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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ और जो मोक्ष मार्ग में स्थित हैं वे छूटते है (तुमने क्या किया ? यथा तुमने क्या यह अध्यवसान किया कि इसको बंधन में डालूँ और इसको बंधन से छुड़ा दूँ ? नहीं, अपितु यहाँ पर - “एनं बन्धयामि'' इस क्रिया का विषय तो “इस जीव को बंधन में डालूँ"और एवं मोचयामि" इसका विषय - "इस जीव को बंधन से मुक्त करा दूं" यह है । और उन जीवों ने यह भाव नहीं किये तब वह जीव न तो बंधे और न छूटे । तुमने वह अध्यवसान नहीं किया, अपितु उन जीवों में एक ने सराग परिणाम किये और एक ने वीतराग परिणाम किये तो एक तो बंध अवस्था को प्राप्त हुआ, और एक छूट गया अत: यह सिद्ध हुआ कि पर में अकिंचित्कर होने से यह अध्यवसान भाव स्वार्थ क्रियाकारी नहीं। इसका ताप्पर्य यह है कि हम अन्य पदार्थ का न तो बुरा कर सकते हैं और न भला कर सकते हैं ! हमारी अनादि काल से जो यह बुद्धि है कि “वह हमारा भला करता हैं, वह बुरा करता है, हम पराया भला करते हैं, हम पराया बुरा करते हैं, स्त्री पुत्रादि नरक ले जाने वाले हैं, भगवान स्वर्ग मोक्ष देने वाले हैं।" यह सब विकल्प छोड़ो।अपना शुभ जो परिणाम होगा, वही स्वर्ग ले जाने वाला है।और जो अपना अशुभ परिणाम होगा वही नरकादि गतियों में ले जाने वाला है। परिणाम में वह पदार्थ विषय पढ़ जावे, यह अन्य बात है। जैसे ज्ञान में ज्ञेय आया इसका यह अर्थ नहीं किया। ज्ञेय ने ज्ञान उत्पन्न कर दिया। ज्ञान ज्ञेय का जो संबंध है उसे कौन रोक सकता है ? तात्पर्य यह कि पर पदार्थ के प्रति रागद्वेष करने का जो मिथ्या अभिप्राय हो रहा है उसे त्यागो। अनायास निजमार्ग का लाभ हो जावेगा। त्यागना क्या अपने हाथ की बात है ? नहीं, अपने ही परिणामों से सभी कार्य होते हैं।
जब यह जीव स्वकीय भाव के प्रतिपक्षी भूत रागादि अध्यवसाय के द्वारा मोहित होता हुआ सम्पूर्ण पर द्रव्यों को आत्मा में नियोग करता है तब उदयागत नरकगति आदि कर्म के वश, नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव, पाप, पुण्य जो कर्म जनित भाव हैं उन रूप अपनी आत्मा को करता है। अर्थात् निर्विकार जो परमात्मतत्व है उसके ज्ञान से भ्रष्ट होता हुआ मैं नारकी हूँ, मैं देव हूँ इत्यादि रूप कर उदय में आये हुए कर्मजनित विभाव परिणामों की आत्मा में योजना करता है । इसी तरह धर्माधर्मास्तिकाय, जीव, अजीव, लोक, अलोक ज्ञेय पदार्थो को अध्यवसान के द्वारा उनकी परिच्छिति विकल्प रूप आत्मा को व्यपदेश करता है।
__ "जैसे घटाकार ज्ञान को घट ऐसा व्यपदेश करते हैं वैसे ही धर्मास्तिकाय विषयक ज्ञान को भी धर्मास्तिकाय कहना असंगत नहीं कहने का तात्पर्य यह है कि जब यह आत्मा पर पदार्थो को अपना लेता है तब यदि उनको आत्म स्वरूप- निज मान ले तब इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ? स्फटिकमणि स्वच्छ होता है और स्वयं लालिमा आदि रूप परिणमन नहीं करता है किन्तु जब उसमें रक्तस्वरूप परिणत जपापुष्प का संबंध हो जाता है तब वह उसके निमित्त से लालिमादि रंगरूप परिणत हो जाता है । निमित्त के अभाव में वह स्वयं सहजरूप हो जाता है । इसी तरह आत्मा स्वभाव से रागादि रूप नहीं है परन्तु रागादि कर्म की प्रकृति जब उदय में आती है उस काल में उसके निमित्त को पाकर यह रागादि रूप परिणमन कर जाता है।
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