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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सूरिमंत्र विधान -
प्रतिमा में सूरि मंत्र देने का विधान पूर्वोचार्यों द्वारा प्रणीत प्रतिष्ठा ग्रन्थों में कहीं भी नहीं दिया है। सूरि मंत्र क्या है ? कैसा है ? प्रतिमा में कैसे सूरिमंत्र देना चाहिए । इसका क्या विधि विधान है ? ऐसी जानकारी किसी पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रंथ में देखने में नहीं आई। दक्षिण भारत में तो आज भी प्रतिमा में सूरिमंत्र देने की परम्परा नहीं है । सूरिमंत्र देने का प्रथम संकेत वि.सं. 1042-1053 में आचार्य जयसेन ने अपने प्रतिष्ठा ग्रन्थ में दिया है। “अथ सूरिमंत्र" ऐसा लिखकर आगे जो मंत्र लिखा है वह यह है -
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं. णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं चत्तारि मगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगल, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि शरणं पव्वज्जामि, अरिहंते शरणं पव्वज्जामि, सिद्धे शरणं पव्वज्जामि, साहू शरणं पव्वजामि, केवलि पण्णत्तं धम्म शरणं पव्वज्जामि, क्रों ही स्वाहा।
इस सूरिमंत्र को ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी ने अपने संग्रह प्रतिष्ठाचार में यही सूरिमंत्र दिया है। पं. गुलाबचंद्रजी ने अपने प्रतिष्ठा संग्रह ग्रंथ प्रतिष्ठा रत्नाकर में पं. मन्नूलाल प्रतिष्ठाचार्य की डायरी में संग्रहीत कर लिखा लेकिन वह ब्र. शीतलप्रसाद की यथावत नकल है।
आचार्य जयसेन के पूर्व एवं परावर्ती आचार्यों ने कहीं भी किसी प्रकार के सूरिमंत्र का उल्लेख अपने ग्रन्थों में नहीं किया ।प्राण प्रतिष्ठा मंत्र भी परवर्ती विद्वानों ने अपने संग्रहीत ग्रन्थों में जो सूरिमंत्र लिखे है वह विभिन्न प्रकार है जैसे प्रतिष्ठादर्पण में गणधराचार्य श्री कुन्थसागर जी ने लिखा - "ॐ हीं झूहूं, सुंस: क्रौं ह्रीं ऐं अहं नम:'
पं. नाथूलाल जी ने प्रतिष्ठा प्रदीप ग्रन्थ में लिखा है -
ॐ हाँ ह्रीं हूँ ह्रौं ह: अ सि आ उसा अहं ॐ ह्रीं स्म्ल्यूं जम्ल्यूँत्म्ल्यूँ लम्ल्यूं ब्ल्यूँ फ्ल्यूँ भल्यूँ क्षयूँ कम्ल्यूँ हूँ हाँ णमो अरिहंताणं ॐ हीं णमो सिद्धाणं ॐ हूँ णमो आइरियाणं ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं ॐ हृ: णमो लोए सव्वसाहूणं अनाहत पराक्रमास्ते भवतु ते भवतु ते भवतु ह्रीं नमः । प्रतिष्ठा चंद्रिका में पं. शिवराजजी पाठक ने लिखा है:
"ॐ ह्रीं ऐं श्रीं भू ॐ भुव: ॐ स्वः ॐ मा: ॐ हा: ॐ जनः" तत्सविहुवरे एयं गर्भो देवाय धी महीधि योनि असिआ उसा णमो अरिहंताणं अनाहत पराक्रमस्ते भवतु ते भवतु । प्रतिष्ठाचार्य श्री सोरया जी ने अपने "प्रतिष्ठा दिवाकर" ग्रंथ में लिखा है।
आचार्यकल्प पं. आशाधरजी ने अपने प्रतिष्ठा सारोद्धार ग्रन्थ में सूर्य मंत्र का निर्देश तो नहीं किया लेकिन केवलज्ञान होने पर निम्नांकित मंत्र पाठ का निर्देश दिया -
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