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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तथा बाहुबलि को राज्य देकर युवराज पद प्रदान किया । अन्य पुत्रों को भी यथायोग्य राज्य प्रदान किये।
पश्चात् शिबिका (पालकी) द्वारा पुरिमतालपुर के सिद्धार्थ वन में जाकर चैत्रकृष्ण नवमी के शुभलग्न में वस्त्राभूषणों का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा को अंगीकार किया । सर्वप्रथम छह मास का अनशन और मौनपूर्वक ध्यान दशा में स्थिर हो गये। इसके पूर्व वैराग्य के समय पंचम स्वर्ग के निवास स्थान से पधारकर आठ लौकान्तिक सम्यग्दृष्टि देवों ने ऋषभदेव के वैराग्यपूर्ण विचारों का समर्थन एवं स्तवन को किया । ध्यान समाप्त कर आहारचर्या के लिए विहार किया । दिगम्बर साधु को आहारदान की विधि के अनभिज्ञ होने के कारण छह माह तक अंतरायों के आने पर भी मुनिराज ऋषभ संतोष के साथ मौन धारण किये रहे । नगरों में विहार करते हुए इस युग के सर्वप्रथम ऋषभ मुनिराज ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया | उनके प्रथम दर्शन कर नगर के महाराजा श्रेयांस और सोमप्रभ की पवित्र आत्मा में पूर्व जन्म में दिगम्बर मुनि को दिये गये आहार
और उसकी विधि का स्मरण हो गया । तत्काल उन्होंने नवधा भक्ति के साथ मुनिराज ऋषभ को इक्षुरस का दान देकर एक वर्ष तेरह दिनों की पारणा कराने का पुण्य अवसर प्राप्त किया। उसी समय पाँच उत्सवों का दृश्य उपस्थित हुआ (1) दुन्दुभिवाद्यों की ध्वनि, (2) पुष्पवर्षा, (3) मंदमंदपवन (4) सुगंधित जल की मंद वर्षा , (5) जय जय कार । ऋषभ मुनिराज ने दीर्घकाल के पश्चात् इक्षुरस का आहार लेकर 'शाकाहार' के आदर्श को प्रसिद्ध किया । यह पुण्य अवसर था वैशाख शुक्ला तृतीया जो अक्षय तृतीया पर्व के नाम से लोक में और पुराणों में प्रसिद्ध है।
हस्तिनापुर से यथा समय विहार, तपस्या और उपदेश करते हुए अनेक नगरों से पार होकर पुरिमतालपुर (प्रयाग) के शकटनाम उद्यान में वट वृक्ष के नीचे शिलातल पर पूर्वाभिमुख विराजमान मुनिराज ऋषभ ने शुक्ल ध्यान के प्रभाव से फाल्गुन कृष्णा एकादशी की शुभवेला में सम्पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त किया । देव, इन्द्र, विद्याधर, मानव, भरतचक्री, कामदेव बाहुबलि आदि महापुरूषों ने पुरिमतालपुर में दीक्षा कल्याणक के समान केवल ज्ञान कल्याणक का विशेष पूजा के साथ महोत्सव किया। इसलिए इस पुरिमतालपुर का नया नाम प्रयाग (प्रकृष्ट: यागा: पूजा यस्मिन् नगरे संजाता इति प्रयागः) अर्थात् दो कल्याणकों की विशेष पूजा जहाँ हुई उसको प्रयाग कहने लगे । यवन संस्कृति की अपेक्षा इलाहाबाद प्रसिद्ध हो गया | उसी समय वह वटवृक्ष 'अक्षयवट' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। केवल ज्ञान का उदय एक हजार वर्ष की घोर तपस्या का सुफल है जो घातिकर्मो के क्षय से होता है।
उसी समय इन्द्र की आज्ञा से कुवेर देव ने गोल विशाल समवशरण की रचना की। जिस में बारह सभायें चारों और शोभायमान होने लगी - (1) गणधर आदि मुनि प्रवर, (2) कल्पवासी देवियां, (3) ज्योतिषदेवियां, (4) व्यंतरदेवियां, (5) भवनवासी देवियां, (6) भवनवासी देव, (7) व्यंतरदेव, (8) ज्योतिषदेव, (9) कल्पवासी देव, (10) आर्यिका तथा श्राविका, (11) मानव (12) संज्ञीपशु - पक्षी । चौबीस घण्टों में 2.24 मि. उपदेश पश्चात् 3.36 मि. विराम, चार समय भगवान ऋषभदेव का दिव्य उपदेश - अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह ,स्याद्वाद (अनेकान्तवाद) अध्यात्मवाद, कर्मवाद, मुक्तिवाद और सिद्धांत विषयों पर होता था ।
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