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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों और अनध्यवसाय को मिथ्याज्ञान कहते हैं। यहाँ यह भी विशेष ध्यातव्य है कि जैन धर्म में जैसी वस्तु है उसे उसी रूप में जानने वाले ज्ञान को भी मिथ्या कहा है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि यदि वस्तु का स्वरूप जैसा का तैसा समझ और जान रहा है किन्तु वस्तु - स्वरूप की यथार्थ प्रतीति नहीं होने से ऐसे मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी यथार्थ नहीं माना जायेगा। जैन दर्शन (पृष्ठ 188) पुस्तक में पं. महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के शब्दों में "मिथ्यादर्शन वाले का व्यवहार सत्य प्रमाण ज्ञान भी मिथ्या है और सम्यग्दर्शन वाले का व्यवहार में असत्य अप्रमाण ज्ञान भी सम्यक् है । तात्पर्य यह कि सम्यग्दृष्टि का प्रत्येक ज्ञान मोक्ष मार्गोपयोगी होने के कारण सम्यक् है और मिथ्यादृष्टि का प्रत्येक ज्ञान संसार में भटकाने वाला होने से मिथ्या है। इस तरह जो ज्ञान हेय (त्याज्य)" को हेय रूप में और उपादेय (ग्रहण योग्य) को उपादेय रूप में जानता है, वही सच्चा ज्ञान है। किन्तु जो हेय को उपादेय और उपादेय को हेय रूप में जानता है वह ज्ञान कभी सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता। ऐसे ज्ञान को मिथ्या कहा है।
__ ज्ञान के होते हुए भी जो अपने आत्मा का हित अहित का विचार करके हित में नहीं लगा और अहित से नहीं बचा, उसका ज्ञान सम्यक् कैसे कहा जा सकता है ? वस्तुत: मोह के एक भेद मिथ्यात्व का सहभावी ज्ञान भी मिथ्या कहलाता है। जब तक मिथ्याभाव दूर नहीं हो जाता, तब तक ज्ञान आत्मा को उसके हित में नहीं लगा सकता। अत: मिथ्यादृष्टि का यथार्थज्ञान भी अयथार्थ ही कहा जाता है। सम्यग्दर्शन के प्रकट होने के साथ ही पूर्व का मिथ्याज्ञान सम्यक् हो जाता है और सम्यग्दर्शन के अभाव में वही मिथ्या कहलाता है। इसीलिए सम्यग्ज्ञान को कार्य तथा सम्यग्दर्शन को कारण कहा है। क्योंकि जब तक दृष्टि सम्यक् न हो, ज्ञान सम्यक् नहीं हो सकता। इसीलिए सम्यग्दर्शन के होने पर ही ज्ञान "सम्यक्" होता है। ज्ञान के सम्बंध में जैन धर्म की यह मान्यता भी विशेष महत्व रखती है यहाँ ज्ञान के अभाव को अज्ञान कहा ही है मिथ्याज्ञान को भी अज्ञान माना है । यहाँ इन दोनों में यह अंतर विशेष दृष्टव्य है कि जीव एकबार सम्यग्दर्शन रहित तो हो सकता है, किन्तु ज्ञान रहित नहीं, किसी न किसी प्रकार का ज्ञान जीव में अवश्य रहता है । वही ज्ञान सम्यक्त्व का आर्विभाव होते ही सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
पुष्पदन्त भूतबलिकृत षट्खण्डागम की आ. वीरसेन कृत "धवला" नामक टीका (पुस्तक 1 एवं 5) में इस विषय में प्रश्नोत्तर के माध्यम से अच्छा स्पष्टीकरण किया गया है जिसे पं. कैलाश चंद जी शास्त्री ने अपनी "जैन सिद्धांत" नामक पुस्तक (पृ. 163) में प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि 'मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान भी भूतार्थ (सत्यार्थ) का प्रकाशक होने पर भी वे इसलिए अज्ञानी हैं, क्योंकि उनके मिथ्यात्व का उदय है। अत: प्रतिभासित वस्तु में भी उन्हें संशय विपर्यय और अनध्यवसाय होता है। इसीलिए उन्हें 'अज्ञानी' कहा जाता है। क्योंकि वस्तुस्वभाव का निश्चय कराने को 'ज्ञान' कहते हैं और शुद्धनय विवक्षा में सत्यार्थ के निर्णायक को 'ज्ञान' कहते है ।अत: मिथ्यादृष्टि ज्ञानी नहीं है। साथ ही 'जाने हुए पदार्थ का श्रद्धान करना ज्ञान का कार्य है, वह मिथ्यादृष्टि में नहीं है, इसलिए उनका ज्ञान 'अज्ञान' है।
वस्तुत: जाने हुए पदार्थ में विपरीत श्रद्धा उत्पन्न कराने वाले “मिथ्यात्व" के उदय के बल से जहाँ
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