते हुए पंडित जी
श्री समेद शिखर जी के नंदीश्वर जिनालय में ध्वजा चढ़ाते हुए पंडित जी
श्री सम्मेद शिखर जी के नंदीश्वर जिनालय में पंचमेरू पर कलशा चढाते हए पंडित जी
.
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
Ramanamang
आचार्यश्री विद्यासागरती महाराज काशवोमनदीका
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चित्र का
अनावरण करते हुए पंडित जी
मुनि समता सागर जी महाराज से चर्चा करते हुए पंडित जी
आचार्य विरागसागर जी महाराज को शास्त्र भेंट करते हुए पंडित जी
Jain Education Intemational
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
की
पसरलेले याला
Rurum प्रवाहित होती हेट
निक
वर्णी जी की प्रतिमा पर श्रीफल अर्पित करते हुए पंडित जी
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को श्रीफल अर्पित करते हुए पंडित जी
श्री बाहुबली मंदिर में पूजन पढ़ते हुए पंडित जी
,
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चित्र के आगे
दीप प्रज्जवलित करते हुए पंडित जी
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को शास्त्र समर्पित करते हुए पंडित जी
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के जन्म जयंती महोत्सव पर आरती करते हुऐ पंडित जी एवं गणमान्य व्यक्ति
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पं. जी का धार्मिक आस्था से आप्लावित जीवन
--M
EE मुनि निर्णयसागर, ऐलक विनम्र सागर जी के चातुर्मास स्थापना के समय
मंगल कलश पर मंत्र पढ़ते हुए पंडित जी
मुनि निर्णयसागर, ऐलक विनम्र सागर जी के चातुर्मास स्थापना के समय
कलश स्थापित करते हए पंडित जी
PresenrarA
धार्मिक महोत्सव के अवसर पर दीप प्रज्जवलित करते हए पंडित जी
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मान सम्मान के टीले पर आसीन पंडित जी
पटखण्डागम की प्रथम वाचना क समापन समाराह पर आचार्य श्री के सानिध्य में पं. दयाचंद जी का सम्मान करते हए पं. कपूरचंद जी
षट्खण्डागम की द्वितीय वाचना के समापन समारोह पर आचार्य श्री के सानिध्य में
पं. दयाचंद जी का सम्मान करते हुए प्रकाशचंद जी (मानकचौक वाले)
सन् 2003 में भाग्योदय में पंचकल्याणक के सुअवसर पर । पं. दयाचंद जी का सम्मान करते हुए सौधर्म इन्द्र (श्री राजकुमार टड़ा वाले)
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मान सम्मान के टीले पर आसीन पंडित जी यूरासन सस
प्रेरणा एवंस
श्रुत संवर्धन पुरस्कार से सम्मानित पंडित जी को स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए
श्रुत संवर्धन पुरस्कार से सम्मानित पंडित जी को शाल डालत हए
श्रुत संवर्धन पुरस्कार से सम्मानित पंडित जी को श्रीफल देते हुए
.
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मान सम्मान के टीले पर आसीन पंडित जी promotancern
तीर्थ रक्षा कमेटी के अध्यक्ष श्री नरेशचंद सेठी डॉ.दयाचंद जी साहित्याचार्य का सम्मान करते हुए
तीर्थंकर ऋषभदेव महासंघ के द्वारा पुरस्कृत प्राचार्य पं. दयाचंद जी
तीर्थकर ऋषभदेव विद्त महासंघ से राष्ट्रीय सम्मान द्वारा सम्मानित
प्राचार्य पं. दयाचंद जी
Jain
duca
International
pra
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मान सम्मान के टीले पर आसीन पंडित जी
मुनि समतासागर जी महाराज ससंघ के सानिध्य में सेवानिवृत्ति के सुअवसर पर प्राचार्य पं. दयाचंद जी का श्रीफल से सम्मान करते हुए
मुनि समतासागर जी महाराज ससंघ के सानिध्य में सेवानिवृत्ति के सुअवसर पर प्राचार्य पं. दयाचंद जी को सम्मान-पत्र देते हुए सदस्य गण
मुनि समतासागर जी महाराज ससंघ के सानिध्य में सेवानिवृत्ति के सुअवसर पर प्राचार्य जी का शाल से सम्मान करते हुए श्रीमंत सेठ डालचंद जी
.
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मान सम्मान के टीले पर आसीन पंडित जी
मुनि समतासागर जी महाराज ससंघ के सानिध्य में सेवानिवृत्ति के
सुअवसर पर संबोधन देते हुए पंडित जी
मुनि समतासागर जी महाराज ससंघ के सानिध्य में सेवानिवत्ति के सु अवसर पर प्राचार्य जी को श्रीफल देते हुये शिष्य अनंदीलाल (बांसवाड़ा)
संस्था के शताब्दी समारोह के अवसर सागर दिग. जैन पंचायत के अध्यक्ष
श्री महेश जी बिलहरा पंडित जी का सम्मान करते हुए
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मान सम्मान के टीले पर आसीन पंडित जी
अक्षय तृतीया के अवसर पर पंडित जी का सम्मान करते हुए प्रबंधकारिणी के अध्यक्ष श्री पूरनचंद जी जैसीनगर
वर्णी जयंती के अवसर पर पं. जी का सम्मान करते हुए कोमलचंद जी भायजी
छतरपुर से पधारे हुए नरेन्द्र कुमार जी विद्यार्थी प्राचार्य जी का सम्मान करते हुए
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मान सम्मान के टीले पर आसीन पंडित जी
श्री विद्या वर्णी जैन धर्मशाला में आयोजित कार्यक्रम में डॉ. दयाचंद जी का सम्मान करते हुए श्री दिनेश बिलहरा एवं अन्य सदस्य
अ. भा. वर्षीय महिला मंडल डॉ. दयाचंद जी का सम्मान करते हुए
अ. भा. वर्षीय महिला मंडल ब्र. किरण दीदी का सम्मान करते हुए
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मान सम्मान के टीले पर आसीन पंडित जी
चातुर्मास के अवसर पर प्राचार्य पं. दयाचंद जी का
सम्मान करते हुए श्री धर्मचंद जी सोधिया
संस्कृत शिविर के शुभारंभ पर दीप प्रज्ज्वलित करते हुए सागर वि.वि. के कुलपति डॉ. शिवकुमार श्रीवास्तव के साथ प्राचार्य पं. दयाचंद जी
संस्कृत शिविर में बाहर से पधारे संस्कृत विद्वान प्राचार्य पं. दयाचंद जी के चरण स्पर्श करते हुए
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________________
मान सम्मान के टीले पर आसीन पंडित जी
विद्वत्प्रशिक्षण शिविर मुवै
1993 मे विद्वत प्रशिक्षण शिविर में प्राचार्य जी कुलपति के पद पर आसीन
संस्कृत विद्यालय के विद्यार्थियों की छात्र हितकारिणी सभा का सांस्कृतिक कार्यक्रम करते हुए प्राचार्य जी
जावलाव दिगम्बर जनशमन
मार साना
ग्यायी कीर्तिमान
pre
हवान
अखिल भरतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद के वार्षिक अधिवेशन
पर सागरमल जी का सम्मान पत्र पढ़ते हुए पंडित जी
Jain
amamate-sperana
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विभिन्न आयोजनों में पंडित जी
in Education International
Radia
2 अक्टूबर गांधी दिवस पर पंडित जी गांधी जी की फोटो पर मार्ल्यापण करते हुए
गणतंत्र दिवस पर अमर शहीदों के छाया चित्र पर माल्यार्पण करते हुए प्राचार्य दयाचंद जी साहित्याचार्य जी
गणेश वर्णी बाल संस्कार
आधार रहे
गणतंत्र दिवस पर ध्वजा रोहण करते हुए प्राचार्य दयाचंद जी
hel
Vort
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विभिन्न आयोजनों में पंडित जी
बालदिवस के अवसर पर पं. जी अपने शिक्षकों के साथ
क्षमावाणी महात्सव
क्षमावाणी महोत्सव पर समाज के गणमान्य व्यक्तियों के बीच में
पंडित दयाचंद जी साहित्याचार्य
रस्थापकपत्यगोशाकदवा मारो। श्रीगवादियकाकालाविद्यालदार
गणतंत्र दिवस के अवसर पर ध्वजारोहण के समय सावधान अवस्था में
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________________
विभिन्न आयोजनों में पंडित जी
नरेन्द्र प्रकाश जी फिरोजाबाद के साथ थे. दयाचंद जी
श्रीगणेश व बाल संस्कार केन्द्र
सांस्कृतिक कार्यक्रम के समय पंजी संवीधन करते हुए
अखिल भारतीय महिल्ला परिषद की महिला मंडल के साथ
पंडित जी एवं धर्मचंद जी सोधिया
.
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विभिन्न आयोजनों में पंडित जी
महावीर जयंती की धर्मसभा में पंडित जी संबोधन देते हए
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- चुम्बक शिविर के अवसर पर स्टेज पर विराजमान पंडित जी
-
परक
गाअमररहे.
नद्यालयसागर
संस्कृत महाविद्यालय के छात्रों को पुरस्कार देते हुए
प्राचार्य जी एवं श्री चंपालाल जी पटिया
Jain
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श्रीगणेश दि.जैन संस्कृत महाविद्यालय,सागर |siafir श्रीभत्रहितकारिणीसमा
वार्षिकोत्सव-सन-2000
कभवन.मोराजीसार.
श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय के अध्यक्ष, मंत्री, शिक्षक एवं छात्रों के साथ प्राचार्य जी
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विभिन्न आयोजनों में पंडित जी
वन्दन-अभिनन्दन-स श्रीगणेश दिगम्बर जैनसंस्कता
दसटी एवं प्रबंधकारिणी श्रीमणेशपत्यकेंद्रवाहिता
का
करता
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तीर्थ रक्षा समिति के पदाधिकारी का सम्मान करते हए पंडित जी
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त्यापक मरीशदिगम्बर जैन
वर्णी बाल संस्कार केन्द्र के सांस्कृतिक कार्यक्रम में श्री क्रांत कुमार जी सराफ के साथ पंडित जी एवं मलैया जी
वर्णी जयंती के अवसर पर समस्त बच्चों को शुभकानायें देते हए पंडित जी
Puno Betsomalee all
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विभिन्न आयोजनों में पंडित जी
मुनि श्री वरदत्तसागर जी एवं मुनि श्री विशुद्धसागर जी महाराज ससंघ के साथ
धार्मिक कार्यक्रम में पड़ित जी
धार्मिक आयोजन में संबोधन देते हुए पंडित जी
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विभिन्न आयोजनों में पंडित जी
संस्था के बच्चों को पुरस्कार देते हुए पंडित जी एवं ऋषभ मड़ावरा
वर्णी भवन मोराजी में रात्रिकालीन पाठशाला की शिक्षिका को
पुरस्कार देते हुए पंडित जी
पूज्य सुनयमति माता जी के दीक्षा दिवस पर आयोजित आरती सजाओं
प्रतियोगिता में पुरस्कार देते हुए पंडित जी
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खण्ड-चतुर्थ
परस्परोपग्रहोजीवानाम्
पूज्य मुनि श्री एवं विद्वत मण्डल
के आगम सम्मत लेख
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आगम में स्वरूपाचरण चारित्र का स्वरूप :
___ - उपाध्याय निर्भयसागर सर्वप्रथम हमें यह समझना आवश्यक है कि स्वरूपाचरण चारित्र कहते किसे हैं ? स्वरूपाचरण चारित्र की व्याख्या करते हुए "आचार्य योगेन्दुदेव" महाराज ने परमार्थ प्रकाश ग्रन्थ के अध्याय 2/36 में लिखा है कि राग-द्वेष के अभाव रूप उत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र ही स्वरूपाचरण चारित्र है और वही निश्चय चारित्र है। प्रवचनसार गाथा 7 की टीका करते हुए “जयसेनाचार्य महाराज " लिखते हैं कि स्वरूप में चरण करना तो चारित्र है । स्वसमय (आत्मा) में प्रवृत्ति करना उसका अर्थ है वही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म हैं। शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना उसका अर्थ है वही यथावस्थित आत्मगुण होने से साम्य है और दर्शनमोहनीय एवं चरित्र मोहनीय के उदयाभाव के कारण जीव का अत्यन्त निविकार परिणाम है अत: वह निविकार परिणाम ही स्वरूपाचरण चारित्र है इस परिभाषा के अनुसार स्वरूपाचरण चारित्र 11-12 वें गुणस्थान में घटित होता है। द्रव्यसंग्रह में बह्मदेव सूरि लिखते हैं कि शुद्धोपयोग लक्षण वाला निश्चय, रत्नत्रय परिणत शुद्धात्म स्वरूप में चरण अथवा अवस्थान ही स्वरूपाचरण चरित्र है। "आचार्य कुंदकुंद स्वामी प्रवचनसार गाथा 14 में लिखते हैं कि जिसने पदार्थो और सूत्रों को भली-भांति जान लिया है जो संयम और तप से सहित होकर वीतरागी हो गये हैं और जिनके लिये सुख-दुख जीवन-मरण समान है ऐसे श्रमण (मुनि) शुद्धोपयोगी होते हैं इस कथन से स्पष्ट है कि 7वें अप्रमत्त आदि गुणस्थानवर्ती शुद्धोपयोगी होते हैं यही बात पं. दौलतराम जी छहढाला की तीसरी ढाल के चौथे पद में लिखते हैं कि
उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के अन्तर आतम ज्ञानी ।
द्विविध संग विन शुद्ध उपयोगी मुनि उत्तम निजध्यानी॥ अर्थात् उत्तम,मध्यम,जघन्य,ऐसे तीन प्रकार के अन्तरात्मा है। उनमें अंतरंग एवं बहिरंग इन दोनों परिग्रह से रहित शुद्धोपयोगी जिन आत्मध्यानी मुनि उत्तम अन्तरात्मा है। पण्डित जी के इस कथन से स्पष्ट है कि समस्त परिग्रह से रहित आत्मध्यानी मुनिही शुद्धोपयोगी होते हैं अन्य परिग्रही, ऐलक, क्षुल्लक और अविरत सम्यग्दृष्टि आदि शुद्धोपयोगी नहीं होते हैं। -
तीसरी ढाल के 5वें पद में पंडित जी लिखते हैं कि देशव्रती और अनगारी (छठे गुणस्थानवर्ती मुनि) मध्यम अन्तरात्मा हैं और जघन्य अन्तरात्मा अविरत सम्यग्दृष्टि हैं, ये तीनों मोक्षमार्गी हैं अब यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जब अविरत सम्यग्दृष्टि को भी मोक्षमार्गी कहा है तो शुद्धोपयोग होना चाहिये ? उत्तर -नहीं क्योंकि किसी भी आचार्य ने उसे शुद्धोपयोगी नहीं कहा और स्वयं पंडित जी इसी तीसरी ढाल के पन्द्रहवें पद में और स्पष्ट कथन करते हुए लिखते हैं कि -
दोष रहित गुण सहित सुधी जे सम्यक् दरश सजे हैं। चरित्र मोहवश लेश न संजम वे सुरनाथ जजै हैं ॥
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि अविरत सम्यग्दृष्टि निर्दोष सम्यगदर्शन से सुशोभित होने पर भी उसके चारित्र मोहनीय ( अप्रत्याख्यानावरण) कर्म के उदय से लेश मात्र (थोड़ा सा) भी संयम नहीं होता है फिर सोचने की बात है कि शुद्धोपयोग जो वीतराग चारित्र का अविनाभावी है वह कैसे हो सकता है।
"उत्तर पुराण" के सर्ग 74 श्लोक 543 में “आचार्य गुणभद्र स्वामी" लिखते हैं कि सम्यग्चारित्र की प्राप्ति सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही होती है परन्तु चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तो होता है. सम्यग्चारित्र नहीं होता । यदि चतुर्थ गुणस्थान में किचित भी संयम मान लिया जायेगा तो उसकी संज्ञा असंयत सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकती और न ही उसके औदयिक भाव हो सकता है, किन्तु क्षायोपशमिकभाव होगा। जब कि धवल पुस्तक 5 पृष्ठ संख्या 201 में कहा है कि असंयत सम्यग्दृष्टि का असंयतत्व औदयिक भाव है ( औदइएण भावेण पुणो असंजदो ।। 61) इस प्रकार किसी भी आर्ष ग्रन्थ में चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र की अपेक्षा औदयिक भाव ही कहा है।
तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 2 में आचार्य उमास्वामी महाराज जीव के भावों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि असंयतभाव औदयिक के 18 भावों में एक भाव है।
तीसरी ढाल में सम्यग्दर्शन की महिमा का गुणगान करने के उपरांत स्वयं पंडित जी चौथी ढाल के तीसरे पद में सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति मानते हैं और चारित्र की नहीं। ऐसा स्पष्ट उल्लेख करके लिखते हैं कि -
सम्यक साधे ज्ञान होय पै भिन्न अराधै । लक्षण श्रद्धा जान दुहु में भेद अबाधै ॥ सम्यककारण जान ज्ञान कारज है सोई।
युगपत होते हू प्रकाश दीपक तें होई॥ अर्थात् सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन के साथ होता है फिर भी अलग-अलग समझना चाहिए क्योंकि उनके लक्षण क्रमशः श्रद्धा करना और जानना है । सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है यही दोनों में अन्तर निर्बाध है जैसे दीपक की ज्योति और प्रकाश एक साथ होते है वैसे ही श्रद्धान और ज्ञान एक साथ होता है। अब यहां विचारणीय है कि यदि चारित्र भी साथ होता तो सम्यग् साधे ज्ञान चरण होय ऐसा कथन यहां एक साथ करते जब कि नहीं किया। बल्कि यह और स्पष्ट लिख दिया कि चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ चारित्र लेशमात्र भी नहीं होता है तो फिर शुद्धोपयोग कैसे हो सकता है।
पं. दौलतराम जी ने सोचा होगा कि इस कलिकाल में कई प्रकार के और भ्रम हो सकते हैं अत: किसी को भ्रम न रहे इसलिये उन्होंने चौथी ढाल के दसवें पद में पुन: स्पष्ट करते हुए लिखा कि -
सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ चारित्र लीजै । एक देश अरू सकल देश तसु भेद कहीजै ॥
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अर्थात् - सम्यग्ज्ञानी होने पर अटल सम्यग्चारित्र को धारण करना चाहिए उस चारित्र के देश चारित्र और सकल चारित्र ऐसे दो भेद है। देश चारित्र पंचम गुणस्थान में और सकल चारित्र छठे गुणस्थान से होता है। इससे समझा जा सकता है कि चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्रकट होने पर चारित्र अपने आप प्रकट नहीं होता बल्कि उसे दृढ संकल्प पूर्वक सम्यग्दृष्टि होने पर ग्रहण किया जाता है।
इस प्रकार तीसरी ढाल में सम्यग्दर्शन का और चौथी ढाल में सम्यग्ज्ञान और देशचारित्र का कथन किया है परन्तु पंडित जी ने यहां तक कहीं भी यह नहीं लिखा कि श्रावक को आत्मानुभूति शुद्धोपयोग या स्वरूपाचरण चारित्र होता है।
पांचवी ढाल में मुनि बनने के पूर्व वैराग्य उत्पन्न करने में माता के समान सहायक बारह भावनाओं का कथन पंडित जी ने किया है। अब यहां पुन: विचारणीय बात यह है कि जिसे वैराग्य ही नहीं हे और विषय कषायों से विरक्ति ही नहीं उसे शुद्धोपयोगी कैसे कह सकते हैं। वैरागी ही मुनि बनता है। इसलिये पांचवी ढाल में वैराग्य भावना के बाद छठी ढाल में मुनियो के सकल संयम का कथन किया । सकल संयमी 28 मूलगुणधारी साधु होते हैं। उन्हें ही शुद्धोपयोग अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र होता है। ऐसा स्पष्ट करने के लिये पंडित जी मुनि के 28 मूलगुण एवं सम्यग्तप का कथन करने के बाद लिखते हैं कि -
यों है सकल संयम चरित्त सुनिये स्वरूपाचरण अब ।
जिस होत प्रकटै आपनी निधि मिटै पर की प्रवृत्ति सब ।। अर्थात् - सकल संयमी मुनि को स्वरूपाचरण चारित्र होता है उसको अब सुनो। जिस स्वरूपाचरण चारित्र के प्रगट होने पर अपनी आत्मा की निधि प्रगट होती है तथा परवस्तुओं से सभी प्रकार की प्रवृत्ति मिट जाती है यहां इस कथन के बाद सुनिये स्वरूपाचरण अब यह पद लिखकर कहा कि स्वरूपाचरण चारित्र देश व्रती गृहस्थों या अव्रती गृहस्थों को नहीं होता । यदि अव्रती श्रावक या देशव्रती श्रावक को स्वरूपाचरण चारित्र होता तो वहीं देशव्रत के कथन के समय चौथी ढाल में कथन करना चाहिये था। जबकि नहीं कहा इस कथन से स्पष्ट है कि गृहस्थ श्रावक को स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता।
पंडित दौलत राम जी के द्वारा इतना स्पष्ट कथन होने के बाद भी जिनकी अपनी हट ग्राहिता है और वे अन्य प्रकार से अपना तर्क वितर्क विद्वानों के द्वारा रचित ग्रन्थों को आगम मान कर शुद्धोपयोग अर्थात स्वरूपाचरण असंयम गुणस्थान में स्वीकार करते हैं। उन्हें अपनी भ्रांति दूर करने के लिये कुछ आचार्यो के आगम प्रमाण और भी यहां दिये जा रहे हैं।
यह निश्चित है कि सम्यक दृष्टि को ही स्वरूपाचरण चारित्र होता है परन्तु असंयमी या देश संयमी सम्यक दृष्टि को नहीं, बल्कि सकल संयमी मुनि को ही होता है। अब यहां कोई तर्कशील व्यक्ति यह तर्क करे कि पूर्ण स्वरूपाचरण चारित्र, मुनि बनने पर होता है परन्तु आंशिक रूप में सम्यक् दृष्टि होने पर स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट हो सकता है। ऐसा उनका मानना अपने घर का हो सकता है, आगम का नहीं। क्योंकि आगम में ऐसा कहीं पर भी नहीं कहा । यदि चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र मानते है तो उसके पूर्व होने वाले सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, एवं सूक्ष्म साम्पराय इन चारों चारित्रों के अंश भी चौथे गुणस्थान
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ में मानने पड़ेंगे जबकि पांचों चारित्र एक साथ नहीं होते और ये पाचों चारित्र छठे गुणस्थान के पूर्व भी प्रगट नहीं होते। फिर चतुर्थ गुणस्थान में कैसे प्रकट हो सकता है।
यदि कोई तर्क करे कि चौथे गुणस्थान में मात्र उस समय क्षण मात्र के लिये स्वरूपाचरण होता है जिस समय आत्माभिमुख होते हैं और अन्य समय स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता है तो इसका समाधान यह है कि आत्म स्वरूप में क्षणिक लीनता अथवा अलीनता किस कर्म के उदय या अनुदय से होती है अर्थात् वह कौन सा कर्म है जिसके कारण प्रत्येक समय स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता यदि अनन्तानुबन्धी कषाय को उसमें बाधक मानते हैं तो तीसरे चौथै गुणस्थान में उसका अनुदय सदा ही रहता है । इसलिये हमेशा स्वरूपाचरण चारित्र मानना पड़ेगा और यदि चौथे गुण स्थान में स्वरूपाचरण चारित्र मानते हैं तो अनन्तानुबन्धी का उदयाभाव वहां भी है अत: चतुर्थ गुणस्थान में भी स्वरूपाचरण चारित्र मानना पड़ेगा किन्तु वहां मानने में जिनवाणी से प्रत्यक्ष विरोध आता है।
यदि मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व के अभाव में स्वरूपाचरण चारित्र माना जाये तो दर्शन मोहनीय कर्म को सम्यकत्व और चारित्र इन दोनों स्वभाव रूप होने का प्रसंग प्राप्त होता है जबकि जिनवाणी में ऐसा कथन नहीं पाया जाता है। फिर भी कोई इसे स्वीकार करता है तो दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व का अनुदय पाया जाता है। अत: दूसरे गुणस्थान में भी स्वरूपाचरण चारित्र मानना पड़ेगा। जो जिनवाणी के विरूद्ध है।
यदि तर्क किया जाये कि चौथे गुणस्थान में 41 प्रकृतियों का संवर होने से आंशिक रूप में स्वरूपाचरण है तो फिर इन 41 प्रकृतियों का संवर तीसरे गुणस्थान में भी है और मिथ्यात्व रूपी प्रथम गुणस्थान में भी प्रयोग लब्धि में ढले हुए जीव के 34 और बन्धापशरण द्वारा 46 प्रकृतियों का संवर हो जाता है ऐसी स्थिति में मिथ्यात्व गुणस्थान में भी स्वरूपाचरण चारित्र मानना पड़ेगा। जो जिनवाणी के प्रत्यक्ष विरूद्ध है।
अब यदि कोई ये कहे तो स्वरूपाचरण चारित्र क्षायोपशमिक भाव है क्योंकि अनन्तानुबंधी सर्वघाति प्रकृति के उदयाभाव क्षय से और सद् अवस्थारूप उपशम से उत्पन्न हुआ है ? उनका ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि ये स्थिति तो तीसरे गुणस्थान में भी पायी जाती है अत: तीसरे गुणस्थान में भी क्षायोपशमिक चारित्र का प्रसंग आता है। जबकि जिनवाणी के सूत्रों में चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक नहीं बल्कि औदयिक भाव ही कहा है। औदयिक भाव बन्ध का कारण है। बन्ध संसार का कारण है अत: असंयत सम्यक दृष्टि निराश्रव नहीं हो सकता और उसके स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता बल्कि सम्यक्त्वाचरण चारित्र मान सकते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने चारित्र पाहुड की पांचवी गाथा में सम्यक्त्वाचरण चारित्र एवं संयमाचरण चारित्र ऐसे दो प्रकार के चारित्रों का स्पष्ट उल्लेख किया है। उसी की टीका लिखते हुए आचार्य जयसेन देव लिखते हैं कि वीतराग सर्वज्ञ देव संबंधी ज्ञान और दर्शन का शुद्ध होना सम्यक्त्वाचरण है। तीन मूढता,आठ मद, छ: अनायतन, आठ शंकादि दोष इन पच्चीस दोषों से रहित जो सच्चा श्रद्धान है वही सम्यक्त्वाचरण चारित्र है।
उपासकाध्यन के श्लोक 241 में सम्यक्दर्शन के 25 दोषों का कथन करने के उपरान्त श्लोक 242 में उन समस्त दोषों से रहित सम्यक्त्व के निश्चयोचित चारित्र शब्द का उपयोग किया, जिसका अर्थ निश्चय
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ चारित्र या स्वरूपाचरण चारित्र नहीं लेना, क्योंकि जिसे आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने चारित्रपाहुड में सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहा उसे उपासकाध्ययन में सोमदेव सूरि ने निश्चयोचित चारित्र कहा है -
अत: निश्चयोचित चारित्र का अर्थ सम्यक्त्वाचरण चारित्र है न कि स्वरूपाचरण चारित्र।
सम्यक्त्वाचरण चारित्र को दर्शनाचार चारित्र भी कहते हैं और संयमाचरण चारित्र को चारित्राचार भी कहते हैं। पदमनन्दी पंचविंशतिका में आचार्य पद्यनंदी महाराज चौथे अध्याय के 64वें श्लोक में लिखते हैं कि साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध और शुद्धपयोग ये सब एकार्थवाची हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के प्रवचनसार की गाथा 230 की तात्पर्य वत्ति नाम की टीका में लिखते हैं कि सर्वपरिग्रह त्याग, परम उपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र और शुद्धोपयोग एकार्थ वाची हैं। आचार्य योगेन्द्रदेव परमात्मप्रकाश ग्रन्थ में लिखते है कि रागद्वेष के प्रभावरूप यथाख्यात चारित्र ही स्वरूपाचरण है, वही निश्चय चारित्र है। प्रवचनसार गाथा 9 की टीका में लिखा है कि प्रथम से तृतीय गुणस्थान तक अशुभोपयोग घटते हुए क्रम से होता है। चौथे से छठवें तक शुभोपयोग और सातवें से बारहवें तक शुद्धोपयोग बढते हुए क्रम से होता है। इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि जब प्रमत्त संयत मुनि को भी स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता तो फिर असंयत सम्यग्दृष्टि जीव को कैसे हो सकता है।
यदि कोई तर्कशील व्यक्ति कहता है चौथे गुणस्थान में जो कर्म निर्जरा होती है वह चारित्र का फल है। ऐसा मानना भी ठीक नहीं क्योंकि यदि उसे चारित्र का फल माना जायेगा तो प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पूर्व करणलब्धि में ढले हुए मिथ्यादृष्टि के भी प्रति समय असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। उसे भी चारित्र का फल मानना पड़ेगा । ऐसी स्थिति में मिथ्यादृष्टि के भी स्वरूपाचरण चारित्र स्वीकार हो जायेगा । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयत सम्यक्दृष्टि के सम्यक्त्वाचरण चारित्र को अचारित्र में गर्भित किया है न कि स्वरूपाचरण चारित्र में।
आचार्य वट्टकेर (कुन्दकुन्द) स्वामी मूलाचार के समयसार अधिकार की 49वीं गाथा में लिखते है जैसे हाथी स्नान करता है और स्नान करते ही गीले शरीर पर धूल डाल कर और अधिक चिपका लेता है अथवा लकडी के छेद करने वाले बर्मा की डोरी जितनी खुलती है उससे अधिक बंधती है उसी प्रकार असंयत सम्यक्दृष्टि जीव जितने कर्मो की निर्जरा करता है उससे अधिक असंयम के कारण बांध लेता है।
आचार्य जयसेन स्वामी समयसार गाथा 72 की टीका करते हुए एवं ब्रह्मदेव आचार्य दृव्य संग्रह की टीका करते हुए लिखते हैं कि जैसे हाथ में दीपक लिये हुए पुरूष रात्रि में अपने पुरूषार्थ के बल से कूप में गिरने से नहीं बचता तो दीपक क्या कर सकता है उसी प्रकार कोई पुरूष श्रद्धा और ज्ञान रूपी दीपक लेकर भी चारित्र रूपी पुरूषार्थ के बल से असंयम भाव से नहीं हटता तो सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान क्या हित कर सकता है, अर्थात् कुछ भी हित नहीं कर सकता । अब यहां एक तर्क पुनः उठता है कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयत सम्यक्दृष्टि को छहढाला में जघन्य अन्तर आत्मा कहा है और शुभोपयोगी भी कहा है तो कुछ अंश में शुद्धोपयोग भी होना चाहिये । इसका समाधान यह है कि शुभउपयोग के साथ शुद्धोपयोग नहीं हो सकता क्योंकि उपयोग की अशुद्ध, शुभ, शुद्ध ये तीन पर्याय होती हैं। दो पर्याय कभी एक साथ नहीं हो सकती ऐसा
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आगम का वाक्य है । जब अशुभोपयोग रूप पर्याय का अभाव होता है तब शुभ उपयोग रूप पर्याय का प्रार्दुभाव (उत्पाद) होता है और जब शुभोपयोग रूप पर्याय का अभाव (व्यय) होता है तब शुद्धोपयोग रूप पर्याय का प्रादुर्भाव (उत्पाद) होता है और जब शुद्धोपयोग रूप पर्याय का अभाव होता है तब केवल ज्ञान होता है। जैसे शुभोपयोग रूप पर्याय के सामने अशुभोपयोग रूप पर्याय हेय है और शुद्धोपयोग पर्याय के सामने शुभोपयोग पर्याय हेय है वैसे ही केवल ज्ञान के सामने शुद्धोपयोग पर्याय हेय है। केवल ज्ञान जीव के ज्ञान गुण की शुद्ध पर्याय है वही आत्मा को अनंत सुख का संवेदन कराती है। क्योंकि स्व संवेदन, ज्ञान गुण की पर्याय है और स्वरूपाचरण ,चारित्र गुण की पर्याय है। स्वरूपाचरण जीव की सब अवस्थाओं में नहीं पाया जाता है। पर्याय क्रमवर्ती होती है अर्थात एक पर्याय का व्यय होता है तब दूसरी पर्याय का उत्पाद होता है। पर्याय व्यापक नहीं बल्कि व्याप्य होती है और गुण व्यापक होता है । ज्ञान गुण से संवेदन होता है और ज्ञान गुण हर अवस्था में पाया जाता है।
समयसार गाथा एवं प्रवचनसार गाथा 30 की टीका करते हुए आचार्य अमृत चन्द स्वामी लिखते हैं कि जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्र नील मणिरत्न अपने प्रभास (प्रकाश) समूह से दूध में व्याप्त होकर रहता हुआ दिखाई देता है वैसे ही संवेदन अर्थात ज्ञान आत्मा से अभिन्न होकर सदा रहता है वही ज्ञान आत्मा को स्वपर का ज्ञान कराता है, अनुभव कराता है, उपलब्ध कराता है, वेदन कराता है अत: ज्ञान, अनुभव, वेदन, उपलब्धता ये सब एकार्थवाची हैं।
तत्त्वानुशासन श्लोक 161 में आचार्य नागसेन स्वामी लिखते हैं कि योगियों को जो स्वयं के द्वारा स्वयं का ज्ञेयपना और ज्ञातापना होता है, उसी का नाम स्वसंवेदन है, उसी का नाम आत्मा का अनुभव है,
और उसी का नाम आत्मदर्शन है। इसी से स्पष्ट होता है कि स्वसंवेदन योगियों को ही होता है। अब यहां पुनः प्रश्न उठता है कि जो हर अवस्था में ज्ञान गुण पाया जाता है और उससे जो आत्मा को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है, वह किस रूप में होता है उसके संबंध में प्रमेयरत्नमाला 2/5 में इसी प्रकार एक प्रश्न उठाते हुए कहा है कि योगियों को जो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है उससे अन्य संसारी जीवों को भी स्वसंवेदन ज्ञान होता है उसका कथन क्यों नहीं किया। इसका उत्तर देते हुए कहा है कि जो सुख दुख आदि के ज्ञान स्वरूप स्वसंवेदन अन्य संसारी जीवों को होता है उसका मानस प्रत्यक्ष में अन्तरभाव हो जाता है और जो इन्द्रिय ज्ञानस्वरूप संवेदन होता है उसका इन्द्रिय प्रत्यक्ष में अतभाव हो जाता है, वह भी मानस प्रत्यक्ष में गर्भित होता है । इस प्रकार के स्वसंवेदन का ज्ञान सम्यक्दृष्टि को ही नहीं बल्कि प्रत्येक संसारी प्राणी को होता है जैसे यदि कोई कड़वा, मीठा, कषायला आदि वस्तु का सेवन करता है और कांटा आदि चुभता है तो उसका संवेदन तो होगा ही क्योंकि संवेदन करना आत्मा का स्वभाव है और जितने भी औदायिक औपशमिक आदि भाव होते है वे सब जीव के अपने ही हैं ऐसा तत्वार्थ सूत्र के अध्याय 2 के प्रथम सूत्र में कहा है।
उपर्युक्त समस्त आगम प्रमाणों से सिद्ध होता है कि शुद्धोपयोग यानि स्वरूपाचरण चारित्र महाव्रती मुनि को होता है जो सप्तम गुणस्थान से प्रारंभ होकर 12वें गुणस्थान में पूर्ण होता है और 13वें गुणस्थान में उसका फल कैवल्य की प्राप्ति रूप होता है।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तीर्थंकर महावीर : जीवन और दर्शन
- मुनि समतासागर जिन शासन के प्रवर्तक चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, जिसमें प्रथम आदिनाथ और अंतिम महावीर स्वामी है। सामान्यतया लोगों को यही जानकारी है कि जैन धर्म के संस्थापक भगवान महावीर हैं किन्तु तथ्य यह है कि वह संस्थापक नहीं प्रवर्तक है। तीर्थंकर उन्हें ही कहा जाता है जो धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं। युग के आदि में हुए आदिनाथ जिनका एक नाम ऋषभनाथ भी था, ने धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया तत्पश्चात् अजितनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त तीर्थ प्रवर्तन की यह परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आई।
भगवान महावीर स्वामी का जन्म ईसा पूर्व 568 में विदेह देश स्थित (वर्तमान बिहार राज्य) वैशाली प्रांत के कुण्डपुर नगर में चैत्र सुदी त्रयोदशी 27 मार्च, सोमवार को हुआ। उत्तरा फाल्गुनी शुभ नक्षत्र में चन्द्र की स्थिति होने पर के शुभ योग में निशा के अंतिम प्रहर में उन्होंने जन्म लिया। धरती पर जब भी किसी महापुरुष का जन्म होता है तो वसुधा धन - धान्य से आपूरित हो जाती है। प्रकृति और प्राणियों में सुख शांति का संचार हो जाता है। सब तरफ आनंद का वातावरण छा जाता है सो महावीर के जन्म के समय भी ऐसा ही हुआ। जिस कुण्डपुर नगर में महावीर का जन्म हुआ था वह प्राचीन भारत के ब्रात्य क्षत्रियों के प्रसिद्ध वज्जिसंघ के वैशाली गणतंत्र के अंतर्गत था । महावीर के पिता सिद्धार्थ वहाँ के प्रधान थे। वे ज्ञातृवंशीय काश्यप गोत्रीय थे तथा माता त्रिशला उक्त वज्जिसंघ के अध्यक्ष लिच्छिविनरेश चेटक की पुत्री थी। इन्हें प्रियकारिणी देवी के नाम से भी संबोधित किया जाता था । जीवन की विभिन्न घटनाओं को लेकर वीर, अतिवीर, सन्मति, महावीर और वर्द्धमान ये पाँच नाम महावीर के थे। वर्द्धमान उनके बचपन का नाम था। कुण्डपुर का सारा वैभव राजकुमार वर्द्धमान की सेवा में समर्पित था। अपने माता पिता के इकलौते लाड़ले राजकुमार को सुख - सुविधाओं में किसी भी तरह की कमी नहीं थी किन्तु उनकी वैरागी विचारधारा को वहाँ का कोई भी आकर्षण बांध नहीं पाया और यही कारण है कि विवाह के आने वाले समस्त प्रस्तावों को ठुकराते हुए वह 30 वर्ष की भरी जवानी में जगत और जीवन के रहस्य को जानकर साधना - पथ पर चलने के लिए संकल्पित हो गए। शाश्वत सत्य की सत्ता का साक्षात्कार करने निर्ग्रन्थ दैगम्बरी दीक्षा धारण कर उन्होंने कठिन तपश्चरण प्रारंभ कर दिया। उनकी आत्म - अनुभूति और परम वीतरागता से कर्मपटल छटते गये और एक दिन वे लोकालोक को जानने वाले सर्वज्ञ अर्हन्त पद को प्राप्त हुए। इस बोधिज्ञान (केवलज्ञान) को उन्होंने जृम्भिका ग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के किनारे शाल्मलि वृक्ष के नीचे स्वच्छ शिला पर ध्यानस्थ हो प्राप्त किया था। तदुपरांत राजगृह नगर के विपुलाचल पर्वत पर धर्मसभा रूप समवशरण में विराजमान भगवान का प्रथम धर्मोपदेश हुआ। मुनि आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ के नायक बन लगातार 30 वर्ष तक सर्वत्र विहार कर वह अपने अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह और अकर्त्तावाद आदि सिद्धांतों का प्रतिपादन करते रहे। 72 वर्ष की आयु में पावापुर (बिहार) में कार्तिक वदी अमावस्या की प्रत्यूष वेला में ईसा पूर्व 527 (15 अक्टूबर, मंगलवार) को उन्हें परम निर्वाण प्राप्त हुआ। महावीर के निर्वाण के संबंध में कहा गया है कि एक ज्योति उठी किन्तु कई - कई ज्योतियों ने जन्म ले लिया। एक दीये की
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लों ऊपर गई किन्तु गाँव-गाँव नगर - नगर धरती का कण-कण दीपों से जगमगा उठा । भगवान महावीर स्वामी तो मोक्ष के वासी हुए पर उनके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, अनेकांत अपरिग्रह और अकर्त्तावाद के सिद्धांतों का प्रकाश पल- पल पर आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।
अहिंसा - प्राणियों को नहीं मारना, उन्हें भी नहीं सताना । जैसे हम सुख चाहते हैं, कष्ट हमें प्रीतिकर नहीं लगता, हम मरना नहीं चाहते वैसे ही सभी प्राणी सुख चाहते हैं, कष्ट से बचते हैं और जीना चाहते है । हम उन्हें मारने / सताने का मन में भाव न लायें, वैसे वचन न कहें और वैसा व्यवहार / कार्य भी न करें । मनसा, वाचा, कर्मणा प्रतिपालन करने का महावीर का यही अहिंसा का सिद्धांत है। अहिंसा, अभय और अमन चैन का वातावरण बनाती है । इस सिद्धांत का सार संदेश यही है कि प्राणी- प्राणी के प्राणों से हमारी संवेदना जुड़े और जीवन उन सबके प्रति सहायी / सहयोगी बने । आज जब हम वर्तमान परिवेश या परिस्थिति पर विचार करते हैं तो लगता है कि जीवन में निरंतर अहिंसा का अवमूल्यन होता जा रहा है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र बात अहिंसा की करते है। किन्तु तैयारियां युद्ध की करते हैं। आज सारा विश्व एक बारूद के ढेर पर खड़ा है। अपने वैज्ञानिक ज्ञान के द्वारा हमने इतनी अधिक अणु - परमाणु की ऊर्जा और शस्त्र विकसित कर लिए हैं कि तनिक सी असावधानी, वैमनस्य या दुर्बुद्धि से कभी भी विनाशकारी भयावह स्थिति बन सकती है। ऐसे नाजुक संवेदनशील दौर को हमें थामने की जरूरत है। हथियार की विजय पर विश्वास नहीं हृदय की विजय पर विश्वास आना चाहिए। तोप, तलवार से झुका हुआ इंसान एक दिन ताकत अर्जित कर पुन: खड़ा हो जाता है किन्तु प्रेम, करूणा और अहिंसा से वश में किया गया इंसान सदासदा के लिए हृदय से जुड़ जाता है। मेरी अवधारणा तो यही है कि अहिंसा का व्रत जितना प्रासंगिक महावीर के समय में था उतना ही और उससे कहीं अधिक प्रासंगिक आज भी है। कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार को देखकर सम्राट अशोक का दिल दहल गया और फिर उसने जीवन में कभी भी तलवार नहीं उठाई । तलवार Salad a बिना ही उसने अहिंसक शासन का विस्तार किया । रक्तपात से नहीं रक्तसम्मान से उसने अपने शासन को समृद्ध किया । इसलिए व्यक्ति, समाज राष्ट्र और विश्व की शांति / समृद्धि के लिए भगवान महावीर द्वारा दिया गया “जियो और जीने दो' का नारा अत्यंत महत्वपूर्ण और मूल्यवान है ।
अनेकांत :- भगवान महावीर का दूसरा सिद्धांत अनेकांत का है । अनेकांत का अर्थ है - सहअस्तित्व, सहिष्णुता, अनाग्रह की स्थिति । इसे ऐसा समझ सकते हैं कि वस्तु और व्यक्ति विविध धर्मी है। जिसका सोच, चिंतन, व्यवहार और बर्ताव अन्यान्य दृष्टियों से भिन्न भिन्न है | अब वह यदि एकांगी / एकांती विचार / व्यवहार के पक्ष पर अड़कर रह जाता है तो संघर्ष / टकराव की स्थिति बनती है । अनेकांत का सिद्धांत ऐसी ही विषम परिस्थितियों में समाधान देने वाला है । यह वह सिद्धांत है जो वस्तु और व्यक्ति के कथन / पहलू को विभिन्न दृष्टियों से समझता है और उसकी सार्वभौमिक सर्वांगीण सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करता है। इस सिद्धांत के संबंध में साफ-साफ बात यह है कि एकांत की भाषा "ही" की भाषा है, रावण का व्यवहार है जबकि अनेकांत की भाषा 'भी' भाषा है, राम का व्यवहार है। राम ने रावण के अस्तित्व hat कभी नहीं नकारा किन्तु रावण राम के अस्तित्व को स्वीकारने कभी तैयार ही नहीं । यही विचार और व्यवहार संघर्ष का जनक है जिसका परिणाम विध्वंस / विनाश है। 'ही' अंहकार का प्रतीक है। 'मैं ही हूँ
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ यह उसकी भाषा है, जो कि संघर्ष और असद्भाव का मार्ग है। अनेकांत में विनम्रता/सद्भाव है। जिसकी भाषा भी है। 'ही' का परिणाम 36 के रूप में निकलता है जिसमें तीन छह की तरफ और छह तीन की तरफ नहीं देखता, किन्तु 'भी' का परिणाम 63 के रूप में आता है जिसमें छह तीन और तीन छह के गले से लगता है। यही 63 का संबंध विश्व मैत्री, विश्व बन्धुता, सौहार्द, सहिष्णुता, सहअस्तित्व और अनाग्रह रूप अनेकांत का सिद्धांत है। यही अनेकांत की दृष्टि दुनिया के भीतर बाहर के तमाम संघर्षो को टाल सकती है। युग के आदि में आदिनाथ के पुत्र भरत और बाहुबली के बीच वैचारिक टकराहट हुई, फिर युद्ध की तैयारियाँ होने लगी । मंत्रियों की आपसी सूझबूझ से उसे टाल दिया गया। और निर्धारित दृष्टि , जल और मल्लयुद्ध के रूप में दोनों भ्राता अहिंसक संग्राम में सामने आये यह दो व्यक्तियों की लड़ाई थी। फिर राम रावण का काल आया जिसमें दो व्यक्तियों के कारण दो सेनाओं में युद्ध हुआ जिसमें हथियारों का प्रयोग हुआ। हम और आगे बढ़े महाभारत के काल में आये जिसमें एक ही कुटुम्ब के दो पक्षों में युद्ध हुआ और अब दो देशों में होता है पहले भाई का भाई से, फिर व्यक्ति का व्यक्ति से, फिर एक पक्ष का दूसरे पक्ष से और अब एक देश का दूसरे देश से युद्ध चल रहा है। और युद्ध का परिणाम सदैव विध्वंस ही निकलता है। 'हमें संघर्ष नहीं शांति चाहिए। और यदि सचमुच ही हमने यही ध्येय बनाया है तो अनेकांत का सिद्धांत 'भी' की भाषा अनाग्रही व्यवहार को जीवन में अपनाना होगा।
अपरिग्रह - भगवान महावीर का तीसरा सिद्धांत अपरिग्रह का है । परिग्रह अर्थात् संग्रह- यह संग्रह मोह का परिणाम है । जो हमारे जीवन को सब तरफ से घेर लेता है, जकड़ लेता है, परवश/पराधीन बना देता है। वह है परिग्रह । धन पैसा को आदि लेकर प्राणी के काम में आने वाली तमाम सामग्री परिग्रह की कोटि में आती है। ये वस्तुएँ हमारे जीवन को आकुल - व्याकुल और भारी बनाती है। एक तरह से परिग्रह वजन ही है
और वजन हमेशा नीचे की ओर जाता है। तराजू का वह पलड़ा जिस पर वजन ज्यादा हो वह स्वभाव से ही नीचे की ओर जाता है ठीक इसी तरह से यह परिग्रह मानव जीवन को दुखी करता है संसार में डुबोता है। भगवान महावीर ने कहा या तो परिग्रह का पूर्णत: त्याग कर तपश्चरण के मार्ग को अपनाओ अथवा पूर्णत: त्याग नहीं कर सकते तो कम से कम आवश्यक सामग्री का ही संग्रह करों। अनावश्यक अनुपयोगी सामग्री का तो त्याग कर ही देना चाहिए। आवश्यक में भी सीमा दर सीमा कम करते जाये यही 'अपरिग्रह' का आचरण है जो हमें निरापद, निराकुल और उन्नत बनाता है।
अकर्त्तावाद - भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत अकर्त्तावाद का है। अकर्त्तावाद का अर्थ है किसी ईश्वरीय शक्ति / सत्ता से सृष्टि का संचालन नहीं मानना ईश्वर की प्रभुता/सत्ता तो मानना पर कर्त्तावाद के रूप में नहीं ।
"प्राणी- प्राणी के प्राणों में करूणा का संचार हो । सब तरफ अभय और आनंद का वातावरण बने हिंसा आतंक और अनैतिकता खत्म हो 'जियो और जीने दो' का अमृत संदेश सभी आत्माओं को प्राप्त हो। सौहार्द, शांति और सद्भावना हम सबके अंदर विकसित हो, बस यही कामना है।"
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तीर्थंकर महावीर
- मुनि निर्णय सागर यह संसार, जीव, पुद्गल,धर्म,अधर्म, आकाश और काल इन 6 द्रव्यों से युक्त है। संसार को न किसी ने बनाया और न ही कोई नष्ट करने वाला है । अत: संसार का न आदि है और न अंत है, संसार अनादि निधन है। 6 द्रव्यों में जानने दखने वाला जीव द्रव्य है। स्पर्श,रस, गंध, और वर्ण वाला पुद्गल द्रव्य कहलाता है। चलने वाले जीव पुद्गल को चलने में जो सहकारी हो वह धर्म द्रव्य कहलाता है। जैसे रेल के लिए पटरी। रूकते हुए जीव पुद्गल को रूकने में जो सहकारी होता है वह अधर्म द्रव्य कहलाता है । जैसे पंछी के लिए वृक्ष की छाया । जहाँ जीवादि 6 द्रव्य रहते है वह आकाश द्रव्य है। जिसके निमित्त से द्रव्यों में परिणमन होता है वह काल द्रव्य कहलाता है। जिसमें गुण और पर्याय रहते वह द्रव्य कहलाता है। उपरोक्त जीवादि द्रव्यों में पुद्गल रूपी द्रव्य होने से हम जैसे अल्प ज्ञानी का आसानी से विषय बन जाता है । जबकि शेष द्रव्य सर्वज्ञ (पूर्णज्ञानी) के ही विषय बनते है । जैन धर्म में ऐसे सर्वज्ञ को परमात्मा, भगवान, आप्त आदि अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। जैन धर्मानुसार कोई भी भगवान संसार अथवा संसार के किसी भी द्रव्य (वस्तु) को बनाते बिगाड़ते नहीं है। क्योंकि द्रव्य अनादि निधन है। भगवान (सर्वज्ञ) द्रव्य गुण और पर्याय को जानते देखते है । ऐसे भगवान (सर्वज्ञ) अनंतानंत हुए है आगे भी होते रहेंगे । परन्तु सबको जानकर यथार्य प्रतिपादन करने वाले मुख्य रूप से तीर्थंकर होते है। तीर्थंकर वस्तु को संसार को बनाने वाले चलाने वाले नहीं अपितु सही-सही बताने वाले है। ऐसे भगवान ऋषभनाथ से लेकर भगवान महावीर तक 24 तीर्थकर हुए है । यहाँ एक रोचक प्रसंग यह भी है कि तीर्थकर महावीर से ज्येष्ठ वरिष्ठ भगवान राम हुए है। तीर्थंकर महावीर के लाखों वर्ष पूर्व भगवान राम ने सर्वज्ञ अवस्था प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया है। जिनका जन्म महोत्सव भी 4 दिन पूर्व चैत्र सुदी नवमी को हुआ है। आज चैत्र सुदी त्रयोदशी है। आज के ही दिन लगभग 2600 वर्ष से भी पूर्व बालक महावीर ने जन्म लिया था। संसार में जन्म तो सभी का होता है। पर वह बहुत बिरली आत्मा होती है जो जन्म लेकर पुन: जन्म नहीं लेती है। जन्म लेकर सर्वज्ञ होकर मोक्ष प्राप्त कर लेती है। इसमें भी तीर्थंकर वह बनते है जो सारे जगत को एक ही परिवार मानते है। सारे जगत के जीवों को प्रेम करूणा की सतत् वर्षा करते रहते है। इस जगत हितैषी महा उज्ज्वल भावना का फल तीर्थंकर होना है। जब तीर्थंकर बालक गर्भ में आता है। तब तीर्थंकर की माता को सुन्दर - सुन्दर 16 स्वप्न आते है। जो विश्व कल्याणी आगामी तीर्थंकर के गर्भ में आने का संकेत करते है। देव और मनुष्य महोत्सव मनाते है जिसे गर्भ कल्याणक कहा जाता है । देवलोक से आकर 56 कुमारियां माता की सेवा में संलग्न रहती है। गर्भ में आने के 6 माह पूर्व से 15 माह तक रत्नों की प्रतिदिन वर्षा होती है। जो देव लोग करते रहते है। इसके उपरांत जब गर्भ अवस्था के 9 माह पूर्ण हो जाते है । तब तीर्थंकर बालक का शुभ मुहूर्त में जन्म होता है। जन्म के समय में भी देव मनुष्य महा महोत्सव मनाते है। जिसे जन्म कल्याणक कहा जाता है । कल्याणक का अर्थ है जिस निमित्त से जीव अपना कल्याण करते है।
जब सामान्य माता एक बालक को जन्म देती है तो उसके स्तनों में दूध भर जाता है। तब तीर्थकर
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ बालक के शरीर में श्वेत रक्त होना संभव ही है क्योंकि माता का मात्र एक पुत्र के प्रति प्रेम, करूणा, वात्सल्य का भाव रहता है। तीर्थंकर का तो पूरे विश्व के साथ प्रेम, करूणा, वात्सल्य रहता है।
"सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा दुःखं, कश्चित् भवेत॥" अत: पूर्व में भावना करते है कि सब सुखी हो, सब आरोग्य मय हो, सब जीव कल्याण लाभ प्राप्त करें कोई भी कभी भी दुख प्राप्त न करें। ऐसी भावना तीर्थंकर जैसे पुण्य कर्म को उत्पन्न करती है। यह कारण है कि उनमें शरीर का रक्त दूध के समान श्वेत होता है। इतना ही नहीं अतिशय सुन्दर होते है। शरीर से सुगंध आती है पसीना, मल, मूत्र आदि मल का अभाव रहता है। मुख से हितमित प्रिय वचन निकलते है। शरीर में स्वास्तिक कलश आदि 1008 लक्षण रहते है। जिसे देखने के बाद भी आँखे तृप्त नहीं होती है। देवराज इन्द्र अपनी दो आँखों को हजारों आँखे बनाकर तीर्थंकर बालक को निहारता रहता है। तब भी वह तृप्त नहीं होता है। ऐसा सुन्दर रूप भगवान का होता है। जो पूर्व में भगवान की भक्ति करने से मिला करता है। तीर्थंकर बालक के शरीर के बल की महिमा अपार होती है। शास्त्रों में कहा है 12 पहलवानों का बल एक सांड में होता है। 10 सांडों का बल एक भैंसे में होता है। 10 भैंसों का बल एक घोड़े में होता है। 1000 घोड़ों का बल एक हाथी में होता है। 1000 हाथी का बल एक सिंह में होता है । पाँच लाख सिंहों का बल कामदेव में होता है ।दो कामदेव का बल नारायण में होता है। नौ नारायण का बल एक चक्रवर्ती में होता है 10 लाख चक्रवर्ती का बल एक व्यंतर देव में होता है। 10 व्यंतर का बल एक इंद्र में होता है। और इंद्र से अनंत गुणा बल तीर्थंकर का होता है ऐसा बल उन्हीं को मिलना संभव है जो दूसरों पर दया करते है उनकी सेवा करते है।
आज जन्म कल्याणक का प्रसंग है यथार्थ में द्रव्य दृष्टि से विचार करे तो पायेंगे कि जीव का न जन्म होता है और न ही मरण होता है। मात्र जीव की अवस्थाएँ जन्म लेती है। अवस्थाएँ ही नष्ट होती है।. जिसे मरण कहते है। अत: जीव (आत्मा) शाश्वत है । वस कर्मोदय के कारण मनुष्य तिर्यंच आदि शरीर धारण करता रहता है। कर्म नष्ट होने पर जीव का जन्म मरण भी नष्ट हो जाता है। कर्म नष्ट से जन्म मरण आदि संसार के सभी कष्ट नष्ट हो जाते है। और शाश्वत सुख प्राप्त हो जाता हैं । यही मोक्ष कहलाता है। यहाँ हमें यह भी देखना है कि कर्म (पाप) का बंध कैसे होता है । तो उत्तर मिलेगा पाप करने से। पाप बुरे कार्यो का नाम है। अत: बुरे कार्यो का नाम पाप है अधर्म है। ठीक इसके विपरीत बुरे कार्यो का त्याग करने का नाम धर्म है। बालक तीर्थंकर ने भी जन्म लेकर पाप का त्याग कर दिया। धर्म को अंगीकार कर लिया।
____ महावीर जब बालक थे माँ उनको लेकर उद्यान में चली गई। बालक जहाँ घास नहीं थी ऐसे एक किनारे पर खड़ा हो गया। जबकि माँ जहाँ घास थी वहाँ बीच में खड़ी होकर बालक को बुलाती है, पर बालक नहीं आता। तब माँ बालक महावीर के पास आती है उसके बाल और गाल सहलाकर कहती है महावीर चुप क्यों हो क्या हो गया ? माँ ने देखा बालक के गाल आंसूओं से गीले थे फिर महावीर कहते है - माँ आपने हरी घास पर पैर रखा तब लगा मेरी पीठ पर ही पैर रख दिया है। जैसे मेरी पीठ पर पैर रखने से मुझे कष्ट होता है । वैसे ही घास पर पैर रखने से घास को भी कष्ट होता है। हमारी आत्मा के समान ही हरी वनस्पति में भी आत्मा रहती है। अत: मुझे कष्ट हो रहा है। यह है महावीर की संवदेना ऐसे लोग ही बन सकते है महावीर !
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हमें महावीर को नमन ही नहीं उनका अनुकरण भी करना चाहिए। महावीर स्वामी ने आगे और कदम बढ़ाये घर का त्याग कर वन को चले गये। दीक्षा अंगीकार कर ली आत्मा का ध्यान करने में तत्पर हो गये 12 वर्ष तक कठोर साधना करते रहे । कर्मों का नाश करते गये और केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया। केवल ज्ञान का अर्थ पूर्ण ज्ञान है । जिस ज्ञान में संसार के सभी द्रव्य गुण और समस्त द्रव्य गुणों की समस्त अवस्थायें झलकने लगती हैं वह केवलज्ञान होता है। ऐसा केवल ज्ञान वारह वर्ष की साधना के फलस्वरूप तीर्थंकर महावीर को प्राप्त हो गया।
केवल ज्ञान होने पर भ. महावीर ने समवशरण सभा में धर्म का उपदेश दिया, कल्याणकारी दिव्य संदेश दिये । महावीर प्रभु के संदेश इतने महान और विराट रहे है जिससे सभी समस्याओं का समाधान मिलता है। आज दुनिया में सर्वत्र अशांति है, कलह है, वैमनस्यता है, पाप है अत: सब दुखी है । यदि महावीर प्रभु की देशना से मिले संदेश को हम आंशिक रूप से भी अंगीकार कर ले, तब न अशांति रहेगी, न कलह, न वैमनस्यता और न कोई पाप । प्रभु ने अहिंसा का संदेश दिया इसे यदि सभी अंगीकार कर ले तो न पुलिस चाहिए, न मिलेट्री और अन्य कोई सुरक्षा | महावीर ने सत्य का संदेश दिया इसे हम सभी आंशिक रूप से भी अंगीकार कर ले तो न्याय की समस्या न होगी, न न्यायालय की आवश्यकता । अचौर्य का संदेश दिया इसे हम सभी अंगीकार करले तो न चोर रहेंगे, न चोरियाँ होगी। घर में न ताला लगाना होगा न ही चौकीदार होगा। ब्रह्मचर्य का संदेश दिया यदि इसे हम सभी अंगीकार कर ले तो न कोई एड्स जैसे रोग होंगे और न ही जनसंख्या वृद्धि होगी। जनसंख्या वृद्धि की समस्या स्वयमेव दूर हो जायेगी। अपरिग्रह का संदेश दिया प्रभु महावीर ने आज परिग्रह के कारण हार्ट अटैक जैसी घटना आम बात हो गयी है। जहाँ एक तरफ वस्तु बेकार रखी रहती है। वहीं दूसरी तरफ वस्तु का अभाव दिखता है । एक व्यक्ति को खाने को अनाज नहीं है। वहीं हजारों टन अनाज गोदामों में ही रखा - रखा सड़ जाता है। अपरिग्रह के प्रयोग से वस्तु का विकेन्द्रीकरण सहज संभव होता है। आज के युग में महावीर और महावीर सिद्धांतों की परम आवश्यकता है। महावीर प्रभु ने कहा वाणी में स्याद्वाद होना चाहिए स्याद्वाद का अर्थ किसी अभिप्राय से किसी विवक्षा से एक धर्म का कथन करने वाली शैली, जैसे तीन भाई है उनमें बीच का भाई बड़े भाई की अपेक्षा छोटा है और छोटे भाई की अपेक्षा बड़ा है एकांत से बीच का भाई न छोटा है न ही बड़ा है वह तो छोटा भी है और बड़ा भी। महावीर प्रभु ने कहा विचारों में अनेकांत रखे। परस्पर विरोधी अनेक धर्मो को स्वीकार करने वाली दृष्टि अनेकांत है । संसार में सभी गुण होते है। और दोष भी होते है। हमारी दृष्टि गुण ग्रहण करने की होनी चाहिए, जैसे कड़वी तुम्बी कड़वी होने से अनिष्ट है। पर औषधि का कार्य करने से इष्ट (ठीक) भी है। यही अनेकांत समझों।
ऐसी दिव्य देशना देने वाले भगवान महावीर ने इस भारत भूमि पर वैशाली (बिहार) नगर में जन्म लिया यह हम सभी भारतवासियों को महान गौरव की बात है। उक्त सिद्धांतों को दैनिक जीवन में हम सभी धारण कर पालन करें यही आज की मांग है । महावीर प्रभु के प्रति कृतज्ञता है।
अहिंसा परमो धर्म की जय, भगवान महावीर की जय ॥
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राग द्वेष से संसार भ्रमण
भ्रमणकारण दीर्घनेत्र सुबहुतकाल समुद्र में भ्रमण वैसे जीव यह, अज्ञान भ्रम संसार में भ्रमण रागद्वेष रूपी, दीर्घ डोरी दूध में । भ्रमणकर निकले मही, द्रव्यादि रूप समुद्र में ॥
अर्थ : यह जीव अज्ञान से रागद्वेष रूपी दो लम्बी डोरियों की खींचातानी से संसार रूपी समुद्र में बहुत काल तक घूमता रहता है, परिवर्तन करता रहता है।
भाष्य : अनादि अविद्या के वशीभूत हो जीव रागद्वेष - परिणामों को करके सिद्ध - राशि के अनंतवें भाग और अभव्य राशि के अनंत गुणे परमाणु-रूप समय प्रबद्ध को बाँधता है। योग के वश से कमती बढ़ती परमाणुओं के समूह - रूप समय प्रबद्ध को बाँधता है तथा संसार सागर में दीर्घ काल तक भटकता है। आत्मज्ञान से शून्य होकर, संवेग - भाव प्राप्त न करके, पर-पदार्थो को ही अपना समझता रहा और नाना गतियों को धारण करता रहा, आत्म तत्त्व पर लक्ष्य ही नहीं गया । निज स्वभाव तथा संसार के स्वरूप को भी नहीं समझ पा रहा ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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जैसे किसी प्राणी के लिए महासागर में पड़े रत्न को प्राप्त करना कठिन है, उसी प्रकार संसार - समुद्र में पड़े आत्म- रत्न को प्राप्त करना कठिन है । संसार क्या है ? कैसा है ? यह समझना सर्वप्रथम आवश्यक है। जब तक संसार की अवस्था का सत्यज्ञान नहीं होगा, तब तक संसार भ्रमण के कारणों से जीव नहीं बचेगा । निमित्तों से बचे बिना संसार भ्रमण समाप्त होने वाला नहीं है ।
- मुनि विशुद्ध सागर
'मूलाचार' में श्रीमद् वट्टकेराचार्य जी ने परिवर्तन के चार ही भेद किये है :
दव्वे खेत्ते काले भावे य चदुव्विहो य संसारो ।
दुर्गादि गमणिबद्धो बहुप्ययारेहिं णादव्वो || 706
संसरण करना, परिवर्तन करना, संसार है। उसके चार भेद हैं- द्रव्य परिवर्तन, काल परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन और भव परिवर्तन । भाव परिवर्तन को भी इन्हीं में समझना चाहिए, क्योंकि अन्यत्र ग्रंथों में पाँच प्रकार से संसार का उपदेश किया गया है ।
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द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव - रूप चतुर्बिध संसार है। यह चतुर्गति के गमन से संयुक्त है । अनेक प्रकार से जानना चाहिए । आचार्य भगवन् कुंद कुंद स्वामी ने पाँच प्रकार से ही संसार का कथन किया, जैसे कि :'पंचविहे संसारे जाइ जरा मरण - रोग भय पउरे ।
जिणमग्गमपेच्छंतो जीवो परिभमदि चिरकालं ॥ वारसाणुवेक्खा - | 24
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जिन - मार्ग पर श्रद्धान न करने के कारण यह जीव जन्म, बुढापा, मरण, रोग और भय से भरे हुए पंचपरावर्तन (द्रव्य, क्षेत्र, काल,भाव, भव) रूप संसार में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है।
अहो ! कषाय भाव की महिमा को देखो कि यह जीव आगम को समझकर भी अपने स्वभाव में बदलाव नहीं कर पा रहा है। संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति के भाव ही नहीं बन रहे, क्या कारण है ? लगता है अशुभ आयु का बंध कर चुका है। यह सिद्धांत/ नियम है कि अशुभ- आयु-बंधक जीव सम्यक्त्व तो प्राप्त कर सकता है, परन्तु संयम प्राप्त नहीं कर सकता। मात्र देव-आयु का बंधक जीव ही संयम धारण कर सकता है अथवा अबंधक जीव। सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य भगवन् नेमिचंद स्वामी ने गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में उल्लेख किया है
'चत्तारि वि खेत्ताई आउगबंधेण होदि सम्मत्तं ।
अणुवदमहव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तुं ॥653 अर्थात् चारों गति संबंधी आयुकर्म का बंध हो जाने पर भी सम्यक्त्व हो सकता है, किन्तु देवायु को छोड़कर शेष आयु का बंध होने पर अणुव्रत और महाव्रत नहीं होते। संसार का कथन करते हुए कार्तिकेय स्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है -
'एक्कं चयदि शरीरं अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो । पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहु - वारं ॥32 ‘एवं जं संसरणं णाणा देहेसु होदि जीवस्य ।
सो संसारो भण्णदि मिच्छकसाएहिं जुत्तस्स' ॥33॥ अर्थात् जीव एक शरीर को छोड़ता है और दूसरे शरीर को ग्रहण करता है। पश्चात उसे भी छोड़कर अन्य नये शरीर को ग्रहण करता है । इस प्रकार अनेक बार शरीर को ग्रहण करता है, अनेक बार उसे छोड़ता है मिथ्यात्व कषाय से युक्त जीव का इस प्रकार अनेक शरीरों में जो संसरण होता है उसे संसार कहते हैं।
चतुर्गति - संसार में एक क्षण को भी सुख नहीं है, परन्तु मोही अज्ञानी जीव सुखाभासों को ही सुख मान रहा है तथा पुन:-पुन. संसारार्णव में गोते लगा रहा है।
शंका : क्या कारण है कि जिससे जीव को संसार के गर्त में गोते लगाने पड़ रहे हैं ?
समाधान : मिथ्यात्व कर्म के उदय से अज्ञ प्राणी वीतराग देव, सद्शास्त्र, निर्ग्रन्थ गुरु, अहिंसादि धर्म से अपरिचित रहा तथा टंकोत्कीर्ण परम-पारिणामिक ज्ञायक - स्वभावी आत्मदेव से पूर्ण दूर रहा, अपने सत्य स्वभाव को नहीं जाना और न ही जानने का सम्यक् पुरुषार्थ किया, परन्तु इसके विपरीत कुधर्म कुतीर्थ की उपासना कर असंख्यातलोक- प्रमाण पापकर्म का संचय किया है। वक्रग्रीवाचार्य जी ने भी कहा है -
'मिच्छोदयेण जीवो जिंदंतो जेण्ह भासियं धम्म । कुधम्म कुलिंग कुतित्थं मण्णंतो भमदि संसारे ॥' वारसाणुपेक्खा 32 ॥
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ __ संसारी जीव मिथ्यात्व कर्म के उदय से जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये धर्म की निंदा करता है तथा कुधर्म, कुलिंग और कुतीर्थ को मानता है, इसलिए संसार - सिंधु में भटकता है ।
साथ ही यह मूढ संसारी प्राणी जीव-राशि के घात से माँस, मदिरा के सेवन तथा पराये धन परस्त्री के हरण से अर्जित महापाप के कारण संसार में भटकता रहता है। कैसा आश्चर्य है कि अल्पज्ञ जीव मोहरूपी अन्धकार से अन्धा हुआ दिन-रात इन्द्रिय - विषयों के निमित्त यत्नपूर्वक पाप करता रहता है । ऐसा यत्न अगर मोक्ष - मार्ग में कर लिया होता तो क्षणमात्र में मुक्ति को प्राप्त कर लिया होता।
चार गतियों के दुःख - इस लोक में मनुष्य, तिर्यंच, नरक, देव ये चार गतियाँ है । यह जीव अपने - अपने शुभाशुभ परिणामों से इन गतियों में जन्म - मरण करता रहता है। चारों ही गतियों में परमार्थ- दृष्टि से देखा जाये तो कहीं भी सुख दृष्टिगोचर नहीं होता, सत्य तो यह है । ये गतियाँ संसारी जीवों की होती है। संसार में यदि सुख होता, तो फिर संसार ही किसे कहते ? फिर वह मोक्ष ही हो जाता। जो संसार में संसारी बनकर रहने में पूर्ण सुख की बात करे, वह व्यक्ति बालू को पेलकर तेल तथा पानी मथकर घृत को निकालना चाहता है। क्या यह संभव है ? यदि नहीं, तो फिर संसार में सुख की कल्पना भी असंभव है। नरक गति के दु:ख - पापकर्म के उदय से यह जीव नरक में जन्म लेता है। वहाँ पाँच प्रकार के दु:खों को प्राप्त करता है।
'असुरोदीरिय-दुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं ।
खित्तुब्भवं च तिव्वं अण्णोण्ण-कयं च पंचविहं ॥ कातिकेयानुप्रेक्षा 35॥' अर्थात् पहला असुर-कुमारों के द्वारा दिया गया दुःख और दूसरा शारीरिक दुःख, तीसरा मानसिक दुःख, चौथा क्षेत्र से उत्पन्न होने वाला दुःख, पाँचवां अनेक प्रकार से परस्पर में दिया गया दुःख - यह पाँच प्रकार का नरकों का दु:ख है। असुर जाति के देव नारकीय जीवों को परस्पर में लड़ाते हैं। नारकियों का शरीर अत्यंत वीभत्स होता है। प्रतिक्षण अशुभ ही करते हैं । प्रतिक्षण अशुभ ही चिंतवन करते हैं। यदि अच्छा करना भी चाहें तो भी अच्छा नहीं होता; ऐसा भूमि व गति का प्रभाव है। वहाँ की भूमि अत्यंत तीक्ष्ण क्षारीय है, स्पर्श- मात्र से तीव्र वेदना होती है, जैसे हजारों बिच्छुओं ने एक साथ डंक मारा हो। नारकीय जीव परस्पर में कुत्तों की भाँति एक - दूसरे से लड़ते रहते हैं। एक श्वास समय मात्र के लिए भी उन्हें सुखशांति का वेदन नहीं होता । इस प्रकार बहु-आरंभ परिग्रह एवं तीव्र कषाय - परिणामों से ऐसी अशुभ गति को जीव प्राप्त करता है। तिर्यंच गति के दुःख -
'तत्तोणीसरिदूणं जायदितिरिएसु वहु-वियप्पेसु ।
__ तत्थविपावदि दुक्खं गन्भेवियछेयणादीयं ॥का. अ. 40॥' अर्थात् नरक से निकलकर जीव अनेक प्रकार के त्रिर्यंचों में जन्म लेता है। वहाँ गर्भज- अवस्था में छेदनादि का दुःख पाता है। एक त्रिर्यंच दूसरे त्रिर्यच को खा लेता है। यहाँ तक कि जन्म देने वाली माता भी स्वयं के बच्चे को खा जाती है। क्रूर - हृदयी नरों द्वारा भी त्रिर्यचों को उल्टे-मुख लटकाकर गला निकाल लिया जाता है। कोई रक्षा करने वाला वहाँ नहीं दिखता।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अहो ! संसार की दशा ही ऐसी है। सबल निर्बल को सताते है । कभी सबल निर्बल हो जाते है । निर्बल और सबल एक-दूसरे को पीड़ा पहुँचाते है। बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। भूख प्यास की तीव्र वेदना तिर्यंचों को हुआ करती है। कभी - कभी क्षुधा तृषा की तीव्र बाधा के आने पर प्राण भी निकल जाते हैं ।
इस प्रकार पूर्व में किये मायाचार के परिणाम को जीव इस पर्याय में दारूण दुःखों के रूप में दण्ड को प्राप्त होता है । मनुष्य गति के दुःख -
'एवं वहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि तिरिय - जोणीसु ।' तत्तणी सरिदूणं लद्धिअपुण्णो णरोहोदि ॥ का. अ. 44 ll
इस प्रकार तिर्यंच - योनि में जीव अनेक प्रकार के दुःख सहता है। वहाँ से निकलकर लब्धिपर्याप्तक मनुष्य होता है। स्त्रियों की काँखादि प्रदेशों में सम्मूर्च्छन मनुष्य प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होते हैं । तथा पुरुषों के मलादि स्थानों में भी अल्प मात्रा में उत्पन्न होते हैं। इनका सम्मूर्च्छन जन्म होता है तथा शरीर पर्याप्ति पूर्ण
के पूर्व ही अंतर्मुहूर्त (24 बार क्षुद्र भव धारण करता है) काल तक जीवित रहकर मरण को प्राप्त होते हैं। अथवा यदि गर्भ में भी उत्पन्न होता है तो वहाँ भी शरीर के अंगोपांग संकुचित रहते हैं । योनि-स्थान से निकलते हुए भी तीव्र दु:ख सहना पड़ता है। कभी बाल्यावस्था में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाती है। कभी शत्रुओं का भय होता है, तो किसी के यहाँ दुष्ट संतान का संयोग होता है। कभी इष्ट का वियोग हो जाता है। इतना ही नहीं, स्वयं का शरीर भी कार्यकारी नहीं होता है। कर्म की अनोखी विचित्रता हुआ करती है ।
मित्र भी शत्रु हो जाता है तथा शत्रु भी मित्र हो जाता है। यह संसार का स्वभाव ही ऐसा है । ज्ञानी जीवन अवस्थाओं को देखकर माध्यस्थ - भाव को प्राप्त हो जाता है।
चतुर्गति - संसार के स्वभाव को समझकर निज - स्वभाव की प्राप्ति का लक्ष्य बनाना अनिवार्य है । चारों ही गतियाँ विभावरूप हैं। इनमें अल्प भी सुख नहीं । एक मात्र वीतराग मार्ग में ही सुख का साधन है।
पंच परावर्तन का स्वरूप संसरण करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ है परिवर्तन । यह जिन जीवों
पाया जाता है वे संसारी है । परिवर्तन के पाँच भेद हैं । (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव) ये पाँच परावर्तन हैं।
द्रव्य परिवर्तन - कर्म और नो कर्म रूप पुदगलों को क्रम क्रम से ग्रहण कर उत्पन्न होने और मरने रूप (परिवर्तन) परिभ्रमण को द्रव्य परिवर्तन कहते है ।
क्षेत्र परिवर्तन - लोकाकाश के सर्वप्रदेशों में क्रम से उत्पन्न होने और मरने रूप परिभ्रमण को क्षेत्र परिवर्तन कहते है ।
काल परिवर्तन - क्रम क्रम से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सब समयों में क्रम से जन्म लेने और मरने रूप परिभ्रमण को काल परिवर्तन कहते है ।
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1.
