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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रदान किया। इन विद्याओं को दो दिनों के उपवास के साथ सिद्ध करो- ऐसा आदेश भी दिया । अनन्तर वे दोनों मुनिराज वन में एकान्त देश में स्व विद्या को सिद्ध करने में तत्पर हुए। फलस्वरूप एक अक्षर कम मंत्र के साधक साधु को काणा देव और एक अक्षर अधिक मंत्र के साधक साधु को एक दन्तवाला देव सामने उपस्थित हुआ। दोनों ने विचार किया कि देव तो सर्वांग सुन्दर होते हैं ये विकलाँग देव कैसे उपस्थित हुए। आश्चर्यान्वित उन दोनों साधकों ने मंत्र पर विचार किया, तो उन दोनों ने मंत्र-व्याकरण शास्त्र के अनुसार मंत्र को शुद्ध कर पुन: विद्या को सिद्ध किया, सिद्ध होने पर उन साधकों के समक्ष सुन्दर देव उपस्थित होकर आज्ञा पालन में तत्पर हुए। अनन्तर दोनों मुनिराजों ने धरसेनाचार्य के समक्ष उपस्थित होकर सविनय मंत्र सिद्धि के सम्पूर्ण वृतान्त को कह दिया । आचार्य सुनकर बहुत अच्छा कहते हुए प्रसन्न हुए। पश्चात् धरसेन ने शुभतिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में सिद्धान्तग्रन्थ का पढ़ाना मौखिक रीति से प्रारंभ किया और क्रमश: अध्ययन करते हुए उन दोनों यतियों ने आषाढ़ शुक्ल एकादसी के प्रातः काल में अध्ययन समाप्त किया । ग्रन्थ समाप्ति के अवसर पर प्रसन्न हुए भूतजाति के व्यन्तरदेवों ने एक साधु की पुष्पबलि (पूजा) तथा शंख और तूर्य आदि वाद्यों की ध्वनियों के साथ महती पूजा को किया। उसे देखकर धरसेनाचार्य ने उनका नाम 'भूतबलि घोषित किया और देवों ने जिन साधु की पूजा के साथ अस्तव्यस्त दन्त पंक्ति को सुन्दर बना दिया इसलिये दूसरे साधु का नाम आचार्य प्रवर ने 'पुष्पदन्त घोषित किया। तदनन्तर उसी दिन वहां से भेजे गये उन दोनों मुनिराजों ने आचार्य गुरूवर्य की आज्ञा से विहार करते हुए अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षायोग को धारण किया । वर्षायोग को पूर्णकर जिनपालित शिष्य के साथ पुष्पदन्त आचार्य वनवासी देश को चले गये और भूतबलि आचार्य तमिलदेश को विहार कर गये। __ तदनन्तर पुष्पदन्त ने जिनपालित शिष्य को मुनिदीक्षा प्रदान की । पश्चात् बीस प्ररूपणागर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र रचकर तथा जिनपालित को पढ़ाकर उनको भूतबलि आचार्य के पास तमिलदेश को भेज दिया । तदनन्तर भूतबलि आचार्य ने जिनपालित के द्वारा प्रेषित बीस प्ररूपणान्तर्गत सतप्ररूपणा के सूत्रों को जान लिया है और यह भी जान लिया है कि पुष्पदन्त आचार्य अल्पायुष्क हैं। इसलिये धरसेनाचार्य के लक्ष्य के अनुसार महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विच्छेद न हो जाये तथा श्रुतज्ञान का विच्छेद न हो जाय इस धारणा से आचार्य भूतबलि ने खुद्दाबन्ध बन्धस्वामित्व. वेदनाखण्ड वर्गणाखण्ड और महाबन्ध नाम के षट्खण्डागम की रचना (जो शुक्लापंचमी को) समाप्त करने का सौभाग्य प्राप्त किया। (षट्खण्डागम: जीवस्थान: सत्प्ररूपणा: पृ. 68-72) धवला में इस ग्रन्थ की रचना का इतना ही इतिहास पाया जाता है। इससे आगे का वृत्तान्त इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार से प्राप्त होता है। ज्येष्ठ सितपक्षपंचम्यां ,चातुर्वर्ण्यसंघसमवेत: । तत्पुस्तकोपकरणे : व्यधात् क्रियापूर्व पूजाम् ॥ 783 ॥ श्रुतपंचमीति तेन प्रख्याति तिथिरयं परामाप । अद्यापि येनतस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैना : 144 ॥ (इन्द्रनन्दिकृत-श्रुतावतार श्लो. 143-144) 288) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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