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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
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• चारित्र के बिना ज्ञानी या अज्ञानी सभी का तप निरर्थक है क्योंकि उसके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान उत्तरकाल में होने से संयम को उत्तरगुण कहा गया है। श्रद्धान और ज्ञान के बिना संयम होता नहीं अथवा जो जानता नहीं और न जिसे श्रद्धा है, वह असंयम का त्याग नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि संयम के होने पर, तप निर्जरा का कारण होता है, अन्यथा नहीं । आचरण हीन ज्ञान, श्रद्धान के बिना मुनि दीक्षाग्रहण और संयम के बिना तप निरर्थक है । जो ज्ञान के बिना चारित्र और तप को प्राप्त करना चाहता है, वह अंधे के समान अंधकार में दुर्ग पर जाने का प्रयत्न करता है। जैसे अशुद्ध कडुवी तुम्बी में रखा दूध कटुक तथा शुद्ध तूम्बी में रखा दूध मीठा तथा सुगंधित होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व - अज्ञान से दूषित जीव के तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य आदि सभी नष्ट हो जाते हैं क्योंकि वे सम्यक रूप नहीं होते। समीचीन तप, ज्ञान. चारित्र और वीर्य मुक्ति के उपाय हैं। केवल तप मुक्ति का उपाय नहीं । अतः मिथ्यात्व दूर कर देने वाले जीव में तप आदि सफल होते हैं ।
ज्ञानी और अज्ञानी के तप का स्वरूप :
ज्ञानरूपी प्रकाश ही, यथार्थ प्रकाश है क्योंकि इसमें जीव का पतन नहीं होता । सच्चे ज्ञान के धारक ज्ञानी का सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप विद्यमान कर्मों की निर्जरा करने में निमित्त होता है । जिस जीव के चारित्रमोह के क्षयोपशम का प्रकर्ष नहीं है वह जीव बड़े कष्ट से इन्द्रियों और कषायों को वश में कर पाता है। जैसे बकरी का बच्चा सुगंधित तेल भी पिये फिर भी अपनी पूर्व दुर्गंध को नहीं छोड़ पाता। उसी प्रकार असंयम को त्यागने पर भी कुछ जीव इन्द्रिय और कषाय रूप दुर्गन्ध को नहीं छोड़ पाते । वस्तुत: ज्ञानी इन्द्रिय और कषाय जीतने से ही होता है और वही तप संयम पूर्वक मोक्षमार्ग की ओर प्रस्थान करता है। इन्द्रिय और कषायों के पराधीन हुआ अधिक ज्ञान स्वयं नष्ट हो जाता है। जैसे शक्कर मिला हुआ दुग्ध विष के मिलने पर नष्ट हो जाता है।
अज्ञानी के तप का स्वरूप :
पूर्व में यह लिखा गया है कि तत्त्वार्थ श्रद्धान से रहित मिथ्यादृष्टि दृद चारित्र वाला हो या अदृढ़ चारित्र वाला, मरण समय वह ज्ञान और चारित्र का आराधक नहीं होता, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नहीं होते । मिथ्यादृष्टि - अज्ञानी की तो बात ही क्या तत्त्वश्रद्धानी - सम्यग्दृष्टि भी यदि अविरत है, हिंसादि विषयों में प्रवृत्त रहता है, उसका भी तप करना महान उपकारक नहीं है, अर्थात् वह सर्वथा कर्मों को नष्ट नहीं करता। यह नियम है कि तत्त्वार्थ श्रद्धा वाले के ज्ञानाराधना हो जाती है, परन्तु वह यदि असंयमी है तब उसका तप महागुणवाला नहीं होता। फिर अज्ञानी के द्वारा किया गया तप कैसे सार्थक हो सकता है । ग्रन्थकार ने लिखा है -
सम्मादिट्ठिस्सवि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि ।
होदि हु हत्थण्हाणं चंदच्चुदकम्म तं तस्स ॥ भ. आरा. गाथा 7
टीकाकार ने इसकी व्याख्या में लिखा है कि असंयमी सम्यग्दृष्टि का भी तप कर्मों को जड़ से नष्ट
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