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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ करने में असमर्थ है, फिर जो सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, उनके संवर के अभाव में प्रति समय बंधने वाले कर्मों का संचय होते हुए मुक्ति की बात ही क्या है ? जैसे हाथी स्नान करके भी निर्मल नहीं होता, वह अपनी सूंड के द्वारा धूल उठाकर अपने पर डालता है। उसी तरह तप के द्वारा कुछ कर्मों की निर्जरा होने पर भी असंयम के द्वारा उससे अधिक कर्मों का बंध होता रहता है । बंध रहित निर्जरा मोक्ष प्राप्त कराती है, बंध के साथ होने वाली निर्जरा नहीं। इसको मन्थनचर्मपालिका का दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया गया है कि मथानी चलाते समय एक ओर से रस्सी छूटती जाती है, साथ ही दूसरी ओर से रस्सी लिपटती जाती है, उसी तरह अविरत सम्यग्दृष्टि द्वारा किये गये तप की भी स्थिति है कि एक ओर आंशिक निर्जरा होती है, दूसरी ओर उससे अधिक कर्मों का बंध होता रहता है। यहाँ यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि तत्त्वार्थसूत्र में 'तपसा निर्जरा च' सूत्र में उमास्वामी ने कर्मों की निर्जरा में तप आदि को भी कारण माना है, इसलिए ज्ञानी या अज्ञानी कोई भी तप करे उससे कर्मों की निर्जरा होगी ही। आचार्यों ने इसका समाधान देते हुए लिखा है कि निश्चय तप वस्तुत: आत्मा का अपने स्वरूप में प्रतपन करना ही है। इससे आत्मा की प्रशस्त शक्ति प्रकट होती है। बाह्य तप, अंतरंग तप के साधन मात्र हैं। निर्जरा तो अभ्यन्तर तप से ही होती है।
___सम्यग्ज्ञानी द्वारा किया गया तप निश्चित रूप से निर्जरा में कारण होता है, जबकि मिथ्यादृष्टि - अज्ञानी द्वारा किया गया तप मोक्षमार्ग में निरर्थक माना गया है क्योंकि मिथ्यात्व अज्ञान, मोक्षमार्ग के अंगज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप चतुरंग को नष्ट कर देते हैं, फिर भी अज्ञानरूपी घोर अन्धकार में विचरण करने वाले के लिए सम्यक् तप दीपक के समान है।
अध्यात्मिक दृष्टि के साथ - साथ भगवती आराधना में आगमिक और लौकिक दृष्टि से भी तप को कामधेनु , चिन्तामणि, नौका आदि के समान बताकर तप के महत्व को बताया गया है। इससे प्रतीत होता है कि उक्त दोनों दृष्टियों से अज्ञानियों द्वारा किया गया सम्यक् तप भी कथंचित् सार्थक कहा जा सकता है । परन्तु सम्यग्ज्ञान से रहित अज्ञानी जिस कर्म को लाख करोड़ भवों में नष्ट करता है, उस कर्म को सम्यग्ज्ञानी तीन गुप्तियों से युक्त अंतर्मुहूर्त - टीकाकार के अनुसार अल्पकाल - मात्र में क्षय करता है। अज्ञानी के दो, तीन,चार पाँच आदि उपवास करने से जितनी विशुद्धि होती है, उससे बहुत गुणी शुद्धि जीमते हुए ज्ञानी के होती है। सम्यक्त्व तप आदि का द्वार :
मोक्षमार्ग में प्रवेश के लिए सम्यक्त्व को द्वार कहा गया है और ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तप के लिए सम्यक्त्व प्रवेश द्वार है। सबको शिवार्य ने नगर द्वार का दृष्टांत देकर स्पष्ट किया है कि सम्यक्त्व के बिना ज्ञानादि में प्रवेश सम्भव नहीं है और न ही उसके बिना जीव सातिशय अवधि ज्ञान आदि यथाख्यात चारित्र अथवा बहुत निर्जरा में निमित्त तप को प्राप्त कर सकता है। जैसे नेत्र मुख की शोभा प्रदान करते हैं वैसे ही सम्यक्त्व से ज्ञानादि शोभित होते हैं। जैसे जड़ वृक्ष की स्थिति में कारण है वैसे ही सम्यक्त्व ज्ञानादि की स्थिति में निमित्त है। जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है वह भ्रष्ट है क्योंकि सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट का अनन्तानन्तकाल
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