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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सभ्यता तथा स्वस्थता, नागरिक कर्त्तव्य, कुलाचार, संस्कृति आदि धर्मतत्वों के उपदेश से मानव-जीवन की यात्रा को सरल, शान्त तथा पवित्र बनाया गया। अतएव कृतज्ञ जनता ने श्रीऋषभदेव को "प्रजापति" पद से विभूषित किया।
मानवजीवन को शुद्ध , सुसंस्कृत और सुशिक्षित बनाने के लिये विविध संस्कारों की रचना की गई और समाज में उनको प्रचलित किया गया । इसके अतिरिक्त समयोपयोगी अन्य आवश्यक साधनों एवं क्रियाओं का निर्माण किया गया जिससे कि समाज का सर्वागीण विकास हुआ था । अनेक शताब्दियों के व्यतीत होने पर वह समाज विकृत हो गया है। अब इस युग में पुनः सर्वोदय समाज की आवश्यकता है। राष्ट्र के नेता इस दिशा में प्रयत्नशील हैं। राष्ट्रों की स्थापना
समाज की रचना होते ही राष्ट्र की आवश्यकता होती है अतः प्राचीन काल मं श्रीऋषभदेव ने वृद्धिंगत समाजों का संगठन कर राष्टों की स्थापना की। मानवसमाज का 'राष्ट्र एक बड़ा संगठन है। इसमें समाज की सभी शक्तियों का तथा सभी वर्गो का एकीकरण किया जाता है। राष्ट्र की पूर्ण उन्नति के लिये प्रत्येक नागरिक में राष्ट्रीयता का विकास होना आवश्यक है। राष्ट्र की परिभाषा "पशुधान्यहिरण्यसम्पदा राजते इति राष्ट्रम् ।"
(नीतिवाक्यामृत, जनपदसमुद्देशसूत्र - १) अर्थात् -पशु, अन्न तथा सुवर्ण आदि सम्पत्तियों से शोभायमान क्षेत्र को राष्ट्र कहते है । 'भर्तुर्दण्डकोषवृद्धि दिशतीति देश: (नीति0 जन0 सू० २) अर्थात् जो क्षेत्र स्वामी को सैन्य और कोष की वृद्धि देता है उसको देश कहते हैं।
"जनस्य वर्णाश्रमलक्षणस्य द्रव्योत्पत्तेर्वा पदं स्थानमिति जनपदः" (नीति0 जन0 सू० ५) अर्थात्जो स्थान, क्षत्रिय आदि वर्गों में और ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों में विद्यमान मानवों का निवासस्थान हो तथा धन का उत्पत्तिस्थान हो उसे जनपद कहते है । यह राष्ट्र का समन्वयात्मक लक्षण है । इसमें राष्ट्र को, धार्मिक तथा राष्ट्रीय तत्वों से परिपूर्ण मानवों का निवासस्थान कहा गया है। अयोध्यानगरी का निर्माण
श्रीनाभिराज प्रारम्भिक कर्मयुग के अंतिम कुलकर (मनु) थे। उनकी पत्नी श्रीमरुदेवी की कुक्षि में जब प्रथम तीर्थकर श्रीऋषभनाथ ने अवतार लिया तब भारत के उत्तर में विशाल अयोध्यानगरी की रचना की गई और उसमें देवसमाज तथा मानवसमाज ने मिलकर ऋषभदेव का जन्मोत्सव मनाया। इस नगरी के मानवों के पास कोई आयुध (शस्त्र) नहीं थे, वे परस्पर मित्रता से रहते थे इसलिये इस नगरी का सार्थक नाम 'अयोध्या' रखा गया।श्री ऋषभदेव, अपने पिता के उत्तराधिकारी, इस नगरी के प्रथम शासक थे और सकल कलाओं के महान् शिक्षक थे।
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