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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ एकीभाव, विषापहार और चतुर्विशतिका और स्तोत्र की हिन्दी टीका अभी तक अप्रकाशित हैं। मेरी इच्छा पंचस्तोत्रों की संग्रह रूप से टीका लिखने की थी और अनेक महाशयों ने कई बार इस विषय की प्रेरणा भी की। अब अवकाश प्राप्तकर मैंने इन स्तोत्रों की टीका लिखने का प्रयत्न किया है"। पंचस्तोत्रसंग्रह में पाँच स्तोत्रों की सरल तथा संक्षिप्त टीका की गई है, ये स्तोत्रकाव्य के रूप में एक धार्मिक ग्रन्थ हैं जो भक्तिरस से परिपूर्ण हैं । प्रत्येक श्रद्धालु मानव को इन स्तोत्रों का सार्थ नित्यपाठ करना चाहिये। इन स्तोत्रों की टीका में जो विशेषता है उनके कुछ महत्त्वपूर्ण अंश क्रमश: इस प्रकार हैं - (1) भक्तामर स्तोत्र के प्रणेता श्री मानुतंग आचार्य प्रसिद्ध हैं। अपने मालवदेश की राजधानी द्वारा नगरी के कृष्णमंदिर में भक्तामर स्तोत्र की मौलिक रचना कर भक्ति मंत्रों का प्रभाव दर्शाया । इस स्तोत्र का द्वितीय नाम श्री आदिनाथ स्तोत्र है कारण है कि इस स्तोत्र में भगवान् ऋषभदेव । (आदिनाथ) का स्तवन किया गया है । इस स्तोत्र को दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्परा में पूज्यता की दृष्टि से देखा जाता है । इसकी रचना छठवीं तथा सातवीं शती के मध्य भाग में हुई है। इस स्तोत्र के नित्यशुद्धपाठ सार्थ करने से परमार्थिक फल मुक्ति लक्ष्मी की प्राप्ति और लौकिकफल स्वर्ग, राज्य आदि की लक्ष्मी की प्राप्ति होती है प्रत्येक काव्य के दोनों फल सिद्ध होते हैं। उदाहरणार्थ अंतिम काव्य इस प्रकार है - स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्रगुणै र्निबद्धां, भक्त्या मया रूचिरवर्ण - विचित्र पुष्याम् । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजसं, तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मी: 148 अन्वयार्थ - (जिनेन्द्र !) हे जिनेन्द्र देव । (इह) इस संसार में (य: जन:) जो मनुष्य (मया) मेरे द्वारा (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (गुणैः) माधुर्य आदि काव्यगुणों से अथवा जिनेन्द्रदेव के गुणों से (माला के पक्ष में - धागे से) (निबद्धां) रची गई (माला के पक्ष में गूंथी गई), (रूचिरवर्ण विचित्र पुष्पों) भक्तामर पक्ष में - मनोहर अक्षर ही हैं विचित्र फूल जिसमें ऐसा स्तोत्र, (मालापक्ष में सुन्दररंगवाले विविध फूलों से सहित), (तव) आपकी (स्तोत्रस्त्रज) स्तुतिरूप माला को (अजस्त्रं) हमेशा (कण्ठगतां धत्ते) भक्तामर पक्ष में याद करता है (माला पक्ष में गले में पहिनता है ) (तम्) उस (मानतङ्ग) सम्मान से उन्नत पुरूष को (अथवा - स्तोत्र को रचनेवाले मानतुंग आचार्य को) (लक्ष्मी:) स्वर्गमोक्ष आदि की विभूति (मालापक्ष में लौकिक सम्पत्ति) (अवशा सती) स्वतंत्र होती हुई (समुपैति) प्राप्त होती है। ___ भावार्थ - हे जिनेन्द्र आदिनाथ भगवान् ! जो मनुष्य निरंतर आपके इस भक्तामर स्तोत्र का शुद्धपाठ करता है, उसे हर एक तरह की (अंतरंग तथा बहिरंग) लक्ष्मी प्राप्त होती है इस पद्य में श्लेष -रूपक - स्वभावोक्ति अलंकार है। (2) उत्तरभारत के दि. जैन आचार्य श्रीवृद्धिवादि मुनिराज ने श्री कुमुदचंद्र विद्वान से शारीरिक शुद्धि - अशुद्धि के विषय में तीन शास्त्रार्थ किये थे, उन तीनों शास्त्रार्थो में श्री कुमुदचंद्र ने पराजय प्राप्त की और शास्त्रार्थ के प्रसंग में ही स्वानुभव से अपनी भूल समझकर उसे दूर किया और श्रीवृद्धवादिसूरि से मुनि दीक्षा -338 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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