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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
टीका में स्पष्टतया इस प्रकार निरूपित किया गया है, उक्त रीति से प्राचीन आर्ष ग्रन्थों के बन्ध प्रकरण में पूर्ण रूप से सामञ्जस्य है ।
टीका ग्रन्थों में अवश्य समान जाति वालों के समान असमान जाति वालों में भी द्वयधिकता का नियम वर्णित है जो कि विचारणीय है ।
इतना लिखने के पश्यात् गोम्मटसार जीवकाण्ड की ओर दृष्टि गई उसमें भी उक्त आगमानुमोदित अर्थ की ही स्पष्ट झलक मिली, उक्त ग्रन्थ का 611 वाँ पद्य वर्गणा खण्ड के 34 वें पद्यात्मक सूत्र रूप ही है ऐसी अवस्था में इसकी व्याख्या धवला टीका के अनुसार की जाना ही उचित होगी, इस पद्यात्मक सूत्र द्वारा असमान जातीय पुद्गलों में रूपी (समान गुण वालों) एवं अरूपी (असमान गुण वालों) का बंध स्वीकृत किया गया है।
"णिद्धि दऐली मज्झे विसरिस जादिस्स सयगुणं एक्कं रूवित्ति होदि सण्णा सेसाणंता अरूवित्ति" (6 12) “दो गुण णिद्धाणुस्सय दो गुण लुक्खाणुगंहवे रूवी इगि ति गुणादि अरूवी रुक्खस्सवितंव इदि जाणे” (6 13) इन दो गाथाओं में रूपी और अरूपी का लक्षण और उदाहरण प्रकट किया गया है तदनुसार- असमान जातीय समानगुण वाले को रूपी, और असमान गुण वालों को अरूपी कहा गया है, इस तरह असमान जाति वालों के बन्ध में द्वयधिकता आवश्यक नहीं रहती है जीवकाण्ड की 614 वीं गाथा (पद्य) प्रवचनसार की टीका में उद्घृत पद्य के समान वर्गणा खण्ड के 36 वें पद्यात्मक सूत्र रूप ही है ।
“दोत्तिग पभव दुउत्तर गदे सणंतरदुगाण बन्धोदु । णिद्धे लुक्खे वि तहा विजहण्णुभये वि सव्वत्थ” (616) इस गाथा के प्रारंभिक 3/4 भाग में समान जाति वालों का द्वयधिकता में बन्ध प्रतिपादन कर, अंतिम 1/4 भाग में स्पष्ट उल्लेख किया है कि विजहण्णु भयेसव्वत्थविबन्धो, अर्थात् उभये - असमान जाति वालों में जघन्य गुण वालों को छोड़कर सबके साथ बन्ध होता है, यहाँ द्वयधिकता आवश्यक नहीं है।
इस प्रकार उक्त मूल ग्रन्थों में कोई मत भेद ज्ञात नहीं होता ।
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