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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जीवन को जो सार्थक कर दें, उसे महावीर कहते हैं। उसे वीतरागी जिन कहते है। भगवान श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी समयसार में लिखा है गाथा :- रत्तोबंधदि कम्मं मुंचति जीवो विराग संपत्तो।
ऐसो जिणोव देशो, तम्हा कम्मेषु मा रज्जय ॥ रागी जीव कर्मो को बांधता है, राग रहित प्राणी कर्मों को छोड़ता है। कर्म बंध के विषय में जिनेन्द्र भगवान का यही उपदेश है कि कर्मो से राग मत करो। छहढाला में पं. दौलतराम जी ने भी यही कहा है
यह राग आग, दहै सदा तातें समामृत सेइये । यह राग रूपी आग संसारी प्राणियों को सदैव जलाती रहती है । इससे “समताभाव रूपी अमृत" का पान संसारी प्राणियों को ग्रहण करना श्रेयस्कर है।।
राग का कारण सर्वप्रथम "शरीर" से है शरीर में पाँचों इन्द्रियाँ होती है पाँचों इन्द्रियों के जो विषय होते हैं उनसे “राग' होता है । जब इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति नहीं होती है तो द्वेष होता है। तभी क्रोध,मान,माया,लोभ के परिणाम जागृत होते हैं। स्त्री से, संतान से, रिस्तेदारों से, राग की परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाती है। जमीन जायजात, राजपाट, सोना-चाँदी आदि सभी से राग बढ़ता चला जाता हैं। अध्यक्ष पद, मंत्री पद आदिक सभी पदों से राग होता रहता है। इससे सकलज्ञेय ज्ञायक की स्तुति में इसी को पुष्ट किया है।
_ "आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाये" __ सबसे पहले आत्मा के अहित करने वाले पाँचों इन्द्रियों के विषय मुख्य हैं उनकी पूर्ति न होने पर कषाय पैदा होती है। इससे विषय के बाद कषाय को लिखा है। कहा भी है:
"जग में बैरी दोये है एक राग अरूद्वेष ।
इनके ही व्यापार हैं नहीं मिलता संतोष" ॥ तीनों लोकों में रागद्वेष का ही व्यापार चल रहा है । इससे संतोष नहीं मिलता है। विनय पाठ में भी कहा है
"राग सहित - जग में स्लो, मिले सरागी देव ॥" राग से जग में भ्रमण कर रहा है गुरु भी रागी मिले, जिससे दोनों का संसार बढ़ता चला जा रहा है । इस पंचम काल में, इस भौतिक युग में भी राग बढ़ता चला जा रहा है।
शरीर की शोभा के लिए जीवों की हिंसा से बनने वाले लिपिस्टिक पावउर, नेल पालिश आदिक फैशन के बहुत पदार्थो का निर्माण हो रहा है । जो केवल राग की पुष्टि करने वाले होते हैं एवं विषय वासनाओं का राग बढ़ाने वाले टी.वी. आदिक जो चौबीस घण्टे राग रंग में सभी मस्ती कर रहे है पापों का
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