________________
कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रथम नरक की अपर्याप्तक अवस्था में पहला और चौथा गुणस्थान होता है तथा पर्याप्तक अवस्था में प्रारंभ के चार गुणस्थान होते हैं । द्वितीय को आदि लेकर नीचे की छह पृथिवियों में अपर्याप्तक अवस्था में मात्र मिथ्यादृष्टि नामक पहला गुणस्थान होता है और पर्याप्तक अवस्था में प्रारंभ के चार गुणस्थान होते हैं। नरकगति की अपर्याप्तक दशा में सासादन और मिश्र गुणस्थान नहीं होते। क्योंकि सासादन गुणास्थान में मरा हुआ जीव नरकगति में उत्पन्न नहीं होता और मिश्र गुणस्थान में किसी का मरण होता ही नहीं है, इसलिए यह नरकगति ही क्यों सभी गतियों की अपर्याप्तक अवस्था में नहीं होता। नरकगति के विविध दुःखों का दिग्दर्शन -
उपर्युक्त नरकों में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण ओर शब्द अत्यन्त भयावह हैं। वहां की भूमि का स्पर्श होते ही उतना दु:ख होता है जितना कि एक हजार बिच्छुओं के एक साथ काटने पर भी नहीं होता । यही दशा वहां के रस आदि की है। नरकों में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ लेश्याएं होती हैं। पहली और दूसरी भूमि में कापोती लेश्या है, तीसरी भूमि में ऊपर के पटलों में कापोती लेश्या और नीचे के पटलों में नील लेश्या है। चौथी भूमि में नील लेश्या है, पांचवी भूमि में ऊपर के पटलों में नील लेश्या है, और नीचे के पटलों में कृष्ण लेश्या है। छठवी पृथिवी में कृष्ण लेश्या है और सातवीं में परम कृष्ण लेश्या है। इन नारकियों का शरीर अत्यन्त विरूप आकृति तथा हुण्डक संस्थान से युक्त होता है। प्रथम भूमि के नारकियों का शरीर सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल ऊंचा है। द्वितीयादि भूमियों में दूना - दूना होता जाता है।
पहली, दूसरी तीसरी और चौथी भूमि में उष्ण वेदना है, पाँचवी भूमि में ऊपर के दो लाख विलों में उष्ण वेदना और नीचे के एक लाख विलों में तथा छठवीं और सातवीं भूमि में शीत वेदना है। जिन नरकों में उष्ण वेदना है उनमें मेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला यदि पहुँच सके तो वह क्षण मात्र में गलकर पानी हो जावेगा और जिनमें शीत वेदना है उनमें फटकर क्षार क्षार हो जावेगा । वहाँ की विक्रिया भी अत्यन्त अशुभ होती है। नारकियों के अपृथक् विक्रिया होती है अर्थात् वे अपने शरीर में ही परिणमन कर सकते हैं पृथक् नहीं। वे अच्छी विक्रिया करना चाहते हैं पर अशुभ विक्रिया ही होती है। इन उपर्युक्त दु:खों से ही उनका दु:ख शान्त नहीं होता किन्तु तीसरी पृथ्वी तक असुर कुमार जाति के देव जाकर उन्हें परस्पर लड़ाते है। उन नरकों में क्रम से एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागर की उत्कृष्ट आयु होती है। कौन जीव नरक में कहां तक जाते हैं ?
असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पहली पृथ्वी तक, सरीसृप दूसरी पृथ्वी तक, पक्षी तीसरी पृथ्वी तक, सर्प चौथी पृथ्वी तक, सिंह पाँचवीं पृथ्वी तक, स्त्रियाँ छठवीं पृथ्वी तक, पापी मनुष्य तथा महामच्छ सातवीं पृथ्वी तक जाते है । एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव नरकों में उत्पन्न नहीं होते । नारकी मरकर नारकी नहीं होता तथा देव भी मरकर नरक गति में नहीं जाता। नरकों से निकले हुए जीव क्या - क्या होते हैं ? सातवीं पृथ्वी से निकले हुए नारकी मनुष्य नहीं होते, किन्तु तिर्यञ्चों में उत्पन्न होकर फिर से नरक
-311
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org