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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भो ज्ञानी आत्माओ ! भेद - विज्ञान कहता है कि अपने अंदर में झांककर देखो, वाणी संयम पर दृष्टिपात करो, ऐसे वचन मत बोलो जिसमें किसी के मर्म पर ठेस पहुँचे । क्योंकि गोली का घाव भर सकता है, किन्तु बोली का घाव बहुत गहरा होता है । इसीलिए वाणी वीणा का काम करे, प्रेम की भाषा का उपयोग करो । प्रेम में आस्था होती है, श्रद्धान होता है । मुमुक्षु जीव किसी को सिर पकड़कर जबरन नहीं झुकाता, वह प्रेम भरी वाणी द्वारा प्राणी के हृदय में परिवर्तन करता है। जिनवाणी कहती है कि हृदय में परिवर्तन करना है तो हृदय की भूमि पर तुम प्रेम के नीर को बहा दो, परन्तु किसी के ऊपर पत्थर बनकर मत बरसो । प्रिय वाक्य सुनने से हर व्यक्ति पिघल जाता है संतुष्ट हो जाता है। अरे भाई ! किसी से झगड़ों तो भी प्रेम की भाषा में बोलो | जोधपुर (राजस्थान) में जो लोग झगड़ते हैं तो वे कहते हैं- "मेरी चरण पादुका आपके सिर - माथे विराजे ।"
कितनी सुन्दर भाषा में कितनी मधुर गाली दे डाली । परन्तु यदि भेद - विज्ञान की दृष्टि है, तो उदासीन बुद्धि होना जरूरी है। उदासीन का अर्थ है संसार के भोगों से विरक्ति होना ।
आचार्य देवसेन स्वामी इस गाथा में कह रहे हैं कि हंस - दृष्टि बनो। हंस दूध में से नीर को छोड़ देता है और दूध को पी लेता है। बस, मुमुक्षु भी वही होता है जो संसार की असारता को छोड़ देता है और सार (रत्नत्रय धर्म) को ग्रहण कर लेता है। इसके लिए श्रेष्ठ ध्यान करना जरूरी होता है । जीवन अन्य है, पुद्गल अन्य है, यही तत्त्व का सार है, शेष इसका विस्तार है। यदि ऐसा भेद - विज्ञान हो गया तो भगवान बनने में देर नहीं लगेगी! देर तो पाषाण को तराशने में लगती है। भगवान के संस्कार करने में इतनी देर नहीं लगती। सूर्य मंत्र तो एक मिनिट में हो जाता है, लेकिन प्रतिमा को कैसा बनाया जाता है वह शिल्पकार से पहले पूछना, आचार्य से बाद में पूछना ।
भो ज्ञानी आत्माओ ! अब हमें स्वयं शिल्पकार बनना होगा, स्वयं आचार्य बनना होगा, तभी भगवती आत्मा को प्राप्त कर सकोगे ।
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