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कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सारांश :- हे मुनीश्वर महावीर ! स्यात् कथंचित् (दृष्टिकोण) से सहित आपका वह स्यादवाद (अनेकान्तवाद) सिद्धान्त, प्रत्यक्ष परोक्षज्ञान का विरोध न होने से निर्दोष है । परन्तु स्यात् इस शब्द से रहित कथन, प्रत्यक्ष, परोक्ष ज्ञान का विरोधी होने से एकान्तवाद ( हठवाद) निर्दोष नहीं है, अपितु दोषपूर्ण है । अनेकान्तवाद और स्यादवाद में अन्तर :
जैन दार्शनिक ग्रन्थों में अनेकान्तवाद और स्यादवाद ये दो शब्द उपलब्ध होते है, उन दोनों में अन्तर विचाराधीन है | सामान्य सिद्धान्त की अपेक्षा तथा द्रव्य की अनन्त धर्म शक्ति के सद्भाव की अपेक्षा अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में कोई अंतर नहीं है । उन दोनों शब्दों के द्वारा ही पदार्थ के अनन्त धर्मो की सत्ता एवं सिद्धि होती है। दर्शनग्रन्थों एवं धर्मग्रन्थों में प्राय: अनेकान्तपद से स्याद्वाद का और स्याद्वाद से अनेकान्तपद का ग्रहण किया गया है, जैसे- आचार्य श्री अमृत चंद्र की वाणी है - “सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्”
(आ. अमृतचंद्रः पुरुषार्थ पद्य 2) इस पद्य की टीका में अनेकान्तपद से स्याद्वाद का ग्रहण किया गया है। समंतभद्राचार्य की उक्ति :"अनवद्य : स्यादवाद: तब दृष्टेष्टाविरोधत: स्याद्वाद :" |
इसका सारांश उपरिकथित है। इस पद्य में प्रथम स्यादवाद शब्द से अनेकान्तवाद का ग्रहण किया
गया है ।
बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतु:, बद्धश्च मुक्तश्च फर्लं च मुक्ते : । स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तं, नैकान्तदृष्टे : त्वमतोसि शास्ता ॥
(बृहत् स्वयंभूस्तोत्र पद्या 4 ) नाथ, बन्ध, मोक्ष, बन्धहेतु, मोक्षहेतु, बद्ध, मुक्त, मुक्ति का फल ये तत्व अनेकान्तवादी आपके दर्शन में ही सिद्ध होते हैं । एकान्तवादियों के मत में सिद्ध नहीं होते है । अत: आप यथार्थ तत्वों के प्रणेता है। इस पद्य में स्यादवाद शब्द से अनेकान्तवाद का ग्रहण टीका में किया गया है।
शब्दार्थ, संज्ञा स्वरूप और प्रयोग की अपेक्षा उन दोनों (अनेकान्तवाद - स्यादवाद) में अन्तर दृष्टिगोचर होता है । तथाहि -
1. अनेकान्तवाद
स्याद्वाद - अनेक + अन्त+वाद = अनेकांतवाद, स्यात् + वाद = द्रव्य का सिद्धांत सिद्धांत की प्रयोग शैली
वाच्य
वाचक
साध्य
साधक
लक्ष्य
लक्षक
विधेय
विधेयक
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स्याद्वाद
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