2.
3.
'सत्तू वि होदि मित्तो मित्तो वि य जायदे तहा सत्तू । कम्म - विवाग - वसादो एसो संसार - सब्भावो ॥ का.अ.57 ॥'
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 4. भव परिवर्तन - नरकादि गतियों में बार-बार उत्पन्न होकर जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त सब आयु को क्रम
से भोगने रूप परिभ्रमण का नाम भव परिवर्तन है।
विशेष - देव गति में 31 सागर की आयु तक ही पंच परावर्तन होते हैं यद्यपि देवों की उत्कृष्ट आयु 33 सागर है किन्तु 31 सागर से अधिक आयु वाले देव नियम से सम्यग्दृष्टि होते हैं इससे इनके पंच परावर्तन नहीं होते अर्थात् १ अनुदिश और 5 अनुत्तर देवों के। 5. भाव परावर्तन - सब योग स्थानों और कषाय स्थानों के द्वारा क्रम से ज्ञानावरणादि सब कर्मों की
जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति भोगने रूप परिभ्रमण को भाव परिवर्तन कहते हैं।
इस प्रकार से इस पंच परावर्तन से जुड़े हुए सभी जीव संसारी कहलाते है और जो छूट गये हैं वे मुक्त जीव है। इन्हीं कारणों से प्राणी संसार में भ्रमण करता है।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भेद विज्ञान से आत्मज्ञान जह कुणइ को वि भेयं पाणिय-दुद्धाण तक्जोएणं ।
णाणी वि तहा भेयं करेई वरझाण-जोएणं ॥ अर्थ : जैसे कोई पुरुष तर्क के योग से पानी और दूध का भेद करता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी उत्तम ध्यान के योग से चेतन और अचेतन रूप स्व- पर का भेद करता है।
अंतिम तीर्थेश भगवान महावीर स्वामी के पावन जिन शासन को जाज्वल्यमान करने वाला आचार्य शासन तब प्रारंभ हुआ जब आचार्य भगवन्तों ने चारों अनुयोगों पर अविच्छिन्न ज्ञान की धाराओं को बहाया। उन्हीं आचार्यों की श्रेणी में भगवन् देवसेन स्वामी हैं, जिन्होंने अनुपम अनुकम्पा कर ऐसे अभूतपूर्व ग्रंथ का सृजन किया जिसमें तत्त्व का सार निहित है।
वास्तव में तत्त्व को जिसने समझा है वही तत्त्वसार है। जिसने तत्त्व को नहीं समझा। वह तत्त्व का ज्ञाता तो हो सकता है, तत्त्वसार नहीं हो सकता, क्योंकि सार अपने आप में सत् स्वरूप है । जब बाहर का सब निकल जाता है, अंत में जो बचता है, वह सार है । ऐसे ही साधना का चरमसार ध्यान है। उस ध्यान की सिद्धी जिसे हो चुकी है, वही अनंतज्ञान का धारी अरिहंत है, वही सिद्ध है । उस ध्यान की सिद्धी हेतु आचार्य भगवन् देवसेन स्वामी अपने विषय को आगे बढ़ाते हुए संकेत कर रहे हैं कि आपको विश्वास तो हो गया, श्रद्धा तो हो गई किन्तु नीर को क्षीर में कितना ही मिला दो, परन्तु सत्ता दोनों की स्वतंत्र है क्षीर क्षीर है, नीर नीर है, यह भेद - विज्ञान बहुत जरूरी है। आज तक संसार में भटका, तो उसका मूल हेतु भेद - विज्ञान का अभाव है।
भो ज्ञानी ! भेद - विज्ञान क्या ? मिलावट को मिलावट समझना, वास्तविक को वास्तविक समझना। मिलावट को समझ लिया बस, उसी का नाम भेद - विज्ञान है। आत्मा में कर्म मिल गए, जिसने एक मान लिया उसमें भेद - विज्ञान का अभाव है। जिसने यह मान लिया कि कर्म भिन्न हैं, आत्मा भिन्न हैं - ऐसा अनुभवन करता है ज्ञानी । संसार का जो भ्रमण है वह मिश्र अवस्था के कारण ही है। देखो तिल को पिलना पड़ता है, क्योंकि उसके अंदर स्निग्धता है। तुम्हें संसार में क्यों रूलना पड़ रहा है ? कयोंकि तुम्हारे में राग की स्निग्धता है । भो चेतन ! तेल की चिकनाई तो जल्दी दूर हो जाती है पर राग की चिकनाई बड़ी प्रबल है। आचार्य भगवन अमृतचंद स्वामी ने अध्यात्म अमृत कलश के 131 वें कलश में कहा है :
भेद विज्ञानत: सिद्धा सिद्धा ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥ जितने जीव आज तक सिद्ध हुए है वे सभी भेद-विज्ञान से हुए हैं और जितने जीव आज बंध रहे हैं, वह भेद-विज्ञान के अभाव में बंध रहे हैं। आचार्य देवसेन महाराज उसी भेद - विज्ञान की चर्चा कर रहे हैं। जब तक भेद-विज्ञान नहीं होगा तब तक वीतराग - विज्ञान का जन्म नहीं होगा, और जब तक तुम भौतिक - विज्ञान में जी रहे हो तब तक भेद - विज्ञान होने वाला नहीं।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
भो ज्ञानी ! पहले वीतराग - विज्ञान नहीं होता, पहले भेद - विज्ञान ही होता है। आचार्य कुंद-कुंद स्वामी कहते हैं कि कर्म का बंध ज्ञान से किया है आपने, अध्ययन से नहीं किया। कर्म का बंध तुमने ज्ञान से किया है, अज्ञान से नहीं किया। भो चेतन! हिंसा करना पाप है- यह जानते हैं आप लोग कि हिंसा से कर्म भी होता है कर्म बंध भी होता है, उसका विपाक भी होता है, फल भी मिलेगा। इतना सब जानते हो, फिर भी हिंसा करते हो आप लोग । इसी प्रकार अब्रह्म भी पाप है, एक बार के अब्रह्म सेवन करने से 9 करोड़ जीवों की हिंसा होती है। इतना जानते हुए आप अज्ञानी बन जाते हो। पाँचों पाप आप अच्छी तरह जानते हो, तो पाप का बंध आपने अज्ञानता में किया है कि जानके किया है । अत: आप उमास्वामी महाराज से पूछ लेना कि कैसा कर्म आस्त्रव होगा ।
तीव्र - मंद - ज्ञाताऽज्ञात - भावाऽधिकरण - वीर्य विशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥ तत्त्वार्थ सूत्र । तीव्र, मंद, ज्ञात, अज्ञात भाव से बंध किया उसी प्रकार का तीव्र व मंद आस्त्रव होगा ।
भो ज्ञानी ! आप जान रहे हैं कि मैं गलत करने जा रहा हूँ । अशुभ समझ रहा हूँ फिर भी पाप आम्रव कर रहे हो और कहते हो कि हे प्रभु! मेरे पापों का क्षय हो जाये। जिनदेव कहते हैं कि पाप - कर्मों का क्षय करो, पाप क्रियाओं का समापन करो, तब पाप का क्षय होगा । संयम में दो काम होते हैं - अशुभ की निवृत्ति और शुभ की प्रवृत्ति अर्थात् पूर्व में रखे अशुभ कर्मों की निर्जरा और वर्तमान में आने वाले कर्मों का संवर । अत: जिस साधना में संवर नहीं है, वह साधना मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं है, मुक्तिरानी मिलने वाली नहीं है । संवर यानि आते कर्मों को रोक देना और कर्मों की सेना को वहीं थाम देना ।
भो ज्ञानी ! मन, वचन, काय ये तीन गुप्तियाँ हैं। इंद्रियों के समाचार देने वाला, विषयों की सेना से संकेत कराने वाला, घर का भेदी यह मन है तथा कषायों को जाज्वल्यमान कराने वाला भी मन ही है । यहाँ जो तेरा मन बाहुबली है, उस मन पर विजय प्राप्त नहीं की, तो आप ध्यान रखो - पूरी दिग्विजय करके आ जा। फिर भी अधूरे हो । भोजन छोड़ देना, शरीर सुखा देना, घर छोड़ देना, परिवार छोड़ देना मगर जब तक मन को नहीं छोड़ा तो कुछ भी नहीं छोड़ा। मन को छोड़ना पड़ेगा तथा मन की छोड़ना पड़ेगी । ध्यान रखो ! आस्रव की सेना बहुत प्रचंड है, अनुशासनहीन है। जो क्रूर पापी होते हैं उनमें अनुशासन नहीं होता, तो घुसपैठ ही करते हैं। देखना, आप सामायिक करने बैठते हैं बिल्कुल शांत होकर, पर धीरे से प्रवेश कर कि दुकान की चाबी तो मेरी जेब में है । यह कौन प्रवेश कर गया ? इतनी अनुशासनहीन है आस्रव की सेना । आपको न तो सोते छोड़ती न जागते और तुझे भगवान के चरणों में भी नहीं छोड़ती है यह आस्रव की सेना ।
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भो चेतन ! यही बंध की अवस्था है। जैसे ही आप मिले और उसने फैलाया अपना जाल एवं कर्म से बांध लिया । शत्रु छिद्र ही तो देखता है, जैसे ही छिद्र मिला कि पानी ने प्रवेश किया। इंद्रियाँ जरा भी शिथिल होती हैं कि मन जैसे ही उड़ा और विशाल रूप धारण कर लिया । जब पिटता है, तो पता चलता है कि यह क्या हो गया । अतः मन को वश में करो। वचन भी छोटे मोटे नहीं है। विश्व में जितने बड़े - बड़े युद्ध
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हुए, उनका कारण वाणी असंयम था अत: प्राणी जितना संयम का पालन करते हैं उससे कई गुना वाणी संयम का पालन जरूरी है। जिन शासन कहता है कि व्यक्ति की पहचान वर्ण से मत करो, वाणी से करो। अज्ञानी वर्ण को देखता है जबकि ज्ञानी वाणी को देखता है। वर्ण तो भगवान नेमिनाथ स्वामी का, भगवान मुनिसुव्रत का कैसा था ? अरे ! तुम शरीर को देखकर मुमुक्षु की खोज मत करना। अहो ! शरीर के काले का तो मोक्ष हो सकता है, पर मन के कलूटे का कभी मोक्ष नहीं। जो शरीर से गोरा हो और मन से काला हो, उसको तो परमेश्वर भी नहीं सुधार सकते।
भो ज्ञानी ! जयसेन स्वामी ने पंचास्तिकाय की टीका में इसका बड़ा सुन्दर समाधान दिया है कि धर्म से दु:ख नहीं है, धर्म से दु:ख होने लग गया तो क्या सुख कर्म से मिलेगा ? महाराज श्री! देखा तो यही जाता है कि जो बड़ा दुष्कर्मी है, उनकी पूजा हो रही है, मालाएँ पड़ रही हैं और जय जय कार हो रही है,समाज भी सबसे आगे उसी को रखती है। भो ज्ञानी! यह पूर्व में किये गये सदकर्मो का प्रभाव झलक रहा है। ये दुष्कर्म का प्रभाव नहीं है। इसने पूर्व में ऐसा सुकृत किया था जो कि आज उदय में सामने दिख रहा है। उसके तीव्र पुण्य का उदय चल रहा है, इसलिए पाप अभी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। दूसरी तरफ आप पूजा करते दु:खी नजर आ रहे हो, आप पूजा के फल से दु:खी नहीं हो। आपने पूर्व में ऐसे दुष्कर्म का बंध किया था कि आज तुम्हारी पूजा भी उतनी प्रतिफलित नहीं हो रही है, पर यह पूजा तुम्हारी नियम से फलीभूत होगी।
भो ज्ञानी ! यदि आप विभूति को सर्वस्व मान रहे हो तो भेद - विज्ञान क्या है ? आचार्य समंतभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि राजा की सेवा वही करता है जिसको कुछ चाहिए है। जिसके रागद्वेष की निवृत्ति हो चुकी है उसको क्या राजा और क्या रंक ? किसी से भी मतलब नहीं है। जो विभूति के लिए तंत्र-मंत्र के पीछे दौड़ रहे हैं, उन्हें न तो अपने पुण्य पर विश्वास है और न जिनवाणी में। चमत्कार में लुट रहे हो, पर आत्म चमत्कार को खो रहे हो। यदि संसार के देवी - देवता कुछ दे जाते होते तो वे स्वयं अपनी आयु को क्यों नहीं बढ़ा लेते ? ध्यान रखना, अज्ञानी चमत्कारों में घूमता है, ज्ञानी चेतन - चमत्कार में रमण करता है। जिससे शांति मिले, सुख मिले, वही तो विभूति है जिससे अशांति मिले, वह विभूति किस काम की ? आचार्य समंतभद्र स्वामी कहते है :
यदि पाप निरोधोऽन्य सम्पदा किं प्रयोजनम् ।
अथ पापास्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ॥ र.क.श्रा.॥ यदि पाप का निरोध हो गया है, तो सम्पदा का क्या प्रयोजन है और पापास्त्रव जारी है तो सम्पदा से क्या प्रयोजन है। इसी तरह कहा गया है कि -
पूत सपूत तो क्या धन संचय ? पूत कपूत तो क्या धन संचय ? अर्थात् बेटा सुपुत्र है तो धन जोड़ने से क्या फायदा, वह स्वत: कमा लेगा और यदि बेटा कुपुत्र है तो धन जोड़ने से क्या फायदा, वह सब धन बर्बाद कर देगा।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भो ज्ञानी आत्माओ ! भेद - विज्ञान कहता है कि अपने अंदर में झांककर देखो, वाणी संयम पर दृष्टिपात करो, ऐसे वचन मत बोलो जिसमें किसी के मर्म पर ठेस पहुँचे । क्योंकि गोली का घाव भर सकता है, किन्तु बोली का घाव बहुत गहरा होता है । इसीलिए वाणी वीणा का काम करे, प्रेम की भाषा का उपयोग करो । प्रेम में आस्था होती है, श्रद्धान होता है । मुमुक्षु जीव किसी को सिर पकड़कर जबरन नहीं झुकाता, वह प्रेम भरी वाणी द्वारा प्राणी के हृदय में परिवर्तन करता है। जिनवाणी कहती है कि हृदय में परिवर्तन करना है तो हृदय की भूमि पर तुम प्रेम के नीर को बहा दो, परन्तु किसी के ऊपर पत्थर बनकर मत बरसो । प्रिय वाक्य सुनने से हर व्यक्ति पिघल जाता है संतुष्ट हो जाता है। अरे भाई ! किसी से झगड़ों तो भी प्रेम की भाषा में बोलो | जोधपुर (राजस्थान) में जो लोग झगड़ते हैं तो वे कहते हैं- "मेरी चरण पादुका आपके सिर - माथे विराजे ।"
कितनी सुन्दर भाषा में कितनी मधुर गाली दे डाली । परन्तु यदि भेद - विज्ञान की दृष्टि है, तो उदासीन बुद्धि होना जरूरी है। उदासीन का अर्थ है संसार के भोगों से विरक्ति होना ।
आचार्य देवसेन स्वामी इस गाथा में कह रहे हैं कि हंस - दृष्टि बनो। हंस दूध में से नीर को छोड़ देता है और दूध को पी लेता है। बस, मुमुक्षु भी वही होता है जो संसार की असारता को छोड़ देता है और सार (रत्नत्रय धर्म) को ग्रहण कर लेता है। इसके लिए श्रेष्ठ ध्यान करना जरूरी होता है । जीवन अन्य है, पुद्गल अन्य है, यही तत्त्व का सार है, शेष इसका विस्तार है। यदि ऐसा भेद - विज्ञान हो गया तो भगवान बनने में देर नहीं लगेगी! देर तो पाषाण को तराशने में लगती है। भगवान के संस्कार करने में इतनी देर नहीं लगती। सूर्य मंत्र तो एक मिनिट में हो जाता है, लेकिन प्रतिमा को कैसा बनाया जाता है वह शिल्पकार से पहले पूछना, आचार्य से बाद में पूछना ।
भो ज्ञानी आत्माओ ! अब हमें स्वयं शिल्पकार बनना होगा, स्वयं आचार्य बनना होगा, तभी भगवती आत्मा को प्राप्त कर सकोगे ।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सूरिमंत्र और उसकी महत्ता
प्रतिष्ठाचार्य पं. विमल कुमार जैन सोरया
प्रधान सम्पादक- वीतरागवाणी मासित, टीकमगढ़ (म.प्र.) 1. जिन प्रतिमा का महत्व -
साक्षात् तीर्थंकर और केवली भगवंतों के अभाव के बाद उनकी सानिध्यता की पूर्ति के लिए जिनविम्ब की रचना का उपदेश हमारे परम्पराचार्यों ने किया। तीर्थंकर और केवली भगवान केवली अवस्था में स्वात्मलीन रहते हुए उनकी वीतराग मुस्कान और वीतराग मुद्रा कैसी थी ? तद्ररूप प्रतिमा का निर्माण करना और उसकी स्थापना नय-निक्षेप से मंत्रोच्चार पूर्वक संस्कार कर गुणों का रोपण करना, पश्चात् प्रत्यक्ष आराध्य के रूप में स्थापित कर प्रतिमा को प्रत्यक्ष तीर्थंकर मानकर आराधना करने का विधान-पूर्व परम्पराचार्यों द्वारा प्रतिपादित किया गया, मंत्र एक ऐसी शक्ति हैं जो जीव और अजीव द्रव्य को प्रभावित करती है। इसीलिए तीर्थंकर भगवान के द्वारा दिव्य ध्वनि रूप द्वादशांग वाणी के दशवें अंग में विद्यानुवाद का भी उपदेश है। जिसमें मंत्र रूप बीजाक्षरों का निर्माण, मंत्र रचना, मंत्र साधन विधि आदि निरूपित किया गया - मंत्र के द्वारा इच्छित कार्यों की साकारता प्राप्त होने से व्यक्ति की मंत्र के प्रति निरंतर महत्ता और आदर श्रद्धा बढ़ती गई। आत्म कल्याण में भी मंत्र एक ऐसा साधन है जो साधक को साध्य की ओर ले जाता है। तथा जो जीव के परिणामों में विशुद्धि, निर्मलता, एकाग्रता और कर्म निर्जरा में सहकारी बनता है। 2. जैन प्रतिमा की निर्माण विधि -
प्रतिमा विज्ञान में प्रतिमा निर्माण के अनेक रूपों का प्रतिपादन है। उनके माप और आकृतियों में भी विभिन्नताएँ है आर्त रूप, रौद्र रूप, वीर रूप, हास्य रूप, सौम्य वीतराग रूप, ध्यान मुद्रा इनमें जैन प्रतिमा विज्ञान का पृथक एवं उसके माप के निर्माण का पृथक स्वरूप है, रूप वीतराग हो, ध्यान मुद्रा हो, वीतराग मुस्कान हो, वीतराग मुस्कान की एक विलक्षणता निर्मित है। आचार्यों ने जैन प्रतिमा के विषय में लिखा है - सरल, लम्बा, सुन्दर, संस्थान युक्त तरुण अवस्थाधारी नग्न, यथाजात मुद्राधारी श्री वृक्ष लक्षण युक्त भूषित हृदय वाला जानुपर्यंत लम्बी भुजा सहित 108 भाग प्रमाण जिनेन्द्र विम्ब, काँख मुख दाड़ी के केश रहित बनाने का उल्लेख है। श्रेष्ठ धातु या पाषाण की प्रतिमा को बनाने का उल्लेख है। जिस प्रमाण में जिन विम्ब का निर्माण करना हो उस प्रमाण कागज में अर्द्ध रेखा करें। उसमें 108 भाग प्रमाण रेखाएँ करें। उसमें 2 भाग प्रमाण मुख, 4 भाग प्रमाण ग्रीवा, उससे 12 भाग प्रमाण हृदय, हृदय से नाभि तक 12 भाग प्रमाण, नाभि से लिंग का मूल भाग पर्यन्त 12 भाग प्रमाण, लिंग के मूल भाग से गोड़ा तक 24 भाग प्रमाण जांघ करें। जांघ के अंत में 4 भाग प्रमाण गोंडा करें। गोंडा से टिकून्या 24 भाग प्रमाण पीड़ी बनायें, टिकून्या से पादमूल पर्यन्त 4 भाग पर्यन्त एड़ी करें। इस प्रकार 108 भागों में सम्पूर्ण शरीर की रचना 9 विभागों में बनायें। यह विभाग मस्तक के केशों से लेकर चरण तल पर्यन्त है । मस्तक के ऊपर गोलाई केश से युक्त शोभनीक करें। चरण तल के नीचे आसन रूप चौकी बनाना चाहिए।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 3. जीव तथा प्रतिमा का संस्कार और उसका प्रभाव -
जिनेन्द्र प्रतिमा को मंत्रोच्चार पूर्वक साविधि संस्कार करने से अजीव द्रव्य भी इतना प्रभावी और सातिशय बन जाता है। जिसकी सानिध्यता से जीव द्रव्य भी अपना उपकार करने में पूर्ण सक्षम हो जाता है। प्रतिमा दर्शन से स्वात्म परिणामों में विशुद्धि एवं संसार की असारता का बोध जीव को होता है । इसी हेतु की साकारता के लिए तीर्थंकर के काल में भी पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की प्रतिकृति रूप प्रतिमायें निर्मित कर मंत्रोच्चार पूर्वक उनका संस्कार किया जाता रहा है। वास्तु सर्वेक्षण से प्राप्त प्रतीक इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है।
प्राय: देखा गया है कि व्यक्ति के जीवन की शुभ और अशुभ प्रवृत्ति उसके संस्कारों के अधीन है। जिनमें से कुछ वह पूर्वभव से अपने साथ लाता है। और कुछ इसी भव में संगति और शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न करता है । इसलिए गर्भ में आने के पूर्व से ही बालक में विशुद्धि संस्कार उत्पन्न करने के लिए संस्कार क्रिया का भी विधान बताया गया है।
__ गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त यथावसर श्रावक को जिनेन्द्र पूजन एवं मंत्र संस्कार सहित 53 प्रकार की क्रियाओं का वर्णन शास्त्रों में प्रतिपादित है । इन क्रियाओं की सम्पन्नता से बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए अर्हत दशा तक पहुँचकर निर्वाण सम्पत्ति प्राप्त करने की पात्रता पा लेता है। सिद्धि विनिश्चय ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में लिखा है - ___ "वस्तुस्वभावोयं यत् संस्कार: स्मृति बीज मादधीत" अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही संस्कार है और जिसको स्मृति का बीज माना गया है। पंचास्तिकाय ग्रन्थ की ताप्पर्य वृत्ति में पृष्ठ 251 पर लिखा है। निज परम आत्मा में शुद्ध संस्कार करता है वह आत्मसंस्कार है।आत्म संस्कार ही जीव की कर्म श्रृंखला को निर्मूल करने में साधक है।और यही उसकी चरमोपलब्धि है।
श्री बट्टकेर आचार्य प्रणीत मूलाचार ग्रन्थ में पृष्ठ 286 पर लिखा है कि पठित ज्ञान के संस्कार जीव के साथ जाते हैं ।विनय से पढ़ा हुआ शास्त्र किसी समय प्रभाव से विस्मृत हो जाये तो भी वह अन्य जन्म में स्मरण हो जाता है। संस्कार रहता है। और क्रम से केवल ज्ञान को प्राप्त कराता है अत: जीव के कल्याण में संस्कार का ही सर्वोपरि महत्व है।
धवला ग्रंथ पुस्तक 1 खण्ड 4 पृष्ठ 82 में भगवंत पुष्पदंत भूतवली स्वामी ने लिखा है कि चार प्रकार की प्रज्ञाओं में जन्मान्तर में चार प्रकार की निर्मल बुद्धि के बल से विनय पूर्वक 12 अंगों का अवधारण करके देवों में उत्पन्न होकर पश्चात् अविनष्ट संस्कार के साथ मनुष्य में उत्पन्न होने पर इस भव में पढ़ने सुनने व पूंछने आदि के व्यापार से रहित जीव की प्रज्ञा औत्पातिकी कहलाती है।
तत्त्वार्थसार ग्रन्थ में जीवाधिकार पृष्ठ 45 में धवला की उपर्युक्त वर्णित कथनी की पुष्टि करते हुए आचार्य भगवन लिखते है "नरकादि भवों में जहाँ उपदेश का अभाव है वहाँ पूर्व भव में धारण किये हुए तत्त्वार्थ ज्ञान के संस्कार के बल से सम्यक्दर्शन की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार आचार्यकल्प टोडरमल जी मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ के पृष्ठ 283 पर लिखते है कि इस भव में अभ्यास कर अगली पर्याय तिर्यंच आदि में भी जाये तो वहाँ संस्कार के बल से देव शास्त्र गुरु के बिना भी सम्यक्त्व हो जाये।"
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ “स्वाध्याय एव तपः" की बात पूर्व से ही हमारे आगम आचार्य भव्यों को सम्बोधते आये हैं। स्वाध्याय का संस्कार केवलज्ञान होने तक सहकारी होता है। लोक में जीव के आत्महित में यह सर्वोपरि है। द्रव्यसंग्रह ग्रंथ की टीका में पृष्ठ 159/160 पर लिखा है कि सम्यकदृष्टि शुद्धात्म भावना भाने में असमर्थ होता है ।तब वह परम भक्ति करता है पश्चात् विदेहों में जाकर समवशरण को देखता है। पूर्व जन्म में भावित विशिष्ट भेदज्ञान के संस्कार के बल से मोह नहीं करता और दीक्षा धारण कर मोक्ष पाता है ।जैनागम ग्रंथों में वर्णित इन प्रसंगों से स्पष्ट है कि मनुष्य भव के सम्यक् संस्कार एवं स्वाध्याय उसे मोक्ष तक पहुँचने में पूर्ण सहकारी है। यह कथन जीव द्रव्य के संस्कारों का है। प्रतिमा प्रतिष्ठा निर्देश -
पंच संग्रह ग्रन्थ में धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा, प्रतिष्ठा, इन सभी को एकार्थ वाची कहा गया है जिनमें विनाश बिना पदार्थ प्रतिष्ठित रहते हैं वह बुद्धि प्रतिष्ठा है।
प्रतिमा प्रतिष्ठा का विधान सर्वप्रथम आचार्य नेमिचंद्र देव ने अपने प्रतिष्ठातिलक नाम ग्रंथ में किया है। आचार्य नेमिचंद्र देव के गुरु आचार्य अभयचंद्र और आचार्य विजय कीर्ति थे इनके प्रतिष्ठातिलक ग्रन्थ का प्रचार दक्षिण भारत में व्यापकता के साथ है। यह ग्रंथ विक्रमसंवत् 950 से 1020 के मध्य रचा गया है। विक्रम संवत् दश में ही आचार्य नेमिचंद्र देव के शिष्य आचार्य वसुनन्दि हुए इन्होंने प्राकृत भाषा में उपासकाध्ययन श्रावकाचार नाम ग्रन्थ की रचना की, उसी के अंतर्गत प्रतिष्ठा विधान का वर्णन संक्षिप्त रूप से संस्कृत भाषा में किया जो महत्वपूर्ण है। पश्चात् आचार्य श्री इन्द्रनन्दि महाराज ने विक्रमसंवत् 10/11 वीं शताब्दी में अपने प्रतिष्ठा ग्रन्थ में प्रतिमा प्रतिष्ठा, वेदी प्रतिष्ठा और शद्धि विधान का वर्णन किया है। लगभग इसी समय संवत् 1042-1053 में आचार्य श्री वसुविन्दु अपरनाम जयसेनाचार्य जी ने एक स्वतंत्र प्रतिष्ठा ग्रन्थ की रचना की, जिसमें 926 श्लोक हैं । प्रतिमा प्रतिष्ठा का यह प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता है ।श्री जयसेन स्वामी भगवत कुन्दकुन्दाचार्य के शिष्य थे। कहा जाता है कि इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ की रचना मात्र दो दिन में ही की थी। इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ का प्रचार उत्तर भारत में है । विक्रम संवत् 1292-1333 के मध्य आचार्य ब्रह्मदेव हुए इन्होंने प्रतिष्ठा तिलक नामक ग्रन्थ की रचना की जो शुद्ध संस्कृत भाषा में है। और प्रतिमा प्रतिष्ठा का एक विशिष्ट हृदयग्राही वर्णन इसमें लिखा है। इसी समय वि.सं. 1173-1243 में आचार्य कल्प पं. आशाधर जी प्रणीत प्रतिष्ठा सारोद्धार ग्रन्थ प्रकाश में आया । समय और काल की परिस्थिति के अनुसार इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ में अनेक देवी देवताओं की उपासना का प्रसंग आया है। इसी समय वि.सं. 1200 में नरेन्द्र सेनाचार्य हुए इन्होंने “प्रतिष्ठा दीपक " नामक ग्रन्थ की रचना की यह जयसेन आचार्य के वंशज थे। प्रस्तुत ग्रंथ में 350 श्लोक हैं। मूर्ति मंदिर निर्माण में तिथि नक्षत्र योग आदि का अच्छा वर्णन किया है। ग्रन्थ में स्थाप्यः, स्थापक
और स्थापना का वर्णन है ।इसके अलावा आचार्य हस्तिमल्ल जी द्वारा रचित जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय, वि.सं. 1376 आचार्य माघनंदि कृत प्रतिष्ठाकल्प, आचार्य कुमुदचंन्द्राचार्य द्वारा प्रणीत जिनसंहिता, वि.सं. 1292/ 1333 में आचार्य ब्रह्मदेव रचित प्रतिष्ठा सारोद्धार, आचार्य अकलंक भट्टारक के प्रतिष्ठा कल्प ग्रंथ एवं
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ राजकीर्ति भट्टारक प्रणीत प्रतिष्ठादर्श ग्रंथ भी देखने में आये, जो संक्षिप्त और सामान्यत: प्रतिष्ठा प्रकरण की साकारता में लिखित परम्परागत निर्देशों से युक्त हैं।
इन वर्णित सभी आचार्य ने प्रतिमा और उसकी रचना संस्कार और शुद्धि के जो निर्देश मंत्र और आराधन विधियाँ वर्णित की हैं, उनसे प्रतिमा प्रतिष्ठा की पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो जाती है।
प्रतिमा प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है कि प्रतिमा सर्वांग सुन्दर और शुद्ध होना चाहिए । शुद्ध से तात्पर्य यदि पाषाण की प्रतिमा है तो एक ही पत्थर में जिसमें कहीं जोड़ न हो, पत्थर में चटक, दराज, भदरंगता, दाग-धब्बे न हो। साथ ही वीतराग मुद्रा में स्वात्म सुख की जो मुस्कान होती है उसकी झलक मुख मुद्रा पर होना आवश्यक है इसी को वीतराग मुस्कान कहते है । मुस्कान के दो रूप होते है। एक इन्द्रिय जन्य सुख से जो मुस्कान आती है उसमें ओंठों का फैलना, खुलना या ऊपर उठना होता है। लेकिन आत्मोपलब्धि या आत्मगुणों के अभ्युदय में जो अंतर में आत्म आनंद की अनुभूति होती है। उसकी आभा समग्र मुखमण्डल पर व्याप्त होती है। ऐसी मुख मुद्रा के साथ प्रतिमा की दो अवस्थाएँ होती है - प्रथम पद्मासन और दूसरी खड़गासन । ऊपर वर्णित नाप अनुसार निर्मित प्रतिमा की प्रतिष्ठा करना चाहिए। प्रतिमा की संस्कार शुद्धि -
प्रतिमा की प्रतिष्ठा तथा संस्कार शुद्धि के लिए निर्मित वेदी के ईशान कोण में स्थापित करना चाहिए। और 6 प्रकार की शुद्धि का विधान हमारे आचार्यों ने प्रतिपादित किया है उसे सविधि सम्पन्न करें1. आकर प्रोक्षण विधि - सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा तीर्थं मिट्टी से प्रतिमा पर लेप करना । 2. शुद्धि प्रोक्षण विधि - सर्वोषधियों तथा सुगंधित द्रव्यों से युक्त जल से प्रतिमा को शुद्ध करना। 3. गुणारोपण विधि - तीर्थंकर के गुणों का संकल्प करना । 4. मंत्र न्यास - प्रतिमा के विभिन्न अंगों पर चंदन केशर से बीजाक्षरों का लिखना। आचार्यों ने 15 स्थानों
पर बीजाक्षर लिखने का निर्देश किया, लेकिन पं. आशाधर जी ने प्रतिमा में 49 स्थानों पर वर्ण
बीजाक्षरों के लिखने का उल्लेख किया। 5. मुखपट विधि-प्रतिमा के मुख को वस्त्र से ढकना। 6. मंत्रोच्चार विधि - कंकड़, बंधन, काण्डक, स्थापन, नैवेद्य, दीप,धूप, फल, यव, पंचवर्ण,
इशु वलिवर्तिका,स्वर्णकलश, पुष्पांजलि, मुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन की क्रिया मंत्रोच्चार पूर्वक करने का विधान दिया गया है। इसके बाद पंच कल्याणक रोपण की क्रिया को सम्पन्न करने हुये कर्जन्वयादि की सप्त क्रियाएँ करने के बाद केवलज्ञान प्रगट होता है।
गर्भाधान आदि 16 क्रियाओं के संस्कार के लिए प्रत्येक विधि में पृथक-पृथक यंत्राभिषेक पूजन एवं तद्प विविध मंत्र पाठों का जाप प्रतिमा के समक्ष आवश्यक है ।दीक्षा संस्कार के पूर्व दीक्षान्वय की 48 क्रियाएँ प्रतिमा में संस्कारित करना चाहिए।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सूरिमंत्र विधान -
प्रतिमा में सूरि मंत्र देने का विधान पूर्वोचार्यों द्वारा प्रणीत प्रतिष्ठा ग्रन्थों में कहीं भी नहीं दिया है। सूरि मंत्र क्या है ? कैसा है ? प्रतिमा में कैसे सूरिमंत्र देना चाहिए । इसका क्या विधि विधान है ? ऐसी जानकारी किसी पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रंथ में देखने में नहीं आई। दक्षिण भारत में तो आज भी प्रतिमा में सूरिमंत्र देने की परम्परा नहीं है । सूरिमंत्र देने का प्रथम संकेत वि.सं. 1042-1053 में आचार्य जयसेन ने अपने प्रतिष्ठा ग्रन्थ में दिया है। “अथ सूरिमंत्र" ऐसा लिखकर आगे जो मंत्र लिखा है वह यह है -
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं. णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं चत्तारि मगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगल, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि शरणं पव्वज्जामि, अरिहंते शरणं पव्वज्जामि, सिद्धे शरणं पव्वज्जामि, साहू शरणं पव्वजामि, केवलि पण्णत्तं धम्म शरणं पव्वज्जामि, क्रों ही स्वाहा।
इस सूरिमंत्र को ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी ने अपने संग्रह प्रतिष्ठाचार में यही सूरिमंत्र दिया है। पं. गुलाबचंद्रजी ने अपने प्रतिष्ठा संग्रह ग्रंथ प्रतिष्ठा रत्नाकर में पं. मन्नूलाल प्रतिष्ठाचार्य की डायरी में संग्रहीत कर लिखा लेकिन वह ब्र. शीतलप्रसाद की यथावत नकल है।
आचार्य जयसेन के पूर्व एवं परावर्ती आचार्यों ने कहीं भी किसी प्रकार के सूरिमंत्र का उल्लेख अपने ग्रन्थों में नहीं किया ।प्राण प्रतिष्ठा मंत्र भी परवर्ती विद्वानों ने अपने संग्रहीत ग्रन्थों में जो सूरिमंत्र लिखे है वह विभिन्न प्रकार है जैसे प्रतिष्ठादर्पण में गणधराचार्य श्री कुन्थसागर जी ने लिखा - "ॐ हीं झूहूं, सुंस: क्रौं ह्रीं ऐं अहं नम:'
पं. नाथूलाल जी ने प्रतिष्ठा प्रदीप ग्रन्थ में लिखा है -
ॐ हाँ ह्रीं हूँ ह्रौं ह: अ सि आ उसा अहं ॐ ह्रीं स्म्ल्यूं जम्ल्यूँत्म्ल्यूँ लम्ल्यूं ब्ल्यूँ फ्ल्यूँ भल्यूँ क्षयूँ कम्ल्यूँ हूँ हाँ णमो अरिहंताणं ॐ हीं णमो सिद्धाणं ॐ हूँ णमो आइरियाणं ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं ॐ हृ: णमो लोए सव्वसाहूणं अनाहत पराक्रमास्ते भवतु ते भवतु ते भवतु ह्रीं नमः । प्रतिष्ठा चंद्रिका में पं. शिवराजजी पाठक ने लिखा है:
"ॐ ह्रीं ऐं श्रीं भू ॐ भुव: ॐ स्वः ॐ मा: ॐ हा: ॐ जनः" तत्सविहुवरे एयं गर्भो देवाय धी महीधि योनि असिआ उसा णमो अरिहंताणं अनाहत पराक्रमस्ते भवतु ते भवतु । प्रतिष्ठाचार्य श्री सोरया जी ने अपने "प्रतिष्ठा दिवाकर" ग्रंथ में लिखा है।
आचार्यकल्प पं. आशाधरजी ने अपने प्रतिष्ठा सारोद्धार ग्रन्थ में सूर्य मंत्र का निर्देश तो नहीं किया लेकिन केवलज्ञान होने पर निम्नांकित मंत्र पाठ का निर्देश दिया -
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "ॐ केवल णाण दिवायर किरण कला वप्पणासि यण्णाणो । णव केवल लद्धागम सुजणिय परम्परा ववएसो। असहायणाण दंसणसहिओ इदि केवली हुजोएण ।जुत्तोति सजोगिजिणो अणाइणि हणारिसे उत्तो। इत्येषो र्हत्साक्षद् त्राव ती) विश्वं पात्विति स्वाहा ।"
इसके अलावा हमारे पास 6 प्रकार के संग्रहीत प्रतिष्ठा ग्रन्थ है उनमें ब्र. शीतलप्रसाद जी और पुष्पजी ने तो आचार्य जयसेन का ही मंत्र संग्रहीत किया |बाकी पं. शिवराज जी पाठक के प्रतिष्ठा चंद्रिका गणधराचार्य श्री कुन्थसागर के संग्रहीत प्रतिष्ठा विधि दर्पण एवं पं. नाथूलाल जी शास्त्री के प्रतिष्ठा प्रदीप एवं श्री सोरया जी के "प्रतिष्ठा दिवाकर" संग्रह ग्रन्थों में पृथक-पृथक सूरिमंत्र दिये हैं। उन्होंने ऐसे किसी भी ग्रन्थ का निर्देश नहीं दिया कि यह सूरिमंत्र उन्होंने कहाँ से संग्रहीत किया। श्री सोरया जी ने आचार्य श्री विमल सागर जी से सूरिमंत्र प्राप्त होने का निर्देश दिया है।
गणधराचार्य श्री कुन्थसागरजी द्वारा संग्रहीत प्रतिष्ठा ग्रन्थ "प्रतिष्ठा विधि दर्पण" में द्वितीय खण्ड पृष्ठ 292 पर लिखा है कि गुरु परम्परा से प्राप्त आचार्यों ने सूरिमंत्र को गोप्य रखा इसलिए शास्त्रों में वर्णन नहीं मिलता। सूरिमंत्र देने के संदर्भ में गणधराचार्य जी के दिगम्बर मुनि महाव्रती द्वारा ही सूरिमंत्र देने की बात लिखी है। दिगम्बर होकर प्रतिष्ठाचार्य को सूरिमंत्र नहीं देना ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया मैं नहीं कह सकता यह निर्देश उन्होंने कहाँ से प्राप्त किया। पंच कल्याणकों के समस्त संस्कार प्रतिष्ठाचार्य करें और फिर जहाँ मुनि संभव न हो वहाँ फिर प्रतिष्ठाचार्य सूरिमंत्र दे या न दे इसका समाधान नहीं दिया, दिगम्बर होकर प्रतिमा संस्कार करना अलग बात है और दिगम्बर होकर महाव्रत धारण करना अलग बात है।
प्रतिष्ठा प्रदीप संग्रहीत प्रतिष्ठा ग्रंथ में पं. नाथूलाल जी शास्त्री ने ग्रंथ में द्वितीय भाग पृष्ठ 185 पर सूरिमंत्र का 108 बार जाप प्रतिष्ठाचार्य करें। पश्चात् उसी मंत्र को मुनि से प्रतिमा में दिलाने का निर्देश दिया है। प्रतिष्ठा चंद्रिका संग्रहीत ग्रंथ के पृष्ठ 236 पर पं. श्री शिवराम जी पाठक लिखते है कि मुनि ब्रह्मचारी के अभाव में स्वयं नग्न होकर प्रतिष्ठाचार्य 108 बार जाप करके समस्त प्रतिमाओं को मंत्रित करें।
यद्यपि मैंने जीवन में अनेकों बार महाव्रती मुनिराजों के अभाव में प्रतिमाओं को दिगम्बर होकर सूरिमंत्र दिये हैं मुझे नहीं लगता कि यह गलत है। क्योंकि सूरिमंत्र का पाठ अंतरंग बहिरंग परिग्रह का कुछ समय के लिए त्याग कर मूर्ति का संस्कार किया गया है । सूरिमंत्र देना भी एक संस्कार की ही क्रिया है। मेरे देखने में यह नहीं आया कि किसी आगम आचार्य ने ऐसा कहीं उल्लेख किया हो कि सूरिमंत्र किस विधि से कौन, कैसे दे। अगर परम्परागत सूरिमंत्र प्रतिमा में देने की बात आई है तो मेरी दृष्टि में भी यह अच्छी परम्परा है कि सम्पूर्ण संस्कारों के बाद प्रतिमा में एक निर्ग्रन्थ सूरिमंत्र दें। इससे दो लाभ हैं एक तो निर्ग्रन्थ जिन प्रतिमा की तीर्थंकर जैसी सम्पूर्ण पात्रता के लिए सूरिमंत्र से आभाषित करना । दूसरे महाव्रताचरण जैसा महाभागी पूज्यशाली व्यक्ति ही महाव्रताचरण की अंतिम श्रेणी में अवस्थित होने की पात्रता का संस्कार दे। इस दृष्टि से भी सार्थक है। लेकिन महाव्रती के अभाव में प्रतिष्ठाचार्य को संस्कारित करें। इसमें मेरी दृष्टि में कहीं दोष नहीं है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
आगम संबंधी लेख संदर्भ ग्रन्थ - 1. प्रतिष्ठातिलक - आचार्य नेमिचंद्र जी 2. प्रतिष्ठा पाठ - आचार्य जयसेन जी (वसुविन्दु) 3. प्रतिष्ठा दीपक - आचार्य नरेन्द्र सेन जी
प्रतिष्ठा पाठ - आचार्य वसुनंदि जी 5. प्रतिष्ठा सारोद्धार - आचार्य कल्प पं. आशाधर जी 6. जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय - आचार्य हस्तिमल्ल जी 7. प्रतिष्ठाकल्प - आचार्य माघनंदि जी 8. जिनसंहिता - श्री कुमुदचन्द्राचार्य जी 9. प्रतिष्ठा सारोद्धार - श्री ब्रह्मसूरि जी 10. प्रतिष्ठा कल्प - श्री अकलंक भट्टारक 11. प्रतिष्ठादर्श- श्री राजकीर्ति भट्टारक 12. प्रतिष्ठा पाठ- आचार्य इन्द्रनन्दि जी संग्रह सम्पादित प्रतिष्ठा ग्रन्थ (सभी प्रकाशित) 1. प्रतिष्ठासार संग्रह - ब्र. शीतलप्रसाद जी 2. प्रतिष्ठा चन्द्रिका - श्री शिवराम पाठक जी 3. प्रतिष्ठा विधि दर्पण - श्री आ. कुन्थसागर जी 4. प्रतिष्ठा प्रदीप - श्री नाथूलाल जी 5. प्रतिष्ठा रत्नाकर - श्री गुलाब चंद जी 6. प्रतिष्ठा दिवाकर - श्री विमलकुमार सौंरया जी अन्य ग्रन्थ
पंचसंग्रह - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
सिद्धांतविनिश्चय - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन 3. मूलाचार- भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन 4. पंचास्तिकाय - परमश्रुत प्रभावक मण्डल मुम्बई 5. षट्खण्डागम- अमरावती से प्रकाशन
तत्वार्थसार - जैन सिद्धांत प्रकाशक संस्था कलकत्त 7. द्रव्य संग्रह टीका - वीतरागवाणी ट्रस्ट टीकमगढ़ 8. मोक्षमार्ग प्रकाशक - वीतरागवाणी ट्रस्ट टीकमगढ़
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "समीक्षा" जैन पूजा काव्य एक चिंतन
डॉ. पं. दयाचंद जैन, साहित्याचार्य (म.प्र.) प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली
अभय कुमार जैन
__ सेवा निवृत्त - प्राचार्य, बीना (म.प्र.) यह एक शोध कृति है, जिसे साहित्याचार्य पं. दयाचंद जी ने शताधिक (160) हिन्दी, संस्कृत प्राकृत एवं अंग्रेजी के ग्रंथों का अध्ययन, आलोडन- विलोडन करके बड़े परिश्रमपूर्वक लिखा है । यह विषय का समीक्षात्मक अध्ययन है । इस कृति पर पंडित जी को सागर विश्वविद्यालय से “डाक्टरेट" की उपाधि प्राप्त हुई थी। इस विशिष्ट कृति में जैन पूजा काव्यों के उद्भव एवं विकास को दर्शाते हुए जैन पूजा काव्यों के विविधरूपों और आयामों का वैज्ञानिक पद्धति से सप्रमाण सुविस्तृत विवेचन किया गया है। हिन्दी, संस्कृत प्राकृत काव्यों में छंद - रस-अलंकारों को सोदाहरण प्रस्तुत करते हुए जैन पूजा काव्यों में रत्नत्रय, संस्कार, पर्व, तीर्थ क्षेत्र और प्रयुक्त मण्डलों का भी विभिन्न अध्यायों में वर्णन है । परिशिष्ट एक एवं दो में हिन्दी के (250) और संस्कृत के (300) अप्रकाशित - प्रकाशित ग्रन्थों की सूची दी गई। परिशिष्ट तीन में 160 सन्दर्भ ग्रंथों की सूची तथा परिशिष्ट चार में प्रयुक्त मण्डलों का संक्षिप्त विवरण है।
जिन पूजा भक्ति और गुणीजनों की संगति से गुणों का विकास और दुर्गुणों का निरसन नियमत: होता है अत: लौकिक कार्यों से उत्पन्न दोषों को दूर करने के लिए परमात्मा की पूजा स्तुति,गुण - संकीर्तन आदि कर्तव्यों को करना आवश्यक है। जिन पूजा भक्ति से मानसिक शुद्धि, श्रेयोमार्ग की संसिद्धि, इष्ट मार्ग की प्राप्ति, शिष्टाचार का पालन, कृतज्ञता ज्ञापन होने के साथ-साथ भगवान में परलोकादि के अस्तित्व में भक्त की आस्तिकता भी द्योतित होती है । परमात्मा की सन्निधि में ही मानव महान बनता है और परमात्मा के समान ही श्रेष्ठ गुणों को पा लेता है।
साहित्य संस्कृति, कला और पुरातात्त्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण यह कृति जैन पूजाकाव्यों के अन्वेषकों | अध्येताओं के लिए बहुत उपयोगी है। सभी धर्म प्रेमियों, शोधार्थियों, दार्शनिकों, चिंतकों, मुमुक्षुओं, विद्वान मनीषियों के लिए भी पठनीय है तथा पुस्तकालयों/वाचनालयों में संग्रहणीय है। समीचीन श्रद्धा ज्ञान सदाचार सत्य संयम विनय आदि की प्राप्ति के लिए अज्ञान को दूर करने के लिए तथा पूजा भक्ति, उपासना अर्चना को समझने के लिए इस कृति को अवश्य पढ़ना चाहिए।
___पं. श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य पुरानी पीढ़ी के एक यशस्वी मनीषी विद्वान थे। भौतिक शरीर से यद्यपि अब वे हमारे बीच नहीं है, पर अपने यश: शरीर से चिरकाल तक स्मरण किये जायेंगे। अपने कृतित्व से सदा अमर रहेंगे। उनके प्रति हम श्रद्धावनत है।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वर्णी जी : एक युग पुरुष
डॉ. आर. डी. मिश्र
पूर्व प्राचार्य, सागर (म.प्र.) श्री गणेश प्रसाद वर्णी बुंदेली धरती के महान सपूत थे । वे त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति एक तितिक्षावान् महापुरुष थे। लोग प्राय: उनके व्यक्तित्व का विवेचन करते हुए उन्हें स्थूल रूप में उनकी जीवन रेखाओं में देखने का प्रयास करते है और रेखांकित करते है, इस तथ्य को उन्होंने जैन धर्म को ग्रहण किया और महान संत बने । किन्तु वास्तव में ऐसे व्यक्तित्वों को न तो किसी सीमा में बांधा जा सकता है । और न ही उन्हें किसी धर्म के परिप्रेक्ष्य में आंका ही जा सकता है क्योंकि जब ऐसे महा मानव धरती पर अवतीर्ण होते है तो उनका लक्ष्य युग मानव को उदबुद्ध करके दिशा देने का होता है अतएव इनको स्थूल जीवन रेखाओं के परे इसी परिप्रेक्ष्य में देखा परखा जाना चाहिए । ऐसे व्यक्ति लौकिक होते हुए भी अपनी अस्मिता में लोकोत्तर बन जाते है वर्णी जी ऐसे ही संत पुरुष थे जिन्होंने अपनी संकल्पशीलता और कर्मचेतना के द्वारा इस धरती को नया स्पंदन देकर प्राणवान बनाया। ऐसे महत् व्यक्तित्वों का जब लोक में अवतरण होता है तब पूरी युग चेतना एक अगड़ाई लेकर जीवंत बन जाती है।
वर्णी जी निरभिमानी थे। सरलता, सादगी और सहजता उनकी समूची पूँजी थी। उनकी क्षीण और किसी हद तक कृश काया में असीम आत्मिक बल था और यही उनकी संकल्पशीलता का प्रेरक बना । वे भारतीय मनीषियों की उस संत परम्परा के अनुयायी थे जिन्होंने मानव सेवा और परोपकार का व्रत लेकर अपने जीवन संकल्पों को पूरा किया।हिमालय की कंदराओं में अथवा तपोवन में तपस्या करने वाले ऋषियों की कोटि के मोक्ष के आकांक्षी व्यक्ति वर्णी जी न थे। वे समर्पण और सेवा की संकल्पशीलता लिए ऐसे महामानव थे जो भौतिक जीवन में रहकर भी उसमें लिप्त नहीं होता और निरंतर अपनी व्यक्ति चेतना में गतिमान रहकर मानव सेवा के उच्चाक्षयी, संकल्पों के गंतव्य को पूर्ण करता है । उसकी तपस्या मानव समाज की संघर्ष पूर्ण धरती पर रहती है। यहीं वह अपनी लोकोत्तर छवि की झलक देकर सम्पूर्ण युग को आलोकित कर जाता है।
___ आज जब हम स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग पाँच दशक पूरे कर चुके हैं तथा 21 वीं सदी के दरवाजे पर खड़े दस्तक दे रहे है तब ऐसे महनीय पुरुष की जयंती मनाते हुए अनेक प्रश्न हमारे मन मस्तिष्क में कौंध जाते है। हमारा युग आपाधापी का विग्रह, विघटन और सांस्कृतिक क्षरण का है। जीवन के भ्रमों से ग्रस्त पूरी युग चेतना आज भटक गई है और हमारी सारी सांस्कृतिक विरासत पूरी तरह बिखर गयी है। ऐसे विडम्बना पूर्ण क्षणों में वर्णी जी का व्यक्तित्व, यदि हम अंतरंगता के साथ उससे जुड़े तो वह हमारा एक शक्तिवान सबल बन सकता है। ऐसा क्या था उस सहज से दिखने वाले व्यक्तित्व में कि जो अपनी सादगी में भी वह महान बन गया। उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व सराहनीय भी हो सकता है। और अनुकरणीय भी, किन्तु इन सब से हटकर वह अवलोकन और पुनरावलोकन का प्रश्न भी बन सकता है। आज हम जिस गति से भाग रहे है
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उसमें हमें न तो ठहरने का अवकाश ही है और न ही थमने की आकांक्षा। ऐसे बेतहाशा भागते हुए मनुष्य को रूककर; एक क्षण बैठकर अपने भीतर टटोलकर अपनी शक्ति सामर्थ्य को पहचानने का निर्देश देने वाला, काया में छोटा किन्तु समुद्र के समान अथाह, असीम विस्तीर्ण व्यक्तित्व था वर्णी जी का।
उनका पूरा जीवन संकल्पों का साकार रूप था। वे लोक में रहते थे।किन्तु लोकेषणा के परे उन्होंने मानव और मनुष्यता का बड़ा गहन सूक्ष्म अध्ययन किया था आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व के उनके उद्गार कितने प्रासंगिक, अर्थपूर्ण और सटीक बैठते है, आज की युग चेतना में। जबकि उन्होंने अपने वर्तमान से सुदूर अतीत में झांककर युग मानवता को चेतावनी देते हुए कहा था कि “कहाँ गई हमारी निर्भीकता और आत्मशक्ति। आज हम आत्मा की बुलंद आवाज को ठुकराकर मग्न है एक दूसरे की प्रशंसा करने में, चाटुकारिता में। यह सबको खुश रखने की शैली ही कितनी घातक बनेगी निर्भीक भारत के आगामी निर्माण में । अन्याय का प्रतिकार करने की शक्ति का क्षीण होना ही भारत से भारतीयता का विलुप्त होना है।"
दरअसल, वर्णी जी केवल आध्यात्मिक संत या धर्मानुयायी ही नहीं थे अपितु वे एक बड़े संस्कृति चेता भी थे जिसने अपने समक्ष के सांस्कृतिक विखराब को देखा था और इसी कारण वैदिक धर्म की पृष्ठभूमि में अहिंसा की वास्तविकता बतलाने वाले जैन धर्म को स्वीकार करके मानव-सेवा का व्रत लिया था। जैन धर्म की आस्था-दीक्षा उनका सांस्कृतिक गंतव्य था। जिसे उन्होंने अपने पुण्यवान् व्यक्तित्व से पूर्ण किया। उनकी जनहितकारी भावना प्राचीन ऋषि के संकल्पों और विश्वासों का आधुनिक रूप था। पराधीन भारत को संकल्पों की वाणी देकर उन्होंने स्वाधीनता की ओर उन्मुख करके उन्हें ऋषि का मंत्र दिया था। जहाँ अहिंसा, दुर्बलता नहीं, अन्याय का प्रतिकार करने वाली मानसिक शक्ति का पर्याय थी, जैन धर्म की इसी अहिंसा शक्ति ने उन्हें आकर्षित किया था ।दीक्षा लेने के लिए और इसी ने उन्हें संवेदनशीलता देकर कर्मशक्ति की प्रेरणा दी थी। जिसके कारण वे मानव सेवा में समर्पित हुए और युग को त्याग तपस्या का एक अभिनव संदेश दिया।
स्वाधीन भारत में स्वाधीन चेतना और राष्ट्रीय भावना के प्रति उदासीनता उन्होंने देखी थी और ऐसा लगता है कि इसी भावना ने उन्हें एक नयी कल्पना दी जिसे उन्होंने साकार किया। प्राचीन ऋषियों की संकल्पशीलता से आधुनिक गुरुकुल, विद्यामंदिरों की स्थापना कर एक जाल सा बिछा दिया उन्होंने बुंदेली धरती पर इन शिक्षण संस्थाओं का ।इसी में उन्होंने आगामी भारतीय अस्मिता का पुनरुद्धार देखा । संस्कृत और हिन्दी भाषा ही भारत को समर्थ बना सकती है ।यह उनका विश्वास था, प्राचीन तपोवनी संस्कृति के आधुनिकीकरण के प्रणेता वर्णी जी के व्यक्तित्व के परिप्रेक्ष्य में एक तथ्य और भी चिंतनीय है आज के युग संदर्भ में जबकि हम बेतहाशा भाग रहे है अपने प्रचार-प्रसार के लिए वर्णी जी का तपस्वी व्यक्तित्व हमारे बीच एक प्रेरक उदाहरण है जहाँ उनकी समर्पित संस्थाओं का भूमिपूजन, शिलान्यास, उद्घाटन और शुभारम्भ सब हो गया किन्तु न तो शिलान्यास की पट्टिका का और न ही किसी का नामोल्लेख यह प्रसंग हमें बरवस याद दिलाते है हमारी प्राचीन समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराओं का जब जब उद्देश्य महत्वपूर्ण होता था
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ और अपनी धरती, मातृभूमि के प्रति सेवा समर्पण का भाव ही लक्ष्य होता था। हमारे ऋषि मुनि, मनीषी कितने महान् रहे होगे, जिन्होंने सम्पूर्ण मानवीय अस्मिता को समेटकर रख दिया वेदों और पुराणों में किन्तु कहीं भी नामोल्लेख नहीं । वर्णी जी आज के युग चेताओं को युग संदर्भ में संदेश देने वाले एक ऐसे ही ऋषि, मुनियों की परम्परा के रूप में उभरे है और प्रेरणा देते है उन व्यक्तियों को जो प्रचार-प्रसार नामोल्लेख की पट्टी का होड़ की आपाधापी में पड़े महत् लक्ष्य को बिखेर देते है। यह भारतीय परम्परा नहीं । वृक्षारोपण के आज के महोत्सव में वर्णी जी का संदेश कितना समीचीन है जब वे अमराई के रोपण की प्रेरणा देते है । और तुलसी के चौरे की मानसिकता का विश्लेषण करते है। कितना प्रेरक और कितना अनुकूल है उनका ये संदेश कैमरे की क्लिक और समाचार पत्रों के बीच वृक्षारोपण की भावना के समक्ष । ऐसे प्रखर व्यक्तित्वों की जयंतियाँ नहीं मनायी जाती। जयंती मनाना एक उत्सव धर्मिता है। महत्वपूर्ण है उसके बीच छिपी हुई भावना, और सांस्कृतिक अनुभूमि । किन्तु विडम्बना यह है कि हम उत्सवी, ताम-झाम और समारोहों की साज-सज्जा मूल चेतना को प्राय: भूल जाते है ।
वर्णी जी ने क्या किया यह तो प्रत्येक वर्ष दोहराया जाता है। हमें क्या करना चाहिए। स्वाधीनता के पश्चात् इस भटकते हुए भारतीय मनुष्य को किस रूप में उनका अनुशासन करके इस भटकन से छुटकारा पाना चाहिए। यह चिंतन इस युग मानव का सच्चा स्मरण होगा। वे वंदनीय इसलिए नहीं है कि उन्होंने जैन धर्म को स्वीकार करके प्रवचन दिये थे बल्कि इसलिए कि उन प्रवचनों के माध्यम से उन्होंने इस महान् देश की महती संस्कृति को पहचानकर बुंदेलखण्ड की सीमाओं में जो अलख जगाया था वह भारतीयता से व्यक्त ऋषियों और मुनियों की वह वाणी थी जो कभी वेदों के माध्यम से गंगा यमुना के तटों से उच्चरित हुई थी । और नर्मदा, काबेरी और कृष्णा को गुंजाती हुई महासागर तक ध्वनित हुई थी। ऐसे व्यक्तित्व न तो किसी धर्म की सीमा में रहते है और न ही किसी राष्ट्र की भौगोलिक रेखा उन्हें बांध सकती है। वे युग मानव के प्रतीक होकर सम्पूर्ण मानवता को चेतना देकर अजर अमर बन जाते है।
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स्तोत्र - साहित्य में गिरिनार
डॉ. कमलेश कुमार जैन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
जैनशास्त्रों में देव, शास्त्र और गुरू का विशेष महत्व है, क्योंकि इन तीनों की आराधना अथवा उपासना के अभाव में जीव मात्र का परम लक्ष्य मोक्षरूप पुरुषार्थ प्राप्त नहीं किया जा सकता है अत: इस परम पवित्र लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जैन मुनिश्री भी नित्य प्रति षडावश्यक कर्म करते हैं । इन षडावश्यक कर्मों में सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, स्तवन, वंदना एवं कायोत्सर्ग की गणना की गई है।' आचार्यो द्वारा प्रतिपादित इन षडावश्यकों में स्तवन का उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट है कि स्तवन अर्थात् स्तुति मुनियों का एक आवश्यक और नित्य कर्म है अत: स्तुति - साहित्य का निर्माण हमारे आचार्यों ने पर्याप्त मात्रा में किया है।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
स्तुति - साहित्य मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। अर्थात् अपने आराध्य के चरणों में अपने को सर्वतोभावेन समर्पित करने का सुगम उपाय है। स्तुति के माध्यम से हम अपने आराध्य को न केवल सर्वशक्तिमान के रूप में स्मरण करते है, अपितु उसमें अपनी अशक्ति का भी उल्लेख करते हैं । हमारा आराध्य अथवा इष्ट कोई देव अथवा गुरु होता है अत: देव अथवा गुरु की स्तुति करने के लिए हृदयङ्गत - भावों को पद्य के माध्यम से प्रस्तुत करना स्तुति है ।
किसी पूज्य पुरुष से संबंधित क्षेत्र विशेष की महिमा का वर्णन करना अथवा धर्म-दर्शन के विशेष सिद्धांतों का गुम्फन करना भी स्तुति - साहित्य का एक अङ्ग है। लोकविश्रुत आचार्य समंतभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र में दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करके चौबीस तीर्थंङ्करों के पावन चरणों में अपना विनम्र भक्तिभाव प्रदर्शित किया है । यह तथ्य किसी से छिपा हुआ भी नहीं है । किन्तु इसमें भी अपने पूज्य पुरुषों का स्तुतिगान ही प्रमुख है । क्योंकि अन्ततः उन सिद्धांतों का संबंध भी अपने पूज्य पुरुषों से ही है ।
आचार्य वसुनन्दी ने क्षेत्रपूजा के ब्याज से यह स्पष्ट किया है कि जिनेन्द्रदेव की जन्मभूमि, निष्क्रमणभूमि, केवल - ज्ञानोत्पत्ति स्थल, तीर्थं चिह्न स्थान एवं निषधिका आदि तीर्थ क्षेत्र है और इनकी पूजा भी की जाती है।' इससे पूर्व आचार्य यतिवृषभ ने अपने तिलोयपण्णत्ती नामक ग्रंथ में कालस्तव एवं क्षेत्रस्तव के अंतर्गत तथा परवर्ती विद्वान पण्डितप्रवर आशाधर ने अपने अनगारधर्मामृत नामक ग्रन्थ के उक्त तथ्यों का उल्लेख किया है।
वर्तमान काल में इस अवसर्पिणी काल की वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव से जैन धर्म का प्रादुर्भाव माना जाता है । तदुपरांत द्वितीय तीर्थङ्कर अजितनाथ आदि अन्य तेईस तीर्थङ्कर और हुए हैं, जिनमें भगवान् महावीर अंतिम एवं चौबीसवें तीर्थङ्कर हैं। इनमें प्रथम से लेकर इक्कीसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ तक सभी प्रागैतिहासिक काल के माने गये हैं। तदनंतर बाइसवें तीर्थङ्कर भगवान् नेमिनाथ यादववंशी थे, जो योगिराज श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। युवावस्था को प्राप्त होने पर इनका विवाह जूनागढ़ की राजकुमारी राजु से निश्चित हुआ था और विवाह हेतु यथासमय बारात जूनागढ़ पहुँच भी गई, किन्तु दरवाजे पर बंधे
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हुए पशुओं का करूण क्रंदन सुनकर उन्होंने होने वाले अपने छोटे साले से पूछा कि इन प्राणियों को क्यों बांध रखा है ? तब उत्तर में उसने बतलाया है कि बारात में आये हुए मांसाहारी बारातियों के भोजन हेतु इनका वध किया जायेगा। तब नेमिनाथ ने यह विचारकर कि मेरे विवाह के लिए इतने बेकसूर प्राणियों का वध किया जाये यह उचित नहीं है और उन्हें उसी क्षण वैराग्य हो गया तथा वे निकटस्थ गिरिनार पर्वत पर चले गये, जहाँ उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली । जब यह बात कुमारी राजुल को ज्ञात हुई तो वे भी उन्हें खोजते हुए गिरिनार पर्वत पर जा पहुँची और उन्हें मनाने का प्रयास किया, किन्तु जब नेमिनाथ वापिस आने को तैयार नहीं हुए तो उन्हें भी वैराग्य हो गया और राजुल ने दीक्षा ग्रहण कर आत्म - कल्याण करने का संकल्प ले लिया।
जब यह बात नारायण श्रीकृष्ण को ज्ञात हुई तो उन्होंने द्वारिकानगरी में घोषणा कर दी कि जो भी स्त्री पुरुष अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहते हैं, वे भगवान् अरिष्टनेमि के पास ऊर्जयन्त पर्वत पर जाकर दीक्षा ग्रहण कर सकते हैं । इस घोषणा को सुनकर उनके रनिवास में धर्मभाव की लहर दौड़ गई तथा रूकमणी आदि रानियाँ और प्रद्युम्नकुमार आदि राजकुमार भगवान् अरिष्टनेमि की वंदना करने गिरिनार गये। वहाँ उनके जय जयकारों से दशों दिशायें गूंज गई और शीघ्र ही अठारह हजार पुरुषों ने भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षा ग्रहण कर मुनिव्रतों को धारण कर लिया । साथ ही चालीस हजार स्त्रियों ने भी दीक्षा ग्रहणकर आर्यिका के व्रतों का पालन करना प्रारंभ कर दिया।
कालांतर में उग्र तपस्या के फलस्वरूप भगवान् नेमिनाथ एवं सम्बुकुमार, प्रद्युम्नकुमार और अनिरूद्धकुमार आदि के साथ ही कुल बहत्तर करोड़ सात सौ मुनिराजों ने क्रमशः इस पवित्र गिरिनार पर्वत से मुक्ति को प्राप्त किया । आर्यिका राजुल ने भी आयु समाप्त होने पर शरीर को त्यागकर सोलहवें स्वर्ग को प्राप्त किया।
- इस प्रकार गिरिनार पर्वत को भगवान् नेमिनाथ सहित बहत्तर करोड़ सात सौ मुनिराजों की निर्वाण भूमि होने का महान गौरव प्राप्त है अत: इस निर्वाणक्षेत्र की वंदना एवं पूजा करना प्रत्येक जैनधर्मावलम्बी का परम कर्तव्य है।
जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प नामक श्वेताम्बर ग्रंथ में गिरिनार को रैवतगिरि अथवा ऊर्जयन्तगिरि के नाम से उल्लिखित किया गया है। उसमें भगवान् नेमिनाथ से संबंधित चार स्थानों का उल्लेख है । उक्त ग्रंथ के अनुसार भगवान् नेमिनाथ ने छत्रशिला के पास दीक्षा ग्रहण की थी। सहस्राम्रवन में उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। लक्खाराम में उन्होंने देशना दी थी और अवलोकन शिखर से वे मुक्त हुए थे।
इससे स्पष्ट है कि भगवान् नेमिनाथ के दीक्षा कल्याणक, ज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक - ये तीन कल्याणक गिरिनार पर्वत पर सम्पन्न हुए थे। यह बात अलग है कि गिरिनार पर्वत अत्यंत विशाल होने से उसके भिन्न-भिन्न शिखरों को उन्होंने अपनी तपस्या का केन्द्रबिन्दु बनाया था। अत: यह गिरिनार पर्वत मङ्गलस्वरूप है। तिलोयपण्णत्तीकार ने जिन मङ्गलों का उल्लेख किया है, उनमें क्षेत्र मङ्गल के रूप में ऊर्जयन्त अर्थात् गिरिनार का उदाहरण के रूप में उल्लेख किया है।'
स्तुति के रूप में गिरिनार का सर्वप्रथम उल्लेख दश-भक्तियों के अंतर्गत तीर्थङ्करभक्ति एवं
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ निर्वाणभक्ति में किया गया है । ये भक्तियाँ प्राकृत में भी है और संस्कृत में भी। संस्कृत की सभी भक्तियाँ पूज्यपाद स्वामीकृत है एवं प्राकृत की सभी भक्तियाँ आचार्य कुन्दकुन्दकृत है।
संस्कृत निर्वाणभक्ति में लिखा है कि - जिस मङ्गलकारी ऊर्जयन्त पर्वत की परमार्थ की खोज करने वाले विबुधेश्वर आदि श्रमणों के द्वारा सेवा की जाती है, उसी बृहद् ऊर्जयन्त पर्वत पर भगवान् अरिष्टनेमि ने यथासमय अष्ट कर्मों का नाश करके मुक्ति को प्राप्त किया।
