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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ खुरचना, छीलना स्पर्श करना पतला करना, कृश करना ताड़पत्र पर लिखने के लिए
किन्तु उक्त विविध अर्थों में से पतला करना, कृश करना या दुर्बल करना अर्थ ही यहाँ अभीष्ट है आचार्य पूज्य पाद ने भी इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए लिखा है कि - अच्छी प्रकार से काय तथा कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है।' 2. सल्लेखना के पर्यायवाची :
शास्त्रों में सल्लेखना के अनेक पर्यायवाची नाम मिलते हैं, जिनमें समाधिमरण, संथारा, अंतिमविधि, आराधना-फल, संलेहणा और संन्यास आदि प्रचलित हैं । 3. समाधि - साधक का लक्षण :
पण्डितप्रवर आशाधर जी ने सागारधर्मामृत में पूर्वाचार्यों द्वारा समाधि की परिभाषा को स्वीकार करते हुए अष्टम अध्याय के प्रारंभ में समाधिसाधक का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि -
देहाहारेहितत्यागात् ध्यानशुद्धयाऽऽत्मशोधनम् ।
यो जीवितान्ते सम्प्रीत: साधयत्येष साधकः॥' __ अर्थात् जो मरणांत में सर्वांगीण ध्यान से उत्पन्न हुए हर्ष से युक्त होकर देह, आहार और मन, वचन तथा काय के व्यापार के त्याग से उत्पन्न ध्यानशुद्धि के द्वारा आत्मशुद्धि की साधना करता है वह साधक है।धर्मसंग्रह श्रावकाचार में भी साधक का यही लक्षण बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है कि -
भुक्त्यङ्गेहापरित्यागाद्धयानशक्त्याऽऽत्मशोधनम् ।
यो जीवितान्ते सोत्साहः साधयत्येष साधकः ॥ अर्थात् जो उत्साहपूर्वक मरण समय में भोजन, शरीर तथा अभिलाषा के त्यागपूर्वक अपनी ध्यानजनित शक्ति से आत्मा की शुद्धतापूर्वक साधना करता है, उसे साधक कहते है। 4. सल्लेखना के भेद :
सागारधर्मामृत में कहीं भी सल्लेखना के भेदों का वर्णन नहीं है । धवला टीका, भगवती आराधना तथा अन्य सल्लेखना संबंधी ग्रन्थों में दो या तीन भेदों का प्राय: वर्णन मिलता है । सामान्य रूप से सल्लेखना के बाह्य और आभ्यन्तर - ये दो भेद भगवती आराधना में वर्णित हैं -
सल्लेहणा य दुविहा अभंतरिया य बाहिरा चेव ।
अभंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे ॥ अर्थात् सल्लेखना दो प्रकार की है - आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर सल्लेखना कषायों में होती है और बाह्य सल्लेखना शरीर में ।
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