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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रयाग से विहार करते हुए भगवान ऋषभदेव ने सैकड़ों वर्षों तक आर्यावर्त के शत् शत् नगरों में विहार कर देव मानव और पशु पक्षी समाज को सम्बोधित किया।
विहार की समाप्ति होने पर भगवान् ऋषभदेव कैलाश पर्वत की शिलापर पूर्वाभिमुख पद्मासन से विराजमान होकर श्रेष्ठ चतुर्थ शुक्ल ध्यान के द्वारा अघातिकर्मो का क्षय कर माघ कृष्णा चतुर्थी के प्रातःकाल ब्राह्म मुहूर्त में नित्य परमात्मपद (मुक्ति धाम ) को प्राप्त हो गये । इसी समय देव इन्द्र, विद्याधर मानव, भरतचक्री, बाहुबलि आदि महापुरूषों ने एकत्रित होकर केवल ज्ञान कल्याणक का महोत्सव अनुपम भक्ति के साथ समाप्त किया। भगवान ऋषभदेव के पाँचो ही कल्याणक विश्व का कल्याण करने वाले हैं। भगवान ऋषभदेव की प्राचीनता -
भारतीय इतिहास, पुरातत्व और संस्कृति से तीर्थंकर ऋषभदेव का अस्तित्व सिद्ध होता है। पंजाब के ऐतिहासिक स्थान मोहन जोदड़ो और हड़प्पा के पुरातत्व में कतिपय मूर्तियाँ और मुद्रायें ऐसी हैं जिनका - सम्बंध इतिहासज्ञ ऋषभदेव से स्थापित करते हैं । इन नग्नमूर्तियों की पूर्णसमानता जिनमूर्तियों से मिलती है। इन मूर्तियों की समानता लोहानीपुर (पटना) से प्राप्त मौर्य कालीन और सुंगकालीन मूर्तियों के धड़ से होती है। स्व. डा. काशीप्रसाद जायसवाल और डा. ए. वनर्जी शास्त्री पुरातत्वज्ञों ने इन मूर्तियों को जिन मूर्ति ही पहचाना है। (अहिंसावाणी वर्ष 7, अंक अप्रैल मई 1950 पृ. 54)
सिन्धु घाटी उपत्यका (तलहटी) से प्राप्त मुद्राओं पर भी ऐसे योगियों की आकृतियाँ हैं जो नग्न, शिरोभाग पर त्रिशूल (रत्नत्रय) चिन्ह, कायोत्सर्ग, नाशाग्रदृष्टि से अंकित है। वृषभ का चिन्ह भी है। इसलिए प्रो. रामप्रसाद चंदा (पुरातत्वज्ञ) ने इन मूर्तियों को ऋषभ देव का पूर्व रूप माना है। कलिंग के अग्रजिन ऋषभदेव -
खण्डगिरि उदय गिरि के प्रसिद्ध हाथी गुफास्थित शिलालेख में अग्रजिन नामक उस ऋषभ मूर्ति को महाराज खारवेल द्वारा, मगध से कलिंग को वापस लाने का उल्लेख मिलता है, जिस ऋषभमूर्ति को नंदराज आक्रमण करके मगध ले गया था। इससे स्पष्ट है कि नंदराज के समय में आदि जिन की मूर्तियों का निर्माण होने लगा था। रानीगुफा आदि में भी ऋषभजिन की प्राचीन मूर्तियां मिली है। अत: ऋषभ मान्यता महाराज नंदकाल से भी प्राचीन प्रमाणित होती है। (जर्नल ऑफ दी विहार एन्ड ओड़ीसा रिसर्च सोसायटी, भा. 3 पृ. 467)
मथुरा (उ.प्र.) कंकाली टीला से प्राप्त ऋषभजिन की प्राचीन मूर्तियां और आयागपट्ट, जिन पर मोहन जोदड़ों की मुद्राओं पर अंकित योगियों के सिर पर बने त्रिशूल (रत्नत्रय) व वृक्ष, ठीक वैसे ही बने हुए हैं, आदि ऋषभ जिन के अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं। यदि ऋषभदेव नाम का कोई महापुरूष हुआ ही न होता तब उनकी मूतियां कैसे बन सकती थी। (अहिंसावाणी: डा. कामता प्रसाद जैन पृ. 56)
इत्यं प्रभाव ऋषभोऽवतार: शंकरस्य में । सतां गति: दीन बंधुर्नवम: कथितस्तवन ॥
(शिवपुराण 4/47) (150
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