इन भक्तियों के अतिरिक्त नेमिनाथ भगवान् की अनेक आचार्यों ने स्तुति की है और उनमें ऊर्जयन्त पर्वत के माहात्म्य को रेखाङ्कित किया है । ऐसे आचार्यो में आचार्य समन्तभद्र प्रमुख हैं। उन्होंने अपने स्वयम्भूस्तोत्र में तीर्थङ्कर नेमिनाथ की दश पद्यों में स्तुति की है, जिनमें सातवें एवं आठवें पद्य में ऊर्जयन्त पर्वत का अनेक विशेषणों एवं उपमाओं के साथ उल्लेख किया है । लिखते हैं कि जो पृथ्वी का कुकुद है, अर्थात् बैल के कंधे के समान ऊँचा तथा शोभा उत्पन्न करने वाला है, जो विद्याधरों की स्त्रियों से सेवित शिखरों के द्वारा सुशोभित है, जिसके तट मेघों के समूह से घिरे रहते हैं, जो इन्द्र के द्वारा लिखे हुए आपके (नेमिनाथ के) चिह्नों को धारण करता है, इसलिए वह तीर्थ स्थान है। हमेशा तथा आज भी प्रीति से विस्तृत चित्त वाले ऋषियों के द्वारा जो सब ओर से अत्याधिक सेवित है, ऐसा वह अतिशय प्रसिद्ध ऊर्जयन्त नाम का पर्वत है।
इसी प्रकार मुनि विजयसिंह, आचार्य हेमचंद्र एवं आचार्य रामचंद्रसूरि का भी नेमिस्तव पाया जाता है, जिनमें मुनि चतुरविजय के अनुसार मुनि विजय सिंह आचार्य का नेमिस्तव सबसे प्राचीन है।
अपभ्रंश साहित्य का एक संग्रह जैन स्तोत्र संदोह के प्रथम भाग में प्राप्त होता है। ..... इस स्तोत्र में सम्मेद शिखर, शत्रुजय एवं आबू तीर्थक्षेत्र के साथ ही ऊर्जयन्तगिरि के वैशिष्ट्य को भी अङ्कित किया गया है । कल्याण कल्पतरु स्तोत्र के अंतर्गत नेमिजिन स्तोत्र में ऊर्जयन्त पर्वत को पूज्य माना गया है। वहाँ कहा गया है कि - व्रत सम्पन्न, एक शाटिका (साड़ी) से युक्त अर्थात् आर्यिका के व्रतों को धारण करने वाली उग्रसेन की पुत्री राजुल एवं अनेक आर्यिकाओं की उपस्थिति के कारण जो ऊर्जयन्त पर्वत पूज्यपने को प्राप्त हुआ था, उस पर्वत से जिन भगवान् नेमिनाथ ने आषाढ़ शुक्ल सप्तमी (वस्तुत: अष्टमी) को निर्वाण प्राप्त किया, वे भगवान् नेमिनाथ मेरे मनरूपी कमल पर निरंतर निवास करें एवं मेरे मन को पवित्र करें।
__ सौराष्ट्र (गुजरात-काठियाबाड़) देश के गिरिनगर नाम के नगर की चंद्रगुफा से आचार्य पुष्पदन्तभूतबली के गुरु एवं अष्टाङ्ग निमित्त के पारगामी आचार्य धरसेन का भी संबंध रहा है।
अत: इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैनों के लिए गिरिनार पर्वत परम पवित्र एवं पूजनीय है। साथ ही यह अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य से ओतप्रोत है। इसी कारण इसकी ओर जैनेतर बंधुओं का आकृष्ट होना स्वाभाविक था, किन्तु उसका कोई धार्मिक कारण भी होना चाहिए था अतः परवर्ती काल में हिन्दुओं ने उस पर अनेक देवी-देवताओं की स्थापना कर उस पर अपना वर्चस्व बढ़ाने का प्रयत्न किया है और यह उपक्रम आज भी निरंतर बढ़ रहा है। इस संदर्भ में डॉ. कामताप्रसाद जैन का कहना है कि - जैनेतर बंधुओं ने गिरिनार की महत्ता को बढ़ाने के लिए सभी देवताओं को उस पर ला बैठाया है। जेम्स वगैस के कथन को आधार बनाकर वे आगे लिखते हैं कि - शिवजी के प्रसङ्ग को लेकर उन्होंने (हिन्दूओं ने) मनमानी कथाएँ गढ़
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ली है। मूल में गिरिनार भगवान् नेमि के निमित्त से पावन तीर्थ बना ।यह सत्य जैनेतर पुराण से भी सिद्ध है।
आगे वे लिखते है कि - जूनागढ़ के निकट पाँच गगनचुम्बी शिखर हैं, जिन्हें जैनेतर लोग अम्बा माता, गोरखनाथ, औघड़ शिखर, गुरु दत्तात्रेय और काल्का (जहाँ अघोरी रहते है ) कहते हैं। जैनों के लिए ये पाँचों टोंकें पूज्य और पवित्र हैं। इन पर उनके (जैनों के) मंदिर अथवा चरण बने हुए है, जिनकी वे पूजा और वंदना करते हैं । इस पर्वत पर समासवंश के राजाओं के किले और महलों के खण्डहर भी है।
__ मंदिरों के अतिरिक्त गिरिनार पर तीन कुण्ड भी प्रसिद्ध है, जो गोमुख, हनुमान धारा और कमण्डल कुण्ड कहलाते हैं । भैरव जप नामक पाषाण एक दर्शनीय वस्तु है। पहले उस पर से कूदकर पाखण्डी लोग स्वर्ग पाने के लोभ में अपने प्राण दिया करते थे। हो सकता है यह वह स्थान हो जहाँ से अम्बिका का जीव अपने पूर्व भव में भागते हुए गिरकर स्वर्गवासी हुआ था । रेवती कुण्ड के ऊपर ही रेवताचल पर्वत है, जिसकी तलहटी में अशोक के धर्मलेख है।
हिन्दूशास्त्रों में गिरिनार शब्द का उल्लेख प्राय: देखने को नहीं मिलता है और न ही उसका महत्व प्रतिपादित किया गया है। डॉ. कामताप्रसाद जैन ने अनेक हिन्दू - शास्त्रों का विशेष अध्ययन - मनन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला है कि - हिन्दुओं के लिए वस्त्रापथ, रैवत और ऊर्जयन्त - ये तीन अलग - अलग स्थान थे और ऊर्जयन्त का महत्व उनके लिए नहीं था। वर्तमान की चौथी - पाँचवीं टोकों को सम्भवत: वे ऊर्जयन्त कहते थे, जिसके पश्चिम में रैवत मानते थे। गिरिनगर (गिरिनार) का उल्लेख उनके (हिन्दुओं के) शास्त्रों में प्राय: नहीं मिलता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ऊर्जयन्त अर्थात् गिरिनार पर्वत की महत्ता जैनों के लिए अत्यंत प्राचीन काल से है। एक पौराणिक उल्लेख के अनुसार तो भरत चक्रवर्ती ने भावी तीर्थ की कल्पना से भी इस गिरिनार पर्वत की यात्रा की थी।आदिपुराण में आचार्य जिनसेन लिखते है कि - सैकड़ों ऊँट और घोड़ियों की भेंट लेकर आये हुए सोरठ देश के राजाओं से सेवा कराते हुए अथवा उनसे प्रीतिपूर्वक साक्षात्कार (मुलाकात) करते हुए चक्रवर्ती भरत गिरिनार पर्वत के मनोहर प्रदेशों में जा पहुँचे भविष्यत् काल में होने वाले तीर्थङ्कर नेमिनाथ का स्मरण करते हुए चक्रवर्ती सोरठ देश में सुमेरु पर्वत के समान ऊँचे गिरिनार पर्वत की प्रदक्षिणा कर आगे बढ़े।
__जैनेतर बंधुओं ने भी परवर्ती काल के समान रूप से ऊर्जयन्त अर्थात् गिरिनार पर्वत के महत्व को स्वीकार किया है, किन्तु खेद है कि वर्तमान गुजरात सरकार हिन्दुओं को नियम विरुद्ध तरीकों से उकसाकर सीधे, सरल तथा अहिंसा के पुजारी जैन बंधुओं को उनके अधिकारों से वंचित कर रही है, जो निश्चय ही मानवता के सिद्धांतों के विपरीत है।
केन्द्रीय भारत सरकार से हमारा विनम्र अनुरोध है कि ऊर्जयन्त पर्वत को असामाजिक तत्त्वों से मुक्त कराकर शांति एवं सौहार्द का वातावरण निर्मित करने में सहयोग करे, जिससे हिन्दू एवं जैन दोनों धर्मो के अनुयायी अपने - अपने विधि - विधान के अनुसार पूजा - अर्चना कर सकें तथा भाई चारे के सार्वभौमिक सिद्धांत को विश्वपटल पर स्थापित कर सकें।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन धर्म में मूर्तिपूजा
शिवचरन लाल जैन, मैनपुरी गोम्मटदेवं वंदमि पंचसय धनुसदेह उच्चंतं ।
देवा कुणंति वुट्टी केसर कुसमाण तस्स उवरम्मि ॥ मैं पाँच सौ धनुष की ऊँचाई वाले शरीर को धारण करने वाले गोम्मटदेव बाहुबली की वंदना करता हूँ, जिन पर सर्वदा देव केशर और पुष्पों की वर्षा करते हैं।
प्रास्ताविक - मानव के विकास, भय निवृत्ति एवं अभीष्ट सुख की प्राप्ति के लिए धर्म की महती उपयोगिता है। जैन वाङ्मय में धर्म की विभिन्न परिभाषाएँ मनीषियों ने प्रस्तुत की है। धारण करने योग्य, उत्तम सुख में स्थापित करने वाला, वस्तु स्वभाव रूप, उत्तम क्षमा आदि दस भेद रूप, रत्नत्रय स्वरूप, जीव दया रूप धर्म आदि के द्वारा इसका स्वरूप दृष्टव्य है। जो इस लोक में अभ्युदय सुख-शांति प्रदान करने वाला हो तथा जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो। यह धर्म का लक्षण तो जैन एवं जैनेतर सभी दर्शनों में मान्य है। निर्विवाद रूप से यह सिद्ध है कि मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता का मापदण्ड धर्म ही है।
जैन धर्म में दो रूप हमारे समक्ष विद्यमान है - 1. विचार मूलक अथवा दर्शन, 2. आचार मूलक अथवा प्रायोगिक धर्म । एक का संबंध हृदय की शुद्धि करने से है तथा दूसरे का संबंध शरीर एवं वाणी की शुद्धि द्वारा सम्पूर्ण शुद्धि से है। इन दोनों रूपों को सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र में समायोजित किया गया है।
श्रमण एवं श्रावक दोनों ही दृष्टियों से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति एवं स्थैर्य हेतु भक्ति अथवा पूजा प्रधान कारण है। पूजा के पर्यायवाची नाम याग, यज्ञ, क्रतु, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख, मह, अर्चना हैं। इनसे पूजा के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। कृति कर्म, चितिकर्म, पूजा कर्म, और विनय कर्म भी इसके नाम हैं। कर्म को काटने वाले होने से कृतिकर्म पुण्य संचय के कारण होने से चिति कर्म, परमेष्ठी की प्रतिष्ठा होने से पूजा कर्म और विनय प्रकाशक होने के कारण विनय कर्म संज्ञा अन्वर्थता को प्राप्त होती है। आराधना, वंदना, भक्ति आदि इनके ही प्रकट रूप हैं । ये मूर्ति के माध्यम से होते हैं। यह मोक्षमार्ग है, इससे भी कषायों की मंदता से भाव विशुद्धि होकर समस्त रागादि विकारों के अभाव से शुद्ध परिणाम प्रकट होते हैं। आत्महित प्रयोजनरूप वीतरागता प्रकट होती है।
मूर्तिपूजा आत्मोन्मुखी क्रिया है जो चैतन्य की ओर ले लाती है। जो जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों को परम भक्ति के राग से प्रणाम करते हैं वे जन्म मरण रूपी बेल के मूल मिथ्यात्व को श्रेष्ठ भाव रूपी शस्त्र से खोद डालते है। वर्तमान में साक्षात जिनेन्द्र भगवान विद्यमान नहीं है, अत: उनकी प्रतिमा में संकल्प कर उनकी पूजा संभावित है।
मूर्तिपूजा का महत्व - मूर्तिपूजा व्यवहार पूजा है। जो परमपद में, शुद्ध ध्यान में स्थित हैं या होने की स्थिति में हैं उनके लिए मूर्तिपूजा का प्रयोजन नहीं है। साथ ही वे समस्त बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह का
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ त्याग कर चुके हैं। उनके लिए तो निश्चय नय दृष्टि से ज्ञातव्य है कि आत्मदेव देवालय में नहीं है, प्रतिमा में भी नहीं है, चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है, वह देव अविनाशी है, कर्म अंजन से रहित है, जिनपरमात्मा समभाव में स्थित है, अपने देह रूपी देवालय में ही जिनदेव विराजमान हैं। किन्तु अपरम भाव में स्थित मुनि व गृहस्थों को तो मन के अवलम्बन के लिए, ध्यान के लिए मूर्तिपूजा अभीष्ट है। मुनि परक शास्त्रों में भी मूर्तिपूजा का स्पष्ट उपदेश दिया गया है, यथा - "हे मुनिगण ! आप अर्हन्त और सिद्ध की अकृत्रिम और कृत्रिम प्रतिमाओं में भक्ति करो।" शत्रुओं अथवा मित्रों का प्रतिविम्ब अथवा प्रतिमा दिखाई देने पर द्वेष और प्रेम उत्पन्न होता है । यद्यपि उस फोटो में स्वयं अनुपकार या उपकार कुछ भी करने की इच्छा रूप चेतन भाव नहीं है परन्तु वह शत्रुकृत अनुपकार या मित्रकृत उपकार का स्मरण होने में कारण है। जिनेश्वर और सिद्धों के अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, सम्यक्त्व और वीतरागतादिक गुण यद्यपि अर्हत् और सिद्ध प्रतिमा में नहीं है तथापि
गुणों के स्मरण होने में वे कारण अवश्य होती है क्योंकि अर्हत् और सिद्धों का उन प्रतिमाओं में सादृश्य है। यह गुण - स्मरण अनुराग स्वरूप होने से ज्ञान और श्रद्धान को उत्पन्न करता है और इनसे नवीन कर्मों का अपरिमित संवर और कर्मों की महा निर्जरा होती है । निधत्ति और निकाचित भी कर्मों का क्षय जिन विम्ब दर्शन से हो सकता है। इसलिए आत्मस्वरूप की प्राप्ति होने में सहायक चैत्य भक्ति सदैव करना चाहिए। गणधर स्वामी एवं आ. कुन्दकुन्द ने दश भक्तियों में चैत्य भक्ति द्वारा प्रतिमाओं की अर्चना की है। जिनागम में जिन प्रतिमाओं को साक्षात् जिनेन्द्र भगवान मानकर मूर्तिपूजा को अनिवार्य रूप से महत्वपूर्ण एवं उपयोगी उद्घोषित किया गया है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि प्रतिमा परद्रव्य है, अचेतन जड़ है, निग्रह और अनुग्रह करने में समर्थ नहीं है, ऐसी प्रतिमा की भक्ति सेवा पूजा से स्वर्ग और मुक्ति की प्राप्ति कैसे संभव है. क्या लाभ ? उसका समाधान यह है कि मूर्ति शांतस्वरूप धारण किए हुए है। वह ध्यान की विधि दिखलाती है । दृढ़ आसन, नासाग्रदृष्टि, सम्पूर्ण परिग्रह रहित नग्न, निराभरण, निर्विकार जैसा भगवान का साक्षात् स्वरूप है, वैसा स्वरूप प्रतिमा जी को देखने से स्मरण में, ध्यान में आता है। इससे भाव निर्मल होते हैं। जो व्यक्ति अभ्यास करके प्रतिमा को सांगोपांग अपने चित्त में ध्याता है, वह वीतरागता प्राप्त करता है। जैसी संगति होती है वैसा फल प्राप्त होता है । जैसे कल्पवृक्ष, चिंतामणि, औषध, मंत्र आदि सब निमित्त अचेतन द्रव्य हैं परन्तु चेतन के लिए वे फलदाता है, उसी प्रकार भगवान की प्रतिमा अचेतन है, परन्तु फलदाता है ऐसा जानकर लाभदायक स्वीकार कर, संशय का परित्याग कर जिनप्रतिमा की पूजा करना योग्य है ।
यह ध्यान देने योग्य है कि बिना मूर्ति की मान्यता के तो लोक व्यवहार चलना ही संभव नहीं है । सरकारी मुद्राओं में, राजचिन्ह भी मूर्ति ही है, जिसकी अवमानना अपराध माना जाता है। घरों व कार्यालयों पूज्यों के फोटो व प्रतीकों को भी पूज्य आदरणीय मानकर उनको लगाया जाता है। मूर्ति पूजा के विरोधियों
कार्य भी मूर्ति, चित्र आदि के बिना चलता दृष्टिगोचर नहीं होता है । शिक्षण कार्यो में भी तत् विषय संबंधी चित्रों आदि के माध्यम का प्रयोग आवश्यक है । एकलव्य द्वारा गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा सम्मुख स्थापित कर धनुर्विद्या की सिद्धी का लौकिक उदाहरण मूर्ति पूजा के महत्व को प्रकट करता है ।
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आगम संबंधी लेख
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मूर्ति शब्द : तात्पर्य : - सादृश्य के तदाकार प्रस्तुति को मूर्ति कहते हैं । मूर्तिमान के बाह्य रूप को, अंगोपांगो को समान चित्रित कर, प्रदर्शित कर प्रभावशाली तौर पर स्थापित किया जाता है । मूर्तिमान की समता या उपमा धारण करने से प्रतिमा नाम दिया जाता है । गुणों की प्रतिरूपता को प्रकट करना इसका प्रमुख उद्देश्य होता है । बाह्य एवं अभ्यंतर गुणों की समष्टि का प्रकाशन इसका उद्देश्य होता है । मूर्ति में प्रतिच्छाया के दर्शन होते हैं, अत: इसका विम्ब अथवा प्रतिविम्ब नाम सार्थकता को प्राप्त होता है । तदाकार स्वरूपता इसमें पाई जाती है। जैसे चन्द्रमा का विम्ब जल में पड़ता है अथवा कैमरे में जो छवि दिखाई देती है वह सम्मुख तदाकार है, यह भी मूर्तिमत्ता है और सूर्यादि के प्रकाश के द्वारा जो वस्तु या व्यक्ति की छाया पड़ती है वह एक दृष्टि से तदाकार है। मूर्ति का एक पर्यायवाची विग्रह भी है । विग्रह का अर्थ शरीर भी है । इसका प्रयोजन यह है कि अमुक मूर्तिरूप वस्तु मूर्तिमान का स्वरूप या शरीर है। रूप भी मूर्ति की एक अन्वर्थ संज्ञा है। किसी अविद्यमान वस्तु जिसके द्वारा अनुभूत स्मृत किया जाता है, वह मूर्ति या रूप ही तो है । समस्त प्रकार के मूर्ति आयामों में संकल्प ही प्रधान है। संकल्प को स्थापना निक्षेप द्वारा जिस रूप के माध्यम से पूरा किया जाता है, वह मूर्ति कहलाती है। जैन धर्म में मूर्ति पूजा के प्रकरण में पूज्य के रूप में, देव के रूप में प्रतिष्ठित मूर्तियों को स्वीकार किया गया है। तदाकारता की पूर्णता विशेष रूप से परिलक्षित की जाती है । मुख मुद्रा आदि धर्मप्रभावकारी अंगोपांगों के भंग या खण्डित हो जाने पर पूज्यता का अभाव माना गया है । कलाकार के उपकरणों द्वारा अपेक्षाकृत अनुपयोगी पदार्थ में भी कुशलता से देवत्व निर्माण के प्रकट आयाम को मूर्ति कहते हैं। भाव विशुद्धि, मन की एकाग्रता, अभीष्ट लक्ष्य की सिद्धी और विकारों पर विजय हेतु यह प्रबल आलंबन है। जैन धर्म में मूर्तिपूजा लौकिक शांति एवं मोक्षमार्ग में गमन हेतु प्रबल पाथेय है ।
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जैन धर्म में मूर्ति का उपयोग आयाम :- मूर्ति एक दर्पण की भांति कार्यकारी है। जैसे हम दर्पण में मुख पर लगे विकारों को दृष्टिगत कर उन्हें हटाने के लिए चेष्टावान होते हैं, उसी प्रकार मूर्ति के दर्शन से निजदर्शन कर मूर्तिमान से अपनी तुलना कर मनोगत विकारों के निरसन हेतु प्रवृत्त होते हैं । प्रतिमा एक प्रकाश स्तंभ का कार्य करती है । अंधकार युक्त स्थिति में प्रकाश स्तंभ द्वारा हमें दिशा बोध प्राप्त होता है, वैसे ही मोह अंधकार से दिग्भ्रमित एवं सुख की खोज की दौड़ में दौड़ते हुए संसारी प्राणी के लिए प्रतिमा मार्गदर्शन करने में सक्षम है। आवश्यकता है समीचीन उपयोग की । जिनविम्ब सूर्य के समान है, जिसके अपेक्षित आभामंडल से विकार एवं अशुद्धि के परमाणु नाश को प्राप्त होते हैं । सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है। प्रतिमा हो या साक्षात् रूप से जो अरहंत को द्रव्यत्व, गुणत्व, पर्यायत्व से जानता है वह अपनी आत्मा को जानता है, उसका मोह, अज्ञान नष्ट हो जाता है ऐसा उल्लेख जिनागम में पाया जाता है।
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यथा हम किसी मंदिर या गृह निर्माण हेतु आदर्श माडल का उपयोग करते हैं, तथाविध अपने आत्मा के परमात्मा रूप में निर्माण हेतु प्रतिमा रूप आदर्श को लक्ष्य में लेकर उसके माध्यम से, निमित्त से सफल हो सकते है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन धर्म में नवदेवों की मूर्ति का सद्भाव :- मूर्तिपूजा के महत्व को स्वीकार करते हुए जैन धर्म में अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, चैत्य, चैत्यालय, जिनवाणी और धर्म नव देवों की मूर्तियों को प्रतिष्ठित कर उनकी पूजा का विधान है। निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य है :
प्रातिहार्याष्टकोपेतं सम्पूर्णावयवं शुभम् । भावरूपानुविद्धाङ्गं कारयेत् विम्बमर्हत् :॥ प्रातिहार्य विना शुद्धं सिद्ध-विम्बमपीदृशं ।
सूरीणां पाठकानांच साधूनांच यथामम् ॥ आठ प्रातिहार्यों से युक्त तथा सम्पूर्ण शुभ अवयवों वाली वीतरागता से पूर्ण अर्हन्त की प्रतिमा होती है । प्रातिहार्यों से रहित सिद्धों की शुभ प्रतिमा होती है। आचार्यों, उपाध्यायों व साधुओं की प्रतिमायें भी आगमानुसार बनानी चाहिए। आगमानुसार प्रतिष्ठित प्रतिमायें ही पूज्य मानी गई है।
चैत्य अर्थात् मूर्ति स्वयं देवरूप में पूज्य है ही। चैत्यालय, समवसरण की प्रतिमा ही है, समवसरण के स्वरूप को ही प्रयास करके यथायोग्य निर्माण कर चैत्यालय या मंदिर रूप में पूज्यता प्रदान की गई है। एवंविध ही जिनेन्द्र भगवान् की शब्द रूप अदृश्य, अनक्षरी दिव्य ध्वनि रूप वाणी शब्द रूप में लिपिबद्ध कर शास्त्राकार में ग्रंथ को मूर्त एवं पूज्य स्वरूप प्रदान किया गया है। जिनवाणी की ग्रंथ रूप प्रतिमा को उच्च एवं श्रेष्ठ स्थान पर विराजमान कर तथा विमान में विराजमान कर यात्रा रूप में पूज्य माना गया है । जैन धर्म की मूर्ति रूप में श्रमण या साधु को स्वीकार किया गया है।
आगम में स्थिर एवं जंगम (चल) दो प्रकार की मूर्तियाँ स्वीकृत हैं। पाषाण, धातु रत्न आदि व चैत्यालय आदि स्थावर मूर्तियाँ हैं तथा आचार्य, उपाध्याय और साधु ये जिनेन्द्र भगवान की चल प्रतिमायें हैं। इनकी श्रद्धा, भक्ति के अभाव में सम्यक्त्व का सद्भाव ही नहीं है।
पूजा :- "पूतं जायते एतया इति पूजा" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे पवित्र हुआ जाता है उसे पूजा कहते हैं । यह हृदय - वाणी मन के पापकलंक को दूर करने में सहायक है। गुणों में अनुरागपूर्वक अर्थात् भक्तिपूर्वक अपने आदर्श के प्रति उपकार-स्मरण, संस्कार - रोपण और कृतज्ञता का नाम पूजा है। कहा भी है
देवाधिदेवचरणे परिचरणं, सर्वदुःखनिर्हरणम् ।
कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुयादाढतो नित्यम् ॥ देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान के चरणों में भक्ति, वैयावृत्य, पूजा सम्पूर्ण दु:खों का हरण करने वाली, कामधेनु के समान तथा कामवासना को नष्ट करने वाली है, अत: नित्य ही आदरपूर्वक पूजा करनी चाहिए।
अभीष्ट फल की सिद्धी का उपाय सुबोध है । यह शास्त्र से होता है। शास्त्र की उत्पत्ति आप्त भगवान से होती है। उनके प्रसाद से ही प्रकृष्ट रूप से प्रबुद्धि होती है, अतः सज्जन मनुष्य किए हुए उपकार को भूलते नहीं है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उपरोक्त प्रकार जैन धर्म में पूजा एवं मूर्तिपूजा को बहुत महत्व दिया गया है। पौद्गलिक आकार से रहित ध्रुव, अचल, इन्द्रियों से अगम्य सिद्ध परमेष्ठी की मूर्ति का भी विधान यह प्रकट करता है कि मूर्तिपूजा मोक्षमार्ग में व सांसारिक सुख-शांति - अभ्युदय हेतु कारण है। भले ही वह किसी रूप में हो । द्रव्य - पूजा, भाव-पूजा, गुण स्मरण, अभिषेक, वैयावृत्य, सेवा किसी भी रूप में अर्चना कार्यकारी है। श्रावकों को तो अनिवार्य रूप से मूर्तिपूजा कर्त्तव्य कहा गया है। जैन दर्शन में सभी द्रव्यों के प्रदेशत्व नामक गुण का अस्तित्व निरूपित किया गया है। उसके अनुसार प्रत्येक द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य होता है। सिद्ध परमात्मा के भी पूर्व शरीर के प्रमाण किंचित न्यून आकार होता है। इसको दृष्टि में रखें तो प्रकट है कि निराकार विशेषण से युक्त कोई भक्ति नहीं है, मूर्ति का प्रसंग तो वहाँ भी उपस्थित होगा ही। हाँ पौद्गलिक आकार न होने से कथंचित सिद्ध परमेष्ठी को निराकार भी कहना सम्मत है।
जैन शास्त्रों एवं पुराणों में चैत्य - चैत्यालयों का वर्णन :-जहाँ चैत्य विराजमान हो उसे चैत्यालय या मंदिर जी कहते है। मूर्ति की भाँति इसकी तथा इसके मध्य वेदिकाओं तथा शिखरों की प्रतिष्ठा भी अपेक्षित है। चैत्यालय दो प्रकार के होते हैं - 1. अकृत्रिम, अनादि निधन, 2. कृत्रिम । समस्त लोक में असंख्यात अकृत्रिम चैत्यालय हैं। ये विभिन्न स्थलों, पर्वतों, विमानों,भवनों वनों में हैं। नन्दीश्वर आदि द्वीपों में चैत्यालय व प्रतिमाएँ महर्द्धिक देवों के द्वारा पूज्य होने के कारण विशेष प्रतिष्ठा को प्राप्त हैं। इन चैत्यालयों में प्रत्येक में 108 प्रतिमाएँ हैं, जिनकी अवगाहना 500 धनुष की है। अति सुंदर वैराग्य मुद्रा, प्रसन्न मुद्रा के ये जिनविम्ब सम्यग्दर्शन के लिए प्रधान कारण हैं।
कृत्रिम जिन मंदिरों के दर्शन का सौभाग्य वर्तमान में भी हमें प्राप्त है। विभिन्न छोटी बड़ी अवगाहना की आकर्षक, मनोहारी जिनप्रतिमाएँ इनमें विराजमान हैं । उदाहरणार्थ श्रवणबेलगोला के अतिशय रम्य, शिल्पी के भाव एवं उपकरणों से पूज्य रूप को प्राप्त हुई 57 फुट उत्तुंग भगवान बाहुबली की मूर्ति विश्व के आश्चर्यों में परिगणित की जाती है। अभी अद्यतन ही 8 फरवरी से 19 फरवरी, 2006 की अवधि में उनका द्वादश वर्षीय भव्य महामस्तकाभिषेक समारोह बड़े ही उत्साह से राजकीय, जैन समाज व जैनेतर समाज द्वारा सम्पन्न किया गया है। इस महापूजा से अपराधवृत्ति कम होकर जीवन मूल्यों में सुधार आने तथा विश्व शांति की कामना की गई है। इसी प्रकार बावनगजा के भ. आदिनाथ, कुण्डलपुर (दमोह) के बड़े बाबा, अंतरिक्ष पार्श्वनाथ, कारकल वेणूर, धर्मस्थल, फीरोजाबाद के भगवान बाहुवलि प्रसिद्ध हैं। श्री महावीर जी के भ. महावीर, पद्मपुरा के भ. पद्मप्रभ स्वामी तथा तिजारा के चन्द्रप्रभ, अहिच्छत्र पार्श्वनाथ आदि के अनेक अतिशयों - चमत्कारों, लोकोपकारों के साथ पूज्यता के प्रमाण हैं। वर्तमान में अष्टधातु एवं पीतल की विशाल प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं, इसमें अमरकण्टक, सागर, सोनागिरि, कन्नौज आदि की प्रतिमाएँ सम्मिलित हैं। सिद्ध क्षेत्रों, कल्याणक क्षेत्रों तथा अतिशय क्षेत्रों आदि तीर्थों में लाखों की संख्या में जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठा को प्राप्त हैं इन प्रतिमाओं की पूजा से मानव अपने अंतरंग विकारों पर विजय प्राप्त करके भाव विशुद्धि करता है। प्राचीन से लेकर वर्तमान तक स्थापत्य एवं वास्तु कला के विधि श्रेष्ठ सुंदर आयामों के विहंगम रूप प्राचीन धरोहर के रूप में इतिहास के गवाह बने हुए हैं। भारत में अब से लगभग 400 वर्ष पूर्व
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्रद्धास्पद व्यक्तित्व के धनी जीवराज पापड़ीवाल ने लोकोक्ति अनुसार एक लाख प्रतिमाओं को विभिन्न जिनालयों में विराजमान किया था । भट्टकारक जी द्वारा चंदेरी की तीर्थंकरों के वर्ण के सदृश वर्ण वाली वर्तमान चौबीसी स्थापित की गई थी । ये मूर्तिपूजा के महत्व के प्रकाशक स्तंभ बने हुए हैं। प्रशस्तियाँ इसकी साक्षी हैं। अनेक विध्वंसों के परिणाम विशेष मूर्तियों के पुरावषेश मानव मन के श्रेष्ठ भक्ति मूलक विचारों, जीवन मूल्यों के उत्प्रेरक हैं एवं दिशा बोध हेतु समर्थ हैं।
पुराणों में मूर्तिपूजा और जीवन मूल्यों की स्थापना :- जैन पुराणों का मुख्य उद्देश्य पाप भीरुता, धर्म रूचि, आत्मश्रद्धान, धर्मायतनों के प्रति श्रद्धा, भक्ति, पुण्य कार्यों की प्रेरणा, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहरूप पंचशील, तप-त्याग-संयम, अपराध निरोध और मोक्ष प्राप्ति की कामना आदि है । मूर्तिपूजा का महत्व महापुरुषों के चरित्र वर्णन के अंतर्गत प्रतिस्थापित किया गया है । अनेकों प्रेरक प्रसंग मानव जीवन मूल्यों को प्रकाशित करते हैं । पद्मपुराण के एकादि उल्लेख दृष्टव्य हैं -
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जब नारद आकाश मार्ग से बिहार कर कौशल्या माँ के पास आये तो माँ के पूछने पर उन्होंने सुमेरू पर्वत के चैत्यालयों की वंदना तथा भगवान के जन्माभिषेक का वृत्तान्त सुनाया, माँ को बड़ा हर्ष हुआ । सीता माता को तीर्थ वंदना का दोहला उत्पन्न होना व रावण को कैलाश पर्वत के चैत्यालयस्थ प्रतिमा के सम्मुख अत्यंत भक्ति से अपनी नस को निकाल कर वीणावादन जैसे भक्ति भाव से भविष्य में तीर्थंकर पद की भूमिका का निर्माण आदि के वर्णन श्रेष्ठ भाव को उद्दीपित कर, संचरित होते हुए स्थायित्व - प्राप्ति की प्रेरणा देते हैं। हेयोपादेय रूप ज्ञान की जागृति चैत्य भक्ति के माध्यम से होती है । मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम
द्वारा मंदिरों एवं प्रतिमाओं की स्थापना का वर्णन हमें भी अपने जीवन में श्रेष्ठ कार्य करने की प्रेरणा देता है। सती अंजना का चरित्र मानव जीवन के दुःख सुख भरे इतिहास का एक प्रेरक पृष्ठ हैं। पूर्व जन्म में अज्ञानता से प्रतिमा जी की अवज्ञा के कारण पाप संचय के परिणामस्वरूप अंजना को 22 वर्षो तक दुःख भोगना पड़ा। इस प्रसंग से मूर्ति व मूर्तिपूजा का महत्व उद्घाटित होता है। राजा दशरथ के द्वारा अि में जिनेन्द्र देव की पूजा और गन्धोदक का रानियों को वितरण, इनके अनुष्ठानों की पावनता का सूचक है। दृष्टव्य हैं निम्न पंक्तियाँ -
अष्टाहो पोषितं कृत्वाभिषेकं परमं नृपः । चकार महती पूजां पुष्पैः सहजकृत्रिमैः ॥ यथा नन्दीश्वरे द्वीपे शक्र - सुर- समन्वितः । जिनेन्द्र - महिमानंदं कुरुते तद्वदेव सः ॥ ततः सदनयातानां महिषीणां नराधिपः ।
प्रजिघ्राय महापूतं शांतिगन्धोदकं कृती ॥
इसी प्रकार महापुराण में भरत चक्रवर्ती के द्वारा भूत भविष्यत् वर्तमान तीन चौबीसी की प्रतिमाओं की स्थापना आदि का, हरिवंशपुराण में हरिषेण चक्रवर्ती द्वारा विपुल संख्या में मंदिर एवं मूर्तियों की
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्थापना से धर्मप्रभावना आदि के आख्यान वर्णित किये गये हैं। अन्य भी पुराण पारमार्थिक सुख की प्राप्ति के वृत्तान्त मानव मन पर प्रभाव डालते है । वह अपनी जीवन शैली, चर्या को निर्मल बना कर सामाजिक व वैश्विक वातावरण को स्वच्छ बनाने में पूरक बनता है।
वर्तमान इतिहास पर दृष्टि पात करने से विदित होता है कि अनेकों राजाओं एवं महापुरुषों ने मूर्तिपूजा के माध्यम से जैन धर्म की महती प्रभावना की है। सम्राट अशोक द्वारा श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि पर मंदिर एवं अतिशय विराट प्रतिमा की स्थापना, सम्राट खारवेल द्वारा कलिंग जिन की प्रतिष्ठा, वस्तुपाल, तेजपाल द्वारा आबू पर्वत पर श्रेष्ठ मंदिर एवं मूर्तियों की प्रतिस्थिति, एलोरा आदि गुफाओं की श्रेष्ठ वास्तुकला आदि अनेकों प्रमाण दिग्दिगन्त में जैन धर्म की यशोपताका फहरा रहे हैं।
विदेशों में भी वर्तमान में मंदिरों के निर्माण एवं मूर्तिपूजा से विश्व में जैन धर्म का प्रभाव वृद्धिंगत हो रहा है। मोहन जोदड़ों व हड़प्पा से प्राप्त मूर्तियाँ तथा मथुरा कला की प्राचीन मूर्तियाँ भारत एवं विश्व के अन्य देशों के संग्रहालयों की धरोहर बनी हुई हैं। यदि धार्मिक दृष्टि से व मूर्ति को केन्द्र मानकर पुरातात्त्विक सर्वेक्षण किया जाये तो निश्चित ही सर्वाधिक मूर्तियाँ जैन धर्म के तीर्थकरों, देवी देवताओं की प्राप्त होंगी।
"आलेख का उपसंहार करते हुए सारांश रूप में जैन धर्म में मूर्तिपूजा विषयक ध्यान देने योग्य निम्न बिन्दुओं को प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं - 1. अनेकों चिंता - क्लेश पूर्ण द्वन्दों से पीड़ित एवं विषय - कषायों में आसक्त मन में रूपातीत ध्यान
जैसी निरालम्ब पूजा की सामर्थ्य का सद्भाव स्थविरकल्पी साधुवर्ग, गृहाश्रमियों में तो अवश्य ही
नहीं, अत: आलम्बन रूप मूर्तिपूजा ही शरण है। 2. मूर्तिपूजा की अनेक विधियाँ व रूप जैनागम में स्वीकृत है, हमें द्रव्य - क्षेत्र - काल - भाव अनुसार
यथायोग्य स्वीकार कर भाव शुद्धि की ओर ध्यान देना चाहिए । पक्षाग्रह उचित नहीं है। 3. मूर्ति और मूर्तिपूजा संगठन एवं धर्म प्रभावना का एक सशक्त माध्यम है। 4. न्यायशास्त्र के अनुसार तीन प्रमाण हैं - 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. आगम । तीनों से ही मूर्तिपूजा सिद्ध
है, उसका श्रेष्ठ अभिप्राय है। प्राचीन मंदिरों एवं मूर्तियों की सुरक्षा, जीर्णोद्धार पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। अति अनिवार्यता में ही नया निर्माण अपेक्षित है। तदाकार स्थापना के द्वारा मूर्ति में संकल्प से स्वीकृत देव की यथोचित पूजा - विनय में भी वर्तमान परिस्थितियों में जो न्यूनता आ रही है, उसके निवारण के प्रति ध्यान देना योग्य है । ग्रंथों, पत्र, पत्रिकाओं में पंचपरमेष्ठियों के चित्रों के आधिक्य से अविनय का प्रसंग उपस्थित है, अत: चित्र प्रकाशन के अतिरेक से बचना योग्य है। मंदिर व प्रतिमा की स्थापना व पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि के प्रसंग में यह सावधानी योग्य है कि बाह्य अनावश्यक या कम आवश्यक प्रकरण कहीं धर्म के मूल विधि विधान के स्वरूप को ही न निगल जावे। क्रिया विधि की शुद्धि पर विशेष ध्यान दिया जाये ताकि प्रतिमा का अतिशय प्रभाव स्थापित रहे।
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आगम संबंधी लेख
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7. जिन प्रतिमा दर्शन से निज गुण दर्शन होता है। अपने भीतर बैठे शक्ति रूप परमात्मा की स्वीकृति के बिना मात्र बाह्य दर्शन किंचित पुण्य बंध का कारण हो सकता है, मोक्ष या स्थायी सुख-शांति का कारण नहीं। यह भी ज्ञातव्य है कि किसी लौकिक कामना से रहित निष्काम भक्ति ही मूर्तिपूजा का लक्ष्य है।
जैन धर्म में मूर्तिमान एवं मूर्ति दोनों की पूजा है । अर्हन्त देवता या पंचपरमेष्ठी व चैत्य देवता दोनों पृथक रूप से स्वीकृत हैं । मूर्ति की स्तुति के माध्यम से मूर्तिमान की गुण स्तुति होती है । यह धारणा कि मूर्तिपूजा तो अर्वाचीन है, लगभग एक हजार वर्षो से यह सनातन ब्राह्मण सम्प्रदाय से जैन धर्म में आई है, यह ठीक नहीं है। प्राचीन आगम, प्राचीन मूर्तियाँ, गौतम गणधर द्वारा रचित प्रतिक्रमण आदि सदैव से मूर्तिपूजा के सबल प्रमाण हैं।
10. जैन धर्म में ध्येय पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ ये ध्यान मूर्तिपूजा के प्रतिरूप ही हैं ।
11. मूर्तिपूजा अथवा अपनी आत्मा से भिन्न अन्य देव - शास्त्र - गुरु की पूजा भक्ति यह व्यवहार मोक्षमार्ग है, यह साधन है, इसके द्वारा साध्य निश्चय मोक्षमार्ग तो स्वाश्रित है। मोक्षमार्ग के दोनों रूप हैं। हमारा भक्तिभाव केवल मूर्तिपूजा पर ही केन्द्रित रहे तो गति ही स्तम्भित हो जावेगी । मूर्तिमान एवं निजात्मा की ओर भी लक्ष्य होना चाहिए ।
8.
9.
12. अरहंत भगवान के प्रति नमस्कार, वर्तमान बंध से असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा करता है। यह आगमसिद्ध है कि इससे पुण्य बंध भी होता है। पूर्व पाप कर्म की उदीरणा, अपकर्षण, पुण्य में संक्रमण भी होता है । यह शुभ राग अवश्य है परन्तु यह समस्त राग को नष्ट करने वाला है ।
अंत में अध्यात्म ग्रंथ शिरोमणि समयसार के पद्यानुवाद का आरती द्वारा मूर्तिभक्ति महिमा का भी सूचक छंद लिखकर विराम लेता हूँ -
हूँ सुमति
कुमति को विनाश करै,
हूँ विमल जोति अंतर जगति है ।
हूँ या चित्त करत दयाल रूप, कबहूँ सुलालसा वै लोचन लगति है । हूँ आरती प्रभु सन्मुख जावै,
कबहूँ सुभारती द्वै बाहिर बगति है ।
धेरै दशा जैसी तब करै रीति तैसी ऐसी,
हिरदै हमारे अरहंत की भगति है । उत्थानिका ॥ 14 ॥
इत्यलम |
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संदर्भ सूची
निर्वाण भक्ति - आ. कुन्दकुन्द
1.
2. रत्नकरण्ड श्रावकाचार सटीक श्लोक - 2
3.
4.
5.
6.
7.
8.
धम्मो वत्थु सहावो उत्तमखमादि दह विधो धम्मो ।
रयणत्तयंहि धम्मो जीवादीरक्खणं धम्मो ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षत्त ॥ यतोऽभ्युदयसिद्धिः स धर्मः । - आ. सोमदेव नीतिवाक्यामृत - 1
यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः ।
मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चना विधे: || महापुराण (आ. जिनसेन) 67 / 193
जिणवर चरणम्बुरुहं जे णमंति परममत्तिराएण ।
ते जम्मबेलिमूलं खणंति वरभाव सत्थेण ॥ भावपाहुड - 153
परमात्मप्रकाश (1-123), योगसार - 42
जिणविम्ब दंसणेण णियत्तणिकाचिदस्स विमिच्छतादिकम्मकलावस्स
खयदंसणादो | धवला 6 / 19-9, 22 /427/9
9.
जिनप्रतिमा जिनसारिखी कही जिनागम माँहि । (समयसार नाटक) अ. 13 / 1 10. जो जाणादि अरहंतं दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहिं ।
सो जाणादि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥ प्रवचन - 80
11. वसुनन्दि प्रतिष्ठा पाठ (4/69-70)
12. रत्नकरण्ड श्रावकाचार 119
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आगम संबंधी लेख
राष्ट्र कल्याण में श्रावक की भूमिका
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
बुरहानपुर (म.प्र.)
जैन धर्मानुसार व्रतधारियों की दो कोटियाँ हैं - 1. महाव्रती - मुनि, और 2. अणुव्रती श्रावक' । श्रावक वह सदगृहस्थ होता है जो सप्त व्यसनों का त्यागी, अष्टमूलगुणधारी और पंच - अणुव्रतों का पालक होता है । उसका आचरण शास्त्र सम्मत एवं स्वपर हितैषी होता है।
द्यूत (जुआ खेलना, मांस भक्षण, मद्य ( मदिरापान), वैश्यासेवन, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन, ये सात व्यसन हैं। 2
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन "भारती"
मद्य, मांस, मधु का त्याग, और अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, परिग्रह परिमाणाणुव्रत और ब्रह्मचर्याणुव्रत ये अष्ट मूल गुण है । '
अन्यत्र मद्य - मांस-मधु का त्याग, रात्रि भोजन त्याग, पंच उदुम्बर फलों का त्याग, देव वंदना, जीव दया करना और पानी छान कर पीना आदि को अष्टमूलगुणों में सम्मिलित किया गया है।
अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत और ब्रह्मचर्याणुव्रत, ये पाँच अणुव्रत कहे गये है।
सागार धर्मामृत की टीका में आया है कि “श्रृणोति गुर्वादिभ्यो धर्मम् इति श्रावकः "" अर्थात् जो गुरुओं धर्म को सुनता है वह श्रावक है। वह धर्म को सुनता है, धारण करता है और आचरण भी करता है। महाभारत के अनुसार -
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् ।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥'
अर्थात् धर्म के सार को सुनो और सुनकर धारण (ग्रहण) करो। अपने से प्रतिकूल आचरण (व्यवहार) दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए ।
श्रावक इस कसौटी पर खरा उतरने का प्रयास करता है। वह धर्म को सुनता है, हित - अहित रूप विवेक से युक्त होता है और क्रियाओं में पाप से विरत होता है ।
श्रावक का जीवन जीने वाला स्वयं का भी उपकार करता है और राष्ट्र का भी हित साधन करता है जिनेन्द्र भगवान की वाणी पर अमल करते हुए चलने वाला श्रावक अपने चारित्र और सत्कार्यो से राष्ट्र को उन्नत बनाता है । 'दर्शनप्राभृत' में कहा है कि -
" जिणवयण मोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं । जरमरण वाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ||"""
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अर्थात् जिन भगवान की वाणी परमौषधिरूप है । यह विषय सुख का त्याग कराती है । यह अमृत रूप है। जरा-मरण व्याधि को दूर करती है तथा सर्व दुखों का क्षय करती है। इसलिए पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचंद्र ने कहा है कि -
"आत्मा प्रभावनीय: रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दानतपोजिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्म:'' अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय के तेज द्वारा अपनी आत्मा को प्रभावित करे तथा दान, तपश्चर्या, जिनेन्द्रदेव की पूजा एवं विद्या की लोकोत्तरता के द्वारा जिनशासन के प्रभाव को जगत में फैलावे।
जैन श्रावक मात्र जीता नहीं है बल्कि आदर्श को सामने रखकर, आदर्शो का अनुकरण करते हुए आदर्श जीवन जीता है । आदर्श जीवन वह है जिसमें अधिकारों की अपेक्षा नहीं और कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं हो । वह स्वयं संत नहीं है किन्तु संतभाव उसमें समाया होता है। वह संत समागम के लिए सदैव लालायित रहता है। सत्संगति में चित्त को लगाता है। सत्संगति के लाभ के विषय में कहा गया है कि -
हंति ध्वातं हरयति रजः सत्त्वमाविष्करोति । प्रज्ञां सूते वितरति सुखं न्यायवृत्तिं तनोति ॥" धर्म बुद्धिं रचयतितरां पापबुद्धिं धुनीते,
पुंसां नो वा किमिह कुरुते संगति: सज्जनानाम् ॥ ___ संत समागम के द्वारा तमोभाव नष्ट होता है, रजोभाव दूर होता है, सात्विक वृत्ति का आविष्कार होता है, विवेक उत्पन्न होता है, सुख मिलता है, न्यायवृत्ति उत्पन्न होती है, धर्म में चित्त लगता है तथा पाप बुद्धि दूर होती है अतः साधुजन की संगति द्वारा क्या नहीं मिल सकता है ? नीति भी कहती है कि -
___ संत समागम हरिभजन, तुलसी दुर्लभ दोय ।
सुत, दारा और लक्ष्मी, पापी के भी होय ॥ किसी भी राष्ट्र का कल्याण उसके निवासियों के उन्नत चारित्र से ही हो सकता है। जैन श्रावक चारित्रवान होता है। वह हीन आचरण को पापार्जन का कारण मानकर छोड़ देता है।
___राष्ट्र की आत्मा सह अस्तित्व की भावना में बसती है। जहाँ वेदों में - "संगदध्वं संवदध्वं स वो मनांसि जानताम्" कहा गया वहीं जैन ग्रथों में परस्परोग्रहो जीवानाम्।। अर्थात् परस्पर उपकार करना जीव का स्वभाव है, कहकर सह अस्तित्व की भावना सुनिश्चित कर दी। भगवान महावीर ने कहा कि जैन श्रावक स्थूल हिंसा का त्यागी होगा, अहिंसाणुव्रती होगा । भगवान महावीर की दृष्टि विशाल थी अत: उन्होंने अहिंसा के दायरे में मात्र मानव को ही नहीं लिया अपितु प्राणी मात्र को लिया। द्रव्यहिंसा के साथ
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भावहिंसा के त्याग की बात कही। वास्तव में वे जीव मात्र के हितैषी थे । यदि जीवों का हित नहीं होगा तो राष्ट्र का भी हित कैसे होगा ? वे कहते हैं
जीव वहो अप्प वहो, जीवदया अप्पणो दया होइ । ता सव्व जीवहिंसा परिचत्ता अत्तकामे हिं ॥ जह तेन पियं दुक्खं आणिय एमेव सव्वजीवाणं ।
सव्वायरमुवउत्तो अत्तोवम्मेण कु णसु दयं ॥ अर्थात् जीव का वध करना अपना ही वध करना है, जीवों पर दया करना अपने पर दया करना है अत: सभी जीवों की हिंसा को अपने ही प्रिय की हिंसा समझना चाहिए । जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही अन्य सभी जीवों को दुःख प्रिय नहीं है अत: सब प्राणियों पर आत्मौपम्य दृष्टि रखकर दयाभाव रखना चाहिए।
जिस तरह जंगल अकेले सुगंधित फूल युक्त पेड़ पौधों का नाम नहीं है अपितु उसमें तीक्ष्ण कांटों वाले पेड़ भी सम्मिलित होते हैं उसी तरह राष्ट्र भी एक जैसे लोगों से नहीं बनता है। यहाँ अच्छे होते हैं तो बुरे भी, धार्मिक होते हैं तो अधार्मिक भी । काम करने वाले होते हैं तो कामचोर भी । इसलिए मैत्री प्रमोद, करूणा और माध्यस्थभाव अपेक्षित है। जैन श्रावक आचार्य अमितगति के सामायिक पाठ को प्रतिदिन पढ़ता है और इन भावनाओं का अनुसरण भी करता है -
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं ।
माध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥" अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव, गुणीजनों के प्रति प्रमोदभाव, दुःखी और क्लेषयुक्त जीवों के प्रति करूणा (कृपा) भाव तथा प्रतिकूल विचार वालों के प्रति माध्यस्थ भाव रखें। हे देव ! मेरी आत्मा सदा ऐसे भाव धारण करे। 'मेरी भावना' में भी पढ़ते हैं कि -
मैत्री भाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे । रहे सदा सत्संग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे। दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे । गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे ।
बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावै॥" श्रावक की सद्भावना राष्ट्र और जन कल्याण की होती है ।उसे राष्ट्र के हित में सर्व और स्वयं का हित दृष्टिगोचर होता है अत: वह भावना भाता है कि -
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संपूजकों को प्रतिपालकों को, यतीनकों को यति नायकों को। राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले, कीजे सुखी हे जिन शांति को दे॥ होवे सारी प्रजा को सुख, बलयुत हो धर्मधारी नरेशा । होवे वर्षा समय पै, तिलभर न रहे व्याधियों का अंदेशा ॥ होवे चोरी न जारी, सुखमय बरते, हो न दुष्काल मारी ।
सारे ही देश धारें, जिनवर वृष को, जो सदा सौख्यकारी ॥" हे जिनेन्द्र देव ! आप पूजन करने वालों को, रक्षा करने वालों को, सामान्य मुनियों को, आचार्यों को, देश,राष्ट्र, नगर, प्रजा और राजा को सदा शांति प्रदान करें। सब प्रजा की कुशल हो, राजा बलवान और धर्मात्मा हो, मेघ (बादल) समय - समय पर वर्षा करें। सब रोगों का नाश हो, संसार में प्राणियों को एक क्षण भी दुर्भिक्ष, चोरी, अग्नि और बीमारी आदि के दुःख न हो और सब संसार सदा जिनवर धर्म को धारण करे, जो सदैव सुख देने वाला है।
कहते है कि अर्थ अनर्थ की जड़ होता है जबकि बिना अर्थ के न राष्ट्र समृद्ध होता है और न ही उसका कल्याण होता है। विश्व मंच पर, अर्थहीन राष्ट्र अपना प्रभाव, अपनी उपस्थिति भी प्रभावी तरीके से व्यक्त नहीं कर पाते हैं। श्रावक जहाँ 'अर्थमनर्थं भावय नित्यं' की नीति पर चलता है वहीं अर्थपुरुषार्थ में प्रयत्नशील भी होता है ।वह अर्थ को आवश्यक मानता है ताकि आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। फेडरिक बेन्थम ने 'अर्थशास्त्र' में लिखा है -
"But it is quite impossible to provide every body with an many consumet's goods, that is with as high standard of living as he would like, if all persons were like jains - mambers of an Indian sect, who try to subdue and extinguish tehir physical desires, it might be done. If consumer's goods descended frequently and in abunance from the heavens, it might be done. As things are it cannot be done." 15
__ अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को सभी सेव्य पदार्थो की प्राप्ति हो सके, अर्थात् उसकी इच्छानुसार उसका जीवन स्तर बना दिया जाए यह संभव नहीं है । हाँ! यदि सभी लोग जैन सदृश होते तो यह संभव था, कारण भारतीयों के जैन नामक वर्ग में अपनी भौतिक आकांक्षाओं को संयत करना तथा उनका निरोध करना पाया जाता है।दूसरा उपाय यह होगा कि यदि दिव्यलोक से बहुधा तथा विपुल मात्रा में भोग्य पदार्थ आते जावें तो काम बन जाए किन्तु वस्तुस्थिति को दृष्टि में रखते हुए ऐसा नहीं किया जा सकता।
जिनके हाथों में अर्थशास्त्र होता है वे धर्मशास्त्र नहीं समझते । लेकिन यह भी सच है कि बिना धर्मशास्त्रों के अर्थशास्त्रों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता । अर्थ का उपार्जन भी न्याय, नीति एवं धर्मसम्मत होना चाहिए वरना वह पाप की श्रेणी में आयेगा । ऐसा अर्थ राष्ट्र का भला नहीं कर सकता। आज अर्थ सम्पन्नता को ही संस्कृति सम्पन्नता मान लिया गया है जो उचित नहीं है।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 'विश्वमित्र' के दीपावली अंक दि. 21/10/49 - 16 में लिखा था कि - "आधुनिक सभ्यता आर्थिक बर्बरता की मंजिल पर है। वह तो अधिकांश रूप में संसार और अधिकार के पीछे दौड़ रही है और आत्मा तथा उसकी पूर्णता की ओर ध्यान देने की परवाह नहीं करती है। आज की व्यस्तता, वेगगति और नैतिक विकास इतना अवकाश ही नहीं लेने देती है कि आत्म विकास के द्वारा सभ्यता के वास्तविक विकास का काम कर सके ।" "आत्म विकास के लिए ही जैन श्रावक को कहा जाता है कि -
न्यायोपात्तधनो यजन्गुणगुरुन् सद्गीस्त्रिवर्गं भज न्नन्योन्यानुगुणं तदर्हगृहिणी - स्थानालयो हीमय: । युक्ताहार विहार आर्यसमिति: प्राज्ञः कृतज्ञो वशी, श्रृण्वन्धर्म विधिं, दयालुरघभी: सागार धर्मे चरेत् ॥गा. 11॥
अर्थात् न्याय से धन कमाने वाला, गुणों को, गुरुजनों को तथा गुणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला, हित- मित प्रिय बोलने वाला, धर्म अर्थ काम रूप त्रिवर्ग को परस्पर विरोध रहित सेवन करने
·
-
वाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकान सहित लज्जावान, शास्त्रानुकूल आहार और विहार करने वाला, सदाचारियों की संगति करने वाला, विवेकी, उपकार का जानकार, जितेन्द्रिय, धर्म की विधि को सुनने वाला, दयावान और पापों से डरने वाला व्यक्ति सागार धर्म का पालन कर सकता है।
राष्ट्र के सामने आज की सबसे बड़ी समस्या काले धन (अनीति का धन) और आतंकवाद की है। श्रावक इस दृष्टि से राष्ट का सबसे बड़ा हितैषी है क्योंकि वह न्याय से धन कमाता है। और हिंसा से दूर रहता है । वह न किसी की हिंसा करता है, न हिंसा करने के भाव मन में या मुख पर लाता है । यह कहाँ की नीति है कि दूसरों को मारो या दूसरों को मारने के लिए स्वयं मर जाओ । मानव बम की अवधारणा किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। ऐसे व्यक्ति के विवेक को क्या कहें जो दूसरों को मारने के लिए खुद मरता है। यह स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए उचित नहीं कही जा सकती। नागरिक अधिकार एवं राष्ट्र धर्म भी इसे उचित नहीं मानता। जैन श्रावक के लिए तो स्पष्ट विधान है कि
जं इच्छसि अप्पणतो जं च ण इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छ परस्सविय एत्तियगं जिणसासणं ॥
18
अर्थात् जैसा तुम अपने प्रति चाहते हो और जैसा तुम अपने प्रति नहीं चाहते हो, दूसरों के प्रति भी तुम वैसा ही व्यवहार करो, जिन शासन का सार इतना ही है।
आज यदि इस नीति पर समाज या देशवासी चल रहे होते तो आतंकवाद जैसी समस्या का जन्म ही नहीं होता । आतंकवाद के मूल में पद, धन और प्रतिष्ठा है जबकि श्रावक स्वपद चाहता है, सत्ता प्रतिष्ठान नहीं । श्रावक वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना रखता है। जबकि अन्य का सोच वैसा ही हो; यह जरूरी नहीं आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है कि -
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आगम संबंधी लेख
'वसुधैव कुटुम्बकम्' इसका आधुनिकीकरण हुआ है ।
वसु यानी धन-द्रव्य
ही कुटुम्ब बन गया है
ही मुकुट बन गया है जीवन का |
19
अर्थ की बढ़ती लालसा ने अर्थ और परमार्थ दोनों को ही छला है। अर्थ के लिए हिंसक संघर्ष आम बात हो गई है। हिंसा का अर्थ के लिए उपयोग सही नहीं है। आज सरकारें बदलने के लिए धनबल और बाहुबल का सहारा लिया जाने लगा है कि जबकि लोकतंत्र मे जनबल ही सर्वोपरि होता है। इस अनर्थ से अर्थ का प्रलोभन दूर होने पर ही बचा जा सकता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज लिखते हैं कि
यह कटु सत्य है कि
अर्थ की आँखें
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
परमार्थ को देख नहीं सकती
अर्थ की अर्थ की लिप्सा ने
बड़ों- बड़ों को निर्लज्ज बनाया है। 20
श्रावक अर्थ का संचय अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ही करता है । वह धनादिक पदार्थो को ही नहीं घटाता अपितु अपनी आवश्यकताओं को भी कम करता जाता है ताकि उसके संचित साधन अन्य के काम आ सकें । इसलिए वह अपनी स्वअर्जित सम्पत्ति में से निरंतर दान किया करता है। यह दान राष्ट्र के कल्याण में सहायक बनता है। राष्ट्र के दीन दुखी प्राणियों को अभय प्रदान करता है ।
21
तत्वार्थ सूत्र 2' में आचार्य उमा स्वामी ने अणुव्रतों के अतिचारों का वर्णन किया है जिन से जैन श्रावक बचता है। जैन श्रावक जहाँ अहिंसाणुव्रत के रूप में बंध, वध, छेद, अतिभारारोपण एवं अन्नपान निरोध से बच कर प्राणियों को अभय दान देता है।
-
सत्यव्रत के रूप में मिथ्या उपदेश, रहोभ्याख्यान, कूट लेख क्रिया, न्यासापहार और साकार मंत्र भेद से बचता है ।
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अचौर्य अणुव्रत के रूप में स्तेन (चोर को चोरी करने की स्वयं प्रेरणा करना, दूसरे से प्रेरणा करवाना, कोई चोरी करता हो तो उसकी सराहना करना, चोरी का उपाय बताना), तदाहृतादान ( चोरी का माल खरीदना), विरुद्धराज्यातिक्रम (राज नियम के विरुद्ध कर चोरी करना), हीनाधिक मानोन्मान ( बेचने और खरीदने, तोलने और बेचने तथा नापने आदि के बाट, तराजू आदि कम या अधिक माप या वजन के रखना), प्रतिरूपक व्यवहार (कीमती वस्तु में कम कीमत की वस्तु मिलाना) आदि कार्यों को चोरी मानता है और इन्हें कभी नहीं करता है ।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ब्रह्मचर्य अणुव्रत के रूप में वह मात्र अपनी विवाहिता स्त्री से ही भोग करता है शेष स्त्रियों में माता, बहिन और पुत्री के समान व्यवहार करता है। आज भारतीय समाज जिस बलात्कार जैसी घिनौनी समस्या से ग्रस्त है यदि समाज श्रावकोचित ब्रह्मचर्य अणुव्रत को अपनाले तो इस बीमारी से सदा के लिए मुक्त हो सकता है और एड्स जैसी घातक बीमारी से भी बच सकता है।
___ परिग्रह परिमाण अणुव्रत के रूप में वह अपने परिग्रह को सीमित रखता है और शेष का दान करता है। इस तरह जैन श्रावक के यह पाँचों व्रत राष्ट्र कल्याण में किसी न किसी रूप में कल्याणकारी सहायक सिद्ध होते हैं। अनर्थदण्ड व्रत के विषय में छहढाला में पं. प्रवर दौलतराम जी ने कहा है कि -
काहू की धन हानि किसी जय - हार न चिंते । देय न सो उपदेश होय अघ बनज कृषीतें ॥ कर प्रमाद जल भूमि वृक्ष पावक न विराधे । असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधे ॥ राग - द्वेष करतार कथा कबहुँ न सुनीजे ।
औरहु अनरथ दण्ड हेतु अघ तिन्हें न कीजे ॥ जिन कार्यो से कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होते हैं वे क्रियाएँ अनर्थ कहलाती हैं। मन, वचन, काय रूप योगों की प्रवृत्ति को दण्ड कहते हैं । अतः मन, वचन,काय से ऐसी कोई क्रिया या विचार नहीं करना जिससे पाप की स्थिति बनती हो । यह स्थिति अनर्थदण्ड विरति (व्रत) में होती है। अनर्थदण्ड के पाँच भेद बताये गये हैं - 1. अपध्यान - किसी के धन के नाश का, किसी की जीत और किसी की हार का विचार नहीं करना। 2. पापोपदेश - जिसमें पाप का बंध अधिक होता है ऐसे खेती, व्यापार आदि करने का उपदेश नहीं देना। 3. प्रमाद चर्या - बिना प्रयोजन पानी बहाने, पृथ्वी खोदने, वृक्ष काटने और आग जलाने का त्याग करना। 4. हिंसादान - यश की चाह से तलवार , धनुष, हल आदि हिंसा के उपकरण दूसरों को नहीं देना । 5. दुःश्रुति - जिन कथा - कहानियों के सुनने से मन में राग - द्वेष उत्पन्न होता है, उनको नहीं सुनना।
इस पाँच अनर्थ दण्डों के अतिरिक्त और जो भी पाप के कारण अनर्थदण्ड हैं उन्हें भी नहीं करना चाहिये। आज के परिदृश्य में अनर्थदण्डों की स्थिति परम सीमा पर है। खोटे विचारों से व्यक्ति व्यथित भी होते है किन्तु करते भी हैं जिस पर रोक लगनी चाहिए।
एक बार एक समाज शास्त्री से किसी ने पूछा कि लोग दुःखी क्यों हैं ? तो उत्तर आया कि नब्बे प्रतिशत तो इसलिए दु:खी हैं कि उनका पड़ोसी सुखी क्यों हैं ? हम भले ही वैश्विक हो गये हो किन्तु इससे अपध्यान की स्थिति भी बढ़ी है। युद्धों की स्थिति आते ही हम युद्ध विराम के स्थान पर किसी की जीत -
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ किसी की हार के पक्ष में खड़े हो जाते हैं । व्यापार के नाम पर पापोपदेश खूब चल रहा है। अब व्यवसायिक हिंसा को लोग हिंसा नहीं मानते । प्रमाद चर्या भी बढ़ी है। भूमि खनन, वृक्षों की कटाई और जल का अपव्यय बहुत होने लगा है। हिंसा के उपकरण बनाये भी जा रहें हैं और बेचे भी जा रहे हैं। परिणामों से बेखबर हम, हमारा समाज और हमारी सरकारें हिंसा की निंदा करते हैं किन्तु प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष हिंसा को बढ़ावा देती हैं। खोटी कथा कहानियाँ रोज छाप रही हैं और लाखों की संख्या में वितरित भी हो रही है ।
पत्र-पत्रिकाएँ राग द्वेषात्मक कथाओं से पटी पड़ी है जिनके कारण हिंसा, चोरी, कुशील आदि पापों में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है । यह सब कार्य राष्ट्र विरोधी है अतः जो श्रावक इन अनर्थ दण्डों को नहीं करता है वह राष्ट्र कल्याण में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है।
श्रावक व्यसन मुक्त जीवन जीता है। वह नशीली वस्तुओं- शराब, चरस, गांजा, अफीम, हेरोईन, बीड़ी सिगरेट, मांस मधु से दूर रहता है। आज मद्य सब जगह उपलब्ध है। दूध मिलना भले ही दूभर हो गया हो। मांस के लिए हमारे पशुधन को नष्ट किया जा रहा है जिससे खेती और पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है। मांस के लिए अनाज की बलि दी जा रही है। जो उचित नहीं है ।
जैन श्रावक इन विकृतियों से दूर रह कर राष्ट्र का बहुत बड़ा कल्याण करता है। शराब के नशे में होने वाले हिंसक व्यवहार के कारण प्रति वर्ष करोड़ों रूपयों की हानि होती है। जन हानि भी होती है जैन श्रावक विवेकी होता है जिसका उद्देश्य नुकसान करना नहीं बल्कि नुकसान बचाना होता है। वह समाज का, प्रकृति, पर्यावरण एवं राष्ट्र का सबसे बड़ा हितैषी होता है ।
जैन श्रावक का भाव, वचन एवं क्रियाएँ ऐसी होती हैं जिन से किसी को कष्ट न हो अतः इनका संबंध राष्ट्र कल्याण से ही जुड़ जाता है। मेरी तो यही कामना है कि प्रत्येक भारत वासी को श्रावक धर्म अपनाना चाहिए ताकि सहज ही राष्ट्र कल्याण हो सके ।
संदर्भ -
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3.
4.
5.
6.
