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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ __ संसारी जीव मिथ्यात्व कर्म के उदय से जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये धर्म की निंदा करता है तथा कुधर्म, कुलिंग और कुतीर्थ को मानता है, इसलिए संसार - सिंधु में भटकता है ।
साथ ही यह मूढ संसारी प्राणी जीव-राशि के घात से माँस, मदिरा के सेवन तथा पराये धन परस्त्री के हरण से अर्जित महापाप के कारण संसार में भटकता रहता है। कैसा आश्चर्य है कि अल्पज्ञ जीव मोहरूपी अन्धकार से अन्धा हुआ दिन-रात इन्द्रिय - विषयों के निमित्त यत्नपूर्वक पाप करता रहता है । ऐसा यत्न अगर मोक्ष - मार्ग में कर लिया होता तो क्षणमात्र में मुक्ति को प्राप्त कर लिया होता।
चार गतियों के दुःख - इस लोक में मनुष्य, तिर्यंच, नरक, देव ये चार गतियाँ है । यह जीव अपने - अपने शुभाशुभ परिणामों से इन गतियों में जन्म - मरण करता रहता है। चारों ही गतियों में परमार्थ- दृष्टि से देखा जाये तो कहीं भी सुख दृष्टिगोचर नहीं होता, सत्य तो यह है । ये गतियाँ संसारी जीवों की होती है। संसार में यदि सुख होता, तो फिर संसार ही किसे कहते ? फिर वह मोक्ष ही हो जाता। जो संसार में संसारी बनकर रहने में पूर्ण सुख की बात करे, वह व्यक्ति बालू को पेलकर तेल तथा पानी मथकर घृत को निकालना चाहता है। क्या यह संभव है ? यदि नहीं, तो फिर संसार में सुख की कल्पना भी असंभव है। नरक गति के दु:ख - पापकर्म के उदय से यह जीव नरक में जन्म लेता है। वहाँ पाँच प्रकार के दु:खों को प्राप्त करता है।
'असुरोदीरिय-दुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं ।
खित्तुब्भवं च तिव्वं अण्णोण्ण-कयं च पंचविहं ॥ कातिकेयानुप्रेक्षा 35॥' अर्थात् पहला असुर-कुमारों के द्वारा दिया गया दुःख और दूसरा शारीरिक दुःख, तीसरा मानसिक दुःख, चौथा क्षेत्र से उत्पन्न होने वाला दुःख, पाँचवां अनेक प्रकार से परस्पर में दिया गया दुःख - यह पाँच प्रकार का नरकों का दु:ख है। असुर जाति के देव नारकीय जीवों को परस्पर में लड़ाते हैं। नारकियों का शरीर अत्यंत वीभत्स होता है। प्रतिक्षण अशुभ ही करते हैं । प्रतिक्षण अशुभ ही चिंतवन करते हैं। यदि अच्छा करना भी चाहें तो भी अच्छा नहीं होता; ऐसा भूमि व गति का प्रभाव है। वहाँ की भूमि अत्यंत तीक्ष्ण क्षारीय है, स्पर्श- मात्र से तीव्र वेदना होती है, जैसे हजारों बिच्छुओं ने एक साथ डंक मारा हो। नारकीय जीव परस्पर में कुत्तों की भाँति एक - दूसरे से लड़ते रहते हैं। एक श्वास समय मात्र के लिए भी उन्हें सुखशांति का वेदन नहीं होता । इस प्रकार बहु-आरंभ परिग्रह एवं तीव्र कषाय - परिणामों से ऐसी अशुभ गति को जीव प्राप्त करता है। तिर्यंच गति के दुःख -
'तत्तोणीसरिदूणं जायदितिरिएसु वहु-वियप्पेसु ।
__ तत्थविपावदि दुक्खं गन्भेवियछेयणादीयं ॥का. अ. 40॥' अर्थात् नरक से निकलकर जीव अनेक प्रकार के त्रिर्यंचों में जन्म लेता है। वहाँ गर्भज- अवस्था में छेदनादि का दुःख पाता है। एक त्रिर्यंच दूसरे त्रिर्यच को खा लेता है। यहाँ तक कि जन्म देने वाली माता भी स्वयं के बच्चे को खा जाती है। क्रूर - हृदयी नरों द्वारा भी त्रिर्यचों को उल्टे-मुख लटकाकर गला निकाल लिया जाता है। कोई रक्षा करने वाला वहाँ नहीं दिखता।
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