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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "मुद्रा सर्वत्र मान्यास्यात् निर्मुद्रा नैव मन्यते ।" भावलिंग के साथ पिच्छिका एवं कमण्डलु से ही श्रमणत्व की मान्यता मिलती है। क्योंकि मुद्रा से ही जगत में मान्यता प्राप्त होती है, बिना मुद्रा के नहीं। मुद्रा से विशिष्ट पहचान होती है, सभी शासकीय कार्य मुद्रा के बल पर ही संचालित होते हैं। डाक तार विभाग मुद्रा के बल पर ही चल रहा है। इसी प्रकार पीछी कमण्डलु भी दि.जैन श्रमणों की मुद्रा है। आवश्यक उपकरण
जो समणोणहि पिच्छं, गिण्हदि दे विमूढचारित्तो। सो समणसंघ वज्जो, अवंदणिज्जो सदा होदि॥
(भद्रबाहु क्रियासार) चारित्रपालन, कायोत्सर्ग, विहार, निहार, उठने बैठने आदि क्रिया में पिच्छिजैनश्रमणों के लिए एक आवश्यकउपकरण है । पिच्छिरहित श्रमण को मूढचरित्र एवं अवन्दनीय कहा है।
पिच्छिका के अन्य आगमकथित उपयोग -(1) सामायिक, (2) वन्दना, (3) प्रतिक्रमण, (4) प्रायश्चित्त (5) रुग्णदशा, (6) आहारचर्याकाल, (7) आसन, (8) उपवेशन, (9) उत्थापन, (10) गमनागमन, (11) आहारचर्या को गमनसमय पिच्छि - कमण्डलु दोनों को जैन श्रमण बाँये हाथ में धारण करते हैं । साधारण विहार के समय उनका कमण्डलु कोई भी श्रावक या ब्रह्मचारी लेकर चल सकते हैं। किन्तु पिच्छिका नहीं ले सकते।
जिसके पास पीछी - कमण्डलु है वह रत्नत्रय का धारी दिगम्बर साधु है ऐसी व्याप्ति नहीं है, किन्तु जो मोक्ष मार्गी दि. साधु है वह पीछी - कमण्डलु का धारी अवश्य है ऐसी व्याप्ति सिद्ध होती है। रत्नत्रय की साधना से ही दिगम्बर साधुओं को मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार है, पिच्छिका और कमण्डलु क्रमशः संयम
और शुद्धि के बाह्य उपकरण हैं। जो साधु स्वेच्छाचार से इन साधनों का दुरूपयोग करता है वह प्रायश्चित एवं प्रतिक्रमण का पात्र है। सारांश यह है, कि पिच्छिका एवं कमण्डलु विषय कषाय के पोषक नहीं होते हैं किन्तु ये तपस्या के बहिरंग साधन हैं।
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