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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ करना पड़ा, जैसे तैसे पंडित की व्यवस्था पूर्ण हुई तो दूसरी समस्या पढ़ने के लिए विद्यार्थियों की आई। इसके लिए वर्णी जी ने कई ग्रामों में भ्रमण कर जैन परिवारों से बच्चे विद्यालय में पढ़ने हेतु भेजने का आग्रह किया। इसी संदर्भ में जब वे ग्राम शाहपुर गये तो उन्हें पता चला कि यहाँ श्री भगवानदास भायजी के पांच पुत्र हैं। अतः उन्होंने भायजी से कहा, कि आपके पांच पुत्र ही उनमें से विद्यालय में पढ़ने के लिए कितने पुत्र दे सकते हो, तो भायजी ने दृढ़ता पूर्वक अपने तीन बड़े पुत्रों को देने का आश्वासन दे दिया। तथा अपने तीन पुत्र माणिकचंद, श्रुतसागर एवं दयाचंद को वर्णी जी के साथ पढ़ने के लिए भेज दिये । जो आजीवन उन्हीं के सानिध्य में रहे. वापिस घर नहीं आये।
___ यह घटना सन् 1915-20 की होगी जब राजे - महाराजे एवं ब्रिटिश शासन की हुकूमत थी, अशिक्षा एवं पिछड़ापन का वातावरण था, आवागमन के साधन नहीं थे ऐसे कठिन समय एवं परिस्थितियों में पं. भगवानदास भायजी ने त्याग एवं हिम्मत की मिसाल कायम की थी।
परमपूज्य श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी की असीम कृपा एवं आशीर्वाद से उन तीनों की शिक्षा - दीक्षा हुई तथा एक दिन वे संस्कृत साहित्य एवं जैन दर्शन के उद्भट विद्वान बन गये । वर्णी जी ने पं. माणिक चंद जी एवं पं. दयाचंद जी को श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में पढ़ाने के लिये नियुक्त कर दिया तथा पं. श्रुतसागर जी को संस्कृत विद्यालय कटनी में पढ़ाने के लिए भेज दिया। इस प्रकार तीनों भाईयों ने वर्णी जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान आजीवन दिया।
___ जिस प्रकार पूज्य वर्णी जी की धर्ममाता श्रीमती चिरोंजाबाई थी, उसी प्रकार संस्कृत महाविद्यालय सागर में उनके चार धर्मपुत्र थे श्री पं. दयाचंद जी सिद्वान्त शास्त्री, श्री पं. माणिकचंद जी जैन दर्शनाचार्य एवं न्याय काव्यतीर्थ डॉ. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य एवं डॉ. पं. श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य । जिन्हें उन्होंने पुत्रवत् स्नेह दिया | चारों अखिल भारतवर्षीय श्रेणी के विद्वान थे। चारों ने वर्णी जी के पद चिन्हों पर चलकर आजीवन संस्कृत महाविद्यालय सागर की सेवा की तथा हजारों विद्वान तैयार कर देशऔर समाज को समर्पित किये।
मेरे पूज्य पिता जी श्री पं. माणिकचंद जी एवं श्री पं. दयाचंद जी जो मेरे काका जी थे जीवन भर सागर महाविद्यालय में साथ-साथ कार्यरत रहे । दोनों में भ्रातृ स्नेह अत्यंत प्रगाढ़ था। दोनों हमेशा परस्पर विचार-विमर्श एवं परामर्श से कार्य किया करते थे। मेरे पिताजी का जब - जब भी स्वास्थ्य खराब होता था तुरंत मुझसे कहते थे कि जाओ भैया को बुला लाओ। पं. दयाचंद जी का अन्य भाईयों से भी उतना ही स्नेह था । प्रत्येक वर्ष गर्मियों की छुटिटयों में तीनों भाई जो बाहर थे सपरिवार अपने भाईयों एवं माता-पिता के ग्राम - शाहपुर पहुँच जाते थे और लगभग 2 माह वहीं रहते थे। सभी इतने हिल-मिलकर रहते थे कि आप कल्पना नहीं कर सकते । सभी भाईयों का धर्मचर्चा एवं प्रवचन आदि में समय व्यतीत होताथा। पांचों भाई आपने माता-पिता के प्रति अत्यंत श्रद्धान्वित तथा समर्पित थे। सभी अपने पिता जी के साथ स्वाध्याय
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