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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आर्यसमाज - इस सम्प्रदाय के जन्मदाता ऋषि दयानंद सरस्वती है। इसकी मान्यता है कि परमात्मा, जीव और प्रकृति ये तीन पदार्थ अनादि काल से है। "मुक्ति में जीव विद्यमान रहता है। विश्वव्यापी ब्रह्म में वह मुक्त जीव बिना रूकावट के विज्ञान-आनंद पूर्वक स्वतंत्र विचरता है।" "जीव मुक्ति पाकर पुन: संसार में आता है।" "परमात्मा हमें मुक्ति में आनंद भुगाकर फिर पृथ्वी पर माता-पिता के दर्शन कराता है।" (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास पृ. 252) ईसाईमत - इस मत के जन्मदाता महात्मा ईशा हैं। इस मत के धर्मग्रन्थों से सिद्ध होता है कि यह जीव स्वयं अपने पुरुषार्थ से पूर्ण शुद्ध परमात्मा बनने की शक्ति रखता है और एक दिन परमात्मा बन सकता है। (न्यू टेस्टामेन्ट) इच्छा करो और तुम प्राप्त कर लोगे। खोजो और तुमको मिल जायेगा। खटखटाओं और तुम्हारे लिए दरवाजा खुल जायेगा । क्योंकि जो चाहता है वह पा सकता है । जो खोजता है वह ले सकता है। जो खटखटायेगा उसके लिए द्वार खुल जायेगा। इसका भाव ही है कि मुक्ति तुम्हारे ही पास है जो पुरुषार्थ करता है वह पाता है। (सैन्ट मैथ्यू) जब परमात्मा रूप आत्मा होता है वही मुक्ति है स्वाधीनता है। (कोरनिथियन्स) पारसी धर्म हे परमात्मा मेरी अंतरंग विवेक बुद्धि मुझे वह सत्य बतावे जो मेरी रक्षार्थ व शांति के लाभार्थ सर्व सिद्धांतों में उत्तम सिद्धांत है । इसी से मैं आत्मा को इष्ट जो स्वानुभव है उसे प्राप्त करूंगा । वह स्वानुभव परमज्योतिमय है, परम पवित्र है, बलिष्ठ है, सदा ही आनंदमय है और आश्चर्यकारक लाभकारी है । वही मुक्ति है। (विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा पृ. 233) मुस्लिम धर्म - मुस्लिम धर्म के प्रवर्तक मौलवी मोहम्मद है। इस धर्म की मान्यता है कि "जो कोई अपने को पवित्र रखेगा वह अपने ही को पवित्र करता है। परमात्मा के पास अंतिम सबको एकत्र होना होगा। वास्तव में जो परमात्मा की पुस्तक पढेंगे, प्रार्थना करेंगे, सर्वसाधारण को गुप्तरीति से दान करेंगे, उन को ऐसा सौदा मिलेगा जो कभी नष्ट नहीं होगा।" अर्थात् मुक्ति प्राप्त होगी। उपरिकथित विभिन्न दर्शनों और धर्मो की मान्यता एवं सिद्धांतों से सिद्ध हो जाता है, कि आत्मा की यदि बंधन दशा है तो उसकी विरोधी मुक्ति अवस्था भी अवश्य होती है । इसलिए प्रत्येक दर्शन या धर्म ने किसी न किसी रूप में मुक्ति मोक्ष (पूर्णस्वतंत्रता) को अवश्य स्वीकार किया है उस की सत्ता का लोप, अतीन्द्रिय होने पर भी कदापि नहीं हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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