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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ धार्मिकता और राष्ट्रीयता में समन्वय
मानव विश्व में बुद्धिमान् एवं सुन्दर आकृतिवाला प्राणी है। उसका जन्म राष्ट्र में होता है, जीवननिर्वाह समाज में होता है और विकास आत्मा में होता है। व्यक्ति समाज का मूलाधार एवं महत्वपूर्ण इकाई है । अत: व्यक्ति के विकास से समाज का, समाज के विकास से राष्ट्र का और राष्ट्र के विकास से विश्व का विकास होना स्वत: सिद्ध है। मानव के जीवन की यात्रा राष्ट्रीय तत्वों पर और आत्मा का विकास धार्मिक तत्वों पर निर्भर है। राष्ट्रीय तत्वों और धार्मिक तत्वों के सहयोग के बिना मानव का सर्वांगीण विकास होना असम्भव है।
___ मानव के पतन से समाज का पतन और समाज के पतन से राष्ट्र का पतन होने में जरा भी विलम्ब नहीं होता । व्यक्ति, समाज और राष्ट का पतन एक साथ ही होता है। इसी प्रकार विकास भी एक साथ होता है, क्योंकि प्रत्येक मानव समाज और देश का अंग है । जिस प्रकार शरीर का कोई भी अंग विकृत हो जाने के साथ ही शरीर विकृत हो जाता है उसी प्रकार समाज या राष्ट्र के किसी भी सदस्य (नागरिक) के विकृत हो जाने से समाज या राष्ट्र का विकृत होना स्वाभाविक है।
___ पण्डितप्रवर श्रीआशाधर जी ने गृहस्थ या नागरिक के चौदह कर्त्तव्यों में आर्यसमिति: इस शब्द से मानव को सभ्यसमाज का सदस्य घोषित किया है । राजनीति के वेत्ता अरस्तू ने लिखा है कि “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है एवं बिना समाज के वह एक क्षण भी नहीं रह सकता।"
व्यक्ति का विकास धार्मिकता और राष्ट्रीयता के बिना नहीं हो सकता और व्यक्ति के विकास के बिना समाज एवं राष्ट्र विकास नहीं हो सकता, अतः समाज तथा राष्ट्र के निर्माण का मूलाधार व्यक्ति है । जब मानव अशिक्षित, असभ्य, अशान्त, अधर्मी अनुशासनहीन और कर्तव्यहीन हो जाता है तब उसके पतन में, धार्मिकता और राष्ट्रीयता के उचित सामंजस्य का अभाव ही मुख्य कारण होता है।
___ सर्वोदय सिद्धांत के अनुसार मानव का सर्वागीण विकास होना मानवता है । मानव को अपने पूर्ण विकास के लिये एक हाथ में धार्मिकता और दूसरे हाथ में राष्ट्रीयता को लेकर, दोनों का समन्वय करते हुए पुरुषार्थ करना आवश्यक है । धार्मिक तत्वों के बिना राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय तत्वों के बिना धार्मिकता विकसित नहीं हो सकती है। जीवन में यथायोग्य दोनों का सहयोग ही कार्यकारी हो सकता है।
जिस प्रकार राष्ट्रीयता के उत्थान के लिये अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पांच प्रमुख धर्मसिद्धांतों की आवश्यकता है उसी प्रकार धार्मिकता के उत्थान के लिये राजनीति, न्याय, अनुशासन, शिक्षा, संस्कृति, कला, व्यापार, सैनिक शिक्षा, कृषि, शिल्पकला, स्वास्थ्यरक्षा, पशुरक्षा, वनस्पतिरक्षा, सहकारिता, राष्ट्रनिर्माण, विज्ञान समाजव्यवस्था आदि राष्ट्रीय तत्व भी अत्यावश्यक हैं। बुद्धिजीवी मानव उक्त तत्वों का स्याद्वादशैली से यथायोग्य समीकरण करता हुआ अपना सर्वांगीण विकास करता है। धार्मिक तत्त्व अथवा राष्ट्रीय तत्त्व एकांगीरूप से अथवा दोनों परस्पर निरपेक्ष रूप से मानवजीवन का प्राय: उत्थान करने में समर्थ नहीं है । यदि धर्मतत्त्व निश्चयमार्ग है तो राष्ट्रीयतत्व व्यवहारमार्ग है, अत: मानवजीवन को शुद्ध आदर्श तथा उन्नत बनाने के लिये दोनों मार्गों का समन्वय करना आवश्यक है।
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