________________
आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
मूर्ति शब्द : तात्पर्य : - सादृश्य के तदाकार प्रस्तुति को मूर्ति कहते हैं । मूर्तिमान के बाह्य रूप को, अंगोपांगो को समान चित्रित कर, प्रदर्शित कर प्रभावशाली तौर पर स्थापित किया जाता है । मूर्तिमान की समता या उपमा धारण करने से प्रतिमा नाम दिया जाता है । गुणों की प्रतिरूपता को प्रकट करना इसका प्रमुख उद्देश्य होता है । बाह्य एवं अभ्यंतर गुणों की समष्टि का प्रकाशन इसका उद्देश्य होता है । मूर्ति में प्रतिच्छाया के दर्शन होते हैं, अत: इसका विम्ब अथवा प्रतिविम्ब नाम सार्थकता को प्राप्त होता है । तदाकार स्वरूपता इसमें पाई जाती है। जैसे चन्द्रमा का विम्ब जल में पड़ता है अथवा कैमरे में जो छवि दिखाई देती है वह सम्मुख तदाकार है, यह भी मूर्तिमत्ता है और सूर्यादि के प्रकाश के द्वारा जो वस्तु या व्यक्ति की छाया पड़ती है वह एक दृष्टि से तदाकार है। मूर्ति का एक पर्यायवाची विग्रह भी है । विग्रह का अर्थ शरीर भी है । इसका प्रयोजन यह है कि अमुक मूर्तिरूप वस्तु मूर्तिमान का स्वरूप या शरीर है। रूप भी मूर्ति की एक अन्वर्थ संज्ञा है। किसी अविद्यमान वस्तु जिसके द्वारा अनुभूत स्मृत किया जाता है, वह मूर्ति या रूप ही तो है । समस्त प्रकार के मूर्ति आयामों में संकल्प ही प्रधान है। संकल्प को स्थापना निक्षेप द्वारा जिस रूप के माध्यम से पूरा किया जाता है, वह मूर्ति कहलाती है। जैन धर्म में मूर्ति पूजा के प्रकरण में पूज्य के रूप में, देव के रूप में प्रतिष्ठित मूर्तियों को स्वीकार किया गया है। तदाकारता की पूर्णता विशेष रूप से परिलक्षित की जाती है । मुख मुद्रा आदि धर्मप्रभावकारी अंगोपांगों के भंग या खण्डित हो जाने पर पूज्यता का अभाव माना गया है । कलाकार के उपकरणों द्वारा अपेक्षाकृत अनुपयोगी पदार्थ में भी कुशलता से देवत्व निर्माण के प्रकट आयाम को मूर्ति कहते हैं। भाव विशुद्धि, मन की एकाग्रता, अभीष्ट लक्ष्य की सिद्धी और विकारों पर विजय हेतु यह प्रबल आलंबन है। जैन धर्म में मूर्तिपूजा लौकिक शांति एवं मोक्षमार्ग में गमन हेतु प्रबल पाथेय है ।
।
जैन धर्म में मूर्ति का उपयोग आयाम :- मूर्ति एक दर्पण की भांति कार्यकारी है। जैसे हम दर्पण में मुख पर लगे विकारों को दृष्टिगत कर उन्हें हटाने के लिए चेष्टावान होते हैं, उसी प्रकार मूर्ति के दर्शन से निजदर्शन कर मूर्तिमान से अपनी तुलना कर मनोगत विकारों के निरसन हेतु प्रवृत्त होते हैं । प्रतिमा एक प्रकाश स्तंभ का कार्य करती है । अंधकार युक्त स्थिति में प्रकाश स्तंभ द्वारा हमें दिशा बोध प्राप्त होता है, वैसे ही मोह अंधकार से दिग्भ्रमित एवं सुख की खोज की दौड़ में दौड़ते हुए संसारी प्राणी के लिए प्रतिमा मार्गदर्शन करने में सक्षम है। आवश्यकता है समीचीन उपयोग की । जिनविम्ब सूर्य के समान है, जिसके अपेक्षित आभामंडल से विकार एवं अशुद्धि के परमाणु नाश को प्राप्त होते हैं । सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है। प्रतिमा हो या साक्षात् रूप से जो अरहंत को द्रव्यत्व, गुणत्व, पर्यायत्व से जानता है वह अपनी आत्मा को जानता है, उसका मोह, अज्ञान नष्ट हो जाता है ऐसा उल्लेख जिनागम में पाया जाता है।
1
यथा हम किसी मंदिर या गृह निर्माण हेतु आदर्श माडल का उपयोग करते हैं, तथाविध अपने आत्मा के परमात्मा रूप में निर्माण हेतु प्रतिमा रूप आदर्श को लक्ष्य में लेकर उसके माध्यम से, निमित्त से सफल हो सकते है।
Jain Education International
539
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org