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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मैं अपने आपको धन्य मानता हूँ। पं. जी ने अपने ज्ञान रूपी दीपक से अनेकों दीपक जलाये हैं जो दीपक रूपी शिष्य देश के कोने कोने में जिनवाणी की दीपशिखा ज्वलंत बनाकर रखे हैं। आपके द्वारा जो ज्ञान की ज्योति जलाई गई वह निरंतर इसी प्रकार जलती रहे यही मेरी भावना, यही मेरी उनके चरणों में श्रद्धांजलि होगी। मैं आभारी व ऋणि हूँ श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी सागर तथा स्व. डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य का जिन्होंने मुझ जैसे बुद्धिहीन व्यक्ति को शिक्षक एवं प्रतिष्ठाचार्य के प्रतिष्ठापूर्ण पद तक पहुँचाया। तथा प्राप्त धर्म ज्ञान द्वारा जिनवाणी के प्रचार प्रसार करने का आज सुअवसर मिल रहा है।
स्व. डॉ. पं. दयाचंद साहित्याचार्य स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति के साथ सागर समाज को साधुवाद, देना चाहता हूँ जिन्होंने यह दुस्सह कार्य करने का प्रयास किया। तथा स्व. पं. जी के जीवन दर्शन, व्यक्तिगत, कृतित्व के उन सभी पहलूओं से अवगत होने का अवसर मिलेगा जो हमें अब तक ज्ञात नहीं है।
पं. जी आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके द्वारा दिया गया ज्ञान हमारे अन्तरमन में प्रदीप्त रहेगा। किसी कवि ने ये पक्तियाँ ठीक ही लिखी है :
"महकता था जिससे, हमारा गुलिस्तां।
फूल को अपनी महक, फैलाकर चला गया।" मैं अनेक प्रतिष्ठापूर्वक सम्मानों से सम्मानित अविस्मरणीय गुरु, सौम्य व्यक्तित्व के धनी, निस्पृह कर्मयोगी पितृतुल्य स्नेह स्व. पंडित दयाचंद साहित्याचार्य के चरणों में सादर श्रृद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
"यशः शरीरेण जीवत्येव, तस्मै श्री गुरुवे नम:'
पं. जयकुमार शास्त्री (प्रतिष्ठाचार्य)
नारायणपुर, बस्तर (छ.ग.) मेरे जीवन में गुरुओं का आशीर्वाद रहा है उनमें पूज्य गुरु देव डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य के पितृतुल्य आशीर्वाद एवं स्नेह को मैं कभी भुला नहीं सकता । मुझे उनके पास श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महा विद्यालय सागर में रहकर संस्कृत व्याकरण लघु सिद्धांत कौमुदी एवं तत्वार्थसूत्र ग्रन्थ पढ़ने का अवसर मिला। उनके द्वारा दी गई उक्त दोनों ग्रन्थों की शिक्षा ने मुझे आगे बढ़ने के द्वार खोल दिये, मुझे तो उक्त दोनों विषय अपनी उन्नति एवं योग्यता के आधार लगते है। पूज्य पंडित जी का जीवन अत्यंत स्नेही था वे व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत स्नेह करते थे। मुझे तो वे गुरु के साथ - साथ पितृ
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