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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जाते हैं। छठवीं से निकले हुए नारकी मनुष्य तो होते है पर संयम धारण नहीं कर सकते। पाँचवी पृथ्वी से निकले हुए नारकी मुनिव्रत तो धारण कर लेते है परन्तु मोक्ष नहीं जाते । चौथी पृथ्वी से निकले हुए नारकी मोक्ष प्राप्त कर सकते है परन्तु तीर्थंकर पद प्राप्त नहीं कर सकते। पहली, दूसरी और तीसरी पृथ्वी से निकले हुए नारकी तीर्थंकर भी हो सकते हैं। तिर्यञ्चगति -
तिर्यञ्च गति नाम कर्म के उदय से जीव की जो दशा होती है उसे तिर्यञ्च गति कहते है। तिर्यञ्च कुटिल भाव से युक्त होते हैं। उनकी आहार आदि संज्ञाएँ अत्यन्त प्रकट हैं, अत्यंत अज्ञानी हैं और तीव्र पाप से युक्त हैं। जो जीव पूर्वपर्याय में मायाचार रूप प्रवृत्ति करते हैं उन्हीं के तिर्यञ्च आयु का बन्ध होकर तिर्यच गति प्राप्त होती है। इनका गर्भ और संमूर्छन जन्म होता है । एकेन्द्रिय से लेकर पाँचों इन्द्रियाँ इनके होती हैं। तीनों लोकों में सर्वत्र व्याप्त हैं । आगम में इनके सामान्य तिर्यच, पञ्चेन्द्रिय तिर्यच, पर्याप्तक तिर्यच, अपर्याप्तक तिर्यच और योनिमती तिर्यच के भेद से पाँच भेद कहे गये हैं।
संक्षेप से इनके कर्मभूमिज और भोगभूमिज की अपेक्षा दो भेद हैं । जिन जीवों ने पहले तिर्यच आयु का बंध कर लिया, पीछे सम्यग्दर्शन प्राप्त किया, ऐसे जीव भोगभूमिज तिर्यचों में उत्पन्न हो सकते हैं परन्तु कर्म भूमिज तिर्यचों में नहीं । तिर्यचगति के वध बन्धन आदि से होने वाले दुःख प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, इसलिए निरंतऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि जिससे तिर्यच आयु का बंध न हो सके। तिर्यक गति में चौदह जीव समास होते हैं। विस्तार से विचार किया जावे तो 98 जीव समासों में 85 जीव समास तिर्यच गति में होते हैं और चौरासी लाख योनियों में बासठ लाख योनियां तिर्यच गति में होती हैं। इसमें एक से लेकर पाँच तक गुणस्थान हो सकते हैं अर्थात् संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यच सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं और कर्म भूमि में उत्पन्न हुए कोई - कोई पंचेन्द्रिय तिर्यच एकदेश व्रत भी धारण कर सकते हैं । आगम में बताया है कि स्वयंभूरमण समुद्र के बाद जो पृथ्वी के कोण हैं उनमें असंख्यात पंचेन्द्रिय तिर्यच व्रती होते हैं और मरकर वे वैमानिक देवों में उत्पन्न होते है।
तिर्यच गति में जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य की होती है । मनुष्यगति -
मनुष्यगति नाम कर्म के उदय से जो अवस्था प्राप्त होती है उसे मनुष्यगति कहते हैं । यतश्च ये तत्व अतत्व - धर्म अधर्म का विचार करते हैं, मन से गुण दोष आदि का विचार करने में निपुण हैं अथवा कर्म भूमि के प्रारंभ में चौदह मनुओं - कुलकरों से उत्पन्न हुए हैं इसलिए मनुष्य कहलाते हैं। आगम में मनुष्यों के सामान्य, पर्याप्तक, अपर्याप्तक और योनिमती के भेद से चार भेद बताये गये हैं। वैसे तिर्यंचों के समान इनके भी कर्म भूमिज और भोगभूमिज की अपेक्षा दो भेद हैं। तत्वार्थ सूत्रकार ने इनके आर्य और म्लेच्छ इस प्रकार दो भेद कहे हैं। मानुषोत्तर पर्वत के पूर्व पूर्वतक अर्थात् अढाई द्वीप और दो समुद्रों में इनका निवास है। इनमें संज्ञी
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