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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सूरिमंत्र और उसकी महत्ता प्रतिष्ठाचार्य पं. विमल कुमार जैन सोरया प्रधान सम्पादक- वीतरागवाणी मासित, टीकमगढ़ (म.प्र.) 1. जिन प्रतिमा का महत्व - साक्षात् तीर्थंकर और केवली भगवंतों के अभाव के बाद उनकी सानिध्यता की पूर्ति के लिए जिनविम्ब की रचना का उपदेश हमारे परम्पराचार्यों ने किया। तीर्थंकर और केवली भगवान केवली अवस्था में स्वात्मलीन रहते हुए उनकी वीतराग मुस्कान और वीतराग मुद्रा कैसी थी ? तद्ररूप प्रतिमा का निर्माण करना और उसकी स्थापना नय-निक्षेप से मंत्रोच्चार पूर्वक संस्कार कर गुणों का रोपण करना, पश्चात् प्रत्यक्ष आराध्य के रूप में स्थापित कर प्रतिमा को प्रत्यक्ष तीर्थंकर मानकर आराधना करने का विधान-पूर्व परम्पराचार्यों द्वारा प्रतिपादित किया गया, मंत्र एक ऐसी शक्ति हैं जो जीव और अजीव द्रव्य को प्रभावित करती है। इसीलिए तीर्थंकर भगवान के द्वारा दिव्य ध्वनि रूप द्वादशांग वाणी के दशवें अंग में विद्यानुवाद का भी उपदेश है। जिसमें मंत्र रूप बीजाक्षरों का निर्माण, मंत्र रचना, मंत्र साधन विधि आदि निरूपित किया गया - मंत्र के द्वारा इच्छित कार्यों की साकारता प्राप्त होने से व्यक्ति की मंत्र के प्रति निरंतर महत्ता और आदर श्रद्धा बढ़ती गई। आत्म कल्याण में भी मंत्र एक ऐसा साधन है जो साधक को साध्य की ओर ले जाता है। तथा जो जीव के परिणामों में विशुद्धि, निर्मलता, एकाग्रता और कर्म निर्जरा में सहकारी बनता है। 2. जैन प्रतिमा की निर्माण विधि - प्रतिमा विज्ञान में प्रतिमा निर्माण के अनेक रूपों का प्रतिपादन है। उनके माप और आकृतियों में भी विभिन्नताएँ है आर्त रूप, रौद्र रूप, वीर रूप, हास्य रूप, सौम्य वीतराग रूप, ध्यान मुद्रा इनमें जैन प्रतिमा विज्ञान का पृथक एवं उसके माप के निर्माण का पृथक स्वरूप है, रूप वीतराग हो, ध्यान मुद्रा हो, वीतराग मुस्कान हो, वीतराग मुस्कान की एक विलक्षणता निर्मित है। आचार्यों ने जैन प्रतिमा के विषय में लिखा है - सरल, लम्बा, सुन्दर, संस्थान युक्त तरुण अवस्थाधारी नग्न, यथाजात मुद्राधारी श्री वृक्ष लक्षण युक्त भूषित हृदय वाला जानुपर्यंत लम्बी भुजा सहित 108 भाग प्रमाण जिनेन्द्र विम्ब, काँख मुख दाड़ी के केश रहित बनाने का उल्लेख है। श्रेष्ठ धातु या पाषाण की प्रतिमा को बनाने का उल्लेख है। जिस प्रमाण में जिन विम्ब का निर्माण करना हो उस प्रमाण कागज में अर्द्ध रेखा करें। उसमें 108 भाग प्रमाण रेखाएँ करें। उसमें 2 भाग प्रमाण मुख, 4 भाग प्रमाण ग्रीवा, उससे 12 भाग प्रमाण हृदय, हृदय से नाभि तक 12 भाग प्रमाण, नाभि से लिंग का मूल भाग पर्यन्त 12 भाग प्रमाण, लिंग के मूल भाग से गोड़ा तक 24 भाग प्रमाण जांघ करें। जांघ के अंत में 4 भाग प्रमाण गोंडा करें। गोंडा से टिकून्या 24 भाग प्रमाण पीड़ी बनायें, टिकून्या से पादमूल पर्यन्त 4 भाग पर्यन्त एड़ी करें। इस प्रकार 108 भागों में सम्पूर्ण शरीर की रचना 9 विभागों में बनायें। यह विभाग मस्तक के केशों से लेकर चरण तल पर्यन्त है । मस्तक के ऊपर गोलाई केश से युक्त शोभनीक करें। चरण तल के नीचे आसन रूप चौकी बनाना चाहिए। 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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