________________
कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सम्यक्चारित्र और उसकी उपयोगिता
आद्यवक्तव्य
मिथ्यात्रय, अन्याय और अमक्ष्णवस्तुओं के सेवन का परित्यागी मानव ही जैनधर्म में दीक्षित हो सकता है। सामान्य श्रावक या गृहस्थ और उनके आठ मूलगुण श्रावक की परिभाषा शास्त्रों में कही गई हैं - "शृणोति इति श्रावक"अर्थात् जो मानव जैनतत्त्वों को रूचि के साथ श्रवण करें, ज्ञान प्राप्त करें, मनन करे, याद करे, पालन करे, शंका समाधान के साथ दूसरे मानवों को समझावे, स्वयं अटल रहे, लेख लिखे और उपयोगिता को दर्शाये उसे श्रावक कहते हैं। शब्दों के संकेत के अनुसार श्रावक की व्याख्या -
श्र = श्रद्धावान, व : विवेकशील
क - क्रिया या आचरणवान् ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा श्रावक के मूलाधार, विभिन्न आचार्यों के मत से आठआठ प्रकार से कहे गये हैं। तद्यथा - (1) जिनसेनाचार्य - (5) पंचपाप विरति, (6) द्यूतविरति, (7) मांसविरति, (8) मद्यविरति । (2) सोमदेवाचार्य - 1 मद्यत्याग, 2 मांसत्याग, 3 मधुत्याग, 5 उदुम्बर फलत्याग । (3) अमृत चन्द्राचार्य - 3 मद्यमांसमधुत्याग, 5 उदुम्बर फलहत्याग । (4) पं. आशाधर जी - 3 मधमांसमधुत्याग । 5 क्षीर फलत्याग । (5) अन्य आचार्य - 5 हिंसादिपंचपापविरति । 3 द्यूत मद्यमांस विरति । (6) अन्य आचार्य - 3 मद्यमांसमधुत्याग, 4 रात्रिभोजनत्याग, 5 पंचोदुम्बरत्याग, 6 परमेष्ठी श्री देवदर्शन,
7 जीवदया, 8 सलिलगालन । (7) आचार्य शिवकोटि - 3 मद्यमांसमधुविरति, 5 अणुव्रत । (8) राजमल्ल महाकवि - 3 मद्य मांसमधुविरति । 5 पंचोदुम्बर फलविरति । चारित्र की आवश्यकता - 1. . मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्त संज्ञान :।
रागद्वेषनिवृत्यै, चरणं प्रति पद्यते साधुः ॥ 2. रागद्वेषनिव्रते: हिंसादिनिवर्तना कृता भवति ।
अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरूष: सेवते नृपतीन ॥
M
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org