SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तात्पर्य- सौन्दर्यसम्पन्न, ऋषभदेव के आत्मज, 24 कामदेवों में प्रथम कामदेव, नाभिराज सम्राट् के नप्ता (नाती) जिन बाहुबलीस्वामी ने भारत में भरतचक्रवर्ती के साथ होने वाले समर के कारण, संसार शरीर और भोगों को तृण के समान छोड़ दिया था अर्थात् दैगम्बरी दीक्षा को धारण कर लिया था और जिन्होंने एक वर्ष तक, परिवार से मोह छोड़कर वल्मीक (सर्पबिल) से व्याप्त भूमि पर मौन के साथ कायोत्सर्ग तप को धारण किया था । वही प्रसिद्ध विन्ध्याचलेश , गोमटेश्वर, जिनेश्वर श्री बाहुबलीस्वामी चिरकाल तक इस जगत में जयवन्त रहें। जैन दर्शन ग्रंथों में श्रमण (दिगम्बर मुनि के पर्यायवाचक शब्दः (१) अकच्छ (लंगोटी रहित दि.जैन मुनि), (२) अकिंचन (परिग्रह रहित मुनि), (३) अचेलक या अचेलव्रती (वस्त्रहीन साधु), (४) अतिथि। (५) अनगार (गृहत्यागी दि0 मुनि), (६) अपरिग्रही। (७) अहीक । (८) आर्य । (९) ऋषि । (१०) गणी । (११) गुरु, (१२) जिनलिंगी, (१३) तपस्वी, (१४) दिगम्बर (१५) दिग्वास, (१६) नग्नसाधु, (१७) निश्चेल । (१८) निर्ग्रन्थ । (१९) निरागार, (२०) पाणिपात्र, (२१) भिक्षुक (२२) महाव्रती (२३) माहण (ममत्व त्यागी) (२४) मुनि (२५) यति, (२६) योगी, (२७) वातवसन (वायुरूपी वस्त्र धारी) (२८) विवसन (वस्त्रहीन) (२९) संयमी,(३०) स्थविर (दीर्धतपस्वी दि0 मुनि), (३१) साधु। (सन्यस्त (सन्यासधारी), (३३) श्रमण (समतारसी मुनि), (३४) क्षपणक (दिगम्बर मुनि), (३५) वातरशन (वायुरूपी करधनी के धारी) । भारतीय संस्कृत साहित्य में दिगम्बर श्रमण : पाणि: पात्रं पवित्रं भमणपरिगतं, भैसमक्षय्यमन्नम्, विस्तीर्ण वस्त्र, भाशासुदशकममलं, तल्पस्वत्लमुर्वी । येषां नि:संगतांगी, करण परिणति:, स्वात्मसंतोषितास्ते, धन्याः सन्यस्तदैन्यव्यतिकर निकरा: कर्मनिर्मूलयन्ति । (वैराग्य शतक पृ.46) भाव सौन्दर्य- जिन श्रमणों का हाथ ही पवित्र वर्तन है, भिक्षावृत्ति से प्राप्त जिनका भोजन है, दशदिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, सम्पूर्ण पृथ्वी ही जिनकी शय्या है, एकान्त में नि:संग रहना ही जिनको आनन्दप्रद है, दीनता को जिन्होंने छोड़ दिया है, कर्मो को जिन्होंने निर्मूल कर दिया है, जो आत्मा में ही संतुष्ट रहते हैं वे श्रमण प्रशंसनीय हैं। इतिहास के आलोक में पूज्य श्रमण: यस्य प्रांशुनखांशुजाल विसरद् धारान्तरा विर्भवत् पादाम्भोजरज: पिशंगमुकुट प्रत्यग्ररलधुति: । संस्मर्ता स्वममोघवर्ष नृपतिः पूतोऽहमध्येत्यलम्, स श्रीमान् जिनसेन पूज्य भगवत्पादो जगन्मंगलम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy