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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ षट् खण्डागम के बन्ध प्रकरण का सामञ्जस्य षट् खण्डागम के वर्गणा खण्ड सम्बन्धी पृष्ठ 30 से 33 तक सदृश (समान जातीय) पुद्गलों के बन्ध को प्रचलित पद्धति के अनुसार ही प्रतिपादित किया है अर्थात् उनमें जघन्य गुण वालों का एवं समान गुणांश वालों का बन्ध नहीं होता, द्वयधिक गुणांश वालों के साथ ही बन्ध होता है किन्तु असमान जातीय (स्निग्ध रूक्ष) पुद्गलों का जघन्य गुण वालों के सिवाय सबके साथ बन्ध होता है उनमें द्वयधिकता का नियम नहीं है, यही बात तत्वार्थ सूत्र के निम्नलिखित मूल सूत्रों से भी प्रकट होती है___न जघन्य गुणानाम्" (5-34) “गुण साम्ये सदृशानाम्" (5-35) "द्वयधिकादि गुणानाम् तु"(5-36) अर्थात् जघन्य गुण वालों का बन्ध नहीं होता, समान जातीय (स्निग्ध-स्निग्ध, और रूक्ष रूक्ष)पुद्गलों का गुणों की समानता में बन्ध नहीं होता उनका (समान जातीय पुद्गलों का) द्वयधिक गुण होने पर ही बन्ध होता है ऐसा अर्थ करने में सूत्रस्थ सदृशानाम् शब्द की विशेष सार्थकता सिद्ध होती है और प्राचीन सिद्धांत ग्रन्थ की मान्यता के साथ सामञ्जस्य बन जाता है, यहाँ सदृशानाम् शब्द की अनुवृत्ति आगामी 36 वें सूत्र में जाती है जो कि आगमानुकूल है। वास्तव में वर्गणा खण्ड के 32 वें से 36 वें सूत्र तक का, तत्वार्थ सूत्र (पञ्चमोध्याय) के 33 वें से 36 वें सूत्र तक पूर्ण प्रकाश पाया जाता है। प्रवचनसार के ज्ञेयाधिकार में भी उक्त प्रकरण है “णिद्धा व लक्खा वा अणु परिणामासमा व विसमा वा। समतो दुराधि या जदि बज्झन्ति हि आदि परिहीणा" (73) इसमें भी समान जाति वालों का ही द्वयधिकता में बन्ध का नियम बताया है, असमान जाति वालों का नहीं, असमान जाति वालों के बंध में जघन्य गुणता के सिवाय और कोई बाधक नहीं बताया है इसी विषय के उदाहरण रूप में 74 वीं गाथा निम्न प्रकार है। "णिद्धत्तणेण दुगुणोचदु गुण णिद्धेण बन्ध मणुभवदि। लुक्खेण वाति गुणिदो अणुबज्झदि पंचगुणजुत्तो" इस गाथा में समान जाति वालों का द्वयधिकता में बन्ध होता है इस विषय को उदाहरण द्वारा समझाया गया है असमान जाति वालों का बन्ध अनियमित होने से उसका कोई उदाहरण नहीं दिया है। इसी गाथा की टीका में निम्नलिखित वर्गणा खण्ड का 36 वाँ सूत्र उदधृत किया गया है। णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण । णिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बन्धो जहण्ण वज्जे विसमे समे वा ॥ इस पद्यात्मक सूत्र से भी उक्त अर्थ सिद्ध होता है । अर्थात् समान जाति वालों का द्वयधिकता में ही बन्ध होता है असमान जाति वालों के बन्ध में कोई नियम नहीं है वहाँ बन्ध की बाधक सिर्फ जघन्य गुणता ही है, इस पद्यात्मक सूत्र में दुराहिएण का अन्वय पद्य के पूर्वार्ध में ही है उत्तरार्ध में नहीं, इस सूत्र की धवला (325 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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