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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रजसेदाणमगहणं,मदव सुकुमालदा - लघुत्तंच । जत्थेदं पंचगुणा, तं पडि लिहणं पसंसंति ॥
(मूलाराधना) पिच्छिका के पाँच गुण - 1. धूल का निवारक, 2.स्वेद का निवारक । 3. कोमलता, 4.सुकुमारता, 5.लघुता । यह उपकरण प्रशंसनीय है।
अथ पिच्छिका गुणा: रजस्वेदाग्रहणद्वयम् । मार्दवं सुकुमारत्वं, लघुत्वं सदगुणा इमे ॥ पंचज्ञेयास्तथाज्ञेया: निर्भयादि गुणोत्तमा: । मयूर पिच्छजाताया: पिच्छिकाया जिनोदिताः ॥
(सकलकीर्ति धर्मप्रश्नोत्तर पद्य 29-30) जिन प्रतिमाधारियों को प्रतिलेखन (प्रतिशोधन) के लिये खण्डवस्त्र धारण करना पड़ता है उनको खण्डवस्त्र स्वच्छ करने की पुन: - पुन: आवश्यकता होती है परन्तु मयूर पिच्छिका को विशेष स्वच्छ करने की आवश्यकता नहीं होती, कारण कि उसमें स्वत: ही स्वच्छता गुण होता है। पिच्छिका आदि को ग्रहण करने में चौर्य आदि दोष नहीं -
प्रमत्तयोगतोयत स्याद, अदत्तादानमात्मनः ।
__ स्तेयं तत्सूत्रितं दानादानयोग्यार्थ गोचरम् ॥ तेन सामान्यतोऽदत्तमाददानस्य सन्मुनेः । सरिन्निझरणाद्यम्भ: शुष्कगोमयखण्डकम् ।
भस्मादि वा स्वयंमुक्तं, पिच्छालाम्बुफलादिकम् ॥ प्रासुकं , न भवेत् स्तेयं , प्रमत्तत्वस्य हानित: ॥
(तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 7/15)
तात्पर्य -
भूमि पर स्वयं पतित मयूरपंखों को ग्रहण करने में श्रमणों को चौर्यदोष नहीं लगता, कारण कि आवश्यकता पड़ने पर विशेष परिस्थितियों में कुछ वस्तुओं को ग्रहण करने की जिनागम में आज्ञा है जैसे नदी या झरने का पानी, शुष्क गोमयखण्ड (कण्डेकाटुकड़ा), भस्म, स्वयं पतित मयूरपंख, तुम्बीफल, समुद्री नारियल को ग्रहण करने में श्रमणों को चौर्य दोष नहीं होता है । ये सब पदार्थ प्रासुक हैं। इनको ग्रहण करना प्रमत्तता की हानि के लिये अभीष्ट हैं।
"स्वयं पतितपिच्छानां लिंगं चिह्न च योगिनाम्।" जैन श्रमणों के महान् त्याग और संयम का बोध कराने वाले पिच्छिका और कमण्डलु श्रमणत्व के परिचायक चिह्न (मुद्रा) हैं।
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