आचार्य उमा स्वामी - तत्वार्थ सूत्र 7 / 2
-
मद्यमांस मधु त्यागैः सहाणुव्रत पंचकम् ।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः ॥ - आचार्य समन्तभद्रः रत्नकरण्ड श्रावकाचार - 66
मधुनिशाशन-पंचफलीविरति पंच काप्तनुती ।
-
जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ॥
पं. आशाधर : सागारधर्मामृत - 2 /18
आचार्य उमा स्वामी : तत्वार्थ सूत्र
पं. आशाधर : सागारधर्मामृत टीका - 1
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
आगम संबंधी लेख 7. महाभारत 8. दर्शन प्राभृत 9. आचार्य अमृतचंद्र : पुरुषार्थ सिद्धयुपाय - 30 10. आचार्य अमितगति : 11. आचार्य उमा स्वामी : तत्वार्थ सूत्र 5/21 12. आचार्य अमितगति : सामायिक पाठ 13. पं. जुगल किशोर मुख्तार : मेरी भावना 14. शांति पाठ 15. Economics by ferderic Bantham, स.8 16. विश्वमित्र : दीपावली अंक दि. 21/10/49 पृ. 16 17. पं. आशाधर : सागार धर्मामृत 1/15
19. आचार्य श्री विद्यासागर : मूकमाटी पृ. 82 20. मूक माटी , पृ. 192 21. आचार्य उमा स्वामी : तत्वार्थ सूत्र, 7/25-29 22. पं. दौलतराम : छहढाला, 4/11-12
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आगम संबंधी लेख
जैन धर्म - दर्शन में सम्यग्ज्ञान : स्वरूप और महत्व
प्रो. डॉ. फूलचंद जैन प्रेमी,
सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी जैन धर्म में "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः " अर्थात् सम्यक्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को एकत्र रूप में मोक्षमार्ग का साधन माना गया है। अत: इन तीनों की समानता मोक्ष प्राप्ति में साधक है। मोक्षमार्ग में इन सभी का भी समान महत्व है। किन्तु इन तीनों में से प्रस्तुत निबंध का प्रतिपाद्य विषय सम्यग्ज्ञान है ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
वस्तुतः चैतन्य के प्रधान तीन रूप हैं जानना देखना और अनुभव करना । ज्ञान का इन सभी से सम्बंध है । सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान भी आत्मा का विशेष गुण है जो स्व एवं पर दोनों को जानने में समर्थ है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है - जो जाणदि सो णाणं... (प्रवचनसार 35 ) अर्थात् जो जानता है वही ज्ञान है । आ. वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की धवला टीका (पुस्तक 1 पृ. 143) में "भूतार्थ प्रकाशनं ज्ञानम्” अर्थात् सत्यार्थ का प्रकाश करने वाली शक्ति विशेष ज्ञान है । आचार्य पूज्यपाद ने "जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञातिमात्रं वा ज्ञानं " - अर्थात् जो जानता है वह ज्ञान है (कर्तृसाधन) जिसके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान है (करण साधन) अथवा जानना मात्र ज्ञान है (भाव साधन) (सवार्थसिद्धि 1/6)
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आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है "णाणं णरस्स सारो" अर्थात् ज्ञान मनुष्य के लिए सार भूत है, क्योंकि ज्ञान ही हेयोपादेय को जानता है। सम्यग्दर्शनपूर्वक संयम सहित उत्तम ध्यान की साधना जब मोक्ष मार्ग के निमित्त की जाती है, तब लक्ष्य की प्राप्ति में सम्यग्ज्ञान के महत्व का परिज्ञान होता है। जैसे धनुषविद्या के अभ्यास से रहित पुरुष वाण के सही निशाने को प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष ज्ञान की आराधना के बिना मोक्षमार्ग के स्वरूप को नहीं पा सकता। क्योंकि संयम रहित ज्ञान और ज्ञान रहित संयम अकृतार्थ है, अर्थात् ये मोक्ष को सिद्ध नहीं करते ।
आत्मा में अनंतगुण हैं, किन्तु इन अनंत गुणों में एक "ज्ञान" गुण ही ऐसा है, जो "स्व - पर" प्रकाशक है। जैसे दीपक अपने को भी प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थो को भी प्रकाशित करता है। उसी प्रकार ज्ञान अपने को भी जानता है और अन्य पदार्थो को भी जानता है । इसी से ज्ञानगुण को सविकल्प (साकार) तथा शेष सब गुणों को निर्विकल्प (निराकार ) कहा है । सामान्यत: निर्विकल्प का कथन करना शक्य नहीं है किन्तु ज्ञान ही एक ऐसा गुण है, जिसके द्वारा निर्विकल्प का कथन भी किया जा सकता है। इस तरह यदि ज्ञान गुण न हो तो वस्तु को जानने का दूसरा कोई उपाय नही है। इसीलिए ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है। प्रकाश अभाव रूप अंधकार की जो स्थिति है, वही स्थिति अज्ञान की है।
सम्यक् और मिथ्या : ज्ञान के दो रूप -
आत्मा का गुण तो ज्ञान है किन्तु वह सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी होता है । संशय, विपर्यय
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों और अनध्यवसाय को मिथ्याज्ञान कहते हैं। यहाँ यह भी विशेष ध्यातव्य है कि जैन धर्म में जैसी वस्तु है उसे उसी रूप में जानने वाले ज्ञान को भी मिथ्या कहा है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि यदि वस्तु का स्वरूप जैसा का तैसा समझ और जान रहा है किन्तु वस्तु - स्वरूप की यथार्थ प्रतीति नहीं होने से ऐसे मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी यथार्थ नहीं माना जायेगा। जैन दर्शन (पृष्ठ 188) पुस्तक में पं. महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के शब्दों में "मिथ्यादर्शन वाले का व्यवहार सत्य प्रमाण ज्ञान भी मिथ्या है और सम्यग्दर्शन वाले का व्यवहार में असत्य अप्रमाण ज्ञान भी सम्यक् है । तात्पर्य यह कि सम्यग्दृष्टि का प्रत्येक ज्ञान मोक्ष मार्गोपयोगी होने के कारण सम्यक् है और मिथ्यादृष्टि का प्रत्येक ज्ञान संसार में भटकाने वाला होने से मिथ्या है। इस तरह जो ज्ञान हेय (त्याज्य)" को हेय रूप में और उपादेय (ग्रहण योग्य) को उपादेय रूप में जानता है, वही सच्चा ज्ञान है। किन्तु जो हेय को उपादेय और उपादेय को हेय रूप में जानता है वह ज्ञान कभी सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता। ऐसे ज्ञान को मिथ्या कहा है।
__ ज्ञान के होते हुए भी जो अपने आत्मा का हित अहित का विचार करके हित में नहीं लगा और अहित से नहीं बचा, उसका ज्ञान सम्यक् कैसे कहा जा सकता है ? वस्तुत: मोह के एक भेद मिथ्यात्व का सहभावी ज्ञान भी मिथ्या कहलाता है। जब तक मिथ्याभाव दूर नहीं हो जाता, तब तक ज्ञान आत्मा को उसके हित में नहीं लगा सकता। अत: मिथ्यादृष्टि का यथार्थज्ञान भी अयथार्थ ही कहा जाता है। सम्यग्दर्शन के प्रकट होने के साथ ही पूर्व का मिथ्याज्ञान सम्यक् हो जाता है और सम्यग्दर्शन के अभाव में वही मिथ्या कहलाता है। इसीलिए सम्यग्ज्ञान को कार्य तथा सम्यग्दर्शन को कारण कहा है। क्योंकि जब तक दृष्टि सम्यक् न हो, ज्ञान सम्यक् नहीं हो सकता। इसीलिए सम्यग्दर्शन के होने पर ही ज्ञान "सम्यक्" होता है। ज्ञान के सम्बंध में जैन धर्म की यह मान्यता भी विशेष महत्व रखती है यहाँ ज्ञान के अभाव को अज्ञान कहा ही है मिथ्याज्ञान को भी अज्ञान माना है । यहाँ इन दोनों में यह अंतर विशेष दृष्टव्य है कि जीव एकबार सम्यग्दर्शन रहित तो हो सकता है, किन्तु ज्ञान रहित नहीं, किसी न किसी प्रकार का ज्ञान जीव में अवश्य रहता है । वही ज्ञान सम्यक्त्व का आर्विभाव होते ही सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
पुष्पदन्त भूतबलिकृत षट्खण्डागम की आ. वीरसेन कृत "धवला" नामक टीका (पुस्तक 1 एवं 5) में इस विषय में प्रश्नोत्तर के माध्यम से अच्छा स्पष्टीकरण किया गया है जिसे पं. कैलाश चंद जी शास्त्री ने अपनी "जैन सिद्धांत" नामक पुस्तक (पृ. 163) में प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि 'मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान भी भूतार्थ (सत्यार्थ) का प्रकाशक होने पर भी वे इसलिए अज्ञानी हैं, क्योंकि उनके मिथ्यात्व का उदय है। अत: प्रतिभासित वस्तु में भी उन्हें संशय विपर्यय और अनध्यवसाय होता है। इसीलिए उन्हें 'अज्ञानी' कहा जाता है। क्योंकि वस्तुस्वभाव का निश्चय कराने को 'ज्ञान' कहते हैं और शुद्धनय विवक्षा में सत्यार्थ के निर्णायक को 'ज्ञान' कहते है ।अत: मिथ्यादृष्टि ज्ञानी नहीं है। साथ ही 'जाने हुए पदार्थ का श्रद्धान करना ज्ञान का कार्य है, वह मिथ्यादृष्टि में नहीं है, इसलिए उनका ज्ञान 'अज्ञान' है।
वस्तुत: जाने हुए पदार्थ में विपरीत श्रद्धा उत्पन्न कराने वाले “मिथ्यात्व" के उदय के बल से जहाँ
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जीव में अपने जाने हुए पदार्थ में श्रद्धान उत्पन्न नहीं होता, वहाँ जो ज्ञान होता है, वह “अज्ञान" कहलाता है, क्योंकि उसमें ज्ञान का फल नहीं पाया जाता।
आचार्यवट्ट केर कृत शौरसेनी प्राकृत भाषा के श्रमणाचार विषयक प्रमुख प्राचीन ग्रंथ "मूलाचार" में ज्ञान का स्वरूप तथा इसके उद्देश्यों के विषय में सार रूप बड़े प्रभावशाली रूप में कहा है कि -
जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरूज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे ॥ 5/70 जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएसु रज्जदि ।
जेण मित्ती पभावेज्ज तं णाणं जिणसासणे ॥ 7/11 अर्थात् जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाये, जिससे मन की चंचलता रूक जाये, जिससे आत्मा विशुद्ध हो, जिससे राग के प्रति विरक्ति हो, कल्याणमार्ग में अनुराग हो और सब प्राणियों में मैत्री भाव हो उसे ही जिनशासन में "ज्ञान" कहा है।
इसीलिए मिथ्यात्व के सहचारी ज्ञान को मिथ्या या अज्ञान कहा जाता है। ज्ञान के भेद
सिद्धांत ग्रंथों में ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्यय और केवल इन पाँच भेदों का जो विवेचन मिलता है, वह ज्ञानावरण के क्षयोपशम या क्षय से प्रकट होने वाली ज्ञान की अवस्थाओं का विवेचन है । ज्ञानावरण कर्म का कार्य आत्मा के इस "ज्ञान" गुण को रोकना है और इसी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के तारतम्य से पूर्वोक्त पाँच में से आरंभिक चार ज्ञान प्रकट होते हैं। ज्ञानावरण कर्म का सम्पूर्णतया क्षय होने पर निरावरण "केवल ज्ञान" प्रकट होता है। इन्हीं पाँच ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों के रूप में विभाजन किया गया है। वस्तुत: जिन तत्त्वों का श्रद्धान और ज्ञान करके मोक्षमार्ग में जुटा जा सकता है, उन तत्त्वों का अधिगम ज्ञान से ही तो सम्भव है। यही ज्ञान प्रमाण और नय के रूप में अधिगम के उपायों को दो रूप में विभाजित कर देता है । इसलिए तत्त्वार्थ सूत्रकार ने “प्रमाणनयै-रधिगमः" सूत्र कहा।
तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वामी (ई.वी.प्रथमशती) ने प्रमाण के अंतर्गत ज्ञान की चर्चा करते हुए तीन सूत्र प्रस्तुत किये - तत्प्रमाणे, आद्ये परोक्षं, प्रत्यक्षमन्यत् - अर्थात् पूर्वोक्त पाँच प्रकार का ज्ञान दो प्रमाण रूप है । प्रथम दो ज्ञान - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षप्रमाण हैं, शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है । जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होता है। वह प्रत्यक्ष कहलाता है, और जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है।
___ ज्ञान के इन पाँच भेदों में से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष है, क्योंकि ये इन्द्रिय और मन के द्वारा होते है। शेष तीन ज्ञान अर्थात् अवधि, मन: पर्यय और केवलज्ञान ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । किन्तु इनमें भी
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान ये दो देश प्रत्यक्ष हैं तथा एक मात्र केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। वस्तुत: जैन दर्शनानुसार ज्ञान जीव से भिन्न नहीं है । जीव चैतन्य स्वरूप है चेतना ज्ञान दर्शन स्वरूप है। उस चैतन्य रूप आत्मा में सब पदार्थो को प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियादि की सहायता के बिना ही जानने देखने की शक्ति सदा काल है। किन्तु अनादिकाल से ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मो के निमित्त से वह शक्ति व्यक्त नहीं हो पाती। इनके क्षयोपशम से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सभी जीवों के अपनी - अपनी योग्यतानुसार होते है। विशेष योग्यता से अवधिज्ञान और मन: पर्ययज्ञान भी संभव है। वस्तुत: ये सब ज्ञान भी केवलज्ञान के ही अंश हैं। क्योंकि ज्ञानगुण तो एक ही है, वही आवरण के कारण अनेक रूप होता है । पूर्ण आवरण हटने पर एक केवलज्ञान के रूप में प्रकाशमान होता है। आ. वीरसेन स्वामी ने भी कसाय पाहुड की जय धवला टीका के प्रारंभ में मतिज्ञान आदि को केवल ज्ञान का अंश माना है।
जीव में एक साथ पाँच ज्ञान सम्भव नहीं है। अपितु एक साथ एक आत्मा में एक से लेकर चार ज्ञान तक ही हो सकते है जीव को एक ज्ञान होगा तो मात्र केवल ज्ञान' ही रहता है क्योंकि वह निरावरण और क्षायिक है। इसके साथ अन्य चार सावरण और क्षायोपशिक ज्ञान नहीं रहते । दो हो तो मति और श्रुतज्ञान, तीन हो तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान या मन: पर्ययज्ञान तथा चार हो तो मति, श्रुत, अवधि और मन: पर्ययज्ञान सम्भव है। इसलिए पाँचों ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते । आ. उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थसूत्र (1/30) में कहा भी है - एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्य: अर्थात् एक जीव में एक साथ एक को आदि लेकर चार ज्ञान तक हो सकते है । पाँच ज्ञान एक साथ किसी भी जीव में संभव ही नहीं है ज्ञान के पूर्वोक्त पाँच भेदों में क्रमशः प्रत्येक का स्वरूप इस प्रकार है - 1. मतिज्ञान - ज्ञान के पाँच भेदों में प्रथम मतिज्ञान है जो "तदिन्द्रियाऽनिन्द्रिय निमित्तम्" अर्थात् इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानता है वह मतिज्ञान है । दर्शनपूर्वक अवग्रह ईहा अवाय और धारणा के क्रम से मतिज्ञान होता है। इसे अभिनिबोधिक ज्ञान भी कहा जाता है । वस्तुत: मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशय से होने वाली मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिबोध आदि मतिज्ञान की अवस्थाओं का अनेक रूप से विवेचन मिलता है, जो मतिज्ञान के विविध आकार और प्रकारों का निर्देश मात्र है। यह निर्देश भी तत्त्वाधिगम के उपयोगों के रूप में है । इसीलिए तत्त्वार्थ सूत्रकार ने कहा "मतिः स्मृति: संज्ञा चिंताऽभिनिबोध इत्यनन्तरम् (1/13)"
सर्वार्थसिद्धिकार आ. पूज्यपाद ने कहा कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिबोध ये मतिज्ञान के ही नामांतर इसलिए है क्योंकि ये मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम रूप अंतरंग निमित्त से उत्पन्न हुए उपयोग को विषय करते हैं तथा मननंमति, स्मरणं स्मृति: संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता, अभिनिबोधनं अभिनिबोध: - इस प्रकार की व्युत्पत्ति की है । तद्नुसार अतीत अर्थ के स्मरण करने या पहले अनुभव की हुई वस्तु का स्मरण “स्मृति" है। पहले अनुभव की हुई और वर्तमान में अनुभव की जाने वाली वस्तु की एकता
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "संज्ञा' है। अर्थात् “यह वही है" - यह उसके सदृश है - इस प्रकार का पूर्व और उत्तर अवस्था में रहने वाली पदार्थ की एकता सदृशता आदि ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। इसे ही दर्शन क्षेत्र में प्रत्यभिज्ञान' इस नाम से जाना जाता है। क्योंकि यह अतीत और वर्तमान उभय विषयक है। भावी वस्तु की विचारणा या चिंतन को "चिंता" कहते हैं । व्याप्ति के ज्ञान को भी चिंता कहा जाता है । अभिनिबोध भी मतिज्ञान बोधक का एक सामान्य शब्द है। दार्शनिक क्षेत्र में इसे "अनुमान" शब्द से भी अभिहित किया जाता है । क्योंकि साधन से साध्य के ज्ञान को अभिनिबोध या अनुमान कहा है। मतिज्ञान के भेद - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा - ये मतिज्ञान के चार भेद हैं - (1) अवग्रह - विषय (ज्ञेय वस्तु) और विषयी (जानने वाले) का योग समीप्य (सन्निपात अथवा संबंध) होने पर सर्वप्रथम दर्शन होता है। यह दर्शन वस्तु की सामान्य सत्ता का प्रतिभास मात्र करता है । इस दर्शन के पश्चात् जो अर्थ का ग्रहण होता है, वह अवग्रह कहलाता है। इस तरह नाम, जाति आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र का ज्ञान अवग्रह' कहलाया। जैसे गाढ़ अन्धकार में कोई वस्तु छू जाने पर यह ज्ञान होना कि यह कुछ है । अवग्रह में यह स्पष्ट मालूम नहीं होता कि किस चीज का स्पर्श हुआ है, इसलिए अव्यक्त ज्ञान अवग्रह है। (2) ईहा - अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये सामान्य विषय को विशेष रूप से निश्चित करने के लिए जो विचारणा होती है वह "ईहा" है। (3) अवाय - ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थ का विशेष निर्णय करने को अवाय कहते हैं। इसमें विशेष चिन्ह देखने से वस्तु का निर्णय हो जाता है कि यह अमुक वस्तु है। (4) धारणा - अवाय ही जब दृढतम अवस्था में परिणत हो जाता है, तब उसे धारणा कहते है। क्योंकि इसमें व्यक्ति अवाय से निश्चय किये हुए पदार्थ को कालांतर में भूलता नहीं है। धारणा को संस्कार भी कह सकते है
___ इस प्रकार अवग्रह में प्राथमिक ज्ञान, ईहा में विचारणा, अवाय में निश्चय तथा धारणा में इन्द्रिय ज्ञान की स्थितिशीलता (स्मृति) होती है। ये चारों द्रव्य की पर्याय को ग्रहण करते हैं, सम्पूर्ण द्रव्य को नहीं। क्योंकि इन्द्रिय और मन का मुख्य विषय पर्याय ही है। इन चारों की यह भी विशेषता है कि ये चारों क्षणभर में भी हो सकते हैं। और अनेक काल के बाद भी हो सकते है। 2. श्रुतज्ञान -
मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ को मन के द्वारा उत्तरोत्तर विशेषताओं सहित जानने वाला श्रुतज्ञान है। मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है । इन दोनों का कार्य-कारण भाव संबंध है । मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है। अत: मति और श्रुत - ये दोनों सहभावी ज्ञान हैं, एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते। ये दोनों प्रत्येक संसारी जीव के होते है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मतिज्ञान श्रुतज्ञान का वहिरङ्ग कारण है। अंतरङ्ग कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है । क्यों किसी विषय का मतिज्ञान हो जाने पर भी यदि क्षयोपशम न हो तो उस विषय का श्रुतज्ञान नहीं हो सकता। फिर भी दोनों में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा समान होने पर भी मति की अपेक्षा श्रुत का विषय अधिक है और स्पष्टता भी अधिक है।
श्रुतज्ञान का कार्य शब्द के द्वारा उसके वाच्य अर्थ को जानना और शब्द के द्वारा ज्ञात अर्थ को पुन: शब्द के द्वारा प्रतिपादित करना । इसीलिए इसके अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक रूप एवं अंगबाह्य तथा अंग प्रविष्ट रूप दो भेद है । आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अंग आगम के रूप में इस श्रुतज्ञान के बारह भेद हैं। उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यानुवाद, अस्ति नास्ति प्रवाद, ज्ञान प्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणानुवाद, प्राणवाय प्रवाद, क्रियाविशाल तथा लोकबिन्दु सार पूर्व - इन चौदह पूर्वो के रूप में ज्ञान के चौदह भेद भी है। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में कहा है "श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेक द्वादशभेदम् - 1/20 अर्थात् यह श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है तथा इसके दो, द्वादश एवं अनेक भेद होते हैं।"
___ मन वाले जीव अक्षर सुनकर वाचक के द्वारा वाच्य का ज्ञान होना अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है तथा बिना अक्षरों के द्वारा अन्य पदार्थ का बोध होना अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । यह एकेन्द्रिय आदि सभी जीवों को होता है। श्रुत का मनन या चिंतनात्मक जितना भी ज्ञान होता है वह सब श्रुतज्ञान के अंतर्गत है। यह रूपीअरूपी दोनों प्रकार के पदार्थो को जान सकता है। 3. अवधिज्ञान - भूत, भविष्यत काल की सीमित बातों को तथा दूर क्षेत्र की परिमित रूपी वस्तुओं को जानने वाला अवधिज्ञान होता है। अत: देशांतरित, कालांतरित और सूक्ष्म पदार्थो के द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव को मर्यादा से जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। यह अवधिज्ञानावरण और वीर्यन्तराय कर्म के क्षयोपशम से होता है। 4. मन:पर्यय -द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही दूसरे के मन की अवस्थाओं (पर्यायों) का ज्ञान मन: पर्यय ज्ञान है । समान्य रूप में यह दूसरे के मन की बात को जानने वाला ज्ञान होता है । वस्तुत: चिंतक जैसा सोचता है उसके अनुरूप पुद्गल द्रव्यों की आकृतियाँ (पर्याये) बन जाती है और जानने का कार्य मन:पर्यय करता है। इसके लिए वह सर्वप्रथम मतिज्ञान द्वारा दूसरे के मानस को ग्रहण करता है, उसके बाद मन:पर्यय ज्ञान की अपने विषय में प्रवृत्ति होती है।
अवधि और मन:पर्यय - ये दोनों ज्ञान आत्मा से होते है। इनके लिए इन्द्रिय और मन की सहायता आवश्यक नहीं है । ये दोनों रूपी द्रव्यों के ज्ञान तक ही सीमित है अत: इन्हें अपूर्ण प्रत्यक्ष कहा जाता है। अवधि ज्ञान के द्वारा रूपी द्रव्य का जितना सूक्ष्म अंश जाना जाता है। उससे अनंत गुणा अधिक सूक्ष्म अंश मनःपर्यय के द्वारा जाना जाता है । अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है किन्तु मनःपर्यय ज्ञान मनुष्यगति में, वह भी संयत जीवों को ही होता है । इस पंचम काल में अवधिज्ञान का होना तो यहाँ संभव भी है, किन्तु मन:पर्यय ज्ञान होना दुर्लभ है। अवधि और मन:पर्यय की मोक्षमार्ग में अनिवार्यता नहीं है, जबकि मति और श्रुत ज्ञान अनिवार्य हैं।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 5. केवलज्ञान - समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को युगपत जानने वाला केवलज्ञान है। इसमें लोक- अलोक समस्त रूप में प्रतिविम्बित होते है । वस्तुत: आत्मा ज्ञान - स्वभाव है, अत: आत्मा के समस्त आवरणों के समाप्त हो जाने पर अपने स्वभाव रूप हो जाता है और समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को एक साथ जानने लगता है। "केवल" शब्द असहाय वाची है। इसीलिए जो इन्द्रिय और आलोक आदि किसी की अपेक्षा नहीं रखता, वह “केवलज्ञान" है । इसके होने पर आत्मा परमात्मा रूप बनकर सर्वज्ञ हो जाता है। यह तो वह दिव्य ज्ञान है, जिसमें नष्ट और अनुत्पन्न पर्यायें भी प्रतिविम्बित होती है। क्योंकि यह केवल ज्ञान ऐसे ही उत्पन्न नहीं होता अपितु तत्त्वार्थसूत्र (10/1) के अनुसार “मोहक्षयाज्ज्ञान दर्शनावरणान्तराय क्षयाच्च केवलम्" अर्थात् मोहनीय कर्म का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, कर्म का क्षय होने पर केवल ज्ञान प्रगट होता है।
वस्तुत: इन चार प्रतिबंधक कर्मों में से पहले मोह का क्षय होता है और फिर अंतर्मुहर्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीन कर्मो का भी क्षय हो जाता है । क्योंकि मोह सबसे अधिक वलवान है अत: उसके क्षय के बाद ही अन्य कर्मो का क्षय संभव है। इन सब के क्षय होते ही केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है। और वह जीव केवली अर्थात् सर्वज्ञ बन जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचन सार में कहा -
अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जो विजाणंति ।
तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं ॥4॥ अर्थात् इन्द्रिय ज्ञान बहुत सीमित होता है क्योंकि जो इन्द्रिय गोचर पदार्थ को अवग्रह, ईहा आदि के द्वारा जानते हैं, उनके लिए परोक्षभूत अर्थात् जिसका अस्तित्व बीत गया अथवा जिसका अस्तित्व काल अभी उपस्थित नहीं हुआ ऐसे अतीत, अनागत पदार्थ को जानना संभव नहीं हो सकता। और जब अनुत्पन्न तथा नष्ट पर्याय जिस ज्ञान में प्रत्यक्ष न हो उस ज्ञान को दिव्य भी नहीं कहा जा सकता । इसके विपरीत केवलज्ञान में यह दिव्यता है कि वह अनंत द्रव्यों की (अतीत और अनागत) समस्त पर्यायों को सम्पूर्णतया एक ही समय में प्रत्यक्ष जानता है । पं. दौलतराम जी ने छहढाला की निम्नलिखित दो पंक्तियों में इसी बात को इस रूप में कहा है -
सकल द्रव्य के गुण अनंत पर्याय अनंता ।
जाने एकै काल प्रगट केवली भगवंता ॥ प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं -
णवि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अढेसु । जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तों ।।52॥ गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ॥32॥
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अर्थात् केवलज्ञानी आत्मा (सर्वज्ञ) पदार्थो को जानता हुआ भी उस रूप में परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थो के रूप में उत्पन्न नहीं होता । इसलिए उस आत्मा के ज्ञप्ति क्रिया का सद्भाव होने पर भी वास्तव में क्रिया फलभूत बंध सिद्ध न होने पर उन्हें अबंधक कहा गया है। क्योंकि केवली भगवान ज्ञेय पदार्थो को न ग्रहण करते है न त्याग करते है। और उन पदार्थो के रूप में परिणमित नहीं होते, फिर भी निरवशेष रूप में सबको अर्थात् सम्पूर्ण आत्मा एवं सभी ज्ञेयों को सभी आत्म प्रदेशों से देखते और जानते हैं। वस्तुतः पदार्थ न ज्ञान के पास आते हैं, न ज्ञान पदार्थ के पास जाता है। जैसे दर्पण के सामने जो भी पदार्थ हो वे एक दूसरे के पास गये बिना भी उसमें प्रतिविम्बित होते है। उसी तरह विश्व में जितने भी पदार्थ है वे ज्ञान में प्रतिविम्बित होते हैं।
इस तरह जैन धर्म दर्शन में ज्ञान की स्वरूप विवेचना अति सूक्ष्म और गहन रूप में प्रस्तुत की गई है। इसीलिए रत्नत्रय में सम्यग्ज्ञान को अतिमहत्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि ज्ञान रूपी प्रकाश ही ऐसा उत्कृष्ट प्रकाश है जिसका हवा आदि कोई भी पदार्थ प्रतिघात (विनाश) नहीं कर सकता । सूर्य का प्रकाश तो तीव्र होते हुए भी अल्प क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है किन्तु यह ज्ञान प्रदीप समस्त जगत् को प्रकाशित करता है। अर्थात् समस्त वस्तुओं में व्याप्त ज्ञान के समान अन्य कोई प्रकाश नहीं है इसलिए इसे द्रव्य स्वभाव का प्रकाशक कहा गया है। सम्यग्ज्ञान से तत्त्वज्ञान, चित्त का निरोध तथा आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है। ऐसे ही ज्ञान से जीव राग से विमुख तथा श्रेय में अनुरक्त होकर मैत्रीभाव से प्रभावित होता है। भगवती आराधना (गाथा 771 में) कहा कि ज्ञान रूपी प्रकाश के बिना मोक्ष का उपायभूत चारित्र, तप,संयम आदि की प्राप्ति की इच्छा करना व्यर्थ है। इस तरह सम्यग्ज्ञान संसारी जीवों को अमृतरूप जल से तृप्त करने वाला होता है। इसीलिए किसी भी साधक के लिए सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है तभी उसका चारित्र सम्यक्चारित्र की कोटि में मान्य है और ऐसा ही रत्नत्रय मोक्षमार्ग को प्रशस्त करता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भगवान महावीर की अहिंसा और पर्यावरण संरक्षण
___ डॉ. कपूरचंद जैन,
(पी.जी.) कालेज, खतौली 51201 (उ.प्र.) भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित श्रावकों के आचार में बारह व्रतों का महत्वपूर्ण स्थान है । इन बारह व्रतों में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत आते हैं। आचार्य उमास्वामी के अनुसार श्रावक सल्लेखना नामक तेरहवें व्रत का भी पालन करता है। इन व्रतों की पहली सीढ़ी अहिंसाणुव्रत है। महावीर का संपूर्ण जीवन दर्शन अहिंसा की परिधि में समा जाता है। महावीर जिस 'विश्वकल्याण' और 'जियो और जीने दो' की बात कहते हैं उसका मूल आधार भी यही अहिंसा है। आज जब सर्वत्र हिंसा का ताण्डव हो रहा है, अणु और एटम बम के बादल समग्र विश्व को व्याप्त कर रहे हो, तब महावीर की यह अहिंसा और भी आवश्यक हो जाती है।
हिंसा और अहिंसा की जितनी सूक्ष्म व्याख्या महावीर ने की है शायद ही किसी भगवान / संत/ साधक ने की हो । महावीर के अनुसार पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति की भी हिंसा होती है। इस 'हिंसा' से न बच पाने के कारण मानव आज उस चौराहे पर खड़ा है, जहाँ का प्रत्येक रास्ता विनाश की ओर ही जा रहा है। यदि शीघ्र ही इस हिंसा पर नियंत्रण न पाया जा सका तो कब इस सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाये और महाप्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाये, कहा नहीं जा सकता।
आधुनिक वैज्ञानिक विकास ने हमें जो दिया है, उनमें पर्यावरण का प्रदूषण भी एक है। दर्शन और विज्ञान के अनुसार जिन पाँच महाभूतों से यह सृष्टि बनी है, वे इतने असंतुलित और प्रदूषित हो गये हैं। कि यदि शीघ्र समाधान न खोजा गया तो पृथ्वी पर जीवों का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाने वाला है। सृष्टि के इस संतुलन को बनाने में एकमात्र कारगर अस्त्र यह अहिंसा ही है।
__ पर्यावरण शब्द परि = समन्तात्, आवरणं = पर्यावरणं, से बना है। अर्थात् जो सब ओर से सृष्टि को व्याप्त किये है, दूसरे शब्दों में वातावरण को ही पर्यावरण कहा जा सकता है पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ध्वनि (आकाश), वनस्पति ये पर्यावरण के मूलाधार हैं । ये अपने निश्चित अनुपात में अनादि से स्थित है। मानव कभी धर्म के नाम पर , कभी विज्ञान के नाम पर तो कभी प्रगति के नाम पर इनसे छेड़छाड़ करता है, आज कल यह छेड़छाड़ कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है। आज नगरीकरण, औद्योगीकरण, यातायात के आधुनिक यांत्रिक साधन, उनकी तेज ध्वनि, अणुशक्ति का प्रयोग, दूषित वायु, दूषित जल, दूषित खाद्य पदार्थ, पृथ्वी की निरंतर खुदाई, समुद्र की छाती को चीरकर रसायनों की प्राप्ति, वनों का काटा जाना, रेडियोधर्मिता जैविक
और रासायनिक कचरा, मांसाहार की बढ़ती प्रवृत्ति, पारस्परिक वैमनस्य, अर्थ लोलुपता आदि के कारण उक्त महाभूतों का संतुलन बिगड़ रहा है दूसरे शब्दों में ये प्रदूषित हो रहे है।
प्रदूषण की कोई सर्वमान्य परिभाषा देना संभव नहीं है। फिर भी अधिकांश वैज्ञानिकों के अनुसार
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "मिट्टी पानी, वायु, पेड़-पौधे और जानवर मिलकर पर्यावरण या वातावरण का निर्माण करते हैं। जब एक सीमा से अधिक विकास के लिए प्रकृति का उपयोग किया जाता है तो इस पर्यावरण में कुछ परिवर्तन होता है। यदि इन परिवर्तनों की प्रक्रिया का प्रकृति के साथ सामंजस्य नहीं किया जाता तो उससे ऐसा असंतुलन पैदा हो सकता है जिससे पृथ्वी पर मनुष्य जीवन खतरे में पड़ सकता है यही प्रदूषण है।"
__ आइये पर्यावरण के मूल आधारों और महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के गणित को समझने का
प्रयत्न करें।
वायु
सृष्टि के महाभूत - पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश - पर्यावरण केआधार मिट्टी जल .
वनस्पति तथा क्यप्रणी प्रदूषण के प्रकार मिट्टी जल अग्नि ईधन या तेल वायुया ध्वनि का जंगलों का कटना अहिंसा के रूप पृथ्वीकायिक जल कायिक अग्नि संबंधी वायु संबंधी वनस्पति केविनाशतथात्रस
जीवों की हिंसा जीवों की जीवों की जीवों की जीवों की हिंसा से विरति से विरति हिला से विरति हिंसा से विरति हिंसा से वि.
तथा वाणी
का संयम इस प्रकार स्पष्ट है कि महावीर की अहिंसा से ही इस प्रदूषण रूपी दैत्य से बचा जा सकता है। उक्त विवरण के अनुसार प्रदूषण के मुख्य आधार पृथ्वी, जल, ध्वनि (वायु- आकाश) वनस्पति, वन्यप्राणी आदि हैं महावीर ने भी पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रस अर्थात् दो, तीन, चार तथा पाँच इन्द्रिय वाले जन्तुओं ,वन्य प्राणियों या मनुष्यों की हिंसा का निषेध किया है। यदि महावीर प्रतिपादित इस स्थूल हिंसा का ही परित्याग कर दिया जाये । तो प्रदूषण से बचा जा सकता है।
___ अहिंसा का केवल पारलौकिक ही नहीं अपितु प्रत्यक्ष जीवन से भी गहरा संबंध है । यह तथ्य आज हमारी समझ में आने लगा है अहिंसा जहाँ प्राण विनाश की दृष्टि से विचार करती है विज्ञान उस पर प्रदूषण की दृष्टि से विचार करता है। जैन धर्म प्राणी मात्र (पृथ्वी, जल आदि भी प्राणी = जीव है ) की दृष्टि से अहिंसा पर विचार करता है। और विज्ञान केवल मनुष्य की दृष्टि से किन्तु परिणाम की दृष्टि से दोनों एक ही केन्द्र बिन्दु पर आकर मिल जाते है। आइये इनमें से एक - एक पर संक्षेप से विचार करें - मृदा या मिट्टी का प्रदूषण -आज अधिक से अधिक खनिज पदार्थों विशेषत: कोयला एवं तेल के लिए जिस तीव्रता से पृथ्वी का खनन किया जा रहा है वह चिंता का विषय है। औद्योगीकरण के कारण बड़े शहरों
और कारखाने की आसपास की जमीन अत्यंत प्रदूषित होती जा रही है। खनन से उठने वाली धूलि ने फेफड़ों एवं गले के रोगों को जन्म दिया है, इससे पृथ्वीकायिक जीवों के साथ - साथ सैकड़ों त्रसकायिक जीवों का भी घात होता है । रेडियोधर्मी कचरा जहाँ दबाया जाता है वह जमीन तक विषैली हो जाती है । यदि पृथ्वीकायिक जीवों की स्थूल हिंसा से भी विरत हुआ जा सके तो ऐसे प्रदूषण से बचा जा सकता है। मिट्टी
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ के प्रदूषण से वायु - प्रदूषण गहरे रूप में जुड़ा हुआ है अत: पृथ्वी संबंधी हिंसा से विरत होने पर वायु प्रदूषण से भी हमारी रक्षा हो सकेगी।
पानी का प्रदूषण - पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन के लिए वायु के बाद सबसे आवश्यक तत्त्व जल ही है पर आज वायु के बाद जल ही सबसे अधिक प्रदूषित हो रहा है। प्रदूषित पानी पीने से उसमें रहने वाले जीवों के साथ ही मनुष्य तक की मृत्यु हो जाती है। समाचार पत्र ऐसी घटनाओं से भरे रहते है। कारखानों का विषैला जल तथा अन्य वस्तुएँ पानी में डाल दी जाती है। प्लास्टिक का कचरा भी अत्यधिक मात्रा में जल में ही विसर्जत किया जाता है। हमारी धार्मिक मान्यताओं के कारण भी अनेक वस्तुएँ जल में प्रवाहित की जाती है। इससे अधिक विडम्बना और क्या होगी कि गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों को भी साफ करने की योजनाएँ बनानी पड़ रही हैं । समुद्र का पानी तक प्रदूषिण होता जा रहा है। जिसके कारण वैज्ञानिकों की नींद हराम हो गयी है।
यदि हम महावीर प्रतिपादित जलकायिक जीवों की हिंसा का त्याग करें, नदियों/ तालाबों में प्रदूषित पदार्थ न डालें तो इस स्थिति से बचा जा सकता है। सच्चा अहिंसक कभी ऐसा नहीं करता, करने पर अपनी आलोचना करता है । आलोचना पाठ में कहा गया है है -
जल मल मोरिन गिरवायो, कृमि कुल बहु घात करायो ।
नदियन बीच चीर धुवाये कोसन के जीव मराये ।। स्वकल्याण की दृष्टि से हमें पानी छानकर ही पीना चाहिए साथ ही उबाला हुआ पानी और भी अधिक शुद्ध है। परकल्याण की दृष्टि से पानी में प्रदूषित पदार्थ रसायन आदि नहीं डालना चाहिए। कम से कम पानी का उपयोग करना चाहिए।
अग्नि, ईधन या तेल का प्रदूषण - ईधन का प्रदूषण भी कम भयावह नहीं है। कोयला, मिट्टा का तेल, डीजल, पेट्रोल आदि के अमर्यादित प्रयोग से जो धुआँ उठता है वह पूरे वायुमण्डल को दूषित कर देता है आज ओजोन परत तक में छिद्र हो गया है यह स्थिति बड़ी भयावह है किसी बड़े शहर के व्यस्त चौराहे पर शाम को आप खड़े हो जाये। तो सांस लेना भी भारी हो जाता है। इसका कारण धुएँ से आक्सीजन (जीवनदायक तत्त्व) का नष्ट हो जाना है एक तथ्य के अनुसार एक व्यक्ति पूरे साल में जितनी आक्सीजन का उपयोग करता है उतनी आक्सीजन एक टन कोयला जलने में, एक मोटर के एक हजार किलोमीटर चलने में, एक हवाई जहाज के दो हजार कि.मी. की यात्रा में खत्म हो जाती है। अग्निकायिक हिंसा से विरत होकर तथा अपनी आवश्यकताएँ कम से कम करते इस प्रदूषण से बचा जा सकता है।
वायु - प्रदूषण - पृथ्वी पर जीवन के लिए सबसे आवश्यक महाभूत वायु है । औद्योगीकरण का सबसे दुःखद पहलू वायु प्रदूषण है। विभिन्न गैसों के वायु में मिलने से वायु दूषित हो रही है, इससे विभिन्न शारीरिक और मानसिक रोग यहाँ तक कि मृत्यु भी हो जाती है। पेड़-पौधों का जीवन भी बहुत कुछ वायु पर आधारित है तथा समग्र जीव जाति का जीवन भी वायु और वायुमण्डल के वातावरण पर अबलम्बित
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ है। वायु प्रदूषण का एक कारण धूम्रपान भी है इससे फेंफड़े खराब हो जाते है। धूम्रपान न करने वाले के शरीर पर भी धुएँ का अत्यंत हानिकारक प्रभाव पड़ता है। तम्बाखू में मिले निकोटिन, कोल्टा, आर्सेनिक तथा कार्बनमोनो आक्साइड आदि विष का काम करते है।
वायु प्रदूषण से ही सम्बधित है ध्वनि प्रदूषण ट्रेन बस, जहाज, लाउडस्पीकर, जुलूस, वाद्ययंत्रों से उठने वाली तरंगें अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, नैराश्य आदि मानसिक रोगों की जननी हैं। कर्ण के विभिन्न रोग, श्वसन प्रणाली जनन क्षमता हास व मस्तिष्क के विभिन्न रोग इससे पैदा होते हैं। वाहनादि का कम से कम प्रयोग तथा कम बोलने, आवश्यकताएँ कम करने से इस प्रदूषण से बहुत कुछ बचा जा सकता है। वायुकायिक जीवों की हिंसा से विरति भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
__ वनस्पति प्रदूषण - पेड़-पौधे हमारे जीवन दाता हैं, वे विष पीकर अमृत देते हैं । सांसारिक प्राणवायु का बहु भाग वनस्पति से पैदा होता है। वन्य जीवों की रक्षा, बाढ़ व भूस्खलन का रोकना, वर्षा का नियंत्रण तथा हमारे स्वास्थ्य का संरक्षण वनस्पति पर ही निर्भर है। आज वनस्पति की हिंसा को कोई हिंसा मानता ही नहीं। वनों को काटे जाने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है, रेगिस्तान और समुद्र बढ़ रहा है। यदि हम वनस्पति के विनाश से विरत हो तथा उसका कम से कम उपयोग करें तो इस असंतुलन से बचा जा सकता है। खोजों में पाया गया है कि एक आदमी को प्रतिदिन कम कम से 16 किलो आक्सीजन चाहिए। इतनी आक्सीजन के लिए 50 वर्ष की आयु और 50 टन वाले 5-6 वृक्ष चाहिए। देखा जाये तो 5-6 वृक्षों को काटना एक आदमी को प्राण वायु से वंचित कर देना है।
इस प्रकार स्थावर हिंसा से विरत होने पर ही पर्यावरण का संरक्षण संभव है। दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियों वाले सूक्ष्म जीवों के विनाश से विरत होने पर शराब, मांसाहार, पशु सम्पदा का विनाश आदि से बचा जा सकेगा। हिंसा से विरत होने पर मन पवित्र होगा तब झूठ चोरी, कुशील परिग्रह आदि पापों से विरति होगी और सच्चे अर्थों में मनुष्य मनुष्य होगा। आइये संकल्प करें कि हम हिंसा से विरत होंगे और पर्यावरण का संरक्षण करेंगे।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मनुष्य में सर्व सामर्थ
पं. अमरचंद जैन शास्त्री
प्रतिष्ठाचार्य, शाहपुर चारों गतियों में सर्व श्रेष्ठ प्राणी, सर्व सामर्थ प्राणी मनुष्य ही है । इस पर्याय की उत्तम पात्रता - इस पर्याय में आने वालों को अग्निकाय, वायुकाय को छोड़कर 22 आगति है। सभी स्थानों से आता है । किन्तु जाने के लिए कुल 24 स्थान, 1 मोक्ष स्थान 25 गति स्थान है । यह मनुष्य संसार भवों की वृद्धि कर सकता
और संसार भवों का अंत भी कर सकता है। यह पात्रता मनुष्य में ही है । मोक्ष जाने का दरवाजा इसी पर्याय में ही है। देव गति की उत्कृष्ट आयु 33 सागर की पाने वाला तथा 33 सागर सातवें नरक में जाने वाला पात्र मनुष्य ही है। मनुष्य, तिर्यंच गति का उत्कृष्ट वंधक भी मनुष्य ही है।
आठ कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध भी इसी पर्याय में है। जैसे दर्शन मोह की 70 कोड़ा कोड़ी बंध का कारण आचार्य उमास्वामी, ने लिखा है - "केवलि श्रुत संघ धर्म देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य" यह अवर्णवाद स्वर्गों में नहीं है। कारण देवों के मंद कषाय रहती है। नरक गति में तीव्र कषाय में लड़ते रहने से अवर्णवाद करने का समय नहीं है । तिर्यंच गति में अवर्णवाद की पात्रता नहीं, सिर्फ मनुष्य पर्याय में ही पाँचों अवर्णवाद करने की पात्रता है। अत: उत्कृष्ट बन्ध प्रारंभ कर्ता मनुष्य ही है। वैसे चारों गति में दर्शन मोह मिथ्यात्व बंध है। क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने का अधिकार मनुष्य को ही है। इसलिए मोक्ष जाने का भी पात्र मनुष्य पर्याय है। 1. यह नर भव की महानता है । सार्थकता है। 2. हमारे पिता जी एक गीत सुनाते थे (सम्यक्त्व महिमा) धिक जीवन सम्यक्त्व बिना - टेक - दान शीलव्रत तप श्रुत पूजा, आतम हित नहिं एक गिना । घिक
जैसे भूप बिना सब सेना, नींव विना ज्यों मंदिर चुनना ॥
जैसे बिना एक के बिन्दु, त्यों सम्यक्त्व विन सर्व गिना ॥३॥ 1. पर को अपना मानना ही मिथ्यात्व है और पर को पर मानना ही सम्यक्त्व है। 2. (से और मैं शब्द में अंतर) संसार से डरना सम्यक्त्व है। और संसार में डरना मिथ्यात्व है। सातभयों से प्रत्येक प्राणी डरता है - जिसमें मरण भय प्रधान है। बहत जन प्रश्न करते हैं कि मिथ्यात्व किसे कहते है। उसका सरल उत्तर - सभी यह जानते है कि धर्म से सुख मिलता है और पापों से दुख मिलता है। इतना जानता हुआ भी प्राणी न धर्म ग्रहण करता है। और न पापों को छोड़ता है यही मिथ्यात्व है । एक बार शिष्य ने कुलभद्राचार्य से प्रश्न किया कि संसार में वृक्षादि के मूल बीज होते हैं । तो यह प्राणी संसार में नये - नये शरीर प्राप्त करता है। तो इसका भी बीज क्या है । आचार्य उत्तर देते है -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ छन्द - देहांतर गते वीजं, देहेस्मिन्नात्म भावना ।
देहे विदेह निष्पत्ते, आत्मन्ये आत्म भावना ॥1॥ अर्थात् जिसने देह को अपना माना है उसे देह प्राप्त होती रहती है । तथा जिसने आत्मा में आत्म भावना की है वह विदेह बन जाता है । सिद्ध बन जाता है।
मिथ्यात्व के दो पुत्र होते है - 1. अहंकार 2. ममकार । हिन्दी में 1 मैं 2 मेरे दो बेटे हैं। अब जहाँ जहाँ तक मैं लगेगा जैसे मैं राजा, मैं सुखी, मैं ज्ञानी, मैं त्यागी मै प्रधान आदि हूँ। वहाँ वहाँ तक मिथ्यात्व है। (अहंकार है) मैं तथा जहाँ जहाँ तक यह मेरे है। सब चेतन परिवार मेरे है। व अचेतन धन घर मकान रिश्तेदार सब मेरे हैं। अपना माना (वह ममकार है) मेरे हैं। यह सब मिथ्यात्व की पहचान है । जहाँ सबको अपना माना, पर को पर माना वहाँ सम्यक्त्व है। इसी को भेद ज्ञान कहते हैं।
3. जब सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है - तब ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो ही जाता है । और चारित्र सम्यक्त्व चारित्र कहलाता है। ज्ञान चारित्र की ओर प्रेरित करता है। कहा है - सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ़ चारित्र लीजे (दौलत राम) तभी मोक्ष मार्ग बनता है और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है। सर्वार्थसिद्धी वाले देव मोक्ष तो नियम से मनुष्य होकर जावेंगे | परन्तु अभी मोक्ष मार्गी नहीं है। मार्ग तीन से बनता है। चारित्रं खलु धम्मो
चारित्र ही धर्म है। चारित्र के साथ सम्यक्त्व आवश्यक है । तथा सम्यक्त्व न भी हो और संयम अणुव्रत का पालन सही करता हो तो 16 स्वर्ग तक का सुख प्राप्त हो जाता है। और द्रव्यलिंगी मुनि पंच महाव्रत रूप संयम पालन करता है। तो उसे नवमें ग्रैवेयक तक का सुख प्राप्त करा देता है। व्रत संयम की महिमा है । मनुष्य एक भी व्रत नियम लेवे तो देवगति को अवश्य पाता है । यह सब संयम आचरण की ही महिमा है - प्रभाव है। छन्द - बुद्धे:फलं तत्व विचारणं च, देहस्य सारोव्रत धारणं च ।
अर्थस्य सार: किल पात्रदानं, वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् ॥
4. यह तीन रतन नर भव में प्राप्त न हुये तो नर जन्म भी व्यर्थ है। दो हजार सागर काल में पुरुष पर्याय के सिर्फ 16 भव ही है मोक्ष पुरुषार्थ न किया तो पुन: निगोद में जाना पड़ता है। यह मनुष्य भव भ्रमण समापन का भव है। न कि संसार बढ़ाने का है। नरक व तिर्यंच आयु का जिन्हें बंध हो गया है। उन्हें व्रत लेने के भाव ही नहीं होते। राजा श्रेणिक को नरक आयु का बंध हो गया था, समवशरण में उनने स्वयं प्रश्न किया था। कि हमें व्रत लेने के भाव क्यों नहीं हो रहे। तब उत्तर आया कि तुमको नरक आयु का बंध हो गया है अत: व्रत के भाव नहीं होते। और व्रत संयम जिन्होंने ग्रहण कर लिये है। वह नरक तिर्यंच गति में न जाकर देव गति में जाता है। अत: जीवन के अंत समय में संयम लेकर नरभव को सफल बनाने का ध्यान रखना चाहिए । यही समाधि है । कल्याणं भवतु ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्रमणचर्या का अभिन्न अंग अनियतविहार
__डॉ. श्रेयांसकुमार जैन
उपाचार्य - संस्कृत दि. जैन कॉजेल, बड़ौत श्रमण का जीवन सर्वश्रेष्ठ है, इसीलिए गृहस्थ व्रतों का पालन करता हुआ प्रतिपल / प्रतिक्षण यही चिंतन करता है कि वह दिन कब आयेगा जिस दिन मैं श्रमणधर्म को ग्रहण कर अपने जीवन को सार्थक करूंगा। चिंतन मनन के फलस्वरूप गृहस्थ गृहबास का त्यागकर रत्नत्रयधारी निर्ग्रन्थ वीतरागी गुरु की शरण में पहुँचकर स्वेच्छाचार विरोधिनी जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करके श्रमण (साधु) के स्वरूप को प्राप्त करता है। जीवन को मंगलमय बनाता है, उसका मूल उद्देश्य विभाव से हटकर स्वभाव में रमण करना, प्रदर्शन न कर आत्मदर्शन करना, केवल आत्मविकास के पथ पर आगे बढ़ते रहना होता है।
मूल उद्देश्य को ध्यान में रखकर नव दीक्षित साधु अपने गुरु के साथ संघीय परम्पराओं का पालन करते हुए देश देशांतर में विहार करता है। आत्मा की साधना में लीन रहते हुए धर्म प्रभावना करता है। दीक्षा लेने के बाद साधु का विहार निरंतर होता है। साधु के विहार के प्रसंग में आचार्य वट्टकेर स्वामी लिखते हैं
गिहिदत्थेय विहारो विदिओऽगिहिदत्थ संसिदो चेव।
एत्तो तदिय विहारो णाणुण्णादो जिणवरेहि ।।140॥ मूलाचार विहार के गृहीतार्थ विहार और अगृहीतार्थ विहार ऐसे दो भेद हैं, इनके सिवाय जिनेश्वरों ने विहार की आज्ञा नहीं दी है।
जीवादि तत्त्वों के स्वरूप के ज्ञाता मुनियों का जो चारित्र का पालन करते हुए देशांतर में विहार है, वह गृहीतार्थविहार है और जीवादि तत्त्वों को न जानकर चारित्र का पालन करते हुए जो मुनियों का विहार है, वह अगृहीतार्थ संश्रितविहार है । इन दोनों प्रकार के विहारों के अर्थ को समझकर यह ज्ञात होता है कि साधु को एक स्थान पर ही रहने का विधान नहीं है, वह तो एक गाँव से दूसरे गाँव या एक नगर से दूसरे नगर में जाता रहता है मूलाचार में कहा है - गाँव में एक दिन तथा नगर में पाँच दिन अधिक से अधिक रहकर विहार कर जाता है जैसा कि आचार्य सकल कीर्ति ने लिखा है - प्रासुक स्थान में रहने वाले विविक्त एकांत स्थान में निवास करने वाले मुनि किसी गाँव में एक दिन रहते है और नगर में पाँच दिन रहते हैं।' चर्यापरीषह के वर्णन प्रसंग में यही बात भट्टाकलंकदेव ने कही है। ' श्वेताम्बर साहित्य में भी यही बात आयी है। निर्ग्रन्थमुनि को एक स्थान पर रहने की अनुमति नहीं दी गई है। वह तो भारुण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर ग्रामानुग्राम विहार करता है । विहार की दृष्टि से काल दो भागों में विभक्त है एक वर्षावास और दूसरा ऋतुबद्ध काल । वर्षाकाल में श्रमण को साढ़े तीन माह या चार माह तक एक स्थान पर रूकना चाहिए । हाँ कार्तिक कृष्णा अमावस्था को चातुर्मास पूर्ण हो जाये तो कार्तिक शुक्ला पंचमी तक तो अवश्य उसी स्थान पर रूकना चाहिए। इसके बाद कार्तिक पूर्णिमा तक भी धर्म प्रभावना या अन्य अपरिहार्य कार्यवश उसी
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्थान पर साधु रूक सकते है। दूसरा ऋतु काल है जिसमें स्वाध्याय आदि के निमित्त गुरु आज्ञापूर्वक एक माह रूकने का भी विधान है। कहा भी है.- बसंतादि छहों ऋतुओं में से प्रत्येक ऋतु में एक मास पर्यन्त ही एक स्थान पर साधु रहें । अनगार धर्म 9/68-69 वर्षाकालस्य चतुषु मासेषु एकत्रैवावस्थानं श्रमणत्यागः। भ.अ. वि.टी. 421 अर्थात् वर्षाकाल के चार माहों में भ्रमण का त्यागकर एक ही स्थान पर आवास करना चाहिए।
वर्षा ऋतु में चार माह एक स्थान पर रूकने का कारण है, वर्षा ऋतु में चारों ओर हरियाली होने से मार्गों के अवरूद्ध होने तथा पृथ्वी त्रस - स्थावर जीवों की संख्या बढ़ जाने से अंतिम संयम आदि का पालन कठिन हो जाता है अनगारधर्मामृत वर्षावास के संबंध में कहा है कि - आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम पहर में चैत्यभक्ति आदि करके वर्षायोग ग्रहण करना चाहिए तथा कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के पिछले प्रहर में चैत्यभक्ति आदि करके वर्षायोग छोड़ना चाहिए । अनगारधर्मामृत 9/68-69
गामेयरादिवासी णयरे पंचातवासिणो धीरा ।
सवणा फासुविहारी विविक्त एगंतवासी॥ मू.अ. - 487 बोधपाहुड़ टीका में इस प्रकार कहा है कि वसितै वा ग्राम नगरादौ वा स्थातव्यं नगरे पंचरात्रे स्थातव्यं ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यम् 42/107 ॥ अर्थात् नगर में पाँचरात्रि और गाँव में विशेष नहीं रहना चाहिए । वर्षावास समाप्त होने पर श्रमण को विहार तो करना ही होता है किन्तु यदि वर्षा का आधिक्य हो नदी नालों के तीव्र प्रवाह के कारण मार्ग दुर्गम हो गये हो कीचड़ आदि की अधिकता हो या बीमारी आदि का भी कारण हो तो साधु वर्षायोग के बाद भी नगर ग्राम के जिनमंदिर में ठहरे रह सकते है।
आचार्यवर्य सिद्धांतसार संग्रह में वर्षाकाल में मुनि का सीमित क्षेत्र से बाहर जाने की परिस्थितियों को भी दर्शाते हैं -
द्वादश योजनान्येव वर्षाकालेऽभिगच्छति । यदि संघस्य कार्येण तदा शुद्धो न दुष्यति ।। 10/59 यदि वाद - विवाद: स्यान्महामतविघातकृत ।
देशांतरगतिस्तस्मान्न च दुष्टो वर्षास्वपि ॥ 10/60 वर्षाकाल में संघ के कार्य के लिए यदि मुनि बारह योजन तक कहीं जायेगा तो उसका प्रायश्चित ही नहीं और यदि वाद-विवाद से महासंघ के नाश होने का प्रसंग हो तो वर्षाकाल में भी देशांतर जाना दोषयुक्त नहीं है।
__भगवती आराधना में तो अनियतविहार नामक साधु की चर्या का पृथक अधिकार ही है। इसमें अनियतविहार द्वारा साधु में दर्शन की शुद्धता, स्थितिकरण, भावना, अतिशयार्थ कुशलता, क्षेत्रपरिमार्गणा गुणों की उत्पत्ति बतायी है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनेक क्षेत्रों में विहार करने से साधु तीर्थकरों की जन्म, तप, ज्ञान और समवशरण की भूमियों के दर्शन और ध्यान करने से अपने सम्यक्त्व को निर्मल रखता है। जगह-जगह विहार के काल में अन्य वीतरागी साधकों से मिलने पर संयम की अभिवृद्धि होती है उनके उत्तम चारित्र को जानकर स्वयं उत्तम चारित्र पान के प्रति उत्साह बढ़ता है। सदाकाल विहार करते रहने पर धर्म में प्रीति बढ़ती है । पाप से भयभीत रहता है। सूत्रार्थ में प्रवीणता आती है। दूसरे के संयम को देखने से धर्माराधकों की धर्माराधना को देखने से स्वयं को धर्म में स्थितिकरण की भावना जगती है।' निरंतर विहार करने वाले साधु को चर्या परीषह होती है, कंकण मिट्टी पैरों में चुभती है । पादत्राण रहित चरणों से मार्ग में चलने पर जो वेदना उत्पन्न होती है उसे संक्लेश भाव रहित सहन करने पर चर्यापरीषह सहन होती है जिससे संयम की वृद्धि होती है । क्षुधा, तृषा, शीत उष्ण परीषह सहन की शक्ति बढ़ती है । ' अनेक क्षेत्रों में विहार करने वाले साधु को अतिशय रूप अर्थ में प्रवीणता भी आ जाती है। जैसा कि कहा है -
णाणादेसे कुसलो णाणादेसे गदाण सत्थाणं ।
अभिलाव अत्थकुसलो होदि य देसप्पवेसेण ॥ भग. आ. 150
नवीन - नवीन स्थानों पर विहार करने से अनेक देशों के रीति-रिवाजों का ज्ञान होता है लोगों के चारित्र पालन की योग्यता - अयोग्यता की जानकारी होती है। अनेक मंदिरों आदि स्थानों पर विराजमान शास्त्रों में प्रवीणता होती है । अर्थ बोध होता है। अनेक आचार्यों के दर्शन लाभ से अतिशय रूप अर्थ में कुशलता भी होती है।
देशांतरों में विहार करने वाले साधु को उस क्षेत्र का परिज्ञान होता है जो क्षेत्र कर्दम, अंकुर त्रस जीवों बहुलता से रहित हैं । जीव बाधा रहित गमन योग्य क्षेत्र को भी जान लेता है । जिस क्षेत्र में आहार पान मिलना सुलभ होता है और सल्लेखना आदि के योग्य होता है उसका भी ज्ञान होता है । इसलिए अनियतविहार आवश्यक है ।'
इस संबंध में और भी कहा है
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प्रेक्ष्यन्ते बहुदेश संश्रयवशात्संवेगिताद्यांप्तय - स्तीर्थाधीश्वर केवली द्वयमही निर्वाणभूम्यादय: । स्थैर्यं धैर्यं विरागतादिषु गुणेष्वाचार्यवयें, क्षणाद्विद्या वित्तसमागमाधिगमो नूनार्थ सार्थस्य च ॥
अनियतविहार करने में अनेक देशों का आश्रय लेना पड़ता है जिसमें संवेग वैराग्य आदि अनेक गुणों को धारण करने वाले अनेक आप्तजनों के पूज्य पुरुषों के दर्शन होते हैं। तीर्थंङ्गरों को जहाँ जहाँ केवलज्ञान प्रगट हुआ है अथवा जहाँ जहाँ निर्वाण प्राप्त हुआ है उन समस्त तीर्थक्षेत्रों के दर्शन प्राप्त होते हैं। अनेक उत्तमोत्तम आचार्यों के दर्शन से धीरता वैराग्य आदि तथा उत्तम गुणों से स्थिरता प्राप्त होती है और विद्यारूपी धन की प्राप्ति होने से निश्चित अर्थों के समूह का ज्ञान होता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनियतविहारी साधक की सल्लेखना भी ठीक तरह से होती है क्योंकि वह जगह-जगह विहार करते रहने के कारण उन स्थानों में भी परिचित होता है, जहाँ धार्मिकता होती है। एकांत, शांत, निराकुलता रह सकती है । नियतवासी प्राय: स्थान विषयक अथवा अपने निकटस्थ लोगों के प्रति रागभाव रखने लगते हैं। अत: दूसरे अपरिचित स्थान और मनुष्यों के बीच पहुँचकर साधक भली प्रकार से सल्लेखना ग्रहण कर आत्मकल्याण कर सकता है कहा भी है
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सदरूपं बहुसूरि भक्तिकयुतं क्षमादि दोषोज्झितं, क्षेत्र पात्र मीक्ष्यते तनुपरित्यागस्य नि:संगता । सर्वस्मिन्नपि चेतनेतर बहि: संगे स्वशिष्यादिके, गर्वस्यापचयः परीषहजयः सल्लेखना चोत्तमा ॥
मुनिराज को सल्लेखना धारण करने के लिए ऐसे क्षेत्र देखने चाहिए जहाँ पर राजा उत्तम धार्मिक हो, जहाँ के लोग सब आचार्यादिको की बहुत भक्ति करने वाले हो तथा जहाँ के लोग आचार्यादिकों की बहुत भक्ति करवाने वाले हो । जहाँ पर निर्धन और दरिद्र प्रजा न हो। इसी प्रकार पात्र ऐसे देखने चाहिए जिनके शरीर त्याग करने में भी निर्मोहपना हो तथा अपने शिष्यादिकों में भी अभिमान न हो और जो परिषहों को अच्छी तरह जीतने वाले हों ऐसा क्षेत्र और पात्रों को अच्छी तरह देखकर सल्लेखना धारण करनी चाहिए ।
उक्त व्यवस्था अनियतविहारी साधु की ही बन सकती है जो एक स्थान पर रहते हैं, उनकी सल्लेखना समाधि भी आगमोक्त रीति से कैसे संभव हैं ? अत: वर्तमान में मुनि / आर्यिका / त्यागी / व्रती सभी को विचार करना चाहिए कि जीवन भर की सार्थकता निहित स्वार्थ के कारण न खो जाये ।
मूलाचार प्रदीप में कहा है- प्रासुक स्थान में रहने वाले और विविक्त एकांत स्थान में निवास करने मुनि किसी गाँव में एक दिन रहते हैं और नगर में पाँच दिन रहते हैं। सर्वथा एकांत स्थान को ढूँढने वाले और शुक्लध्यान में अपना मन लगाने वाले मुनिराज इस लोक में गंध - गज (मदोन्मत्त) हाथी के समान ध्यान के आनंद का महासुख प्राप्त करते हैं। 31-32
आचार्य शिवार्य वसतिका आदि में ममत्व के अभाव को भी अनियत् विहार मानते हैं।
सधी उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे ।
सव्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियदविहारो ॥ भग. आ. 155
वसतिका में, उपकरण में, ग्राम में, नगर में, संघ में, श्रावकों में ममता के बंधन को न प्राप्त होने वाले अनियतविहार करने वाला साधु है। अर्थात् जो ऐसा नहीं मानता कि यह वसतिका मेरी है, मैं इसका स्वामी हूँ सभी परद्रव्यों, परक्षेत्रों, परकालों, से नहीं बंधा हूँ वह अनियतविहार करने वाला है।
उक्त सभी लाभ अनियतविहार करने वाले को ही प्राप्त हो सकते है, जो एक स्थान पर रहकर धर्म का पालन करना चाहें, वह संभव नहीं है।
साधु को निरंतर विहारी होने के कारण श्रेष्ठ कहा है कवि ऋषभदास ने कहा है -
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्त्री पीहर, नरसासरे संयमियां थिरवास ।
ऐत्रणवे जलखामणा जो मण्डेचिरवास ॥ अर्थात् स्त्री का मायके रहना, पुरुष का ससुराल में रहना और साधुओं का एक स्थान पर रहना तीनों ही अनिष्टकारी हैं। हिन्दी के किसी कवि ने भी कहा है -
वहता पानी निर्मला, बंधा सो गंदा होय ।
साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय ॥ साधु व्रती श्रेष्ठ कहा गया है जो एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थानों को जाता है। साधु के निवास के विषय में शास्त्रों में विशद विवेचन किया गया है । वे मुनिराज पहाड़ों पर ही पर्यंकासन अर्धपर्यंकासन व उत्कृष्ट वीरासन धारण कर व हाथी की सूंड के समान आसन लगाकर अथवा मगर के मुख का सा आसन लगाकर अथवा एक करवट से लेटकर अथवा कठिन आसनों को धारण कर पूर्ण रात्रि बिता देते है।।
भट्टाकलंकदेव साधु के योग्य निवास के संबंध में लिखते हैं “शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर साधु को स्त्री, क्षुद्र, चोर, महापापी, जुआरी, शराबी और पक्षियों को पकड़ने वाले पापी जनों के स्थान में वास नहीं करना चाहिए तथा श्रृंगार विकार, आभूषण, उज्ज्वल वेश, वेश्या की क्रीड़ा से अभिराम (सुन्दर) गीत नृत्य वावित्र्य आदि से व्याप्त शाला आदि में निवास का त्याग करना चाहिए। जो शयनासन शुद्धि वाले हैं संयतों को तो अकृत्रिम (प्राकृतिक) पर्वत की गुफा वृक्ष" साधु के उद्देश्य से नहीं बनाये गये हो और जिनके बनने बनाने में अपनी ओर से किसी तरह का आरंभ नहीं हुआ है ऐसे स्वाभाविक रीति से (अकृत्रिम) बने हुए पर्वत की गुफाएँ या वृक्षों के कोटर आदि तथा बनवाये हुये सूने मकान वसतिका आदि अथवा जिनमें रहना छोड़ दिया जाता है अथवा छुड़ा दिया जाता है ऐसे मोचिता वाप्त आदि स्थानों में रहना चाहिए।
वर्तमान में वसतिकाएँ निर्माण की होड़ लगी हुई है वह किसी भी नाम से निर्मित करायी जाये। हाँ गृहस्थ का आवास आठ दस कमरों का हो सकता है किन्तु मुनि की वसतिकाएँ बहुमजली इमारतों से युक्त विशाल परिसर में नाना विभागों से अलंकृत होने से ही गौरव है। तभी तो मुनि या आर्यिका पचास लाख या करोड़ों की परियोजना में जुटे हुए हैं। ऐसा करने में ही तो पूर्वाचार्यों के कथन का उल्लंघन कर अपना श्रेष्ठत्व स्थापित करने की सफलता है क्योंकि पूर्वाचार्यों ने तो गिरि कंदरा या वन में निवास करने को कहा हैं - शून्यघर पर्वतगुफा, वृक्षमूल, अकृत्रिमघर, श्मशानभूमि, भयानक वन, उद्यानघर, नदी का किनारा आदि उपयुक्त वसतिकाएँ है। बोधपाहुड में भी कहा है इनके अतिरिक्त अनुदिष्ट देव मंदिर, धर्मशालाएँ, शिक्षाघर आदि भी उपयुक्त वसतिकाएँ है।"
जिनेन्द्रमंदिरे सारे स्थितिं कुर्वन्ति येऽङ्गिन: । तेभ्य: संवर्द्धते धर्मो धर्मात्संपत परानृणाम् ॥
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
श्रेष्ठ जिनमंदिर में जो मुनिराज आदि ठहरते हैं, उनसे धर्म बढ़ता है और धर्म से मनुष्यों को श्रेष्ठ सम्पत्ति की प्राप्ति होती है और भी कहा है -
मुनि: कश्चित् स्थानं रचयति यतो जैनभवने, विधत्ते व्याख्यानं यदवगमतो धर्मनिरताः । भवंतो भव्यौधा भवजलधिमुत्तीर्य सुखिनर - ततस्तत्कारी किं जनयति जनो यन्न सुकृतम् ॥
यतश्च जिनमंदिर में कोई मुनिराज आकर ठहरते हैं, तथा व्याख्यान करते हैं, जिनके ज्ञान से भव्य जीवों के समूह धर्म में लीन होते हुए संसार समुद्र को पारकर सुखी होते है । अतः जिनमंदिर के निर्माण कराने वाले पुरुष ऐसा कौन पुण्य है, जिसे न करवाता हो ।
साधु के योग्य निवास के संबंध में आचार्य अकलंक यह लिखते हैं - संयतेन शयनासन शुद्धिपरेण । स्त्री क्षुद्रचौरपानाक्षशौण्ड शाकुनिकादिपापजनवासावर्ज्या : श्रृंगारविकारभूषणोज्जवल वेषवेश्याक्रीडाभिरामगीतनृत्य - वादित्ताकुलशालादयश्च परिहर्तव्या । अकृत्रिमगिरिगुहातरूकोटरारयः कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा अनात्मोद्देशनिर्वतिता निराम्भा सेव्या । तत्त्वार्थवार्तिक 9/5 J. 552
शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर साधु को स्त्री, क्षुद्र, चौर, मद्यपायी, जुआरी, शराबी और पक्षियों को पकड़ने वाले आदि पापी जनों के स्थान में वास नहीं करना चाहिए तथा श्रृंगार, आभूषण, उज्ज्वल वेष, की क्रीड़ा से अभिराम (सुन्दर) गीत, नृत्य, वादित्र आदि से व्याप्त शाला आदि में रहने का त्याग करना चाहिए। शासनासन शुद्धि वाले संयतो को तो अकृत्रिम (प्राकृतिक ) पर्वत की गुफा, वृक्ष के कोटर आदि तथा कृत्रिम शून्यागार छोड़े हुए घर आदि ऐसे स्थानों में रहना चाहिए, जो उनके उद्देश्य से नहीं बनाये ये हों और जिनमें उनके लिए कोई आरंभ न किया गया हो ।
मुनियों का निवास तीन प्रकार का होता है। स्थान - खड़े होना, आसन - बैठना और शयन- सोना । इस प्रकार की वसतिकाओं में निवास करने पर ही परीषहजय नामक तप की पूर्णता होगी आचार्यों प्रत्येक परीषह का स्वरूप बताकर उन पर जय प्राप्त करने वाले साधकों की प्रशंसा की है ।
जैनाचार्य मठ, आश्रम आदि में स्थायी निवास करने की मुनि / आर्यिका को अनुमति प्रदान नहीं करते हैं। न जाने वर्तमान में यह प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है कि साधु / साध्वी / त्यागी व्रती अपनी देख-रेख में कोई न कोई आश्रम / मठ / संस्थान / संस्था का निर्माण कराकर उसी को अपना निवास बना रहे है । आस्था से जकड़ी समाज साधु/साध्वी / त्यागी / व्रती के कहने पर शक्ति के अनुसार अर्थ सहयोग करती है और उनकी बलवती इच्छाओं को पूर्ण करना अपना कर्तव्य समझती है । यदि कोई प्रबुद्ध समाज के मध्य कहता है कि अपरिग्रही साधक को परिग्रही बनाकर धर्म की हानि क्यों की जा रही है । साधुओं को एक स्थान पर नहीं रहना चाहिए गृहस्थों के साथ रहने पर परीषह भी नहीं होते हैं जिससे साधक की साधना में दोष लगने की
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संभावना रहती है। इसका उत्तर समाज के पास होता है कि ये मुनि/आर्यिका अपने साथ तो नहीं ले जायेंगे। रहेगी तो अपने पास, अपने लोगों के ही कार्य आयेगी। इनके निमित्त से बाहर का रुपया हमारे गृह स्थान या तीर्थ स्थान पर लग रहा है। इसी लोभ, कषायवश स्थानीय समाज साधु/साध्वी /त्यागी व्रती का पूर्ण बढ़ चढ़ कर सहयोग करते हैं। यह सहयोग नहीं है अपितु श्रमण संस्कृति को दोषपूर्ण बनाने के कारण आपका योग ही है क्योंकि यह व्यवस्था साधुओं को भी प्रलोभन में फंसा देती है और याचना भी करनी पड़ती है।
साधु सोचने को तैयार नहीं कि याचनाशील होने पर मैं मोक्षमार्ग से च्युत हो जाऊँगा। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने याचना करने वाले को मोक्षमार्ग से पृथक माना है।
जे पंच चेल सत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला।
आधा कम्मम्मिरया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥ 79 मो. पाहुड़ जो पाँच प्रकार के वस्त्रों में आसक्त है परिग्रह को ग्रहण करने वाले हैं याचना करते हैं तथा अध: कर्म निंद्यकर्म में रत हैं, ये मुनि मोक्षमार्ग से पतित हैं। परिग्रही साधक विशुद्धि को भी प्राप्त नहीं होता है जैसा कि कहा है -
वैषम्ययत्यप्यं दिव्यं स्वीयमनिन्धं यद् द्रव्यम् ।
निश्चयनस्य विषयगृहीव परिगृही नाव्यम् ॥ यह परिग्रहवान मुनि भी निश्चयनय के विषयभूत अनिन्दनीय द्रव्य और अविनाशी स्वकीय द्रव्य को गृहस्थ के समान प्राप्त नहीं होता अर्थात् जिस प्रकार परिग्रही गृहस्थ शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार परिग्रही साधु भी नहीं प्राप्त होता । अत: विशुद्धि को बढ़ाने के लिए साधुओं का एक स्थान विशेष पर जीवन भर या लम्बी अवधि रूकने का मोह नहीं होना चाहिए जिससे उनका अनियमित विहार चलता रहेगा और वे आगम की मर्यादा की सुरक्षा करते हुए मोक्षमार्ग की महती प्रभावना कर सकेंगे। संदर्भ - 1. मूलाचार प्रदीप 31 2. तत्त्वार्थवार्तिक भा.पृ. 595 3. बृहत्कल्पभाष्य 1/36 4. सणसोधी ठिदिकरणभावणा अदिसयत्तकुसलत्तं ।
खेतपरिमग्गणावि य अणियदवा से गुणा होति ॥ भग.आराधना गा. 147 वही पृष्ठ 148, 149, 150 संविग्गवरे पासिय पियधम्मदरे अवज्जभीरुदरे ।
संयमवि पियथिरधम्मो साधु विहरतओ होदि ॥ भग. आराधना गा. 151 7. वही गा. 152
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 8. सुत्तत्थथिरीकरणं अदिसयिदत्थाण होदि उवलद्धी।
आयरियदंसणेण दु तह्मा सेवेज्ज आयरियं ॥ भग. आराधना गा. 155 संजदजणस्स य जहिं फासुविहारो य सुलभवुत्ती य ।
तं खेत्तं विरहन्तो णाहिदि सल्लेहणा जोग्गं ॥ भ.आराधना गाथा 157 10. मूलाचार समाचार अधिकार । 11. मूलाचार प्रदीप 31 12. तत्त्वार्थवार्तिक भाग-2 पृष्ठ 595 (आर्यिका सुपार्श्वमती माता जी कृत हिन्दी टीका)
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आगमं संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सल्लेखना के परिप्रेक्ष्य में भगवती आराधना में वर्णित ज्ञानी और अज्ञानी के तप का स्वरूप
डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन,
गाजियाबाद (उ.प्र.) मृत्यु के समय या मृत्यु के समय तक जीव के ऐसे परिणाम हो जायें कि पुनः मृत्यु न हो अर्थात् निर्वाण मुक्ति की प्राप्ति हो या उसके समीप होने का मार्ग प्रशस्त हो, एतदर्थ भारतीय मनीषियों ने अपने विशाल ग्रंथों में प्रस्तुत विषय का प्रतिपादन किया। चिंतन की उस कड़ी में जैनाचार्यों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। जैनधर्म की यह विशेषता है कि उसमें सल्लेखनापूर्वक मरण को जैन साधना का आवश्यक अंग माना गया है। शिवार्य द्वारा रचित 'भगवती आराधना' नामक ग्रन्थ का मुख्य विषय सल्लेखना -समाधि मरण ही है। ज्ञानी हो या अज्ञानी प्रत्येक जीव का मरण सुनिश्चित है । यदि ज्ञानी तपपूर्वक मरण करता है तब वह शरीर को कृश करते हुए संसार को भी कृश करता है और अज्ञानी तपपूर्वक मरण करता है तब वह केवल शरीर को ही कृश करता है । भगवती आराधना में वर्णित मरण समय धारण की जाने वाली सल्लेखना के परिप्रेक्ष्य में ज्ञानी और अज्ञानी के तप का स्वरूप एवं स्थिति आदि क्या है, यह प्रस्तुत आलेख का प्रतिपाद्य विषय है। ज्ञानी और अज्ञानी के तप के स्वरूप पर विचार करने से पूर्व यहाँ ज्ञानी और अज्ञानी को परिभाषित करना आवश्यक है, जिससे विषयवस्तु पर विचार करने में सरलता होने के साथ पाठकों को किसी प्रकार का भ्रम पैदा न हो। यह भी ज्ञात हो कि इन विषयों पर अध्यात्मदृष्टि, आगमिकदृष्टि एवं दार्शनिकदृष्टि से आचार्यों ने अपने मन्तव्य प्रकट किये हैं, परन्तु उनके दृष्टिकोण में कहीं भी विपरीतता नहीं है। अध्यात्मदृष्टि का सीधा सम्बंध शुद्धोपयोग रूप मोक्षमार्ग है, अन्य शुभोपयोग सहित बंधमार्ग हैं। आगमिकदृष्टि मोक्षमार्ग प्राप्ति के उपायरूप परम्परया शुभोपयोग चारित्र पर बल देती है। दार्शनिकदृष्टि प्रमाण एवं न्यायपूर्वक वस्तुतत्त्व की प्रमाणिकता सिद्ध करती हुई मोक्षमार्गोन्मुख करती है। इसलिए सापेक्ष एवं स्पष्ट दृष्टिकोण रखने पर कहीं भी विरोध दृष्टिगोचर नहीं होता। भगवती आराधना में भी प्रसंगानुसार उपर्युक्त सभी दृष्टियों का आश्रय लिया गया है। ज्ञानी और अज्ञानी -
सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि जो जानता है वह ज्ञानी और जो नहीं जानता है वह अज्ञानी। अज्ञान का यहाँ अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है । सामान्य ज्ञान की अपेक्षा सभी ज्ञानी हैं क्योंकि ज्ञान चैतन्य विशिष्ट जीव का विशेष गुण है । सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है और मिथ्याज्ञान की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि अज्ञानी हैं । स्व पर विवेक से रहित पदार्थज्ञान, अज्ञान है। सम्पूर्ण ज्ञान की अपेक्षा केवली, ज्ञानी हैं। अपूर्ण ज्ञान की अपेक्षा शेष छमस्थ अज्ञानी हैं। मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के भेद से छमस्थ दो प्रकार के हैं। सम्यग्दृष्टि छदमस्थ के अंतर्गत सराग छमस्थ चतुर्थ से दशवें गुणस्थान तक तथा ग्यारहवें,
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ बारहवें गुणस्थान तक वीतराग छद्मस्थ होते हैं। ध्यातव्य है कि छमस्थ जीवों में ज्ञानावरण कर्म और दर्शनावरण कर्मों का सदैव क्षयोपशम रूप से अस्तित्व पाया जाता है, उदय रूप से सद्भाव नहीं पाया जाता है। जीवों के ज्ञान के उत्तरोत्तर विकास या हास का कारण भी क्षयोपशम की तरतमता है, जो दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्या रूप तथा उसके उपशम क्षय अथवा क्षयोपशम से सम्यक् रूप होता है। ज्ञानावरण कर्म का उदय संसार का कारण होने से हेय है । क्षयोपशमिक परिणतियाँ यथासम्भव मोक्ष का कारण होने से उपादेय हैं, परन्तु ये छूट जाती हैं, केवल क्षायिक परिणतियाँ ही उपादेय है, जो पुन: नहीं छूटती है। पदार्थों को नहीं जानने रूप अज्ञान, ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है। अत: उसे औदयिक कहा जाता है। ज्ञान में विशेषता होते हुए भी यदि वह सम्यग्दर्शन सहित नहीं है तब मिथ्यादर्शन के उदय से होने वाला उसे क्षयोपशमिक अज्ञान कहेगे। कुन्दकुन्द के अनुसार जो आत्मा इस कर्म के परिणाम तथा नोकर्म के परिणाम को करता नहीं है, किन्तु जानता है, वह ज्ञानी है। आगमिक दृष्टि से ज्ञानी और अज्ञानी होने का आधार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व हैं। धवला में लिखा है कि मिथ्यादृष्टि ज्ञानी नहीं हो सकते। मिथ्यात्वकर्म के उदय से वस्तु के प्रतिभाषित होने पर भी संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय की निवृत्ति नहीं होने से मिथ्यादृष्टि अज्ञानी कहा जाता है। मिथ्यावृष्टि का ज्ञान, ज्ञान का कार्य नहीं करता। इसलिए उसमें अज्ञानपना है । जाने हुए पदार्थ का श्रद्धान करना ज्ञान का कार्य है, जो मिथ्यादृष्टि में नहीं पाया जाता है । अत: उसके ज्ञान को अज्ञान कहा है, अन्यथा जीव के अभाव का प्रसंग उपस्थित होता है वस्तुत: ज्ञान मिथ्या नहीं होता मिथ्यात्व के कारण ही मिथ्या कहा जाता है। भगवती आराधना में लिखा है कि शुद्धनय की दृष्टि से मिथ्यादृष्टि का ज्ञान, अज्ञान है । टीकाकार ने इसको स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यहाँ ज्ञान शब्द सामान्य ज्ञान का वाचक नहीं है बल्कि ज्ञान शब्द का अर्थ यथार्थ ज्ञान ही है। जिसके द्वारा वस्तु जानी जाती है, वह ज्ञान है। जो वस्तु में नहीं पाये जाने वाले रूप को दर्शाता है, वह वस्तु को नहीं जानता । इस दृष्टि से ज्ञान शब्द का अर्थ मिथ्याज्ञान नहीं है। मिथ्याज्ञान अज्ञान ही है। फलितार्थ अज्ञान के दो भेद हुए - 1. औदयिक अज्ञान और 2. क्षयोपशमिक अज्ञान | पदार्थों को नहीं जानने रूप अज्ञान ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है इसलिए
औदयिक है। ज्ञान में विशेषता होते हुए भी यदि वह सम्यक्दर्शन सहित नहीं है तब उसे मिध्यादर्शन के उदय से होने वाला क्षयोपशभिक अज्ञान कहते हैं । ज्ञात हो कि भाववती और क्रियावती ये दो शक्तियाँ जीव के साथ अनादिकाल से जुड़ी हुई है। दर्शन, ज्ञान और वीर्यरूप से भाववती शक्ति के तीन रूप हैं। उपयुक्त आकार को प्राप्त ज्ञानरूप यह भाववती शक्ति दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित होकर अनादिकाल से मिथ्यादर्शन एवं मिथ्याज्ञान रूप धारण किये है। पौद्गलिक मन,वचन और काय की अधीनता में क्रियाशील रहने वाली क्रियावती शक्ति चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से प्रभावित होकर मिथ्याचारित्र रूप हो जाती है। जब दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाता है, तब विकास को प्राप्त वह ज्ञानरूप भाववती शक्ति सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रूप परिणत हो जाती है तथा चारित्रमोहनीय कर्म के उदय का यथायोग्यरूप में जैसे जैसे अभाव होता जाता है वैसे वैसे मन, वचन और काय की अधीनता में क्रियाशील क्रियावतीशक्ति सम्यक्चारित्र रूप परिणत होती जाती है । संसारमार्ग के कारणभूत दर्शनमोहनीय और
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ चारित्रमोहनीय कर्म के अधीन रहने वाला जीव संयम, तप, स्वाध्याय आदि पूर्व यथाक्रम से इन कर्मों के उदय को समाप्त कर इनसे क्षायोपशमिक स्थिति में पहुँचकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो सकता है। मोहनीय कर्म के उदय से उनके क्षयोपशम रूप यथाक्रम विकाश को प्राप्त न होने पर मिथ्यादृष्टि जीव अणुव्रतों, महाव्रतों, तप आदि का पालन करता हुआ भी मोहनीय कर्म के मंदोदय और पुण्यकर्मों के तीव्रोदय के आधार पर उसकी प्रवृत्ति सांसारिक अभ्युदय की प्राप्ति के लिए ही हुआ करती है। सल्लेखना : ज्ञानी और अज्ञानी का तप :
काय और कषाय का कृश करना सल्लेखना है। सल्लेखना व्रत है, जो मरण से पूर्व मरण तक लिया जाता है । मारणान्तिक सल्लेखना भी इसे कहते हैं। श्रावक और श्रमण दोनों इसको ले सकते है । भगवती आराधना की गाथा संख्या 274 में सल्लेखना करने वाले के दो भेद बताये गये हैं - 1. आचार्य और 2. साधु। उपसर्ग, दुर्भिक्ष, अतिवृद्ध, असाध्यरोग आदि होने पर साधक साम्यभावपूर्वक अंतरंग कषायों का सम्यक् रूप से दमन करते हुए क्रमश: भोजन आदि का त्याग करके शरीर को धीरे - धीरे कृश करते हुए जब उसे त्याग देता है, तब उसे सल्लेखना या समाधिमरण कहते हैं। अभ्यन्तर और बाह्य के रूप में सल्लेखना के दो भेद होते हैं। अभ्यन्तर सल्लेखना क्रोधादि कषायों की होती है। जिसका चित्त कषाय से दूषित होता है, उसके परिणाम विशुद्धि नहीं होती। परिणामविशुद्धि को कषाय सल्लेखना भी कहा गया है। परिणामों की विशुद्धि छोड़कर ज्ञानी या अज्ञानी उत्कृष्ट भी तप करें तब भी उनके अशुभ कर्म के आस्रव से रहित शुद्धि नहीं होती । विशुद्ध परिणाम वाला शुक्ल लेश्या से युक्त उत्कृष्ट तप नहीं भी करे, तब भी वह केवल शुद्धि को प्राप्त करता है। बाह्य सल्लेखना शरीर के विषय में होती है। इसमें बल को बढ़ाने वाले भोजन रस आदि को क्रम से त्यागते हुए शरीर को कृश किया जाता है। साधक का सभी तपों से उत्कृष्ट तप तब होता है, जब अभ्यन्तर सल्लेखना पूर्वक बाह्य सल्लेखना करते हुए संसार के त्याग का दृढ़ निश्चय करता है। गुणभेद की अपेक्षा मरण :
___ आचार्य शिवार्य ने जिनागम का उल्लेख करते हुए मरण के सत्रह भेदों का उल्लेख किया है, जिनमें गुण भेद की अपेक्षा जीवों के पाँच भेद करके उनके संबंध से मरण के पाँच भेद - पण्डितपण्डितमरण पण्डितमरण, बाल पण्डित मरण, बाल मरण और बाल बाल मरण बताये है। क्षीणकषाय और अयोग केवली पण्डित पण्डित मरण से मरते हैं । शास्त्रानुसार आचरण करने वाले साधु के पण्डित मरण के उपभेद - पादोपगमन, भक्तप्रतिज्ञा और इंगिनी ये तीन मरण होते हैं। विरताविरत जीवों का बालपण्डित मरण होता है। अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ बालमरण से मरते हैं और बालबाल मरण, मिथ्यादृष्टि जीवों का होता है। ज्ञात हो कि उपर्युक्त मरण आराधना पूर्वक होने वाले मरण के विषय में बताये गये है। यथार्थ मरण के लिए आराधना आवश्यक :
__ सल्लेखना पूर्वक मरण के लिए ग्रन्थकार ने आराधना को आवश्यक माना है। जीवनभर की गयी आराधना यदि मरण के समय यथावत् बनी रहे, तभी उसकी सार्थकता है अन्यथा उसकी सम्पूर्ण जीवन की
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आराधना निष्फल हो जाती है। उत्तम, मध्यम और जघन्य के रूप में आराधना का स्वामित्व माना गया है। आराधना के अंतर्गत तप :
भगवती आराधना में तप का उल्लेख अंतिम आराधना के रूप में किया गया है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तप ये, चार आराधनायें विस्तार से कहीं गयीं हैं । जिनागम के उल्लेखपूर्वक संक्षिप्त श्रद्धानविषयक और चारित्रविषयक, दो आराधनायें बतायीं गयीं हैं। ग्रन्थकार ने दर्शनाराधना में ज्ञानाराधना का एवं चारित्राराधना में तपाराधना का अंतर्भाव किया है क्योंकि दर्शन का ज्ञान के साथ तथा चारित्र का तप के साथ अविनाभाव है अर्थात् दर्शन और चारित्र होने पर क्रमश: ज्ञान और तप नियम से होते हैं, ज्ञान तथा तप होने पर दर्शन और चारित्र हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं। ज्ञान का दर्शन के साथ अविनाभाव सम्बंध नहीं है। ज्ञान शब्द सामान्यवाची होने से उसके संशय, विपर्यय, अनध्वसाय आदि प्रयोग देखे जाते हैं। ज्ञानरूप परिणमन करने वाला आत्मा नियम से तत्त्व श्रद्धान रूप से परिणमन करता ही हो, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि जो आत्मा मिथ्याज्ञान रूप से परिणमन करता है, उसके तत्त्वश्रद्धा का अभाव होता है। जिसकी जिस विषय में श्रद्धा होती है उसका उस विषय में अज्ञान होने पर किसी भी तरह वह श्रद्धा नहीं होती। रूचि, विषय के बिना नहीं होती। बुद्धि के द्वारा ग्रहण की गयी वस्तु में श्रद्धा होती है। अत: श्रद्धा का ज्ञान के साथ अविनाभाव है। श्रद्धान चैतन्य का धर्म है, ज्ञान का नहीं। यदि उसे ज्ञान का धर्म माना जायेगा तो क्षयोपशमिक ज्ञान के नष्ट होने पर दर्शन कैसे रह सकेगा। धर्मों के नष्ट होने पर धर्म नहीं होता। चारित्राराधना और तप :
ग्रन्थकार ने तप का चारित्राराधना में अंतर्भाव किया है । टीकाकार ने यहाँ संयम का अर्थ चारित्र किया है। क्योंकि कर्मों के ग्रहण में निमित्त क्रियाओं के त्याग को संयम कहते हैं, इसलिए वह चारित्र है। बाह्य अनशन आदि और आभ्यन्तर प्रायश्चित आदि के भेद से चारित्र बारह प्रकार का है । तप आराधना में अविरति, प्रमाद एवं कषाय का त्याग होता है। इसलिए तपाराधना का चारित्राराधना में अंतर्भाव किया गया है, परतु तपाराधना में चारित्राराधना नहीं आती क्योंकि तपस्वी असंयम का त्यागी होता भी है और नहीं भी होता। भोजनादि का त्याग करने वाले भी कई असंयमी देखे जाते हैं। जो सुख का त्याग करता है, वह चारित्र को धारण करता है। चारित्र में उद्यम करना बाह्य तप है और यह चारित्र की सहायक सामग्री है। चारित्र रूप परिणाम अंतरंग तप हैं। अंतरंग तप के भेद प्रायश्चित आदि पाप प्रवृत्तियों को दूर करते हैं। इसलिए तप चारित्र से भिन्न नहीं है । अवगत हो कि तप के साथ अन्य सभी आराधनाएँ भी चारित्र की आराधना में आराधित हैं। इस कारण यह माना गया है कि असंयत सम्यग्दृष्टि ज्ञान और दर्शन का ही आराधक होता है, चारित्र और तप का नहीं। मिथ्यादृष्टि अनशन आदि में तत्पर रहते हुए भी चारित्र की आराधना नहीं करता। अन्य आराधनाओं के साथ चारित्र की आराधना का अविनाभाव नहीं है ताप्पर्य यह कि चारित्राराधना के बिना भी अन्य आराधनायें होती है।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रत्नत्रय और तप :
अध्यात्म में परद्रव्यों से पृथक् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप शुद्ध चैतन्य आत्मतत्त्व में स्थित होकर परिणमन करने वाले जीव मोक्षमार्ग पर स्थित माने गये हैं। इसलिए उनकी दृष्टि में व्रत, नियम शील तप आदि परमार्थ से पृथक बाह्य अज्ञान रूप हैं अर्थात् अज्ञानियों द्वारा अंतरंग से भी किये जाने वाले शुभकार्य रूप शील, तप आदि मोक्ष के कारण नहीं हैं एवं ज्ञानियों के बाह्य शील,तप आदि शुभकार्य नहीं होने पर भी उनके मोक्ष का सद्भाव है। आगम में मोक्षोन्मुख शुभकार्यों को परम्परया मोक्ष का कारण माना गया है । अपराजितसूरि के अनुसार तप और संयम ज्ञानभावना के कार्य है, जो ज्ञानभावना के होने पर होते हैं, उसके अभाव में नहीं होते । वे ज्ञानभावना के होने पर होते ही हैं ऐसा नियम नहीं। ज्ञान के बिना सम्यग्दर्शन आदि नहीं होते । चारित्र मोह के क्षयोपशम विशेष की अपेक्षा सहित ज्ञान होने पर होते हैं। कारण के होने पर कार्य अवश्य होता ही है, ऐसा नियम नहीं है । काष्ठ आदि की आग, बिना धूम के भी देखी जाती है। मरण समय रत्नत्रय :___जीवनभर ज्ञान, दर्शन और चारित्र का निर्दोष पालन करने पर भी मरण समय यदि साधक रत्नत्रयरूप परिणाणों को नष्ट करके मिथ्यादर्शन, अज्ञान और असंयम रूप परिणामों को ग्रहण करता है, जब उसके अनंत संसार होता है। यदि किसी के मरण समय मिथ्यात्व भाव न हो एवं वह गुप्ति समिति रूप चारित्र भी निश्चल हो, फिर भी वह परीषहों से घबड़ाकर संक्लेशभाव को प्राप्त होता है, तब उसका सुदीर्घ संसार होता है। जहाँ एक ओर ग्रन्थकार ने शास्त्रों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मरण समय अनादि मिथ्यादृष्टि भद्दण आदि ने क्षणमात्र में सभी कर्मों को काटकर सिद्ध पद प्राप्त किया, अन्यत्र उन्होंने यह भी लिखा है कि मरण समय की आराधना ही सार है, यह सर्वत्र प्रमाण नहीं है। जैसे किसी को अप्रत्याशित स्थाणु में से धन का लाभ हो जाये, तो उसे सर्वत्र प्रमाण नहीं माना जा सकता। उसी तरह किसी ने मरणपूर्व रत्नत्रय आदि का अभ्यास नहीं किया, कदाचित मरते समय किया और सिद्धी प्राप्त हो गयी तो उसे सर्वत्र प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। मरण पूर्व तप आवश्यक :
__ मरण पूर्व तप आवश्यक माना जाता है, अन्यथा मरण समय साधक अपने लक्ष्य से च्युत हो सकता है। जिस प्रकार संकेत, भ्रमण, लंघन आदि की बिना शिक्षा प्राप्त किये किसी अश्व को युद्धभूमि में सवारी के लिए ले जाया जाये, तब वह कार्यकारी नहीं होगा, उसी तरह साधक का तप, संयम आदि में पूर्व अभ्यस्त होना जरूरी है, जिससे उसके तप, संयम आदि मरण समय कार्यकारी हो सकें। इसलिए आराधना कार्य के लिए परिकर्म आदि सभी कालों में किये जाने चाहिए क्योंकि उससे अंत समय की आराधना सुखपूर्वक साध्य होती है। संयम के बिना तप निरर्थक :"संजमहीणं च तवं जो कुणइ णिरत्थयं कुणइ" उद्धरण पूवर्क अपराजित सूरि ने लिखा है कि संयम
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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• चारित्र के बिना ज्ञानी या अज्ञानी सभी का तप निरर्थक है क्योंकि उसके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान उत्तरकाल में होने से संयम को उत्तरगुण कहा गया है। श्रद्धान और ज्ञान के बिना संयम होता नहीं अथवा जो जानता नहीं और न जिसे श्रद्धा है, वह असंयम का त्याग नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि संयम के होने पर, तप निर्जरा का कारण होता है, अन्यथा नहीं । आचरण हीन ज्ञान, श्रद्धान के बिना मुनि दीक्षाग्रहण और संयम के बिना तप निरर्थक है । जो ज्ञान के बिना चारित्र और तप को प्राप्त करना चाहता है, वह अंधे के समान अंधकार में दुर्ग पर जाने का प्रयत्न करता है। जैसे अशुद्ध कडुवी तुम्बी में रखा दूध कटुक तथा शुद्ध तूम्बी में रखा दूध मीठा तथा सुगंधित होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व - अज्ञान से दूषित जीव के तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य आदि सभी नष्ट हो जाते हैं क्योंकि वे सम्यक रूप नहीं होते। समीचीन तप, ज्ञान. चारित्र और वीर्य मुक्ति के उपाय हैं। केवल तप मुक्ति का उपाय नहीं । अतः मिथ्यात्व दूर कर देने वाले जीव में तप आदि सफल होते हैं ।
ज्ञानी और अज्ञानी के तप का स्वरूप :
ज्ञानरूपी प्रकाश ही, यथार्थ प्रकाश है क्योंकि इसमें जीव का पतन नहीं होता । सच्चे ज्ञान के धारक ज्ञानी का सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप विद्यमान कर्मों की निर्जरा करने में निमित्त होता है । जिस जीव के चारित्रमोह के क्षयोपशम का प्रकर्ष नहीं है वह जीव बड़े कष्ट से इन्द्रियों और कषायों को वश में कर पाता है। जैसे बकरी का बच्चा सुगंधित तेल भी पिये फिर भी अपनी पूर्व दुर्गंध को नहीं छोड़ पाता। उसी प्रकार असंयम को त्यागने पर भी कुछ जीव इन्द्रिय और कषाय रूप दुर्गन्ध को नहीं छोड़ पाते । वस्तुत: ज्ञानी इन्द्रिय और कषाय जीतने से ही होता है और वही तप संयम पूर्वक मोक्षमार्ग की ओर प्रस्थान करता है। इन्द्रिय और कषायों के पराधीन हुआ अधिक ज्ञान स्वयं नष्ट हो जाता है। जैसे शक्कर मिला हुआ दुग्ध विष के मिलने पर नष्ट हो जाता है।
अज्ञानी के तप का स्वरूप :
पूर्व में यह लिखा गया है कि तत्त्वार्थ श्रद्धान से रहित मिथ्यादृष्टि दृद चारित्र वाला हो या अदृढ़ चारित्र वाला, मरण समय वह ज्ञान और चारित्र का आराधक नहीं होता, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नहीं होते । मिथ्यादृष्टि - अज्ञानी की तो बात ही क्या तत्त्वश्रद्धानी - सम्यग्दृष्टि भी यदि अविरत है, हिंसादि विषयों में प्रवृत्त रहता है, उसका भी तप करना महान उपकारक नहीं है, अर्थात् वह सर्वथा कर्मों को नष्ट नहीं करता। यह नियम है कि तत्त्वार्थ श्रद्धा वाले के ज्ञानाराधना हो जाती है, परन्तु वह यदि असंयमी है तब उसका तप महागुणवाला नहीं होता। फिर अज्ञानी के द्वारा किया गया तप कैसे सार्थक हो सकता है । ग्रन्थकार ने लिखा है -
सम्मादिट्ठिस्सवि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि ।
होदि हु हत्थण्हाणं चंदच्चुदकम्म तं तस्स ॥ भ. आरा. गाथा 7
टीकाकार ने इसकी व्याख्या में लिखा है कि असंयमी सम्यग्दृष्टि का भी तप कर्मों को जड़ से नष्ट
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ करने में असमर्थ है, फिर जो सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, उनके संवर के अभाव में प्रति समय बंधने वाले कर्मों का संचय होते हुए मुक्ति की बात ही क्या है ? जैसे हाथी स्नान करके भी निर्मल नहीं होता, वह अपनी सूंड के द्वारा धूल उठाकर अपने पर डालता है। उसी तरह तप के द्वारा कुछ कर्मों की निर्जरा होने पर भी असंयम के द्वारा उससे अधिक कर्मों का बंध होता रहता है । बंध रहित निर्जरा मोक्ष प्राप्त कराती है, बंध के साथ होने वाली निर्जरा नहीं। इसको मन्थनचर्मपालिका का दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया गया है कि मथानी चलाते समय एक ओर से रस्सी छूटती जाती है, साथ ही दूसरी ओर से रस्सी लिपटती जाती है, उसी तरह अविरत सम्यग्दृष्टि द्वारा किये गये तप की भी स्थिति है कि एक ओर आंशिक निर्जरा होती है, दूसरी ओर उससे अधिक कर्मों का बंध होता रहता है। यहाँ यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि तत्त्वार्थसूत्र में 'तपसा निर्जरा च' सूत्र में उमास्वामी ने कर्मों की निर्जरा में तप आदि को भी कारण माना है, इसलिए ज्ञानी या अज्ञानी कोई भी तप करे उससे कर्मों की निर्जरा होगी ही। आचार्यों ने इसका समाधान देते हुए लिखा है कि निश्चय तप वस्तुत: आत्मा का अपने स्वरूप में प्रतपन करना ही है। इससे आत्मा की प्रशस्त शक्ति प्रकट होती है। बाह्य तप, अंतरंग तप के साधन मात्र हैं। निर्जरा तो अभ्यन्तर तप से ही होती है।
___सम्यग्ज्ञानी द्वारा किया गया तप निश्चित रूप से निर्जरा में कारण होता है, जबकि मिथ्यादृष्टि - अज्ञानी द्वारा किया गया तप मोक्षमार्ग में निरर्थक माना गया है क्योंकि मिथ्यात्व अज्ञान, मोक्षमार्ग के अंगज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप चतुरंग को नष्ट कर देते हैं, फिर भी अज्ञानरूपी घोर अन्धकार में विचरण करने वाले के लिए सम्यक् तप दीपक के समान है।
अध्यात्मिक दृष्टि के साथ - साथ भगवती आराधना में आगमिक और लौकिक दृष्टि से भी तप को कामधेनु , चिन्तामणि, नौका आदि के समान बताकर तप के महत्व को बताया गया है। इससे प्रतीत होता है कि उक्त दोनों दृष्टियों से अज्ञानियों द्वारा किया गया सम्यक् तप भी कथंचित् सार्थक कहा जा सकता है । परन्तु सम्यग्ज्ञान से रहित अज्ञानी जिस कर्म को लाख करोड़ भवों में नष्ट करता है, उस कर्म को सम्यग्ज्ञानी तीन गुप्तियों से युक्त अंतर्मुहूर्त - टीकाकार के अनुसार अल्पकाल - मात्र में क्षय करता है। अज्ञानी के दो, तीन,चार पाँच आदि उपवास करने से जितनी विशुद्धि होती है, उससे बहुत गुणी शुद्धि जीमते हुए ज्ञानी के होती है। सम्यक्त्व तप आदि का द्वार :
मोक्षमार्ग में प्रवेश के लिए सम्यक्त्व को द्वार कहा गया है और ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तप के लिए सम्यक्त्व प्रवेश द्वार है। सबको शिवार्य ने नगर द्वार का दृष्टांत देकर स्पष्ट किया है कि सम्यक्त्व के बिना ज्ञानादि में प्रवेश सम्भव नहीं है और न ही उसके बिना जीव सातिशय अवधि ज्ञान आदि यथाख्यात चारित्र अथवा बहुत निर्जरा में निमित्त तप को प्राप्त कर सकता है। जैसे नेत्र मुख की शोभा प्रदान करते हैं वैसे ही सम्यक्त्व से ज्ञानादि शोभित होते हैं। जैसे जड़ वृक्ष की स्थिति में कारण है वैसे ही सम्यक्त्व ज्ञानादि की स्थिति में निमित्त है। जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है वह भ्रष्ट है क्योंकि सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट का अनन्तानन्तकाल
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ में निर्वाण नहीं होगा। जो चारित्र से भ्रष्ट है किन्तु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट नहीं है उसका कुछ काल में निर्वाण होगा। उसके सुविशुद्ध तीव्र लेश्या होने से वह अल्प संसारी होता है । सम्यक्त्व की उत्कृष्ट आराधना केवली के होती है, जघन्य आराधना संक्लेश परिणाम वाले अविरत सम्यग्दृष्टि के होती है। मध्यम आराधना शेष सम्यग्दृष्टियों के होती है। इस तरह अविरत सम्यग्दृष्टि के अनंतानंत संसार नहीं होता है। निष्कर्ष :
ज्ञानी यदि तप पूर्वक मरण करता है तब वह शरीर को कृश करते हुए संसार को भी कृश करता है और अज्ञानी तप पूर्वक मरण करता है तब वह केवल शरीर को ही कृश करता है। परन्तु अज्ञानी भी तप, संयम, स्वाध्याय आदि पूर्वक यथाक्रम से कर्मों के उदय को समाप्त कर क्षयोपशमिक स्थिति में पहुंचकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो सकता है। ऐसा न होने पर अणुव्रत, महाव्रत, तप आदि का पालन करता हुआ भी उसकी प्रवृत्ति सांसारिक अभ्युदय की प्राप्ति के लिए ही होती है । परिणामों की विशुद्धि छोड़कर ज्ञानी या अज्ञानी उत्कृष्ट भी तप करे तब भी उनके अशुभ कर्म के कारण आस्रव से रहित शुद्धि नहीं होती। तत्त्वार्थ श्रद्धान से रहित मिथ्या दृष्टि दृढ चारित्र वाला हो या अदृढ़ चारित्र वाला, मरण समय वह ज्ञान और चारित्र का आराधक नहीं होता। कदाचित् वह चारित्र और उग्र तप भी करे, तब भी मोक्ष को प्राप्त नहीं करता। केवल तप मुक्ति का उपाय नहीं है। अज्ञानी का तप आंशिक विशुद्धि एवं आंशिक कर्मों की निर्जरा का कारण होता है । जो चारित्र से भ्रष्ट हो किन्तु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट नहीं हो, उसका कुछ काल में निर्वाण होता, परन्तु जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, उसका अनंतानंत काल में निर्वाण नहीं होता । सम्यग्दृष्टियों के ज्ञानदर्शन की तरह मिथ्यादृष्टियों के ज्ञानदर्शन में भी आंशिक पाप का क्षय होना पाया जाता है। उत्कृष्ट तप वह है जो अभ्यन्तर सल्लेखना पूर्वक बाह्य सल्लेखना करते हुए संसार त्याग कर दृढ़ निश्चय करता है। उत्कृष्ट तप ज्ञानी के होता है। कषायों का पूर्ण दमन न होने के कारण अज्ञानी के बाह्य सल्लेखना ही होती है। यथार्थ मरण के लिए अन्य आराधनाओं के साथ तपाराधना भी आवश्यक है। वस्तुत: ज्ञानी या अज्ञानी के द्वारा किया गया सम्यक् तप पूर्णत: निरर्थक नहीं है, परन्तु दोनों के कर्मों की निर्जरा में महान अंतर होता है। मोक्ष के लिए कर्मों की पूर्ण निर्जरा एवं मोक्ष मार्ग में प्रवेश के लिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप चतुरंग का पूर्ण होना आवश्यक है। आधार ग्रन्थ अध्यात्म अमृतकलश
अमृतचन्द्राचार्य, टीकाकार, पं. जगन्मोहनलाल सिद्धांतशास्त्री, सम्पा. पं. कैलाशचंद्र सिद्धांतशास्त्री प्रकाशक, श्री चन्द्रप्रभ दि जैन मंदिर,कटनी म.प्र.
