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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ क्लियमानाविनयेषु” अर्थात् - अखिल प्राणियों में मित्रता, गुणी व्यक्तियों में सहर्ष भक्ति, दीन दुखी प्राणियों में दयाभाव या सेवाभाव और अविनयी या विरोधी व्यक्तियों के प्रति माध्यस्थभाव ये चार भावनायें मानव
सदा चित्त में धारण करना चाहिए। आगे प्राणीहित के लिये सेवा मार्ग बताया है - "अनुगृहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानं" (मोक्ष शास्त्र अ. 7 सूत्र 38 ) अर्थात् प्राणियों की भलाई के लिये अपने धन आदि का समर्पण करना दान है । यह प्रत्येक मानव का कर्तव्य दर्शाया है।
इसी प्रकार अमितगति आचार्य ने कहा है :
सत्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् माध्यस्थभावं विपरीतवृतौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥1॥
आचार्य गुणभद्र का उपदेश है :
सुखितस्य दुःखितस्यच संसारे धर्म एव तव कार्य: । सुखितस्य तदभिवृद्धये, दुःखभुजस्तदपघाताय ।1।
( आत्मानुशासन श्लोक 18 ) अर्थात्-संसार में सुखी प्राणियों को सुख की वृद्धि के लिये और दुखी प्राणियों को दुख नाश के लिये सर्वदा अहिंसा धर्म का आचरण करना चहिये । अन्यच्च
धर्मो सेन्मनसि यावदलं स तावद्धन्ता न हन्तुरपि पश्य गतेऽथ तस्मिन । दृष्टा परस्परहति: जनकात्मजानां रक्षा ततोसस्य जगतः खलु धर्मएव 1 2 1 जब तक हृदय में धार्मिकता है तब तक मारने वाले पुरुष को भी मारने वाला कोई नहीं है। अर्थात् धर्मनिष्ठ व्यक्ति अपकार का बदला भी उपकार से देते है । परंतु धर्म के नाश होने पर पिता-पुत्र में भी कलह होता देखा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि विश्व के प्राणियों की रक्षा धर्मचक्र से ही हो सकती है। जिस चक्र तीर्थकर ने अपूर्व रीति से अवधारण किया था । धार्मिक भावों से जिसकी आत्मा पवित्र है ऐसे चाण्डाल चमार आदि को भी पूज्य कहा गया है। जैसे धूली लिप्त रत्न या अंगार अन्दर चमकपूर्ण रहता है । यहां मानवता के विकास की कितनी उच्च भावना है।
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( सामायिक श्लोक 1)
उक्त उदाहरणों और प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि धार्मिकता महान् और व्यापक है । राष्ट्रीय भावना तथा राजनीतिका भी उसमें अन्तर्भाव हो जाता है। इसी लिए तीनों तीर्थकर के जीवन इस बात के प्रमाण है कि मानवता विकास राष्ट्रीयता को धर्मतत्त्व से ओत प्रोत करने पर ही हो सकता है।
इन तीनों एवं अन्य तीर्थकरों ने जो धर्मोपदेश दिया उसमें राष्ट्रीयता को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। जहाँ व्यापक धार्मिकता का महत्व प्रसिद्ध है, वहां उसके अन्तर्गत राष्ट्रीयता का महत्व एवं उपयोगिता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। धार्मिक कर्तव्यों में हृदय या आत्मा को पवित्र एवं बलिष्ठ बनाने के लिये एक कर्तव्य भगवत्पूजन है। पूजन के पश्चात् मंगलप्रार्थना करना आवश्यक माना गया है जिसका एक श्लोक निम्नलिखित है
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