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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रतिदिन अहिंसा की साधना के लिए सत्य हित प्रियवचनों का अल्प प्रयोग करना अथवा मौन धारण करना, दूषित चित्त की प्रवृत्ति को रोकना, प्राणियों की रक्षा तथा अपनी रक्षा के लिए चार हाथ आगे भूमि देखकर चलना, प्राणी रक्षा तथा आत्मरक्षा के लिए स्वच्छ एवं जीव जंतु रहित भूमि पर सावधानी से काम आने वाली वस्तुओं को रखना तथा उठाना, दिन में स्वच्छ प्रकाश तथा स्वच्छ हवा से युक्त स्थान में शुद्ध स्वच्छ भोजन करना इन पाँच कर्तव्यों का भावपूर्वक आचरण करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त अहिंसा की दैनिक आराधना के लिए निम्नलिखित कर्तव्यों का पालन करना चाहिए -
___ इच्छानुकूल गमनागमन रोकने के लिए रस्सी आदि से जानवर बालकों आदि प्राणियों को नहीं बांधना, किसी भी प्राणी को अंकुश, वेंत कोड़ा, आदि से नहीं मारना, प्राणियों के शारीरिक अङ्गो का हथियारों द्वारा छेदन भेदन नहीं करना, किसी भी प्राणी पर लोभ के वश होकर शक्ति से अधिक भार नहीं लादना, अपने आश्रित प्राणियों को (पशुओं या मानवों को) समय पर भोजन देना, चमड़े की वस्तुओं का उपयोग नहीं करना, मांस एवं मदिरा का सेवन तथा व्यापार नहीं करना, बड़ पीपल आदि पंच उदम्बर फलों का त्याग करना, कारण कि इन में स्थूल तथा सूक्ष्म चर प्राणी रहते हैं। जीव हिंसा तथा स्वास्थ्य की रक्षा के लिए वस्त्र से गलित जल का एवं गर्म जल का उपयोग करना, कीड़ों को उबाल कर बनाये गये रेशमी, मखमल आदि वस्त्रों का त्याग करना, चमड़े में रखे हींग घृत पानी आदि का त्याग करना, धूत (जुआ) आदि सात व्यसनों का त्याग करना, प्राणियों को देवी देवताओं के लिए बलिदान नहीं करना, आदि । शाकाहार से अहिंसा की साधना -
शाक भाजी अन्न फल मेवा मिष्टान्न दूध दधि घृत तेल आदि पदार्थो के भक्षण से शरीर की स्थिति, पुष्टि और निरोगता की रक्षा करना शाकाहार का प्रयोजन है ।दो इन्द्रिय आदि प्राणियों के शरीर के भक्षण से क्षुधा शान्तकर शरीर की रक्षा करना मांसाहार का प्रयोजन है। इन दो प्रकार के आहारों में शाकाहार को प्राप्त करना सुलभ है और मांसाहार को प्राप्त करना दुर्लभ है। शाकाहार के लिए हथियार की जरूरत नहीं रहती जब कि मांसाहार बिना हथियार के प्राप्त नहीं हो सकता । शाकाहार मानवीय प्राकृतिक भोजन है और मांसाहार तामसिक राक्षसी भोजन है। शाकाहार अहिंसा की उपज है जो कि मैत्री भाव को बढ़ाने का कारण है। तथा मांसाहार हिंसा की उपज है। जो कि क्रूर भाव को बढ़ाने में निमित्त है। जैन दर्शन में शाकाहार ग्राहय और मांसाहार त्याज्य दर्शाया गया है। मांसाहार से असंख्य जीवों का वध होता है।
आमा वा पक्वां वा खादति य: स्पृशति वा पिशित पेशीम् । स निहन्ति सतत निचितं पिण्डं बहुजीव कोटी नाम्॥8॥पुरुषार्थ
__(आचार्य अमृतचंद्र) श्री आचार्य ने दर्शाया है जो प्राणी कच्ची, पक्की अथवा सूखी हुई मांस की डली को खाता है या व्यापार करता है वह व्यक्ति सदा मांस में उत्पन्न हुए अनेक जाति के जीव समूहों की हिंसा करता है।
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