चतुर्थ संस्करण, सन् 2003 जैन दर्शन
पं. महेन्द्रकुमार जैन, गणेश वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी सन् 1974
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आगम संबंधी लेख जैनशासन में निश्चय और व्यवहार :
जैनेन्द्र सिद्धांतकोश
तत्त्वार्थसूत्र
तत्त्वार्थवार्तिकम्
भगवती आराधना
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पं. वंशीधर व्याकरणाचार्य, प्रका. श्रीमती लक्ष्मीबाई, पा. फण्ड, बीना, म.प्र. प्र.सं. 1978 क्षु. जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, इस्टीट्यूशनल, एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली गृद्धपिच्छाचार्य, विवेचक, पं. फूलचंद सिद्धांतशास्त्री, प्रका. श्री गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान, नरिया, वाराणसी 1991 अकलंक सं.पं. महेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् 1953 शिवार्य, अपराजित सूरि रचित विजयोदया टीका, सम्पादक एवं अनुवादक पं. कैलाशचंद सिद्धांतशास्त्री, प्रकाशक श्री जैन संस्कृति संरक्षक संघ 410, दक्षिण कसावा, सोलापुर, महाराष्ट्र, तृतीय संस्करण सन् 2006 पं. बालचंद्र शास्त्री, प्रका. भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड नई दिल्ली द्वि. सं. 1999 डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन, स्याद्वाद प्रसारिणी सभा, चैतन्य निलय 3/359 न्यू विद्याधर नगर, जयपुर, प्र.सं. 2001 कुन्दकुन्दाचार्य, अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति टीका एवं सहजानंद वर्णी कृत सप्तदशांगी टीका प्रका. श्री भा. व. वर्णी जैन साहित्य मंदिर प्रेमपुरी, मजुफ्फरनगर, उ.प्र. 1995 पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् 1935
षट्खण्डागम परिशीलन
समंतभद्र अवदान
समयसार
सर्वार्थसिद्धी
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ केरल में जैन स्थापत्य और कला
सुरेशचंद जैन बारौलिया, आगरा यह सहसा विश्वास नहीं होता कि केरल में भी जैन स्थापत्य और कला संबंधी कोई सामग्री हो सकती है। सामग्री तो है किंतु वह एक तो अल्प है और कुछ मतभेद के घेरे में है। इस विषय पर लिखना वास्तव में एक कठिन कार्य है फिर भी कारणों और इस विषय पर लेखक की धारणा का औचित्य बताते हुए यथासंभव युक्तिसंगत विवरण देने का प्रयत्न किया जायेगा।
सबसे पहला कारण तो यह धारणा है कि केरल में जैनधर्म का प्रादुर्भाव अधिक से अधिक भद्रबाहु और चंद्रगुप्त मौर्य के दक्षिण भारत में आगमन के साथ हुआ होगा । एक तो यह धारणा ही उचित नहीं है कि इन मुनियों से पहले दक्षिण भारत में जैनधर्म का अस्तित्व नही था। जो दिगंबर जैन मुनियों की चर्या से परिचित है वे यह भलीभाँति समझ सकते हैं कि 46 दोषों से रहित आहार ग्रहण करने वाले मुनि ऐसे प्रदेश में विहार नहीं कर सकते हैं जहां विधिपूर्वक उन्हें आहार देने वाले गृहस्थ निवास न करते हों। फिर केवल दोनों हाथों की अंजुली को ही पात्र बनाकर दिन में केवल एक ही बार आहार ग्रहण करने वाले बारह हजार मुनियों के आहार के लिए जैनियों की बहुत बड़ी संख्या की विद्यमानता का आकलन उन मुनियों के नायक भद्रबाहु और चंद्रगुप्त मौर्य ने अवश्य ही कर लिया होगा। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में इन मुनियों का विहार केवल तमिलनाडु और कर्नाटक में ही हुआ था और केरल में वे नहीं पहुंचे थे, यह विचार ही उचित नहीं जान पड़ता। उस समय तो केरल तमिलनाडु का ही एक भाग था और उसका स्वतंत्र अस्तित्व तो आठवीं शताब्दी की बात है। मलयालम भाषा में लिखित केरल के विशालकाय इतिहास ग्रंथ केरल चरित्रम में यह स्वीकार किया गया है कि ब्राह्मी शिलालेखों के आधार पर यह स्पष्ट है कि केरल में जैनधर्म का प्रादुर्भाव ईसा पूर्व की दूसरी सदी में हो चुका था। अत: इससे पूर्व भी केरल में जैन धर्म का अस्तित्व मानना अनुचित नहीं जान पड़ता। जैन पुराण इस बात का कथन करते हैं कि श्री कृष्ण के चचेरे भाई और जैनों के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ ने जिन्होंने गिरनार पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था, पल्लव देश को भी अपने धर्मोपदेश का क्षेत्र बनाया था। उनकी मूर्तियाँ और उनका उल्लेख करते हुए शिलालेख तमिलनाडु में अधिक संख्या में पाये गये हैं। वे उनकी लोकप्रियता का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त, श्रीलंका में एक पर्वत का नाम भी उनके नाम पर अरिट्टपव्वत था। प्रश्न हो सकता है कि नेमीनाथ का विहार श्रीलंका में कैसे हुआ होगा? बीच में तो समुद्र है। केरल में यह अनुश्रुत है कि केरल की बहुत सी धरती समुद्र निगल गया | कन्याकुमारी घाट से देखने पर अनेक चट्टानें समुद्र में से अपनी गर्दन बाहर निकालती आज भी दिखाई देती है जो इस बात का संकेत देती है कि केरल किसी समय श्रीलंका से जुड़ा हुआ था। अरिष्टनेमि और अन्य जैन मुनि इसी रास्ते श्रीलंका आते-जाते रहे होंगे । केरल का एक संपूर्ण गांव ही यादववंशी है और वह जैनधर्म का अनुयायी रहा है। पार्श्वनाथ (निर्वाण ईसा से ७७७ वर्ष पूर्व) की ऐतिहासिकता स्वीकार कर ली गई है और उनके प्रभाव को केरल में नागपूजा, पार्श्व मूर्तियों का पाया जाना, पद्मावती के मंदिरों जो कि अब भगवती
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मंदिर कहलाते हैं तथा नायर (नाग) जाति की प्रधानता आदि से सहज ही अनुमानित किया जा सकता है। महावीर स्वामी के संबंध में अब यह मान लिया गया है कि कर्नाटक के राजा जीवंधर ने उनसे दीक्षा ग्रहण
थी। उसका प्रभाव केरल तक अनुमानित किया जा सकता है। ये सब पौराणिक साक्ष्य एकदम मिथ्या नहीं कह जा सकते। यदि ये सब कल्पित हैं तो अनेक देवताओं संबंधी विवरण भी असत्य माने जायेंगे । उनके संबंध में भी पक्का पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हुआ है। ऋग्वेद में आर्यों और पणियों के संघर्ष का स्पष्ट संकेत है। ये लोग वेदों को नहीं मानते थे और कुछ विद्वान यह मानते हैं कि पणि जाति उत्तर भारत से खिसकते खिसकते केरल पहुंची और वहां बस गई। उसने अरब देशों, रोम आदि से व्यापार किया। केरल का इतिहास उसके विदेशों से व्यापारिक संबंधों से प्रारंभ होता है किंतु ये व्यापारी किस जाति के थे इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। किंतु इतिहास तो अपनी कुछ न कुछ निशानी छोड़ता ही है। केरल की आदिवासी जातियां जैसे पणियान, कणियान, पाणन तथा पणिककर आदि एवं पन्नियंकरा, पन्नियूर जैसे स्थान नाम और कुछ अन्य जातियों में जैनत्व के चिन्ह पणि या जैन धर्मावलंबियों के प्राधान्य को सूचित करते हैं । इसका विश्लेषण प्रस्तुत लेखक ने अभी अप्रकाशित पुस्तक केरल में जैनमतंम के एक स्वतंत्र अध्याय में किया है। इस पृष्ठभूमि का उद्देश्य यह है कि केरल में महापाषाणयुगीन (Megalithic) जो अवशेष पाये जाते हैं। उनका संबंध जैनधर्म से जोड़ना अनुचित नहीं जान पड़ता ।
एक अन्य कारण यह भी है कि जिन अजैन विद्वानों ने केरल में जैनधर्म संबंधी कार्य किया है, उन्हें जैन आख्यानों, प्रतीकों आदि की समुचित जानकारी उपलब्ध नहीं थी, ऐसा लगता है । शायद यही कारण है कि कुछ जैन अवशेषों आदि को बौद्ध समझ लिया गया है। जो भी हो, जैन अवशेषों आदि की खोज के लिए हम गोपीनाथ राव, कुंजन पिल्ले आदि विद्वानों के बहुत ऋणी हैं। जिन अनुसंधानकर्ताओं ने केरल में जैन अवशेषों की चर्चा की भी है, उन्होंने उन मंदिरों, मस्जिदों आदि की या तो समुचित समीक्षा नहीं की है या उन्हें बिल्कुल ही छोड़ दिया है जो किसी समय जैन थे । यह तथ्य मस्जिदों के संबंध में विशेष रूप से सही है। आखिर वे भी तो जैन स्थापत्य के नमूने हैं। ऐसी दस मस्जिदें इतिहासकारों ने खोज निकाली हैं। यह भी एक सत्य है कि जैन पुरावशेषों का योजनापूर्वक वैज्ञानिक एवं विस्तृत अध्ययन ही नहीं हुआ है। शताधिक गुफायें ऐसी हैं जो अनुसंधान की अपेक्षा रखती हैं। कुछ गुहा मंदिर और मुनिमड़ा या कुडक्कल अब भी उपेक्षित हैं। किसी जैन विद्वान का भी ध्यान इस ओर नहीं गया। इसी लेख में दिये हुए कुछ उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जायेगा ।
की भूमि पर्वतीय क्षेत्रों, मध्यभूमि और समुद्रतटीय भागों में बंटी हुई है। परिणाम यह है कि घने जंगलों से आवृत कुछ अधिक ही ऊँचे पहाड़ों पर स्थित गुफाओं, शैल मंदिरों आदि का अध्ययन कठिन भी हैं। ऐसे जिन कुछ अवशेषों का अध्ययन हुआ है वे जैनधर्म से संबंधित पाये गये हैं ।
तमिलनाडु की ही भांति केरल में भी धार्मिक उथल पुथल हुई। उसके कारण भी जैन स्मारकों को क्षति पहुंची। अनेक जैन मंदिर और पार्श्वनाथ की शासनदेवी पद्मावती के मंदिर शिव या विष्णु मंदिरों के
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रूप में या भगवती मंदिरों के रूप में परिवर्तित कर दिये गये । अब उन्हें कुछ प्रतीकों से ही कठिनाई से पहिचाना जा सकता है। अनेक शिलालेख या तो नष्ट हो गये हैं या अभी उनका समुचित अध्ययन ही नहीं हुआ है।
केरल में राजनीतिक आक्रमणों के कारण न केवल जैन मंदिरों को हानि पहुंची अपितु वैदिक धारा के मंदिर भी क्षतिग्रस्त हुए । इतिहासकारों का मत है कि सदियों से केरल के मंदिरों के लिए आदर्श कुणवायिलकोट्टम का प्रसिद्ध जैन मंदिर हैदरअली के द्वारा की गई विनाशलीला का शिकार बना और उसका जो कुछ अस्तित्व बचा था उसे उन डच लोगों ने नष्ट कर दिया । गोवा में भी अनेक जैन मंदिरों को क्षति पहुंचाकर नष्ट कर दिया था। टीपू सुल्तान ने भी जैन मंदिरों को हानि पहुंचाई।
केरल में जैन मंदिरों की प्राचीनता आदि के संबंध में एक कठिनाई वहां के जैन धर्मावलंबियों के कारण भी उत्पन्न हो गई हैं। उन्होंने प्राचीन मंदिरों को गिराकर उनके स्थान पर सीमेंट कंक्रीट के नये मंदिर बना लिये हैं। अत: प्राचीनता के तार जोड़ना एक कठिन कार्य हो गया है।
उपर्युक्त कठिनाईयों और कारणों के होते हुए भी महापाषाणयुगीन (कुडक्कल, शैल-आश्रय) अवशेषों से लेकर आधुनिक युग के विद्युत और प्रकाश मंडित जैन चैत्यालय (MIRROR TEMPLE) तक के जैन मंदिरों आदि का कुछ विवरण यहां देने का प्रयत्न किया जायेगा। जैन स्थापत्य के आद्य रूप की दृष्टि से यदि विचार किया जाये, तो यह तथ्य सामने आयेगा कि जैनों ने शायद मंदिरों से भी पहले चरणों (Footprints) का निर्माण किया। इस बात की साक्षी उन बीस तीर्थकरों के चरण चिन्हों से प्राप्त होती है जो कि बिहार के पारसनाथ हिल या सम्मेदशिखर पर उत्कीर्ण हैं । नेमिनाथ के चरण भी रैवतक या गिरनार पर्वत पर आज भी पूजे जाते हैं। केरल के अनेक मंदिरों तथा पर्वतों पर भी चरणों का आंकन पाया जाता है यद्यपि आज वे जैन नहीं रहे किंतु उनका संबंध जैनधर्म से सूचित होता है । इस प्रकार के मंदिर हैंकोडंगल्लूर का भगवती मंदिर, कोरंडी का शास्ता मंदिर, पालककाड का एक शिव मंदिर इत्यादि। तिरुनेल्ली पर्वत पर चरण जो कि अब राम के बताये जाते हैं । कालीकट जिले में एक पहाड़ी पर चरण जिन्हें मुसलमान बाबा आदम के चरण मानते हैं और उनकी जूते निकालकर वंदना करते हैं । इस सबमें प्रमुख चरण हैं विवेकानंद शिला पर देवी के चरण । यहां यह उल्लेखनीय है कि वैदिक धारा के प्रभास पुराण में यह प्रसंग है कि आग्नीध्र की संतति परंपरा में हुए भरत ने जो कि ऋषभदेव के पुत्र थे अपने आठ पुत्रों को आठ द्वीपों का राज्य दिया था और नौवें कुमारी दीप का राज्य अपनी पुत्री को दिया था। भारत के लिए कुमारी नाम तो नहीं चला किंतु भारत के अंतिम छोर का नाम कन्याकुमारी आज तक चला आ रहा है । केरल में इस राजकुमारी की स्मृति मातृसत्तात्मक समाज के रूप में या मरूमक्कतायम् उत्तराधिकार व्यवस्था के रूप में जिसके अनुसार पिता की संपत्ति पुत्री को प्राप्त होती है, आज भी सुरक्षित जान पड़ती है। वैदिक परंपरा में चरण चिन्हों का प्रचलन नहीं के बराबर जान पड़ता है और बौद्ध तो स्तूपों की ओर उन्मुख हैं। इसलिए केरल में ये चरण जैनधर्म के प्रसार की ओर इंगित करते हैं। श्रवणबेलगोल में भी भद्रबाहु के चरण ही अंकित हैं।
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आर्गम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ केरल में जैन स्मारकों के अध्ययन को दो भागों में बांटा जा सकता है (1) प्राकृतिक या महापाषाणयुगीन स्मारक जैसे गुफायें, गुहा मंदिर कुडक्कल और टोपीकल्लु आदि (2) निर्मित मंदिर (Structural Temples).
केरल के इतिहास में महापाषाणयुगीन अवशेषों का विशेष महत्व है । डॉ. सांकलिया ने उनका समय ईसा से 1000 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक बताया है। इस प्रकार की निर्मितियां हैं कुडक्कल और टोपी कल्लु तथा शैल आश्रय (rock shelters) । कुडक्कल एक प्रकार की बिना हेडल की छतरी के आकार की रचना होती है। इसमें चार खड़े पत्थरों के ऊपर एक औंधी शिला रख दी जाती थी। आदिवासी जन इन्हें मुनिमडा कहते हैं जिसका अर्थ होता है मुनियों की समाधि । इस प्रकार की मुनियों की समाधियां केरल में अनेक स्थानों पर हैं। अरियन्नूह, तलिप्पंख, मलपपुरम आदि कुछ नाम यहां दिये गये हैं। इनकी संख्या काफी अधिक है। इनका भी ऐतिहासिक अध्ययन आवश्यक है।
__ कोडंगल्लूर में ही केरल की सबसे प्राचीन मस्जिद बताई जाती है। लोगन्स के अनुसार वह किसी समय एक जैन मंदिर था । अब केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह एक द्वितल विमान था । इरिजालकुडा में कूडलमाणिक्यम् नामक एक विशाल मंदिर है। ये चेर शासकों के समय निर्मित अनुमानित किया जाता है। यह एक द्वितल विमान या मंदिर है। इसका अधिष्ठान पाषाण का है किंतु उसके ऊपर की दीवारें लकड़ी की हैं। इसमें एक काट्टम्बलम् या नृत्य संगीत के लिए एक मंडप भी है जिसकी आकृति एक अधखुली छतरी जैसी है। इसका गोपुर काफी ऊँचा है। मंदिर के साथ ही एक अभिषेक सरोवर या टेप्पकुलम् है। इसका जल केवल अभिषेक के लिए ही उपयोग में लाया जा सकता है। यहां प्राचीनता के प्रमाणस्वरूप स्थाणुरवि नामक शासक का एक शिलालेख नौवीं सदी का है। इसमें भरत की एक मूर्ति है जिसके दर्शन की अनुमति महिलाओं को नहीं थी। केरल के प्रसिद्ध इतिहासकार श्रीधर मेनन का कथन है, "According to some scholars the Kudalmanikkam temple anyirinjalkuda, dedicated to Bharata, the brother of seri Rama, was once a Jain shrine and it was converted into a Hindu temple, during the period of the decline of Jainism. It is argued that the deity originally installed in the Kudalmanikkam temple is a Jain Digambar, in all probability Bharateswara, the same Saint whose statute exists at Sravanbelgola in mysore. भरत बाहुबलि के बड़े भाई थे यह इस कथन में शायद छूट गया है।
त्रिचुर में वडक्कुन्नाथ नामक एक मंदिर है। वडकुन्नाथ का अर्थ है उत्तर के देवता का मंदिर। वह एक सर्वतोभद्र विमान है, जिसमें चार द्वार होते हैं किंतु इसमें केवल तीन द्वार ही रह गये हैं। यह गोलाकार है और एक कम ऊँची पहाड़ी पर स्थित है जिसे वृषभाद्रि कहते हैं। इसमें जैनों को अत्यंत प्रिय कमल और पत्रावलि का प्रचुर प्रयोग हुआ है। इसके परिक्रमापथ में अनेक मूर्तियां हैं। मुख्य मंदिर से जुड़ा ऋषभ मंडप भी है जिसमें जनेऊ धारण करके और ताली बजाकर प्रवेश करना होता है । इसके परिसर में कुछ अन्य छोटे
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मंदिर भी हैं। इसके चार गोपुर हैं। पिछले गोपुर में जैनों का प्रिय परस्पर बैरी जीव का चित्रण भी है। इसके नौ शिलालेखों में चार नष्ट हो गये हैं इस कारण इसके इतिहास का ठीक ठीक पता नहीं लगता । इसके नाम
और अंकन आदि से ऐसा लगता है कि यह मूल रूप से जैन मंदिर था। श्री वालत्तु के अनुसार इस मंदिर ने तीन युग देखे हैं - 1. आदि द्रविड़ काल. 2. जैन संस्कृति युग और 3. शैव वैष्णव युग जो अभी चल रहा है। स्पष्ट लगता है कि यह ऋषभ देव का मंदिर था।
कोझिक्कोड में एक तुक्कोविल है। यह श्वेतांबर मंदिर है। कहा जाता है कि लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व गुजराती जैनों को जामोरिन ने इसलिए दिया था कि ये पर्युषण के दिनों में वापस गुजरात न जावें और यहीं पर अपना पर्व मना लिया करें। मंदिर प्राचीन है किंतु उसका भी जीर्णोद्धार हुआ है। उसका अधिष्ठान ग्रेनाइट पाषाण का है और छत ढलवां है। कलिकुंड पार्श्वनाथ के नाम से भी जाने जाने वाले इस मंदिर में मूलनायक पार्श्व के अतिरिक्त अन्य तीर्थंकर प्रतिमायें भी हैं जिनमें अजितनाथ की ध्यानावस्था प्रतिमा का अलंकरण विशेष रूप से आकर्षित करता है। उनके मस्तक के पास हाथी, देवियों और यक्ष-यक्षिणी की लघु आकृतियां हैं। गर्भगृह के मुख्य द्वार पर कांच का विशेष काम है विशेषकर नेमिनाथ की बारात का । इसकी छत लकड़ी की है। इसी मंदिर से जुड़ा आदीश्वर स्वामी मंदिर भी है। उसके गर्भगृह के बाहर ऋषभदेव के यक्ष गोमुख और यक्षिणी चक्रेश्वरीदेवी, लक्ष्मी और अन्य देवियों का भव्य उत्कीर्णन काले पाषाण पर किया गया है । इसकी दूसरी मंजिल पर वासुपूज्य स्वामी और अन्य प्रतिमायें जैन प्रतीकों सहित स्थापित है। मंदिर से बाहर एक कोष्ठ में कमल पर ऋषभदेव का उल्लेख है कि तलक्काड़ में प्राप्त मूर्ति को यद्यपि विष्णु मूर्ति कहा जाता है किंतु उसका शिल्प सौष्ठव चितराल के जैन शिल्प के सदृश है। श्रीधर मेनन ने भी जैन मूर्तिकला के क्षेत्र में भी जैनों का Valuable contribution स्वीकार किया है।
केरल के भगवती मंदिरों में तेय्यट्टम् नामक एक उत्सव में अष्टमंगल द्रव्यों के प्रयोग की सूचना डॉ. कुरूप ने इस प्रकार दी है,
"The virgin girls who had observed several rituals like holy bath and clad in white clothes proceed with Talppoli before the Teyyam of Bhagavati. In festivals and other occassions the eight auspicious articles like umbrella, conch, swastik, Purna Kumbha, and mirror are provided for prosperity and happiness as a tradition. This custom is also relating to Jainism."
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• आगम संबंधी लेख
एक सुख शांति का रास्ता
इंजी. सुखदेव जैन हानगर, मकरोनिया, सागर
जीवन में कुछ बनने से पहिले शंकर बनना जरूरी है। शंकर ने जहर पिया देवत्व की रक्षा के लिए, असुर प्रवृत्तियों के नाश के लिए। इस प्रकार शंकर जहर पीकर शिव बन गये। हम भी अगर जहर पीयें तो हमारे अंदर असुर प्रवृत्तियां हैं उनको बाहर निकाल सकते हैं। जैसा कि आप को मालूम है अत्याधिक मीठा खाने के बाद मन खट्टा खाने को करता है। मधुमेह में करेला ही काम करता है। जहर है क्या ? जहर है वैमनस्यता, असहिष्णुता, अवात्सल्य, क्रोध, ईर्ष्या, चुगली, गाली-गलौच, मनमुटाव, कटुता और अहं । इस जहर को हम सबको पीना है। जिस दिन से ये पीना शुरू किया कि आपमें एक नई ऊर्जा, नया विश्वास, नया जागरण हो जावेगा, उसी दिन से घर में शांति ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
हमारे अंदर ये सब भरा हुआ है और जहर को मारने के लिए जहर ही जरूरी है। हमारे आचारविचार में अहं, कटुता, असहिष्णुता आदि भरे हुए हैं। पति-पत्नि में मनमुटाव, कटुता, गाली-गलौच से जीवन नरक बना हुआ है। एक पक्ष अगर क्रोधित होता है और दूसरा पक्ष शांत रहता है तो महाभारत नहीं होगा और उस घर में शांति रहेगी। घर के सब सदस्यों को कोई न कोई प्रकार का जहर तो पीना ही पड़ेगा और उसी दिन से आपके जीवन का रूपांतर शुरू हो जायेगा। धर्म घर से शुरू होना चाहिये फिर मंदिर से घर की शांति से ही स्वर्ग बनेगा। अतः नरक से बचें। जितने भी कड़वे घूंट हैं वो चाहे पत्नि, पति, माँ-बाप, आस-पड़ोस के सब को पीना होगा। शंकर बनोगे तभी तो शिव बनोगे । बिना जहर पिये शिव नहीं बन सकते। जितने भी महापुरूष हुए हैं सबने किसी न किसी प्रकार का जहर पिया। कितने उपसर्ग सहे, कितनी शारीरिक वेदनायें सहीं । क्राइस्ट को सूली पर लटकाया गया, महावीर का भी बहुत अपमान हुआ, राम को जंगल के दुख सहने पड़े, सीता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी, सती अंजना को घर से निकाला। कहां तक कहा जायें, मतलब यह है बिना कड़वे घूंट जहर के पिये बिना जीवन में निखार नहीं आयेगा ।
श्रीकृष्ण के बारे में निम्न वाक्यों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि महापुरूषों को क्या नहीं करना पड़ता और कितना जहर पीना पड़ता है। युधिष्ठिर के राजसूर्य यज्ञ में कृष्णा ने जूठी पत्तलों को बटोरने का कार्य लेकर ब्राह्मणवाद, क्षत्रियवाद, कुलीनता के विष को पीया । दुर्योधन की दुष्टता एवं पांचाली के अपमान का हलाहल भी उनसे अछूता नहीं रहा । द्वारका में अपने ही परिजनों को आपस में कटते-मरते देखकर उन्हें एकाकीपन का भी गरलपान करना पड़ा। ऐहिक लीला समाप्त हो गई। इस प्रकार, उनका पूरा जीवन ही समाज - विषपान करने में बीत गया। वे जब तक जिये, सबके लिये जिये, सबके होकर जिये और सबका जहर पीकर भी जीवन की दिशा सुझाते रहे ।
मुसीबतें ही जीवन के निखार की कसौटी है। पति पत्नि में सामंजस्य का होना बहुत आवश्यक है, क्योंकि वे गृहस्थी की गाड़ी के दो पहिये हैं। जो बिना एक पहिये के गाड़ी नहीं चल सकती । एक ही
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सिक्के के दो पहलू होने से सुख-दुख में दोनों का साथ साथ होना जरूरी है। एक दूसरे के सुख-दुख में दोनों बराबरी से शरीक होवें। अहं भाव को तिरोहित करें। कर्तृत्यवाद की भी कोई भी जगह न हो क्योंकि इसी से तू-तू, मैं-मैं शुरू होती है। यही मिथ्या है, यही पाप है, अधर्म है। जहां ये नहीं, वहां सम्यक है, पुण्य है, शांति है, धर्म है। धर्म-अधर्म की परिभाषा घर से ही शुरू होती है। सुख शांति अगर घर में है और सब एक दूसरे का सम्मान करते हैं, उनकी भावनाओं की इज्जत करते हैं। सब एक दूसरे के प्रति जागरूक हैं तो निश्चित ही उस घर में धर्म निवास करता है और जिस घर में कलह, अशांति है, उस घर में अधर्म का निवास है। धर्म घर से शुरू होता है, मंदिर बाद में । तुलसीदास ने कहा भी है -
जहां सुमति वहां संपति नाना, जहां कुमति वहां विपति प्रधाना॥ ये कहानी पत्नि की समझ और सूझबूझ दर्शाती है।
मैं एक छोटी कहानी बताता हूँ। कैसे पत्नि अपने व्यवहार से अपने पति को गुस्सा आने ही नहीं देती थी। ऐसा कोई भी मौका वह अपने पति को नहीं देती थी। एक बार पति खेत जोत रहा था। पत्नि को 12 बजे उसे रोटी देने जाना था। पति ने सोचा आज तो हम पत्नि को गुस्सा दिलायें और फिर अपने हाथ सेकेंगे। उसने हल में एक बैल को उल्टा जोता और दूसरे को सीधा । पत्नि आती है रोटी लेकर । वह अपने पति की बात समझ गई कि आज कुछ गड़बड़ होने वाला है, अत: उसने रोटी रखी और बोली - आप खा लो रोटी, मुझे उससे कोई मतलब नहीं है कि आप बैल को उल्टा जोतो या सीधा । अब पति के गुस्सा का निमित्त वह बनी ही नहीं। इस प्रकार हम गुस्से होने के निमित्त को टाल सकते हैं। इसी में सुख-शांति होगी।
__ ये दूसरी कहानी पति की सूझबूझ दर्शाती है । एक पंडित जी थे, बहुत गरीब, पर संतोषी । आज खाने को है तो ठीक है, नहीं तो फांके मस्ती में रहते थे। जब दो दिन हो गये चूल्हा जला ही नहीं तो पंडिताईन से रहा नहीं गया, और पंडित जी को दक्षिणा मांगने भेजा। पंडित जी गये और एक किसान के खेत में गन्ने लगे थे। उसके पास पहुंच गये। किसान ने 6-7 गन्ने पंडित जी को दे दिये। पंडित जी गन्ने लेकर घर आ रहे थे तो रास्ते में बालक मिल गये और पंडित जी से गन्ने मांग लिये। सिर्फ एक गन्ना ही पंडित जी के पास रह गया। वह लेकर घर आये तो पंडिताईन का दिमाग सातवें आसमान पर था। उसने पंडित जी से वही गन्ना छुड़ाया और पंडित जी को दे मारा । गन्ने के दो टुकड़े हो गये तो पंडित जी बोले - अहोभाग्य, तूने कितना अच्छा किया। एक टुकड़ा तुम खाओ, एक मैं । कहने का मतलब है कि क्रोध जहर तो एक को पीना ही पड़ेगा। तभी कलह को टाला जा सकता है। तभी कलह को टाला जा सकता है । यह परिणामों की सरलता है। आप जितने सरल होंगे, उतने आप धर्म के निकट होंगे।
सरलता मन का सीधापन, विचारों में सीधापन मन और विचारों में एकरूपता, आत्मा के परिणामों में सरलता आत्म उन्नति में सहायक, संसार सागर तरने, का सीधा उपाय ।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सागारधर्मामृत में सल्लेखना
श्री आनंदकुमार जैन, एम.फिल पण्डित प्रवर आशाधर जी ईसा की तेरहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध दिगम्बर जैन विद्वान हैं । इन्हें जैनदर्शन के गूढ से गूढ सिद्धांतों एवं आचारगत नियमों की अच्छी जानकारी थी तथा अध्यात्म-विद्या में उनकी अप्रतिहत गति थी। गृहस्थ विद्वान होते हुए भी उपलब्ध जानकारी के अनुसार इन्होंने आचार्यों के समान कृतियों की रचना की है। जिनमें से कुछ प्रकाशित हैं, कुछ अप्रकाशित हैं और कुछ अनुपलब्ध हैं ज्ञात उन्नीस कृतियों में से 1. अनगारधर्मामृत 2. सागारधर्मामृत 3. मूलाराधना टीका 4. इष्टोपदेश टीका 5. जिनसहस्रनाम स्तवन टीका 6. नित्यमहोद्योत 7. प्रतिष्ठासारोद्धार (जिनयज्ञकल्प) और 8. त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र - ये आठ कृतियाँ प्रकाशित हैं।
पण्डितप्रवर आशाधर की जो कृतियाँ विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों में उपलब्ध तो हैं, किन्तु उनका अभी तक प्रकाशन नहीं हो सका है, उनमें 1. क्रिया कलाप 2. भूपाल चतुर्विंशति टीका और 3. रत्नत्रय विधान - ये तीन कृतियाँ है। इसी प्रकार पण्डितप्रवर आशाधर की जिन कृतियों का विभिन्न ग्रन्थों में उल्लेख तो मिलता है, किन्तु अद्यावधि अप्राप्त हैं, उनमें 1. प्रमेयरत्नाकर 2. भरतेश्वराभ्युदय काव्य 3. अष्टांग हृदयोद्योत 4. अमरकोश टीका 5. आराधनासार टीका 6. काव्यालंकार टीका 7. राजीमती विप्रलम्भ (स्वोपज्ञ टीका सहित) और 8. अध्यात्म रहस्य - ये आठ कृतियाँ उल्लेखनीय हैं।
इन कृतियों में पं. आशाधरकृत कुछ कृतियाँ ऐसी हैं, जिनका उन्होंने स्वतंत्र लेखन तो किया ही है साथ ही उन पर स्वोपज्ञ टीकायें भी लिखी हैं, जिनमें अनगारधर्मामृत और सागारधर्मामृत विशेष रूप से ज्ञातव्य हैं। इन दोनों कृतियों में पं. आशाधर ने पूर्वाचायों द्वारा लिखित चरणानुयोग संबंधी ग्रन्थों का सारांश ग्रहण कर समसामयिक, उपयोगी और लोकव्यवहार संबंधी नियमोपनियमों का उल्लेख किया है, जो आज भी महत्वपूर्ण हैं और अपनी उपयोगिता बनाये हुए हैं। सागारधर्मामृत में पण्डितप्रवर आशाधर जी ने श्रावक की दैनिक आचारसंहिता का विवेचन किया है। उन्होंने श्रावक के लिए जीवन के अंत में आवश्यक सल्लेखना विधि का भी विशेषरूप से उल्लेख किया है। प्रस्तुत आलेख में उनके द्वारा उल्लिखित श्रावक की सल्लेखना विधि को तुलनात्मक रूप में संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। 1. सल्लेखना शब्द की व्युत्पत्ति एवं परिभाषा :
___जैन-परम्परा के आचार-नियमों के अंतर्गत सल्लेखना एक महत्वपूर्ण बिन्दु है । सल्लेखना शब्द सत्+लेखना का निष्पन्न रूप है। सत् से तात्पर्य समीचीन या सम्यक् है तथा लेखना शब्द लिख्' धातु से 'ल्युट्' प्रत्यय होकर स्त्रीत्व विवक्षा में 'टाप्' प्रत्यय के संयोग से निर्मित है। लिख धातु कई अर्थों में प्रयुक्त होती है । यथा - 1. लिखना, प्रतिलिपि करना
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ खुरचना, छीलना स्पर्श करना पतला करना, कृश करना ताड़पत्र पर लिखने के लिए
किन्तु उक्त विविध अर्थों में से पतला करना, कृश करना या दुर्बल करना अर्थ ही यहाँ अभीष्ट है आचार्य पूज्य पाद ने भी इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए लिखा है कि - अच्छी प्रकार से काय तथा कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है।' 2. सल्लेखना के पर्यायवाची :
शास्त्रों में सल्लेखना के अनेक पर्यायवाची नाम मिलते हैं, जिनमें समाधिमरण, संथारा, अंतिमविधि, आराधना-फल, संलेहणा और संन्यास आदि प्रचलित हैं । 3. समाधि - साधक का लक्षण :
पण्डितप्रवर आशाधर जी ने सागारधर्मामृत में पूर्वाचार्यों द्वारा समाधि की परिभाषा को स्वीकार करते हुए अष्टम अध्याय के प्रारंभ में समाधिसाधक का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि -
देहाहारेहितत्यागात् ध्यानशुद्धयाऽऽत्मशोधनम् ।
यो जीवितान्ते सम्प्रीत: साधयत्येष साधकः॥' __ अर्थात् जो मरणांत में सर्वांगीण ध्यान से उत्पन्न हुए हर्ष से युक्त होकर देह, आहार और मन, वचन तथा काय के व्यापार के त्याग से उत्पन्न ध्यानशुद्धि के द्वारा आत्मशुद्धि की साधना करता है वह साधक है।धर्मसंग्रह श्रावकाचार में भी साधक का यही लक्षण बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है कि -
भुक्त्यङ्गेहापरित्यागाद्धयानशक्त्याऽऽत्मशोधनम् ।
यो जीवितान्ते सोत्साहः साधयत्येष साधकः ॥ अर्थात् जो उत्साहपूर्वक मरण समय में भोजन, शरीर तथा अभिलाषा के त्यागपूर्वक अपनी ध्यानजनित शक्ति से आत्मा की शुद्धतापूर्वक साधना करता है, उसे साधक कहते है। 4. सल्लेखना के भेद :
सागारधर्मामृत में कहीं भी सल्लेखना के भेदों का वर्णन नहीं है । धवला टीका, भगवती आराधना तथा अन्य सल्लेखना संबंधी ग्रन्थों में दो या तीन भेदों का प्राय: वर्णन मिलता है । सामान्य रूप से सल्लेखना के बाह्य और आभ्यन्तर - ये दो भेद भगवती आराधना में वर्णित हैं -
सल्लेहणा य दुविहा अभंतरिया य बाहिरा चेव ।
अभंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे ॥ अर्थात् सल्लेखना दो प्रकार की है - आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर सल्लेखना कषायों में होती है और बाह्य सल्लेखना शरीर में ।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इसी प्रकार धर्मसंग्रह श्रावकाचार में भी वर्णित है कि क्रम-क्रम से रागादि के घटाने को बाह्य सल्लेखना कहते हैं। राग, द्वेष,मोह, कषाय शोक और भयादि का त्याग करना हितकारी आभ्यन्तर सल्लेखना है। अन्न, खाने योग्य वस्तु, स्वाद लेने योग्य वस्तु तथा पीने योग्य वस्तु - इस प्रकार चार तरह की भुक्ति का सर्वथा त्याग करना, यह बाह्य सल्लेखना है।" 5. द्रव्य तथा भाव रूप दो भेद :
पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में आचार्य जयसेन ने द्रव्य सल्लेखना और भाव सल्लेखना - इन दो भेदों का कथन किया है वे लिखते है कि - आत्मसंस्कार के पश्चात् उसके लिए (साधक के लिए) ही क्रोधादि कषायरहित अनन्तज्ञानादि गुणलक्षण परमात्मपदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों का कृश करना भाव सल्लेखना है और उस भाव सल्लेखना के लिए काय-क्लेशरूप अनुष्ठान करना अर्थात् भोजन आदि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्य सल्लेखना है।'
कषायों को न घटाने वाले के लिए शरीर का घटाना निष्फल है, क्योंकि ज्ञानियों द्वारा कषायों का निग्रह करने के लिए ही शरीर कृश किया जाता है।'
इस कथन से स्पष्ट है कि कषायों को कृश करने पर शरीर निश्चित ही कृश होता है, किन्तु शरीर कृश करने पर कषायें कृश हो भी सकती हैं और नहीं भी। क्योंकि आहार के द्वारा मदोन्मत्त होने वाले पुरुष को कषायों का जीतना असम्भव ही है।' 6. समाधि के भक्तप्रत्याख्यानादि तीन भेद :
धवला टीका के लेखक आचार्य वीरसेन ने सल्लेखना के प्रायोपगमन, इंगिनिमरण तथा भक्तप्रत्याख्यान- इस प्रकार तीन भेद किये हैं। वे कहते हैं कि -
तत्रात्मपरोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमन | आत्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षं इंगिनीमरणम् आत्मपरोपकारसव्यपेक्षं भक्तप्रत्याख्यानमिति ।"
अर्थात् अपने और पर के उपकार की अपेक्षा रहित समाधिमरण करना प्रायोपगमन है तथा जिस सन्यास में अपने द्वारा किये गये वैयावृत्य आदि उपकार की अपेक्षा रहती है, किन्तु दूसरे के द्वारा किये गये वैयावृत्य आदि उपकार की अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनीमरण समाधि कहते हैं। इसी प्रकार जिस सन्यास में अपने और दूसरे - दोनों के द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है, उसे भक्तप्रत्याख्यान सन्यास कहते हैं।
वर्तमान में भक्तप्रत्याख्यान मरण ही उपयुक्त है। अन्य दो अर्थात् इंगिनीमरण तथा प्रायोपगमन संभव नहीं है, क्योंकि ये दो मरण संहनन-विशेष वालों के ही होते हैं । इंगिनीमरण के धारक मुनि प्रथम तीन (वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच तथा नाराच) संहननों में से कोई एक संहनन के धारक रहते है।" किन्तु इस पंचम काल में मात्र असंप्राप्तासृपाटिका संहनन ही होता है, अतएव भक्तप्रत्याख्यान मरण की संभव है।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 7. भक्तप्रत्याख्यान की स्थिति :
धवलाकार वीरसेन स्वामी ने भक्तप्रत्याख्यान के जघन्य, मध्यम और उत्तम- इन तीन भेदों का वर्णन करते हुए कहा है कि -
तत्र भक्तप्रत्याख्यानं त्रिविधं जघन्योत्कृष्ट मध्यमभेदात् । जघन्यमन्तर्मुहूर्तप्रमाणम् । उत्कृष्टभक्तप्रत्याख्यानं द्वादशवर्षप्रमाणम् मध्यमेतयोरन्तरालमिति ।"
__अर्थात् भक्तप्रत्याख्यान की विधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है। जघन्य का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है । उत्कृष्ट का बारह वर्ष है । इन दोनों का अंतरालवर्ती सर्वकाल-प्रमाण मध्यम भक्तप्रत्याख्यान मरण का है। 8. सल्लेखना - योग्य स्थान :
योग्य स्थान-विशेष के प्रसङ्ग में पं. आशाधर जी कहते हैं कि उपसर्ग से यदि कदलीघातमरण की स्थिति उत्पन्न हो तो साधक योग्य स्थान का विकल्प त्यागकर भक्तप्रत्याख्यान को धारण करे । इसी विषय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि -
भृशापर्वतकवशात् कदलीघातवत्सकृत् ।
विरमत्यायुषि प्रायमविचारं समाचरेत् ॥" अर्थात् अगाढ अपमृत्यु के कारणवश कदलीघात के समान एक साथ आयु के नाश की उपस्थिति होने पर साधक विचार रहित अर्थात् समाधि के योग्य स्थान का विचार न करके भक्तप्रत्याख्यान को स्वीकार करे । सल्लेखना हेतु योग्य स्थान को इङ्गित करते हुए धर्मसंग्रह श्रावकाचार में कहा है कि -
सन्यासार्थी कल्याणस्थानमत्यन्तपावनम् ।
आश्रयेत्तु तदप्राप्तौ योग्यं चैत्यालयादिकम् ॥" अर्थात् सन्यास (सल्लेखना) के अभिलाषी पुरुषों को चाहिए कि जिस स्थान में जिन भगवान का ज्ञान कल्याणक हुआ है। ऐसे पवित्र स्थान का ग्रहण करें और यदि ऐसे स्थानों की कारणान्तरों से प्राप्ति न हो सके तो जिनमंदिरादि योग्य स्थानों का आश्रय लेना चाहिए।
कदाचित् साधक द्वारा स्थान की खोज करते हुए यदि रास्ते में भी मरण हो जाये तो भी वह श्रेष्ठ माना गया है। इस सम्बंध में पं. मेघावी ने अपने धर्मसंग्रह में कहा है कि - सल्लेखना बुद्धि से किसी तीर्थस्थान को यदि गमन किया हो और वहाँ तक पहुँचने से पहले ही यदि मृत्यु हो जाये तो भी वह आराधक है, क्योंकि समाधिमरण के लिए की हुई भावना भी संसार का नाश करने वाली है।
पद्मकृत श्रावकाचार में मरण - स्थान के लिए प्रासुक शिला को उपयुक्त कहा है।" 9. स्त्रियों के लिए निर्देश:
वैसे तो स्त्रियों के लिए जिनेन्द्र भगवान् ने अपवाद लिङ्ग (सवस्त्र दीक्षा) ही कहा है, परन्तु अंत समय में जिसने परिग्रहादि उपाधियाँ छोड़ दी हैं, वे स्त्रियाँ भी पुरुष के समान औत्सर्गिक लिङ्ग (निर्वस्त्र दीक्षा) ग्रहण कर सकती है।"
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 10. विचलित साधक का स्थितिकरण :
जब कोई साधक स्वीकार किये गये समाधिमरण से विचलित होने लगता है तब निर्यापकाचार्य का कर्तव्य है कि वह साधक का स्थितिकरण करे, क्योंकि जब कोई सल्लेखना धारक अन्न-जल के त्यागोपरांत विचलित होकर पुनर्ग्रहण की भावना करे तो उसे ग्रहण करने योग्य विविध प्रकार की उत्तम सामग्री दिखाना चाहिए। यदि कदाचित् अज्ञानता के वशीभूत होकर वह आसक्त होने लगे तो शास्त्रसम्मत अनेक कथाओं द्वारा साधक के वैराग्य में मदद करनी चाहिए। साथ ही यह भी बतलाना चाहिए कि तीनों लोकों में एक भी ऐसा पुद्गल परमाणु शेष नहीं है, जिसे इस शरीर ने नहीं भोगा है । अत: इस मूर्तिक (भोजनादि) से अमूर्तिक आत्मद्रव्य का उपकार किसी भी परिस्थिति में सम्भव नहीं है। अपितु यह तो वह अद्भुत समय है जब मन की एकाग्रता अन्य विषयों से हटाकर आत्मकल्याण की भावना में नियुक्त करने पर अनन्तानंत काल से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा शीघ्र होती है, क्योंकि अंत समय का दुर्ध्यान अधोगति का कारण बन जाता है । इसी अंत समय की लालसा के दुष्परिणाम को दर्शाते हुए सागारधर्मामृत में स्पष्ट लिखा है कि
क्वापि चेत् पुद्गले सक्तो नियेथास्तद् ध्रुवं चरेः ।
तं कृमीभूय सुस्वादुचिर्भटासक्तभिक्षुवत्॥ अर्थात् जिस पुद्गल में आसक्त होकर जीव मरेगा उसी जगह उत्पन्न होकर संचार करेगा। जैसे तरबूज में आसक्त होकर मरा साधु उसी में कीड़ा बनकर उत्पन्न हुआ था। 11. पित्तादि से पीड़ित श्रावक - विशेष को निर्देश :
अन्त समय में साधक पुद्गल में आसक्त न हो, इसका ध्यान रखते हुए निर्यापकाचार्य पित्तादि से पीड़ित साधक को मरण से कुछ समय पूर्व ही जल का त्याग करवाते हैं। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में इसी बात का निर्देश करते हुए पं. मेधावी कहते हैं कि - पित्तकोप, उष्णकाल, जलरहित प्रदेश तथा पित्तप्रकृति इत्यादि में से किसी एक भी कारण के होने पर निर्यापकाचार्य को समाधिमरण के समय जल पीने की आज्ञा उसके लिए देनी चाहिए तथा शक्ति का अत्यंत क्षय होने पर एवं निकट मृत्यु को जानकर धर्मात्मा श्रावक को अंत में जल का भी त्याग कर देना चाहिए।"
अंत समय तक जल के निर्देश के पीछे गहरा भाव छिपा है, जिसका अभिप्राय यह है कि - धर्म सहित मरण ही सफलता का सूचक है । इसी बात की पुष्टि करते हुए पं. आशाधर जी ने कहा है कि -
आराद्धोऽपि चिरं धर्मो विराद्धो मरणे मुधा।
सत्त्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्यपि चिरार्जितम् ॥" अर्थात् जन्म से लेकर मृत्यु पूर्व तक भी धर्म पालन किया, परन्तु मरण-समय धर्म की विराधना होती है तो सब किया गया धर्म व्यर्थ है । किन्तु जीवन भर कुछ भी नहीं किया और मरण धर्मसहित किया तो वह धर्म चिरकाल में संचित पापों का प्रक्षालन करने वाला है।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इसी बात को एक दृष्टांत के माध्यम से वे कहते हैं कि - समस्त जीवन राजा शस्त्र चलाना सीखे और युद्धक्षेत्र में शस्त्र चलाना भूल जाये तो जीवन भर किया गया उसका समस्त शस्त्राभ्यास व्यर्थ है।' 12. समाधि साधक की आद्यान्त क्रियायें - साधक द्वारा जो भी पाप कृत, कारित, अनुमोदना से पूर्व में जीवनपर्यन्त गृह व्यापार में हुए हैं अथवा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद, योग, बुरी सङ्गति आदि अन्य कारणों से हुए हैं, उन सभी पापों का नाश करने के लिए साधक को आचार्य के समक्ष आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और सत्सेवित - इन दश दोषों से रहित होकर स्वयं आलोचना करनी चाहिए । तदनन्तर सम्पूर्ण परिग्रहों का त्यागकर समस्त महाव्रत धारण करना चाहिए । इसमें प्रथम शरीरादिक एवं भाई - बंधु आदि कुटुम्बी लोगों में निर्ममता (अपनत्व त्याग) का चितवन कर बाह्य परिग्रह का त्याग करना, तत्पश्चात् शोक, भय, स्नेह, कलुषता, अरति, रति, मोह, विषाद, रागद्वेष आदि को छोड़कर अंतरङ्ग परिग्रह का त्याग करना चाहिए। साथ ही बारह प्रकार के व्रतों को ग्रहण करना चाहिए। इसके पश्चात् सिद्धांत - ग्रन्थों का अमृतपान तथा महा आराधना अर्थात् समाधि से सम्बंधित ग्रन्थों को पढ़कर और तत्व एवं वैराग्य का निरुपण करने वाले ग्रन्थों को पढ़कर मन शांत करना चाहिए । इनके अध्ययन के साथ ही अवमौदर्य तप के द्वारा आहार को प्रतिदिन घटाना चाहिए और अनुक्रम से घटाते-घटाते हुए समस्त आहार का त्याग कर देना चाहिए। फिर उसका भी त्यागकर तक्र (मट्ठा) एवं छाछ का सेवन करना चाहिए। फिर उसका भी त्याग कर गर्म जल ही ग्रहण करे तथा जब तक पूर्ण रूप से अंत समय निकट न हो तब तक जल का त्याग न करे और अंत समय निकट आते ही उसका भी त्याग कर शुभ उपवास धारण करें। सिद्धांतशास्त्रों के पारगामी निर्यापक महाचार्य को निवेदन कर उनकी आज्ञानुसार मरणपर्यन्त तक के लिए उपवास धारणकर बहुत यत्न से उसका निर्वाह करना चाहिए। अंत समय निकट होने पर पाँचों परमेष्ठियों के नाम का मंत्र जाप करना चाहिए। यदि साधक इसके उच्चारण में असमर्थ हो तो तीर्थंकर के वाचक 'णमो अरिहंताणं' इस एक ही पद का जप करें। यदि वचनों से उच्चारण में असमर्थ हो तो मन में ही जप करें। यदि मन में भी जप करने में असमर्थ हो तो उत्तर साधना करने वाले साधक को वैयावृत्य करने वाले अन्य लोग प्रतिदिन उनके कान में मंत्रराज का पाठ सुनायें। इस प्रकार आराधक को मोक्ष-प्राप्ति के लिए अंत में जिनमुद्रा धारणकर प्राणोत्सर्ग करना चाहिए। 13. सल्लेखना के अतिचार :
___ पण्डितप्रवर आशाधर जी ने क्षपक को पाँच अतिचारों से रहित सल्लेखना विधि में प्रवृत्ति करने का उपदेश देते हुए कहा है कि -
जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागं सुखानुबंधमजन् ।
सनिदानं संस्तरगश्चरेच्च सल्लेखना विधिना ॥ अर्थात् संस्तर (सल्लेखना) में स्थित क्षपक जीवन तथा मरण की इच्छा, मित्रानुराग, सुखानुबंध और निदान को छोड़ते हुए सल्लेखनाविधि से आचरण करे।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों जीवनाकांक्षा -
सल्लेखना के समय अपनी प्रसिद्धी देखकर, अपनी सेवा करने वालों को देखकर, अपनी महिमा जानकर या अन्य किसी कारण से और जीने की आकांक्षा रखने वाले को जीवनाकांक्षा रूप अतिचार लगता है। मरणाशंसा -
रोगादिक से प्राप्त कष्ट से साधक का मन संक्लेशित होने लगे और पीड़ा सहन न कर पाने की स्थिति में उसके द्वारा शीघ्र मरण की भावना करना मरणाशंसा है। सुहृदनुराग -
बाल्यावस्था में अपने साथ खेलने वाले, बुरे समय में साथ देने वाले मित्रों से मृत्यु से पूर्व मिलने की आकांक्षा सुहृदनुराग है। सुखानुबंध -
पूर्व में भोगे गये भोगों को स्मरण करना तथा उनमें अनुराग रखना सुखानुबंध नामक अतिचार है। निदान -
समाधि के कठिन तपों के प्रभाव से जन्मान्तर में मुझे उच्चकोटि का वैभव प्राप्त हो, इस प्रकार की भावना करना निदान नामक पाँचवां अतिचार है। 14. समाधि का फल :
समाधिमरण की विस्तृत विधि का कथन करने के उपरांत अतिचारों का भी विधिवत् निरुपण सागारधर्मामृत में है । इसके पश्चात विधिपूर्वक मरण प्राप्त करने वाले जीव को स्वर्गादि अभ्युदयों की प्राप्ति होगी ऐसा निर्देश करते हुए आशाधर जी कहते हैं कि -
श्रावक: श्रमणो वान्ते कृत्वा योग्यां स्थिराशयः ।
शुद्धस्वात्मरतः प्राणान् मुक्त्वा स्यादुदितोदित: ॥" अर्थात् जो श्रावक अथवा मुनि आगे कही जाने वाली विधि के अनुसार एकाग्रचित से अपनी शुद्धात्मा में लीन होकर प्राण छोड़ता है उसे स्वर्गादि अभ्युदयों की प्राप्ति होती है । तथा मोक्ष का भागी होता है। यह कथन वर्तमान हुंडावसर्पिणी काल को ध्यान में रखकर कहा गया है। अन्य ग्रन्थकारों ने लिखा है कि उत्तम समाधिधारक मोक्ष प्राप्त करता है । मध्यम समाधि धारक सर्वार्थसिद्धी, ग्रैवेयकों, परमोत्तम सोलवें स्वर्ग में, सौधर्मादि स्वर्गो में भोगों को भोगकर अंत में तीर्थंकर या चक्रवर्ती पद की प्राप्ति करता है। जो जघन्य रीति से धारण करता है वह देव एवं मनुष्यों के सुखों को भोगकर सात-आठ भव में मोक्ष प्राप्त करता है। 15. मृत्यु अवश्यम्भावी है : शरीर ही धर्म का मुख्य साधन है, इसलिए यदि शरीर रत्नत्रय की साधना में सहयोगी हो तो उसे
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जबरदस्ती नष्ट नहीं करना चाहिए और यदि वह छूटता हो तो उसका शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि मृत्यु तो अवश्यम्भावी है और किसी के द्वारा भी तद्भवमरण प्राप्त जीव की रक्षा सम्भव नहीं है । " सत्य तो यह है कि शरीर का त्याग करना कठिन नहीं है, किन्तु चारित्र का धारण करना और उसके द्वारा धर्म साधना करना दुर्लभ है ।" यदि शरीर स्वस्थ हो तो आहार- विहार से स्वस्थ बनाये, यदि रोगी हो और से भी धर्म ही साधन बने या रोग वृद्धिंगत हो तो दुर्जन की तरह इसको छोड़ना ही श्रेयस्कर है | वस्तुत: यह धर्म ही इस शरीर को इच्छित वस्तु प्रदान करने वाला है। शरीर तो मरणोपरांत पुनः सुलभ है, किन्तु धर्म अत्यंत दुर्लभ है । "
16. सल्लेखना आत्महत्या नहीं :
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पं. आशाधर जी ने कहा है कि विधिपूर्वक प्राणों को त्यागने में आत्मघात का दोष नहीं लगता है, अपितु क्रोधादि के आवेश से जो विषपान करके या शस्त्रघात द्वारा या जल में डूबकर अथवा आग लगाकर प्राणों का घात करता है वह आत्मघाती है न कि वह व्यक्ति जो व्रतों के विनाश के कारण उपस्थित होने पर विधिवत् भक्तप्रत्याख्यान आदि के द्वारा सम्यक् रीति से शरीर त्यागता है ।"
आचार्य समन्तभद्र ने पहाड़ से गिरने, अग्नि या पानी में कूदकर प्राण विसर्जन करने आदि को मूत कहा है। 2
इन्हीं अंधविश्वासों को दूर करने के लिए कबीरदास ने कहा है कि - गंगा में नहाने से पाप धुल और बैकुंठ की प्राप्ति होती है सारे जलचर बैकुंठ में होते और सिर का मुण्डन होने से स्वर्ग प्राप्ति होती तो भेड़ सीधे स्वर्ग जाती। 30
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जहाँ तक व्रतों की रक्षा का प्रश्न है तो इस पर एक महत्वपूर्ण तथ्य जोड़ते हुए पं. कैलाशचंद्र शास्त्री सागारधर्मामृत की टीका के विशेषार्थ " में लिखते है कि मुस्लिम शासन में न जाने कितने हिन्दू इस्लामधर्म को स्वीकार न करने के कारण मार दिये गये तो क्या इसे आत्मघात कहा जायेगा | जैनधर्म में भी समाधिमरण उसी परिस्थिति में धारण करने योग्य है जब मरण टाले से भी नहीं टलता । अतः व्रतों की रक्षा का एवं शरीर की रक्षा- इनमें से किसी भी एक को चुनना हो तो सभी दर्शनों (चार्वाक को छोड़कर) ने व्रतों की रक्षा का ही समर्थन किया है। किन्तु जब तक शरीर विधिवत् कार्य कर रहा है, तब तक उसे नष्ट न करना और जब सकल उपायों से भी धर्म का विनाशक ही सिद्ध होता हो तो ऐसी परिस्थिति में इसको त्यागना उचित है ।
वैसे तो प्राणों का विसर्जन युद्धक्षेत्र से भी होता रहा है। लाखों हिन्दुस्तानियों ने देश की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये हैं, इसे बलिदान की संज्ञा दी गई है, न कि आत्महत्या कहा गया है। झांसी की रानी ने जीते जी अंग्रेजों के हाथ में न आने की कसम ली थी और इसे पूरा भी किया तो क्या इसे आत्महत्या कहा जायेगा ? इनके द्वारा मृत्यु के सहर्ष आलिङ्गन करने को किसी ने आत्महत्या नहीं कहा, अपितु सभी ने बलिदान ही कहा है। धर्म और कानून की नजरों में भी इस प्रकार की मृत्यु बलिदान शब्द
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ से परिभाषित है, न कि आत्महत्या से। प्रसिद्ध नीतिकार भर्तृहरि कहते हैं कि - कोई चाहे न्यायसंगत आचरण की निंदा करे अथवा प्रशंसा, उससे आर्थिक लाभ हो या हानि अथवा तुरंत मरण प्राप्त हो जाये या सैकड़ों वर्षों तक जियें, किन्तु धीर-वीर पुरुष न्यायमार्ग से च्युत नहीं होते है।"
यहाँ भी नीतिकार ने धर्म और न्याय की रक्षा के लिए अपने प्राणों का परित्याग करना श्रेष्ठ कहा है, उसे आत्महत्या नहीं कहा है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी सल्लेखना को आत्महत्या नहीं कहा जा सकता है ।
संदर्भ सूची
राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं संशोधन संस्थान, श्रीधवलतीर्थ, श्रवणबेलगोला (हासन, कर्नाटक) 1. आप्टे, संस्कृत हिन्दी - कोश 2. सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेखना।
- सर्वार्थसिद्धी - 7/22, पृ. 280 3. सागारधर्मामृत, 8/1 4. धर्मसंग्रह श्रावकाचार, 7/1
भगवती आराधना, गाथा सं. 208 6. सल्लेखनाऽथवा ज्ञेया बाह्यभ्यन्तरभेदत: । रागादीनां चतुर्भुक्ते: क्रमात्सम्यग्विलेखनात् ।
रागो द्वेषश्च मोहश्च कषाय: शोकसाध्वसे । इत्यादीनां परित्याग: साऽन्तः सल्लेखना हिता ॥ अन्नं खाद्यं च लेह्यं च पानं भुक्तिश्चतुर्विधा । उज्झनं सर्वथाऽप्यस्या बाह्या सल्लेखना मता ॥धर्म संग्रह- श्रावकाचार 7/30-32 आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थमेव क्रोधादिकषायरहितानंतज्ञानादिगुणलक्षणपरमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना, तदर्थं कायक्लेशानुष्ठानं द्रव्यसल्लेखना । - पंचास्तिकाय, गाथा 173 की तात्पर्यवृत्ति, पृष्ट 253। सल्लेखनाऽसंलिखत: कषायान्निष्फला तनो: । कायोऽजडैदण्डयितुं कषायानेव दण्डयते ।
