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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात् पृथ्वीचक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम् । ध्यानद्वारं मम रूचिकर स्वान्तगेहं प्रविष्ट: तत्किं चित्रं जिन! वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि । अन्वयार्थ - (देव) हे जिनेन्द्र ! (भव्य पुण्यात्) भव्य जीवों के पुण्य के हेतु (त्रिदिवभवनात्) स्वर्गलोक से (इह) इस धरातल पर (एष्यता) आने वाले (त्वया) आपके द्वारा (प्राग् एवं) छह माह पहले से ही जब (इदं पृथ्वी चक्रं) यह भूमण्डल (कनकमयतां) सुवर्ण रूपता को (निन्ये) प्राप्त कराया गया था अर्थात् सोने का बना दिया गया था, तब फिर (जिन) हे जिनेन्द्र ! (ध्यानद्वार) ध्यानरूप दरवाजे से सहित और (रूचिकर) प्रेम उत्पन्न करने वाले (मम) हमारे (स्वान्तगेहं) मनरूप घर में (प्रविष्टः) प्रविष्ट हुए आप (इदं वपुः) इस शरीर को (यत्)जो (सुवर्णीकरोषि) सुन्दर अथवा सुवर्णमय कर रहे हो (तत् किं चित्रं) वह क्या आश्चर्य है ! अर्थात् कुछ भी नहीं॥ ___ भावार्थ - हे जिनेन्द्रदेव ! जब आपके स्वर्गलोक से भूलोक पर आने के लिए छह माह बाकी थे तभी आपके प्रभाव से यह समस्त पृथ्वी सोने जैसी सुन्दर हो गई थी, फिर अब तो आप हमारे मनमंदिर में प्रविष्ट हो चुके हैं इसलिए यदि यह शरीर सुन्दर अथवा सुवर्ण जैसा हो जावे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ।(यहाँ सुवर्ण शब्द के दो अर्थ हैं एक सुन्दर और दूसरा सुवर्ण/सोना) । इस पद्य में मन्दाक्रान्ता छन्द और श्लेष, संभावना एवं आश्चर्य अलंकारों की छटा से शान्तरस प्रवाहित हो रहा है। यह स्तोत्र 26 पद्यों में पर्ण होता है। (4) संस्कृत भाषा में द्विसन्धान महाकाव्य के प्रणेता महाकवि धनंजय विषापहार स्तोत्र के रचयिता है। इसमें उपजाति छन्द में निबद्ध कुल चालीस पद्य हैं। इन पद्यों में अलंकारों की छटा, शब्दविन्यास, अर्थ की गंभीर कल्पना और भक्तिरस का प्रवाह विचित्र एवं अपूर्व है । भगवत्पूजन के पश्चात् इस स्तोत्र की रचना के कारण होने वाली आत्मविशुद्धि के प्रभाव से इनके इकलौते पुत्र का सर्पविषशान्त हो गया था, इसलिये इस स्तोत्र का नाम 'विषापहार' लोक प्रसिद्ध हो गया है। उदाहरणार्थ इस स्तोत्र का प्रथम पद्य प्रस्तुत है - स्वात्मस्थित: सर्वगतः समस्त-व्यापार-वेदी-विनिवृत्त संग : । प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्यः, पायादपायात्पुरुष: पुराण : ॥1॥ अन्वयार्थ - (स्वात्मस्थित: अपि सर्वगतः) आत्मस्वरूप में स्थित होकर भी सर्वव्यापक, (समस्त व्यापार वेदी अपि) सब व्यापारों के जानकार होकर भी, (विनिवृत्त संगः) परिग्रह से रहित , (प्रवृद्धकालः अपि अजरः) दीर्घ आयु वाले होकर भी बुढ़ापे से रहित तथा (वरेण्यः) श्रेष्ठ (पुराण: पुरुष:) प्राचीन पुरुष =भ0 आदिनाथ, (न:) हम सब को (अपायात्) विनाश या विघ्र से, (पायात्)रक्षित करें। __ भावार्थ - इस पद्य में विरोधाभास अलंकार है । इस अलंकार में सुनते समय विरोध मालूम होता है पर बाद में अर्थ का विचार करने से विरोध का परिहार हो जाता है। देखिये - जो अपने स्परूप में स्थित होगा (340) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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