________________
कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दो चेवय मूलणया, भणिया दव्वत्थिपज्जयत्थिगया । अण्णे असंखसंखा, ते तब्भेया मुणेपव्वा ॥
(नयचक्र गा, 184) तात्पर्य - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों ही नय, मूलनय कहे गये हैं अन्य असंख्यातनय इनके ही भेद जानना चाहिए।
यद्यपि द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक और निश्चय एवं व्यवहार इन दो नय युगलों में क्रमशः कारण कार्य संबंध कहा गया है तथापि इनमें परस्पर विरोध नहीं है स्याद्वाद शैली से इनका समंवय भी किया जाता है। अन्य प्रमाण
“यद्यपि निश्चय नय को द्रव्याश्रित एवं व्यवहार नय को पर्यायाश्रित बताकर दोनों प्रकार से मूलनयों में समंवय का प्रयास किया गया है, तथापि यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि निश्चय और व्यवहारनय, द्रव्यार्थिक - पर्यायार्थिक के पर्यायवाची नहीं हैं।" (जिनवरस्य नयचक्रं पृ. 27)
उक्त प्रमाणों से यह निष्कर्ष घोषित होता है कि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों नय सब नयों में मूलरूप हैं, इनके आधार पर निश्चय और व्यवहार नयों का प्रयोग होता है, कारण कि लोक की स्थिति का मूलकारण द्रव्य है और उत्पाद नाश नित्यरूपसत् द्रव्य का लक्षण है, द्रव्य में गुण और पर्याय पाये जाते है इसी कारण दो नयों की मुख्यता हो जाती है - 1. द्रव्यार्थिकनय, 2. पर्यायार्थिकनय । इनके आधार से निश्चय और व्यवहार के प्रयोग होते है। निश्चय और व्यवहार नय की परिभाषा -
__ जो वस्तु के वास्तविक एक धर्म का अभेदरूप से प्रतिपादन करे उसे निश्चय नय कहते हैं अथवा एक स्वभाव का वर्णन करना अभेद रूप से निश्चय नय है जैसे आत्मा ज्ञानस्वरूप है, शुद्ध है इत्यादि । जो वस्तु के वास्तविक अर्थ को न कहकर अपेक्षावश अन्य अंश को ग्रहण करे उसे व्यवहारनय कहते हैं जैसे आत्मा की मनुष्य पर्याय अथवा अशुद्ध पर्याय । इस विषय में श्री आचार्य अमृतचंद्र जी की वाणी को देखिये
निश्चयमिह भूतार्थ, व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थं । भूतार्थबोधविमुख: प्राय: सर्वो पि संसार : ॥
(पुरूषार्थ सिद्धयुपाय श्लोक - 5) सारांश - इस ग्रन्थ में आचार्य अमृतचंद्र निश्चय को भूतार्थ (यथार्थ) और व्यवहारनय को अभूतार्थ (अयथार्थ) कहते हैं। प्राय: निश्चयनय के ज्ञान से समस्त संसार के प्राणी विपरीत हो रहे है। देवसेन आचार्य के मत की घोषणा -
(256
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org