-सागारधर्मामृत, अध्याय आठ, श्लोक 22 9. अन्धो मदान्धैः प्रायेण कषाया: सन्ति दुर्जया: । ये तु स्वांगान्तरज्ञानात्तान् जयन्ति जयन्ति ते ।।
- सागारधर्मामृत, 8/23 10. धवला टीका, 1/1.1.1./23-24
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 11. आयेषु त्रिषु संहननेषु अन्यतमसंहनन: शुभसंस्थानोऽभेद्यधृतिकवचो जितकरणो जितनिद्रो महाबलो
नितरां शूरः ।
- द्रष्टव्य, भगवती आराधना, गाथा 238 की आचार्य अपराजितसूरिकृत विजयोदया टीका। 12. धवला टीका, 1/1.1.1/24/1 13. सागारधर्मामृत, अध्याय आठ, श्लो. 11 14. धर्मसंग्रह श्रावकाचार, सप्तम अधिकार, श्लो. 41 15. प्रस्थित: स्थानतस्तीर्थे म्रियते यद्यवान्तरे । स्यादेवाऽऽराधकस्तद्धि भावना भवनाशिनी ।।
- धर्मसंग्रह श्रावकाचार, सप्तम अधिकार, श्लो. 42 16. प्रासुक भूमि शिला पर ए. नरेसुआ, कीजे संधारा सार ।
कठिण कोमल समता भाविए. नरेसुआ, कीजे नहीं खेद विकार ॥
- पदमकृत श्रावकाचार, दोहा सं. 67 17. यदापवादिकं प्रोक्तामन्यदा जिनपैः स्त्रियः । पुंवद्भण्यते प्रान्ते परित्यक्तोपधे किल ।
- धर्मसंग्रह श्रावकाचार, सप्तम अधिकार, श्लो. 50 18. सागारधर्मामृत, अष्टम अध्याय, श्लो. 53 19. रुजाद्यपेक्षया वाऽम्भ: सत्समाधौ विकल्पयेत् । मुंचेत्तदपि चासन्मृत्युः शक्तिक्षये भृशम् ॥
- धर्मसंग्रहश्रावकाचार, सप्तम अधिकार, श्लोक 78 20. सागारधर्मामृत, अध्याय पाठ, श्लो. 16 21. नृपस्येव यतेर्धर्मों चिरमभ्यस्तिनोऽस्त्रवत् युधीव स्खलतो मृत्यौ स्वार्थभ्रंशोऽयशः कटुः ।।
- सागारधर्मामृत, अष्टम अध्याय, श्लोक 17 22. सागारधर्मामृत, अष्टम अध्याय श्लोक 45 23. सागारधर्मामृत अध्याय आठ, श्लोक 25 24. न धर्मसाधनमिति स्थास्नु नाश्यं वपुर्बुधैः । न च केनापि नो रक्ष्यमिति शोच्यं विनश्वरम् ।।
-सागारधर्मामृत, अष्टम अध्याय, श्लोक 5 गहनं न शरीरस्य हि विसर्जनं किन्तु गहनमिह वृत्तम् । तन्न स्थास्नु विनाश्यं न नश्वरं शोच्यमिदमाहुः ।
- यशस्तिलकचम्पू श्लोक 860 25. काय: स्वस्थोऽनुवर्त्य: स्यात् प्रतिकार्यश्च रोगित: । उपकारं विपर्यस्यंत्याज्य: सद्भिः खलो यथा ।
-सागार धर्मामृत, अष्टम अध्याय श्लोक 6 26. नावश्यं नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः । देहो नष्ट: पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभः ।।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ - सागारधर्मामृत, अष्टम अध्याय, श्लोक 7 27. न चात्मघातोऽस्ति वृषक्षतौ वपुरूपेक्षितुः । कषायावेशत: प्राणान् विषाद्यैहिँसतः स हि ।
- सागारधर्मामृत, अष्टम अध्याय, श्लोक 8 28. आपगासागरस्नानमुच्चय: सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥
- रत्नकरण्डक श्रावकाचार- 1/22 29. मूंड मुड़ाये जो सिधि होई, स्वर्ग ही भेड़ न पहुँची कोई। 30. धर्मामृत (सागार), भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 8/8 का विशेषार्थ, पृष्ठ 312 31. निंदन्तु नीतिपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥ - नीतिशतकम्
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आगम के आलोक में अनुयोग का कथन __ डॉ. आनंद प्रकाश शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य
कोलकाता शास्त्र में पुण्य भाव को धर्म बहुत जगाता है ऐसा कहा है और पुण्य भाव को व्यवहार मोक्षमार्ग भी कहा है एवं पुण्य को परम्परा मोक्ष का कारण भी कहा है परन्तु नय का एवं अनुयोग का ज्ञान नहीं होने के कारण जीव शास्त्र पढते हुए भी मिथ्यादृष्टि का मिथ्यादृष्टि ही रह जाता है । जैसे पुरूषार्थ चार कहे है - धर्मअर्थ-काम-मोक्ष
परन्तु धर्म का अर्थ समझता नहीं है एवं उसका परमार्थ अर्थ भी समझता नहीं है मात्र शास्त्र का शब्द ज्ञान कर तोते की माफिक बोल देता है। इसी का परमार्थ अर्थ यह है कि धर्म का अर्थ पुण्य है, पुण्य से अर्थ अर्थात् धन मिलता है और अर्थ अथवा धन से भोग की सामग्री मिलती है और इन तीनों का अभाव करने से अर्थात तीनों का त्याग करने से मोक्ष मिलता है । यह परमार्थ का ज्ञान न होने के कारण मिथ्यादृष्टि ही रह जाता है। इसलिए सर्वप्रथम मोक्षमार्गी जीवों को अनुयोगों का ज्ञान करना चाहिये । क्योंकि तीनों अनुयोग अलग-अलग कथन करते हैं और अज्ञानी इसका ज्ञान न होने के कारण शास्त्र स्वाध्याय करते हुए भी मिथ्यादृष्टि ही रह जाता है। द्रव्यानुयोग और करणानुयोग का निमित्त- नैमित्तिक संबंध है और द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग का कारण कार्य संबंध है। यही ज्ञान न होने से चरणानुयोग के कथन को द्रव्यानुयोग समझ जाता है। और द्रव्यानुयोग के कथन को चरणानुयोग समझ जाता है । यही मिथ्यात्व रहने की महान भूल है इस भूल का नाश करने के लिए अनुयोग का ठीक-ठीक ज्ञान करना चाहिये।
चरणानुयोग - यह अनुयोग रागादि भाव छुडाने का अभिप्राय रखते हुए यह पर पदार्थ के त्याग का उपदेश करता है । यद्यपि पर पदार्थ का त्याग नहीं होता परन्तु उसके प्रति जो ममत्व भाव है उसी का त्याग करना कार्यकारी है। जैसे रस छोड देवे और राग न छूटे तो त्याग कोई कार्यकारी नहीं है, क्योंकि रस छोडना धर्म नहीं है परन्तु राग छोडना धर्म है।
चरणानुयोग छद्मस्थ जीवों के बुद्धिगम्य बातों का ही व्याख्यान करता है लोक का सर्व व्यवहार चरणानुयोग से ही चलता है। चरणानुयोग में गुणस्थान मात्र बाह्य प्रवृत्ति पर हैं जिसके आधार पर लोक की प्रवृत्ति चलती है चरणानुयोग नोकर्म को बाधक-साधक मानता है । पात्रादिक का भेद चरणानुयोग में ही होता है जिस कारण चरणानुयोग में ही भक्ति आदि क्रियायें होती हैं। करणानुयोग में पात्रादिक का भेद नहीं है जिस कारण से करणानुयोग में भक्ति होती ही नहीं है। क्योंकि जिस जीव का भाव ग्यारहवां गुणस्थान का है वही जीव अपने भाव से गिरकर समय मात्र में मिथ्यात्व आदि गुणस्थान में आ जाता है। जहां परिणामों की ऐसी स्थिति है वहां छमस्थ जीव परिणामों को देखकर भक्ति कर नहीं सकता, क्योंकि छद्मस्थ जीव का ज्ञानोपयोग असंख्यात समय में ही होता है। इसलिए भक्ति में प्रधानता चरणानुयोग की ही है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों चरणानुयोग यही उपदेश देगा कि अभक्ष्य पदार्थ छोडो बाजार की चाट छोडों, जल छानकर पीओ, रात्रि में सभी प्रकार के आहार का त्याग करो, घर का त्याग करो, वस्त्र का त्याग करो, नग्न दिगम्बर मुनि बनो। चरणानुयोग की अपेक्षा मुनि लिंग सर्वथा निर्ग्रन्थ ही होता है जिसके पास में एक सूत्र मात्र परिग्रह है वह मुनि नहीं है परन्तु गृहस्थ है चरणुनयोग की अपेक्षा नग्न दिगम्बर मुनि उत्तम पात्र हैं। ऐलक छुल्लक आर्यिका क्षुल्लिका, ब्रह्मचारी आदि पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक हैं। वे ही मध्यम पात्र हैं और अव्रती श्रावक पाक्षिक हैं वह जघन्य पात्र हैं।
चरणानुयोग की अपेक्षा जो नग्न दिगम्बर हैं जिसको व्यवहार से छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, बंध मोक्ष के स्वरूप का ज्ञान है जो 28 मूलगुणों का आगमानुकूल पालन करता है । जो बाईस परीषहों को आगमानुकूल जीतता है जो देव मनुष्य तिर्यंच द्वारा आये हुए उपसर्गों को जीतता है उसको ही मुनि मानकर नमोऽस्तु कहना चाहिये और उसकी नवधा भक्ति होती है । ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका, क्षुल्लिका की नवधा भक्ति में से पूजन छोडकर आठ प्रकार की भक्ति होती है, क्योंकि उसका पंचम गुणस्थान है और उनको नमोऽस्तु नहीं कहना चाहिये परन्तु इच्छाकार कहना चाहिये । (देखिये सूत्रपाहुड की गाथा 13)
__ भक्ति चरणानुयोग का ही विषय है क्योंकि जिस आत्मा का ग्यारहवां गुणस्थान रूप परिणाम है वही आत्मा अपने परिणामों से च्युत होने पर समय मात्र में प्रथमादि गुणस्थानवर्ती हो जाता है जहां परिणामों की स्थिति ऐसी है वहां छदमस्थ जीव परिणाम देखकर भक्ति कर नहीं सकता । इसलिए भक्ति नियम से चरणानुयोग में होती है। चरणानुयोग की अपेक्षा जब तब वस्त्रादिक का त्याग नहीं किया जाता तब तक छठवां गुणस्थान नहीं माना जाता । इसी कारण स्त्रियों का पंचम गुणस्थान ही माना जाता है। और उनकी पंचम गुणस्थान के अनुकूल भक्ति करनी चाहिये।
जब तक वस्त्रादिक का त्याग और केशलोंच नहीं होगा तब तक चरणानुयोग तीर्थंकर का छठवां गुणस्थान स्वीकार नहीं करता है। चरणानुयोग मात्र बाह्य प्रवृत्ति देखता है कि जो प्रवृत्ति छदमस्थ जीवों के ज्ञानगोचर है इसलिए चरणानुयोग में ही पद के अनुकूल भक्ति होती है। चरणानुयोग ब्राह्य वस्तु के संयोग में परिग्रह मानता है। दान देने से चरणानुयोग कहता है महादानेश्वर धर्मात्मा है जबकि करणानुयोग कहता है कि कहां दानेश्वर है, महामान कषायी पापी आत्मा है। मान से धन का त्याग कर रहा है। करणानुयोग और चरणानुयोग परस्पर विरोधी कथन करते हैं। चरणानुयोग रस छोडकर भोजन लेने वालों को धर्मात्मा कहता है जब करणानुयोग कहता है कि भोजन में महान लालसा है इस कारण पापी है। जिसने स्त्री का त्याग किया है उसको चरणानुयोग कहता है। ब्रह्मचारी है जब करणानुयोग कहता है वह तो भाव से नारी सेवन करने से भोगी है। चरणानुयोग कार्य देखकर कहता है कि मनुष्य उच्च एवं नीच गोत्री होता है जब करणानुयोग हिम्मत से कहता है कि मनुष्य नीच गोत्री होता ही नहीं है, उच्चगोत्री में ही मनुष्य पर्याय मिलती है । संमूर्छन मनुष्य जिसकी आयु श्वास के अठारहवें भाग मात्रहै वह भी उच्चगोत्री है । (देखिये गोम्मटसार गाथा 13 और 285)
करणानुयोग - करणानुयोग बाहय पदार्थो को अर्थात् नोकर्म को साधक बाधक नहीं मानता है परन्तु
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कर्मको ही बाधक मानता है और कर्म के अभाव को साधक मानता है। कर्म प्रकृति को छोड़ने को यह अनुयोग उपदेश देता है । स्त्री को संयत गुणस्थान होता है वह करणानुयोग की अपेक्षा से माना जाता है परन्तु चरणानुयोग की अपेक्षा से स्त्री का पंचम ही गुणस्थान मानना चाहिए और पंचम गुणस्थान रूप उसका आदर सत्कार करना चाहिये । करणानुयोग की अपेक्षा से बाह्य परिग्रह होते हुए जीव मिथ्यात्व में से सीधा चतुर्थ गुणस्थान रूप भाव, पंचम गुणस्थान रूप भाव एवं सप्तम गुणस्थान रूप भाव कर सकता है। बाह्य पदार्थ करणानुयोग बाधक मानता नहीं। श्री पांडव युधिष्ठिरादिक नग्न दिगम्बर अवस्था में शत्रुजय पहाड़ पर ध्यानावस्था में थे तब अपने ही भाई ने पूर्व बैर के कारण लौह का गहना जैसे मुकुट, हार, कुण्डल, बाजूबंध इत्यादि तप्तायमान कर उनको पहना दिया । इस अवस्था में मुनि महाराज श्रेणी मांडकर तीन बडे भाईयों ने सिद्ध पदवी प्राप्त कर ली और दो लघु भ्राता ने सर्वार्थसिद्धि पद की प्राप्ति कर ली। देखिए बाहय गहनों का संयोग होते हुए भी उन महात्माओं ने अपना निर्मल परिणाम कर सिद्धगति प्राप्त कर ली । इससे सिद्ध होता है कि करणानुयोग बाहय पदार्थो को बाधक नहीं मानता।
करणानुयोग में प्रधानपना निमित्त का ही है जिस प्रकार कर्म का उदय होगा उसी प्रकार ही नैमित्तिक आत्मा की अवस्था होगी। मनुष्य गति का उदय हुआ तब आत्मा को नियम से मनुष्य गति में आना ही पड़ा। मिथ्यात्व का उदय आने से आत्मा की परिणति नियम से मिथ्यात्व की होनी ही चाहिए करणानुयोग में ही संयोग संबंध होता है । जो जीव निमित्त को नहीं स्वीकार करता उस जीव ने करणानुयोग माना नहीं । करणानुयोग को न मानने वाला एकांत मिथ्यादृष्टि है। करणानुयोग और द्रव्यानुयोग में भी परस्पर विरोध है, यदि दोनों अनुयोग समान कथन करते तो दो अनुयोग मिलकर एक अनुयोग बन पाता । परन्तु वस्तु का स्वरूप ऐसा नहीं है। सम्यग्दृष्टि आत्मा को भी स्वीकार करना पड़ता है कि अपनी इच्छा राग करने को नहीं है तो भी मोहनीय कर्म के उदय में कर्म की बरजोरी से आत्मा में रागादि हो ही जाता है। यह किसकी प्रधानता है। निमित्त की या उपादान की। अनंतवीर्य के धनी तीर्थकर देव को भी अपने आत्मा के प्रदेश तीन लोक के बराबर कर्म के उदय से करना ही पड़ते हैं। यह किसकी महिमा है। द्रव्यानुयोग कहता है कि आत्मा चेतन प्राण से जीता है जब करणानुयोग कहता है कि आत्मा चार प्राणों से जीता है द्रव्यानुयोग कहता है कि आत्मा खाता नहीं तब करणानुयोग कहता है आत्मा खाता है । द्रव्यानुयोग कहता है आत्मा अमूर्तिक है तब करणानुयोग कहता है कि आत्मा मूर्तिक है । यदि मूर्तिक नहीं होता तो आत्मा को सुई लगना नहीं चाहिए । द्रव्यानुयोग कहता है कि आत्मा असंख्यातप्रदेशी है जबकि करणानुयोग कहता है कि आत्मा स्वदेह प्रमाण है द्रव्यानुयोग कहता है कि आत्मा ज्ञान से देखता है तब करणानुयोग कहता है आत्मा इन्द्रियों से देखता है । ज्ञान का क्षयोपशम होते हुए भी इन्द्रिय बिना कैसे देखेगा । करणानुयोग कहता है कि ज्ञान चेतना चौथे गुणस्थान से स्वीकार करता है जबकि द्रव्यानुयोग चेतना तेरहवें गुणस्थान से स्वीकार करता है।
द्रव्यानुयोग - इस अनुयोग में प्रधान रूप से आत्मा की ओर से ही उपदेश दिया जाता है जो यथार्थ ही उपदेश है इस उपदेश द्वारा ही आत्मा विशेष कर अपने कल्याण के मार्ग को समझ सकता है। इस अनुयोग में उपचार से कथन नहीं किया जाता। जिस कारण से आत्मा दुखी है वही यथार्थ कारण कहा जाता है आत्मा
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अपने ही कारण से सुखी होता है । आत्मा को सुखी-दुखी करने वाला अन्य कारण संसार में नहीं है । अर्हन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु आदि कोई भी पद आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता । आत्मा का शत्रु मित्र स्वयं आत्मा ही है। जैसे पेट में दर्द होने से चरणानुयोग कहेगा कि दाल खाने से पेट में दर्द होता है परंतु चौके में दाल तो सबने खाई है कोई दाल से दर्द होवे तो सबको दर्द होना चाहिए । करणानुयोग कहता है कि दर्द तो मात्र असाता के उदय से हुआ है इसी प्रकार द्रव्यानुयोग कहता है कि महान् असाता का उदय सुकौशल एवं गजकुमार मुनि को होते हुये भी उन्होंने आत्मा की शांति एवं केवलज्ञान की प्राप्ति की। उससे असाता का उदय पेट में दर्द होने का कारण नहीं, परंतु अपना राग ही मात्र दुःख का कारण है। इसी प्रकार तीनों अनुयोग अपने-अपने पद में रहकर कथन करते हैं। तो भी तीनों अनुयोग एक-दूसरे अनुयोग का निषेध नहीं करते यदि निषेध करते हैं तो एकांत कथन करने से स्वयं मिथ्यात्व आ जाता है।
द्रव्यानुयोग में प्रधानता संवर-निर्जरा का भेद नहीं पड़ता, कारण कि सब गुणों की अवस्था होती है शुद्ध-अशुद्ध । परंतु एक समय में एक ही अवस्था होगी। एक ही साथ में दो अवस्था अथवा मिश्र अवस्था द्रव्यानुयोग स्वीकार नहीं करता है जिस काल में ज्ञानगुण अशुद्ध परिणमन करता है उस काल में अज्ञान भाव ही है और जिस काल में शुद्ध परिणमन करता है उसी काल में ज्ञान भाव है। उसी प्रकार जिस काल में चारित्र गुण अशुद्ध परिणमन करता है उस काल में नियम से आकुलता है और जिस काल में चारित्र गुण शुद्ध परिणमन करता है उस काम में निराकुलता ही है। इससे सिद्ध होता है कि द्रव्यानुयोग में संवरनिर्जरा का भेद नही है।
द्रव्यानुयोग में गुणस्थान आदि भेद नहीं होता है, गुणस्थान का भेद तो करणानुयोग में ही होता है द्रव्यानुयोग पर पदार्थ को छोडने का उपदेश नहीं देता वह तो दुःख का कारण जो मिथ्यात्वादि आत्मा के परिणमन है उन्हें ही छोडने का उपदेश देता है, द्रव्यानुयोग में पर पदार्थ साधक-वाधक नहीं होते हैं वहां साधक-बाधक मानना मिथ्यात्व है । पर पदार्थ को साधक - बाधक अन्य अनुयोग मानता है और उसी का नाम व्यवहार है इसीलिए शास्त्र की पद्धति व वर्णन व्यवस्था का ज्ञान करना बहुत जरूरी है।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आगम की दृष्टि में सम्मेद शिखर
डॉ. नेमिचंद्र जैन, खुरई प्रास्ताविक :
वर्तमान हुंडावसर्पिणी के इस पंचम काल में तीर्थंकरों का अभाव है। संसार के दु:खी प्राणियों को दुःख से छूटने का मार्ग बताने वाले आचार्यों द्वारा प्रणीत आगम ग्रन्थ ही हैं। आगम ग्रन्थ जहाँ प्राणियों को जीवन में करणीय अकरणीय कार्यो का उल्लेख करते हैं वही उनमें प्राचीन इतिहास भी दृष्टिगोचर होता है। आगम ज्ञान के अपरिमित भण्डार हैं । आगम तीर्थकर भगवंतों की दिव्य ध्वनि के सारभूत ग्रन्थ है। आगम ग्रन्थों से ही ज्ञात होता है कि भूतकाल में 24 तीर्थंकर हुए थे। वर्तमान काल में भी तीर्थकर 24 ही हुए है और भविष्यत् काल में भी 24 तीर्थंकर होंगे जो वर्तमान तीर्थंकरों की तरह वीतरागी सर्वज्ञ और हितोपदेशी ही होंगे । आगम ग्रन्थों में - (1) आचार्य यतिवृषभ द्वारा रचित, तिलोयपण्णत्ती आचार्य जिनसेन एवं गुणभद्र द्वारा रचित आदिपुराण, उत्तरपुराण जिनसेन द्वितीय द्वारा रचित हरिवंशपुराण, रविषेणाचार्य द्वारा रचित पद्मपुराण ऐसे हैं जिनमें तीर्थंकरों के साथ - साथ अन्य महापुरुष के चरित्र, उनके जन्मस्थान, तपोस्थान उपदेश स्थान एवं निर्वाण स्थानों का पूर्णत: परिचय प्राप्त होता है वर्तमान कालीन 24 तीर्थंकरों में से 20 तीर्थंकरों का मोक्ष प्राप्ति स्थान सम्मेद शिखर है । यह परम पवित्र शाश्वत तीर्थ के रूप में विख्यात है। तीर्थ - महत्व:
सम्मेदशिखर एक पवित्र तीर्थस्थान है । तीर्थ वह स्थान होता है जहाँ से जीवन की समस्त विरूपतायें अधार्मिक प्रवृत्तियाँ दूर होकर मानव को चरमशांति का संदेश प्राप्त होता है। तीर्थ में युगों का धार्मिक वैभव छिपा होता है । ऐतिहासिक वैभव का ज्ञान तीर्थों से ही होता है । ये हृदय की प्रकाण्डनिष्ठा के जीवित प्राण है। इनकी झलक चेतना का वह विकम्पन है जो दानव को मानव, सरागी को विरागी, बनाने में सक्षम है। ये अहिंसा और सत्य का मौन भाषा में उपदेश दे मानव को सुमार्ग पर ले जाते है। उनकी अखण्ड शान्ति, मोहक प्राकृतिक दृश्य, अणु अणु में व्याप्त सरलता सहज ही दर्शक को अपनी ओर आकृष्ट करती है । गगनचुम्बी पर्वतों की चोटियों पर निर्मित जिनालय प्रत्येक भावुक के हृदय को झंकृत करने में समर्थ हैं अत: आचार्य जिनसेन लिखते हैं - साराब्धेरपारस्य तरणे - तीर्थमिष्यते। अवस्थान :
सम्मेदशिखर एक सिद्ध क्षेत्र हैं। यहाँ से असंख्यात भव्यों ने मोक्ष प्राप्त किया है । यह हजारीबाग (झारखण्ड प्रांत) से 27 कि.मी. तथा ईशरीबाजार अर्थात् पार्श्वनाथ - स्टेशन से 22 कि.मी दूर है। इसकी तलहटी को मधुवन कहा जाता है । इस पर्वत राज की उच्च चोटियाँ प्राकृतिक और सांस्कृतिक गरिमा का गान गा रहीं हैं। हमारे आगम संदेश देते है कि भूतकाल के 24 तीर्थंकरों ने इसी पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ था । वंदना के लिए यात्रा प्रारंभ करते ही प्राकृतिक सौन्दर्य हृदय को आनंद से भर देता है। लगभग एक हजार फुट ऊँचा जाने पर इसकी प्रमुख आठचोटियों के बीच पार्श्वनाथ की चोटी बादलों के बीच अतिशय शोभाकारी दिखाई देती है। जैन आचार्यों के अलावा अनेक अंग्रेज यात्रियों ने इनकी सुन्दरता का वर्णन किया है।
सम्मेद का अर्थ :
इस पर्वत की सबसे ऊँची चोटी सम्मेद शिखर कहलाती है। यह शब्द सम्मद + शिखर का रूपांतर प्रतीत होता है। इसकी निष्पत्ति सम् + मद् घञर्थ में क प्रत्यय अथवा अच् प्रत्यय करने पर इसका अर्थ हर्ष, हर्षयुक्त होगा । इसकी सबसे ऊँची चोटी को मंगल शिखर (The peak of the bliss) कहा जाता है। हमारे आगम ग्रन्थों में जैसे आचार्य यतिवृषभ द्वारा रचित तिलोयपण्णत्ती एवं गुणभद्र के उत्तर पुराण में इस स्थान को अनन्तानंत मुनियों की तपोस्थली एवं निर्वाण स्थली के रूप में निरूपित किया है। आधुनिक युग के कुछ विचारकों का अनुमान है, कि जैन श्रमण इस पर्वत पर तपस्या किया करते थे इसलिए इस पर्वत की ऊँची चोटी का नाम समणशिखर, श्रमण शिखर से सम्मेद शिखर हो गया है। इस पर्वतराज से वर्तमान तीर्थकरो में से ऋषभनाथ, वासुपूज्य, नेमिनाथ और महावीर (बर्द्धमान) को छोड़कर शेष 20 तीर्थकरों एवं उनके समवशरण में विराजमान हजारों मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया है।
यथा : अजितनाथ जिनेन्द्र ने चैत्रशुक्ला पंचमी के पूर्वान्ह में भरणी नक्षत्र में सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ मुक्ति प्राप्त की -
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सम्भवनाथ, अभिनंदन नाथ, सुमतिनाथ, ने एक एक हजार मुनियों के साथ निर्वाण प्राप्त किया। पद्मप्रभदेव ने 324 मुनियों के साथ, सुपार्श्वनाथ, ने 500 मुनियों के साथ, चन्द्रप्रभु, पुष्पदंत, शीतल नाथ, श्रेयांसनाथ ने एक - एक हजार मुनियों के साथ, विमलनाथ, ने 600 मुनियों के साथ, अनंतनाथ ने सात हजार मुनियों के साथ, धर्मनाथ ने आठ सौ एक, शांतिनाथ ने नौ सौ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ ने एक हजार मुनियों के साथ मल्लिनाथ ने 500 मुनियों के साथ, मुनिसुव्रत नाथ, नमिनाथ ने एक हजार मुनियों के साथ तथा पार्श्वनाथ ने 36 मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त किया है।
श्री वर्धमान कवि ने अपनी दशभक्यादि महाशास्त्र में ' पार्श्वनाथ पर्वत का वर्णन किया है - और इसे रामचंद्र जी का निर्वाण स्थान बताया है ।
जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से अंधकार को नष्टकर देता है उसी प्रकार इस क्षेत्र की अर्चना करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते है । कवि ने इस पर्वतराज को केवलियों की निर्वाण भूमि बताया है । पं. आशाधर जी ने - "त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र" में " रामचंद्रजी और हनुमानजी का मुक्ति स्थान भी इस सम्मेद शिखर को माना है ।
श्री रविषेणाचार्य ने अपने पद्म पुराण में ' हनुमान का निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर को लिखा है श्री गुणभद्राचार्य ने उत्तर पुराण में सुग्रीव, हनुमान, रामचंद्र आदि को इस पर्वत से मुक्त हुआ माना है
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ | सम्मेदशिखर माहात्म्य में चौबीस तीर्थंकरों के तीर्थकाल में इसतीर्थराज की यात्रा करने वाले यात्रियों के आख्यान दिये हैं जिन्होंने लौकिक फल प्राप्त कर तपस्या के द्वारा निर्वाण पद प्राप्त किया है । दिगम्बर आगमों के समान श्वेताम्बर आगमों में भी इस क्षेत्र की महत्ता स्वीकार की गई है' इससे सिद्ध है कि सम्मेदशिखर अति पवित्र एवं अति प्राचीन तीर्थ है। पुरावशेष आज भी उपलब्ध हैं ।
मुगलकाल में विविध स्थानों पर होने वाले उपद्रवों के कारण इस पर्वत पर तीर्थ यात्रियों का आना जाना बंद हो गया था परन्तु औरंगजेब के शासन काल के बाद क्षेत्र पर कुछ प्रकाश आया और यात्रियों का आवागमन बढ़ गया " अठारवीं शती में अंग्रेज यात्रियों ने भी इस क्षेत्र की यात्रा कर यहाँ के प्राकृतिक भौगोलिक एवं ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किये हैं जिनमें तत्कालीन स्थिति का स्पष्ट चित्रण प्राप्त है ।"
पर्वत की चढ़ाई उतराई का क्षेत्र 27 कि.मी. है परिक्रमा 42 कि.मी. है कि.मी. पर गन्धर्व नाला और उससे आगे सीतानाला है ।
स्थिति : आज इस क्षेत्र में दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन धर्मशालाएँ है। मंदिर एवं अन्य सांस्कृतिक स्थल हैं पहाड़ पर 25 छोटे शिखर हैं जिसमें निर्वाण प्राप्त 20 तीर्थंकरों, गौतम गणधर एवं तीर्थकरों की चरण पादुकाएँ हैं । भाव सहित इस तीर्थ की वंदना करने पर जीव को 49 भव में निश्चित ही मोक्ष प्राप्त होता है । नरक और तिर्यच गति का बंध नहीं होता है।
मधुवन से चढ़ते हुए 3
हमारे पूर्व आचार्यों ने इस क्षेत्र की अनंत महिमा गायी है । यह क्षेत्र पूर्व से ही अत्यंत पवित्र था, है और रहेगा । जैनियों की आपसी फूट के कारण क्षेत्र की पर्वतीय व्यवस्था में अनेक परिवर्तन कर
की प्राचीनता को मिटाने का प्रयास चल रहा है । जो अत्यंत शोचनीय है । मतभेद होना कोई बुरी बात नहीं है पर मनभेद कर अपनी पवित्र भूमि को अपवित्र बनवाना एक अक्षम्य अपराध है । आगे आने वाली हमारी शिक्षित पीढ़ी हमें गालियाँ देगी, क्षमा नहीं करेगी ।
जैनियों ने धन कमा कर अपने जीवन को सभी प्रकार की सुख सुविधाओं का गुलाम बना लिया है । हमारी सुविधा भोगी प्रवृत्ति के कारण, आलस्य एवं सामाजिक अनुशासन हीनता के कारण क्षेत्र के पर्वत पर जगह जगह खाने पीने की लघु दुकानें खुल गई है। दुकानदार पर्वत पर रहने लगे हैं। धीरे-धीरे कान बना लेंगे और अन्य प्रकार से क्षेत्र की भूमि हथियाने का प्रयास सक्रिय हो जावेगा ।
मुझे ध्यान है 15 वर्ष पूर्व कोई भी यात्री पर्वत पर जूता-चप्पल पहनकर नहीं चढ़ता था । न पर्वत पर खाने पीने की दुकानें थी । यात्रा से लौटने पर गंधर्व नाला पर क्षेत्र कमेटी की ओर यात्रियों को स्वल्पाहार की व्यवस्था दी जाती थी । यात्री भी पवित्र भावना से वंदना के लिए पर्वत पर पवित्र वस्त्र पहनकर चढ़ता था । मनसा, वाचा, कर्मणा पवित्र होता था, पर आज तो हमारे क्षेत्र पिकनिक स्पॉट, भ्रमण क्षेत्र बन रहे हैं। इसके लिए हमारे श्वेताम्बर एवं दिगम्बर भाई मिलकर विचार करें जूता चप्पल पहनकर वंदना करने की प्रवृत्ति बंद करें। सम्मेदशिखर की पवित्रता बनाये रखने का उपक्रम प्रारंभ करें। क्षेत्र की
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सुरक्षा एवं रक्षा करना भी हमारा दायित्व है । कहीं ऐसा न कि दो बिल्लियों की लड़ाई का लाभ बंदर उठा जावें। अभी तो जैनियों के हाथ से गुजरात का प्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र गिरनार जाने वाला है तथा पावागढ़ का पर्वतीय अस्तित्व जैन समाज की अकर्मण्यता से समाप्त प्राय है ।
कहीं ऐसा न हो कैलाश पर्वत की तरह 20 तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि के लिए हमें वोट की राजनीति पर जीवित रहने वाले नेताओं के सामने हाथ जोड़ना या गिड़गिड़ाना पड़े और अधिकार रहित हो जाना पड़े। सम्मेदशिखर जैनियों का है ऐसा कहने मात्र से आपका नहीं रहेगा । ऐतिहासिक साक्ष्य देखकर भी आपको नहीं मिलेगा अतः सतर्क सावधान होने की बारी है ।
अब हमारा नारा - दिगम्बर श्वेताम्बर भाई भाई का हो । क्षेत्र हमारे पूर्वजों की धरोहर है। इसकी रक्षा का हम सभी को संकल्प करना चाहिए ।
संदर्भ सूची
1.
2.
3.
4.
आदिपुराण, पर्व 4 श्लोक 8
बीसंतु जिणबरिदां अमरासुर वंदिदा धुद किलेसा सम्मेदेगिरि सिहरे णिव्वाण गया णमों तेसिं । निर्वाणकाण्ड, गाथा2 निर्वाण भक्ति श्लोक 25
तिलोयपण्णत्ति - अधि. 4 गाथा, 1197 से 1206, 1208 से 1216 तक एवं 1218
उत्तरपुराण - पर्व 48 श्लोक 53, पर्व 49 श्लोक 56, पर्व 50 श्लोक 65 - 66, पर्व 51 श्लोक 85-86 पर्व 52 श्लोक 65-66, पर्व 53 श्लोक 52-53, पर्व 54, श्लोक 269-270, पर्व 55 श्लोक 52 से 59, पर्व 56 श्लोक 56 58, पर्व 57 श्लोक 54 62, पर्व 58 श्लोक 48-54, पर्व 59 श्लोक 44-45, पर्व
61 श्लोक 51-52, पर्व 63 श्लोक 501 पर्व 64 श्लोक 51-52, पर्व 65 श्लोक संध्या 43 से 45, पर्व 66 पर्व 67, श्लोक 53-56, पर्व 69 श्लोक 66-68, पर्व 73 श्लोक 153 से 159 तक ।
श्लोक 61-62, दशभकत्यादिशास्त्र
10.
11.
-
5.
6.
7.
8. उत्तरपुराण, पर्व 68 श्लोक 717
विविधतीर्थ कल्प, पृ. 3
9.
A statical account of Bengal, Volme XVI, P30-30
Pilgrimage of parsvanth in 1820, Edited Burgess 11sd, 1902 P 36-45C
त्रिषष्टिस्मृति शास्त्र श्लोक 80
पद्मपुराण, पर्व 13 श्लोक 45
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैनागम के मूर्धन्य मनीषी आचार्य समन्तभद्र का व्यक्तित्व एवं कृतित्व
__पं. गुलाबचंद्र दर्शनाचार्य
___मदन महल जबलपुर प्रारंभिक कथ्य : जैनागम में जैनाचार्यों की अविस्मरणीय सेवाओं को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। इसी तारतम्य में आचार्य समंतभद्र प्रमुख हैं। आपका पूरा नाम आचार्य श्री समंत भद्र स्वामी है। समंतभद्र स्वामी धर्म, न्याय, व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, मंत्र आदि सभी विद्याओं में निपुण होने के साथ ही आप शास्त्रार्थ करने में अत्यंत कुशल थे। काशी नरेश के समक्ष उन्होंने जिस स्वाभिमान की परम्परा में अपना परिचय संस्कृत में श्लोक के माध्यम से दिया वह दृष्टव्य है :
"आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट पण्डितोऽहं, दैवज्ञोऽहं भिषगटमहं, मान्त्रि कस्तान्त्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां जलधिवलया मेखलाया मिलाया
माज्ञा सिद्ध: किमिति बहुना, सिद्ध सारस्वतोऽहम् ॥" अर्थात् मैं आचार्य हूँ,कवि हूं, शास्त्रार्थियों में श्रेष्ठ हूँ, पण्डित हूँ, ज्योतिषज्ञ हूँ, वैद्य हूँ, मान्त्रिक हूँ, तंत्रिक हूँ, हे राजन् ! सम्पूर्ण पृथ्वी में, मैं आज्ञासिद्ध हूँ। अधिक क्या कहूँ, मैं सिद्धसारस्वत हूँ। अन्य आचार्यों के अभिमत: श्री आचार्य समंतभद्र का पावन स्मरण भगवज्जिनसेनाचार्य ने इस प्रकार किया है :
कवीनां गमकानां च, वादिनां वाग्मिनामपि ।
यश: सामंतभद्रीयं, मूर्ध्नि चूडामणीयते ॥ अर्थात् कवियों, गमकों, वादियों और प्रशस्त वक्ताओं के मस्तक पर समंतभद्र का यश चूणामणि के समान आचरण करता है।
___ इसी प्रकार वादिराज सूरि ने यशोधर चरित्र में श्री शुभचंद्रचार्य ने अपने ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ में, वर्धमान सूरि ने वराङ्गचरित्र में, वादीभसिंह आचार्य ने गद्य चिंतामणि में , आचार्य हस्तिमल्ल ने विक्रांत कौरव, वादीराज सूरि ने अपने "न्याय विनिश्चयालंकार" ग्रन्थ में अद्वितीय स्मरण किया है। श्री वीरनंदी आचार्य ने “चन्द्रप्रभचरित्र" नामक ग्रन्थ में आचार्य समंतभ्रद का उल्लेख अद्वितीय ढंग से किया है वह विशेष उल्लेखनीय है :
"गुणान्विता निर्मलवृत्तमौक्तिका, नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता ।
न हारयष्टि: परमेव दुर्लभा, समंतभद्रादिभवा च भारती॥" तात्पर्य है कि :
गुण - सूत्र सहित, निर्मल गोल मोतियों से युक्त एवं नरोत्तम - धनिकजनों के कण्ठ का आभूषण
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की बनी हुई हार यष्टि- मोतियों की माला ही दुर्लभ नहीं है किन्तु गुण-श्लेष, प्रसाद आदि गुणों से सहित, निर्दोष श्रेष्ठ छंदों से बनाई गई तथा नरोत्तम - श्रेष्ठ विद्वज्जनों द्वारा कण्ठ का आभूषण बनाई हुई कण्ठस्थ की हुई समंतभद्रादि ऋषियों से उत्पन्न भारती - वाणी भी दुर्लभ है।
__ श्रवण बेलगोला के शिला लेख नं. 108 में भी आचार्य समंतभद्र का उल्लेख है । इन्होंने पूर्व पश्चिम, उत्तर - दक्षिण सर्वत्र विहार कर जिनधर्म की महिमा स्थापित की थी।करहाटक नगर में पहुंचने पर आचार्य समंतभद्र ने जो परिचय दिया था, वह उनकी बौद्धिक क्षमता प्रदर्शित करता है। समंतभद्र आचार्य रचित ग्रन्थ :
_ इनके द्वारा लिखित ग्रन्थों का जो पता चलता है। वह भी दृष्टव्य हैं। वह इस प्रकार है - 1. स्वयंभू स्तोत्र 2. आप्तमीमांसा (देवगम्) 3. युक्त्यनुशासन 4. स्तुति विद्या (जिनशतक) 5. रत्नकरण्डश्रावकाचार। सभी ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। आप्तमीमांसा, युक्त्नुशासन और स्वयंभूस्त्रोत, स्तुति ग्रंथ हैं तथा दार्शनिक ग्रन्थ हैं। स्तुतिविद्या-जिनशतक शब्दालंकार प्रधान रचना है । इसमें चित्रालंकार के द्वारा प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ से लेकर चौबीस वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की स्तुति की गई है जो पद्य काव्य में संस्कृत की अनूठी रचना है। रत्करण्ड श्रावकाचार आचार्य समंतभद्र की जैनागम में श्रावकाचार की दृष्टि से अद्वितीय रचना है । इस ग्रन्थ की महनीयता सर्वधर्म समभाव की दृष्टि से विशेष महत्व रखती है जो विशेष दृष्टव्य है :5 रत्नकरण्डश्रावकाचार :
इस ग्रन्थ में 150 श्लोक हैं किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है इसमें सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को धर्म कहकर उनका वर्णन करते हुए सम्यक्चारित्र के अंतर्गत श्रावकाचार का निरुपण किया गया है । श्रावक के आचार-संयम, सदाचरण, धार्मिक भावना, इष्टदेव के प्रति समर्पण का भाव प्रत्येक धर्म में बताया गया है ।सनातनधर्म में गीता, उपनिषद् भागवत तथा अष्टादश पुराणों के रहस्यों को श्रावकधर्म पालन की दृष्टि से बताकर कहा गया है कि
अष्टादशपुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीड़नम् ॥ सारांश यही है जितने भी परोपकार के कार्य है उन सबसे पुण्य होता है, तथा दूसरों को पीड़ा देना, सताना, जान से मारना, हृदय विदारक वचन बोलना पाप रूप कार्य है। जैनाचार्य उमास्वामी महाराज ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ तत्वार्थसूत्र मोक्षशास्त्र सूत्र ग्रंथ में शुभः पुण्यस्यऽशुभःपापस्य द्वारा कहा गया है। इसी सर्व धर्म समभाव के आधार पर श्रावक का विवेचन इस प्रकार किया गया है 1. जो श्रद्धावान हो 2. विवेकवान हो 3. क्रियावान है। वही समीचीन श्रावक कुशल धर्मपरायण रत्नों का पिटारा अर्थात् सम्यकदर्शन सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप खजाना । इसी के आधार पर श्रावक आचरण कर अपना मोक्षमार्ग प्रशस्त करता है तथा एक दिन संसार, शरीर और भोगों से छुटकारा प्राप्त कर जन्म, मरण से सदा के लिए
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मुक्त हो जाता है । अत: रत्नकरण्ड श्रावकाचार का श्रावक धर्म के पालन करने में विशेष महत्व है ।इस मूलग्रंथ को प्रमुख सात अधिकारों में बाटा गया है। वह विभाजन इस प्रकार है :
___1. सम्यक् दर्शनाधिकार 2. सम्यक् ज्ञानाधिकार 3. अणुव्रताधिकार 4. गुणव्रताधिकार 5. शिक्षाव्रताधिकार 6.सल्लेखनाधिकार 7. प्रतिमाधिकार ।
___ क्रमशः प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन के विषयभूत आप्त, आगम और गुरु का स्वरूप बतलाया गया है तथा सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का विस्तारपूर्वक वर्णन कर प्रत्येक अंक की सार्थक कथा लिखकर पाठकों को तथा पाठ्यक्रम की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण बना दिया गया है सम्यक् दृष्टि के लिए भय, आशा, स्नेह तथा लोभ के वशीभूत होकर कभी धर्म से विचलित होकर कुगुरु कुदेव और कुशासनों के मानने का दृढ़तापूर्वक निषेध किया गया है।
द्वितीय अधिकार में सम्यग्ज्ञान की विशेषता बताई गई है। श्रुतज्ञान शास्त्रज्ञान की महानता बताई गई है। तथा जैनागम के चार दर्शक सोपानों क्रमशः प्रथमानुयोग, करणानुयोग चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग का बड़ा सूक्ष्म तथा हृदयग्राही वर्णन किया गया है।
तृतीय अधिकार में सम्यक्चारित्र समीचीन संयम पालन में श्रावक धर्म की सार्थकता बताई गई है । मुनियों निर्ग्रन्थों को सकलचरित्र तथा गृहस्थों को विकल चारित्र पालने की प्रेरणा देने वाले, पांच अणुव्रत,तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत बारह प्रकार के चारित्र पालन में जीवन की सार्थकता बताई गई है।
चतुर्थ अधिकार में अणुव्रतों के पालन करने का महत्व बताकर यह शिक्षा दी गई कि जीवन में, भोग, उपभोग, त्याग, यम, नियम, संयम पालन क्यों करना चाहिए तथा इनके पालन में किन-किन दोषों अतिचारों से बचना चाहिए ताकि प्रावधर्म का उचित रीति से पालन किया जा सके।
पाँचवे अधिकार में शिक्षाव्रतों के पालन करने में कौन-कौन सी सावधानी वरतना चाहिए तथा व्रतीजनों की सेवा करने में द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव को ध्यान में रखकर श्रावक को अपने श्रावक धर्म की मर्यादा का किस प्रकार पालन करना चाहिए। आगत अतिथि की सेवा करना भी मानव धर्म है इसे ग्रन्थकार ने वैयावृत्य नाम देना उचित समझा है।
षष्ठम् अधिकार में जीवन की सार्थकता में समाधिमरण - धर्मध्यान पूर्वक शरीर का विसर्जन करना बताया गया है । समाधिपूर्वक मरण होना यह जीवन का चरमोत्कर्ष है तथा वोधि समाधि तथा परिणामों की शुद्धता होने से यह समाधिमरण या पण्डितमरण प्राप्त होना बड़े पुण्य कर्म का फल बताया गया है समाधिमरण का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति बताया गया है। स्वर्ग की प्राप्ति भी इसका दूसरा उद्देश्य माना गया है।
सप्तम् अधिकार में श्रावकों कुशलतापूर्वक धर्मपालकों के हित में ग्यारह प्रतिमाओं के संयम पालन करने में ग्यारह नियमों के पालन करने का वर्णन किया गया है । ग्रन्थ के अंत में धर्म ज्ञाता का समीचीन लक्षण बताकर दो श्लोकों द्वारा ग्रन्थ का उपसंहार किया गया है।
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आगंम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इस प्रकार यह श्रावकाचार - श्रावकधर्म पर प्रकाश डालनेवाला एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है उसकी भाषा विशद, प्रौढ़ और अर्थ की गंभीरता की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है । वास्तव में यह ग्रन्थ सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूपी रत्नों का करण्डक (पिटारा) है इससे पहिले कोई श्रावकाचार देखने सुनने में नहीं आता। अन्य प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, चारित्रसार, सोमदेव का उपासकाध्यन, अमितगति श्रावकाचार, सागार धर्मामृत और लाटी संहिता आदि श्रावकाचार विरुसक ग्रन्थ है, वे सब इसके पीछे के हैं। अत: जैन साहित्य का यह आद्य श्रावकाचार कहा जाता है अल्पकाय होने से बालक बालिकाओं तथा जिज्ञाषु पुरुष संहिताओं सहित सभी कण्ठस्थ करने योग्य है। यह ग्रन्थ केवल जैनविद्यालयों में ही नहीं अपितु अनेक हाईस्कूलों में भी पाठ्यक्रम के रूप में स्वीकृत है तथा हजारों विद्यार्थी प्रतिवर्ष उसका लाभ लेकर संस्कारवान बन रहे हैं। समन्तभद्र का समय :
जैन साहित्य और इतिहास वेत्ता श्री स्व. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपने स्वामीसमंतभद्र नामक महा निबंधमें अनेक विद्वानों की बारी से समीक्षा करके यह अभिमत प्रकट किया है कि समंतभद्र. उमास्वामी के बाद और पूज्यपाद स्वामी के पहले विक्रम की द्वितीय या तृतीय शताब्दी में हुए है। श्रावकधर्म का विवेचन अपने अद्वितीय ग्रन्थ श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार में करने के कारण स्वामी समंतभद्र जैनागम साहित्य गगन में अमरता पा चुके है। इनके विषय में अनेक आचार्यो सर्वश्री कुन्दकुन्द, स्वामीकार्तिकेय, आचार्य अमितगति, आचार्य अमृतचंद्र, आचार्य वसुनन्दी, पंडित प्रवर आशाधर, पंडित राजमल्ल कवि मेघानी, आदि ने आचार्य समंतभद्र के समय को विशेष रचना का मानकर उनके प्रति आगमसम्मत संस्तुति वर्णित की है। जीवन में घटित विशेष घटना :
___आचार्य समन्तभद्र ने जब मुनि पर्याय (निर्ग्रन्थ अवस्था) धारण की तब पूर्वोपार्जित दुष्कर्म ने इनकी परीक्षा लेना चाही किन्तु वे सफल रहे । पुष्ट प्रमाण के आधार पर ज्ञात है कि मुनि समन्तभद्र को तपस्याकाल में भष्मक व्याधि हो गई । जितना खावे सव भष्म होता जावे । भूख मिटती नहीं थी मुनिजीवन में दिन में एक बार प्राप्त रूखे - सूखे भोजन पर ही संतोष धारण करना पड़ता है ।अत: गुरु आज्ञा से आपने समाधिमरण पूर्वक देह त्याग का प्रस्ताव रखा | गुरु अवधिज्ञानी थे वे जानते थे कि इनके द्वारा भावी जैनधर्म की विशेष प्रभावना होना है। अत: गुरु ने आज्ञा नहीं दी। इसके बाद मुनी समंतभद्र ने मुनिमुद्रा छोड़कर अन्य (जैनेतर) साधु का वेश धारण कर लिया। मन में पश्चाताप था किन्तु विवशता थी। अब वे स्वेच्छापूर्वक विहार करते हुए एक बार काशी नगरी में पधारे तथा शिवमंदिर में शिवभोग की विशाल अन्न राशि को देखकर यह विचार कर मंदिर में रहने लगे कि इससे मेरी भूख शान्त होती रहेगी। यह कथन कर कि यह समस्त अन्नराशि मैं शिवजी की पिंडी को खिला दूंगा । चमत्कारी निर्णय था अत: मंदिर में रहने की अनुमति व्यवस्थापकों से प्राप्त कर ली। मंदिर के किवाड़ बंद कर उस विशाल अन्नराशि को भूख की निवृत्ति के लिए स्वयं खाने लगे। धीरे-धीरे उनकी व्याधि शांत होने लगी। काशी नरेश को जब यथार्थ
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रहस्य मालूम पड़ा तो वे क्रोध में आकर समन्तभद्र से सही बात पूछने लगे । तब उन्होंने अपना सही परिचय इस प्रकार दिया :
काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुसे पाण्डुपिण्ड: पुण्ड्रोण्डे शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरे, मिष्टभोजी परिव्राट् । वराणस्यामभूवं शशधर धवल: पाण्डुरंगस्तपस्वी
राजन् ! यस्यास्ति शक्ति: स वदतु पुरुतो जैननैर्ग्रन्थवादी॥ अर्थात् काञ्ची में मलिन वेशधारी दिगम्बर रहा, लाम्बुस नगर में भस्म रमाकर शरीर को श्वेतवर्ण किया। पुण्डोष्ड में जाकर बौद्ध भिक्षु बना, दशपुर, नगर में मिष्ट भोजन करने वाला सन्यासी बना, वाराणसी में श्वेतवस्त्र धारी तपस्वी बना । राजन , आपके सामने यह दिगम्बर जैनवादी खड़ा है । अत: मैं शास्त्रार्थ के लिए तैयार हूँ। राजा के शिवमूर्ति को नमस्कार करने के आग्रह को उन्होंने नहीं माना तथा कहा कि मेरी निर्ग्रन्थ आस्थाभावना के कारण यह मूर्ति मेरी भावना को सहन नहीं कर सकेगी तथापि मेरे किसी के प्रति निंदा के भाव नहीं है । उन्होंने चौबीस तीर्थकरों की स्तुति करते समय जब आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु भगवान की स्तुति की तभी शिव पिंडी फटी तथा उसमें से चन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति निकल पड़ी। यही स्तवन स्वयंभूस्तोत्र के नाम से आजकल प्रसिद्ध है |इस प्रभावना पूर्ण घटना के बाद अनेक लोगों ने जैन धर्म धारण किया क्योंकि जैनधर्म किसी जाति, वर्ग, रंग, मत में विभाजित नहीं है। जो भी अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने का अन्य प्रयास कर सके वही जैन है। सारांश समाहार :
आचार्य समन्तभद्र परिस्थितिजन्य संयम से भ्रष्ट हुए थे किन्तु उनका जो निर्मल सम्यग्दर्शन था वह कभी भी विचलित नहीं था । अन्तरंग में यही भावना थी :
सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावें। बैरभाव अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावें॥ अथवा कोई कैसा ही, भय या लालच देने आवे ।
तो भी न्याय मार्ग से मेरा कभी न पथ डिगने पावे ॥ इसी अतिशयकारी व्यक्तित्व के धनी आचार्य समन्तभद्र को मैं केवल जैनागम की प्रभावना करने वाला न मानकर सर्वधर्म समानत्व की महती प्रभावना करने वाला जैनाचार्य मानता हूँ। आगम में सम्यग्दर्शन का धारी निर्मल परिणामी तथा भव्यात्मा कहा गया है। आचार्य समन्तभद्र भी भारतवर्ष में जैनागम सम्मत परम्परा में भावी तीर्थंकर होने वाले है। उन्हें चारण ऋद्धि प्राप्त थी। ऐसे अतिशयकारी मनीषी आचार्य का व्यक्तित्व एवं कृतित्व विशेष "स्मृति ग्रन्थ" में प्रकाशित होना एक अभिनंदनीय परम्परा है। अतः सम्पादक मण्डल सहित सभी के प्रति पवित्र भावनाओं से परिपूरित साधुवाद।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के दर्शन से लोक कल्याणकारी भावना की अनुभूति
___पं. खेमचंद्र जी, जबलपुर वीतरागी, निस्पृही संत आचार्य श्री विद्यासागर महाराज का जन्म कर्नाटक प्रान्त के बेलगांव जिले के सदलगा गाँव में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) तदनुसार 10 अक्टूबर 1946 दिन गुरुवार रात्रि 11.30 बजे हुआ था । आपका बचपन का नाम विद्याधर था तथा आपके पिताजी का नाम श्रीमल्लप्पा अष्टगे तथा माताजी का नाम श्रीमतीजी था। आपके ज्येष्ठ भ्राता का नाम श्री महावीरप्रसाद अष्टगे है । “होनहार विरवान के होत चीकने पाट" की कहावत के आधार पर बालक विद्याधर ने मात्र 9 वर्ष की बाल्यावस्था में आचार्य शांति सागर जी महाराज के प्रवचन सुनकर आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का संकल्प कर लिया था। बचपन में ही मंदिर में प्रवचन तथा चिंतन में रूचि लेने लगे थे। निश्चित ही मानो भावी मुनि दीक्षा के लिए मनोभूमि तैयार कर रहे हो। ज्ञानावरणीय कर्म का प्रबल क्षपोयशम था, संयम के प्रति अन्त: प्रेरणा प्रबल थी, अत: किशोरवय में ही आपने जयपुर में विद्यमान आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार कर लिया । अब वे ब्रह्मचारी विद्याधर कहलाने लगे। आचार्य देशभूषण जी महाराज के संघ में रहकर श्री गोमटेश्वर बाहुबली भगवान के महामस्तकाभिषेक में शामिल हुए तथा ज्ञानार्जन के लिए वे श्रीज्ञानसागर जी महाराज के समीप 1967 ई. में मदनगंज किशनगढ़ (अजमेर) राजस्थान पहुँचे तथा अजमेर के मुनिभक्त श्रावक शिरोमणि श्री कजौड़ीमल की कृपा से वे पूज्य श्री ज्ञानसागर जी के विनम्र शिष्य बनकर लगभग पाँच वर्षो में जैनदर्शन के प्राय: सभी शास्त्रों का अध्ययन कर पारंगत हो गए । योग्य गुरु को योग्य शिष्य का मिलना पूर्वोपार्जित कर्माधीन संयोग ही माना जाता है । गुरु ज्ञानसागर जी ने ब्र.विद्याधर को विद्यानन्दि बना दिया । गुरू कृपा से वर्ष 1968 की 30 जून को उन्हें अजमेर में मुनिदीक्षा दी गई तथा 22 नवम्बर 1972 को नसीरावाद में आचार्य ज्ञानसागर जी ने अपना आचार्य पद मुनि विद्यासागर जी को प्रदान कर उनसे अपना समाधिमरण कराने की अविस्मरणीय भावना व्यक्त की तथा अंतिम उपदेश के रूप में कहा - "वत्स अतीत की अपेक्षा से तू मेरा शिष्य है और वर्तमान की अपेक्षा से गुरु है। स्यावाद जैनदर्शन का प्राण है । आचरण में अहिंसा, वाणी में स्याद्वाद् और विचारों में अनेकांत दिगम्बर श्रमण के आभूषण है । यह बात जीवन पर्यन्त स्मरण रखना । अब विलम्ब मत कर मुझे अपना शिष्य समझकर समाधिमरण हेतु मुझे आज्ञा प्रदान करें।"
विद्यासागर जी स्मृतियों के अथाह सागर में डूब गये । कुछ क्षण पश्चात् उन्होंने अपने नयन खोले, अपने दीक्षा गुरू के शीश पर वरद हस्त रखा और कहा “वत्स ! तुम्हारा समाधिमरण सार्थक हो।" मृत्यु आनंददायी है इतना कहकर आचार्य विद्यासागर जी ने समाधिस्थ संत की ओर देखा, ज्ञानसागर के पलक एक निमिष को खुले, अधरों पर हल्का सा कम्पन हुआ तथा इस नश्वर संसार से महाप्रयाण कर गए। यह गुरु शिष्य के आध्यात्मिक दर्शन की चरमसीमा का फल है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आचार्य श्री के साक्षात् दर्शन में लोक कल्याण भावना
संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज के साक्षात् दर्शन में आत्म हितैषी लोक कल्याण की महान् भावना छिपी है। रत्नत्रय से उनका महान् जीवन निर्मित है। उनके साक्षात् दर्शन से मन में अपार शांति का संचार होने लगता है। भावों की निर्मल सरिता प्रवाहित होने लगती है। जो श्रद्धापूर्वक दर्शन कर उसमें अवगाहन करता है। उसे अनर्घ पद पर जाने की प्रेरणा मिलती है आत्मा को परमात्मा बनने की प्रेरणा मिलती है और प्रेरणा मिलती है अपने अंतस के अज्ञान और कल्मष को प्रक्षालन करने की तथा 'दर्शनेन जिनेन्द्राणां' साधूनां वन्दनेन, च न तिष्ठति चिरं पापं छिद्र हस्ते “यथोदकम्" की प्रेरणा का संचार होने लगता है तथा जीवन में विनयभाव धारण करने की प्रेरणा मिलती है। उनके दर्शन से जीव दया तथा जीव रक्षा के भाव प्रकट होते हैं। तथा परहित सरस धर्म नहीं भाई' पर 'पीडासम नहीं अधिकाई' के भाव जागृत हो जाते हैं। संसार शरीर और भोगों से छुटकारा पाने का मार्ग प्रशस्त होने लगता है। उनके साक्षात् दर्शन से हमें अपने अह्म को सांसारिक मान बड़ाई को, क्षल को, छद्म को एवं मायाचार को दूर करने की प्रेरणा मिलती है। उनके दर्शन में जैनशासन की साक्षात् अनुभूति छिपी है, उनका व्यक्तित्व "धम्मोदयाविशुद्धो" तथा “जीवानां" "रक्खणरो धम्मो की लोक कल्याणकारी भावनाओं से ओतप्रोत है। संघ सहित उनके दर्शन से साक्षात् समवशरण का दृश्य हमारे मानस पटल पर अंकित होकर मन की सुषुप्त भावनाओं को झंकृत कर देता है। जिन शासन की प्रभावना के वे पंचमकाल में भी चतुर्थकाल के साक्षात् प्रचारक है। आत्मान्वेषी आदर्श साधक के साथ उनके दर्शन में आत्ममूल्यांकन के महनीय भाव समाहित है। उनके दर्शन से आत्मशांति, आत्माराधना के गुण प्रकट करने की साक्षात् प्रेरणा मिलती है । वे महान् कवि, दार्शनिक, सफल प्रवाचक तथा जिनवाणी माँ के वरद पुत्र होने की जीवंत क्षमता रखते है। उनके दर्शन से साक्षात् तीर्थदर्शन का लाभ प्राप्त होता है । “कालेन फलते तीर्थं सद्य: साधु समागम:' की उक्ति सर्वोदयतीर्थ की भावना उनके साक्षात् दर्शन से बलवती हो जाती है । पद्मनन्दी आचार्य कहते है कि :- .
