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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "ॐ केवल णाण दिवायर किरण कला वप्पणासि यण्णाणो । णव केवल लद्धागम सुजणिय परम्परा ववएसो। असहायणाण दंसणसहिओ इदि केवली हुजोएण ।जुत्तोति सजोगिजिणो अणाइणि हणारिसे उत्तो। इत्येषो र्हत्साक्षद् त्राव ती) विश्वं पात्विति स्वाहा ।" इसके अलावा हमारे पास 6 प्रकार के संग्रहीत प्रतिष्ठा ग्रन्थ है उनमें ब्र. शीतलप्रसाद जी और पुष्पजी ने तो आचार्य जयसेन का ही मंत्र संग्रहीत किया |बाकी पं. शिवराज जी पाठक के प्रतिष्ठा चंद्रिका गणधराचार्य श्री कुन्थसागर के संग्रहीत प्रतिष्ठा विधि दर्पण एवं पं. नाथूलाल जी शास्त्री के प्रतिष्ठा प्रदीप एवं श्री सोरया जी के "प्रतिष्ठा दिवाकर" संग्रह ग्रन्थों में पृथक-पृथक सूरिमंत्र दिये हैं। उन्होंने ऐसे किसी भी ग्रन्थ का निर्देश नहीं दिया कि यह सूरिमंत्र उन्होंने कहाँ से संग्रहीत किया। श्री सोरया जी ने आचार्य श्री विमल सागर जी से सूरिमंत्र प्राप्त होने का निर्देश दिया है। गणधराचार्य श्री कुन्थसागरजी द्वारा संग्रहीत प्रतिष्ठा ग्रन्थ "प्रतिष्ठा विधि दर्पण" में द्वितीय खण्ड पृष्ठ 292 पर लिखा है कि गुरु परम्परा से प्राप्त आचार्यों ने सूरिमंत्र को गोप्य रखा इसलिए शास्त्रों में वर्णन नहीं मिलता। सूरिमंत्र देने के संदर्भ में गणधराचार्य जी के दिगम्बर मुनि महाव्रती द्वारा ही सूरिमंत्र देने की बात लिखी है। दिगम्बर होकर प्रतिष्ठाचार्य को सूरिमंत्र नहीं देना ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया मैं नहीं कह सकता यह निर्देश उन्होंने कहाँ से प्राप्त किया। पंच कल्याणकों के समस्त संस्कार प्रतिष्ठाचार्य करें और फिर जहाँ मुनि संभव न हो वहाँ फिर प्रतिष्ठाचार्य सूरिमंत्र दे या न दे इसका समाधान नहीं दिया, दिगम्बर होकर प्रतिमा संस्कार करना अलग बात है और दिगम्बर होकर महाव्रत धारण करना अलग बात है। प्रतिष्ठा प्रदीप संग्रहीत प्रतिष्ठा ग्रंथ में पं. नाथूलाल जी शास्त्री ने ग्रंथ में द्वितीय भाग पृष्ठ 185 पर सूरिमंत्र का 108 बार जाप प्रतिष्ठाचार्य करें। पश्चात् उसी मंत्र को मुनि से प्रतिमा में दिलाने का निर्देश दिया है। प्रतिष्ठा चंद्रिका संग्रहीत ग्रंथ के पृष्ठ 236 पर पं. श्री शिवराम जी पाठक लिखते है कि मुनि ब्रह्मचारी के अभाव में स्वयं नग्न होकर प्रतिष्ठाचार्य 108 बार जाप करके समस्त प्रतिमाओं को मंत्रित करें। यद्यपि मैंने जीवन में अनेकों बार महाव्रती मुनिराजों के अभाव में प्रतिमाओं को दिगम्बर होकर सूरिमंत्र दिये हैं मुझे नहीं लगता कि यह गलत है। क्योंकि सूरिमंत्र का पाठ अंतरंग बहिरंग परिग्रह का कुछ समय के लिए त्याग कर मूर्ति का संस्कार किया गया है । सूरिमंत्र देना भी एक संस्कार की ही क्रिया है। मेरे देखने में यह नहीं आया कि किसी आगम आचार्य ने ऐसा कहीं उल्लेख किया हो कि सूरिमंत्र किस विधि से कौन, कैसे दे। अगर परम्परागत सूरिमंत्र प्रतिमा में देने की बात आई है तो मेरी दृष्टि में भी यह अच्छी परम्परा है कि सम्पूर्ण संस्कारों के बाद प्रतिमा में एक निर्ग्रन्थ सूरिमंत्र दें। इससे दो लाभ हैं एक तो निर्ग्रन्थ जिन प्रतिमा की तीर्थंकर जैसी सम्पूर्ण पात्रता के लिए सूरिमंत्र से आभाषित करना । दूसरे महाव्रताचरण जैसा महाभागी पूज्यशाली व्यक्ति ही महाव्रताचरण की अंतिम श्रेणी में अवस्थित होने की पात्रता का संस्कार दे। इस दृष्टि से भी सार्थक है। लेकिन महाव्रती के अभाव में प्रतिष्ठाचार्य को संस्कारित करें। इसमें मेरी दृष्टि में कहीं दोष नहीं है। -527 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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