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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनुभव करता है वह अन्तरात्मा कहलाता है ।यह अन्तरात्मा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ।इसका विस्तार चतुर्थ से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहता है । जिसने चार धातिया अथवा आठों कर्म नष्ट कर दिये हैं वह परमात्मा कहलाता है । चार घातिया कर्मो को नष्ट करने वाले सकल परमात्मा कहलाते है।। इन्हें ही अरहंत कहते हैं। यह तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान की अवस्था है। और आठों कर्मो को नष्ट करने वाले सिद्ध परमेष्ठी निकल परमात्मा मुक्त कहलाते है।। सकल परामात्मा को जीवन मुक्त कहते हैं । इन तीन प्रकार की परिणतियों में बहिरात्मा को हेय जानकर छोड़ना चाहिये और अन्तरात्मा बनकर उसके माध्यम से परमात्मा का ध्यान कर परमात्मा बनने का पुरूषार्थ करना चाहिये। यह जीव अनादि काल से कर्म ओर नोकर्म के संसर्ग में पड़कर दुखी हो रहा है। इन्हीं कर्मो के संसर्ग से आत्मा में रागादिक भाव कर्म उत्पन्न होते हैं जो कि नवीन कर्मबन्ध के कारण हैं। मनुष्य भव पाया है तो परसंग छोड़ने का पुरूषार्थ करो, यह पुरूषार्थ इसी मनुष्य पर्याय में पूर्ण हो सकता है ,अन्यत्र नहीं। ज्ञाता-द्रष्टा आत्मा का स्वरूप है इसलिये उसी ओर निरन्तर लक्ष्य रखना चाहिये । किसी पदार्थ को देखकर यदि राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं तो उस समय ऐसा विचार करना चाहिये कि मेरा स्वभाव तो पदार्थ को मात्र जानना-देखना है। राग-द्वेष करना नहीं। यह तो विकारी भाव हैं। इन्हें नष्ट करने से ही जीव अपने स्वभाव में सुस्थिर हो सकता है। जैनधर्म के सार्वभौम सिद्धान्त __व्याख्यान-माला के अन्तर्गत “जैनधर्म के सार्वभौम सिद्धांत पर प्रकाश डालते हुए पं. दयाचन्द्रजी साहित्याचार्य ने कहा है कि जैन धर्म के सार्वभौम सिद्धान्तों में अहिंसा सबसे प्रमुख सार्वभौम सिद्धान्त हैसमस्त भूमिका कल्याण करनेवाला सिद्धान्त है। इसका सूक्ष्म से सूक्ष्म वर्णन जैन धर्म में हैं । यहाँ रागादिक भावों की उत्पत्ति को हिंसा और उनकी अनुत्पत्ति को अहिंसा कहा गया है ।आचार्यों ने इस अहिंसा को परब्रह्म कहा है, इस परब्रह्म के समान यह प्रत्येक प्राणी का कल्याण करनेवाली है। इस अहिंसा की साधना, भावों के ऊपर अधिक निर्भर रहती है। डाकू, डाक्टर और ड्रायवर ये तीन डकार हैं। तीनों से हिंसा होती है पर तीनों के भावों में अन्तर होने से उनके फल में भी अन्तर होता है। डाकू जानबूझकर हिंसा करता है इसलिये उसका फल सरकार की ओर से फाँसी, मृत्युदण्ड प्राप्त करता है । दवा या आप्रेशन करते हुए डाक्टर से यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसके फलस्वरूप उस डाक्टर का कुछ भी नहीं होता, क्योंकि उसका भाव रोगी को अच्छा करने का था, मारने का नहीं। ड्रायवर से यदि किसी मनुष्य की हिंसा होती है तो उसे प्रमाद का दण्ड तो मिलता है परन्तु मनुष्य के घात करने का नहीं। वह सौ पचास रूपये के जुर्माने से ही छुट्टी पा जाता है। -365 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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