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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन धर्म में नवदेवों की मूर्ति का सद्भाव :- मूर्तिपूजा के महत्व को स्वीकार करते हुए जैन धर्म में अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, चैत्य, चैत्यालय, जिनवाणी और धर्म नव देवों की मूर्तियों को प्रतिष्ठित कर उनकी पूजा का विधान है। निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य है : प्रातिहार्याष्टकोपेतं सम्पूर्णावयवं शुभम् । भावरूपानुविद्धाङ्गं कारयेत् विम्बमर्हत् :॥ प्रातिहार्य विना शुद्धं सिद्ध-विम्बमपीदृशं । सूरीणां पाठकानांच साधूनांच यथामम् ॥ आठ प्रातिहार्यों से युक्त तथा सम्पूर्ण शुभ अवयवों वाली वीतरागता से पूर्ण अर्हन्त की प्रतिमा होती है । प्रातिहार्यों से रहित सिद्धों की शुभ प्रतिमा होती है। आचार्यों, उपाध्यायों व साधुओं की प्रतिमायें भी आगमानुसार बनानी चाहिए। आगमानुसार प्रतिष्ठित प्रतिमायें ही पूज्य मानी गई है। चैत्य अर्थात् मूर्ति स्वयं देवरूप में पूज्य है ही। चैत्यालय, समवसरण की प्रतिमा ही है, समवसरण के स्वरूप को ही प्रयास करके यथायोग्य निर्माण कर चैत्यालय या मंदिर रूप में पूज्यता प्रदान की गई है। एवंविध ही जिनेन्द्र भगवान् की शब्द रूप अदृश्य, अनक्षरी दिव्य ध्वनि रूप वाणी शब्द रूप में लिपिबद्ध कर शास्त्राकार में ग्रंथ को मूर्त एवं पूज्य स्वरूप प्रदान किया गया है। जिनवाणी की ग्रंथ रूप प्रतिमा को उच्च एवं श्रेष्ठ स्थान पर विराजमान कर तथा विमान में विराजमान कर यात्रा रूप में पूज्य माना गया है । जैन धर्म की मूर्ति रूप में श्रमण या साधु को स्वीकार किया गया है। आगम में स्थिर एवं जंगम (चल) दो प्रकार की मूर्तियाँ स्वीकृत हैं। पाषाण, धातु रत्न आदि व चैत्यालय आदि स्थावर मूर्तियाँ हैं तथा आचार्य, उपाध्याय और साधु ये जिनेन्द्र भगवान की चल प्रतिमायें हैं। इनकी श्रद्धा, भक्ति के अभाव में सम्यक्त्व का सद्भाव ही नहीं है। पूजा :- "पूतं जायते एतया इति पूजा" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे पवित्र हुआ जाता है उसे पूजा कहते हैं । यह हृदय - वाणी मन के पापकलंक को दूर करने में सहायक है। गुणों में अनुरागपूर्वक अर्थात् भक्तिपूर्वक अपने आदर्श के प्रति उपकार-स्मरण, संस्कार - रोपण और कृतज्ञता का नाम पूजा है। कहा भी है देवाधिदेवचरणे परिचरणं, सर्वदुःखनिर्हरणम् । कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुयादाढतो नित्यम् ॥ देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान के चरणों में भक्ति, वैयावृत्य, पूजा सम्पूर्ण दु:खों का हरण करने वाली, कामधेनु के समान तथा कामवासना को नष्ट करने वाली है, अत: नित्य ही आदरपूर्वक पूजा करनी चाहिए। अभीष्ट फल की सिद्धी का उपाय सुबोध है । यह शास्त्र से होता है। शास्त्र की उत्पत्ति आप्त भगवान से होती है। उनके प्रसाद से ही प्रकृष्ट रूप से प्रबुद्धि होती है, अतः सज्जन मनुष्य किए हुए उपकार को भूलते नहीं है। -540 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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