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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "पुरुषार्थसिद्धयुपाय" दिनांक 3-11-1994 गुरुवार तिथि कार्तिक कृष्णा अमावश्या वीर निर्माण सं. 2521 को जिनका 2551 वाँ निर्वाण पर्व अखिल विश्व में मनाया गया है, उन चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर की आचार्य परम्परा के महान् आध्यात्मिक आचार्य अमृतचन्द्र जी ने विक्रम संवत् की 10 वीं शताब्दी में भारत को अलंकृत किया था। आपने संस्कृत में आध्यात्मिक ग्रन्थों का सृजन कर भारतीय संस्कृत साहित्य के विकास में पूर्ण सहयोग दिया। उन ग्रन्थों में एक ग्रन्थ "पुरुषार्थसिद्धयुपाय"है, जो सदगृहस्थों को गृहस्थ धर्म में दीक्षित करने के लिए लिखा गया है। इसमें तीन अध्यायों के अंतर्गत 226 पद्य आर्या छन्द में निबद्ध है । प्रथम आठ पद्यों में आवश्यक कथन के रूप में मंगलाचरण, ग्रन्थ रचना का उद्देश्य और निश्चय - नय और व्यवहार - नय का लक्षणपूर्वक स्याद्वाद शैली से ग्रन्थ रचना को आवश्यक उपादेय दर्शाया गया है । पश्चात् प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन द्वितीय में सम्यग्ज्ञान और तृतीय में सम्यक् चारित्र का व्याख्यान किया गया है। श्री पं. मुन्नालाल जी न्यायतीर्थ जैन - सिद्धांत के तलस्पर्शी विद्वान थे। आपने संक्षिप्त एवं रम्यशैलीपूर्ण इस "पुरुषार्थसिद्धयुपाय" ग्रन्थ का अनुभवपूर्ण अध्ययन किया । इस ग्रन्थ के यथानाम तथा गुण पर भी विचार किया कि पुरुष अर्थात् आत्मा का अर्थ अर्थात् प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ के पश्चात् मोक्ष - पुरुषार्थ की सिद्धि के उपाय (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) की व्याख्या इस ग्रन्थ में की गई है। इस कारण इस ग्रन्थ का नाम “पुरुषार्थसिद्धयुपाय" निश्चित किया गया है। इसका द्वितीय नाम "जिनप्रवचन - रहस्यकोष" भी प्रसिद्ध है। इसकी भी सार्थकता सिद्ध है कि जैन सिद्धांत के रहस्य (मर्म) का खजाना इस ग्रन्थ में विद्यमान है । इस ग्रन्थ की विषय - महत्ता का अनुभव कर रांधेलीय जी अपने हृदयस्थल में न समा सके। इसके तत्व को, इसलिए आपने अन्तस्तत्व को एक विशाल ग्रन्थ के रूप में बाह्य में उड़ेल दिया । इस ग्रन्थ में मूल संस्कृत श्लोकों का हिन्दी पद्यानुवाद किया गया है। इस रचना से आप की कवित्व शक्ति का भी परिचय हो जाता है यथा - मूल संस्कृत श्लोक - व्यवहार निश्चयौ य: प्रबुध्य तत्वेन भवति मध्यस्थ: । प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्यः ॥४॥ हिन्दी पद्यानुवाद जिस जीव ने व्यवहार, निश्चय,ज्ञान सम्यक् कर लिया है, वह त्याग दोनों पक्ष को "मध्यस्थ" मानो हो गया । वह ही महती जिन - देशना का लाभ पूरा प्राप्त कर नर, वह तत्वज्ञानी जैन - वाणी समझकर होता अमर ॥४॥ -327 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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