________________
कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सार्वभौमिक हलचल मचा दी। मेरूपर्वत पर देव समाज के अधिपति इन्द्रों द्वारा जन्माभिषेक 1008 कलशों से समारोह के साथ किया गया। इस महोत्सव को दूसरे शब्दों में जन्मकल्याणक महोत्सव कहते हैं। ऋषभ जन्म के प्रभाव से आकाश निर्मल, पृथ्वी स्वच्छ, पुष्पवर्षा, सुगंधित मंद पवन, वाद्यों के घोष, संगीत के साथ नृत्य गायन, जय जयकार और इन्द्रों के आसन कम्पित होने लगे ।
बाल्यकाल में ऋषभदेव का रूप एवं आकृति सुन्दर, शरीर सुगंधित, पसीना तथा मलमूत्र का अभाव, प्रिय हित सुन्दर वचन, अतिसबल, शरीर में सफेद रूधिर, शरीर में 1008 शुभ लक्षण, शरीर वज्रवृषभ नाराच संहनन से अतिदृढ़ दर्शनीय था । दिव्य वस्त्राभूषणों से सुशोभित ऋषभदेव अन्य बालकों के साथ स्वाभाविक बाल क्रीड़ा करते थे । जिसको देखकर देव एवं मानव प्रसन्न होते रहते थे । उनका बाल्य जीवन आनंदप्रद, शिक्षाप्रद और संस्कारप्रद होता था ।
जन्म से पूर्व गर्भ कल्याणक का वर्णन करना आवश्यक है -
ऋषभदेव पूर्व भव में स्वर्ग लोक के श्रेष्ठ सर्वार्थसिद्धि विमान के ज्ञानोपयोगी देव थे । वहाँ की स्थितिपूर्ण होने पर वे आषाढ कृष्णा द्वितीया के उत्तराषाढनक्षत्र शुभ मुहूर्त में, अयोध्या के राज भवन में विराजमान मातेश्वरी त्रिशला के गर्भ में आये । माता को तत्काल बहुत हर्ष हुआ। गर्भ में आने के छह माह पूर्व से जन्म समय तक पन्द्रह मास पर्यन्त अमूल्य रत्नों की वर्षा से मानव सम्पत्ति सम्पन्न हो गये । एक दिन रात्रि के अंतिम प्रहर में माता मरूदेवी ने सोलह मंगल स्वप्न देखे । उन स्वप्नों का शुभफल यह था कि सर्व गुण सम्पन्न प्रबुद्ध प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव का सातिशय जन्म होगा, जो युग प्रवर्तक एवं मुक्ति मार्ग का प्रवर्तक होगा ।
प्रात: काल मंगलवाद्यों की मधुर ध्वनि के साथ मंगलगीत और परमेष्ठी परम देवों की जय ध्वनि गगन में गुंजित हुई। मातेश्वरी ने जागरण कर नमस्कार मंत्र का पाठ करते हुए परमात्मा का स्तवन किया । पश्चात् जिनालय में प्रवेश कर परम देव शास्त्र गुरु का भावपूर्वक अर्चन किया । प्रातः काल का यह कर्तव्य सभी महिला एवं मानवों को अनुकरणीय है। दिक्कुमारी एवं अन्यकुमारियों ने माता की सेवा, शिक्षाप्रद प्रश्नोत्तर, वार्तालाप, मधुरसंगीत, गुणकीर्तन, तीर्थंकर पुत्र जन्म का शुभ संदेश और मंगल कामनाओं द्वारा मातेश्वरी का हृदय हर्षित किया ।
पूर्व जन्म की पवित्र भावना एवं शुभ संस्कारों से सुसंस्कृत, स्वयंबुद्ध, प्रबुद्ध और दूरदर्शी ऋषभदेव द्वितीयाचंद्र के समान वृद्धिंगत होते हुए युवावस्था को प्राप्त हुए । ऋषभदेव ने किसी भी महाविद्यालय में अध्ययन नहीं किया, कारण कि उनकी पवित्र आत्मा में पूर्व जन्म के संस्कार से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधि ज्ञान विशेष का उदय था जिनके प्रभाव से वे कोई अन्याय, अनीति एवं अधर्म का कार्य नहीं करते थे किन्तु लौकिक और पारमार्थिक सभी कार्य विवेक से करते थे ।
युवावस्था प्राप्त होने पर महाराजा नाभिराजा ने ऋषभदेव के साथ परामर्श कर उनका पाणिग्रहण संस्कार धार्मिक पद्धति से दो सुयोग्य कन्याओं के साथ सम्पन्न कर दिया। उन कन्याओं का परिचय - ( 1 )
145
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org