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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्थान पर साधु रूक सकते है। दूसरा ऋतु काल है जिसमें स्वाध्याय आदि के निमित्त गुरु आज्ञापूर्वक एक माह रूकने का भी विधान है। कहा भी है.- बसंतादि छहों ऋतुओं में से प्रत्येक ऋतु में एक मास पर्यन्त ही एक स्थान पर साधु रहें । अनगार धर्म 9/68-69 वर्षाकालस्य चतुषु मासेषु एकत्रैवावस्थानं श्रमणत्यागः। भ.अ. वि.टी. 421 अर्थात् वर्षाकाल के चार माहों में भ्रमण का त्यागकर एक ही स्थान पर आवास करना चाहिए।
वर्षा ऋतु में चार माह एक स्थान पर रूकने का कारण है, वर्षा ऋतु में चारों ओर हरियाली होने से मार्गों के अवरूद्ध होने तथा पृथ्वी त्रस - स्थावर जीवों की संख्या बढ़ जाने से अंतिम संयम आदि का पालन कठिन हो जाता है अनगारधर्मामृत वर्षावास के संबंध में कहा है कि - आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम पहर में चैत्यभक्ति आदि करके वर्षायोग ग्रहण करना चाहिए तथा कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के पिछले प्रहर में चैत्यभक्ति आदि करके वर्षायोग छोड़ना चाहिए । अनगारधर्मामृत 9/68-69
गामेयरादिवासी णयरे पंचातवासिणो धीरा ।
सवणा फासुविहारी विविक्त एगंतवासी॥ मू.अ. - 487 बोधपाहुड़ टीका में इस प्रकार कहा है कि वसितै वा ग्राम नगरादौ वा स्थातव्यं नगरे पंचरात्रे स्थातव्यं ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यम् 42/107 ॥ अर्थात् नगर में पाँचरात्रि और गाँव में विशेष नहीं रहना चाहिए । वर्षावास समाप्त होने पर श्रमण को विहार तो करना ही होता है किन्तु यदि वर्षा का आधिक्य हो नदी नालों के तीव्र प्रवाह के कारण मार्ग दुर्गम हो गये हो कीचड़ आदि की अधिकता हो या बीमारी आदि का भी कारण हो तो साधु वर्षायोग के बाद भी नगर ग्राम के जिनमंदिर में ठहरे रह सकते है।
आचार्यवर्य सिद्धांतसार संग्रह में वर्षाकाल में मुनि का सीमित क्षेत्र से बाहर जाने की परिस्थितियों को भी दर्शाते हैं -
द्वादश योजनान्येव वर्षाकालेऽभिगच्छति । यदि संघस्य कार्येण तदा शुद्धो न दुष्यति ।। 10/59 यदि वाद - विवाद: स्यान्महामतविघातकृत ।
देशांतरगतिस्तस्मान्न च दुष्टो वर्षास्वपि ॥ 10/60 वर्षाकाल में संघ के कार्य के लिए यदि मुनि बारह योजन तक कहीं जायेगा तो उसका प्रायश्चित ही नहीं और यदि वाद-विवाद से महासंघ के नाश होने का प्रसंग हो तो वर्षाकाल में भी देशांतर जाना दोषयुक्त नहीं है।
__भगवती आराधना में तो अनियतविहार नामक साधु की चर्या का पृथक अधिकार ही है। इसमें अनियतविहार द्वारा साधु में दर्शन की शुद्धता, स्थितिकरण, भावना, अतिशयार्थ कुशलता, क्षेत्रपरिमार्गणा गुणों की उत्पत्ति बतायी है।
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