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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "सुलझे पशु उपदेश सुन, सुलझे क्यों न पुमान।
नाहर तें भये वीर जिन, गज, पारस भगवान ॥" सत्पुरुषों का कथन है, यह मुनष्य जीवन एक महत्वपूर्ण बात है । जहाँ की विशेष विधि संयम है । जिसने इस बाजार में आकर संयम निधि को नहीं लिया, उसने अक्षम्यभूल की।
आचार्य विद्यासागर जी महाराज के अनुसार - आज तक संयम के अभाव में इस संसारी प्राणी ने अनेकों दुःख उठाये है। जो उत्तम संयम को अंगीकार कर लेता है, साक्षात् या परम्परा से मोक्ष अवश्य पा लेता है। आत्मा का विकास संयम के बिना संभव नहीं है । संयम वह सहारा है जिससे आत्मा उर्ध्वगामी होती है। तुष्ट और संतुष्ट होती है। संयम को ग्रहण कर लेने वाले की दृष्टि में इन्द्रिय के विषय हेय मालूम पड़ने लगते हैं। लोग उसके संयमित जीवन को देखकर भले ही कुछ भी कह दें, पागल भी क्यों न कह दें, तो भी वह शान्त भाव से कह देता है कि आपको यदि खाने में सुख मिल रहा है तो मुझे खाने के त्याग में आनंद आ रहा है। मैं क्या करूँ, यह तो अपनी - अपनी दृष्टि की बात है। सम्यग्दृष्टि संयम को सहज स्वीकार करता है। इसलिए यह सब कुछ छोड़कर भी आनंदित होता है।
संयम वह है जिसके द्वारा अनंतकाल से बंधे संस्कार भी समाप्त हो जाते हैं। तीर्थंकर भगवान भी घर में रहकर मुक्ति नहीं पा सकते । वे भी संयम लेने के उपरान्त निर्जरा करके सिद्धत्व को प्राप्त करते हैं । सम्यग्दर्शन का काम इतना ही है कि हमें प्रकाश मिल गया। अब मंजिल पाने के लिए चलना हमें ही है। उद्यम हमें करना है और उस उद्यम में जितनी गति होगी उतनी ही जल्दी मंजिल समीप आ जायेगी।
संयम का एक अर्थ इन्द्रिय और मन पर लगाम भी है , और असंयम का अर्थ है वे लगाम होना । बिना ब्रेक की गाड़ी और बिना लगाम का घोड़ा जैसे अपनी मंजिल पर नहीं पहुँचता, उसी प्रकार असंयम के साथ जीवन बिताने वाले को मंजिल नहीं मिलती । संयम के साथ यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि जीवन में सुगंध आ रही है या नहीं ? जीवन में संयम के साथ सुगंध तभी आती है जब हम संयम को प्रदर्शित नहीं करते बल्कि अंतरंग में प्रकाशित करते हैं। प्राय: करके यही देखने में आता है कि संयम का प्रदर्शन करने वालों के जीवन में खुशबू न देखकर अन्य लोग भी संयम से दूर हटने लग जाते है । उन्हें समझना चाहिए की कागज के बनावटी फूलों से खुशबू आ कैसे सकती है ? संयम प्रदर्शन की या दिखाने की चीज नहीं है। यह मनुष्य जीवन की अनुपम विभूति है। जिसे अन्य पर्यायों में पूर्ण रूप से पाना संभव नहीं है । विषय वासनायें दुर्बल अन्त:करण पर अपना प्रभाव तथा इन्द्रिय और मन को निरंकुश करने में सर्वदा सावधान रहती है। इसलिए चतुर साधक भी मन एवं इन्द्रियों को उत्पथ में प्रवृत्ति करने से बचाने का पूर्ण प्रयत्न किया करता है।
___अपभ्रंश भाषा के रइघु कवि की इस उक्ति की हृदयंगम करना चाहिए - “संयम बिन घडिय मइक्क जाहु।" बिना संयम के आत्म कल्याण कभी भी संभव नहीं। मात्र शास्त्रों को पढकर, गुरुओं का विद्वानों का उपदेश सुनकर आत्मा, परमात्मा नहीं बन सकते। आपकी परमात्मा बनने की प्यास नहीं बुझ पायेगी। आप उत्तम संयम को अपनायेंगे, आत्मा में उतारेंगे, पानी पीयेंगे, तभी प्यास बुझेगी । इसलिए “शुभस्यशीघ्रं" अपने इस अमूल्य जीवन को यथाशक्ति संयमित बनाओ और कल्याण के पथ पर बढो।
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