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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सर्वप्रथम आपका बधाई संदेश शुभाशीष के रूप में प्राप्त कर मुझे सर्वाधिक प्रसन्नता का अनुभव हुआ था। इसी प्रकार सन् 2005 में श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय के शताब्दी वर्ष समारोह के अवसर पर अ.भा. दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद के अधिवेशन के अवसर पर मेरे अध्यक्षीय व्याख्यान से प्रभावित होकर मुझे शुभाशीष देते हुए बोले - प्रेमी जी आपने सागर जिले का गौरव बढ़ाया है। इसी प्रकार आगे बढ़ते रहो ये हमारी मंगल कामना है। उन्होंने अपने विद्यालय को अपनी निष्ठापूर्ण समर्पित भाव से आजीवन सेवायें प्रदान कर एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है । विशेष कर इतने श्रेष्ठ और वरिष्ठ विद्वान अन्यत्र कहीं ऊँचे वेतन में नौकरी प्राप्त कर सकते थे, किन्तु थोडे में ही संतोषकर सम्पूर्ण जीवन विद्यालय को समर्पित कर हजारों छात्रों को ज्ञान दान देकर योग्य विद्वान् बनाने में ही आपने अपने जीवन की सार्थकता मानी।
ऐसे महा मनीषी विद्वान् यद्यपि हमारे बीच नहीं है किन्तु वे अपने बहुमूल्य योगदान से हम सभी के बीच सदा जीवित रहेंगे। उनकी पुण्य स्मृति में श्रद्धांजलि स्वरूप प्रकाशित हो रहे इस स्मृति ग्रंथ के द्वारा दीर्घकाल तक आगे आने वाली पीढ़ियाँ उनसे प्रेरणा ग्रहण करती रहेंगी इसी विश्वास के साथ उन्हें श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ।
डॉ. दयाचन्द जैन साहित्याचार्य के व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य
प्राचार्य पं.निहालचंद जैन, बीना (म.प्र.) सादगी और सरलता से प्रज्ञता का अनुराग होता है । यह भले ही सिद्धान्त न हो, परन्तु जब भी डॉ. दयाचंद जी से मिलता, हम जैसे नाचीज व्यक्ति को ऐसा सम्मान देते जैसे मैं कोई विद्वान हूं। उनकी निश्छल सरलता से अभिभूत में सोचने लगता कि इतनी विनम्रता तो निश्चित ही इन्हें अपने पूज्य पिता पं. भगवानदास जी से मिली होगी। पं. दयाचंद जी ने विद्याभ्यास और अध्यात्म में निपुणता अपने पिता जी के आशीर्वाद से ही प्राप्त की। विद्याभ्यास के लिये समर्पण का सबूत इसी बात से मिलता है कि 75 वर्ष की उम्र में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इस उम्र तक आते-आते व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियाँ थक जाती हैं परन्तु यह सर्वहारा मनुष्य कितना जीवित व्यक्तित्व का धनी था कि ज्ञान का अथ सागर से और इति भी सागर में। जहां शिक्षा प्राप्त की, वहीं अध्यापन कराने लगे और संस्था श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी सागर के प्रति इतना समर्पण था कि पद एवं पैसे को महत्व न देकर अपने ज्ञान यज्ञ को सातत्य रखा सिद्धान्तशास्त्री और साहित्याचार्य जैसी गौरवपूर्ण उच्च उपाधि, वही अध्यापन कार्य करते हुए प्राप्त की। और अन्त तक इसी संस्था में प्राचार्य पद पर आसीन होकर 'अ' से 'ज्ञ' तक गणेश प्रसाद वर्णी जी के प्रति अपनी अनन्य श्रृद्धा का अर्घ्य देकर जीवन का यौवन और बार्धक्य का अनुभव व गंभीरता, मोरा जी के प्रागंण में व्यतीत कर दी । अपने ज्ञान का जरा भी अंहकार नहीं । लघु में वृहत्तर और
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