"तत्प्रति प्रीति चित्तेन, येन वार्ताति संश्रुत:
निश्चितं सः भवेद् भव्यो, भावी कल्याण भोजनम्" हमें भी मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक आदर्श निस्पृही युग संत के साक्षात् दर्शन से पुण्यकर्म का संचय कर अपना जीवन शांतमय व सरल बनाना चाहिए । शाकाहार तथा सदाचार का पालन करना चाहिए । संतों का जीवन तो नारियल के समान होता है । तप की कठोरता पूर्वक साधना से आत्मिक उपलब्धि प्राप्त होती है । उनके चरण स्पर्श एवं दर्शन से अपना आचरण पवित्र बनाना चाहिए केवल भावावेशी देखा-देखी जयकारों की भावना हमारे आचरण में दिखाई देना चाहिए । उनके दर्शन से एवं चरण स्पर्श से हमें अपना आचरण आदर्श बनाना चाहिए।
___ अद्यावधि आचार्य श्री द्वारा दीक्षित जितने भी श्रमण संत है, सभी बाल ब्रह्मचारी है । यह सब उनके साक्षात् दर्शन का ही लाभ है । यौवन की दहलीज पर चढ़ने वालों ने इस महासंत के साक्षात् दर्शन
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लाभ से अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने के पथ पर चलकर आदर्श प्रस्तुत किया है। मैंने भी आचार्य श्री के दर्शन से कुशल गृहस्थ श्रावक बनने की भावना भाई है क्योंकि -"भावना भवनाशिनी" होती है । अंत में आचार्य श्री के चरणों में कोटिशः नमोस्तु ज्ञापित कर अपना आदर भाव इन शब्दों में व्यक्त करता हूँ :
"ये ऐसे संत जिन्हें नमते, उर का क्रंदन खो जाता है। इनके चरणों में अंगारा, आते चंदन हो जाता है । पा दर्श आपके चेतनता इतनी जगती, चित चिंमय हो जाता है।
इनका दर्शन करते करते, खुद का दर्शन हो जाता है ॥" स्मृति ग्रन्थ “साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ के प्रकाशन अवसर पर स्व. गुरुवर्य पं. डॉ. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य जी" को विनत विनयांजलि प्रेषित करता हूँ गुरुवर्य पू. वर्णीजी तथा सादर आचार्य श्री के अनन्य भक्त थे।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनंत धर्मात्मक वस्तु का अनेकांतवाद जन्य विशुद्ध स्वरूप
पं. शिखरचंद जैन साहित्याचार्य,
प्राचार्य / प्रधान संपादक, सुभाषनगर सागर विषय प्रवेश :
___ जैन शासन यद्यपि ईश्वर को जगत् का कर्ता-धर्ता नहीं मानता किन्तु भगवान ऋषभदेव से महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थंकरों की शाश्वत परम्परा से इस विश्व में जो अहिंसा एवं संयमाचरण की अवाध धारा प्रवाहित हुई है वह अनेकांतवाद तथा स्यावाद की अप्रतिम एवं अकाट्य प्रमाणिकता में चार - चाँद लगाने वाली है । जीवात्मा को परमात्मा बनने तक पहुँचने की जो श्रद्धायुक्त भावना है, वह अनेकांतवाद का चरम लक्ष्य है। यही कारण है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का मिला रूप ही मोक्ष प्राप्ति का पावन उपाय जैनाचार्यों ने अपने शाश्वत् प्रमाणिक अनुभवगम्य सापेक्षावाद के आधार पर सिद्ध कर "जैनं जयतु शासनम्" का उद्घोष संसार के प्राणी मात्र तक पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त किया है ।वस्तु अपने अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख तथा अनंतवीर्य चतुष्टय पूर्वक अपेक्षाभेद के आपसी निराधार विवाद को हटाकर परम निश्रेयस मार्ग तक पहुँचा कर अपनी आत्मोपलब्धि में रमण कर लेती हैं। अनेकांतवाद का स्वरूप जैन शासन में सयुक्तिक तथा सटीक बताया गया है । "वस्तूनि अनेके अन्ता: धर्मा: संति" इस अनेकांत, जैसे राम अपने पिता दशरथ की अपेक्षा पुत्र है तथा अपने पुत्र लव-कुश की अपेक्षा पिता है। दादा, पिता, पत्नी, पुत्र तथा पुत्री का एवं अन्य पारम्परिक जाति कुल भेद के आधार पर सभी संबंध अपेक्षा भेद से है । इस कारण व्यक्ति की परम स्वतंत्रता तथा आत्मोन्नति के उपाय में तथा उससे उत्पन्न वस्तु के स्वरूप एवं मूल्यांकन में किसी भी प्रकार की समस्या नहीं आ सकती । यद्यपि भाग्यवादी बनकर व्यक्ति अपने परिवेश में जैसा संकुचित वातावरण पाता है वैसा ही बनकर तदाचरण मय कदाचरण को सच्चा सुख मान बैठता है। अत: अनेकांतमय वस्तु विवेचन सैकड़ों समस्याओं के समाधान का जो उपाय बताता है । यही उसकी वैशिष्टय पूर्ण उलब्धि है। प्रासंगिक पुष्टिकरण :
___अनेकांत जैन दर्शन का हृदय है। इसके बिना जैन दर्शन को समझ पाना दुष्कर है । जैन दर्शन के अनुसार वस्तु बहुआयामी है। उसमें परम्पर विरोधी अनेक गुण धर्म हैं। वस्तु के समग्र बोध के लिए समग्र दृष्टि अपनाने की जरूरत है । वह अनेकांत की दृष्टि अपनाने पर ही संभव है । “अनेकांत" शब्द अनेक
और 'अन्त' इन दो शब्दों के मेल से बना है। अनेक का अर्थ है एक से अधिक अंत का अर्थ है "धर्म"। अर्थात् वस्तु परस्पर विरोधी अनेक गुण - धर्मों का पिण्ड है । एकान्त वस्तु विवेचन में पंगु है तथा मिथ्यात्व का पोषक है । सम्यक्त्व भावना तो केवल अनेकांतमय शैली द्वारा ही संभव है।अनेकांत दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का ही जनक है। परमात्म प्रकाशक है । मार्गदर्शन में दोनों मिलकर अंधा पंगु को मार्गदर्शन देता है । यही विश्वकल्याण की मैत्रीभाव को जाग्रत करता है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ “सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्॥ यही अनेकांतात्मक वस्तु विवेचना की चरम उपलब्धि है । शाश्वत वस्तु के विशुद्ध स्वरूप का दिग्दर्शन कराने वाला ही अनेकांत है । पदार्थ भेद सत् तथा असत् अपेक्षा भेद के कारण हैं । यही अनेकांत की विशेषता है। अनेकांत विशुद्ध वैशिष्टय :
प्रत्येक पदार्थ में प्रतिसमय "उत्पाद व्यय- ध्रौव्यात्मक" परिणमन होता आ रहा है। प्रतिसमय परिणमनशील होने के बाद भी उसकी चिर संतति सर्वथा नहीं मिटती अत: नित्य है। पर्याय प्रतिसमय बदल रही है। अत: अनित्य है। अत: अनेकांत परस्पर विरोधी वस्तुओं का पिण्ड है । शांति का खजाना है। पानी से भरे गिलास को हम यह भी कह सकते हैं कि गिलास “आधा भरा है " तथा यह भी कहा जा सकता है कि गिलास "आधा खाली"। इसी प्रकार जगत् का प्रत्येक पदार्थ हमें अनेकांत की व्यापक दृष्टि प्रदान करता है ।आज के वैज्ञानिक युग में यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। एक ही अणु में जहाँ आकर्षण शक्ति विद्यमान है, वहाँ विकर्षण शक्ति भी अपना समान ही अस्तित्व रखती है। जहाँ संहारकारी वस्तु विद्यमान है,वहीं निर्माणकारी शक्ति भी अपना परिचय दे रही है । जल हमारे जीवन का प्रमुख आधार है। उसके पीने से हमारी प्राण रक्षा होती है। वही जल तैरते समय गुटका लग जाने से जानलेवा सिद्ध होता है। जिस भोजन से हमारी भूख मिटती है। भूखे को प्राण रक्षक है । वही अजीर्ण होने पर विष बन जाता है। विष जो हमारे प्राणों का घातक है, वही वैद्यों द्वारा कभी - कभी औषधि के रूप में दिया जाता है। अत: अनेकांत दृष्टि अमृतमय है। वही विषमय हो जाती है, एकांतवाद से। परस्पर विरोधी धर्मों का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से सापेक्ष कथन किया जाता है । तब विरोध की कोई संभावना नहीं रहती है। अनेकांत की साधक दृष्टि :
यदि हमें एकांतवाद की दूषित विचारधारा से बचना है तो अनेकांतवाद की शरण ही को शाश्वत सहारा है। अत:इसके स्वरूप को विस्तारपूर्वक समझना आवश्यक है। जैनाचार्यों ने अनेकांत को तत्व की कुंजी कहा है। सारी समस्याओं का प्रमाणिक समाधान केवल अनेकांत शैली के कथन से ही संभव है।
अकलङ्कस्वामी ने परमात्मा की भक्ति अनेकांतमय शैली में की है। परमात्मा चिदात्मा है चैतन्य धर्म के द्वारा परमार्थ से तो वस्तु अनिर्वचनीय है। सांसारिक व्यवहार निमित्त-नैमित्तिक संबंध से बन रहा है। जिस काल में आत्मा का मोह चला जाता है, उस समय यह ज्ञानावरणादि कर्म आत्मा से संबंधित नहीं होते । अनेकांत अनंत ज्ञानात्मक है । “सर्व द्रव्य पर्यायेषु केवलस्य" का साकार कथन ही अनेकांत है। वास्तव में व्यवहार हमारा उपकारी श्रुतज्ञान है। इसी से केवलज्ञान का निर्णय हो जाता है ।बिना श्रुतज्ञान से कभी भी मोक्ष का निरूपण नहीं हो सकता। भगवान की दिव्यध्वनि को दर्शाने वाला श्रुतज्ञान है । वही
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनेकांतमय वस्तु के शुद्ध निश्चय का निर्णय कराने में समर्थ है । कुन्दकुन्द स्वामी ने तो यहाँ तक श्रुतज्ञान का महत्व बताया है -
"आगम् चक्खू साहू, इंद्रिय चक्खूसि, सव्वभूदाणि ।
देवादि ओहि चक्खू, सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥" आगम चक्षु वाले साधु होते हैं । संसारी मनुष्य इन्द्रिय चक्षु वाले होते हैं। देव लोग अवधि चक्षु वाले होते हैं सिद्ध भगवान सर्वचक्षु होते हैं। कितनी व्यापक तथा अनेकांत दृष्टि है जैनशासन की। देवागम स्तोत्र में स्वामी समन्तभद्र कहते है :
"स्याद्वाद केवल ज्ञाने, सर्वतत्त्व प्रकाशने ।
भेदः साक्षाद् साक्षाच्च, ह्मवस्त्वन्यतमं भवेत् ।।" शुक्ल ध्यान के वास्ते श्रुतज्ञान की आवश्यकता है । मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान की नहीं। अनेकांत के विषय में जैनाचार्य अमृतचंद्रसूरि ने ठीक ही कहा है तथा नमस्कार किया है :
“परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुरविधानाम् ।
सकल नय विलसिताना, विरोधमथनं नमाम्यनेकांतम् ॥" वास्तव में जिन्हें अपना हित करना है। उनकी अपनी स्वतंत्र अनेकांतमय शैली का ही सहारा लेना आवश्यक है। सुख आत्मा का ही स्वभाव है । एकांत शैली से तो संसार का अभाव असंभव है तथा मोक्ष का भी अभाव माना जा सकता है। अत: अनेकांतवाद समझता है कि आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है । जहाँ जीव पुदगल का निमित्त-नैमित्तिक संबंध नहीं रहता है, वहां संसार नहीं रहता। संसार कोई भिन्न पदार्थ नहीं है । जहाँ जीव और पुदगल का अन्योन्याश्रित संबंध रहता है। इसी का नाम संसार है । संसार अनेकांत से सारगर्भित भी है।
"संसार एव कूप: इह सलिलानि विपत्तिजन्म दुखानि ।
इह धर्मऽनेकांत वन्धुः, तस्मादध्दुरयति निम्नग्नानाम् ॥" यही अनेकांत धर्म की सृष्टि ही हमारी शाश्वत दृष्टि है। बिना अनेकांत के सभी निराशामय वातावरण में अदृश्य हो जाते है । ज्ञानी जीव जब रागादिकों को ही हेय समझता है, तब रागादिक में विषय हुए जो पदार्थ, उन्हें चाहे, यह सर्वथा असंभव है। जब यह वस्तु मर्यादा है तब पर से उपदेश की वांक्षा करना सर्वथा अनुचित है। जैसे पर में पर बुद्धि कर उसके द्वारा कल्याण होने की भावना को छोड़ों । इस विश्वास के छोड़े बिना श्रेयोमार्ग पर चलना कठिन है। जैसे संसार के उत्पन्न करने में हम समर्थ है, वैसे ही मोक्ष के उत्पन्न करने में भी अनेकांत शैली समर्थ है। यही मोक्ष अवस्था अनेकांत का विशुद्ध रूप है। अनेकांतवाद का चरमोत्कर्ष :आचार्य अमृतचंद्र सूरि ने अपने ग्रन्थ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में अनेकांतवाद की विशुद्ध परमोत्कर्ष
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शैली में जो सार्थकता सिद्ध की है, वह एकांतवादियों को दिशादर्शक है । यह दृष्टिगत शैली ही वास्तव में आर्ष सम्मत शैली है तथा इसके चरमोत्कर्ष का फल देवशास्त्र गुरु की भक्ति तथा आत्मा को परमात्मा बनाने का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ है :
"एकेनाकर्षन्ति श्लथयन्ती वस्तु तत्त्वमितरेण ।
अन्तेन जयति जैनी, नीतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी॥" अर्थात् - जिस प्रकार दही को विलोने वाली ग्वालिनी, मथानी की रस्सी को एक हाथ से खींचकर दूसरी ओर से डोरी को ढीला कर देती है तथा दोनों प्रकार से दही से मक्खन बनाने की सिद्धि करती है, उसी प्रकार वाणी (अनेकांत) रूपी ग्वालिनी सम्यग्दर्शन से तत्त्वस्वरूप को अपनी ओर खींचती है। सम्यग्ज्ञान से पदार्थ के भाव को प्रगट करती तथा दर्शन ज्ञान की आचरणरूप क्रिया से रत्नत्रय की प्राप्ति का ही उपाय करती है। कितनी स्पष्ट शैली है अनेकांत की। गृहस्थ को रत्नत्रय पालन अनेकातंवाद से :आचार्य अमृतचंद्र सूरी कहते हैं कि :
"इति रत्नत्रय मेतत् प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन ।
परिपालनीय मनिशं, निरत्ययां, मुक्तिमभिलषिता ॥" __ अर्थात् अनेकांतवाद जन्य विशुद्ध स्वरूप के जाने बिना गृहस्थ जीवन की सफलता नहीं है, तथा मुनिधर्म का महत्व जाने बिना भी जीवन की सार्थकता नहीं है । अत: इस पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नामक ग्रन्थ में सकल रत्नत्रय तथा विकल रत्नत्रय का वर्णन भी अनेकांत दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सार्थकता अनेकांतवाद की :
वस्तु के यथार्थज्ञान के लिए अनेकांतवाद की सार्थकता जैनाचार्यों ने बताई है। एकांतवाद से वस्तु के सही स्वरूप को जाने बिना व्यर्थ के विवाद पैदा हो जाते हैं। हठ पूर्वक किसी वस्तु को सिद्ध करना समझदारी नहीं है। अनेकांतवाद ही मानव कल्याण का साक्षात आधार है । हम इसे लौकिक उदाहरण द्वारा देखें :
__ "किसी गाँव में प्रथम बार हाथी आया। गाँव वालों ने अब तक हाथी नहीं देखा था। वे गाँव के पाँच अन्धे, हाथी से पूरी तरह अपरिचित थे। जब उन्होंने सुना -" हाथी आया है तो सभी की तरह वे भी हाथी के पास पहुँचे। आँखों के अभाव में पाँचों अंधों ने हाथी को छूकर अलग-अलग से बताया । एक ने क्रमश: पूँछ को छूकर कहा कि हाथी रस्सी की तरह है। दूसरे ने पैर छूकर कहा कि हाथी खम्भे जैसा है। तीसरे ने सूंड छूकर कहा कि यह तो कोई झूलने वाली वस्तु है। चौथे ने पेट/धड़ छूकर कहा कि हाथी दीवार के समान है । पाँचवे ने उसके कान छूकर कहा कि यह तो सूप की आकृति वाला प्राणी है । पाँचों ने अपनी एकांत दृष्टि से जो अनुभव में आया कह दिया किन्तु जब वे हठ पकड़कर झगड़ने लगे तब समझदार व्यक्ति ने कहा कि “कान, पेट, पैर, सूंड और पूंछ आदि अवयवों को मिलाने पर हाथी का पूर्ण रूप सिद्ध होता है।"
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ झगड़ा समाप्त । सभी अंधे सहमत ।यही है जिनमत । यही है सप्तभंगी नय । यही है स्यावाद । जहाँ स्याद्वाद समाप्त् वहीं से प्रारंभ होता है शायवाद । समन्वय का सोपान :
वास्तव में अनेकांत पूर्णदर्शी हैं और एकांत अपूर्णदर्शी। अनेकांत दृष्टि वस्तु तत्व के विभिन्न पक्षों को सही दृष्टि से स्वीकार कर समन्वय (समझौता) का श्रेष्ठ साधन बताता है। सभी की बात सुनकर यथार्थ वस्तु का प्रतिपादन बिना किसी विरोध के हो जाना ही अनेकांत का सफल सोपान है । आज व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक या जीवन के किसी भी क्षेत्र में अनेकांत की आवश्यकता महनीय अनुभव गम्य है।
___ “सत्यं शिवं सुन्दरम्" का प्रमाणिक उद्घोष यदि संभव है तो वह अनेकांतवाद के द्वारा । सत्य का फूल वहाँ खिलता है जहाँ दूसरों का भी आदर किया जाता है। दूसरों की बात को धैर्यपूर्वक सुनने से सही दिशा मिलती है । एकांत से सत्य का फूल सूख जाता है क्योंकि उसमें समन्वयकारी जल का अभाव है। हठधर्मिता के काँटे हैं रत्नत्रय के काँटों को तप, त्याग, संयम के द्वारा ही सहा जाता है। तभी मोक्षरूपी गुलाबी फूल पाना संभव है । अत: समन्वयवादी व्यक्ति को सहनशील होना चाहिए। आत्मोपलब्धि का सार समयसार है । समयसार का सार अनेकांत दृष्टि में है । अनेकांतमय दृष्टि का सार यथार्थ वस्तु के विवेचन में तथा यथार्थ वस्तु का विवेचन प्रमाणिक आगम सम्मत सप्तभंगमय स्याद्वाद भूषित अनेकांतवाद में है। अनेकांतवाद की सार्थकता का सारांश पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी महाराज समझाया करते थे :
"इस जग की माया विकट, जो न तजोगे मित्र । तो चहुँगति के बीच में, दुख पाओगे चित्र ॥ जो संसार समुद्र से है बचने की चाह ।
भेद ज्ञान नौका लहो, छोड़ो पर की आह ॥" इस विवेचन में मानव मन को अनेक प्रकार से समझाया गया है। इस पर चलने का नाम है समन्वय। समन्वय ही अनेकांतवाद पर्यायवाची है । आत्मवंचना से बचने का मुख्य उपाय अनेकांत को समझना है । स्याद्वद-अनेकांतवाद सप्तभंगीनय ही सुनय शाश्वतनय प्रमाणिक नय का ही निरुपण करने वाली विशिष्ट माया पद्धति है। समन्वय व्यवहार की बोधक सप्तभंगी शैली :
अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद का विस्तृत रूप सप्तभंगी में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । अनेकांत सिद्धांत के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक पदार्थ विरोधी अनेक धर्म युगलों का पिण्ड है। वे वस्तु में एक साथ रह तो सकते हैं किन्तु उन्हें एक साथ कहा नहीं जा सकता। कहने में क्रमबद्धता तथा भाषागत परम्परा चाहिए। उसे आस्ति+नास्ति+अव्यक्तव्य रूप से सात प्रकार भेद कर कहना ही प्रमाणिक
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आगम संबंधी लेख
सप्तभंग की परम्परा है। अनेकांत स्वरूप है। सप्तभंगी का लक्षण इस प्रकार है :“प्रश्न वशादेकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधि प्रतिषेध कल्पना सप्तभंगी'
अर्थात् प्रश्नों के अनुसार वस्तुगत किसी भी एक धर्म में विधि और निषेध की कल्पना करना
सप्तभंगी शैली है । सप्तभंगी शैली के सात भेद हैं :
1. स्यात् अस्ति एव - किसी अपेक्षा से है ।
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स्याद् नास्ति एव - किसी अपेक्षा से नहीं है ।
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स्याद् अस्ति एवं स्यादनास्ति एव- किसी अपेक्षा से है किसी अपेक्षा से नहीं है ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
स्याद् अवक्तव्यमेव - किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है ।
स्याद् अस्ति एव अवक्तव्य एव- किसी अपेक्षा से है ही और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है । स्याद नास्ति एव स्याद अव्यक्तव्य एव - किसी अपेक्षा से नहीं है और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है स्याद् अस्ति एव, स्याद् नास्ति एव स्याद् अवक्तव्य एव - किसी अपेक्षा से है किसी अपेक्षा से नहीं है । किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है ।
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सारांश सप्तभंगी :
ये सातों भंग वक्ता के अभिप्राय अनुसार बनते हैं । वक्ता की विद्वता के अनुसार एक ही वस्तु है भी कही जाती है और नहीं भी, कहा जा सकता है। दोनों का हाँ तथा ना एक मिश्रित कथन है । अतः अनेकांतवाद की शाश्वत कथन शैली में स्याद्वाद तथा अनेकांतवाद का सप्तभंगी प्ररूपण स्वरूप ही जैनागम का सार है। विधि भी वस्तु का धर्म है तथा निषेध भी वस्तु का धर्म है । द्रव्य में अस्तित्व तथा नास्तित्व धर्म है। तभी तो उसका प्ररुपण हो सकता है दोनों धर्म एक साथ हैं।
तीनों का शाश्वत संबंध :
अनेकांतवाद स्याद्वाद तथा सप्तभंगी प्ररूपण इन तीनों का महत्व है । अनेकांत वस्तु हैं । वाच्य हैं। स्याद्वाद उसका व्यवस्थापक है। सप्तभंगी स्याद्वाद का साधन है ।
स्याद्वाद जब अनेकांत रूप वस्तु का कथन करता है तो सप्तभंगी के माध्यम से । इसका सहारा लिए बिना वह उस वस्तु को निरुपण नहीं कर सकता । स्याद्वाद स्याद्वादी वक्ता का वचन है तथा सप्तभंगी कथन शैली है । अनेकांत एक शाश्वत धार्मिक बगीचा है जिसमें रत्नत्रय के फूल खिलते हैं । बारह भावनाओं का चिंतन होता है दर्शन विशुद्धरूपी माली के बिना बगीचे में रक्षा संभव नहीं है । अत: वस्तु का प्रमाणिक अनेकांतात्मक स्याद्वादी सप्तभंगी शैली का ही महान लक्ष्य है । उस तक पहुँचने का प्रयास समन्वय के रास्ते से ही संभव है।
अनेकांतवाद जन्य विशुद्ध स्वरूप :
जैन अनेकांत अथवा स्याद्वाद पदार्थों पर सब ही संभव दृष्टि रखता है। दूसरे के विचारों का आदर करना और उनके प्रति सदैव सहिष्णुता के भाव सिखाता है। यह दार्शनिक को एक ऐसी सार्वभौमिक दृष्टि
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रदान करता है और इसे यह निश्चय करा देता है कि सत्य के ऊपर अपनी - अपनी परिधि में सीमित विभिन्न नामधारी मत मतान्तरों में से किसी का भी एकाधिपत्य नहीं है। अहिंसा जैन धर्म की कुंजी है। क्रोध, मान, माया और लोभजन्य कषाय भावों से परिचित होकर उनसे दूर रहना चाहिए । कायर एवं डरपोक अपने विरोधी को क्षमा नहीं करते। स्याद्वादी वक्ता का अभिप्राय विवक्षित धर्म का कथन करते हुए वस्तु में विद्यमान शेष धर्मों को गौण करने का ही रहता है। उनके निषेध का नहीं। अत: अनेकांतात्मक वस्तु के स्वरूप का स्याद्वाद वाचक और अनेकांत वाच्य है । हमारा लौकिक व्यवहार भी स्याद्वाद की प्रणाली पर निर्भर रहता है। आम को मीठा कहने वाला उसकी पूर्व सभी पर्यायों को भी जानता है । सच तो यह है कि अनेकांत सिद्धांत का अभिप्राय लेकर उसका स्याद्वाद रूप कथन किये बिना लोक व्यवहार भी नहीं चल सकता है । इसकी विशुद्धजन्य व्यापकता का उल्लेख करते हुए आचार्य श्री सिद्धसेन का सन्मति तर्क दृष्टव्य है :
"जेण विद्या लोगस्सवि, ववहारो सव्वठा ण णिव्वाइ।
तस्स भुवनैक गुरुणो णमो अणेगंत वायस्स ॥" तात्पर्य यह है कि - अनेकांत वाणी विश्वतत्व का वास्तविक प्रतिपादक होने से संसार में सबका गुरु है, जिसके बिना लोक का समस्त व्यवहार भी सर्वथा निर्वाह को प्राप्त नहीं होता। मैं उस अनेकांत स्याद्वादगामी वाणी को नमस्कार करता हूँ। भगवान महावीर इस अनेकांत सिद्धांत और उसके वाचक स्याद्वाद की निष्पक्षता एवं असाम्प्रदायिकता की प्रशंसा करते हुए आचार्य हेमचंद्र ने स्याद्वादमंजरी में स्पष्ट कहा है -
"अन्योन्य पक्ष प्रतिपक्ष भावात्, यथा परेमत्सरिणः प्रवादाः ।
नयान शेषान विशेष मिच्छन्, न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥" अर्थात् हे भगवान् ! आपका सिद्धांत (अनेकांत) निष्पक्ष है । इसमें वस्तु में विद्यमान सभी गुणधर्मो को स्वीकार करते हुए उसे स्याद्वाद के द्वारा बिना किसी पक्षपात के प्रतिपादित करता है । वह उन हठाग्रही जनों के समान नहीं है जो पक्ष-विपक्ष का आश्रय लेकर एक दूसरे से मात्सर्य करते हुए विसंवादी बने हुए हैं। यह है अनेकांत का विशुद्ध स्वरूप । यही लोक कल्याण की पावन धारा हम सबका वर्तमान में मार्गदर्शन कर रहा है। सर्वोदर्य तीर्थ का दिग्दर्शक अनेकांत :
आचार्य श्री समंतभद्र महाराज महावीर के इसी अनेकांत सिद्धांत एवं स्याद्वाद को सर्वोदयी तीर्थ कहते हैं :
"सर्वातवत् तदुण मुख्य कल्पं, सर्वात शून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वापदामंत करे निरंतं, सर्वोदयी तीर्थमिदं तवैव ॥"
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अर्थात् - हे भगवान् ! आपका अनेकांतमयी शासन सर्वोदयी तीर्थ है जो वस्तु के सभी गुणों और उसकी सभी विशेषताओं को स्वीकार करते हुए उनमें से एक को मुख्य और शेष को गौण कर स्याद्वाद द्वारा कथन वस्तु के वास्तविक स्वरूप को ग्रहण किये हुए हैं। जबकि वस्तु में विद्यमान अन्य गुणों का निषेध करने वाला एकांतिक निरपेक्ष - कथन सत्य से परे होकर सर्वांश में शून्य हो जाता है । आपकी सर्वोदयी तीर्थरूप वाणी सम्पूर्ण आपत्तियाँ को भी निरस्त कर देती हैं, जो मताग्रहियों के सर्वथा एकांत कथन को निरस्त कर परिपूर्ण विवादों को भी समाप्त कर देती हैं, क्योंकि स्याद्वादी कथन में वस्तु में विद्यमान अनंत गुणधर्मो का अस्तित्व भी अभिव्यक्त होता है। अत: आपका अनेकांत सिद्धांत और उसका स्याद्वादी कथनमयी शासन सचमुच ही सर्वोदयी तीर्थ है।
वैज्ञानिकों की दृष्टि में भी अनेकांत दर्शन पूर्णतया स्वीकृत है, क्योंकि वस्तु में अनेक गुणधर्मों का तथा अव्यक्त विशेषताओं को स्वीकार किये बिना उनके आविष्कार करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता वस्तुत: अनेकांत सिद्धांत और स्याद्वाद प्रणाली का आविष्कार कर भगवान महावीर स्वामी ने हमें सत्य की खोज करने में एक मौलिक एवं उदार दृष्टि प्रदान की है । जिसे विश्वदर्शन कहना अधिक तर्कसंगत प्रतिभासित होता है । धन्य है यह सिद्धांत अनेकांत तथा उसकी लोकोपकारी भावना । डॉ. मंगलदेव शास्त्री का कथन :
"भारतीय दर्शन के इतिहास में जैन दर्शन की एक अनोखी देन अनेकांत है। यह स्पष्ट है कि किसी तत्त्व में कोई भी तात्विक दृष्टि ऐकांतिक नहीं हो सकती । प्रत्येक तत्व में अनेकरूपता स्वाभाविक होनी चाहिए और कोई भी दृष्टि उन सबका एक साथ प्रतिपादन नहीं कर सकती। इसी सिद्धांत को जैन दर्शन की परिभाषा में अनेकांत दर्शन कहा गया है। जैन दर्शन का तो यह आधार स्तम्भ है ही, वास्तव में इसे प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा के लिए भी आवश्यक मानना चाहिए।"
__ "विचार जगत् का अनेकांत दर्शन ही नैतिक जगत् में आकर अहिंसा के व्यापक सिद्धांत का रूप धारण कर लेता है। भारतीय विचारधारा में अहिंसावाद के रूप में अथवा समन्वयात्मक भावना के रूप में भी जैन दर्शन की यह देन है। इसको समझे बिना वास्तव में भारतीय संस्कृति के विकास को नहीं समझा जा सकता।"
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी के दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर श्री फणिभूषण अधिकारी लिखते है :
"जैन धर्म के स्याद्वाद सिद्धांत को जितना गलत समझा जाता है उतना अन्य सिद्धांत को नहीं। यहाँ तक कि श्री शंकराचार्य जी भी इस दोष से मुक्त नहीं है । उन्होंने भी इस सिद्धांत के प्रति अन्याय किया । ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन करने की परवाह नहीं की।" सारांश प्रासंगिक विषय बिन्दु का :वास्तव में स्याद्वाद सहिष्णुता और क्षमा का प्रतीक है । सम्यक्दर्शन और स्याद्वाद के सिद्धांत
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ औद्योगिक पद्धति द्वारा प्रस्तुत की गई जटिल समस्याओं को सुलझाने में अधिक कार्यकारी सिद्ध प्रणाली है। इस प्रकार अनेकांतात्मक स्याद्वाद वस्तु के स्वरूप का वास्तविक कथन करने में ऐसी सिद्ध हस्त परम्परा है जो संकीर्णता के घेरे से हटकर व्यापकता की विशाल परिधि में प्रवेश कराने में अप्रतिम रूप से समर्थ है।
यदि विश्व के मत मतान्तर अपनी संकुचित एकांगी विचारधाराओं को उदार बनाकर अनेकांत और स्याद्वाद की निष्पक्ष और उदार दृष्टि को अपना लें तो साम्प्रदायिकता जन्य विद्वेषों और अनावश्यक विवादों के अंत होने में देर न लगे । विश्वशांति के लिए यह अनिवार्य भी है तथा इसकी महती आवश्यकता है । इस सिद्धांत के प्रतिपादन में सम्यग्दर्शन की महती आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है -
_ "देवाधिदेव चरणे, परिचरणं सर्व दु:ख निर्हरणम् ।
___ काम दुहि काम दाहिनी, परिचिनुया दादृतो नित्यम् ॥"
अर्थात् देवाधिदेव (अरिहंत देव) के चरणों की सेवा सम्पूर्ण दुःखों का विनाश करने वाली है । यह मनोवांक्षित फलों को प्रदान करती है। विषय वासनाओं को भस्म कर देती है। सबसे पहले भगवत वाणी से ही देशनालब्धि को प्राप्त जीव ही अपनी चिरकालीन मोहनिद्रा को भंग कर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में स्वयं सक्षम हो जाता है। निस्पृह होकर वीतराग की आराधना ही अनेकांतवाद जन्य विशुद्धि की पर्यायवाची है। आचार्य वादीभ सिंह सूरि ने अपने क्षत्र चूड़ामणि काव्य में कहा -
"अनेकांती जिन भक्ति: मुक्तयै, क्षुद्रं किं वा न साधयेत् ? "
अर्थात् अनेकांतमयी जिनेन्द्र भक्ति जबकि मुक्ति का साधन है तो क्षुद्र कार्यों की सिद्धि उसके द्वारा क्यों न होगी ? अवश्य होगी। अंत में पू. ज्ञानसागर जी महाराज का जयोदय काव्य में अनेकांतवाद विषयक कथन दृष्टव्य है -
"वीरो दिते समुदितै रिति संवदम । कल्य प्रभाववशत: प्रतिबोधनाम्॥ कल्य प्रभाववशत: प्रति बोधनाम् ।
संप्रापितं च मनु जैश्चतुराश्रमित्व॥" अर्थात् भगवान महावीर के द्वारा समर्पित मत अनेकांतवाद में समुदित - संगठित हुए मनुष्य ने कलिकाल से प्रभावित न होकर, प्रबोध (ज्ञान) को प्राप्त किया । अर्थात् चारों आश्रमों - ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ, और ऋषित्व को प्राप्त कर एकांतवाद को छोड़कर स्वानुभव किया ।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विरागता से मुक्ति
पं. अमृतलाल जैन
प्रतिष्ठाचार्य, दमोह विगत: राग: यस्य स: वीतराग: जिसका राग नष्ट हो गया है वही वीतरागी कहे जाते है इससे भगवान को वीतराग कहते है। उनकी ही अष्ट द्रव्य से पूजा होती है । अन्य देवों की नहीं। भगवन श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है :
भववीजांकुरजलदा: रागाद्या:क्षयमुपागता: यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णु र्वा, हरि जिनो वा नमस्तस्मै ॥ संसार रूपी बीज के अंकुर को पैदा करने वाले मेघों के समान जिनके रागादिक नष्ट हो गये हैं ऐसे जिन को नमस्कार करता हूँ। चाहे ब्रह्मा, विष्णु हरि, जिन कोई भी होवें। रागादिक को ही संसार का कारण माना है जब तक राग रहेगा वीतरागी नहीं बन सकता। "मेरी भावना" में भी यही बात कहीं है :
"जिसने राग द्वेष, कामादिक, जीते सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्ष मार्ग का निष्पृह हो उपदेश दिया।" बुद्ध वीर जिन हरिहर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो।
भक्ति भाव से प्रेरित हो या चित्त उसी में लीन रहो। श्री आदिनाथ से श्री महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों की भक्ति भाव से पूजा अर्चना करते हैं मस्तक झुकाते हैं। मूर्ति तो धातु, पाषाण, सोने, चाँदी,स्फटिक, हीरा, मणि की क्यों न होवें पर अटूट श्रद्धा से मूर्ति में मूर्तिमान देव मानकर पूज्य मानते हैं । भगवान मानते है पूजा करते हैं । कहा भी है :
नास्तिक को मंदिर में पत्थर दिखता है, आस्तिक को भगवान की मूर्ति दिखती है। मगर भक्त को तो साक्षात् भगवान दिखता है।
सदैव मूर्तिमान का दर्शन करता है । जैसे - एकलव्य को मिट्टी की मूर्ति में गुरु दिखते थे इससे सब विद्या सीख ली। उत्तम धनुषवाण में निपुण हो गया था। उसी प्रकार जिन भव्य जीवों ने 'सच्ची श्रद्धा' के साथ वीतराग भगवान की छवि देखकर निज आत्मा में निज का दर्शन किया है एवं अपने “ध्रुव पारिणामिक स्वभाव भाव" का आलम्बन लिया है। वे ही अनंत गुणधारी परमात्मा के समान परमात्मपद को प्राप्त कर लेते थे। मोक्षगामी बन जाते हैं। जो जीवन को जागृत कर दें, उसे जिनदर्शन कहते हैं।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जीवन को जो सार्थक कर दें, उसे महावीर कहते हैं। उसे वीतरागी जिन कहते है। भगवान श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी समयसार में लिखा है गाथा :- रत्तोबंधदि कम्मं मुंचति जीवो विराग संपत्तो।
ऐसो जिणोव देशो, तम्हा कम्मेषु मा रज्जय ॥ रागी जीव कर्मो को बांधता है, राग रहित प्राणी कर्मों को छोड़ता है। कर्म बंध के विषय में जिनेन्द्र भगवान का यही उपदेश है कि कर्मो से राग मत करो। छहढाला में पं. दौलतराम जी ने भी यही कहा है
यह राग आग, दहै सदा तातें समामृत सेइये । यह राग रूपी आग संसारी प्राणियों को सदैव जलाती रहती है । इससे “समताभाव रूपी अमृत" का पान संसारी प्राणियों को ग्रहण करना श्रेयस्कर है।।
राग का कारण सर्वप्रथम "शरीर" से है शरीर में पाँचों इन्द्रियाँ होती है पाँचों इन्द्रियों के जो विषय होते हैं उनसे “राग' होता है । जब इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति नहीं होती है तो द्वेष होता है। तभी क्रोध,मान,माया,लोभ के परिणाम जागृत होते हैं। स्त्री से, संतान से, रिस्तेदारों से, राग की परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाती है। जमीन जायजात, राजपाट, सोना-चाँदी आदि सभी से राग बढ़ता चला जाता हैं। अध्यक्ष पद, मंत्री पद आदिक सभी पदों से राग होता रहता है। इससे सकलज्ञेय ज्ञायक की स्तुति में इसी को पुष्ट किया है।
_ "आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाये" __ सबसे पहले आत्मा के अहित करने वाले पाँचों इन्द्रियों के विषय मुख्य हैं उनकी पूर्ति न होने पर कषाय पैदा होती है। इससे विषय के बाद कषाय को लिखा है। कहा भी है:
"जग में बैरी दोये है एक राग अरूद्वेष ।
इनके ही व्यापार हैं नहीं मिलता संतोष" ॥ तीनों लोकों में रागद्वेष का ही व्यापार चल रहा है । इससे संतोष नहीं मिलता है। विनय पाठ में भी कहा है
"राग सहित - जग में स्लो, मिले सरागी देव ॥" राग से जग में भ्रमण कर रहा है गुरु भी रागी मिले, जिससे दोनों का संसार बढ़ता चला जा रहा है । इस पंचम काल में, इस भौतिक युग में भी राग बढ़ता चला जा रहा है।
शरीर की शोभा के लिए जीवों की हिंसा से बनने वाले लिपिस्टिक पावउर, नेल पालिश आदिक फैशन के बहुत पदार्थो का निर्माण हो रहा है । जो केवल राग की पुष्टि करने वाले होते हैं एवं विषय वासनाओं का राग बढ़ाने वाले टी.वी. आदिक जो चौबीस घण्टे राग रंग में सभी मस्ती कर रहे है पापों का
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आगम संबंधी लेख
चौबीस घण्टे उपार्जन कर रहे है जिससे हिंसा प्रवृत्ति फैल रही है। ऐसे राग से हिंसा होती है ।
श्री अमृतचंद्राचार्य ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ में इसी बात को पुष्ट किया “अप्रादुर्भावः खलुः रागादीनां भवत्य हिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्ति, हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥”
रागादि भावों का प्रगट न होना अहिंसा है, रागादि भावों की उत्पत्ति का होना हिंसा कहा गया है। यही जिनागम का संक्षिप्त रहस्य है ।
आचार्यश्री ने प्रश्न किया कि खुद के रागादिभावों को हिंसा क्यों माना, पर का घात करने को हिंसा कहना चाहिये उसका समाधान है कि राग की तीव्रता के कारण शरीर को ही अपना मान रहा है एवं धन दौलत को भी अपना मान रहा है। अपने स्वरूप को भूल रहा है। इसी मान्यता का नाम मिथ्यात्व है । इसी बात को छहढाला में कहा है :
तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान
रागादिप्रगट ये दुःखदैन,
तिनही को सेवत गिनत चैन ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
शरीर के उत्पन्न होने को अपनी उपज जान रहा है । और शरीर के नाश को अपना मरण मान रहा है। जबकि शरीर में विराजमान आत्मा अनादिनिधन है। जन्म मरण से रहित है उसको भूल रहा है रागादिक दुःखों को देने वाले है। स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है परन्तु रागादिक को करके अपने को सुख चैन मान रहा है । इसी का नाम मिथ्यात्व है एवं स्व आत्मा का घात है इससे महान हिंसा है। मिथ्यात्व के साथ अनंतानुबंधी कषाय का अविनाभावी संबंध है। जो इस जीव को अनंतानुबंधी कर्मो का बंधन कराती रहती है और अनंतकाल तक संसार में भ्रमण कराती रहती है। अनंत दुखों को भोगना पड़ता है। इससे आत्मा के निज स्वभाव का घात होता रहता है। इससे इस जीव को "मोक्ष" नहीं होता है। इससे खुद का राग ही महा हिंसा का कारण होता है पर का घात करना हिंसा सबने ही माना है। उसका निषेध नहीं किया है। आचार्य श्री की दृष्टि निज के राग के ऊपर गई जिसने निज के राग को छोड़ दिया है। उसका पर का राग अपने आप ही छूट जाता है। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। जैसे - मारीच को अपनी प्रसिद्धी करने का महान राग पैदा हो गया था जिससे पितामह श्री " ऋषभदेव" की अहिंसा एवं संयम की अवहेलना करने से मिथ्यात्व का तीव्र उदय आ गया | मनमाने 363 मतों की स्थापना कर दी, जिससे अपने ही गुणों का घात किया जिसका "फल" क्या हुआ । श्री आदिनाथ से लेकर 23 वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ पर्यन्त 42 हजार वर्ष कम 1 कोड़ा सागर तक संसार में नरक गति तिर्यंचगति, पशुगति, वृक्षों की योनियों में जन्म मरण के अनंत दुखों को भोगता रहा। खुद के राग के कारण अपने स्वरूप का घात करता रहा है। यही महान हिंसा करता रहा ।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जब मारीच नाम के जीव ने सिंह पर्याय में स्व की भूल को दूर किया, अन्य पर्यायों में पर पदार्थों से राजपाट स्त्री आदिक सभी का त्याग किया। राग को छोड़ा, मिथ्यात्व का अभाव किया बाल ब्रह्मचारी रहकर निज आत्मा को अपना निज वैभव जाना सम्यक्दर्शन आदिक गुणों को प्रगट किया “वीतरागता" का बाना पहना, तभी उनका कल्याण हुआ।
__ मारीच से महावीर बन गया । यही वीतरागता की देन है । वर्तमान में महावीर स्वामी का शासन काल चल रहा है। श्री आदि नाथ स्वामी से लेकर 23 तीर्थंकरों ने भी वीतरागता प्रगट करके ही मोक्ष प्राप्त किया । इससे वीतरागता से मुक्ति की सिद्धि होती है।
मनुष्य भव में संयम का महत्व
पं. शीतलचंद जैन शास्त्री
मकरोनिया, सागर (म.प्र.) महादुर्लभ है नरभव, संयम का जीवन में बहुत अधिक महत्व है। संयम के बिना एक क्षण भी उपयुक्त नहीं है । संयम जीवन में धर्म की आधारशिला है। यह संयम है क्या इसे जानना आवश्यक है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य (शील) अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का धारण करना, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान - निक्षेपण और उत्सर्ग इन पाँच समितियों का पालन, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकार की कषायों का निग्रह करना, मन वचन काय रूप दण्ड का त्याग, तथा पाँचों इन्द्रियाँ पर विजय प्राप्त करना संयम हैं । इसे ही जीव काण्ड की गाथा नं. 465 में कहा गया है :
वद समिदि कसायाणं, दण्डाण तहि दियाण पंचण्हं
धारण - पालन णिग्गह, चागजओ संयमो मणिओ॥ संयम शब्द सम् पूर्वक यम धातु से बना है। सम का अर्थ है सम्यक् प्रकार और यम का अर्थ है पाप क्रियाओं से उपरम या विरक्त होना । इस प्रकार समस्त पाप क्रियाओं से विरक्त होना संयम है।
सर्वार्थ सिद्धि में “समितिशु वर्त - मानस्य प्राणीन्द्रिय परिहार: संयमः।" समितियों में प्रवृत्ति करने वाले मुनि के लिए जो प्राणियों का और इन्द्रिय विषयों का परिहार होता है वह संयम है।
नाणेण य ज्ञाणेण य, तवोबलेण य बल विरूमणि।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इंद्रिय विषय कषाया,
धरिया तुरगाव व रज्जुहि । (स.सु) ज्ञान ध्यानऔर तपोबल से इन्द्रिय विषयों को बलपूर्वक रोकना चाहिए जैसे कि लगाम के द्वारा घोड़ों को बलपूर्वक रोका जाता है । संयम आवरण के चारों ओर लगायी जाने वाली बाड़ है, एक सीमा है । ............परिधि है ............यदि विद्वता के साथ असंयम है, तो उसका जीवन व्यर्थ है।
भावों की चपलता का कारण योग । मन,वचन, काय की प्रवृत्ति है। इसको संयम ही नियंत्रित कर सकता है। परमार्थ से संयम वही है जहाँ दया है । संयम ब्रेक है । आपसे जितना हो सके, उतना ही पालिये । यदि नहीं होता तो उस पर अश्रद्धा मत कीजिए। कुरल काव्य में कहा है :
संयम के माहात्म्य से मिलता है सुरलोक। और असंयम राजपथ रौरव का बेरोक ॥ संयम की रक्षा करने निधी सम ही श्रीमान,
कारण जीवन में नहीं बढ़कर और निधान । किसी भी नीतिकार ने कहा है :
संयम की आंध से पाषाण पिघल जाता है। प्रेम के गीत से इंसान भी बदल जाता है। संयम सहित प्रेम, यहाँ बांटेगा जो भी,
इन्सान ही नहीं, शैतान भी बदल जाता है। प्राकृत दशलक्षण धर्म की पूजा की जयमाल में भी कहा गया है :
संयम जणि दुल्लहु तं पाविल्लहु जो छंडइ पुणु मूदमई।
सो भमइ भवावलि जर मरणावलि किं पावे सुइपुणु सुगई। यह संयम धर्म लोक में दुर्लभ है। सब कुछ चीजें मिल जाती हैं, पर संयम रूप प्रवृत्ति होना अधिक दुर्लभ है। इस संयम का पालन करना जो छोड़ देते हैं वे मूद बुद्धि वाले है, वे जन्म मरण रूपी संसार के चक्र में भ्रमण करने वाले हैं। वे सुगति को कैसे प्राप्त कर सकते हैं। प्रथम तो सम्यग्ज्ञान होना ही दुर्लभ है और सम्यक्त्व भी मिल जाये तो देवेन्द्र जैसे भी महान आत्मा सम्यग्दृष्टि इस संयम को तरसा करते हैं । जब तीर्थंकर को वैराग्य होने लगा तो लौकांतिक देव आये और सभी देवता आये । जब तीर्थंकर देव वन को जाने की तैयार करने लगे तो इन्द्र ने पालकी सजाई जिस पर बैठाकर तीर्थंकर को वन में ले जाने लगे जब इन्द्र उस पालकी को उठाते हैं तो मनुष्य लोग मना कर देते हैं। तुम पालकी में हाथ नहीं लगा सकते, क्योंकि तुम्हें अधिकार नहीं। दोनों में विवाद छिड़ गया। जब सभी जन समूह में निर्णय हुआ तब इन्द्र ने अपना बयान दिया
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कि हम गर्भ से भगवान की सेवा करते आये, जन्म के समय उत्सव मनाया, सब जगह हमारी मुख्यता रहती है। तो पालकी हम ही उठा सकते हैं । मनुष्य कहते हैं नहीं यह हमारे घर के हैं, हमें छोड़कर जा रहे हैं तो हमारा ही अधिकार है कि हम इन्हें अपने कंधो पर पालकी में रखकर ले जावें दोनों के वार्तालाप को सुनकर निर्णायकों ने निर्णय किया कि भगवान की पालकी वे उठायेंगे, जो भगवान के साथ साथ भगवान जैसा हो सकेंगे। तब इन्द्र माथा झुकाता है , मनुष्यों से भिक्षा मांगता है कि हे मनुष्यों ! हमारे समस्त इन्द्र लोक का वैभव ले लो, पर मुझे पालकी उठाने का अवसर दे दो।
उपुर्यक्त कथन से संयम का अर्थ स्पष्ट हो गया। अब संयम के भेदों पर विचार करते हैं :
संयम के दो भेद हैं (1) द्रव्य संयम (2) भाव संयम | चरणानुयोग के अनुसार निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण कर महाव्रतादि का पालन करना द्रव्य संयम है । संयमघाती प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होने पर आत्मा में जो विरक्ति के भाव उत्पन्न होते हैं उन्हें भाव संयम कहते हैं।
ये दोनों संयम परस्पर सापेक्ष हैं । द्रव्य संयम के बिना भाव संयम नहीं हो सकता है तो भाव संयम के बिना, द्रव्य संयम भी कार्यकारी नहीं होता अर्थात् मात्र द्रव्य संयम से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। संयम के और भी दो भेद बताये है :
(1) उपेक्षा संयम (2) अपहृत संयम।
निर्दोष रीति से तीनों गुप्तियों का पालन करने वाले, शरीर की क्षमता से रहित, तीव्र उपसर्ग के आने पर भी आत्मज्ञान से चलायमान न होने वाले उत्तम संहनन के धारी, वीतरागी साधुजन उपेक्षा संयम के पात्र होते हैं।
अपहृत संयम भी दो प्रकार का है (1) प्राणी संयम (2) इन्द्रिय संयम । प्राणीसंयम के तीन प्रकार हैं(1) उत्तम (2) मध्यम (3) जघन्य । 1. जब साधुजन आहार के लिए, शौच के लिए, या ग्रामान्तर बिहार के लिए गमन करते हैं तब यदि भूमि
पर त्रसस्थावर जीवों का बाहुल्य होता है तो वे उस मार्ग को छोड़कर अन्य प्रासुक मार्ग से गमन करते
हैं इसे उत्तम प्राणी संयम कहते हैं। 2. त्रस आदि जीवों को पिच्छिका से दूरकर गमन करना मध्यम प्राणी संयम है। 3. पिच्छिका के अतिरिक्त किसी मृदु या कठोर उपकरण से मार्ग में स्थित जीवों को हटाकर गमन करना,
जघन्य अपहृत प्राणी संयम कहलाता है। ___ इन्द्रिय अपहृत संयम भी तीन प्रकार का होता है - (1) उत्तम (2) मध्यम (3) जघन्य । (1) जन्मान्तर के प्रबल शुभ संस्कार के कारण इन्द्रिय विषयों की अभिलाषा ही उत्पन्न नहीं होवे उसे उत्तम
अपहृत संयम कहते हैं।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (2) इन्द्रिय विषयों की पूर्ण सामग्री मिलने पर भी इन्द्रिय विषयों के सेवन की इच्छा जागृत न होना मध्यम
अपहृत संयम है। (3) सद्गुरु के उपदेश से इन्द्रिय विषयों से वैराग्य होना, जघन्य अपहृत संयम है। कहा है - "काय छहों प्रतिपाल,' पंचेन्द्रिय मन वश करो।
संयम रतन संभाल, विषय चोर बहु फिरत हैं। संयम के और भी दो भेद है :- (1) निश्चय संयम (2) व्यवहार संयम ।
निजआत्मा पर दयाकर विषय कषायों से एवं विभाव भावों से दूर रहकर आत्मपरिणामों को विशुद्ध रखना निश्चय संयम कहलाता है। पर प्राणियों पर दया के भाव रखना व्यवहार संयम है।
___ अभी तक श्रमणों द्वारा पालन किये जाने वाले संयम धर्म का ही उल्लेख किया गया है। श्रावकों के विषय में पंडित प्रवर आशाधर जी सागार धर्मामृत में इस कारिका के माध्यम से साधक के गुणों का वर्णन करते है :
न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरुन् , सदगी स्त्रिवर्ग भज - न्नन्योन्यानुगुणं तहर्दगृहिणी, स्थानालयो हीमयः। युवताहार विहार आर्य समिति:, प्राज्ञः कृतज्ञो वशी।
श्रृष्वन् धर्मविधि दयालु रधमी: , सागार धर्म चरेत् ॥गा.11 आदर्श गृहस्थ न्यायपूर्वक धन कमाता है, गुणी पुरुषों एवं गुणों का सम्मान करता है, वह प्रशस्त और सत्यवाणी बोलता है, धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थ का परस्पर अविरोध रूप से सेवन करता है। इन पुरुषार्थों के योग्य स्त्री, स्थान, भवनादि को धारण करता है, वह लज्जाशील अनुकूल विहार आहार करने वाला, सदाचार को अपनी जीवन निधि मानने वाले, सत्पुरुषों की संगति करता है, हिताहित के विचार करने में वह तत्पर रहता है, वह कृतज्ञ और जितेन्द्रिय होता है, धर्म की विधि को सदा सुनता है, दया से द्रवित अन्तःकरण होता है, पाप से डरता है इस प्रकार इन चौदह विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्ति आदर्श गृहस्थ या सद्गृहस्थ कहलाता है।
___ कोई व्यक्ति यह सोच सकते हैं कि जीवन एक संग्राम और संघर्ष की स्थिति में है, उसमें न्याय अन्याय की मीमांसा करने वालों में आगे बढ़ना चाहिए।
यह मार्ग के लिए आदर्श नहीं है। यह अपने आचार और व्यवहार द्वारा इस प्रकार के जगत का निर्माण करना चाहता है, जहाँ ईर्ष्या, द्वेष, मोह, दंभ आदि दुष्ट प्रवृत्तियों का प्रसार न हो । सब प्रेम और शान्ति के साथ जीवन ज्योति को विकसित करते हुए निर्वाण की साधना में उद्यत रहें। यह उसकी हार्दिक कामना रहती है। तिर्यचों को भी संयम साधना में तत्पर देख बुधजन जी मनुष्यों को संयम के लिए उत्साहित करते हुये कहते हैं -
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "सुलझे पशु उपदेश सुन, सुलझे क्यों न पुमान।
नाहर तें भये वीर जिन, गज, पारस भगवान ॥" सत्पुरुषों का कथन है, यह मुनष्य जीवन एक महत्वपूर्ण बात है । जहाँ की विशेष विधि संयम है । जिसने इस बाजार में आकर संयम निधि को नहीं लिया, उसने अक्षम्यभूल की।
आचार्य विद्यासागर जी महाराज के अनुसार - आज तक संयम के अभाव में इस संसारी प्राणी ने अनेकों दुःख उठाये है। जो उत्तम संयम को अंगीकार कर लेता है, साक्षात् या परम्परा से मोक्ष अवश्य पा लेता है। आत्मा का विकास संयम के बिना संभव नहीं है । संयम वह सहारा है जिससे आत्मा उर्ध्वगामी होती है। तुष्ट और संतुष्ट होती है। संयम को ग्रहण कर लेने वाले की दृष्टि में इन्द्रिय के विषय हेय मालूम पड़ने लगते हैं। लोग उसके संयमित जीवन को देखकर भले ही कुछ भी कह दें, पागल भी क्यों न कह दें, तो भी वह शान्त भाव से कह देता है कि आपको यदि खाने में सुख मिल रहा है तो मुझे खाने के त्याग में आनंद आ रहा है। मैं क्या करूँ, यह तो अपनी - अपनी दृष्टि की बात है। सम्यग्दृष्टि संयम को सहज स्वीकार करता है। इसलिए यह सब कुछ छोड़कर भी आनंदित होता है।
संयम वह है जिसके द्वारा अनंतकाल से बंधे संस्कार भी समाप्त हो जाते हैं। तीर्थंकर भगवान भी घर में रहकर मुक्ति नहीं पा सकते । वे भी संयम लेने के उपरान्त निर्जरा करके सिद्धत्व को प्राप्त करते हैं । सम्यग्दर्शन का काम इतना ही है कि हमें प्रकाश मिल गया। अब मंजिल पाने के लिए चलना हमें ही है। उद्यम हमें करना है और उस उद्यम में जितनी गति होगी उतनी ही जल्दी मंजिल समीप आ जायेगी।
संयम का एक अर्थ इन्द्रिय और मन पर लगाम भी है , और असंयम का अर्थ है वे लगाम होना । बिना ब्रेक की गाड़ी और बिना लगाम का घोड़ा जैसे अपनी मंजिल पर नहीं पहुँचता, उसी प्रकार असंयम के साथ जीवन बिताने वाले को मंजिल नहीं मिलती । संयम के साथ यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि जीवन में सुगंध आ रही है या नहीं ? जीवन में संयम के साथ सुगंध तभी आती है जब हम संयम को प्रदर्शित नहीं करते बल्कि अंतरंग में प्रकाशित करते हैं। प्राय: करके यही देखने में आता है कि संयम का प्रदर्शन करने वालों के जीवन में खुशबू न देखकर अन्य लोग भी संयम से दूर हटने लग जाते है । उन्हें समझना चाहिए की कागज के बनावटी फूलों से खुशबू आ कैसे सकती है ? संयम प्रदर्शन की या दिखाने की चीज नहीं है। यह मनुष्य जीवन की अनुपम विभूति है। जिसे अन्य पर्यायों में पूर्ण रूप से पाना संभव नहीं है । विषय वासनायें दुर्बल अन्त:करण पर अपना प्रभाव तथा इन्द्रिय और मन को निरंकुश करने में सर्वदा सावधान रहती है। इसलिए चतुर साधक भी मन एवं इन्द्रियों को उत्पथ में प्रवृत्ति करने से बचाने का पूर्ण प्रयत्न किया करता है।
___अपभ्रंश भाषा के रइघु कवि की इस उक्ति की हृदयंगम करना चाहिए - “संयम बिन घडिय मइक्क जाहु।" बिना संयम के आत्म कल्याण कभी भी संभव नहीं। मात्र शास्त्रों को पढकर, गुरुओं का विद्वानों का उपदेश सुनकर आत्मा, परमात्मा नहीं बन सकते। आपकी परमात्मा बनने की प्यास नहीं बुझ पायेगी। आप उत्तम संयम को अपनायेंगे, आत्मा में उतारेंगे, पानी पीयेंगे, तभी प्यास बुझेगी । इसलिए “शुभस्यशीघ्रं" अपने इस अमूल्य जीवन को यथाशक्ति संयमित बनाओ और कल्याण के पथ पर बढो।
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आगमं संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन गृहस्थ के संस्कार
ऋषभकुमार जैन 'ईशुरवारा'
एच-28 शांतिबिहार मकरोनिया, सागर (म.प्र.) संस्कार जीवन की ऐसी पूँजी है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखार कर निर्मल बना देती है और यही निर्मलता उसको निर्निमेष बना देती है।
कुछ संस्कार जीव के साथ अनादि से चले आते हैं और कुछ संस्कार जीव अपनी तत्समय की पर्याय में ग्रहण करता है। जैसे शिशु जब जन्म लेता है तो रोना और माँ का दूख पीना उसे कोई सिखाता नहीं है अपितु अनादि संस्कारों के कारण यह क्रिया वह स्वयं करने लग जाता है। दूसरा संस्कार वह है कि शेर का बच्चा पैदा होते ही माँ का दूध पीता है और माँस खाने के संस्कार उसे बाद में दिये जाते हैं।
___ एक उदाहरण से हम संस्कारों के महत्व को समझ सकते हैं । एक राजा ने घोड़े के पारखी के द्वारा मना करने पर भी एक घोड़ा खरीदा और सवारी करके चलकर देखा । घोड़ा थोड़ी दूर जाकर एक नदी मिलने पर उसमें बैठ गया और बहुत देर बाद उठा तब राजा ने घोड़े के मालिक से पूछा कि यह घोड़ा पानी में क्यों बैठ जाता है तो मालिक ने बताया कि इसकी माँ इसके पैदा होते ही मर गई थी इसे भैंस का दूध पिलाकर बड़ा किया है अत: भैंस के दूध के संस्कार इसमें हैं कि यह पानी को देखकर उसमें बैठ जाता है।
__इस हृदय स्पर्शी उदाहरण से हमें सम्पूर्ण जीवन को संवारने की शिक्षा मिलती है। हमारा खान-पान, आसपास का वातावरण, संगति, आवासीय भवन, वस्त्र एवं प्राकृतिक परिवेश भी हमारे जीवन को प्रभावित करता है हमारा दायित्व है कि हम ऐसे खान-पान संगति और वातावरण से सदा दूर रहें जो हमारे जीवन को कलंकित कर दें।
हमारे आचार्यों ने इस मनुष्य जीवन को बड़ा ही महत्वपूर्ण और दुर्लभ बताया है ।इसको गर्भ से लेकर मृत्यु तक संस्कारित करने की आवश्यकता पड़ती है ।जिनसेन आचार्य ने आदि पुराण में गर्भाधान से मृत्यु तक संस्कारित करने की कला बताई है।
जीवन को संस्कारित करने की गर्भान्वय दीक्षान्वय क्रिया एवं कर्तव्य क्रिया आचार्यो द्वारा बनाई गई है। गर्भान्वय क्रियाएँ, तिरेपन हैं ,दीक्षान्वय क्रियाएँ अड़तालीस हैं एवं कर्तव्य क्रिया सात प्रकार की है। जीवन को संस्कारित करने के लिए एवं सर्वसाधारण की जानकारी के लिए सभी क्रियाओं का संक्षेप में विवरण दिया जाना प्रासंगिक होगा। गर्भान्वय क्रियाएँ :
आधान क्रिया - चौथे स्नान के शुद्ध होने के बाद स्त्री को आगे करके गर्भाधान के पहले अर्हन्तदेव की पूजा के द्वारा मन्त्र पूर्वक जो संस्कार किया जाता है उसे आधान क्रिया कहते हैं । स्त्री पुरुष को विषयों की आशा छोड़कर केवल संतान उत्पन्न करने की भावना से समागम करना चाहिए।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रीति क्रिया -गर्भधारण के तीसरे माह में जिनेन्द्र भगवान की पूजा करना दरवाजे पर तोरण बांधना एवं दो पूर्ण कलश स्थापन करना चाहिए। तथा उस दिन से प्रतिदिन उसकी शक्ति अनुसार घण्टा और नगाड़े बजवाना चाहिए । यह प्रीति क्रिया है।
सुप्रीति क्रिया - पाँचवे माह में पूर्व की तरह अर्हन्त भगवान की पूजा करना चाहिए। घृति क्रिया - गर्भ से सातवें माह में पूर्ववत भगवान की प्रतिमा की पूजा करना चाहिए।
मोद क्रिया - नवमें माह के निकटपूर्व की तरह पूजन आदि करके गर्भ की पुष्टि के लिए गर्भिणी के शरीर पर गात्रिका बंध अर्थात् बीजाक्षर मंत्र पूर्वक लिखना चाहिए।रक्षा के लिए करूणासूत्र बांधना, मंगलमय आभूषण पहनना चाहिए।
प्रियोद्भव क्रिया - इसको जात कर्म क्रिया भी कहते हैं जिनेन्द्र भगवान का स्मरण कर विधिपूर्वक करना चाहिये यह प्रियोद्भव क्रिया है।
नामकर्म क्रिया - जन्म के बारह दिन बाद जो दिन माता - पिता पुत्र को अनुकूल हो उस दिन नाम कर्म की क्रिया की जानी चाहिए। अपने वैभव के अनुसार अर्हत भगवान की पूजा आचार्य एवं उपाध्याय साधु परमेष्ठी की पूजा आराधना करके जो कुल परम्परा को बढ़ाने वाला हो ऐसा नाम बालक का रखना चाहिए । अथवा भगवान के एक हजार नामों के समूह से घटपत्र की विधि से कोई एक शुभ नाम ग्रहण करना चाहिए।
बहिर्यान क्रिया - जन्म के दो - तीन या तीन - चार माह के बाद किसी शुभ दिन बाजों के साथ माता अथवा निकटतम परिवार की सधवा महिला बालक को गोद में लेकर प्रसूति स्थान से घर के बाहर ले जावे इस क्रिया के समय परिवार वालों को बालक को पारितोषक भेंट रूप में देना चाहिए।
निषद्या क्रिया - इस क्रिया में सिद्ध भगवान की पूजा करना एवं मंगलप्रद रखे हुए बालक से योग्य विधायें हुए आसन पर बालक को बिठाना चाहिए। ऐसी भावना भानी चाहिए कि बालक को उत्तरोत्तर दिव्य आसन पर बैठने की योग्यता होती रहे।
अन्य प्राशन क्रिया - जन्म से जब सात आठ माह हो जाये तब अहंत भगवान की पूजा करके बालक को अन्न खिलाना चाहिए।
व्युष्ठि क्रिया - एक वर्ष पूर्ण होने पर पूजन आदि करके दान देना चाहिए इष्ट बंधुओं को भोजन कराना चाहिए । इसको वर्ष वर्धन क्रिया भी कहते हैं।
केशवाप क्रिया - शुभ दिन शुभ मुहूर्त में देव और गुरु की पूजा करके वालों को गंदोदक से गीला करके पूजा के बचे हुए शेषाक्षत सिर पर रखे और फिर अपनी कुल पद्धति अनुसार मुण्डन करायें। इसको चौल क्रिया भी कहते है।
लिपि संख्यान क्रिया - पाँचवे वर्ष में बालक को अपने वैभव के अनुसार पूजा आदि करके अध्ययन कराने में कुशल वृति ग्रहस्थ को अध्यापक के पद पर नियुक्त करना चाहिए।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उपनीति क्रिया - गर्भ से आठवे वर्ष में केशों का मुण्डन व्रत बंधन मौजी बंधन क्रिया करनी चाहिए। मंदिर में पूजन आदि करके येज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करना चाहिए ।
व्रतचर्चा क्रिया - ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करके यथा योग्य व्रतों को ग्रहण करके श्रृंगार आदि त्याग करके समस्त विधाओं का अध्ययन करना चाहिए। सबसे पहले श्रावकाचार पढ़ना चाहिए ।
व्रतावतरण क्रिया- गुरु की साक्षीपूर्वक भगवान की पूजन कर बारह या सोलह वर्ष के बाद जो विशेष व्रत अध्ययन के समय किये थे उनको परित्याग कर देना चाहिए अष्ठ मूल गुण आदि सामान्य व्रतों को बालक को करते रहना चाहिए।
विवाह क्रिया - सिद्ध भगवान की प्रतिमा की पूजा करके उसके सामने बड़ी विभूति के साथ योग्य में उत्पन्न हुई कन्या के साथ विवाह करना चाहिए। सात दिन तक ब्रह्मचर्य से रहकर तीर्थ क्षेत्रों पर बिहार करके भोगोपभोग साधनों से सुशोभित शय्या पर संतान उत्पन्न करने की इच्छा से ऋतुकाल में काम सेवन करना चाहिए ।
वर्ण लाभ क्रिया - विवाह होने के पश्चात् पिता की आज्ञा से जिसे धन धान्य संपदा मिल चुकी है। और मकान भी अलग मिल चुका है। ऐसी स्वतंत्र आजीविका करने लगने को वर्ण लाभ क्रिया कहते हैं। इसमें सिद्ध भगवान की पूजा के पश्चात् मुख्य श्रावकों के समक्ष पिता अपने पुत्र को धन देवे और कहे कि धर्म का पालन करते हुए तुम पृथक से रहो ।
कुलचर्या क्रिया- निर्दोष रूप से आजीविका करना तथा आर्य पुरुषों के करने योग्य देव पूजा आदि छह कार्य करना ही कुल चर्या कहलाती है।
ग्रहीशिता क्रिया - जो दूसरे गृहस्थों में न पायी जाये ऐसी शुभ, वृत्ति, क्रिया, मंत्र विवाह ज्ञान आदि अनेक क्रियाओं से अपने आपको उन्नत करता हुआ गृहस्थों का स्वामी बनने योग्य हो ।
प्रशान्ति क्रिया- अपने समर्थ और योग्य पुत्र को गृहस्थी का भार सौंपकर आप स्वयं उत्तम शािं का आश्रय लें और स्वाध्याय, व्रत, उपवास आदि में मन को लगायें ।
ग्रह त्याग क्रिया - सिद्ध भगवान की पूजन आदि करके सभूशन इष्ट जनों को बुलाकर उनकी साक्षी पूर्वक पुत्र पुत्रियों के लिए सब कुछ सौंपकर ग्रह त्याग कर देना चाहिए। और ज्येष्ठ पुत्र को बुलाकर इस प्रकार कहना चाहिए कि पुत्र तुम्हारे लिए यह आदेश है कि हमारे बाद यह कुल क्रम तुम्हारे द्वारा पालन करने योग्य है। मैंने धन के तीन भाग किये हैं उनका तुम्हें एक भाग धर्म कार्य में खर्च करना चाहिए दूसरा भाग अपने घर खर्च के लिए और तीसरा भाग भाईयों में बाँटना चाहिए । पुत्र के समान पुत्रियों को भी समान भाग देना चाहिए ।
दीक्षाद्य क्रिया - जो घर को छोड़कर सम्यग्दृष्टि है, प्रशांत है ग्रहस्थों का स्वामी है एक वस्त्र धारण क्रिया है उसके दीक्षा ग्रहण के करने के पहले जो कुछ आचरण किये जाते हैं, उन आचरणों के समूह को क्रिया कहते हैं
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जिन रम्यता क्रिया - वस्त्र आदि सब परिग्रह छोड़कर जिन दीक्षा को प्राप्त करना दिगम्बर रूप धारण करना चाहिए ।
मौन अध्ययन वृत्तित्व क्रिया - दीक्षा ग्रहण करके उपवास किया है और जो पारणा विधि में आहार लेना चाहिए । फिर मौन लेकर अपने गुरु के पास समस्त शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए ।
तीर्थ कृद्भावना क्रिया - समस्त श्रुत ज्ञान का अभ्यास करने के बाद तीर्थंकर पद की भावनाओं का अभ्यास करना चाहिए। सम्यग्दर्शन की विशुद्धि रखना चाहिए सोलह कारण भावनाएँ भानी चाहिए। गुरु स्थानाम्युपगम क्रिया - समस्त विधायें जिसने जान ली हैं जिसने अपने अंत:करण को वश में कर लिया ऐसे साधु का गुरु के अनुग्रह से गुरु का स्थान स्वीकार करना शास्त्र सम्मत है।
गोपग्रहण क्रिया - जो सदाचार का पालन करता है समस्त मुनि संघ के पोषण करने में जो तत्पर रहता है उसको गणोग्रहण क्रिया कहते हैं। आचार्य को चाहिए वह मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविकाओं को समीचीन मार्ग में लगाता हुआ अच्छी तरह संघ का पोषण करें ।
स्व गुरु स्थान संक्रान्ति क्रिया जिसने समस्त विधायें पढ़ ली हैं और उन विधाओं को जानकार उत्तम मुनि जिसका आदर करने योग्य ऐसे शिष्य को बुलाकर उसके लिए अपना भार सौंप दें । निःसङ्गत्वात्म भावना क्रिया - सुयोग्य शिष्य पर समस्त भार सौंपकर ऐसा साधु अकेला बिहार करता हुआ मेरी आत्मा सब प्रकार के परिग्रह से रहित है इस प्रकार की भावना करें । वृत्ति समस्त परिग्रह से रहित है अकेला ही बिहार करता है महा तपस्वी है अपनी आत्मा के सिवा किसी की भी चिंता नहीं करता है । निर्ममत्व भावना में एकाग्र बुद्धि लगाकर चारित्र शुद्धि की धारणा करना चाहिए ।
योग निर्वाण संप्राप्ति क्रिया - सल्लेखना योग्य आचरण करके संवेग पूर्वक ध्यान करना परम तप को धारण करना योग निर्वाण संप्राप्ति है। साधु को संसार के अन्य पदार्थों का चिंतन न करके एक मोक्ष का ही चिंतन करना चाहिए ।
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योग निर्वाण साधन क्रिया - समस्त आहार और शरीर को छोड़ता हुआ योगीराज को योग निर्वाण साधन के लिए उद्यत होना चाहिए ।
इन्द्रोपपाद क्रिया मन, वचन, काय को स्थिर कर जिसने प्राणों का परित्याग किया है ऐसा साधु पुण्य के आगे आगे चलने पर 'इन्द्रोपपाद ' क्रिया को प्राप्त होता है।
इन्द्राभिषेक क्रिया - उपपाद शय्या पर क्षण भर में पूर्ण यौवन हो जाता है पर्याप्तक होते ही जिसे अपने जन्म का ज्ञान हो गया है ऐसे इन्द्र का फिर उत्तम देव लोग इन्द्राभिषेक करते हैं ।
विधि दान क्रिया- नम्रीभूत हुए इन उत्तम उत्तम देवों को अपने - अपने पद पर नियुक्त करता हुआ वह इन्द्र विधिदान क्रिया में प्रवृत्त होता है ।
सुखोदय क्रिया - देवों से घिरा हुआ इन्द्र चिरकाल तक देवों के सुखों का अनुभव करता है।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इन क्रियाओं से संस्कारित जीवन मनुष्य को इन्द्र पद तक पहुँचा देता है। गर्भान्वय की शेष सत्रह क्रियाएँ इन्द्र के सुख भोगने के बाद वह जीवात्मा पुन: उत्तम क्षेत्र उत्तम कुल में जन्म लेकर तीर्थंकर पद पाता है इन क्रियाओं का प्रत्यक्ष रूप से इस भव से कोई संबंध नहीं, इन्द्र पद के वाद पुन: दूसरे भव से इन क्रियाओं को क्रियान्वयन करना होता है । अत: इन सत्रह क्रियाओं के केवल नाम यहाँ दिये जा रहे हैं।
(37) इन्द्र त्याग, (38) अवतार, (38) हिरण्योत्कृष्ट जन्यता , (39)मन्दरेन्द्राभिषेक, (41) गुरुपूजोपलम्भन, (42) यौवराज, (43) स्वराज्य, (44) चक्रलाभ, (45) दिग्विजय, (46) चक्राभिषेक, (47) साम्राज्य, (48)निष्क्रान्ति (49) योगसन्यास, (50) आर्हन्त्य, (51) तद्विहार (52) योगत्याग, (53) अग्रनिवृत्ति
इस तरह गर्भान्वय क्रियाएँ पूर्ण हुई इन क्रियाओं के विवेचन से जीवन को कितना और कहाँ - कहाँ संस्कारित करना पड़ता है तब यह आत्मा मोक्ष को प्राप्त होती है।
दीक्षान्वय क्रियाएँ - गर्भान्वय क्रियाओं के बाद दीक्षान्वय क्रियाओं को स्पष्ट करते हैं। ये क्रियाएँ 48 होती है जिनके नाम इस प्रकार है -
(1) अवतार, (2)व्रतलाभ, (3) स्थान लाभ, (4) गणग्रह, (5) पूजाराध्य, (6)पुण्ययज्ञ, (7) ब्रह्मचर्या, (8) उपयोगिता। शेष 50 क्रियाएँ गर्भान्वय क्रियाओं के समान उपनीति नाम की चौदहवीं क्रिया से तिरेपनवीं निर्वाण क्रिया तक यथावत है। कन्वय क्रियाएँ -
___(1) सज्जाति, (2) सद्गृहित्व, (3) पारिव्राज्य, (4) सुरेन्द्रता, (5) साम्राज्य, (6) परमार्हन्त्य, (7) परम निर्वाण
ये सातों स्थान तीनों लोकों में उत्कृष्ट माने गये हैं। इन सातों का अर्थ शब्दों के अनुसार ही समझना चाहिए। विवाह के समय जो सात भांवरे (प्रदिक्षणा) वर वधु करते है वह इन सात परम स्थानों का ही प्रतीक है। छ: फेरे में कन्या आगे हुआ करती है। और सातवें फेरे में वर आगे हुआ करता है, इसका बड़ा गूढ रहस्य है कि ऐसा क्यों होता है। जयोदय महाकाव्य में जयकुमार और सुलोचना के विवाह के प्रकरण में महाकवि ब्र. भूरामल जी (बाद में आचार्य ज्ञानसागर जी) ने अपना मौलिक चिंतन दिया है कि ऐसा इसलिए होता है कि इन सात परम स्थानों में सातवाँ परम निर्वाण (मोक्ष) पद की प्राप्ति का साक्षात अधिकार उसी भव से पुरुष को ही है स्त्री को नहीं। छ: स्थान तो स्त्री और पुरुष दोनों को प्राप्त हो सकते हैं परन्तु सातवाँ स्थान पुरुष को प्राप्त होता है इससे वर आगे और कन्या पीछे होती है।
इस तरह उपरोक्त क्रियाओं से अपने जीवन को संस्कारित करके परम निर्वाण पद की प्राप्ति करने का प्रयास हम स्वयं करें और सभी करें बस इसी भावना से इस लेख को लिखने का अल्प बुद्धि से प्रयास किया है इससे कोई त्रुटि हो तो विज्ञजन सुधारकर जीवन को संस्कारित करें।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पर से भिन्न आत्मदृष्टि
महेन्द्र कुमार "आयुर्वेदाचार्य"
आचार्य श्री विद्यासागर औषधालय संसार में दो जाति के पदार्थ हैं - चेतन और अचेतन । अचेतन के पाँच भेद हैं - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । चार पदार्थो को छोड़कर जीव और पुद्गल यह दो पदार्थ प्रायः सबके ज्ञान में आ रहे हैं। जीव नामक जो पदार्थ है वह प्राय: सभी के प्रत्यक्ष है, स्वानुभव गम्य है । सुख-दुःख का जो प्रत्यक्ष होता है वह जिसे होता है वही आत्मा है । मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, यह प्रतीति जिसे होती है वही आत्मा है । जो रूप, रस, गंध और स्पर्श इन्द्रिय के द्वारा जाना जाता है वह रूपादि गुण वाला है उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं। इन दोनों द्रव्यों की परस्पर में जो व्यवस्था होती है उसी का नाम संसार है । इसी संसार में यह जीव चतुर्गति संबंधी दुखों को भोगता हुआ काल व्यतीत करता है।
परमार्थ से जीव द्रव्य स्वतंत्र है और पुद्गल स्वतंत्र है - दोनों की परिणति भी स्वतंत्र है । परन्तु यह जीव अज्ञानवश अनादिकाल से पुद्गल को अपना मान अनंत संसार का पात्र हो रहा है। आत्मा में देखनेजानने की शक्ति है परन्तु यह जीव उस शक्ति का यथार्थ उपयोग नहीं करता अर्थात् पुद्गल को अपना मानता है, अनात्मीय शरीर को आत्मा मानकर उसकी रक्षा के लिए जो जो यत्न किया करता है वे यत्न प्राय: संसारी जीवों के अनुभवगम्य होते हैं। इसलिए परमार्थ से देखा जाये तो कोई किसी का नहीं। इससे ममता त्यागो। ममता का त्याग तभी होगा जब इसे पहले अनात्मीय जानोगे। जब इसे पर समझोगे तब स्वयमेव इससे ममता छूट जायेगी। इससे ममता छोड़ना ही संसार दुःख के नाश का मूल कारण है। परन्तु इसे अनात्मीय समझना ही कठिन है। कहने में तो इतना सरल है कि “आत्मा भिन्न है शरीर भिन्न है।" आत्मा ज्ञाता दृष्टा है। शरीर रूप रस गंध स्पर्शवाला है। जब आत्मा का शरीर से संबंध छूट जाता है तब शरीर में कोई चेष्टा नहीं होती। परन्तु भीतर बोध हो जाना कठिन है । अत: सर्वप्रथम अनात्मीय पदार्थो से अपने को भिन्न जानने के लिए तत्त्व ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। आत्म ज्ञान हुए बिना मोक्ष का पथिक होना कठिन है, कठिन क्या असंभव ही है अत: अपने स्वरूप को पहचानो । तथा अपने स्वरूप को जानकर उसमें स्थिर हो ओ । यही संसार से पार होने का मार्ग है।
"सबसे उत्तम कार्य दया है। जो मानव अपनी दया नहीं करता वह पर की भी दया नहीं कर सकता। परमार्थ दृष्टि से जो मनुष्य अपनी दया करता है वही पर की दया कर सकता है।"
"इसी तरह तुम्हारी जो यह कल्पना है कि हमने उसको सुखी कर, दिया दुःखी कर दिया । इनको बांधाता हूँ, इनको छुड़ाता हूँ, वह सब मिथ्या है। क्योंकि यह भाव का व्यापार पर में नहीं होता |जैसे आकाश के फूल नहीं होते वैसे ही तुम्हारी कल्पना मिथ्या है। सिद्धांत तो यह है कि अध्यवसान के निमित्त से बंधते हैं
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ और जो मोक्ष मार्ग में स्थित हैं वे छूटते है (तुमने क्या किया ? यथा तुमने क्या यह अध्यवसान किया कि इसको बंधन में डालूँ और इसको बंधन से छुड़ा दूँ ? नहीं, अपितु यहाँ पर - “एनं बन्धयामि'' इस क्रिया का विषय तो “इस जीव को बंधन में डालूँ"और एवं मोचयामि" इसका विषय - "इस जीव को बंधन से मुक्त करा दूं" यह है । और उन जीवों ने यह भाव नहीं किये तब वह जीव न तो बंधे और न छूटे । तुमने वह अध्यवसान नहीं किया, अपितु उन जीवों में एक ने सराग परिणाम किये और एक ने वीतराग परिणाम किये तो एक तो बंध अवस्था को प्राप्त हुआ, और एक छूट गया अत: यह सिद्ध हुआ कि पर में अकिंचित्कर होने से यह अध्यवसान भाव स्वार्थ क्रियाकारी नहीं। इसका ताप्पर्य यह है कि हम अन्य पदार्थ का न तो बुरा कर सकते हैं और न भला कर सकते हैं ! हमारी अनादि काल से जो यह बुद्धि है कि “वह हमारा भला करता हैं, वह बुरा करता है, हम पराया भला करते हैं, हम पराया बुरा करते हैं, स्त्री पुत्रादि नरक ले जाने वाले हैं, भगवान स्वर्ग मोक्ष देने वाले हैं।" यह सब विकल्प छोड़ो।अपना शुभ जो परिणाम होगा, वही स्वर्ग ले जाने वाला है।और जो अपना अशुभ परिणाम होगा वही नरकादि गतियों में ले जाने वाला है। परिणाम में वह पदार्थ विषय पढ़ जावे, यह अन्य बात है। जैसे ज्ञान में ज्ञेय आया इसका यह अर्थ नहीं किया। ज्ञेय ने ज्ञान उत्पन्न कर दिया। ज्ञान ज्ञेय का जो संबंध है उसे कौन रोक सकता है ? तात्पर्य यह कि पर पदार्थ के प्रति रागद्वेष करने का जो मिथ्या अभिप्राय हो रहा है उसे त्यागो। अनायास निजमार्ग का लाभ हो जावेगा। त्यागना क्या अपने हाथ की बात है ? नहीं, अपने ही परिणामों से सभी कार्य होते हैं।
जब यह जीव स्वकीय भाव के प्रतिपक्षी भूत रागादि अध्यवसाय के द्वारा मोहित होता हुआ सम्पूर्ण पर द्रव्यों को आत्मा में नियोग करता है तब उदयागत नरकगति आदि कर्म के वश, नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव, पाप, पुण्य जो कर्म जनित भाव हैं उन रूप अपनी आत्मा को करता है। अर्थात् निर्विकार जो परमात्मतत्व है उसके ज्ञान से भ्रष्ट होता हुआ मैं नारकी हूँ, मैं देव हूँ इत्यादि रूप कर उदय में आये हुए कर्मजनित विभाव परिणामों की आत्मा में योजना करता है । इसी तरह धर्माधर्मास्तिकाय, जीव, अजीव, लोक, अलोक ज्ञेय पदार्थो को अध्यवसान के द्वारा उनकी परिच्छिति विकल्प रूप आत्मा को व्यपदेश करता है।
__ "जैसे घटाकार ज्ञान को घट ऐसा व्यपदेश करते हैं वैसे ही धर्मास्तिकाय विषयक ज्ञान को भी धर्मास्तिकाय कहना असंगत नहीं कहने का तात्पर्य यह है कि जब यह आत्मा पर पदार्थो को अपना लेता है तब यदि उनको आत्म स्वरूप- निज मान ले तब इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ? स्फटिकमणि स्वच्छ होता है और स्वयं लालिमा आदि रूप परिणमन नहीं करता है किन्तु जब उसमें रक्तस्वरूप परिणत जपापुष्प का संबंध हो जाता है तब वह उसके निमित्त से लालिमादि रंगरूप परिणत हो जाता है । निमित्त के अभाव में वह स्वयं सहजरूप हो जाता है । इसी तरह आत्मा स्वभाव से रागादि रूप नहीं है परन्तु रागादि कर्म की प्रकृति जब उदय में आती है उस काल में उसके निमित्त को पाकर यह रागादि रूप परिणमन कर जाता है।
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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इसका स्वभाव भी रागादि नहीं है क्योंकि वे नैमित्तिक भाव हैं। परन्तु फिर भी आत्मा में होते है। जब निमित्त नहीं होता तब परिणमन नहीं करता । यहाँ पर आत्मा, चेतन पदार्थ है यह निमित्त को दूर करने की चेष्टा नहीं करता, किन्तु आत्मा में जो रागादिक हैं उन्हीं को दूर करने का उद्योग करता है और यह कर भी सकता है क्योंकि यह सिद्धांत है - "अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य कुछ नहीं कर सकता। अपने में जो रागादिक हैं वे अपने ही अस्तित्व में हैं, आप ही उसका उपादान कारण है ।जिस दिन हास करना चाहेगा उसी दिन से उनका हास होने लगेगा !" उन रागादिक का मूल कारण मिथ्यात्व है जो सभी कर्मो को स्थिति अनुभाग देता है। उसके अभाव में शेष कर्म रहते हैं। परन्तु उनको बल देने वाला मिथ्यात्व जाने से वे सेनापति विहीन की तरह हो जाते हैं।यद्यपि सेना में स्वयं शक्ति है, परन्तु वह शक्ति उत्साहहीन होने से शूर की शूरता की तरह अप्रयोजक होती रहती है। इसी तरह मोह कर्म के बिना शेष सात कर्म अपने कार्यो में प्रवृत्त नहीं होते । क्योकि सेनापति जो मोह था उसका अभाव हो गया ।उस कर्म का नाश करने वाला यही जीव है जो पहले स्वयं चतुर्गति भवावर्त में गोता लगाता था। आज स्वयं अपनी शक्ति का विकास कर अनंत सुखामृत का पात्र हो जाता है ।जब ऐसी वस्तु मर्यादा है तब आप भी जीव हैं यदि चाहें तो इस संसार का नाश कर अनंतसुख के पात्र हो सकते है।
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खण्ड-पंचम
परस्परोपग्रहोजीवानाम्
बीसवीं सदी के दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वीसवीं सदी के दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
नाम
पिता
सन्
श्री पं. भगवानदास जी भाईजी शाहपुर का संक्षिप्त जीवन परिचय
ब्र. किरण जैन वर्णी भवन मोराजी सागर (म.प्र.) : पं भगवानदास भायजी
श्री कालू राम जी भायजी जन्मस्थान
शाहपुर (मगरोन), जिला-सागर (म.प्र.)
