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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ और अपनी धरती, मातृभूमि के प्रति सेवा समर्पण का भाव ही लक्ष्य होता था। हमारे ऋषि मुनि, मनीषी कितने महान् रहे होगे, जिन्होंने सम्पूर्ण मानवीय अस्मिता को समेटकर रख दिया वेदों और पुराणों में किन्तु कहीं भी नामोल्लेख नहीं । वर्णी जी आज के युग चेताओं को युग संदर्भ में संदेश देने वाले एक ऐसे ही ऋषि, मुनियों की परम्परा के रूप में उभरे है और प्रेरणा देते है उन व्यक्तियों को जो प्रचार-प्रसार नामोल्लेख की पट्टी का होड़ की आपाधापी में पड़े महत् लक्ष्य को बिखेर देते है। यह भारतीय परम्परा नहीं । वृक्षारोपण के आज के महोत्सव में वर्णी जी का संदेश कितना समीचीन है जब वे अमराई के रोपण की प्रेरणा देते है । और तुलसी के चौरे की मानसिकता का विश्लेषण करते है। कितना प्रेरक और कितना अनुकूल है उनका ये संदेश कैमरे की क्लिक और समाचार पत्रों के बीच वृक्षारोपण की भावना के समक्ष । ऐसे प्रखर व्यक्तित्वों की जयंतियाँ नहीं मनायी जाती। जयंती मनाना एक उत्सव धर्मिता है। महत्वपूर्ण है उसके बीच छिपी हुई भावना, और सांस्कृतिक अनुभूमि । किन्तु विडम्बना यह है कि हम उत्सवी, ताम-झाम और समारोहों की साज-सज्जा मूल चेतना को प्राय: भूल जाते है । वर्णी जी ने क्या किया यह तो प्रत्येक वर्ष दोहराया जाता है। हमें क्या करना चाहिए। स्वाधीनता के पश्चात् इस भटकते हुए भारतीय मनुष्य को किस रूप में उनका अनुशासन करके इस भटकन से छुटकारा पाना चाहिए। यह चिंतन इस युग मानव का सच्चा स्मरण होगा। वे वंदनीय इसलिए नहीं है कि उन्होंने जैन धर्म को स्वीकार करके प्रवचन दिये थे बल्कि इसलिए कि उन प्रवचनों के माध्यम से उन्होंने इस महान् देश की महती संस्कृति को पहचानकर बुंदेलखण्ड की सीमाओं में जो अलख जगाया था वह भारतीयता से व्यक्त ऋषियों और मुनियों की वह वाणी थी जो कभी वेदों के माध्यम से गंगा यमुना के तटों से उच्चरित हुई थी । और नर्मदा, काबेरी और कृष्णा को गुंजाती हुई महासागर तक ध्वनित हुई थी। ऐसे व्यक्तित्व न तो किसी धर्म की सीमा में रहते है और न ही किसी राष्ट्र की भौगोलिक रेखा उन्हें बांध सकती है। वे युग मानव के प्रतीक होकर सम्पूर्ण मानवता को चेतना देकर अजर अमर बन जाते है। Jain Education International * 532 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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