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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ब्रह्मचर्य अणुव्रत के रूप में वह मात्र अपनी विवाहिता स्त्री से ही भोग करता है शेष स्त्रियों में माता, बहिन और पुत्री के समान व्यवहार करता है। आज भारतीय समाज जिस बलात्कार जैसी घिनौनी समस्या से ग्रस्त है यदि समाज श्रावकोचित ब्रह्मचर्य अणुव्रत को अपनाले तो इस बीमारी से सदा के लिए मुक्त हो सकता है और एड्स जैसी घातक बीमारी से भी बच सकता है। ___ परिग्रह परिमाण अणुव्रत के रूप में वह अपने परिग्रह को सीमित रखता है और शेष का दान करता है। इस तरह जैन श्रावक के यह पाँचों व्रत राष्ट्र कल्याण में किसी न किसी रूप में कल्याणकारी सहायक सिद्ध होते हैं। अनर्थदण्ड व्रत के विषय में छहढाला में पं. प्रवर दौलतराम जी ने कहा है कि - काहू की धन हानि किसी जय - हार न चिंते । देय न सो उपदेश होय अघ बनज कृषीतें ॥ कर प्रमाद जल भूमि वृक्ष पावक न विराधे । असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधे ॥ राग - द्वेष करतार कथा कबहुँ न सुनीजे । औरहु अनरथ दण्ड हेतु अघ तिन्हें न कीजे ॥ जिन कार्यो से कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होते हैं वे क्रियाएँ अनर्थ कहलाती हैं। मन, वचन, काय रूप योगों की प्रवृत्ति को दण्ड कहते हैं । अतः मन, वचन,काय से ऐसी कोई क्रिया या विचार नहीं करना जिससे पाप की स्थिति बनती हो । यह स्थिति अनर्थदण्ड विरति (व्रत) में होती है। अनर्थदण्ड के पाँच भेद बताये गये हैं - 1. अपध्यान - किसी के धन के नाश का, किसी की जीत और किसी की हार का विचार नहीं करना। 2. पापोपदेश - जिसमें पाप का बंध अधिक होता है ऐसे खेती, व्यापार आदि करने का उपदेश नहीं देना। 3. प्रमाद चर्या - बिना प्रयोजन पानी बहाने, पृथ्वी खोदने, वृक्ष काटने और आग जलाने का त्याग करना। 4. हिंसादान - यश की चाह से तलवार , धनुष, हल आदि हिंसा के उपकरण दूसरों को नहीं देना । 5. दुःश्रुति - जिन कथा - कहानियों के सुनने से मन में राग - द्वेष उत्पन्न होता है, उनको नहीं सुनना। इस पाँच अनर्थ दण्डों के अतिरिक्त और जो भी पाप के कारण अनर्थदण्ड हैं उन्हें भी नहीं करना चाहिये। आज के परिदृश्य में अनर्थदण्डों की स्थिति परम सीमा पर है। खोटे विचारों से व्यक्ति व्यथित भी होते है किन्तु करते भी हैं जिस पर रोक लगनी चाहिए। एक बार एक समाज शास्त्री से किसी ने पूछा कि लोग दुःखी क्यों हैं ? तो उत्तर आया कि नब्बे प्रतिशत तो इसलिए दु:खी हैं कि उनका पड़ोसी सुखी क्यों हैं ? हम भले ही वैश्विक हो गये हो किन्तु इससे अपध्यान की स्थिति भी बढ़ी है। युद्धों की स्थिति आते ही हम युद्ध विराम के स्थान पर किसी की जीत - -55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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