1877 समाधिमरण
अगहनवदी 14 संवत 2023 सन् 1966 उपाधि
अध्यात्मवेता, संगीतरत्न प्रारंभिक शिक्षा : प्राईमरी शासकीय हिन्दी शाला शाहपुर आत्मज
उनके पाँच पुत्र थे। 1. स्व. पं. माणिकचंद्र जी न्याय काव्य तीर्थं सागर मोराजी प्राध्यापक 2. स्व. पं श्रुतसागर जी जैन प्राचीन न्यायकाव्यतीर्थ कटनी, प्राध्यापक 3. डॉ. पं. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य जी प्राचार्य मोराजी, सागर 4. स्व. पं. धर्म चंद्र जी शास्त्री संगीतज्ञ अध्यापक शाहपुर
5. पं. अमरचंद्र जी प्रतिष्ठाचार्य शाहपुर व्यक्तित्व एवं संगीतत्व 1. पूर्व पुण्य कर्म के उदय से आपको स्वाध्याय की स्वयं रूचि उत्पन्न हुई। मंदिर में अथवा निवासग्रह
में सतत शास्त्र स्वाध्याय के माध्यम से धार्मिक ज्ञान स्वयं अर्जन किया। परम पू. वर्णी गणेश प्रसाद जी न्यायाचार्य के समागम से भाईजी का स्वाध्याय और बढ़ गया, आप 24 घण्टों में 11 घण्टे स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि करने में पुरुषार्थ करने लगे। उनके ज्ञान का बहुमान पूज्य वर्णी जी महाराज करते थे जबलपुर में वर्णी जी ने सप्तम प्रतिमा तक के व्रतपालन करने की दीक्षा प्रदान की। उस समय से आपका आध्यात्मिक ज्ञान बढ़ता गया। जैन मंदिर में आप प्रात: और रात्रि को एक - एक घण्टा समाज में प्रवचन करने लगे। सन् 1945 में शाहपुर में वर्णी जी के सद् उपदेश से श्री पुष्पदंत दि. जैन विद्यालय का उद्घाटन किया गया । आप निस्वार्थ उसमें कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य करते रहे । मंदिर में 20 वर्ष की अवस्था से प्राय: 50 वर्ष तक शास्त्र प्रवचन किया। इसके बाद पं. अमरचंद्र जी ने शास्त्र प्रवचन की परम्परा को निस्वार्थ संचालित किया।
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
संगीत शिक्षा :- स्थानीय जैन तथा जैनेतर समाज में संगीतज्ञ विद्वान रहते थे स्वयं संगीत में रूचि होने से संगीतज्ञों की संगति में रहकर आपने अधिकांश रात्रि के समय ग्राम के बाहर अपने खेत की संगीत का अभ्यास किया। संगीत में राग- रागिनी, स्वर और ध्वनियों का 24 घण्टों के समय के अनुसार अभ्यास किया। इनके गुरु भी राग - रागिनी के भजन प्रतिदिन याद करने हेतु दिया करते थे। संगीत दिन की अपेक्षा रात्रि में कुटिया में अधिक अभ्यासार्थ चलता था । आपको 24 घण्टों में समयानुसार राग-रागिनी और ध्वनि के अनुसार स्वर लय के साथ गानों का अभ्यास अच्छा हो गया था इस तरह पक्के गाने भी गाने लगे । आपकी गान “समय लय" के अनुसार ध्वनि निकालने में हार्मोनियम, तबला, सारंगी वाले भी चकरा जाते थे । भाईजी महोदय ने अनेक जैन युवकों के लिए हार्मोनियम और तबला बजाने के साथ नृत्य कला की भी शिक्षा प्रदान की थी। इस तरह शाहपुर में संगीत (गाना, बजाना, नृत्य) की परम्परा चलती रही ।
3.
4.
सन् 1950 में आप जाबरा नगर (रतलाम म. प्र. ) पंचकल्याणक महोत्सव में श्री सरसेठ हुकमचंद जी की अध्यक्षता के अवसर पर संगीत प्रतियोगिता में सबसे प्रथम पारितोषिक के साथ संगीत रत्न की उपाधि प्राप्त करने का भाईजी ने सौभाग्य प्राप्त किया था भाई जी ने ।
5.
आपको हार्मोनियम और तबला बजाने की दक्षता के साथ ही 24 घण्टों के पृथक-पृथक चौबीस राग-रागिनी में पक्के गाना गाने का अनुभव था इसीलिए आप प्राकृत भाषा के णमोकार ( नमस्कार ) मंत्र को सौ से भी अधिक स्वर लहरों में गायन करते थे। किसी भी स्वर में गायन प्रारंभ करने पर मध्य णमोकार मंत्र को फिट करते जाते थे । यह कला उनके मानस पटल में विशेष रूप से विद्यमान थी । इस संगीत कला के विशेषज्ञ होने के कारण ग्रामों में, तहसीलों में, नगरों में विधान महोत्सव, विमान महोत्सव, जल यात्रा, पंचकल्याणक वेदी प्रतिष्ठा आदि महोत्सवों में जैन समाज द्वारा आमंत्रित किये जाते थे । आप संगीत का मधुर प्रोग्राम उपस्थित कर समाज और जैनेतर को प्रभावित करते थे सागर के मंदिरों में भी कार्यक्रम हुए
उदाहरणार्थ एक गायन में णमोकार मंत्र को फिट करना :
- हुमरी में णमोकार का समीकरण -
तूं अनादि भूलो शिव गैलवा । टेक । णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं
णमो लोए सव्वसाहूणं । जीव तूं अनादि - अंतरा - मोहमद वारपियो, स्वपद विसार दियो,
- चत्तारिमंगलं, अरहंत मंगलं
पर अपनायलियो, इन्द्रीसुख में रचो
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ -सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, भवतें न भीयो, तजियो मनमैलवा, - केवली पण्णत्तो धम्मोमंगलं । जीव तूं ..... णमो अरहंताणं.
यह भाईजी महोदय ने पूज्य ऋषभनाथ तीर्थंकर जैसा अनुकरण किया कि अपनी ब्राह्मी पुत्री को मातृभाषा का और सुन्दरी पुत्री को अंकविद्या का पूर्ण ज्ञान कराया था। 7. भाईजी के कुछ दैनिक कर्त्तव्य जो मानव को करने योग्य हैं :
1. अष्ट मूल गुणों को धारण करना, 2 व्यसन और पाँच पापों का त्याग करना, 3. सादा जीवन और उच्च विचारों को चित्त में धारण करना, 4. समय को व्यर्थ नहीं व्यतीत करना, 5. लौकिक शिक्षा के साथ धार्मिक ज्ञान अवश्य प्राप्त करना, 6. स्नान के समय अपने वस्त्र स्वयं साफ करना, 7. संस्कृत भाषा ही इस जग में ,सबकी माँ कहलाती है।
इसको भलीभाँति पढ़ने से सब विद्या आ जाती है । विद्या धन उत्तम इस जग में, सुनो सकल सज्जन प्यारे। वक्त गया फिर हाथ न आवे, लूटो हो लूटन हारे ॥ सरस्वती भण्डार की, बड़ी अपूरब बात । ज्यों खर्चे त्यौ - त्यौ बड़े, बिन खर्चे हट जाये कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सरदार | एक जीव की जीविका. एक जीव उद्धार । वाणी मीठी बोलिये, मन का आपा खोये ।
औरहुँ को शीतल करें, आपहुँ शीतल होये ॥ सबके पल्ले लाल, लाल बिन कोई नहीं। किन्तु भया कंगाल, गांठखोल देखी नहीं। भाईजी के दैनिक प्रवचन के मधुर आध्यात्मिक अमृत कण :सुदपरिचिदाणुभूदा, सब्बस्स वि कामभोग बंध कहा।
एयत्तस्सुवलंभो, णवरि ण सुलभो विहत्तस्स ॥ ( समय सार गाथा 4) भावार्थ - पंचेन्द्रियों के काम, भोग और बंध की कथा तो सब ही जीवों को भव - भव में सुनने में, जानने में और अनुभव में आई है किन्तु सब द्रव्यों से पृथक केवल प्रमुख आत्मा का अनुभव करना सरल नहीं है।
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आत्मा प्रभावनीयः रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दानतपोजिन पूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥ (पुरुषार्थ सिद्धी) भावार्थ - निश्चयनय से रत्नत्रय तेज के द्वारा सर्वदा मानव आत्मा को प्रभावित करें और व्यवहार नयेन दान, तप (इच्छानिरोध), जिनपूजा विधान आदि के द्वारा विश्व में जैनधर्म की प्रभावना करना चाहिए।
परमालादसम्पन्नं, रागद्वेषविवर्जितम् ।
सोहं तं देहमध्येसु, योजानाति स पण्डित: (परमानंद स्त्रोत पद्य 20) भावार्थ - परम शुद्ध आनंद सम्पन्न , राग द्वेषादि भाव, द्रव्य कर्मों से रहित, देह के मध्य में वही मैं आत्मा को जो जानता है निश्चय से वह पण्डित है।
बीसवीं सदी के दिवंगत विद्वान पं. माणिकचंद जी जैन (शाहपुर वालों) का व्यक्तित्व एवं कृतित्व
___ नेमिचंद, जैन
से,नि, शाखा प्रबंधक, मकरोनिया सागर भारत वर्ष के हृदय स्थल मध्यप्रदेश के जिला-सागर के अंतर्गत शाहपुर (मगरोन) नामक ग्राम में पं. स्व. भगवानदास जी जैन को प्रथम पुत्ररत्न की प्राप्ति दिनांक 08/09/1904 को हुई तथा इस पुत्ररत्न का नाम माणिकचंद जैन रखा गया। यह पुत्र आगे चलकर पं. माणिकचंद जैन न्याय काव्यतीर्थ, जैन दर्शनाचार्य के नाम से जैन समाज में प्रसिद्ध हुये । आपका विवाह शाहपुर के ही एक धार्मिक परिवार की कन्या भागवतीबाई के साथ हुआ । विवाहोपरांत पू. 105 गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज की कृपा से आप श्री सतर्क सुधातरंगिणी दिगम्बर जैन पाठशाला सागर में धर्माध्यापक के रूप में कार्यरत् हुये तथा सागर में ही सपरिवार रहने लगे। धार्मिक संस्कार :
___ शाहपुर विद्वानों तथा देवशास्त्र गुरु के भक्तों की नगरी कही जाती है। पू. वर्णी जी की कृपा यहाँ के साधर्मिर्यों पर विशेष रही है। कई पाठशालायें पू. वर्णी जी के नाम पर चल रही हैं । पं. माणिकचंद जी की प्रारंभिक शिक्षा शाहपुर में हुई। आपके पिताजी स्वयं एक विद्वान प्रवचनकार तथा संगीतकार थे णमोकर महामंत्र को पं. भगवानदास जी कई तों में गाया करते थे तथा श्रोताओं को भाव-विभोर कर देते थे । पू. पिताजी के धार्मिक संस्कार पं. माणिकचंद जी पर पड़े थे।
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
शैक्षणिक जीवन :
वर्ष 1924 से विधिवत् श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर में साहित्य, व्याकरण तथा धर्म विषयों का कुशलता पूर्वक अध्यापन करने लगे । आपकी पाठन शैली किसी बड़ी प्रभावक तथा सरल थी। छात्र हितैषी पं. जी कठोर अनुशासन के पक्षधर थे । गृहकार्य, छात्रों की कठिनाईयों का निराकरण बड़ी प्रसन्न मुद्रा में करते थे। छात्र भी पूरी तैयारी के साथ कक्षा में जाते थे तथा पूछे गये प्रश्नों के सही उत्तर देते थे । साहित्य तथा व्याकरण विषयों के पढ़ाने का तरीका बड़ा सरल तथा छात्रोपयोगी था ।
व्यक्तित्व :
पू. पं. माणिकचंद जी के व्यक्तित्व में भारतीय संस्कृति के सभी गुण समाहित थे। उनके जीवन में "ब्रजादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि " की कहावत चारितार्थ होती थी। पं. जी ऊँचे पूरे 5 फुट 8 इंच की ऊँचाई वाले हंसमुख व्यक्तित्व के धनी थे । धोती, बंद गले का कुर्ता, जाकेट, कोट, गले में दुपट्टा, सिर पर टोपी यही वेशभूषा उनकी आजीवन रही। पं. जी को प्रारंभ में केवल दश रुपया मासिक वेतन मिलता था । इसी में पूर्ण संतुष्ट होकर या पारिवारिक जीवन व्यतीत करते थे। कभी लोभ लालच के चक्कर में नहीं पड़े। सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे । नित्य नियम पूजन का आजीवन पालन किया। पू. वर्णी जी को अपना जीवन निर्माता मानते है । स्व. पू. पं. दयाचंद जी सिद्धांत शास्त्री तथा स्व. पं. पन्नालाल, साहित्याचार्य के प्रति बड़ी विनम्रता प्रकट करते थे । आपकी प्रवचन शैली सारगर्भित तथा आगम के परिप्रेक्ष्य में थी । रात्रि में पाठशालाओं में प्रवचन तथा शिक्षण द्वारा जिनवाणी का आजीवन प्रचार-प्रसार किया । स्मरणीय : पारिवारिक जीवन :
1
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
पं. माणिकचंद जी " न्यायकाव्य तीर्थ" तथा "जैनदर्शनाचार्य" की उपाधियों से विभूषित थे । एक प्रेरक स्मरणीय बिन्दु इनके जीवन का है पं. जी ने 75 वर्ष की आयु में संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से "जैनदर्शनाचार्य" की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर स्वर्णपदक प्राप्त किया था । आपने 45 वर्षो तक महाविद्यालय, सागर में अध्यापन कार्य किया। 40 वर्षो तक पं. जी ने महाविद्यालय के अंतर्गत संचालित 'श्री सरस्वती सन्मति सदन पुस्तकालय का प्रभार बिना किसी वेतन के संचालित किया। पुस्तकों का रखरखाव बड़ी रूचि पूर्वक करते थे । छात्रों को पुस्तकों के प्रति विनय करने की शिक्षा देते थे तथा पुराने समाचार-पत्र छात्रों को देते थे ताकि पुस्तक पर कवर चढ़ाकर रख-रखाव ठीक से होता रहे । ईमानदारी आपके जीवन की पर्याय बन चुकी थी। भारत वर्ष के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान आपकी शिष्य परम्परा में हैं जो समाज की सेवा कर रहे है तथा कुछ सेवा निवृत्त हो चुके है।"
समापन व्यक्तित्व :
स्व. पं. माणिकचंद जी एक सेवाभावी, आदर्श अध्यापक, कुशल प्रवचनकार देवशास्त्र गुरु तथा पू. वर्णी जी महाराज के परम भक्त थे । आपकी यद्यपि कोई मौलिक रचना नहीं है किन्तु छहढाला तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर विद्यावर्धिनी टीकायें लिखी है जो छात्रोपयोगी है। पं. जी का स्वर्णवास दिसम्बर 1986 में सागर में मोहननगर वार्ड में अपने पैतृक निवास में हो चुका है किन्तु आपकी संस्थागत तथा
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ समाजगत सेवाओं को कभी भुलाया नहीं जा सकता। आप बीसवीं सदी के दिवंगत आदर्श प्राचीन विद्धत परम्परा के विद्वान थे । अ. भा. विद्वत् परिषद के भी सदस्य थे । 1
मुझे यद्यपि पू. पं. जी से शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। किन्तु उनकी बड़ी कृपा मुझ पर रही है। ऐसे दिवंगत सरस्वती पुत्र के महान गुणों का स्मरण कर उनके प्रति अपनी आदरांजली अर्पित करता हूँ उन महान जीवन से हम यदि यही शिक्षा ग्रहण करते है :
1.
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भजन
1.
" स एव दिवसः श्लाध्यः सा वेला सुखदा यिनी । धर्मिणां यत्र संसर्ग, शेषाः जन्म निरर्थकम् ॥”
पं. श्रुत सागर का जीवन परिचय
आप भगवान दास जी भाईजी के द्वितीय पुत्र थे
आप न्याय, काव्य, व्याकरण तीर्थ की उपाधि से युक्त थे । आप सरल स्वभावी, परम संतोषी, सदाचारी, परोपकारी, दयालु, कुशलवक्ता थे । संस्कृत शास्त्रों को प्रवचन के द्वारा हिन्दी भाषा में समझाते थे ।
इनका नाम तुलसीराम था, सागर में अध्ययन कर चार विषय में संस्कृत ग्रन्थ की परीक्षा दी, तब चारों ही विषयों में उत्तीर्ण होकर चारों ही विषयों में ईनाम प्राप्त की। तब गणेश प्रसाद वर्णी जी ने खुश होकर इनका नाम श्रुत सागर रख दिया। उनने भी अध्यापन कार्य गया में किया, तथा सबको नव्य न्याय का विषय पढ़ाते थे जो बहुत ही कठिन है । संस्कृत भाषा में घण्टों उपदेश देते रहते थे । बहुत गंभीर मार्मिक प्रवचन सरल भाषा में करते थे बहुत गहरा ज्ञान था । कोई कैसी भी शंका करें, उसे आसानी से उत्तर देकर खुश करते थे । सरस्वती उनके मुख में निवास करती थी ।
जावरा पंच कल्याणक में पिताजी के साथ आप (मझले भाई) भी गये थे । वहाँ से सर सेठ हुकम चन्द्र द्वारा एक समस्या (नर देह धरे को कहा फल पायो) पूर्ति पर ईनाम प्राप्त हुई थी, पं. श्रुत सागर जी को ।
वेद पढ़े ओ कुरान पढ़े, पर आतम रूप नहीं रख पायो, दान किया नहिं भोग कियो, द्रव्य कमाय कहा कर पायो । न्याय अन्याय को भेद नहीं, पुण्य के हेतु मैं पाप कमायो, कीर्ति बिना जग मांहि जिये, नर देह धरे को कहा फल पायो ॥
ईश्वर जैन इंजी., भोपाल
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ देश के हेतु हुये बलिदान, पर ज्ञान बिना कछु हाथ न आयो, दीरघ काल व्यतीत, कियो, निज काम कहीं भी नहीं कर पायो । कूप के भेक बने सब ही, पर मानसरोवर नाहिं सुहायो, धर्म बिना जग माहिं जिये, नर देह धरे को कहा फल पायो॥
आप अध्यात्म के रसिक थे। समयसार ग्रन्थ की संस्कृत टीका पर उपदेश करते थे। बहुत मंद कषाये थी, कभी क्रोध नहीं किया करते थे। कभी तेजी से भी नहीं बोलते थे। बड़े संतोषी थे खाने में जोभी मिले ग्रहण कर लेते थे। आपने कई जगह रामटेक , मुरैना , कटनी बगैरह में सर्विस के साथ-साथ ज्ञान दान भी दिया है। उपाध्याय श्री ज्ञान सागर जी को कितने भी चौमासे में न्याय शास्त्रों का अध्ययन कराया। तथा पू. सरल सागर जी को भी स्वाध्याय कराते थे। इस प्रकार साधु संतों के बीच भी अपने ज्ञान को वितरित करते थे। ज्ञान की तो ऐसी महिमा है कि जितना दिया जाये उतना बढ़ता जाता है। ऐसे ज्ञानी विद्वानों का आज अभाव सा हो गया है । जितना उन्हें ज्ञान था उतना चिंतवन भी करते थे। उन्होंने एक गीत बनाकर समाज को सुनाया, समाज उनके गीत से बहुत प्रभावित हुई। गीत है -
जिया तेरो तनवा, इक दिन धोखा दे है। यम पुरी से आया नोटिस, वापिस न जैहे ॥टेक॥ खाने न देगा जीने न देगा, सोने न देगा जगने न देगा। काम भी पूरा होने न देगा, सब ही अधूरा पड़ा रहेगा।
अब पीछे पछतावत रे है, जिया तेरो तनवा इक दिन धोखा दे है। इस प्रकार आपका ज्ञान के साथ-साथ दिन-रात चितवन भी चलता था। जब उन्होंने स्वास्थ्य ठीक न होने से सर्विस छोड़ दी थी तो मात्र ज्ञान आराधना और चिंतन ही करते थे।
आपकी पत्नि का नाम कस्तूरी बाई था, वह नरयावली की थी। उनकी शिक्षा 8 वीं तक थी। धार्मिक थी, धार्मिक क्रिया का ज्ञान था, भजन गाने में कुशल थीं। पं. श्रुत सागर जी के दो पुत्रियाँ है एवं एक पुत्र ईश्वर चंद है जो भोपाल में इंजीनियर है । तीनों भाई बहिन धार्मिक संस्कारों से युक्त है।
अंत समय में अपने ज्ञान के चिंतन में लीन रहकर सन् 1992 में 89 वर्ष की उम्र में अपनी समाधि की। बीमारी पर ध्यान न देकर शांत रहे । भोपाल में अपने लड़के के पास थे । एक दिन पहले उन्हें स्वप्न आया,कि देव विमान लेकर आये हैं और कह रहे हैं कि चलो नन्दीश्वर पर्वआ गया है नन्दीश्वर द्वीप चले यह विमान खड़ा है, बैठ जाओ इसमे, यहाँ बहुत रह लिया। यह स्वप्न सुबह अपने पुत्र ईश्वर चंद्र को सुनाया, वह वोले अरे ऐसे स्वप्न तो आते ही रहते है। और कहकर शांत हो गये और दूसरे दिन उनकी समाधि हो गई। वह शान्त आत्मा सद्गति को प्राप्त हो गई।।
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ____ "बीसवीं सदी के दिवंगत सरस्वती पुत्र" साधुमना स्व. पं. दयाचंद्र जी "सिद्धांत शास्त्री" व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व
लेखक - पं. तारा चंद जैन
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सागर प्रारंभिक कथ्य :
__परम हितैषी गुरुणां गुरु स्वनामधन्य, अभीक्षण ज्ञानोययोगी, आदर्शो के आदर्श, अनेक राष्ट्रीय स्तर के प्रतिभा सम्पन्न, देशस्तरीय वर्तमान एवं दिवंगत सरस्वती पुत्रों के गुरु, अत्यंत सरल परिणामी, भव्य एवं आकर्षक सौम्यगुणों से परिपूरित तथा श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय वर्णी भवन मोराजी लक्ष्मीपुरा सागर (म.प्र.) तत्कालीन सत्तर्क सुधातरंगिणी संस्कृत पाठशाला के ही संस्थापक प्रधानाचार्य (प्राचार्य) स्व.पं. दयाचंद्र जी सिद्धांत शास्त्री, "न्यायतीर्थ" का जन्म सागर से लगभग 30 कि.मी. दूर सागर ललितपुर मार्ग के मध्यस्थित "बांदरी" नामक ग्राम में हुआ था। बालक दयाचंद्र का जन्म तत्कालीन व्याप्त अत्यंत गरीबी में हुआ था तथा परिवार में खुशियों का वातावरण था। इनके पिताजी का नाम स्व. श्रीमान कुंजीलाल (फज्जीलाल) था। इनकी मातुश्री का नाम श्रीमती दयाबाई था। इनके बड़े भाई का नाम स्व. श्री साधुराम जैन था। परिवार में छोटी सी किराना की दुकान तथा बंजी (ग्राम-ग्राम जाकर घोड़े पर सामान लादकर बेचकर अनाज, घी लेना) ही मुख्य आजीविका का साधन था। अभाव एवं संघर्षपूर्ण जीवन ने इनकी अग्नि परीक्षा ली तथा सफल रहे । नीतिकारों ने ठीक ही कहा है :
"कष्ट कंटकों में रह कर ही, जिनका जीवन सुमन खिला,
गौरव गंध उन्हें ही उतना यत्र तत्र सर्वत्र मिला।" प्रारंभिक शिक्षण :
अपने बड़े भाई तथा पिताजी के साथ बालक दयाचंद्र सागर में प्रसिद्ध गल्ला आढ़त फर्म श्री सि. कुन्दनलाल जी (अब स्वर्गीय) की पुरानी गल्ला मंडी दुकान आये सि. जी की दृष्टि इस होनहार अत्यंत सुन्दर बालक पर पड़ी। प्रारंभिक जानकारी के बाद होनहार बालक जानकर श्री सि. कुन्दनलाल जी ने पू. गणेश प्रसाद जी वर्णी जी के पास ले जाकर उनकी अनुमति से श्री सत्तर्क सुधातरंगिणी दि. जैन पाठशाला कमरया भवन में नाम लिखाकर शिक्षण लेने प्रवेश किया । यही बालक दयाचन्द्र "सिद्धांतशास्त्री" की धार्मिक परीक्षा मेरिट श्रेणी में उत्तीर्ण कर अब इसी (विद्यालय) पाठशाला में 1 रुपये नगद चाँदी के सिक्के का बजीफा प्राप्त कर कुशल अध्यापक बन गया तथा खुशियों के पारावार में अठखेलियाँ खेलता रहा ।यही बालक से बने पं. दयाचन्द्र सिद्धांत शास्त्री का शिक्षण एवं स्मरणीय अध्यापक काल रहा। सेवाकालीन समर्पण कथ्य :- पं. दयाचन्द्र "सिद्धांत शास्त्री" का विवाह बांदरी ग्राम के ही एक धार्मिक जैन परिवार में श्रीमती गंगाबाई के साथ हुआ। अब पं. जी पर गृहस्थी का दायित्व बढ़ा तथा अन्यत्र सेवा कार्य करने का मन बना तथा विद्यालय कमेटी को आवेदन दिया कि मुझे अब कुछ नये वेतन में अध्यापक
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ नियुक्ति देने की कृपा करें किन्तु कमेटी ने कहा यहाँ अध्यापक की जगह खाली नहीं है। पूज्य वर्णीजी महाराज को जब ज्ञात हुआ कि पं. दयाचन्द्र अब सिवनी (म.प्र.) में जैन पाठशालाएँ पढ़ाने 55 रुपया मासिक पर जा रहे है तथा सामान तैयार हो गया तब वर्णी जी ने समाज को समझाया कि विद्वान बनाना बड़ा कठिन है तथा ऐसे कुशाग्र बुद्धि विद्वान का मिलना सबसे कठिन है। समाज ने पूज्य वर्णी जी की बात
तथा 35 रुपया मासिक वेतन पर पढ़ाने लगे। बाद में 55 रुपया हुए तथा वर्ष 1923 से 1971 तक लगभग 48 वर्ष की दीर्घकालीन सेवाओं के बाद अपने स्वास्थ्य के कारण स्वेच्छा से प्राचार्य पद से सेवा निवृत्ति लेकर कुशल धार्मिक जीवनयापन कर इस महाविद्यालय को अपना मार्ग दर्शन देकर अपना उत्तरदायित्व स्वनामधन्य सरस्वती के अमर संवाहक सारस्वत पुत्र पं. पन्ना लाल जी साहित्याचार्य को सौंपकर अपना श्रावक कुलोत्पन्न मर्यादित जीवन व्यतीत करने लगे । धन्य है ऐसे सरस्वती पुत्र | मात्र 263 रुपया वेतन पाकर वे स्वेच्छा से सेवा निवृत्त हुए ।
स्मरणीय आदर्श व्यक्तित्व एवं समापन बेला :
पूज्य पं. स्व. दयाचन्द्र जी सिद्धांत न्यायातीर्थ का समर्पित अध्यापक एवं प्राचार्यकाल एक समर्पण का अनोखा अविस्मरणीय बिन्दु है । वे यथानाम तथा गुण वाले दया के सिन्धु तथा चन्द्र याने विरली प्रतिभाओं में से एक थे सेवा काल में प्रातः नित्यमय पूजन, स्वाध्याय तथा भोजन से निवृत्ति होकर ठीक 10:30 से 4:30 महाविद्यालय में रहकर जैन धर्म दर्शन न्याय विषयों को छात्रगम्य सरलतम शैली में पढ़ाकर कंठस्य कराने में वे जितने सिद्धहस्त थे अन्यत्र ऐसा मिलना संभव नहीं है। वे आज भी वर्तमान एवं पूर्व शिष्य परम्परा के आदर्श है। वे अत्यंत दयालु थे । छात्रों पर बैत उठता जरूर था किन्तु उनकी आसन की गद्दी पर ठहर जाता था । वे देवशास्त्र गुरु के परम भक्त थे ।
पुण्यतिथि :- पं. जी का अवसान 24 जून 1974 को रात्रि में ब्रह्ममुहूर्त में ऐसी दशा में हुआ जिसे हम स्वाध्याय की पावन स्थिर दशा कह सकते है। सौम्य, गंभीर, उपदेशक, ध्यान अवस्था में बिना किसी बीमारी के हुआ। सारा सागर जैन समाज शोक सागर में डूब गया उनकी श्रृद्धांजलि सभा में जो उद्गार प्रगट हुए थे वे पू. वर्णी जी महाराज के प्रतिनिधि शिष्य के रूप में हुए थे । वे आज भी माँ जिनवाणी के शाश्वत अमर पुत्रों में हम सबके आदर्श है।
समापन तथ्यपूर्ण कथ्य :- यद्यपि पं. दयाचंद्र जी की लेखनी से लिखित कोई कृति नहीं है तथापि पू. वर्णी महाराज द्वारा पं. जी को प्रेषित धार्मिक पत्र उनकी विद्वता तथा नीतिपूर्ण व्यक्तित्व के अविस्मरणीय आलेख है । प्रातः तथा रात्रिकालीन प्रवचन श्री पठा दि. जैन मंदिर सागर में आजीवन करते रहे । पू. विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सानिध्य में वर्ष 1993 में वर्णी संस्कृत महाविद्यालय के पुराने छात्रावास hat आधुनिक बनाकर स्व. दयाचंद्र सिद्धांत शास्त्री स्मृति भवन का नाम रखा जाना पू. आचार्य श्री का उनके प्रति शाश्वत सरस्वती पुत्र प्रेम का ही परिचायक है। "गागर में सागर" भर देने की अनुपम सरलम शैली के वे देश स्तर के विद्वान शिरोमणि थे। उनकी पूर्ति होना संभव नहीं है। नीतिकारों ने ठीक ही कहा है :
" जयंती ते सुकृतिन : रससिद्ध विदुषांवराः । नास्ति येषां यशः काये, जरा मरणजंभयम् ॥”
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्वर्गीय पं. ताराचंद्र जी जैन सराफ के धार्मिक (आदर्श) जीवन की एक झलक
नरेन्द्रकुमार-चमेली बाई, सागर नाम
स्व. पं. श्री ताराचंद्र जी जैन आयु - 82 वर्ष जन्मतिथि
कुँवार सुदी 14 संवत् 1961 जन्म स्थान
सागर (म.प्र.) समाधि तिथि
श्रावण सुदी 14-15 अर्द्ध रात्रि संवत् 2043 समाधि स्थान - अतिशय क्षेत्र श्री पपौरा जी (टीकमगढ़) दीक्षा गुरु
दसवीं प्रतिमा द्वारा आचार्यश्री 108 विद्यासागर जी महाराज समाधि सानिध्य - आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघी धर्म गुरु
श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी (धर्म संस्कार गुरु एवं धर्म प्रेरणा सूत्र) शिक्षा स्थल
श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर शिक्षा
शास्त्री कक्षा 11. व्यवसाय
सोना चाँदी व्यापार (सराफी) 12. धर्म पत्नि का नाम - स्व. सौ. श्रीमती खेमाबाई (निधन ता : 29/11/1976) 13. संतान - पाँच पुत्र तथा दो पुत्रियों (सभी धर्मरूचि बान) 14. धार्मिक संस्थाओं के नाम जिनके सक्रिय सदस्य रहे -
(1) उदासीन आश्रम सागर के अधिष्ठाता (2) दिगम्बर जैन चौधरनबाई मंदिर के ट्रस्टी (3) श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महा. के सदस्य (कार्यकारणी सभा) (4) अखिल भारतवर्षीय विद्वत परिषद के सदस्य (5) महिला आश्रम सागर के सदस्य (6) उदासीन आश्रम द्रोणागिरि के उपाध्यक्ष
उनकी, इस कारण से, प्रतिदिन की निम्नानुसार चर्या थी :(1) प्रतिदिन प्रात:काल ब्रह्म महूर्त में 4 बजे सोकर उठते थे। उस समय सामायिक करते थे, शास्त्रों का अध्ययन करते थे। (2) फिर सुबह 7 बजे मंदिर में जाकर देवदर्शन, अभिषेक प्रवचन करते थे। यह धार्मिक क्रिया 10 बजे दिन तक चलती थी।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (3) फिर भोजन के पश्चात् दुकान जाते थे। व्यापार भी सरल सत्य व्यवहार से करते थे व्यापार संबंधी कभी भी अदालती कार्यवाही, उन्होंने नहीं की। (4) शाम को काफी सूर्य का उजाला रहने पर दुकान बंद कर, घर आते थे। तथा सायं काल में अल्पाहार लेते थे। (5) रात्रि भोजन तो दूर पानी भी नहीं पीते थे। (6) शाम को सामायिक करते थे - रात्रि को मंदिर में प्रवचन करने थे, पुन: घर में शास्त्रों का अध्ययन कर, शयन करने जाते थे। (7) घर में रहते हुये भी सातवीं प्रतिमा का पालन दृढ़ता पूर्वक करते थे। पंडित जी का उपरोक्तानुसार कार्यक्रम उनकी 30 वर्ष की आयु से शुरू हुआ और अंतिम समय तक आध्यात्मिक प्रगति के साथ दसवी प्रतिमा तक का पालन किया। विपरीत परिस्थिति आने पर भी अपने नियम पालन में शिथिलता नहीं आने दी । यही कारण है कि उनकी ऐंसी रूचि, समाधि के समय में सहायक हुई। सन् 1968 के पश्चात् उन्होंने अपने व्यवसाय सराफी दुकान से नाता तोड़ दिया । अधिकांश समय अपनी आध्यात्मिक उन्नति में संलग्न रहे । मुनियों, व्रतीजनों विद्वानों पंडितों, ज्ञानीजनों से सम्पर्क बनाते रहे। वे आहारचार्य, वैयावृति, दान प्रवचनों आदि में अधिकांश समय व्यतीत करते रहे। सभी सिद्ध क्षेत्रों अतिशय क्षेत्रों की भाव सहित वंदना करने में अपने समय का सदुपयोग किया । इस प्रकार के संयोग बड़े पुण्य से ही मिलते है। पंडित जी ने इनका भरपूर लाभ लिया। इन सब कारणों से पंडित जी समाधि हेतु सल्लेखना व्रत लेने के लिए अग्रसर हुये । उनकी हार्दिक इच्छा थी कि समाधि आचार्यश्री के सानिध्य में होवें और उनको इसमें पूर्ण सफलता भी मिली। उन्होंने सावन सुदी 1 संवत् 2043 को पपौराजी जाने का निश्चय किया। वहाँ पर आचार्यश्री विद्यासागर महाराज का चौमासा हो रहा था । पपौरा जी के प्रस्थान के समय चौघरनबाई जैन मंदिर के दर्शन किये। समाज के अधिकांश व्यक्ति भी, बिना किसी सूचना पर भी, एकत्रित हो गए सभी परिवार के सदस्य, रिश्तेदार आदि भी आ गए। पंडित जी ने सभी से विनयपूर्वक हाथ जोड़कर क्षमा माँगी और हमेशा के लिए गृह त्याग करने के लिए विदाई माँगी। इस प्रकार सावन सुदी 1 के दिन रात्रि को पपौरा जी में आचार्यश्री के सानिध्य में पहुँचकर शांति का लाभ लिया और चैन की सांस ली। श्रावण सुदी 5 के बाद पंडित जी ने दो दिन तक केवल दूध पानी का आहार लिया । अष्टमी को उपवास रखा । इसके पश्चात् चौदस तक (अंतिम समय) कुछ भी आहार में ग्रहण नहीं किया इस अवधि में आचार्यश्री ने पंडित जी को दसवीं प्रतिभा के व्रत ग्रहण कराये। आचार्यश्री अपने संघस्थ मुनियों के साथ पंडित जी को संबोधन करने आते थे। तथा परमार्थिक चर्चा भी करते थे पंडित जी की बोलने की शक्ति क्षीण हो गई थी अत: वे आचार्यश्री को उत्तर इशारा से एवं सिर हिलाकर देते थे। ऐसी अवस्था में उन्होंने अपना संतुलन नहीं खोया और चैतन्य अवस्था में अंत तक रहे। उनकी वैयावृति में अंतिम समय तक पूज्य मुनिश्री समाधि सागर ब्रह्मचारी गण (वर्तमान से ऐलक निश्चय
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सागर) आदि उपस्थित रहे । इस प्रकार से पंडित जी का ध्यान अपने नश्वर शरीर से हटकर वीतरागता की चर्चा में रहता था और उनका वातावरण वीतराग मय आचार्यश्री के संरक्षण के कारण हो गया था। पंडित जी के जीवन के अंतिम दिन, सावन सुदी 14 को शाम को, आचार्यश्री अपने संघस्थ मुनियों सहित पंडित जी के पास आये और उन्होंने यह कहा “पंडित जी तुम पास हो गये हो, अब मेरिट बनाने की आवश्यकता है।" आचार्यश्री को उस समय यह आभास हो गया था कि पंडित जी का यह अंतिम दिवस है अत: आचार्यश्री पंडित जी को लगभग आधा घण्टा तक अपना संबोधन देते रहे और अपने संघ के मुनि पूज्य श्री समाधि सागर एवं छुल्लक तथा ब्रह्मचारियों को पंडित जी की वैयावृति में नियुक्त कर दिया। पंडित जी के अंतिम समय ही रात्रि में उपस्थित व्यक्तियों ने बारी बारी से णमोकार मंत्र,समाधि मरण
और वैराग्य भावना का पाठ, आत्म संबोधन सहित, सतत् रूप से सुनाया। उपस्थित व्यक्तियों, पंडित जी के पुत्र कमल कुमार, सुरेन्द्र कुमार, महेन्द्र कुमार भी उपस्थित थे अर्द्ध रात्रि के समय, इस धार्मिक वातावरण में पंडित जी से पूछा गया कि "आप मंत्र सुन रहे हो" तो उन्होंने सिर हिलाकर अपनी स्वीकृति दी और उन्होंने शांति पूर्वक अपना नश्वर शरीर त्याग दिया । इसकी सूचना, तुरंत ही आचार्यश्री को दी गई। वे उस समय जाग रहे थे। उन्होंने मुस्कराकर अपना सिर हिला दिया। पंडित जी की समाधि का समाचार पपौराजी तथा टीकमगढ़ शहर में तुरंत ही फैल गया, वहाँ की जैन समाज ने अपना कारोबार बंद रखा तथा काफी संख्या में जैन समाज पंडित जी के दर्शन करने और अंतिम संस्कार में सम्मानित होने के लिए एकत्रित हो गये। उन्होंने एक विमान बनाया और पंडित जी के पार्थिव शरीर को उस में बैठाकर, पपौराजी के क्षेत्र से लगी हुई खाली बीरान जगह पर धार्मिक रीति से दाह संस्कार किया गया । इसमें ब्रह्मचारियों ने सक्रिय भाग लिया। इस अंतिम यात्रा में लगभग एक हजार व्यक्ति सम्मिलित हुये थे । वृश्य अपूर्व था। सभी के अश्रुपूरित श्रद्धा के आँसू थे। वहाँ स्मारक के रूप में एक चबूतरा बना दिया गया है। इस प्रकार पंडित जी ने आचार्य श्री के संरक्षण में सल्लेखना व्रत का पालन करते हुये शांति से विदा हो गये। उपस्थित जन समूह ने समाधि स्थल पर जाकर अपनी श्रद्धांजली दी। यह रक्षाबंधन के पर्व का दिन था । दोपहर को आचार्यश्री के प्रवचन हुये । प्रवचन के अंत में आचार्यश्री ने पंडित जी के आत्मोसर्ग की विशेष चर्चा की और प्रशंसा करते हुये कहा कि “पंडित जी जैसा समाधि मरण विरले ही जीवों को होता है ।" ऐसे व्यक्ति को अधिक से अधिक 6-7 भवों के पश्चात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है इसके पश्चात् भी आचार्यश्री पंडित जी के समाधि की चर्चा प्रसंग आने पर कर लेते है। इस प्रकार पंडित जी अपने आत्म पुरुषार्थ और तीव्र पुण्य कर्मोदय के कारण, प्रथम - निर्धन परिवार से संपन्न परिवार, द्वितीय - संपन्न परिवार से पंडित, तृतीय - पंडित से दशवीं प्रतिभाधारी ब्रह्मचारी एवं अंत में सल्लेखना व्रत के साथ समाधि की सफल यात्रा कर अपने मानव जीवन को सफल बनाया। हम लोग भी उनके पद चिन्हों पर चलकर अपना जीवन सफल बनाने की भावना भाते है।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों सल्लेखना के पथिक, पं. जी (20 वीं सदी के दिवंगत विद्वान)
डी राकेश जैन अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थ च चिन्तयेत् ।
गृहीत इव के शेषु मृत्युना धर्म माचरेत् ।। आयु का कोई भरोसा नहीं। अच्छा भला बालक या युवक भी देखते-देखते इस दुनियाँ से कूच कर जाता है। तब जिनका बुढ़ापा आ गया है, इन्द्रियाँ शिथिल हो गयी हैं, विचार करने में स्थिरता शेष नहीं है, उन्हें शारीरिक दुर्बलता के कारण ध्यान-धारणा तो दूर सामान्य-सी परिस्थितियों का भी सामना करने की सामर्थ शेष नहीं। किन्तु उनको भी अभी वर्षो जीने की जिजीविषा है। यह संसारी प्राणी बार-बार समझाये व चेताये जाने पर भी मोहनिद्रा से जागृत नहीं होता। तब इसे मुक्ति का लाभ कैसे हो ? बिना व्रती बने मरण होने पर किसी भी गति में जाया जा सकता है। किन्तु यदि व्रती बन गये तो उसके नरक, तिर्यंच और मनुष्य गति छूट कर मात्र देवगति ही होगी। जहाँ से शीघ्र ही रत्नत्रय की प्राप्ति कर मोक्ष को पाया जा सकता है।
यदि खूब तपस्या करें, जप-तप, नियम-व्रत पालन करें और इसी भव से मोक्ष प्राप्त करना चाहें, किन्तु यह होना संभव नहीं। कारण, इस पंचमकाल में उत्पन्न हुये मनुष्य के वज्रवृषभनाराचसंहनन का अभाव है । इसके कारण उसे उपसर्गादि सहन करने की भी सामर्थ नहीं। और यह सामर्थ नहीं होने पर निष्कम्प शुक्लध्यान / आत्मध्यान कैसे हो सकता है ? इसलिए कम से कम व्रती बनना ही इस जन्म में श्रेयस्कर है। इस जन्म का किया हुआ अभ्यास अगले भव के संस्कार रूप में कार्यकारी हो सकता है।
___ जयपुर के सीमांत क्षेत्र खानिया जी में यह मार्मिक देशना आचार्य शिवसागर जी महाराज के द्वारा उपस्थित श्रोतासमूह को दी जा रही थी। जिसमें एक श्रोता के रूप में पं. पन्नालाल जी भी वहाँ पर उपस्थित थे। आचार्य महाराज के हृदयस्पर्शी व तात्विक विवेचन ने पं. जी के विचारों व हृदय में जो आवेग पैदा किया वह शाम को ही थम सका, जबकि उन्होंने अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरबाई से विमर्श कर आचार्य श्री के पास जाकर द्वितीय प्रतिमा के व्रत लेकर व्रती बनने का सौभाग्य पाया।
सन् 1980 में आचार्य विद्यासागर जी महाराज के सानिध्य में ग्रन्थराज षट्खण्डागम की वाचना का आयोजन सागर में हुआ। इस अवसर पर आपने सप्तम प्रतिमा के व्रत लेकर अपने व्रती जीवन में एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन किया। निरंतर पठन-पाठन एवं श्रुतलेखन में व्यस्त रहने के कारण परिणामों की सम्हाल स्वयमेव होती जाती थी।
सन् 1984 में जब आप अचानक सीढ़ियों से फिसल गये तो छह माह तक विस्तर पर रहना पड़ा आरंभ में तो नित्यकर्म भी उसी पर सम्पन्न होते तथा पाठादि भी। आचरण की इस विपत्ति ने आपके परिणामों में शीघ्र ही सल्लेखना ले लेने के परिणाम जागृत कर दिये।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ___ एकदा, जब हम पं. जी के साथ ही आचार्य विद्यासागर जी के दर्शनार्थ नेमावर गये हुये थे। वहाँ तीन दिन रुकना हुआ। कई सत्रों में आचार्य श्री से चर्चाएँ हुई। उस समय आचार्यश्री ने पं. जी के लिए दो समय आहार लेते हुये मात्र तली हुई वस्तुओं के त्याग का परामर्श दिया और उसका अनुपालन जितनी कठोरता से किया उसका एक उदाहरण ही पर्याप्त है कि पारिवारिक आग्रहों के बावजूद भी उसका पालन किया।
अमरकण्टक प्रवास के दौरान आचार्यश्री से निर्देश मिला था कि अब हो सके तो सायंकालीन अन्नाहार बंदकर दिया जावे । यही परामर्श आर्यिका श्री सुपार्श्वमति जी द्वारा भी मिला और तुरंत ही सायंकालीन आहार बंद हो गया। पं. जी का आहार-पान संयमित तो पूर्व से ही था। इसलिए किसी प्रकार का नियम-व्रत देते समय साधुओं को भी पूर्ण विचार करना पड़ता था। उस पर भी शारीरिक स्थिति एवं अध्ययन-अध्यापन से सतत् होने वाले मानसिक परिश्रम के परिपेक्ष्य की भूमिका का भी विचार करना होता था।
भाग्योदय तीर्थ, सागर में भी आचार्यश्री एवं संघस्थ अन्य साधुजनों से विमर्श हुआ। चूँकि यहाँ पंचकल्याण महोत्सव के संदर्भ में काफी समय रुकने का अवसर मिला था। करेली पंचकल्याणक के अल्प प्रवास में भी आचार्य श्री का निर्देश था कि अब काय के साथ रहने वाले ममत्व को दूर करते हुये कषाय के तनुकरण का विचार भी करना चाहिए। उस समय आचार्यश्री ने कहा था कि अब हो सके तो आवागमन की मर्यादा भी निश्चित करें। शीघ्रता से सागर और जबलपुर आने-जाने का विकल्प छोड़ना चाहिए। साथ ही पारिवारिक उत्सवों में शामिल होने की अवस्था से बचना चाहिए। पं. जी संयुक्त परिवार के प्रमुख सदस्य थे। इसलिए पारिवारिक जिम्मेदारियाँ स्वयमेव उन पर रहती थी। परिवार में सर्वाधिक सम्मानीय अवस्था को प्राप्त होने के कारण कुछ अतिरिक्त रूप से इन कार्यो में सहभागिता होती थी। किन्तु आचार्यश्री के इस निर्देश ने उन पर प्रतिबंध लगा दिया।
आचार्यश्री की अपेक्षा थी कि साधना का क्रम एक बार के अन्नाहार तक ही सीमित हो जाये । किन्तु सायंकाल में पेय के अतिरिक्त सभी के त्याग की सीमा तक पं. जी ने सज्योषित साधना पूर्ण की। और जब तक अंत की साधना तक पहुँच पाने का अवसर आ पाता तब तक आयु के अंतिम निषेक ने गिनती गिन
ली।
कुण्डलपुर में 2001 में आयोजित महोत्सव में बनारस प्रवास से मैं भी कुण्डलपुर आया था। एक तो स्वास्थ्य ठीक नहीं होने से तथा नैतिक विषयों पर चर्चा करने हेतु महोत्सव के दौरान ही मैं सागर आ गया । तब पं. जी के दर्शन लाभ व वार्ता का अवसर मिल सका । महोत्सव के बाद में चाहता था कि शीघ्र ही बनारस लौट जाऊँ किन्तु स्वास्थ्य की अनुकूलता न हो पाने के कारण जाना विलम्बित होता रहा। 8 मार्च को मैं जबलपुर गुरुकुल में ही था। अचानक से आज फाल्गुन सुदी चर्तुदशी के दिन दूरभाष से समाचार मिला कि पं. जी कुण्डलपुर जाना चाहते हैं आपको भी बुलाया है। आहारपूर्व यह समाचार मिल गया था। मैं चाहता था कि चूंकि आज चतुर्दशी है, अत: आज न चलकर यदि कल चला जाये तो मुझे कोई आपत्ति
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ नहीं। इसलिए यात्रा के विषय में संशोधन करने हेतु आहारोपरांत पुन: दूरभाष पर सम्पर्क किया ।तब मुझे बताया गया कि नहीं, पं. जी आज ही जाने के लिए कह रहे हैं। मुझे एकाधिक बार पं. जी के ही निमित्तवश अष्टमी या चर्तुदशी के दिन यात्रा करनी पड़ी थी। इसी पशोपेश की स्थिति में आज भी तैयार हो गया। साथ में ब्र. चक्रेश जी को लिया और लगभग 2 बजे हम गुरुकुल से रवाना हो गये - दमोह पहुँचकर सागर से आ रहे वाहन द्वारा ही साथ में कुण्डलपुर पहुंचने का निर्देश प्राप्त हुआ था। किन्तु जैसे ही हम दमोह पहुँचे, तब भी पं. जी वहाँ नहीं पहुंचे थे। मैने सागर सम्पर्क किया। तब ज्ञात हुआ कि कुछ विलम्ब से निकल सके हैं। अत: मैने ब्र. चक्रेश जी को उनके साथ आने को छोड़ स्वयं बस से ही कुण्डलपुर पहले जाने का निर्णय लिया। जिससे कि वहाँ आवश्यक व्यवस्था कर सकूँ । मेरे पहले से पहुँचने पर मात्र इतना हुआ कि एक टीनसेड मिल सका।
रात्रि 11.15 बजे के करीब पं. जी का वाहन कुण्डलपुर आया । पं. जी के साथ पुत्र अशोक, डॉ. राजेश एवं पौत्र आकाश थे। शिष्टाचार पालन के बाद चाहा सीधा विश्राम हेतु निश्चित स्थान पर पहुंचा दिया जाये । कारण, पं. जी 10.00 बजे तक विश्राम करने के अभ्यस्त हैं और आज समय का अतिक्रम अधिक हो गया है, साथ ही यात्रा का श्रम भी है। जब तक उनको व्यवस्थित किया । 12.00 बज गये । इस दौरान सुबह का कार्यक्रम भी तय हुआ साथ में अन्य वार्ताएँ भी । आचार्य भक्ति के समय ही आचार्यश्री का दर्शनलाभ किया जाये, अभी विलम्ब होने से उन्हें बाधित किया जाना उचित नहीं। साथ ही यह भी निर्णय लिया कि चूँकि आज की रात्रि टीनसेड में ही रहना है, अत: यहाँ घण्टी (जो कि पं. जी किसी भी प्रकार की आवश्यकता होने पर प्रयोग करते थे) का उपयोग संभव नहीं है, इसलिए दो-दो घण्टे जागकर बिताया जाये। उनकी जाप्य,पाठ की पुस्तकें व घड़ी आदि उनको दिखाकर कि आपके माँगने पर आपको मिल जायेगी, तथा यहाँ रखी है, बता दिया गया। पं. जी ने क्षेत्र एवं आचार्यश्री की भाववंदना की और णमोकार महामंत्र द्वारा कायोत्सर्ग कर विश्राम आरंभ किया।
जब पं. जी दमोह से कुण्डलपुर के लिए रवाना हुये थे तो बहुत पहले आने का वृतान्त सुनाते आ रहे थे कि हम कैसे बैलगाड़ी से आया करते थे। तदनन्तर कैसेट से आचार्यश्री के प्रवचन सुन रहे थे विलम्ब हो जाने तथा यात्राश्रम होने के कारण उनके स्वर में किञ्चित् विकृति थी। ऐसी स्वर विकृति को सुनने का मुझे अभ्यास हो गया था। वे जब कभी श्लथ होते तब ऐसा होता था। अत: मैंने उसी अनुभव के आधार पर उनके विश्राम की जल्दी व्यवस्था की। जबकि वे सोने से पूर्व लगभग 12:30 बजे तक चर्चा करते रहे। उसमें कुछ वाक्य तो हमारी समझ में नहीं आ पाये है । अधिकांश को समझकर वार्तालाप गति पाता रहा।
अशोक जी व ब्र. चक्रेश जी को प्रथम ही विश्राम हेतु बोल दिया। मैं तथा डॉ. राजेश जी बाद में विश्राम करेंगे । इस तरह करीब 12:30 पर जब पं. जी तथा ये दोनों विश्रामरत हो गये तब शयन हेतु आवश्यक वस्त्रादि लेने कमरे तक जाने को उद्यत हुआ। साथ में भाई ब्र. राजेश जी 'वर्धमान' थे । चलते समय इच्छा हुई चलो ज्ञान साधना केन्द्र (जहाँ आचार्यश्री एवं उनका संघ विश्राम कर रहे हैं) देखकर आये। हम दोनों साथ-साथ गये ।10:15 मिनिट सभी तरफ देखा । हल्की ठण्डी के साथ सभी तरफ सन्नाटा था।
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वापिस आ कमरे से सामान लेकर 1 बजे के करीब टीनसेड में पहुँच गये । तब डॉ. राजेश जी जाग रहे थे। मैं अपने शयन स्थल पर पहुँच गया किन्तु वार्तालाप जारी था। मैं लेटा हुआ था । अभी मात्र 10.12 मिनिट ही हुये होगे कि अचानक पं. जी श्वसन प्रक्रिया में साधारण से भिन्न एवं तेज आवाज आने लगी । हम दोनों ने तुरंत ही उठकर देखा कि क्या है ? हमारे देखते-देखते ही मुँह से झांक आना आरंभ हो गया । दोनों ने ही तुरंत तय कर लिया कि संभवत: अंतिम समय है। अत: मैं णमोकर मंत्र का उच्चारण करने लगा और डॉ. सा. हृदयगति को ठीक बनाने हेतु हृदय पर बल देने लगे। यह क्रम 30 से 40 सेकेण्ड ही चला होगा कि हम लोगों को महसूस हुआ कि अब कुछ भी शेष नहीं है। नाड़ी बगैरह देखी तो कुछ नहीं था। हमारी आवाज को सुनकर अशोक जी, पौत्र आकाश एवं ब्र. चक्रेश जी भी जाग गये। अत: मैंने पं. जी को चादर से आवृत कर तुरंत ही आचार्यश्री को समाचार देने के लिए प्रस्थान किया । यहाँ लगातार णमोकार महामंत्र का पाठ आरंभ हो जाने से एक-दो टीनसेड वाले लोग भी जमा होने लगे।
____ आचार्यश्री को जैसे ही कहा पं. जी को लाया था। उन्होंने इशारा किया - ले आओ तुरंत । अब मुझसे बोला ही नहीं जा रहा था। जैसे- जैसे कहा-सब कुछ ठण्डा हो गया। उन्होंने इशारे से ही पूछा-क्या हुआ ? तब मुश्किल से मैंने संक्षेप में सब कुछ कह सुनाया चूँकि अंत में उपस्थित था और सभी कुछ ठीक से हो गया, यह सुनकर उन्होंने भी संतोष की सांस ली। उसके बाद उनके अंतिम संस्कार के संबंध में भी चर्चा करने के लिए मैं और डॉ. सा. गये।।
इस तरह से पं. जी ने सल्लेखना की साधना का जो अभ्यास किया यद्यपि वह आरम्भिक ही था किन्तु वह भी उनके परिणामों की विशुद्धता के लिए पर्याप्त रहा । आचार्य समंतभद्र स्वामी जैसे आचार्यो ने जो क्रम निरुपित किया है उस तक पहुँचना ही उनका लक्ष्य था, शायद उसे आगे कभी पा सकें । उन्हें शीघ्र ही सद्गति हो, ऐसी कामना हुआ विनम्र भाव से श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ।
__ आदरणीय पं. जी ने जिस तरह से श्रुतसेवा व मोक्षमार्ग की साधना करते हुये जीवन व्यतीत किया, इससे जहाँ मुझे अत्यंत संतोष था। लेकिन उनके जैसे कुशल मार्गदर्शक के अभाव से मैं अपने आपको असहाय महसूस कर रहा था। इस कमी को तो आज भी अनुभूत करता हूँ कि उनके द्वारा निर्देशित कार्यो में योगदान कर सकूँ तो समझूगा कि मैं उनके ऋण से किञ्चित् उऋण हो रहा हूँ ।
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्व. पं. धरम चंद्र शास्त्री (शाहपुर) जीवन परिचय
पं. अमर चन्द्र शास्त्री, शाहपुर आप पं. भगवान दास जी भायजी के चतुर्थ सुपुत्र हैं आपकी जन्म नगरी, शाहपुर (मगरोन) है । आपका जन्म संवत् 2076 में हुआ था। आपने शाहपुर में ही शास्त्री तक अध्ययन किया है। और सन् 1945 में शाहपुर में पूज्य गणेश प्रसाद वर्णी द्वारा विद्यालय की स्थापना हुई थी। उसमें अध्यापन का कार्य किया है सन् 1962 तक विद्यालय चला है, यहाँ से निकले जैन जैनेतर विद्यार्थी बाहर सर्विस एवं अन्य कार्य में संलग्न है। शाहपुर विद्यालय की प्रशंसा करते हैं। पं. धर्मचंद्र जी धर्म कार्य में अग्रसर रहते थे, रात्रि में धर्म प्रवचन करते थे, उपदेश देते थे। हमारे (छोटे भाई) साथ विधान में पंचकल्याण प्रतिष्ठा में बाहर भी जाते थे, साथ में सहयोग भी करते थे। प्रवचन शैली सरल व मधुर थी, जिससे समाज भी बहुत प्रभावित होती थी।
धर्मचंद्र जी ने पिताजी के गीतों का अभ्यास भी किया था, हारमोनियम बजाते थे। संगीत में पूजन कराते थे, रात्रि में आरती संगीत के साथ गीत गाते थे, नाटक आदि में संगीत चलाते थे। संगीत में बहुत रूचि थी, विधान आदि में गीत गाकर जन-जन को मोहित करते थे। उनमें दो गुण प्रधान थे। प्रथम है गुणी जनों का समागम मिलने पर अधिक प्रसन्न होते थे। द्वितीय है अपने को हमेशा लघु मानते थे और दूसरों से कहते थे कि आप के सामने हम कुछ नहीं है आप तो महान है, ऐसे गुणी बहुत कम लोग होते है, यह दोनों गुण उच्च गोत्र के कारण हैं।
हम पाँचों भाई एकत्र होते थे तब समाज पाँच पांडव कहती थी और मंदिर जी में सबके प्रवचन होते थे। पं. धर्मचन्द्र जी की पत्नि का नाम फूलाबाई था इनका जन्म कर्रापुर का था । इनकी शिक्षा 10 वीं तक थी । आपको धर्म में बहुत रूचि थी। नित्य प्रति पूजन करती थीं आपके अष्टम प्रतिमा के व्रत थे।
पं. धर्मचन्द्र जी प्रथम तो स्वयं की खेती का व्यवसाय करते थे उसी से घर खर्च चलता था संवत् 1989 में पिताजी ने एक छोटी सी किराने की दुकान करा दी थी। उस समय बहुत सस्ता समय था, तभी पूज्य वर्णी जी का आगमन हुआ। वर्णी जी दुकान की दशा देखकर बोले- हम सागर से किसी से सामान दिला देवेगे, तब हम दोनों भाईयों ने कहा कि हम धीरे-धीरे बढ़ेंगे, शीघ्र बढ़ना नहीं चाहते, शायद कर्ज हो जावे तो क्या करेंगे । इस प्रकार धार्मिक जीवन बिताते रहे, और धर्म साधन करते रहे।
आपके तीन पुत्र है। 1. अभय कुमार, 2. भानुकुमार, 3. राजेन्द्र कुमार तीनों को बी.ए.तक सागर पढ़ने को भेजा । पुनः शाहपुर आ गये । इसी दुकान को बड़े रूप में बना लिया था। 1. अभय कुमार के पाँच सुपुत्री व एक पुत्र है।
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 2. भानुकुमार के दो सुपुत्री व दो पुत्र है। 3. राजेन्द्र कुमार के चार पुत्री व एक पुत्र है।
सभी गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे हैं, धर्म साधना के साथ ही जीवन व्यतीत कर रहे हैं। राजेन्द्र कुमार प्रतिभाधारी हैं। सभी धर्म से संस्कारित है।
सन् 1990 जून में धरमचन्द्र जी को ब्रेनहेमरेज हो जाने से 72 वर्ष की उम्र में स्वर्गवास हो गया था तथा इनकी पत्नि की समाधि भी 2 नवम्बर 2004 में समता पूर्वक सबको पास बुलाकर सब त्याग कर दिया और मंत्र पढ़ते हुये प्राणों का विसर्जन किया।
बीसवीं शदी दिवंगत आशुकवि स्व. पं. फूलचंद जी जैन “पुष्पेन्दु" (खुरई)
सेठ मोतीलाल जैन
पंत, नगर सागर रत्न प्रसविती भारत वसुंधरा में उसकी सस्य श्यामला, मलयज शीतला, कोड़ में अनेक रत्न तो प्रसूत हुये हैं तथा हो रहे हैं, लेकिन इस वसुंधरा की कोड़ में अनेक सारस्वत रत्न प्रसूत हुये हैं जिन्होंने अपनी विद्वतारूपी प्रभा से ज्ञानालोक प्रसरित किया है। भारतवर्ष की हृदयस्थली में स्थित बुंदेलखण्ड'अपनी प्राकृतिक गरिमा तथा सांस्कृतिक गरिमा से गौरवमंडित रहा है। छत्रसाल जैसे सूरमाओं ने अपनी विजय पताका फहराई।
इस 'बुंदेली माटी' के अनेक लाल आज भी अपनी लालिमा से भाषित होकर तमिसा को खंडित कर रहे हैं इसी शृंखला में बुंदेली माटी के गौरव, नर-रत्न बहुसंख्य विद्वत शिरोमणि इसी वसुंधरा की देन है।
__ सफल आशुकवि, करूणा की साक्षात मूर्ति, भारतीय संस्कृति तथा जिनवाणी के आदर्श सेवक, आदर्श अध्यापक सफल मंच संचालक स्व. पं. संचालक फूलचंद जी पुष्पेन्दु का जन्म खुरई जिला सागर म.प्र. में तत्कालीन सफल वैद्य व्रती बालचंद्र जी जैन के प्रथम पुत्र के रूप में हुआ था। आपके पिताजी देवशास्त्र गुरु के सच्चे भक्त थे। माताजी आदर्श भारतीय विचारों की कुशल गृहणी थी। पं. फूलचंद जी पुष्पेन्द्र के छोटे भाई पं. वैद्यराज श्री बाबूलाल जी जैन एक सफल समाज सुधारक तथा संगठक हैं। विद्वत् परिषद् से इनका घनिष्ठ संबंध रहा है कुशल वैद्य तथा धर्मप्रचारक हैं। कृतित्व
अपारे खलु संसारे कविरेव प्रजापति: यथास्मै रोचंते विश्वं तदैव परिवर्तते ।
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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कवि अपनी कल्पनाशीलता के कारण ही मानवीय संवेदना से अभिभूत होकर काव्य सृजन करता है , जो विश्व की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक धरोहर के रूप में सदियों तक अमर संदेश छोड़ता रहता है इसी परम्परा के पं. पुष्पेन्दु जी एक सफल आशुकवि थे। महावीर श्री चित्र शतक (2500 वें निर्वाण वर्ष पर प्रकाशित) के सफल सम्पादक रहे । सरल पद्यांश रचना आपकी मौलिक विशेषता थी।आपकी सफल लेखनी से तथा आपके अभिन्न स्व. मित्र पं. कमल कुमार जी "कुमुद" के सक्रिय सहयोग से श्री कुंथसागर स्वाध्याय सदन प्रकाशन खुरई की स्थापना हुई थी। दोनों विद्वानों की सफल आजीवन सेवाएँ इस प्रकाशन संस्था को मिलती रही। पं. कुमुद जी तथा पं. पुष्पेन्दु दोनों राम लक्ष्मण की जोड़ी से जाने जाते थे। समाज ने कई बार दोनों विद्वानों का सम्मान किया। कवि पण्डित स्व. सेठ श्रीमंत ऋषभ कुमार जी तथा गुरहा जी ने प्रकाशन में आजीवन सक्रिय सहयोग दिया। कुंथसागर स्वाध्याय सदन खुरई से लगभग 500 ग्रन्थों का सफल प्रकाशन हो चुका है। प्रकाशित रचनाएँ :
___पं. पुष्पेन्दु जी की प्रकाशित पद्य रचनाओं में प्रमुख हैं - (1) अन्थउ का सफल समश्लोकी पद्यानुवाद (2) तीर्थ वन्दना (दृश्य काव्य) (3) भक्तामर स्त्रोत पद्यानुवाद (मंगल गीता) (4) पार्श्वनाथ पूजन (भावातिरेक पूर्ण पूजन) (5) सैकड़ों धार्मिक कविताएँ (6) पद्यपूर्ण अभिनंदन पत्र । काव्यगत मूल्यांकन :
महाकवि "रइधु" के लघुकाव्य "अणत्थमऊ" का सफल समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद नवयुवकों का प्रेरणा स्त्रोत है। 17 वें प्राकृत पद्य का सुन्दर हिन्दी अनुवाद उनकी काव्यगत विशेषता को दर्शाता है यथा
"अन्थऊ की यह कथा सुनेंगे, रूचिपूर्वक जो नरनारी। स्वयं पढ़ेंगे तथा पढ़ावेंगे, औरों को यह प्यारी ॥ मनवांछित फल पाकर क्रमश: वे शिवसुख को भोगेंगे।
रइधू कवि का कथन, मोक्ष के वे अधिकारी होवेंगे।" पं. पुष्पेन्दु जी का "तीर्थवंदना" प्रकाशित दृश्य काव्य है। इसमें 30 मार्च 1967 को श्री गोम्मेटेश्वर -महामस्तकाभिषेक पर खुरई से बस द्वारा की गई खुरई के साधर्मी बंधुओं की तीर्थवंदना का सजीव वर्णन किया गया है। कवि स्वयं साथ थे। संघपति सवाई सिंघई श्री भैयालाल जी गुरहा थे 55 यात्रियों वाली बस का नाम “तीर्थवर्धनी' रखा गया था। इस लघु दृश्य काव्य को पाठक आद्योपान्त पढ़े बिना नहीं छोड़ता है। निर्जीव बस किस प्रकार सजीवों को परोपकार की शिक्षा देती है। यह कवि की विशेषता है, जो दृष्टव्य है :
"सरपट दौड़ी चलो निरंतर रुकने का कुछ काम नहीं। हे अहिंसके । तूने जाना, दुर्घटना का नाम नहीं ॥ तेरी छाती पर हम सबने, मिल मनमानी मूंग दली । स्वयं खूब विश्राम किया, पर दिया तुझे आराम नहीं॥ पचपन जीवों का बोझा था, बात अलग सामान की।
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निर्जीवा । हमें सिखा दे, सीख स्व पर कल्याण की ॥ " एक अन्य पद्य अत्यंत प्रमाणिक है :
दिशा बदल दोगे यदि अपनी दशा बदल खुद जायेगी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
" संयम नियम प्रतिज्ञा लेना, जैन बिम्ब के सामने । पाप प्रकट कर देना, जो जो किये आत्माराम ने ॥ आलू भटा प्याज छोड़ो, या मत छोड़ो कुछ हानि नहीं । क्रोध - मान- छल- लोभ, छोड़ना, कहा पूर्ण विश्राम ने ॥ एक नया पैसा मत छोड़ों, चर्चा यहाँ न दान की । किन्तु छोड़ दो बुरी नजर को, यही बात है स्यान की ॥ दिशा बदल दोगे यदि अपनी, दशा बदल खुद जावेगी । दृष्टि बदलते ही बदलेगी, सृष्टि चेतनावान की ॥ "
पूज्य प्रात: स्मरणीय मुनिवर श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज अपने वचनामृतों से यही निर्देश देते है कि यदि मानव अपनी दशा जीवन जीने का ढंग जो कि भौतिकवाद से प्रभावित है बदल दे तो उसकी दशा बदल जायेगी अर्थात् वह आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख हो जायेगा । यही भाव कवि ने प्रसाद गुण के माध्यम से व्यक्त किया ।
भक्तामर स्त्रोत का पद्यानुवाद मंगलगीता के नाम से किया है जिसे पढ़ने में लगभग 1 घण्टा लगा है। प्रारंभ इस प्रकार किया है -
"आदिनाथ के श्रीचरणों में, सादर शीष झुकाता हूँ ।
"
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल गीता गीता हूँ ॥
भगवान महावीर स्वामी के 2500 वें जन्म महोत्सव पर प्रकाशित "वर्धमानशतक" संकलित ग्रन्थ में, पं. पुष्पेन्दु की 4-5 रचनाएँ प्रकाशित हैं।
चिन्तामणि भगवान पार्श्वनाथ की पूजन इस ढंग से लिखी है कि मंदिर में भक्तगण भाव विभोर होकर पढ़ते हैं।
श्री पुष्पेन्दु जी ने इन पक्तियों के मर्म को पूजन में सृजित किया है :
हृदवर्तिनी त्वयि विभो शिथली भवन्ति
जन्तो: क्षणेन निविडामपि कर्म बंधा: ।
जो मानव प्रभु पार्श्व के चरण कमलों को अपने हृदय में स्थापित कर लेता है उसके बंधन वैसे ही शिथिल हो जाते हैं जैसे कि चंदन में लिपटे हुये सर्प के बंधन, मोर को देखते ही शिथिल हो जाते हैं, पूजन इसी भाव से पूरित है। प्रत्येक पद में रसाभिव्यक्ति होती है । स्व. आशुकवि कल्याण कुमार जी शशि तथा पं. पुष्पेन्दु जी एक ही प्रतिभा के दो महान आशुकवि थे ।
उपसंहार
बहुआयामी काव्य प्रतिभा के धनी स्व. पं. फूलचंद जी "पुष्पेन्दु " की अमर रचनाएँ उनके
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सेवायश की कीर्ति पताका सदैव फहराती रहेंगी। वे यश रूपी शरीर से आज भी जीवित हैं ।
"सादा जीवन उच्च विचार" वाली कहावत पं. पुष्पेन्दु जी के जीवन में अक्षरश: साबित होती है । पं. पुष्पेन्दु का व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी था । वे भारतीय जैनागम के आदर्श सेवक थे। उनके महानगुणों को पूर्णरूपेण दर्शाना सूर्य को रोशनी दिखाने के समान है तथापि विद्वत संगोष्ठी के निमित्त जो कुछ बन सका, लिखने का प्रयास किया। मैं उनके महानगुणों के प्रति नतमस्तक हूँ। उनके जीवन से हम यही शिक्षा ग्रहण करें तो सारे मतभेद अपने आप समाप्त हो जाते है ।
"व्यवहारों में जो सोता है, निश्चय में वह जागता । स्थिर हो जाना अभेद में, कला भेद- विज्ञान की ॥ " समसामयिक विषयों के उदीयमान लेखक
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