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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इन इन्द्रियों के सामान्य रूप से द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय की अपेक्षा दो भेद हैं । निर्वृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय तथा लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। निर्वृत्ति रचना को कहते हैं। इसके बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो भेद हैं। तत् तद् इन्द्रियों के स्थान पर पुद्गल परमाणुओं की जो इन्द्रियाकार रचना है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। और आत्म प्रदेशों का तद् तद् इन्द्रियाकार परिणमन होना आभ्यन्तर निर्वृत्ति है। उपकरण के भी बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो भेद है। पलक विरूनि आदि बाह्य उपकरण हैं और कृष्ण शुक्ल मंडल आदि आभ्यन्तर उपकरण हैं। तत् तद् इन्द्रियावरण के क्षयोपशम से पदार्थ के ग्रहण करने की जो योग्यता है उसे लब्धि कहते हैं और उस योग्यता के अनुसार कार्य होना उपयोग है । वीरसेन स्वामी के उल्लेखानुसार इन्द्रियावरण कर्मका क्षयोपशम समस्त आत्म प्रदेशों में होता है न केवल इन्द्रियाकार परिणत आत्मप्रेदशों में विशेष रूप से स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच भेद है। इन्हीं इन्द्रियों की अपेक्षा जीवों की एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये पाँच जातियाँ होती है। आगम में एकेन्द्रिय जीवों की स्पर्शनादि इन्द्रियों का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र इस प्रकार बताया गया है - एकेन्द्रिय जीव की स्पर्शन इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र चार सौ धनुष है, द्वीन्द्रिय जीव की रसना इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय चौसठ धनुष प्रमाण है, त्रि-इन्द्रिय जीव की घ्राणेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय सौ धनुष प्रमाण है, चतुरिन्द्रिय जीव की चक्षुरिद्रिय का उत्कृष्ट विषय दो हजार नौ सौ चौवन योजन है और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव की कर्णेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय आठ हजार धनुष प्रमाण है। द्वीन्द्रियादिक जीवों का यह विषय असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक दूना - दूना होता जाता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव की स्पर्शनादि इन्द्रियों का उत्कृष्ट विषय इस प्रकार है - स्पर्शन, रसना और घ्राण इन तीन में प्रत्येक का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र नौ नौ योजन है । श्रोत्रेन्द्रिय का बारह योजन तथा चक्षुरिंन्द्रिय का सैंतालीस हजार दो सौ त्रेशठ से कुछ अधिक है । उत्कृष्ट विषय क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि ये इन्द्रियां इतने दूरवर्ती विषय को ग्रहण कर सकती हैं। चक्षुरिन्द्रिय का आकार मसूर के समान, श्रोत्र का आकार जौ की नली के समान, घ्राण का आकार तिल के फूल के समान और रसना का आकार खुरपा के समान है । स्पर्शन का आकार अनेक प्रकार का होता है। आत्म प्रदेशों की अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय का अवगाहन घनांगुल के असंख्यातवें भाग हैं, इससे संख्यातगुणा श्रोत्रेन्द्रिय का है, इससे पल्य के असंख्यातवें भाग अधिक घ्राणेन्द्रिय का और उससे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणित रसनेन्द्रिय का अवगाहन है। स्पर्शनेन्द्रिय का जघन्य अवगाहन घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो कि सूक्ष्म निगोदिया जीव के उत्पन्न होने के तृतीय समय में होता है और उत्कृष्ट अवगाहन महामच्छ के होता है जो कि संख्यात घनांगुल रूप होता है। ___ एकेन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय तक एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है और संज्ञी पंचेन्द्रियके चौदह गुणस्थान होते हैं। यह इन्द्रियों का क्रम संसारी जीवों के ही होता है मुक्त जीव इससे रहित हैं। संसारी जीवों में भी, भावेन्द्रियां बारहवें गुणस्थान तक ही क्रियाशील रहती है उसके आगे नहीं । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में द्रव्येन्द्रियों के रहने से ही पंचेन्द्रियपने का व्यवहार होता है। -314) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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