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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लोक में देखा जाता है कि वक्ता समय - समय पर अपने - अपने दृष्टिकोणों से विवक्षित वस्तु के विवक्षित गुणों को शब्दों द्वारा क्रमश: कहते है किन्तु वस्तु के सकल धर्मो को युगपत् कहने की शक्ति वक्ता के शब्दों में नहीं है। अत: वस्तु के समस्त गुणों को क्रमश: जानने के हेतु अनेकांतवाद की और क्रमशः कहने के लिये स्यावाद की आवश्यकता होती है इससे सिद्ध होता है कि वक्ता एवं श्रोता के इच्छित कार्य की पूर्ति के लिये , आवश्कतानुकूल अनेकांतवाद एवं स्यावाद का उदय हुआ । अनेकान्तसूर्य के उदय से मानव का अज्ञानतिमिर ध्वस्त हुआ और विश्वतत्वों का एवं वस्तुतत्वों का मानस क्षेत्र में प्रकाश (ज्ञान) हुआ। अनेकान्त की रूपरेखा :
न एक इति अनेक + अन्त (धर्म), अर्थात् परस्पर विरोधी दो धर्म - नित्य - अनित्य, एक - अनेक, सत् - असत् आदि जिस द्रव्य में पाये जावें उसे अनेकान्त द्रव्य कहते हैं , यथा एक पुरुष में पितृत्व एवं पुत्रत्व आदि अनेकान्त द्रव्य का यह प्रथम अर्थ है। अनेकान्त की द्वितीय रूपरेखा :
अनेक अर्थात् अनन्त, अन्त (धर्म) जिस द्रव्य में पाये जावें उसे अनेकान्त द्रव्य कहते हैं जैसे एक आत्मा में ज्ञान, दर्शन, सुख, शान्ति, वीर्य, सूक्ष्मता, नित्यता, एकत्व, विनय सरलता, पवित्रता, सत्यता, संयम, इच्छा, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा , सदाचार, परोपकार, दया, संतोष, भक्ति , सेवा विवेक, साहस, पुरुष की 72 कलाएँ, महिला की 64 कलाएं आदि अनन्त गुणों का अस्तित्व अनेकान्त ही दर्शाता है । आत्मा में सामान्य गुण भी 6 पाये जाते हैं - (1) अस्तित्व (2) वस्तुत्व(3) द्रव्यत्व (4) प्रमेयत्व - ज्ञेयत्व (5) अगुरूलघुत्व - शक्ति के अंश, (6) प्रदेशवत्व - परिमाण । इसी प्रकार विश्व के समस्त पदार्थ असीम धर्म वाले हैं। आध्यात्मिक सन्त श्री अमृतचंद्र आचार्य ने समयसार में कहा है :
अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यंती प्रत्यगात्मन: । अनेकान्तमयी मूर्ति: नित्यमेव प्रकाशताम् ।।
(समयसार पृष्ठ - 3) अर्थात् - अनन्तधर्मविशिष्ट शुद्धात्माके स्वरूप को जानने वाली - अनेकान्तमयी मूर्ति (सिद्धांत) सर्वदा लोक में प्रकाशित रहे ।। स्याद्वाद की रूपरेखा :
__ स्यात् - कथंचित् = अपेक्षा से, वाद = कथन करना स्यावाद का शब्दार्थ है । विशदार्थ - अनन्तगुणात्मक द्रव्य में स्यात् = अपेक्षावश, वाद = किसी एक धर्म का मुख्य कथन करना और विरोधी धर्म की गौणता द्योतित होना स्यादवाद कहा जाता है जैसे द्रव्यार्थिकनय (निश्चयनय) की अपेक्षा घट नित्य है और पर्यायार्थिक नय (व्यवहारनय) की अपेक्षा घट अनित्य है।
__ भगवान् महावीर की आचार्य परम्परा के आचार्यो ने स्याद्वाद की व्याख्या अनेक दृष्टि कोणों से घोषित की है। यथा अनेकान्तात्मक द्रव्य का कथन करना स्याद्वाद है -
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