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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ और न कार्य का सर्वथा कर्ता है किन्तु कार्य की सिद्धि में सहायक निमित्त (आश्रय) मात्र अवश्य है अथवा प्रभावक है। उक्तं च राजवार्तिके -
"यथा कुण्टरच गतिपरिणाम समर्थस्य यष्टिरूपग्राहिका, न तुसा तस्य गते: की। यद्यसमर्थस्यापि की भवेत् तर्हिमूर्च्छितसुषुप्तादीनामपि यष्टिसम्बन्धाद्गतिः स्यात्। यथा वा नयनस्य स्वतो दर्शन समर्थस्य प्रदीप उपग्राहकः न तु प्रदीपो नेत्रस्य दर्शनशक्ते: कर्ता । यद्यसमर्थस्यापि कर्ता स्यात् मूर्च्छित सुषुप्त जात्यन्धानामपि दर्शनं कुर्यात्॥" (रा.वा.अ.5 पृ. 213) अपिच -
__ “यथा मृदः स्वयमन्तर्घटभवन परिणामाभिमुख्ये, दण्ड - चक्रपौरूवेयप्रयत्नादिनिमित्तमात्रं भवति। यत: सत्स्वपि दण्डादिनिमित्तेषु शर्क रादि प्रचितो मृत्पिण्ड: स्वय मन्तर्घटभवन परिणाम निरूत्सुकत्वान्न घटीभवति । अतो मृपिण्ड एव बाह्य दण्डादिनिमित्तापेक्ष: आभ्यन्तर परिणामसान्निध्यात् घटो भवति, न दण्डादयः, इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्वं । तथा पर्यायिपर्याययो: स्यादन्य - त्वादात्मनः, स्वयमन्तः श्रुतभवन परिणामाभिमुख्ये - मतिज्ञानं निमित्तमात्रं भवति" इति । प्रमाणान्तर - (रा.वा.अ.प्र.पृ. 50)
स्कंधरूप कार्य की उत्पत्ति में निमित्त भेद संघात तथा भेद संघात कहे गये हैं। यहाँ पर भेद का लक्षण राज वार्तिक में कहा है, उसके भी दो कारण हैं निमित्त और उपादान । उक्तं च -
"बाह्याभ्यन्तर विपरिणाम कारण सन्निधाने सति संहतानां स्कन्धानां विदारण नानात्वं भेद इत्युच्यते।
भेदसंघातेभ्य: इत्ययं हेतुनिर्देश: तदपेक्षो वेदितव्य:, निमित्तकारण हेतुषु सर्वासां प्रदर्शनात् इति भेद संघातेभ्य: करणेभ्य: उत्पद्यन्ते इति हेत्वर्थगते: " (रा.वा.पृ.237 अ. 5 सू. 26)
उक्त उद्धहरण क्रमश: धर्माधर्मद्रव्य में, श्रुत के प्रति मतिज्ञान में, और स्कन्धकार्य के प्रति भेदादि में निमित्तत्व सिद्ध करते हैं उनकी सिद्धि में जो लौकिक दृष्टांत प्रदीप, दण्ड चक्र आदि - विषयक दिये गये है उनमें भी उपादान - निमित्तकारणत्व प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। किञ्च -
निश्चयनय से जीव स्वभावत: शुद्ध है परन्तु वह इस समय संसार में शुद्धक्यों नहीं है, और अपार विशद ज्ञान तथा दर्शन आदि गुणों का विकास क्यों नहीं हो रहा है। विचार करने पर इसका उत्तर यही मिलता है कि आत्मा के साथ किसी में निमित्त का संयोग है कि जिन दो वस्तुओं के संयोग से दोनों में विकार उत्पन्न हो रहा है जिससे कि यह आत्मा अपने स्वभाव से हटकर अन्य कषाय पापादिरूप परिणत हो रहा है। यह तो सबको स्पष्ट दिखाई दे रहा है। और जब कर्म का निमित्त दूर हो जाता है तब यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। यदि निमित्त न माना जाये तो यह विकार दशा कौन कर रहा है ! क्योंकि आत्मा का स्वभाव तो विकृत है
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