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कृतित्व/हिन्दी
अपि च -
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्तिणिदिट्ठो । मोहक्खो हविहीणो, परिणामो अप्पणोदु समो ॥ (प्रवचनसारगाथा )
चारित्र स्वरूप :
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
संसारकारणनिवृत्तिंप्रति आगूर्णस्य ज्ञानवतो बाह्याभ्यन्तर क्रियाविशेषोपरमः सम्यक् चारित्रम् । (रा.वा.अ. 9) हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया । धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुल: ||1|| ज्ञानं पंगौ क्रियाचान्धेः निःश्रद्धे नार्थकृदद्वयम् । ततो ज्ञान क्रियाश्रद्धा त्रयं सत्पदकारणम् 11211
जैसे ज्ञानरहित करनी अन्धी है धक्के खाती है ईर्षा तृष्णा की भट्टी में जलती है चिल्लाती है । उसी तरह से बिना क्रिया के, ज्ञान पंगु है थोथा है, जो चारित्रहीन हैं उनको, कहने भर का पोथा है ।
ज्ञान आंख तो क्रिया पैर है, क्या यह समझाना होगा पढ़ लेना ही पूर्ण नहीं, जीवन में लाना होगा । कोरी कथनी शब्द जाल है, करनी ही फल दाता है, अक्षर ज्ञान व्यर्थ, यदि करते, नहीं कहा जो जाता है ॥
पण्डित बनना बुरा नहीं, लेकिन इस पर तो गौर करो जीवन में कुछ उतार पाये, जो कुछ भी शोर करो । यदि उपयोग नहीं कर पाये, ज्ञान व्यर्थ ही जावेगा, लाद पुस्तकें गधा पीठ पर, क्या ज्ञानी कहलायेगा ||
गिद्ध उड़े ऊँचा कितना ही, नभ में कभी विचार किया सदा जमी पर पड़े मांस टुकड़ों से उसने प्यार किया । यों बकवादी बातें करता, लम्बी चौड़ी बड़ी बड़ी, किन्तु विषय भोगों की चरबी चरता रहता पड़ी पड़ी ॥
चरित्र दोष :
1 अतिक्रम, 2 व्यतिक्रम, 3 अतिचार, 4 अनाचार श्लोक अतिक्रमो मानसशुद्धिहानिः, व्यतिक्रमोयो विषयाभिलाषः । तथाविचारं कारणालसत्वं, भंगो ह्यना चारमिह व्रतानाम || समीक्ष्य व्रतभादेयम् ।
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