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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सागारधर्मामृत में सल्लेखना
श्री आनंदकुमार जैन, एम.फिल पण्डित प्रवर आशाधर जी ईसा की तेरहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध दिगम्बर जैन विद्वान हैं । इन्हें जैनदर्शन के गूढ से गूढ सिद्धांतों एवं आचारगत नियमों की अच्छी जानकारी थी तथा अध्यात्म-विद्या में उनकी अप्रतिहत गति थी। गृहस्थ विद्वान होते हुए भी उपलब्ध जानकारी के अनुसार इन्होंने आचार्यों के समान कृतियों की रचना की है। जिनमें से कुछ प्रकाशित हैं, कुछ अप्रकाशित हैं और कुछ अनुपलब्ध हैं ज्ञात उन्नीस कृतियों में से 1. अनगारधर्मामृत 2. सागारधर्मामृत 3. मूलाराधना टीका 4. इष्टोपदेश टीका 5. जिनसहस्रनाम स्तवन टीका 6. नित्यमहोद्योत 7. प्रतिष्ठासारोद्धार (जिनयज्ञकल्प) और 8. त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र - ये आठ कृतियाँ प्रकाशित हैं।
पण्डितप्रवर आशाधर की जो कृतियाँ विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों में उपलब्ध तो हैं, किन्तु उनका अभी तक प्रकाशन नहीं हो सका है, उनमें 1. क्रिया कलाप 2. भूपाल चतुर्विंशति टीका और 3. रत्नत्रय विधान - ये तीन कृतियाँ है। इसी प्रकार पण्डितप्रवर आशाधर की जिन कृतियों का विभिन्न ग्रन्थों में उल्लेख तो मिलता है, किन्तु अद्यावधि अप्राप्त हैं, उनमें 1. प्रमेयरत्नाकर 2. भरतेश्वराभ्युदय काव्य 3. अष्टांग हृदयोद्योत 4. अमरकोश टीका 5. आराधनासार टीका 6. काव्यालंकार टीका 7. राजीमती विप्रलम्भ (स्वोपज्ञ टीका सहित) और 8. अध्यात्म रहस्य - ये आठ कृतियाँ उल्लेखनीय हैं।
इन कृतियों में पं. आशाधरकृत कुछ कृतियाँ ऐसी हैं, जिनका उन्होंने स्वतंत्र लेखन तो किया ही है साथ ही उन पर स्वोपज्ञ टीकायें भी लिखी हैं, जिनमें अनगारधर्मामृत और सागारधर्मामृत विशेष रूप से ज्ञातव्य हैं। इन दोनों कृतियों में पं. आशाधर ने पूर्वाचायों द्वारा लिखित चरणानुयोग संबंधी ग्रन्थों का सारांश ग्रहण कर समसामयिक, उपयोगी और लोकव्यवहार संबंधी नियमोपनियमों का उल्लेख किया है, जो आज भी महत्वपूर्ण हैं और अपनी उपयोगिता बनाये हुए हैं। सागारधर्मामृत में पण्डितप्रवर आशाधर जी ने श्रावक की दैनिक आचारसंहिता का विवेचन किया है। उन्होंने श्रावक के लिए जीवन के अंत में आवश्यक सल्लेखना विधि का भी विशेषरूप से उल्लेख किया है। प्रस्तुत आलेख में उनके द्वारा उल्लिखित श्रावक की सल्लेखना विधि को तुलनात्मक रूप में संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। 1. सल्लेखना शब्द की व्युत्पत्ति एवं परिभाषा :
___जैन-परम्परा के आचार-नियमों के अंतर्गत सल्लेखना एक महत्वपूर्ण बिन्दु है । सल्लेखना शब्द सत्+लेखना का निष्पन्न रूप है। सत् से तात्पर्य समीचीन या सम्यक् है तथा लेखना शब्द लिख्' धातु से 'ल्युट्' प्रत्यय होकर स्त्रीत्व विवक्षा में 'टाप्' प्रत्यय के संयोग से निर्मित है। लिख धातु कई अर्थों में प्रयुक्त होती है । यथा - 1. लिखना, प्रतिलिपि करना
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