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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
जीवतत्त्व
जीवतत्त्व पर प्रकाश डालते हुए पं. दयाचन्द्रजी शास्त्री, प्राचार्य गणेश दि. जैन विद्यालय सागर ने कहा
तस्य भावस्तत्त्व इस व्युत्पत्ति के अनुसार पदार्थ का जो यथार्थ स्वरूप है वह तत्त्व कहताता है। जीवन का यथार्थ रूप जीवतत्त्व है, अजीव का यथार्थ रूप अजीवतत्त्व है। इसी तरह आस्रव, बंध संवर, निर्जरा और मोक्षका जो यथार्थरूप है वह आस्रवादितत्त्व हैं। मूल में तत्त्व दो ही हैं एक जीव और दूसरा अजीव । इन दो तत्त्वों का सम्बन्ध जिस कारण से होता है वह आसत्व कहताता है। दोनों के सम्बन्ध को बन्ध कहते है। । आस्रत्व के अभाव को संवर कहते हैं । पूर्वबद्ध अजीव अर्थात् कर्म समूह के एकदेश क्षय को निर्जरा कहते हैं और सर्वदेश क्षय को मोक्ष कहते हैं। कुन्दकुन्द स्वामी ने पुण्य और पाप को शामिल कर नौ पदार्थो का वर्णन किया है परन्तु उमा स्वामी ने इन्हें आस्रव और बन्ध में समाविष्ट कर तत्त्वों की सात संख्या ही स्वीकृत की है। इन सात तत्त्वों में आस्रव और बन्ध तो संसार के कारण हैं और संवर तथा निर्जरा मोक्ष के कारण हैं । आज जीवतत्त्व के ऊपर विचार करना है । सात तत्त्वों में जीव ही प्रमुख तत्त्व है क्योंकि वही स्वपरावभासी है। दीपक के समान निज और पर का प्रकाशक है। 'चेतना लक्षणों जीव: चेतना जीव का लक्षण है। यह चेतना ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार की है। विशेष रूप से पदार्थ को जानना सो ज्ञान
चेतना है। निर्विकल्प-सामान्य रूप से पदार्थ को जानना सो दर्शन चेतना है। इसी द्विविध चेतना से सम्बन्ध रखनेवाला जीव का जो परिणाम है वह उपयोग कहलाता है । उपयोग भी ज्ञानोपयोग और दर्शननोपयोग के भेद से दो प्रकार का है। इस तरह जानना देखना ही जीव का स्परूप है ।यही इसका विशिष्ट-असाधारण स्वरूप है । यद्यपि अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरू लद्युत्व और प्रदेशत्त्व गुण भी जीव में रहते हैं पर वे साधारण गुण होने से जीव के सिवाय अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते है अत: उनसे जीव का निर्धार नहीं हो सकता । निर्धार तो विशिष्ट असाधारण गुणों से ही हो सकता है।
यह जीव अमूर्त्तिक है अर्थात् इनद्रियों के द्वारा इसका ग्रहण नहीं होता। स्वकीय शरीर में स्थित जीव का बोध स्वसंवेदन ज्ञान से होता है। मैं सुखी हूँ मैं दुखी हूँ, मैंने अमुक कार्य किया हैं, और अमुक कार्य मुझे करना है ‘इस प्रकार जो 'मैं' नामकी वस्तु अनुभव में आती है वही जीव तथा परकीय शरीर में उसकी चेष्टाओं के द्वारा जीव का अस्तित्व अनुभव में आता है।
आचार्यों ने जीव के तीन भेद बताये हैं - 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा और 3. परमात्मा । जो शरीर को ही आत्मा मानता है वह बहिरात्मा है, वह मूदों में मुखिया अर्थात् महामूर्ख कहलाता है, इसी को मिथ्यादृष्टि कहते हैं । इसका विस्तार प्रारम्भ से लेकर तृतीय गुण स्थान तक है । जो शरीर और आत्मा को पृथक-पृथक
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